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( ३९ )
महाकवि भागचंद (पद ११२-११५)
(११२)
॥
प्रभु तुम मूरत दृगसों' निरखै, हरखे मेरो जीयरा ॥ प्रभु तुम. भुजन कसायानल' पुनि उपजै, ज्ञान सुधारस वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसे भागचंद तुम चरन कमल में, वसत संतजन हीयरा
सीयरा
नीयरा'
(११३)
॥
बिन काम ध्यानमुद्राभिराम, तुम हो जगनाथ जी ॥ टेक यद्यपि वीतरागमय तद्यपि हो शिवनायक जी ॥ बिन. ॥ १ ॥ रागी देव आपही दुखिया, सो क्या लायक जी ॥ बिन ॥ २ ॥ दुर्जय मोह शत्रुहनने को तुम वचशसायक ̈ जी ॥ बिन. ॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवल ज्ञायक जी ॥ बिन. ॥ 'भागचंद' भागनतै' प्रापति', तुम सब ज्ञायक जी ॥ बिन. ॥ ५ ॥
३ ॥
४ ॥
(११४)
राग दीपचन्दी सोरह की
(१९१५) राग दीपचन्दी परज
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टेक ॥
लखिकैं स्वामी रूप को, मेरा मन भया चंगाजी " ॥ टेक ॥ विभ्रम नष्ट गरूड़ लखि जैसे भगत भुजंगाजी " ॥ लखि. ॥ १ ॥ शीतल भाव भये अब न्हायो, भक्ति सुगंगाजी ॥ लखि. ॥ २ ॥ ' भागचंद' अब मेरे लागो, निजरस १२ रंगाजी ॥ लखि. ॥ ३॥
॥
१ ॥
॥ प्र. ॥ २ ॥
|| 3 ||
महाराज श्री जिनवरजी, आज मैंने प्रभु दर्शन पाये ॥ टेक ॥ तुमरे ज्ञान द्रव्य गुण पर्जय १३ निज चित गुन दरसाये निज लच्छनतैं सकल विलच्छन ४ ततछिन परदृग " आये ॥ म. ॥ १ ॥ अप्रशस्त संक्लेश भाव अघ, कारन ध्वस्त १६ राग प्रशस्त उदय निर्मल पुण्य समस्त कमाये ॥
कराये ।
म. ॥ २ ॥
१. आंख से २. कषायाग्नि ३. शीतल ४. मोक्ष ५. पास ६. मारने को ७. वचन रूपी वाण ८. भाग्य से ९. प्राप्त १०. अच्छा ११. सर्प १२. आत्म- रस में लीन १३. पर्याय १४. विलक्षण १५. दूसरे की आंखें १६. नष्ट ।
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