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नन्दब्रह्म ___कवि नन्द ब्रह्म ने अपने संग्रहीत छोटे से पद (सं०२३४) में जैन दर्शन के गूढ़ रहस्य का समावेश करके उसके माध्यम से मानव को कल्याणकारी सन्देश दिया है। इसके अनुसार हृदय के मध्य सिद्धस्वरूपी वह सार वस्तु विद्यमान है जिसे आत्म-ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
कवि ने मन के लिए हाथी का रूपक देकर उसकी निरंकुशता का हृदयग्राही वर्णन किया है और बताया है कि वह हाथी सुमति रूपी संकल को खण्ड-खण्ड कर ज्ञान रूपी महावत को भी पछाड़ देता है और इन्द्रिय रूपी चपलता के वशीभूत होकर स्वच्छन्द डोलता फिरता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत पद सं० ५९१-५९२ में कवि नन्द कहते हैं कि इस मन रूपी मातंग को वैराग्य रूपी स्तम्भ से बाँध कर सावधानी पूर्वक उसे वश में कर लो। जीवन की सार्थकता इसी उद्यम में है।
एक अन्य पद में कवि ने मन को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा है कि मन तो हमेशा उल्टा चाल से चलता है लेकिन विवेक का पल्ला पकड़कर भेद-ज्ञान के द्वारा विवेकी जीव परमात्म-पद प्राप्त कर सकता है।
कवि नन्द का दूसरा नाम नरेन्द्र ब्रह्म भी प्रतीत होता है। इनका समय अज्ञात है। कविवर ज्योति
कविवर ज्योति के संग्रहीत चार (पद०सं० ४३६,४३८,४४०,एवं ५५०) पद आत्मतत्त्व की शाश्वतता तथा अध्यात्म की भवना से प्रपूरित हैं।
उन्होंने अपने पदों में अन्य जैन हिन्दी कवियों की अपेक्षा विविध प्रकार के उदाहरण देकर आत्मा को अनादि-निधन माना है और बताया है कि आत्मा को किसी भी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता। उनका यह कथन गीता से पूर्णतया प्रभावित है। यथा
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २/२३ कवि का समय वर्तमान सदी का मध्यकाल प्रतीत होता है।
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