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(२५६) सम्यग्ज्ञान बिना तेरो जनम अकारथ जाय । सम्यग् ॥ टेक ॥ अपने सुख में मगन रहत नहिं पर की लेत बलाय' । सीख गुरु की एक न मानै भव-भव में दुख पाय ॥ १ ॥ ज्यों कपि आप काठ लीला करि प्राण तजै बिललाय' । ज्यौं निज मुख करि जाल मकरिया आप मरै उलझाय ॥ २ ॥ कठिन कमायो अब धन ज्वारी छिन में देत गमाय । जैसे रतन पायकै भोंदू बिलखे आप गमाय ॥ ३ ॥ देव-शास्त्र-गुरु को निहचै करि मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति बांछा राखत याकी ऐसी नर परजाय ॥ ४ ॥
७-सदुपदेश (पद २५६-२६८)
राग सारंग लहरी
(२५७) तेरो करिलै काज बखत फिरना ॥ तेरे ॥टेक ॥ नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना ॥ तेरो. ॥ १ ॥ आन अचानक कंठ दबैगे१ तब तोकौं नाहीं शरना । यातै २ बिलम न ल्याव बावरे अब ही कर जो है करना ॥ तेरो. ॥ २ ॥ सब जीवन की दया धार उर दान सुपात्रनि कर धरना । जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति 'बुधजन' संवर आचरना । तेरो. ॥ ३ ॥
(२५८)
राग - पूरवी एक ताला तन के मवासी४ हो अयाना५॥ तनके ॥टेक ॥ चहुँगति फिरत अनंत कालतें अपने सदन की सुधि भौराना ॥१॥ तन जड़ फरस" गंध रस रूपी, तू तौ दरसन ज्ञान निधाना । तन सौं ममत" मिथ्यात मेटिकैं, 'बुधजन' अपने शिवपुर जाना ॥ २ ॥
१. बला, मुसीबत २. रोता है, छटपटाता है ३. जुआड़ी ४. रोते हैं, विलखते हैं ५. निश्चय करके ६. इच्छा ७. काम ८. मौका ९. लौटकर न आना १०. तुम्हारे वश में है ११. दवादेगा १२. इसलिए १३. ढेर १४. गढ़पति १५. अज्ञानी १६. भुला दी १७. स्पर्श १८. ममत्व।
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