________________
(२०९) कर्ता होय राग रुष' ठानै पर को साक्षी रहत न यहै । व्याप्य सुव्यापक भाव बिना किमि परको करता होत न यहै ॥३॥ जब भ्रम नींद त्याग निजमें निज हित हेत' सम्हारत है। बीतराग सर्वज्ञ होत तब ‘भागचन्द' हित सीख कहै ॥४॥
(५५९) है यह संसार असार दुख का घर रे । ये विषय भोग दुख खान, इनसों तू डर रे ॥ टेक ॥ इनमें दुख मेरु' समान, सौख्य ज्यों राई । सो भी सब आकुल तामय पड़त दिखाई ॥ इसकी उपमा इस भांति गुरु समझाई । सो सुनो सकल दे कान कहं समझाई ॥ इसके सुनने में सुधी ध्यान अब धर रे ॥ ये वि. ॥ इक पथिक महावन मांहि, फिरे था भटका । ता पर गज दौड़ा एक तभी वह सटका ॥ सो कुएँ में तरु की मूल पकड़ कर लटका । ता तरु क्रोध वश जा हाथी ने झटका । तरु से मधुमाखी उड़ीं शोर अति कर रे ॥ ये विषय. ॥ पंथी को मखियाँ चिपट गई अति प्यारे । जड़ काटे मूसे११ दोय स्वेत२ अरु कारे३ । चौ नाग४ एक अजगर कुये में मुख फारे । देखें ऊपर को गिरे पथिक किस वारे ॥ तहां टपकी मधु की बूंद पथिक मुख पर रे ॥ ये विषय. ॥ शठ चांटत मधु का स्वाद, सभी दुख भूला । कर आशा लखे ऊपर को, जड़ से झूला । तहाँ से खग५ दम्पत्ति जाते थे गुण मूला । तिन देख दया कर कहे, वचन अनुकूला । निकले तो लेय निकाल, तुझे ऊपर रे ॥ ये विषय. ॥ बोला पंथी इक बूंद, शहद मुख आवे १. द्वेष २. किस प्रकार ३. प्रेम ४. दुख की खान ५. मेरु पर्वत के समान बड़े ६. राई के समान छोटा ७. बड़ा जंगल ८. चला गया ९. पेड़ १०. झटका दिया ११. दो चूहे १२. सफेद १३. काले १४. चार सांप १५. विद्याधर दम्पत्ति ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org