Book Title: Yogakshema Sutra
Author(s): Niranjana Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगक्षेम-सूत्र Uणा समिक्रवार प्रज्ञा से देखो कुमारी निरंजना जैन Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगक्षेम-सूत्र योगक्षेम-कल्याण, मंगल । योगक्षेम-अप्राप्त की प्राप्ति एवं प्राप्त का संरक्षण । (तेरापंथ धर्मसंघ में समायोजित योगक्षेम वर्ष में वर्षित अमृत-वचनों की सुचयनिका) संकलनक:-कमारी निरंजना जैन जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारी निरंजना के एकान्तर मौन व फलाहार के वार्षिक अनुष्ठान की सम्पन्नता पर श्री बुद्धमल, श्रीमति रतनीदेवी, श्री निर्मलकुमार, तुलसीराम, सुभाषकुमार चोरडिया, लाडनूं के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित । IS B No. 81-7195-007-8 प्रथम संस्करण । १९९० - मूल्य । बीस रुपये/प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)/ मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के बार्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१३०६ । YOGKSHEM-SUTRA ___Rs. 20.00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन साधना के अनेक मार्ग हैं। साधक अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार जिस मार्ग पर चलता है, उसी में उसे आनन्द की अनुभूति होती है। कुमारी निरंजना ने योगक्षेम वर्ष में एक वर्ष की विशेष साधना का संकल्प स्वीकार किया था। उसके साथ-साथ उस वर्ष हुए प्रवचनों के कुछ अंश सार-सूत्र रूप में संकलित कर अपने लिए स्वाध्याय की अच्छी सामग्री संगहीत कर ली। स्वाध्याय, ध्यान, जप, मौन आदि साधना के विविध प्रकार हैं। अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार वह साधना के क्षेत्र में विकास करती रहे, यही अपेक्षा है। २ नवम्बर, १९९० पाली आचार्य तुलसी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARES952 5668 आशीर्वचन BREEEEEEEEEEEE REEEEEEEEEEEEEE ॐ30 236838 202800 3636548565668 88888888 8 833 सूक्त थोड़े में बहुत कहने की कला है। सार वही जिसका कलेवर छोटा, मूल्य अधिक । वह चिन्तन से स्फूर्त नहीं होता, वह है सहजता की अभिव्यक्ति । बहन निरंजना ने सूक्तों के चयन का प्रयत्न किया है । प्रयत्न में से जो अप्रयत्न निकले, वह अधिक सार्थक होता है। पाठक के लिए योगक्षेम वर्ष की स्मृति सद्यस्क रहेगी और एक बड़ा उपक्रम छोटी-सी सीमा में समाविष्ट होकर तम में आलोक भरता रहेगा। युवाचार्य महाप्रज्ञ ८-१२-६० राणावास (मारवाड़) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन योगक्षेम वर्ष तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास का अनूठा पृष्ठ है। उस वर्ष अनेक व्यक्तियों को जीवन की नई दिशा मिली। कुमारी निरंजना भी उनमें से एक है। उसके मन में नया संकल्प जागा। उसने एक वर्ष के लिए एकान्तरित मौन और उस दिन निराहार रहने की प्रतिज्ञा की। पूरे उत्साह