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मानव का परमधर्म है और इसी माध्यम से वह आत्म-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है। उनका एक पद भाव की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भाषा की दृष्टि से भी सन्त कबीर के पद से साम्य रखता है।यथापानी बिच मीन प्यासी मोहि सुन-सुन आवे हाँसी । आतम ज्ञान बिन सब सूना क्या मथुरा क्या काशी । मृग की नाभि माँहि कस्तूरी वन-वन फिरत उदासी ।। (कबीर०) मोहि सुन-सुन आवे हाँसी पानी में मीन प्यासी । ज्यों मृग दौड़ा फिरे वनन में ढूँढे गन्ध वसे निज तन में। कोई अंग भभूत लगावें कोई शिर पर जटा चढ़ावै ।
कोई चढ़ा गिरनार द्वारिका कोई मथुरा कोई काशी ।। (पद० २३९) कवि चुन्नीलाल___आधुनिक युग के भक्त कवि चुत्रीलाल ने अपने पद (सं० ५५२) में आत्मा के कल्याण को ही सर्वोपरि माना है। उसके अनुसार यह सांसारिक-जीवन जल के बुलबुले के समान क्षणिक है। अत: मानव को चाहिए कि वह आत्म-ज्ञान को प्राप्त करे और अप्रमत्त रहकर आत्म-उद्धार की ओर अग्रसर हो।
कवि चुन्नी लाल का समय अज्ञात है। किन्तु वे २०वीं सदी के मध्यकाल के कवि प्रतीत होते हैं। कवि कुमरेश___ कवि कुमरेश का पूरा नाम पं० राजेन्द्र कुमार जैन है। किन्तु वे कवि कुमरेश के उपनाम से अधिक प्रसिद्ध रहे।
__ कवि कुमरेश ने आयुर्वेदिक पद्धति की जन-चिकित्सा सेवा से समाज में ख्याति अर्जित की। उन्होंने आयुर्वेदिक कालेज कानपुर से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की थी।
कवि कुमरेश ने सन् १९३२ ई० में साहित्य-लेखन कार्यारम्भ किया तथा आध्यात्मिक एवं भक्तिपरक पदों की रचना की। इनके अतिरिक्त भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक काव्यों में उनके द्वारा लिखित “अञ्जना” एवं “सम्राट चन्द्रगुप्त" नाम खण्डकाव्य साहित्य जगत में बहुचर्चित रहे।
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