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(१३०) सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहुगुणनि गायो ॥५॥ सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जबहि चित जुगल चरननि लगायो ॥६॥ भयो निहाचित्त' 'द्यानत' चरन शर्नगयि, तार अब नाथ तेरो कहायो ॥७॥
(३६८) मेरी बेर कहा ढील करी जी ॥टेक ॥ सूली सों सिंहासन कीनों, सेठ सुदर्शन विपति हरीजी ॥१॥ सीतासती अंगनि में पैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पै खड्ग चलायो, फूलमाल कीनी सुथरी जी ॥२॥ धन्या वपी परयो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी। सिरीपाल सागर तैं तारयो, राजभोग के मुकत बरी जी॥ ३ ॥ सांप कियो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी ॥ 'द्यानत' मैं कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥४॥
(३६९) प्रभु अब हमको होहु सहाय ॥ टेक ॥ तुम बिन हम बहु जुग दुख पायो; अब तो परसे पांय ॥प्रभु. ॥१॥ तीन लोक में नाम तिहारो है सबको सुखदाय । सोई नाम सदा हम गावैं रीझ जाहु पतियाय ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ हम तो नाथ कहाये तेरे, जावैं कहां सु बलाय । बांह गहे की लाज निवाह्यौ, जो हो त्रिभुवन राय ॥प्रभु. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' सेवक ने प्रभु इतनी विनती करी बनाय । दीनदयाल दया घर मन में, जम २ लेहु बचाय ॥प्रभु. ॥ ४ ॥
(३७०) हो स्वामी जगत जलधिते तारो॥ हो. ॥ टेक ॥
१.निश्चिन्त २.शरण ३.मेरी बारी में ४.ढिलाई ५.विपत्ति दूर की ६.आग को पानी कर दिया ७.श्रीपाल राजा ८.सोमा सती ९.चरण स्पर्श किया १०.विश्वास करके प्रसन्न हो जाओ ११.कहां जाऊं बताइये १२.यम से बचालो ।
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