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(१३६) तुमको आतम सिद्ध भयो प्रभु हम तन' बन्ध धरो । यातें भई अधोगति हमरी, भवदुख अगनिजरो ॥ प्रभु, ॥३॥ देख तिहारी शान्त छवि को, हम यह जान परो । हम सेवक तुम स्वामि हमरे हमहि सचेत करो ॥ प्रभु. ॥४॥ दर्शन मोह हरी हमरी मति, तुम लख सहज टरो । 'चम्पा' सरन लई अब तुमरी भवदुख रोग हरो ॥ प्रभु. ॥ ५ ॥
कवि कुंजीलाल
(३८५) तुम हो दीनन के बन्धु, दया के. सिन्धु करो भव पारा । तुम बिन प्रभु कौन हमारा ॥ टेक ॥ मोहादि शत्रु वलशारी हैं, इनने सब सुबुद्धि विसारी है। इन दुष्टों से कैसे होवे छुटकारा ॥ तुम. ॥ पंचेन्द्रिय विषय नचाते हैं नहिं त्याग भाव कर पाते हैं । विषयों की लम्पटता ने ध्यान विसारा ॥ तुम. ॥ ये कुटुम विटम्ब सताते हैं नहिं धर्म ध्यान कर पाते हैं इन कर्मों ने निजज्ञान दबाया सारा ॥ तुम. ॥ ऐसो भवसिन्धु अपारी है, वह रहे सभी संसारी है अब तुम्ही कहो कैसे. होवे निस्तारा ॥ तुम. ॥ पर देव बहुत दिखलाते हैं, सब राग द्वेष युत पाते हैं । ये खुद अशान्त किम" देंय शान्ति का द्वारा ॥ तुम. ॥ तुम डूबत भविक उबारे हैं ‘कुंजी' हूं शरण तिहारे हैं । मोय.२ दे समकित का दान, करो उद्धारा ॥ तुम. ॥
महाकवि भूधरदास
(३८६)
ढाल परमादी अहो जगत गुरू एक सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी ॥१॥
५.शरीर बन्ध किया २.आग में जला ३.बुद्धि का हरण कर लिया ४.शक्तिशाली ५. ही भुला दी ६.विषयों की आसक्ति परिवार ८.निर्वाह ९.अन्य देव १०.सहित ११.कैसे १२.मुझे।
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