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(१२१) कविवर कुंजीलाल होली - ठेका दीपचन्दी
(३४०) चेतन भ्रमत अधीर हो, कुमता' रंग लागे॥ चेतन. ॥टेक ॥ सच्चिद्रूपचिदानंद स्वामी, परम शांति गंभीर ।हो क्यों विषयनि लागे ॥ चेतन. ॥ १ ॥ शुद्ध भाव वैराग्य बिताकै कुल मंडन सुतवीर, हो क्यों बनत अभागे ॥ चेतन. ॥ २ ॥ धर्म शुक्ल है मित्र तिहारे, महाबली गुणधीर, हो क्यों निजपद त्यागे ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ सिद्ध शिला माता के नंदन, दया सरोवर वीर, हो क्यों अब हूं न जागे । चेतन. ॥ ४ ॥ कुमति सौत भरमाय पिलायो, तुमको मदिरा नीर, हो दुर्गति अनुरागे ॥ चेतन. ॥ ५ ॥ 'कुंज' कहे सुमता संग लागे, मिलत शांति जागीर, हो केवल पद जागे ॥ चेतन. ॥ ६ ॥
महाकवि भैया भगवतीदास
(३४१) हो चेतन वे दुख, बिसरि गये ॥ टेक ॥ परे नरक में संकट सहते, अब महाराज भये । सूरी सेज सबै तन वेदत,° रोग एकत्र ठये हो. ॥ १ ॥ करत पुकार फिरत दुख पावत, करमन आन'२ दये । कहूं शीत कहूं उष्ण महा भुवि, सागर आयु लगे ॥हो. ॥ २ ॥ निकस पशूगति पाइ तहां के दुख ना जाय कहे । शीत उष्ण और भूख वृषा के अकथ जु दुक्ख लहे ॥हो. ॥ ३ ॥ कठिन कठिन कर नरभव पाया, काहे. न चेत लये५ । अब प्रमाद तज चेतहु 'भैया' श्री गुरु के बच ये हो. ॥ ४ ॥
१. कुबुद्धि का प्रभाव २. विषय भोगों में लीन ३. कुल की शोभा बढ़ाने वाले ४. क्यों अभागे बनते हो ५. क्यों आत्म-स्वरूप (पद) त्यागते हो ६. कुबुद्धि रूपी सौत ७. मदिरा जल पिला दिया ८. भूल गये ९. शूली १०. दुख देती है ११. रोग इकट्ठे हो गये १२. कमों ने दुख लाकर दिये १३. अवर्णनीय १४. मुश्किल से १५. सावधान क्यों नहीं होता।
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