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(२०५ )
कवि ज्योति
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संसार ॥
॥ २ ॥
समझ मन स्वारथ का हरे वृक्ष पर पक्षी बैठा गावे राग सुखा वृक्ष गयो उड़ पक्षी, तजकर' दम े में बैल वही मालिक घर आवत तावत बांधो द्वार बृद्ध भयो तब नेह' न कीन्हों, दीनो तुरत विसार पुत्र कमाऊ सब घर चाहे, पानी पीवे वार । भयो निखट्टू दुर दुर पर पर, होवत बारम्बार ॥ ३ ॥ ताल पाल पर डेरा कीनों, सारस नीर निहार I सूखा नीर ताल को तज गये, उड़ गये पंख पसार ॥ ४ ॥ जब तक स्वारथ सधे तभी तक अपना सब परिवार ।
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टेक
मल्हार
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नातर बात न पूछे कोई, सब बिछड़े संग छार ॥ ५ ॥ स्वारथ तज निज गह परमारथ किया जगत उपकार । 'ज्योती' ऐसे अमर देव के गुण चिन्तै १३ हरबार १४ ॥ ६ ॥
कवि शिवराम
नहीं
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प्यार ॥ १ ॥
(५५१)
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समझकर देख ले चेतन जगत बादल की छाया । कि जैसे ओस का पानी, या सपने में मिली माया ॥ टेक कहाँ है राम औ लछमन, कहाँ सीता सती रावन कहाँ हैं भीम और अर्जुन, सभी को काल जमाये ठाट यहाँ भारी, बनाये बाग महल यह संपति छोड़ गये सारी नहीं रहने कोई क्यों करता तूं मेरी तेरी, नहीं मेरी
ने
किसने है
कोई
कोई
हो पल की पल में सब ढेरी, तुझे किसी का तू नहीं साथी, न तेरा यूं ही दुनिया चली जाती, न कोई महा दुर्लभ है ये नरभव, रहा है
काम कुछ मुफ्त में क्यों खो ।
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खाया ॥ १ ॥ वारी१५ ।
पाया ।। २ ।।
तेरी ।
बहकाया ॥ ३ ॥ संगाती १६ ।
आया ॥ ४ ॥
१. छोड़कर २. क्षण भर में ३. आता है ४. तब तक ५. प्रेम ६. भुलाकर ७. दूर हो, तिरस्कार ८. पराया ९. तालाब १०. सिद्ध होना १९. अन्यथा १२. छोड़कर १३. चिन्तवन कर १४. बार-बार १५. बाड़ी, बगीचा १६. साथी ।
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