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(१४६) ज्ञान दरश सुख बल भंडारा चार अघाति बहाऊंगा' ॥ मै. ॥ ३ ॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्ध पद परमानंद कहाऊंगा । 'द्यानत' यह सम्पत्ति जब पाऊं, बहुरि न जग में जाऊंगा ॥ मैं ॥ ४ ॥
(४१०) आतम अनुभव कीजै हो ॥टेक ॥ जनम जरा' अरु मरन नाशकै अनंत काल लौं जीजे हो ॥आतम. ॥ १ ॥ देव धरम गुरु की सरधाकरि, कुगुरु आदि तजि दीजै हो । छहों दरब नव तत्व परख चेतन सार गहीजै हो ।आतम. ॥ २ ॥ दरब करम नो करम भिन्न करि सूक्ष्म दृष्टि धरीजै हो । भाव करमतें भिन्न जानिकै बुद्धि विलास न मरीजै हो ॥ आतम. ॥ ३ ॥ आप आप जानै सो अनुभव, 'द्यानत' शिवका दीजै हो । और उपाय वन्यो नहि बनि है करै सोदक्ष कहीजै हो ॥ आतम. ॥ ४ ॥
(४११) कर रे ! कर रे !! कर रे !! तू आतम हित कर रे ! ॥ टेक ॥ काल अनन्त गयो जग भ्रम २ भव भव के दुख हर रे ॥ आतम. ॥१॥ लाख कोटि भव तपस्या करतें जीतो३ कर्म तेरी जर रे । स्वास उस्वास मांहिं सो नासै, जब अनुभव चितधर रे॥ आतम. ॥ २॥ काहे कष्ट सहै बन मांही, राग दोष परिहर४ रे । आज होय समभाव बिना नहीं भावौ पचि पचि मर रे ॥आतम. ॥ ३ ॥ लाख५ सीख की सीख एक यह आतम निज पर पर रे । कोट ग्रन्थ का सार यही है 'द्यानत' लखभव तर रे ॥आतम. ॥ ४ ॥
राग-गौरी हमारो कारज७ ऐसें होय ॥टेक ॥ आतम आतम पर८ पर जानैं हीनो संशय खोय ॥ हमारो. ॥ १ ॥ अंत समाधि मरन अरि तन तजि, होय शक्र सुरलोय,
१. बहा दूंगा २. बुढापा ३. और ४. जीवित रहे ५. श्रद्धा करके ६. परख कर ७. धारण कीजिये ८. भाव कर्म से ९. बुद्धि विलास १०. मोक्ष ११. चतुर १२. प्रमण करते हुए १३. जितने १४. त्याग दो १५. लाखों शिक्षाओं की एक शिक्षा १६. करोड़ों ग्रन्थ १७. कार्य १८. दूसरे को दूसरा जानना १९. इन्द्र २०. स्वर्ग लोक ।
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