एवं निष्ठा के साथ उसने इस संकल्प को निभाया और आनन्द का अनुभव किया। उसके आनन्द को बढ़ाने वाला एक उपक्रम था-निरंतर प्रवचनश्रवण। उसने आचार्य श्री, युवाचार्य श्री के प्रवचन सुने और 'योगक्षेम सूत्र' नाम से सार-संक्षेप रूप में एक संकलन कर लिया। यह संकलन उसके अपने लिए उपयोगी होगा ही, अन्य लोग भी उसके स्वाध्याय से विशेष प्राप्त करते रहें, यही मंगल भावना महाश्रमणी कनकप्रभा ३-११-६० पाली (मारवाड़) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-आशीष मेरे तीन पुत्र एवं तीन पुत्रियां हैं। अपने परिवार में सद्संस्कारों का पल्लवन देख मैं सुखद अनुभूति करता हूं। मेरी मझली लडकी कूमारी निरंजना (निर्मला)विशेष रूप से अध्यात्म की दिशा में गतिशील है। उसने 'योगक्षेम वर्ष' में साधना के विभिन्न प्रयोग कर ७५ संकल्प आचार्य श्री के ७५ वीं वर्षगांठ पर अर्पित किए। उसी की निष्पत्ति रूप में उसने एक वर्ष का दीर्घ संकल्प एकांतर मौन एवं अन्नाहार-प्रत्याख्यान स्वीकार किया। परम श्रद्धेय आचार्य श्री की कृपा से उसने अपने संकल्प को निष्ठा एवं स्थिरता से पूरा किया है-ऐसा करके उसने आत्मा, कूल एवं गण की प्रभावना की है। स्वाध्याय में उसे तीव्र अभिरुचि है, उसी का प्रतिफल 'योगक्षेम-सूत्र' पुस्तक है। मैं सपरिवार उसके आध्यात्मिक-जीवन की प्रगति की शुभकामना करता हूं। लाडनूं, ५-१२-६० बुधमल चोरड़िया रतनी देवी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य जब अश्रव्य का श्रवण, अदृश्य का दर्शन एवं अज्ञात को ज्ञात कराया जाता है तब वे क्षण जीवन की अमूल्य धरोहर बनकर आनंद के मूर्तरूप बन जाते हैं । आत्मद्रष्टा पुरुषों की वाणी सत्य, तथ्य एवं रहस्य को उजागर करने वाली होती है । वे जो कुछ कहते हैं जीकर कहते हैं इसीलिए उनके कथन में अकृत्रिमता, प्रभावोत्पादकता एवं सौंदर्य का निवास होता है । उनके वचन मंगलकारी, कल्याणकारी होते हैं, स्वार्थी नहीं तभी तो वे योगक्षेम के सूत्र बन जाते हैं । प्रस्तुत कृति में सन्त-वचनों का संकलन किया है, इसका प्रेरक रहा है 'योगक्षेम वर्ष' । तेरापंथ धर्मसंघ में अमृत पुरुष आचार्य श्री तुलसी की ७५ वीं वर्षगांठ पर समायोजित 'योगक्षेम वर्ष' अध्यात्म क्रान्ति का युगीन उदाहरण है । जैन विश्व भारती लाडनूं के प्रांगण की जो छटा सन् १६८६ में देखने को मिली, वह पहले कभी नहीं । श्रद्धेय आचार्य श्री, युवाचार्य श्री एवं महाश्रमणीजी के सान्निध्य में ज्ञान की निर्मल धारा, अध्यात्म का जो अतुल रस बरसा, उसका स्पर्श पहले कभी नहीं किया । उसी अपूर्व ज्ञानामृत को मैंने सूत्र रूप में धारण करने का प्रयत्न किया। पूरे वर्ष भर की प्रवचन-माला से सूक्ति रूप में बिन्दुओं को चुना तथा साथ में कुछ सवचनों का गुंफन किया है। छोटे-छोटे वाक्य जीवन की गहनता को सरलता से समझा जाते हैं, इसी अभिरुचि को मैंने इस पुस्तिका में प्रकट किया है । इनका वाचन - पाचन पवित्र जीवन शैली के निर्माण में सहकार होगा । अध्यात्म