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थे। उन्हें मूक-पशुओं पर तो दया आ गई और मैं, जो उनके वियोग में तड़प रही हूँ, मेरे आँसुओं पर उनकी करुणा कहाँ चली गई? अब वे मेरे इस विरह-दुख: को दूर करने क्यों नहीं आते? यथा"समझाओ जी आज कोई करुनाधरन आये थे व्याहन काज।।"(पद०२७)
राजुल का विरह-ताप इतना तीव्र हो जाता है कि चन्दन, कर्पूर और चन्द्रमा भी उसे शीतलता प्रदान नहीं कर पाते बल्कि उस पर विपरीत प्रभाव छोड़ते हैं। जब तक नेमिप्रभु नहीं मिलेगें, उसका हृदय शीतल नहीं होगा
नेमि बिना न रहे मोरा जियरा ।। (पद० ३४) वह सोचती है कि अब मेरे प्रियतम मुझे छोड़कर चले गए, तब मैं भी घर में नहीं रहूँगी। संसार की मर्यादा छोड़कर मैं उन्हें खोनँगी और लेकर आऊँगी
नाथ भए ब्रह्मचारी सखी घर में न रहूँगी ।। (पद०२८)
और बड़बड़ाती हुई वह सुकुमार राजकुमारी विरह में व्याकुल होकर घर से निकल पड़ती है और जड़-चेतन सभी से पूछती है कि क्या मेरे प्राणाधार नेमिकुमार को कहीं देखा है? मैं उनके वियोग में हल्दी की भाँति पीली हो गई हूँ। विरह रूपी इस प्रबल बेगवती नदी का जल बढ़ता ही जा रहा है और उसमें मैं निराधार होकर बह रही हूँ
___ "देख्यौ री ! कहीं नेमिकुमार ?।।" (पद० ३६) विवश राजुल के हृदय से निकले उसके ये विरहोद्गार अत्यन्त मार्मिक बन पड़े हैं और उसकी विरहदशा सभी को मर्माहत कर देनेवाली है।
भाषा
उक्त सन्दर्भित पदों की भाषा १७ वी, १८वीं, एवं १९वीं, सदी की खड़ी बोली है जिस पर राजस्थानी, ब्रज एवं उर्दू आदि बोलियों का प्रभाव पाया जाता है। उदाहरणार्थ - राजस्थानी
म्हेते, थापर (पद०१२७), वारी (पद०३४२), जाकी (पद०१२९), थानै (पद०३६३),वादी (पद० ३४२), थांका (पद०३६२), उभा (पद०३६३),जिवड़ा (पद०४२५), मोगरा, लोभीड़ा (पद०५२१), ढारी (पद०१२८), आदि।
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