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(१५२) महाकवि दौलतराम
(४२३) आपा' नहीं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥ टेक ॥ देहाश्रित कर क्रिया आपको मानत शिवमगचारीरे ॥१॥ निज निवेदन विन घोर परीषह विफल कही जिन सारी रे ॥ २ ॥ शिव चाहै तो द्विविधकर्म तैं का निज परनति न्यारी रे ॥३॥ 'दौलत' जिन निजभाव पिछान्यों तिन भव विपति विदारी रे ॥४॥
कविवर सुखसागर
(४२४) करो मन आतम वन में केल ॥ टेक ॥ होय सफल नरभव यह दुर्लभ हो शिखरमणी मेल । भववाधा' मिट जाय छिनक में, छूटे कर्मन जेल । निजानंद पावे अविनाशी, मिटि है सकल दलेल । निज राधा संग राचो हरदम, हो सुख सागर खेल ॥ करे ॥
कविवर महाचंद्र
(४२५) ये ही अज्ञान पना जिवड़ा २ तूने निज पर भेद न जाना रे ॥ टेक ॥ तू तो अनादि अमर अरूपी निर्जर सिद्ध समाना रे ॥१॥ पुद्गल जड़ में राचिके'३ चेतन होय रहा मूर्ख प्रधाना रे ॥ २ ॥ कहत सबै जगवस्तु हमारी जैसे बकत" अयाना रे ॥३॥ आतम रूप सम्हारि भजो जिन बुध महाचन्द वखाना" रे ॥ ४ ॥
कविवर दौलतराम
(४२६) आतमरूप अनूपम अद्भुत, याहि'६ लखे भवसिन्धु तरो ॥ टेक ॥ अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आलम को ध्याय" खरो । केवलज्ञान पाय भवि° बोधे, ततछिन पायो लोक शिरो ॥१॥
१.आत्मस्वरूप २.मानता है ३.आत्मज्ञान ४.घातिया अघाति या कर्म ५.पहचान ६.नष्ट किया ७.क्रीडा ८.संसार के दुख ९.क्षणभर में १०.दण्ड स्वरूप कवायद ११.आत्मा १२.जीव १३.लीन होकर १४.अज्ञानी बकता है १५.वर्णन किया १६.इस को जानकर १७.संसार पार करो १८.चक्रवर्ती ४.खरा ध्यान किया १९.भव्यजनों को ज्ञान कराया २१.मोक्ष ।
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