________________
( १७१)
हरिहर ब्रम्हा को काल' ग्रास कर जावै 1 तब और कौन होगा
जब कर्म उदय दुख होय जीव विललावै तिहिवार अनेक अनेक प्रकार जतन
करवावै 11
विन पुण्य उदय के दुख का अंत न आवै । सब जंत्र मंत्र औषधी, विफल हो जावै कोई राख सकै नहिं जीव देह तजि जब आवै आयु को अंत मरन तब हो 1 मूरख मन में पछताय बहुत सा रोवै ॥ विपरीत काम कर बीज पाप का बोवै
सरन सहाई ॥ मोही. ॥ १ ॥
सब देवी देव मनाय धर्म निज खोवै 11
नहिं कभी किसी ने किसी की आयु बढ़ाई ॥ मोही. ॥ ३ ॥
योगिनी माता
1
॥
ग्रह व्यंतर भेरव जक्ष नहिं पावै मन का इष्ट दुखी विललाता तौ भी नहिं छोड़े निंद्य देव सुखदाता | जगमांहि 'जिनेश्वर' सरन सदा सुखदाई
कवि न्यामत
ܘ
(४६८)
Jain Education International
I
जाई ॥ मोही. ॥ २ ॥
मद मोह की शराब ने, आपा' आपा भुला दिया तुझे, बेसुध चेतन तेरा स्वरूप था, जड़ सा जड़ कर्मों के फंदे में है, तुझको निशदिन कुमति को संग में तेरे
दामिन सुमति सी रानी को कर से छुटा दिया ॥ मद ॥ २ ॥ उपयोग ज्ञान गुन तेरा, ऐसे दबा दिया ।
अब न्यामत जैसे बादलों ने सूरज छिपा दिया ॥ मद ॥ ३ ॥
भुला दिया
॥मोही. ॥ ४ ॥
I
बना दिया ॥ टेक ॥ बना दिया ।
फंसा दिया ॥ मद ॥ १ ॥ लगा दिया ।
१. मृत्यु २. उस समय ३. यत्न, प्रयत्न ४. बोता है ५. खोता है ६. यक्ष ७. रोता है ८. आत्मस्वरूप ९. अचेतन से १०. कुबुद्धि ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org