________________
(१५५) निज में निज को देख देख मन होवे केवलज्ञान ।।
अपना लोक आपमें राजत अविनाशी सुखदान 'सुखसागर' नित वहे आपमें कर मंजन' रजहान ॥
(४३१) निज रूप को विचार निजानन्द स्वादलो। भवभय मिटाय आप में, आपो सम्हार लो ॥ टेक ॥ अपना स्वरूप शुद्ध, वीतराग ज्ञानमय निरमल फटिक समान, यही भाव धारलो ॥१॥ ये क्रोध मान आदि भाव, ये आत्मा के हैं विभाव सुख शान्तिमय स्वभाव का, रूपक चितारलो ॥२॥ नही मान आतम भाव है विकार कर्म का । मार्दव स्वभाव सार है, इसको विचारलो ॥ ३ ॥ माया नहीं निजातम है विकार मोह का । आर्जव स्वधर्म स्वच्छ यही तत्व धारलो ॥ ४ ॥ नहिं लोभ है स्वरूप है चारित्र मोहिनी । शुचिता अपार सार, इसे भी सम्हारलो ॥ ५ ॥ चारो कषाय शत्रु, निजातम के हैं प्रबल । इनके दमन के हेतु आत्मध्यान धारलो ॥६॥ सब कर्ममल निवारिये, यदि शिव की चाह है । 'सुखदधि' विशाल आप, सुखकन्द सारलो ॥७॥
(४३२) मुझे निरवान'२ पहुंचन की लगी लौ३ है अनादी से । मैं किस विध कार्य साधूंगा यही इच्छा अनादी से लिया व्यवहार का सरना न निश्चय से करी मिल्लत५ । इसी से हो रहा रुलना', चतुर्गति में अनादी से ॥२॥ परम निश्चय उमड़ आया, कि पाया आपका दर्शन मिटाया ध्यान सब पर का जो छाया था अनादी ने ॥ ३ ॥
१.स्नान २.पापों का नाश ३.संसार के भय को मिटाकर ४.स्फटिक ५.देखलो ६.पवित्रता ७.अपनी आत्मा के ८.मजबूत ९.दबाने को १०.दूर कीजिए ११.इच्छा है १२.निर्वाण-मोक्ष १३.इच्छा, चाह १४.शरण १५.घनिष्ठता १६.भटकना ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org