के विभिन्न प्रयोगों का रसास्वादन कर नये-नये अनुभवों से गुजरने में मुझे सदा से रुचि, उत्साह रहता आया है । मुझे यह प्रेरणा परम श्रद्धेय गुरुदेव के उपपात में मिलती है, उनकी कृपा से मैं उसे प्रायोगिक रूप देती हूं तथा उसकी संयोजना में पूरापूरा सहयोग अपने माता-पिता तथा परिवार का मिलता है । योग-क्षेम वर्ष के दीवट पर योगक्षेम एवं संघपुरुष चिरायु हो — इस Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ मंगलाचरण से भावित हो मैंने ७५ संकल्पों की जोत जलायी, भविष्य में यह दीपशिखा मेरी संयम एवं संकल्प यात्रा में प्रकाश-स्तम्भ बने । स्वीकृत संकल्प-सूची में ७५ वें संकल्प-सिद्धि के लिए मैंने श्रीमुख से एक विशेष वार्षिक-संकल्प-एकांतर मौन एवं अन्नाहार प्रत्याख्यान का व्रत स्वीकार किया। आहार-संयम एवं वाणी-संयम का यह प्रयोग शान्ति एवं शक्ति प्रदायक रहा । आज उसी वार्षिक अनुष्ठान की पूर्णाहुति पर यह पुष्प श्री चरणों में समर्पित कर हार्दिक आह्लाद की अनुभूति कर रही हूं । मेरे साधक जीवन की सफलता में अमूल्य गुरु कृपा एवं महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी की वात्सल्य दष्टि वरदायी रहे हैं। साथ में साध्वीश्री राजीमतीजी की कुछ करने की प्रेरणा तथा अभी जैन विश्व भारती में प्रवासित साध्वीश्री विमलप्रज्ञाजी का प्रोत्साहन मेरे विकास में प्रेरक हैं। और परिवार-परिसर में माता-पिता, भाईबहनों का अनन्य भाव साधनानुकल वातावरण निमित में अनन्य सहयोगी हैं । मेरे इस प्रयोग की अनुमोदना में सबकी प्रसन्नता तथा मेरी दोनों बहिनों तारा एवं पुष्पा द्वारा कृत एकान्तर मासिक प्रयोग ने मेरे उत्साह को अभिवधित किया है । इस पुस्तिका के नियोजन में आद्योपांत सहयात्री रही-सुश्री माणक कोठारी। मैं इन सबके प्रति हृदयाभारी हूं। ___ जैन विश्व भारती के कुलपति श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया ने मेरे इस छोटे से प्रयास को अल्प समय में आकार देकर लाभान्वित किया है-सादर कृतज्ञ हूं। लाडनूं निरंजना जैन १४-१२-६० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरंजना की संक्षिप्त जीवन शैली "साधक-जीवन को लेखनी में बांधना यूं लगेगा जैसे हमने विस्तृत आकाश को मुट्ठी में कैद कर लिया हो, पर कभी-कभी शब्द परिचय के लिये आवश्यकता बन जाते हैं, ऐसा ही हम लोगों के साथ है।" आपका जन्म (कु. निर्मला, मुंह बोला नाम) विक्रम सम्वत् २०१४ माघ कृष्णा चतुर्थी को नागौर जिले लाडनूं नगर में हुआ। चन्देरी धरा गदगद हो उठी, क्योंकि ये नगरी साध सन्तों, तपस्वियों की जननी है, ऐसे में आप जैसी संयमी, शान्त नारी रूपी साधिका का जन्म अद्भुत कृति है। श्री बुद्धमल एवं रत्नीदेवी को पिता एवं मां होने का सौभाग्य मिला। तीन भाई एवं दो बहनों की आप लाडली बहन हैं। आप बचपन से प्रतिभाशाली रही Simple Living and High Thinking के बीज बचपन की धरती में ही अंकुरित होने लग गये, जिसकी वजह से आपकी चिन्तनशीलता अध्ययन की