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_ (२५१) ज्ञानी जीव दया नित पालैं ॥टेक ॥ आरंभ" परघात होत है, क्रोध घात नित टालैं॥ ज्ञानी. ॥१॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय बदन में । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचे नरक सदन में ॥ज्ञानी. ॥ २ ॥ करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै सो परमारथ व्यापी ॥ज्ञानी. ॥ ३ ॥ शिथिलाचार निरुद्यम रहना सहना बहु दुख भ्राता । 'द्यानत' बोलन' डोलन' जी मन, करै जतन सों ज्ञाता ॥ज्ञानी. ॥ ४ ॥
(२५२)
राग - असावरी भाई। ज्ञानी सोई कहिये ॥टेक ॥ करम उदय सुख दुख भोगे” राग विरोध न लहिये ॥भाई. ॥ १ ॥ कोऊ ज्ञान क्रिया कोऊ, शिव मारग बतलावै । नम निहचै विवहार साधिकै दोऊ चित्त रिझावै ॥भाई. ॥ २ ॥ कोई कहै जीव छिन भंगुर, कोई नित्य वखानै । परजय दरवित नभ परमानै दोउ समता आने ॥ भाई. ॥ ३ ॥ कोई कहै उदय१ है सोई कोई उद्यम बोले । 'द्यानत' स्याद्वाद सु तुला २ में, दोनों वस्तैं तोलै ॥भाई. ॥ ४ ॥
(२५३)
कवि सुखसागर स्व सम्वेदन सुज्ञानी जो, वही आनन्द पाता है । न पर का आसरा'३ करता, सदा निज रूप ध्याता है ॥ टेक ॥ न विषयों की कोई चिन्ता उसे वेजार करती है । लावा बिष रूप है जिसको वह क्योंकर याद आता है। कषायों की जो लहरें हैं न जिसके जल को लहराती । जो निश्चल" मेरु सदृश है, पवन घन'६ न हिलाता ।
१. आरंभ से २. हिंसा ३. दोषी ४. बोलने में ५. चलने में ६. यत्न, कोशिश ७. राग द्वेष ८. निश्चय ९. व्यवहार १०. पर्याय ११. कमोदय १२. अच्छी तराजू १३. भरोसा, सहारा १४. बेचैन १५. अटल १६. बादल।
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