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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
द्वन्द्ववाद के कितने ही तत्व उसमे मौजूद है। मध्यकाल में इस दर्शन की तर्क-प्रणाली और द्वन्द्ववाद उच्चस्तर पर पहुंचे और आदर्शवादी पहलू भी दृढ़तर हुआ था, फिर भी यथार्थ को नज़रअन्दाज नहीं किया गया। भगवान महावीर के मोक्ष के उपरान्त इस धर्म की प्रमुख दो शाखाएं हुई और क्रियावाद को भी महत्व दिया जाने लगा। यह बात प्रत्येक सम्प्रदाय में संभव हआ करती है। जैन धर्म की यह विचित्रता या विशिष्टता कही जायेगी कि 'जिसका उदय स्वयं ब्राह्मणवाद तथा वर्णाश्रम व्यवस्था व सम्प्रदायों के विरोध-स्वरूप हुआ था, किंतु वह खुद विभिन्न संप्रदायों में बंट गया है।'
जैन धर्म के तत्वों की एक विशिष्टता यह भी स्पष्ट प्रतीत होती है कि इसके बहुत से तत्व समाजाभिमुख है और बहुत से व्यक्ति-अभिमुख है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, कठोर तपस्या, राग-द्वेष-मोहादिका त्याग आदि व्यक्तिपरक हैं और विशेषतः साधु-समाज से इनके पालन की अपेक्षा की जाती है, गृहस्थों को इनके पालन में छूट-छाँटे दी गई है। लेकिन पर्वो की आराधना, पूजन, समताभाव, समता का व्यवहार, अनेकान्तवाद, विनम्रता, सहिष्णुता समाजलक्षी है। जैन धर्म के तत्वों की गहराई एवं विशालता सागर के समान हैं, जिसकी थाह पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। हम तो संक्षेप में यही कह सकते हैं कि उपर्युक्त प्रमुख पांच तत्वों पर आधारित जैन धर्म मानवता का संदेश देता हुआ अहिंसात्मक व्यवहार पर विशेष जोर देता है। उसी प्रकार क्षमादान, अवैरवृत्ति तथा मैत्री भावना का उच्चतम स्वरूप जैन धर्म में दृष्टिगत होता है
'खामेमि सत्व जीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे। . मित्तिम से सव्वभूयेषु, वैर मज्ज न केणई।'
अर्थात् 'मैं सब जीवों को क्षमा देता हूं और सब जीवों से क्षमा चाहता हूं। मैं सब जीवों का-प्राणीमात्र का-मित्र हूँ और मुझे किसी से वैर नहीं है।' आधुनिक काल में जैन धर्म के तत्वों की उपयोगिता :
जैन धर्म प्राचीनतम धर्म होने पर भी आधुनिक युग में भी उसका महत्व स्वीकृत है। उसकी चिन्तन प्रणाली प्रायः समाजाभिमुख रही है। समाज के साथ व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं प्राणीमात्र के कल्याण की भावना भी जैन दर्शन में अभिव्यक्त होती रही है। अहिंसा, सत्य, मैत्री, अवैर, क्षमा, समानता और परिमित परिग्रह की भावना का महत्व आज संपूर्ण विश्व के लिए आवश्यक 1. पं० दलसुख मालवणिया-'जैन धर्म चिन्तन'-पृ० 54. ___ आचार्य नथमल मुनि : जैन दर्शन : मनन और मीमांसा-जैनधर्म और दर्शन,
पृ० 54.