तरफ जुड़ चुकी थी। आपने बी०ए० किया राजस्थान युनिवर्सिटी "मैरिटलिस्ट' में आपका आठवां स्थान रहा। इसके अलावा होम्योपैथिक डिप्लोमा लियापारमार्थिक शिक्षण संस्था में सात वर्ष का अध्ययन किया। आगम शोध-कार्यों में भी आप सहयोगी रही। शिक्षा का सिलसिला अभी भी गति पर है। जैन विश्व भारती "डिम्ड' युनिवर्सिटी से आप प्राकृत साहित्य में एम०ए० कर रही हैं। आपकी रुचि प्राकृत, अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी है। आप जैनागमों का सरुचि स्वाध्याय करती हैं इसके अलावा आप चिकित्सा क्षेत्र में होम्योपैथी तथा एक्यूपंचर में भी रुचि रखती है। ___ सारा परिवार आपको आदर्श रूप में देखता है, प्रतिमास आपसे प्रेरणा प्राप्त करता हैं। “संति एगेहिं भिक्खुहिं गारत्था संजमुतरा।" ये उक्ति आप पर चरितार्थ होती है। अब तक की आपकी जिन्दगी धार्मिक विचारों ये ओतप्रोत रही। धर्म के सागर में डबकी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगाते हुए आप घर में रहकर भी एक शान्त, साधनाशील, ध्यान, मौन जप में लीन एक गृहस्थ योगी के रूप में रही । धर्म के संस्कार आप में जन्मजात ही थे । साधना की उच्च पराकाष्ठा को देखते हुए आपने विक्रम सम्वत् २०३१ भादवा बदी पंचमी को श्री पारमाथिंक शिक्षण संस्था में साधना हेतु प्रवेश लिया । अल्पभाषण, आहार संयम, दृष्टि संयम एवं गपशप की दुनिया से बेखबर आप साधना में लीन रही । श्री पा०शि०सं० के प्रथम यात्रा ग्रुप आसाम, बिहार, नेपाल हेतु आपका चयनित होना संस्था के जीवन में एक आदर्श पृष्ठभूमि तैयार करता है । धार्मिक व्यक्ति के मनोबल एवं निर्भयता स्पर्श से समागत घटना अघटित ही गुजर जाती है ऐसा ही आपके साथ हुआ" संस्था प्रांगण में अर्द्धरात्रि के समय तेज आंधी तूफान के बहाव में आई एक नाग जाति आपके पैर से लिपट गई, बंधन गहरा होने लगा तो मन में कुछ शंका हुई एवं 'ओऽम् भिक्षु' के जप को करते-करते उसी मुद्रा में आप थोड़ी सी उठी, उठते ही अपने आप नागजाति उतर कर लाइब्रेरी के पास कौने में फन उठाकर बैठ गई, फिर भी आप शान्त एवं सहज स्थिति में रही । यह बात आपके अभय होने की पुष्टि करती है ।" संस्था में आप अस्वस्थ रहीं, अस्वस्थता के बावजूद भी आप अपनी सहवर्तनी मुमुक्षु शान्ताजी, वर्तमान में समणी श्रो स्मितप्रज्ञाजी एवं सुप्रज्ञाजी के अनन्य आत्मीय सहयोग से संस्था - कालीन अध्ययन पूर्ण किया । किन्तु बीमारी ने आपके संस्थाकालीन जिन्दगी में इस तरह दस्तक दी कि आपको लगने लगा कि आपके कारण साधना रत बहनों के बीच व्यवधान हो रहा है, इसके साथ ही परिवार के लोगों का भी आग्रह था कि आप घर पर रहकर उपचार करायें। