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(२१७)
कवि भूधरदास (५७६)
सवैया दिढशील शिरोमनि कारज मैं, जग में जस आरज तेइ लहैं । तिनके जुगलोचन वारज हैं इह भांति अचारज आप कहै ॥ परकामनि को मुखचंद्र चितै, मैंद जाहिं सदा यह टेक गहै । धनि जीवन है तिन जीवन को धनि माय उनै उरनाय वहै ॥
(५७७)
सवैया जे परनारि निहारि' निलज्ज, हँसे विगसैं बुधिहीन बड़े रे । जूठन की जिमि पातर पेखि, खुशी उर कूकर होत घने रे ॥ है जिनकी यह टेव वहै तिनको इस भौ अपकीरति है रे । है परलोक विषै दृढ दंड, करै शतखंड सुखा चल केरे॥
बुध महाचन्द्र
(५७८)
लावनी मरहठी तजो भवि व्यसन सात सारी । लगे निज कुल कै' अतिकारी ॥ टेर ॥ जुवात सरव द्रव्यनाशे ॥ करै नर मिल तांकी' हांस ॥ सबन में नहीं प्रतीत तां सै" । जुवारी घलै राज फांसै१ ॥ दोहा-पांडव से हो गये बली जूवाते अतिख्वार२ ।
बाराबरस तक राज हार के भ्रमें महा३ बनचार ॥ तजो जूवा बहु दुखकारी ॥ तजो. ॥१॥ मांस तैं जीव घातते हैं। जीभ के लम्पट'५ सेवै हैं ॥
नर्क में दुक्ख लहेव हैं। पिंड अघको मुख लेबें हैं ॥ दोहा—बक राजा बहु पुरुष हते" मांस भक्षण के काज ।
पांडव भीम बाली से पाये मरण नर्क दुख पाज ॥ मांसते दुख पावै भारी ॥ तजो. ॥ २ ॥
१.देखना २.वंश को ३.अतिचार ४.सब ५.उसकी ६.हंसी ७.विश्वास ८.उससे ९.जुआड़ी १०.नष्ट होता ११.फंसता है १२.बहुत वरबादी १३.महावन में भटके १४.मारते है १५.जीभ के लालची १६.पाते है १७.पाप को १८.मारके ।
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