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(१२०) सो जग मल ‘दौल' को चिर चित मोह विलास ह्रदैसै ॥ ४ ॥
महाकवि बनारसीदास
(३३८)
राग-धनाश्री चेतन तोहि न नेक, संभार ॥ टेक ॥ नख' शिख लौं दृढ़ बंधन बैढ़े कौन करे निखार ॥चेतन. ॥ जैसे आग पषाण काठ में लखियः न परत लगार । मदिरापान करत मतवारो, ताहि न कछू विचार ॥चेतन. ॥ १॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आपहि डारत छार । आपहि उगल पाट को कीड़ा, तनहि लपेटत तार ॥चेतन. ॥ २ ॥ सहज कबूतर लोटन को सो, खुले न पेंच अपार । और उपाय न बनें बनारसि सुमरन भजन अधार ॥चेतन. ॥ ३ ॥
महाकवि भैया भगवतीदास
(३३९)
राग-केदार छांड़ि दे अभिमान जिय रे ॥ टेक ॥ काको तू अरु. कौन तेरे सबही हैं महि मान । देख राजा रंक कोऊ थिर नही यह थान ॥ छोड़ि दे.॥ १ ॥ जगत देखत तोरि चलिवो, तू भी देखत आन'। घरी पल की खबर नाही यहा होय विहान २ ॥ छोड़ि दे. ॥ २ ॥ त्याग क्रोध अरु लोभ माया मोह मदिरा वान । राग द्वेषहिं टार अंतर'३ दूर कर अज्ञान ॥छांड़ि दे. ॥ ३ ॥ . भयो सुखद देव कबहुं कबहुं नरक निहान । इम कर्मवश बहु नाच नाचै 'भैया' आप पिछान ॥छोड़ि दे. ॥४॥
१. नख से शिखा तक २. घेरे हैं ३. लगार दिखाई नहीं देती ४. नहाकर ५. धूल डालता है ६. रेशम का (कीड़ा) ७. शरीर में (धागा लपेटता) ८. स्मरण ९. मेहमान, १०. स्थान ११. दूसरे को १२. सबेरा १३. हृदय से १४. पहचान।
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