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( १३८ )
९. आत्म-स्वरूप
(पद ३९० - ४४८) महाकवि बुधजन (३८७)
राग तिताला
और' ठौर क्यों हेरत' प्यारा तेरे ही घट में जानन हारा ॥ टेक ॥ हलन चलन थल बास एकता, जात्यन्तर तैं न्यारा न्यारा ॥ १ ॥ मोह उदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिक का सर
।
भ्रमत फिरत चारों गति भीतर जनम मरन भोगत दुखभारा ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पर्दा आपा, तबहि विभाव करै परिहारा । है एकाकी 'बुधजन' निश्चल पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ ३ ॥
(३८८)
कौन करत है
या
नित. ॥ १ ॥
या नित चितवो' उठि कै भोर, मैं हूं कौन कहां तै आयो कौन हमारी ठौर ॥ टेक ॥ दीसत कौन-कौन यह चितवत, १० शोर । ईश्वर कौन-कौन है सेवक कौन करे उपजत कौन मरे को भाई, कौन गया नहीं आवत? कछु नाहीं, परिपूरन और ₹१३ और मैं और १४ रूप है, परनति स्वांग धरैं डोलो याही तैं, तेरी 'बुधजन'
घोर 1
झकझोर ॥
डरे ११
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सब ओर ॥
करि १५ भोर ॥
(३८९)
राग काफी कनड़ी
लखि
या
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लइ
या
|| मैं. 11 टेक ||
१७
मैं देखा आतम रामा रूप फरस६ रस गंध तैं न्यारा, दरस ज्ञान गुन धामा । नित्य निरंजन जाकै नाहीं क्रोध लोभ मद कामा ॥ मैं. ॥ १ ॥ भूख प्यास सुख दुख नहि जाके नाही वन" पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहिं तात नहिं मामा ॥ मैं. ॥ २ ॥ भूलि अनादि थाकी जग भटकत, लै पुद्गल" का जामा 1
नित. ॥ २ ॥
और |
नित. ॥ ३ ॥
१. दूसरी जगह २. देखता है ३. ज्ञाता ४. अन्य जातियों से ५. सृष्टा ६. अपना पद देखता है ७. त्यागा ८. प्रतिदिन चिन्तवन करना ९. देखता कौन है १०. चिन्तवन कौन करता है ११. देखकर डरता है १२. आता है १३. दूसरों से १४. भिन्न १५. दूसरी परनति कर ली १६. स्पर्श १७. अलग १८. जंगल, नगर, ग्राम १९. पुगलका रूप लेकर ।
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