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(१०७)
महाकवि द्यानतराय (पद ३०३-३११)
(३०३)
राग-केदारो रे जिय ! जनम लाहो' लेह ॥ टेक ॥ चरन ते जिन भवन पहुंचे, दान दै कर जेह ॥ रे. ॥ १ ॥ उर सोई जामे दया है, अरू रुधिर को गेह ।। जीभ सो जिन नाम गावें सांच सौ करै नेह ॥रे. ॥ २ ॥
आंख तै जिनराज देखें, और आंखें खेह । श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह॥रे. ॥ ३ ॥ सफल तर इह भांति है, और · भांति न केह। कै सुखी मन राम ध्यावो कहैं सदगुरू येह ॥रे. ॥ ४ ॥
(३०४) तू तो समझ रे भाई ॥टेक॥ निशदिन विषय भोग लिपटाना धरम वचन न सुहाई ॥ तू. ॥ १ ॥ कर मनका'° लैं आसन मारयौ बाहिज' लोक रिझाई । कहा भयो बकरे ध्यान धरेतै, जो मन थिर न रिहाई ॥ तू. ॥ २ ॥ मास मास उपवास किये ते, काया बहुत सुखाई । क्रोध मान छल लोभ न जीत्या कारज कौन सराई१५ ॥ तू. ॥ ३ ॥ मन बच काय जोग थिर करकैं, त्यागो विषय कषाय । 'द्यानत' सुरग मोख६ सुखदाई, सद्गुरु सीख बताई ॥ तू. ॥ ४ ॥
महाकवि द्यानतराय
(३०५) विपति में धर धीर रे नर ! विपति में धर धीर ।।टेक ॥ सम्पदा ज्यों आपदा रे ! विनश जै है वीर ॥ रे नर. ॥ १ ॥ धूप छाया घटत बढ़े ज्यों त्योंहि सुख दुख पीर ॥ रे. ॥ २ ॥ दोष 'द्यानत' देय किसको, तोरि८ करम जंजीर ॥रे नर. ॥ ३ ॥
क्रोध मान छल जोग थिर कदाई, सद्गुरु
१.लाभ लो २.जैन मंदिर ३.हृदय ४.जिसमें ५.घर ६.प्रेम ७.राख,धूल ८.होगा ९.किसी प्रकार १०.माला के गुरिया ११.बाहर १२.बगुला ध्यान १३.जीता १४.कार्य १५.सिद्ध होना १६.मोक्ष १७.नष्ट हो जायेगा १८.कर्मों की जंजीर तोड़कर।
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