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(८६) तब निर्मल लखि पकरि करम रिपु गति' गति नाच नचावै ॥कुमती. ॥ ३ ॥ या परिकर सौं ममत निवारौ 'बुधजन' सीख सम्हारौ । धरम सुता सुमती संग राचौ, मुक्ति महल में पधारों ॥कुमती. ॥ ४॥
(२४६) महाकवि भागचंद
राग - जोड़ा ज्ञानी जीवन के भय होय न या परकार ॥ टेक ॥ इह भव परभव अन्य न मेरो ज्ञानलोक मम सार । मैं वेदक' इस ज्ञानभाव को, नहिं पर वेदन हार ॥ज्ञानी. ॥ १ ॥ निज सुभाव को नाशन तातै, चाहिये नहिं रखवार । परम गुप्त निजरूप सहज ही, पर का तहँ न संचार ॥ज्ञानी. ॥ २ ॥ चित्त स्वभाव निज प्राणवास को कोई नहिं हरतार । मैं चित पिंड अखण्डन तातें अकस्मात भय भार ॥ज्ञानी. ॥ ३ ॥ होय निशंक स्वरूप अनुभव, जिनके सह निरधार । मैं सो मैं पर सो मैं नहीं, भागचन्द भण्डार ॥ ज्ञानी. ॥ ४ ॥
(२४७)
महाकवि द्यानत जगत में सम्यक उत्तम भाई ॥टेक॥ सम्यक सहित प्रधान नरक में, धिक् सठ सुरगति पाई ॥जगत. ॥ १ ॥ श्रावकव्रत मुनिव्रत जे पालैं, ममता बुद्धि अधिकाई । तिनौं अधिक असंजम चारी, जिन आतम लब लाई ॥जगत. ॥ २ ॥ पंच-परावर्तन तैं कीनै बहुत बार दुख दाई । लख चौरासी स्वांग धरि नाच्यौ ज्ञान कला नहिं जाई ॥जगत. ॥ ३ ॥ सम्यक् विन तिहुँ जग दुखदाई जहँ भावै तहँ जाई ॥ 'द्यानत' सम्यक् आतम अनुभव सद्गुरू सीख बताई ॥जगत. ॥ ४ ॥
१. चारों गतियों में २. वेदन करने वाला ३. इसलिए ४. हरने वाला ५. भ्रम दूर करके ६. मूर्ख ७. पालन करता है ८. लो लगाई ९. जहां अच्छा लगे १०. वहाँ जाए।
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