________________
(७७)
कवि जिनेश्वरदास
(२२२) मिथ्याभाव मत रखना प्यारे जी मिथ्याभाव दुखदानी बडा । मिथ्याभाव तजकैं निजहेरो', सो ज्ञाता जग जान बड़ा || टेर ॥ निज पर को बिन जाने जगत जन, कर्मजाल में आते हैं । धन दौलत विजयनि में फंसके बहुत भांति दुख पाते है ॥ १ ॥ विषयन से हट जा रे पृथ्वीजन इनको बिष चढ़ जावैगा त्रिसना लहर जहर का मरया फिर गाफिल हो जावेगा ॥ २ ॥ तन धन यौवन जीवन वनिता, इनको जो न अपनावैगा । ये तेरे नहिं संग चलेंगे, फिर पाछें?. पछतावैगा ॥ ३ ॥ तज पर भाव स्वभाव सम्हारे वीतराग पद ध्यावैगा । कहत 'जिनेश्वर' यह जग वासी, तव शिवमंदिर' पावैगा ॥ ४ ॥
1
(२२३) राग-केदारो
याही मानौ निश्चय मानौ तुम बिन और न मानौ ॥ टेक ॥ अबलौं गति' गति में दुख पायो, नाहि लायौ सरधाना ॥ १ ॥ दुष्ट सतावत कर्म निरंतर करौं कृपा इन्हें मानौँ भक्ति तिहारी भव अब पांऊ, जौलौं लहौं शिवथानों ॥ २ ॥
कवि भागचंद
(२२४) राग - दीपचन्दी सोरठ
प्रानी समकित ही शिवपंथा, या बिन निर्मल" सब ग्रन्था ॥ जा बिन बाह्यक्रिया तप कोटिक सफल वृथा है हम जुतरथ भी सारथ बिन जिमि चलत नहीं ऋजु भागचंद सरधानी नर भये शिवलछमी के
.१२
Jain Education International
रंथा ॥
पंथा ॥
कंथा १३ ॥
१. देखो खोजो २. साथ ३. पीछे ४. ध्यान करेगा ५. मोक्ष ६. अनेक गतियों में ७. ज्ञान करियो ८. जबतक ९. मोक्ष १०. मोक्षमार्ग ११. व्यर्थ १२. सरल (सीधा) मार्ग १३. पति ।
टेक ॥
प्रानी ॥ १॥
प्रानी. ॥ २ ॥ प्रानी ॥ ३ ॥
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org