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए आपने घर पर रहना मंजूर किया। घर में रहकर भी आप मितभाषिता, खाद्य-संयम, दूरदर्शिता एवं विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनी रही और एक गृहस्थ साधिका का जीवन जीने लगी । नई-नई जानकारियां हासिल करना एवं उन्हें प्रायोगिक रूप देना आपकी अभिन्न रुचि है । आपकी ये ही विशाल विशेषतायें हर किसी के लिये स्वतः ही प्रेरणा बनती चली जाती है । आपकी निय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित एवं सुनियोजित जीवन शैली हमारे लिये प्रकाश स्तम्भ है । आपके जीवन से उकताहट, नीरसता एवं अतृप्ति कोसो दूर है । आप सदैव अपने में सन्तुष्ट, एकान्तप्रिय एवं मनोरंजन की दृष्टि से कलात्मक कार्य में व्यस्त रहती हैं । आप धर्म, धर्मसंघ एवं संघपति के प्रति परम समर्पित हैं, श्रद्धेय आचार्य प्रवर, युवाचार्य श्री एवं महाश्रमणीजी की अनन्य कृपा दृष्टि आप पर है । यथासमय गुरु सन्निधि आप प्राप्त करती रहती है तथा साधनामय जीवन को दृढ़ आधार प्रदान करती रहती है । "योगक्षेम वर्ष में '७५' प्रकार के संकल्प करना हमारे लिये आश्चर्यकारी है । तथा इस वर्ष दीर्घ प्रयोग कर हमारे गौरव को दिगुणित किया है । वाणी पर संयम अधिक कठिन है लेकिन आपने यह प्रयोग कर मन, तन एवं भावों को प्रशिक्षित किया है । आप संकोची स्वभाव की हैं, अपने को अधिक प्रकट करना नहीं चाहती फिर भी हमने आपके बाहरी व्यक्तित्व का एक चित्र खींचा है । साधक का अन्तर्जगत सामान्य व्यक्ति से अलग होता है, उनके हृदय का स्पर्श हमारे लिये बहुत कठित है फिर भी उनका आचरण, व्यववहार व बातें एक मिशाल है । - चोरड़िया परिवार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम 1 GK mr. or Mr २७ १८ wr १. उत्तम मंगल २. सुख की बूंदें ३. जीवन एक मधुर गीत है, दर्दभरी कहानी नहीं ४. मन की शान्ति का स्वाद लें ५. स्वस्थ कौन ? ६. मौन से बड़ा कोई मंदिर नहीं है ७. सज्जनता का संग्रह करें ८. सुलभ ही दुर्लभ ६. कर्त्तव्यपालन करने में मिठास है १०. सहना आत्मधर्म है ११. द्विकोण १२. चाहो जैसा करो वैसा १३. जीने की कला १४. शक्ति ही जीवन है, कमजोरी ही मौत है १५. एकाकीपन के आनन्द १६. आहार पवित्र होने से अन्तःकरण पवित्र होता है १७. हल्की भारी खम लेणी पण कडवो बोल न केणो १८. हंसी जीवन का प्रभात है १६. विपत्ति आत्मा का बल बढ़ाने वाली संपत्ति है २०. समस्या का सागर, समाधान की नौका २१. काल करे सो आज कर २२. क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है २३. बुझो मत, बुझना पाप है २४. बोये बबूल खाये आम ? २५. उतावला सो बावरा, धीरा सो गंभीरा २६. अनदेखा करना सीखिए २७. सब खुशियों में पारश्रम का फल मधुरतम है २८ टाल सके तो टाल २६. सुंदरता आकांक्षा नहीं, परमानन्द है WWWW Wwwm ५३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस GC Wom ६ ६७ ६६ १ ७३ ७५ ३०. आत्म राज्य के अधीश्वर ३१. सुख में फूलो नहीं, दुःख में रोओ नहीं ३२. ज्ञान-सचेतना का उद्घोषक है ३३. तनाव-अधर में नाव ३४. इनके भी बयां जुदा-जुदा ३५. वैज्ञानिक तथ्य ३६. प्रसन्नता अन्त:करण की सहज स्वच्छता है ३७. वचन-वीथी ३८. सुपात्र दान बना देता महान ३६. विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ४०. मन उजियारा : जग