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(१५६) लखो' निज को कि ये ही है परम आतम परम ज्ञानी । यही सुख शान्ति सागर है न जाना था अनादी से ॥ ४ ॥ मुझे निज दुर्ग में वसना' जहाँ आना न कर्मों का । ओ 'सुखसागर' नहाना है, न पाया था अनादी से ॥५॥
(४३३) आतम स्वरूप सार को जाने वही ज्ञानी । है मोक्ष पन्थ रूप वही, मोक्ष विज्ञानी ॥ टेक ॥ है यह अनेक धर्मरूप, गुणमई आतम । एकान्त नय ना देख सके आतम सुज्ञानी ॥१॥ कोई कहै वह शुद्ध है कोई कहे अशुद्ध । है शुद्ध भी अशुद्ध भी यह जैन की वानी ॥ २ ॥ है कर्मबन्ध इसलिये, अशुद्ध यह आतम। स्वभाव से है शुद्ध यही बात प्रमानी ॥३॥ कोई कहे नित्य कोई, कहता है, है अनित्य । यह नाश रहित गुणमई है, नित्य सुज्ञानी ॥४॥ पर्याय पलटता रहे हो मैल से उजला । परिणाम भई तत्व में, अनित्यता मानी ॥५॥ करता है निज स्वभाव का, पर का नहीं करता। भोगता है स्वभाव का, यह बात सुहानी ॥६॥ है मोह ने अज्ञान में इसको फँसा डाला । सुज्ञान भाव धारते हो, आतम महानी ॥७॥ भवदधि से निकलने का यही मार्ग निराला । पाता है 'सुखदधि' को, न. जिसका कोई सानी ॥८॥
___महाकवि बुधजन
(४३४) जान लियो मैं जान लियो, आपा प्रभु मैं जान लियो । परमेश्वर में सेवक को भ्रम, एक छिनक में दूर कियो ॥१॥
१.देखा २.रहना ३. अनेकान्त ४. एकान्त दृष्टि से ५. शुद्ध भी है अशुद्ध भी है ६. जिनेन्द्र देव का कथन ७. प्रामाणिक ८. महान् ९. आत्म स्वरुप १०. क्षण भर में।
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