________________
(६३)
पर को त्यागि आप थिर तिष्ठै, सो अविचल सुख पावै है ॥गुरु. ॥ ४ ॥
(१८४)
राग सोरठ गुरु ने पिलाया जी ज्ञान पियाला॥ गुरु ॥टेक ॥ भइ बेखबरी परभावां की निजरस मैं मतवाला ॥गुरु.॥ १ ॥ यों तो छाक' जात नहिं छिनहू मिटि गये आन जंजाला । अद्भुत आनंद मगन ध्यान में बुधजन हाल सम्हाला ॥ २ ॥
(१८५) सुणिल्यों जीव सुजान, सीख सुगुरु हित की कही ॥टेक ॥ रुल्यौ अनंती बार, गति गति साता ना लहि ॥ सुणि. ॥१॥ कोइक पुन्य संजोग श्रावक कुल नरगति लही । मिले दोष निरदोष, वाणी भी जिनकी कही॥ सुणि. ॥ २॥ झूठी आशा छोड़ि तत्वारथ रुचि धारि ल्यौ । या मैं कछू न विगार आपो आप सुधारि ल्यौ ॥ सुणि ॥ ३ ॥ तन को आतम मानि, भोग विजय कारज करो। यौ ही करत अकाज भव भव क्यों कूवे परो ॥ सुणि. ॥ ४ ॥ कोटि ग्रन्थ को सार जो भाई बुधजन करो । राग दोष परिहार,१२ याही भव सँ उद्धारौ ॥ सुणि. ॥ ५ ॥
__(१८६)
राग कलिंगड़ो हूं१३ कब देखू ते मुनि राई हो॥ हूं. ॥ टेक॥ तिल तुष मान न परिग्रह जिनकैं, परमातम ल्यों लाई हो ॥ हूँ. ॥१॥ निज स्वारथ के सबही बाँधव, वे परमारथ भाई हो । सब बिधि लायक शिवमग दायक तारन तरन सदाई हो ॥२॥
(१८७) मुनि बन आये बना५ ॥ मुनि. ॥ टेक ॥
१. तृप्त २. दूसरी झंझटे ३. सुन लो ४. मटका ५. अनेक गतियों में ६. सुत ७. किसी ८. धारण कर लो ९. अपने आप १०. कार्य ११. कुआँ १२. छोड़ दे १३. में १४. प्रेम १५. दुल्हा ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org