उजियारा ४१. प्रेम की ईंट से अपने सुख का मंदिर बनाओ ४२. झलकियां ४३. निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है। ४४. सुंदर रहना है तो अपने मिजाज का ध्यान रखना होगा ४५. अर्हत्-वाणी ४६. सब कुछ कहे बिना रहा नहीं जाता ४७. चमड़ी का रंग, मिजाज का ढंग ४८. मुस्कुराइये छोटी बात को बड़ी चिन्ता मत बनाइये ४६. कहते हैं... ५०. एक कोण ५१. कटूक्तियां "५२. आजादी की तड़फ आत्मा का संगीत है ५३. बुरे अन्तःकरण की यातना जीवित आत्मा का नरक है ५४. आपा उलझे उलझिया, आपा सुलझे सुलझिया ५५. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ५६. दुःख हिंसा है : हर्ष भी हिंसा है ५७. मनुष्य का सुख सन्तोष में है ५८. धर्म की शरण : अपनी शरण ५६. लघुता से प्रभुता मिले प्रभुता से प्रभु दूर ६०. सुख की राह ६१. ब्रह्मचर्य का पालन मानव पर्याय में ही होता है ६२. साधना की भूमि ६३. मौत हर व्यक्ति को साधक बना देती है ६४. योगक्षेम सूत्र SS SS w w w w w w Wow mro 90 our 6 ० ० १०१ १०३ १०४ १०५ " १०७ १०६ ११२ ११५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह ११६ ११८ or or or १२० १२४ १२६ १२८ १३० १३२ १३५ १३७ १४० १४१ १४३ १४५ ६५. अच्छे विचार रखना भीतरी सुन्दरता है ६६. जीवन का संदर साथी मानव को उध्वंगामी बनाता है ६७. सोचने की बात ६८. ज्ञान-कण ६६. प्रभु का दास कभी उदास नहीं होता ७०. परमात्मा को पाना कठिन नहीं इन्सान बनना मुश्किल है ७१. खाली दिमाग शैतान का नहीं, भगवान् का घर होता है ७२. स्वयं जीओ और दुनियां सीखे ७३. मूर्ख पक्षी दाना देखता है, फन्दा नहीं ७४. भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ७५. माया भीतरी पाप है ७६. आयु घट तृष्णा बढ़ ७७. व्यक्तित्व को मांजने-संवारने का उपाय ध्यान है ७८. तोड़ो मत, जोड़ो ८०. दीर्घजीवन की कुंजी ८०. किससे क्या सीखें ८१. रहो भीतर में, जीओ व्यवहार में ८२ अपने आप से लड़ो, दूसरों से लड़ने से क्या ? ८३. सत्य के पुजारी पर परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता ८४. एक मां बराबर सौ गुरु ८५. चतुष्कोण ८६. गहराई विजय है, उथलाई हार है ८७. मातृत्व का वरदान ८८. साधक ! ८६. अन्तर में न्यारा रहे ज्यूं धाय खिलावे बाल ६०. नारी केवल मांसपिंड की संज्ञा नहीं है ६१. रोग का आनन्द ६२. आंसू रोको मत ६३. जल्दी सोना जल्दी जगना, स्वस्थ सुखी संतोषी बनना १४. पालने से लेकर कब तक ज्ञान प्राप्त करते रहो ६५. समय कब किसके लिए रूका है ६६. बीच में रहें, अतियों से बचें ६७. स्थान नहीं स्थिति बदलिये, कपड़े नहीं मन बदलिए १८. कषाय मन की मादकता है १६. त्रिकोण १४७ १४६ or or Xxx or or or १५७ १६७ १६६ १७५ १७६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह १००. छोटी-छोटी बातें १०१. न करें १०२. नियत समय पर कार्य करना सफलता का सोपान है १०३. संकल्प-सुमन १८१ १८३ १८५ १८८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम मंगल १ सबसे मंगल संकल्प