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(१५१)
आतम' राम ज्ञान गुन लछमन सीता' सुमति समेत । शुभोपयोग बानर दल मंडित वर विवेक रण खेत ॥१॥ ध्यान धनुष टंकार शोर सुनि, गई विषयादिति भाग । भई भस्म मिथ्यामत' लंका, उठी धारणा आग ॥ २ ॥ जरे अज्ञान भाव राक्षस कुल करे निकांछित सूर। जूझे रागद्वेष सेनापति संशै गढ़ चकचूर ॥३॥ विलखत कुम्भकरण भवि विभ्रम पुलकित मन दरियाव । थकित उदार वीर महि रावन सेत° वंध समभाव ॥४॥ मूर्छित मंदोदरी दुराशा सजग चरन हनुमान । घटी चतुर्गति परणति सेना छूटे छपक गुणवान ॥ ५ ॥ निरखि सकति गुन चक्र सुदर्शन, उदय विभीषण दीन । फिरे कबंध मांहि रावन की प्राणभाव शिरहीन ॥६॥ इह विधि सकल साधु घट अंतर होय सकल संग्राम । यह विवहार र दृष्टि रामायण केवल निश्चय राम ॥ ७ ॥
कवि कुंजीलाल
(४२२) निज रूप१३ सजो भव'४ कूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो । चित पिंड अखंड प्रचंड जिया, तुम. रत्नकरंड" कहावत हो ॥ टेक ॥ स्वर्गादिक में पछतावत हो, नर देह मिली तो करो तप को अब भूलि गये मद६ फूल गये, प्रतिकूल भये इतरावन" हो ॥१॥ दुख नर्क निगोद विलाप तहाँ, अति शीत व ऊष सहे तुमने वहाँ ताती' त्रिया° लपटाती तुम्हें फिर हू मद में लपटावत हो ॥ २ ॥ त्रस थावर त्रास सहे बंधन, वध छेदन भेदन भूख सही । सुख रंच२१ न संच२२ करो तुम क्यों परपंचन२३ में उलझावत हो ॥ ३ ॥ तेरे द्वार पै कर्म किवार लगै, तापै मोह ने ताला लगाया बड़ा । सम्यक्त्व की कुंजी से खोल भवन, 'कुंजी' क्यों देर२५ लगावत हो ॥ ४ ॥
१.आत्मारूपी राम २.सदुद्धि रूपी सीता ३.रण-क्षेत्र ४.मिथ्यामत रूपी लंका ५.संशय रूपी रोग ६.नदी ७.समभाव रूपी सेतुबंध ८.दुराशा रूपी मंदोदरी ९.धड़ मात्र १०.सिर सहित ११.अभाव में १२.व्यवहार दृष्टि ही १३.आत्म स्वरूप १४.संसार सागर १५.पिटारा १६.घमण्डी हो गये १७घमण्ड करते हो १८.गर्मी १९.गर्म २०.स्त्री २१.थोड़ा २२.संचय करना २३.प्रपंच २४.कर्मरूपी किवाड़ २५.लगाते हो।
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