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विषय-प्रवेश
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सांप्रदायिकता के संकुचित घेरे में बहुत कम बंधा है। उस पर आरोप इससे विपरीत किया जा रहा है, यह भिन्न बात है। जैन दर्शन का आचार-शास्त्र भी जनतंत्र की भावनाओं से अनुप्राणित है, अर्थात् जन्म से ही सभी व्यक्ति समान है, धर्म द्वारा उस पर कोई बन्धन नहीं लादे जाने चाहिए। जैन धर्म की लोकतंत्रवादी भावना पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध विद्वान् आदित्यनाथ झा ने लिखा है कि 'भारतीय जीवन में प्रज्ञा और चारित्र्य का समन्वय जैन और बौद्धों की विशेष देन है। जैन दर्शन के अनुसार सत्यमार्ग परम्परा का अंधानुसरण नहीं है, प्रत्युत् तर्क और उपपत्तियों से संपन्न एवं बौद्धिक रूप से संतुलित दृष्टिकोण ही सत्यमार्ग है। इस दृष्टिकोण की प्राप्ति तभी संभव है, जब मिथ्या विश्वास पूर्णतः दूर हो जाय। इस बौद्धिक आधार शिला पर ही पंच तत्वों के बल से सम्यक चारित्र्य को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। जैन दर्शन के सभी तत्व सदैव महत्वपूर्ण हो सकते हैं। प्राचीन और मध्यकाल में तो इन तत्वों का काफी प्रचार हुआ था और आधुनिक युग में संकुचित लोक मानस, पाश्चात्य प्रभाव एवं भोग-विलास की अतिशयता के कारण इन तत्वों का महत्व क्षीण हो गया है, यह भिन्न बात है। मध्यकाल में सम्राट अकबर ने भी आचार्य हिरविजयसूरी से प्रभावित होकर अपने 'दीनेइलाही' में जैन धर्म को भी स्थान दिया था। अमरिकी दार्शनिक वीलडयुरेन्ट लिखते हैं-अकबर ने जैनों के कहने पर शिकार करना छोड़ दिया था और कुछ नियत तिथियों पर पशु हत्याएं रोक दी थी। जैन धर्म के प्रभाव में आकर ही अकबर ने अपने द्वारा प्रचलित 'दीनेइलाही' सम्प्रदाय में मांस-भक्षण के निषेध का नियम किया था।
__ जैन धर्म संपूर्णतः सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वकाल में संपन्न ही रहा हो ऐसी बात भी नहीं हैं। जैन धर्म जब तक समाज और राजनीति से संपृक्त रहा तब तक उसका चतुर्दिक विकास होता रहा। किन्तु जब वह उस सम्बल से रिक्त हुआ, लोक से कट गया तब उसमें कट्टरता एवं साम्प्रदायिकता का आवरण चढ़ गया
और उसका प्रभाव कुछ संकुचित हो गया। सौभाग्य से जैन धर्म में ऐसा बहुत कम ही हो सका है और यह धर्म आज भी अपनी आभा बिखेर रहा है। लोकोन्मुख रहकर ही सामाजिक दायित्व का वहन कर रहा है। समग्र जैन दर्शन को यदि हम समग्रतया देखेंगे तो उसमें पर्याप्त मात्रा में आदर्शवाद पाते हैं। यह कोरा आदर्शवाद न होकर भौतिकवाद के तत्वों से भी सुसम्बन्ध है। उसके तर्क अत्यन्त ही शक्तिपूर्ण है, तो उसका उपागम विश्लेषणात्मक है, साथ ही
1. जैन भारतवर्ष-अंक-42, पृ० 69. 2. द्रष्टव्य : Dr. Wil Durent-'Our oriental Herritage page. 467.