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(१८४) कवि जिनेश्वरदास
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रेखता जिनधर्म रत्न पायके, स्वकाज ना किया। नर जन्म पायके वृथा, गमाय' क्यों दिया ।।टेक ॥ अरहंत देव सेव सर्व सुक्ख की मही', तजके बुधी कुदेव की आराधना गही। पण अक्ष तो परतच्छ, स्वच्छ ज्ञान को हरैं । इनमें रचे कुजीव जे, कुजोनि' मैं परै ॥ जिनधर्म. ॥१॥ परसंग के परसंगतै० परसंग ही किया । तजके सुधा स्वरूप को जलक्षार२ ही पिया । जिन धर्ममद मोह काम लोभ की झकोर में परो । तज इनको ये बैरी बड़े लखि ३ दूर से डरो ॥जिनधर्म. ॥ २ ॥ हिरदै४ प्रतीत कीजिए, सुदेव धर्म की । तजि राग द्वेष मोह, ओ कुटेव कर्म की ॥ सजि वीतराग भाव जो स्वभाव आपना । विधि५ बंध फंद के निकंद भाव आपना ॥ जिनधर्म. ॥ ३ ॥ मन का६ मता निरोध, बोध७ सोध लीजिए। तजि पुण्य पाप बीज , आप खोज कीजिए । सधर्म का यह भेव श्री गुरु देव ने कहा । शिववास काज यों ‘जिनेशदास' ने गला ॥ जिनधर्म. ॥ ४ ॥
रेखता
(५०१) रत्नत्रय धर्म हितकारी, सुगुरु ने यो बताया है । मिलै ना दाव' फिर ऐसा वक्त यह हाथ आया है ॥ टेक ॥ सुकुल° नर जन्म मुश्किल है, नहीं हर बार पाता है । सुसंगति ज्ञान उत्तम क्या हमेशा हाथ आता है ॥रत्नत्रय. ॥ १ ॥
१.अपना काम २.खोकर ३.पृथ्वी ४.बुद्धि ५.ग्रहण की ६.पांचों इन्द्रिया ७.प्रत्यक्ष ८.खोटीयोनि ९.परिग्रह १०.प्रसंग को ११.दूसरों का साथ १२.खाराजल १३.देखकर १४.हृदय में १५.कर्मबंध १६.मर की चंचलता १७.ज्ञान प्राप्त कीजिए १८.भेद १९.मौका २०.अच्छा कुल ।
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