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"तुम परम पावन देख जिन,
अरिरज रहस्य बिनाशनं ।।" (पद०३०) कवि द्यानतराय ने भगवान की मूर्ति का जो चित्र अपने पद में उत्कीर्ण किया है, वह हृदय के बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव उपस्थित करता है
" देखो भाई, श्री जिनराज विराजै।" (पद० ७९) कवि महाचन्द्र शरीर और आत्मा की भिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं
"देखो पुद्गल का परिवारा जामें-चेतन है एक न्यारा।।" (पद० २२८) विरहात्मक-पद
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी-साहित्य में विप्रलम्भ-काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इससे हिन्दी जैन साहित्य भी अछूता नहीं है। पुराणेतिहास-प्रसिद्ध घटना के अनुसार “यदुवंशी श्रीकृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ विवाह के तोरणद्वार तक पहुँच कर 'पिंजड़े में बन्द पशुओं की पुकार से अत्यन्त द्रवित हो उठे, उसी क्षण अपनी भावी पत्नी राजुल का परित्याग कर वैराग्य धारण कर वे ऊर्जयन्तगिरि पर तपस्या करने चले गये।
__ भारतीय इतिहास में यह एकमात्र अनूठी घटना है। इस घटना को आधार बनाकर जैन रचनाकारों ने प्रचुर साहित्य की रचना की, जिनसें बारह-मासा, षड्ऋतुवर्णन, जैसे खण्डकाव्य आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनमें वियोग की सभी दशाओं का मार्मिक चित्रण काव्यात्मक शैली में किया गया है। वे रचनाएँ किसी भाँति भी हिन्दी-साहित्य के विरह-काव्य से कम नहीं हैं। इस शैली में कुछ स्फुट पदों की रचना भी हुई है।
प्रस्तुत कृति में उक्त विषयक अनेक पद उपलब्ध है, जिनमें राजुल की विरहदशा का पारावार नहीं है। प्रिय विरह में तड़फते-तड़फते वह अन्तत: उन्हीं की साधना में रत होकर, उन्हीं के मार्ग का अनुशरण कर वैराग्य धारण कर लेती है और उसी पथ की पथिक बन जाती है।
राजकुमारी राजुल युवराज नेमिनाथ के विरह से संतप्त हो उठती है और कहती है कि कोई जाकर उन्हें समझाता क्यों नहीं? वे विवाह रचाने के लिए आए
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