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(१६७)
कवि बाजूराय
(४५७) धर्म एक शरण जिया, दूसरो न कोई ॥ टेक ॥ संपति गजराज बाज चक्रवर्ति की समाज । तात मात भ्रात सबै, स्वारथ के लोई ॥ धर्म. ॥१॥ तीन लोक सार वस्तु, आन सो मिले समस्त । ऋद्धि सिद्धि वृद्धि भला, स्वर्ग मुक्ति सोई॥ धर्म. ॥२॥ सिंह सर्प श्वान चोर, वैरी को न चलै जोर ।।
अगनि मांहि जरत' नाहि बूढ़त नहि तोई ॥ धर्म. ॥ ३ ॥ भवदधि से पार-करण, अष्ट कर्म नाश करण । 'बाजूराय' धर्म शरण, भव भव में होई॥ धर्म. ॥४॥
कवि मक्खनलाल
(४५८) सुख के सब लोग संगाती' हैं, दुख में कोई काम न आता है । जो सम्पति में आ प्यार करें वह विपति में आँख दिखाता है ॥ सुत मात तात चाचा ताई, परिवार नार भगिनी भाई । खुदगर्ज मतलबी यार सभी, दुनिया का झूठा नाता है ॥ धन माल खजाने महल हाट', हाथी घोड़े रथ राज पाट। सब बनी बनी के ठाट बाट, बिगड़ी में पता न आता है ॥ क्या राजा रंक फकीर मुनी, नरनारि नपुंसक मूर्ख गुनी । 'मक्खन' इमि वेद पुरान सुनी, सबही को कर्म सताता है ।
कवि भैया भगवतीदास
(४५९) कहा परदेशी को पतियारो॥ कहा.॥ टेक ॥ मल मानें तब चले पन्थ को सांझ गिने न सकारो१ । सबै कुटुम्ब छांड इतही पुनि, त्याग चले तन प्यारो ॥ कहा. ॥१॥ दूर दिशावत'३ चलत आप ही कोउ न राखन हारो ।
१.लोग २. जलता नहीं ३.डूबता नही ४.जल ५.साथी ६.नाराज होता ७.स्वार्थी ८.बाजार ९.अच्छे १०.भरोसा ११.सबेरे १२.यहीं पर १३.अन्य देश ।
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