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(४६४) कर्म बड़ा देखो भाई, जाकी चंचलताई ॥ कर्म बड़ा ॥ टेक ॥ राजा छिन मैं रंक' होत हैं भिक्षुक' पावै प्रभुताई ॥ जाकी. ॥ १ ॥ निर्धन धनिक होय सुख पावै, धन विन होय निधनताई ॥ जाकी. ॥ २ ॥ शत्रु मित्र सम सब दुख देवै मित्र करै फिर कुटिलाई ॥ जाकी. ॥ ३ ।। सुत त्रिय बांधव को निज जानै सो निज अहित करै भाई ॥ जाकी. ॥ ४ ॥ सुख दुख मैं परदोज न दीजै, यही 'जिनेश्वर' बतलाई॥ जाकी. ॥ ५ ॥
महाकवि भूधरदास
__(४६५) अन्त कसौं न छुटै निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजै ॥ चाहत है चित मैं नित ही सुख होय न लाभ मनोरथ पूजै ॥ तो पन मूढ़ वंध्यौ भय आस, वृथा बहु दुःख दवानल भूजै । छोड़ विचच्छन ये जड़ लच्छन धीरज धर सुखी किन हूजै ॥
(४६६) जो धन लाभ लिलाट' लिख्यौ, लघु दीरघ सुक्रतकै३ अनुसारे । सो लहि है कछु फेर" नहीं मरूदेश के ढेर सुमेर सिधारै ।। घाट न बाढ़ कहीं वह होय कहा कर आवत सोच विचारै । कूप किधौ६ भर सागर मैं नर, गागर मान मिलै जल सारै ॥
कवि जिनेश्वरदास
(४६७) कोई नहिं सरन७ सहाय८ जगत में भाई । मोही नहिं भानै सुगुरू वचन सुखदाई ॥ टेर ॥ ज्यों नाहर पगतर पर्यो हिरन विललावै । त्यों जीव कर्मवश पर्यो बहुत दुख पावै ॥ या जगत° विषै अतिबली, इन्द्र नश जावै ।
१.चंचलता २.गरीब ३.भिखारी ४.निर्धनता ५.कुटिलता ६.दूसरे को दोष न दो ७.कैसे भी ८.कांपता है ९.पूर्ण होना १०.दावानल में जलना ११.क्यों नही होता १२.भाग्य में १३.पुण्य के अनुसार १४.कुछ फर्क नहीं १५.कुआँ हो या समुद्र पानी घड़े भर ही मिलेगा १७.शरण १८.सहायक १९.बाघ के चरणों में पड़ा हिरण रोता है २०.इस संसार में।
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