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इसी प्रकार इन पदों की शब्द-योजना भी अद्भुत है, जो अपने शब्द-सौन्द्रर्य से आन्तरिक भावों को अत्यन्त प्रेषणीय बना देने की सामर्थ्य रखती है और जिनसे पाठक भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता।
"भगवंत भजन क्यो भूला रे । यह संसार रैन का सपना तन धन बारि-बबूला रे।। (पद०५३४)
उपयुक्त पद में "३" की आवृत्ति से प्रवाह में तीव्रता आ गई है। कवि ने भाषा के रूप को कुशलता पूर्वक सँवारा है। ग्रहणशीलता और प्रसादगुण इसकी अपनी विशेषता है।
वाक्य-गठन एवं पद-योजना भी उक्त पदों में अनूठी बन पड़ी है"पद्मसद्म पद्मा मुक्ति पद्म दरशावन है। कलिमल गंजन मन अलि रंजन मुनिजन शरन सुपावन है।।" (पद०१०५)
मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग भी भाषा-सौन्दर्य को द्विगुणित करने में सहायक हुए हैं-कथनी बिनु करनी (पद० ५८४), मुँह होय न मीठा (पद०५८४) नैन चकोरा (पद० ५१४), निपट दो अक्षर, (पद०२२१), नींव बिना मन्दिर चुनना (पद०२३८), चन्द्र बिहूनी रजनी (पद०२३८), अन्ध हाथे बटेर आई (पद०४९८), संशय बेलिहरी (पद०१९४), आदि।
इस प्रकार हिन्दी जैन साहित्य कई दृष्टियों से अपनी स्वतन्त्र पहिचान बनाये रखने में सक्षम है। उपलब्ध हिन्दी जैन रचनाओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि प्राचीन हिन्दी-साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो, जो उसमें उपलब्ध न हो। फिर भी, उसमें काव्यगुणों के अतिरिक्त उसके लोक-कल्याणकारी सन्देश, सार्वजनीनता, सार्वकालिकता एवं सार्वलौकिकता की दृष्टि से अनुपम है। इनका विश्लेषण स्थानाभाव के कारण यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि वह स्वतन्त्र रूप से एक प्रवृत्तिपरक भाषा-वैज्ञानिक, तुलनात्मक, समीक्षात्मक, लाक्षणिक एवं साहित्यिक इतिहास-लेखन का विषय है। इस दृष्टि से दुर्भाग्य से अभी तक उसके लेखन की
ओर किसी का ध्यान नहीं गया और इसी कारण हिन्दी जैन साहित्य एवं साहित्यकार अभी तक हिन्दी के क्षेत्र में उपेक्षितावस्था में ही चल रहे हैं और इसके बिना हिन्दी-साहित्य का इतिहास सर्वांगीण नहीं माना जा सकता।
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