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बाहर नारकिकृत दुख भोगे, अंतर सुख रस गटागटी रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति तैं नित हटाहटी ज्ञान विराग शक्ति विधिफल भोगत पै विधि घटाघटी सदन निवारी तदपि उदासी तातैं आश्रव छटाछटी ॥ २ ॥ जे भव हेतु अबुध केते तस करत वन्ध की झाझ नारक पशुतिय षट विकलत्रय प्रकृतिन की है कटाकटी' संयम धर न सकै पै संयम धारन की उर चटाचटी 1 तासु सुयश गुन की दौलत के लगी रहै नित रटारटी ° ॥ ४ ॥
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(२०२) जिन रागद्वेष त्यागा वह सतगुरु हमारा ॥ जिन. ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध" तृणावत १२ निज काज संभारा ॥ जिन राग ॥ १ ॥ रहता है वह वन खंड में धरि ध्यान कुठारा १३ । जिन मोह महातरु को जड़मूल" उखारा ॥ जिन राग. सर्वांग तज परिग्रह दिग अंवर धारा अनंत ज्ञान गुन समुद्र चारित्र भंडारा ॥ जिन राग. शुक्लागिन ६ को प्रजाल के वसु७ कानन जारा । ऐसे गुरु को दौल है नमोऽस्तु हमारा ॥ जिन राग. 118 11
॥ २ ॥
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॥ ३ ॥
१ ॥
(२०३)
धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिव" ओर नै ॥ धनि ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन १९ विधि धरत हरत भ्रम चोर नै ० ॥ धनि ॥ १ ॥ यथाजात " मुद्राजुत सुन्दर सदन विजन २२ गिरि को
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तृन कंचन अरि स्वजन गिनत सम निंदन और निहोरनै २३ ॥ धनि ॥ २॥ भवसुख चाह सकल तजि बल सजि, करत द्विविध तप घोरनै २४ ।
परम विराग भाव पवितैं २५ नित चूरत करम कठोरनै २६ ॥ धनि ॥ ३ ॥ छीन शरीर न हीन चिदानन मोह मोह झकोरनैं ।
१. गट- गट पीना २. देवता ३. हटना ४. कर्म फल ५. घटना ६. घर ७. छटना ८. काटना ९. चाट लगना १०. रटना ११. राज- ऋद्धि १२. घास की तरह १३. कुठार १४. मोह रूपी महान वृक्ष १५. जड़मूल से उखाड़ना १६. शुक्ल ध्यान रूपी आग १७. अष्ट कर्म १८. मोक्ष की तरफ १९. चारित्र २०. चोर को २१. जैसे उत्पन्न हुए २२. निर्जन जंगल के कोने में २३. स्तुति २४. घोट २५. वज्र २६. कठोर ।
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