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(३९६)
राग-दीपचन्दी यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ॥ टेक ॥ निज चेतन स्वरूप नहि जानै, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित यह तह अति अकुलावै ॥१॥ दूष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढावै । निज हित हेत भाव चित सम्यक दर्शनादि नहिं ध्यावै ॥ २ ॥ इन्द्रिय तृप्ति करन के काजे, विषय अनेक मिलावै । ते न मिले तब खेद खिन्न है सचमुच हृदय न ल्यावै ॥३॥ सकल कर्म छय लच्छन लछित मोच्छ दशा नहि पावै। 'भागचन्द' ऐसे भ्रम सेती, काल अनंत गमावै ॥४॥
(३९७) सत्ता रंगभूमि में नटत ब्रह्म नर राय ॥ टेक ॥ रत्नत्रय आभूषण मण्डित, शोभा अगम अथाय । सहज सखा निशंकादिक गुन, अतुल समाज बढ़ाय ॥१॥ समता बीन मधुर रस बोले ध्यान मृदंग बजाय । नदत निर्जरा नाद अनूपम नूपुर संवर ल्याय ॥२॥ लय निज रूप मगनता ल्यावत, र नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ जग३ मह आय ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' आपहि रीझत तहाँ, परम समाधि लगाय । तहाँ कृतकृत्य सु होत मोक्ष निधि, अतुल इनामहि पाय ॥ ४ ॥
(३९८)
राग-दीपचन्दी धनाश्री तू स्वरूप जाने विन दुखी, तेरी शक्ति न हल्की वे ॥ टेक ॥ रागादिक वर्णादिक रचना, सोहे सब पुद्गल की वे॥ तू. ॥ १ ॥ अष्ट गुनातम ६ तेरी मूरति सो केवल में झलकी वे ॥ तू. ॥ २ ॥
१. वहां २. बहुत दुखी होता है ३. कर्म बंधनों ४. आत्म-कल्याण के लिए ५. दुखी ६. मोक्ष ७. नाचता है ८. रत्नत्रय रूपी अलंकार ९. बोलता है १०. आवाज ११. लीनता १२. लाता है १३. संसार में १४. इनाम १५. कम, थोड़ी १६. आठ गुण स्वरूप १७. केवलज्ञान में प्रकाशित ।
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