है-'मित्ति मे सव्व भूएसु-सबसे मेरी मित्रता है। २ सबसे बड़ा मंगल-निर्विकल्प मन तथा मन की प्रसन्नता है । ३ कुछ व्यक्ति स्वयं मंगल होते हैं, अमंगल को बदल देते हैं। ४ ज्ञान-धन ही ऐसा श्रेष्ठ है, उत्तम है, जो देने पर भी कम नहीं होता। ५ समता परम मंगल है। ६ सबसे उत्कृष्ट मंगल है-वर्तमान में जीना। ७ अनुकूल स्थानों में निवास करना, पूर्वजन्म के संचित पुण्य का होना और अपने को सन्मार्ग पर लगाना--यह उत्तम मंगल है। ८ स्वस्तिक परम मांगलिक, समृद्धिसूचक चिह्न माना गया है। है समर्पण जब साकार होता है, बलिदानों का जब ज्वार आता है, सेवा और श्रद्धा का जब संगम होता है, तब मरुस्थल भी फलों से महकने लगता है, प्रगाढ़ अंधकार प्रकाश में बदल जाता है। १० बहुश्रुत होना, शिल्प सीखना, शिष्ट होना, सुशिक्षित होना और सुभाषण करना, गौरव करना, नम्र होना, सन्तुष्ट रहना, कृतज्ञ होना, उचित समय पर धर्मश्रवण करना, क्षमाशील होना, आज्ञाकारी होना, निर्दोष कार्य करना-ये उत्तम मंगल हैं। ११ मरण-भय से भयभीत सब जीवों को जो अभयदान देता है वही दान सब दानों में उत्तम है, मंगल है । १२ धर्म उत्कृष्ट मंगल है। उत्तम मंगल Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ उत्तम धर्म से युक्त तिर्यंच भी उत्तम देव हो जाता है । उत्तम धर्म से चांडाल भी सुरेन्द्र हो जाता है । १४ जीव के उत्तम धर्म के प्रभाव से अग्नि भी हिम हो जाती है, सर्प भी उत्तम रत्नों की माला हो जाता है, देव भी किंकर हो जाते हैं। १५ हमारे लिए उत्कृष्ट मंगल वही है जो परिणाम में सुंदर हो। १६ हम धर्म को परम मंगल मानते हैं क्योंकि उसका परिणाम सदैव सुन्दर होता है । १७ इस संसार में जन्म लेने वाले सभी लोग कुछ अमंगल और कुछ मंगल प्रवृत्तियां लेकर ही आते हैं। लेकिन कुछ लोगों में शायद बहुत ही थोड़े लोगों में मंगल प्रवृत्तियां बहुत ही उत्कटता के साथ प्रकट होती हैं। पर्वत का शिखर जिस तरह आकाश को चूमने के लिए बढ़ता है, उसी तरह उनके मन हुआ करते हैं। उन्हें उदात्तता के प्रति चरम आकर्षण होता है। जिनके स्वभाव में यह विशेषता है, वह उत्कृष्ट मंगल है। १८ लौकिक दृष्टि से अक्षत, कंकूम, स्वस्तिक, दर्पण, जल-घट आदि मंगल माने गये हैं किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से अहिंसा और तप को परम मंगल माना है। १६ मंगल का अर्थ है जो अवरोध हमारे विरोध में खड़े हैं, उन्हें अपने सहयोग में बदल देना अर्थात् विघ्न-बाधाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेना। योगक्षेम-सूत्र Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख की बूंदे १ सबसे बड़ा सुख है - 'हल्का मन' | २ अपने स्वभाव - रमण में ही सुख है । ३ जीवन में जितना कम द्वन्द्व, जितना कम संघर्ष होगा, जितने कम व्यर्थ के तनाव होंगे, उतना ही सुख मिलेगा । ४ सुखी वह होता है जिसका मन शक्तिशाली है, जिसका मन प्रसन्न है, जिसके मन में संकल्प - विकल्प नहीं उठते, जिसका मन समता से भावित है, जिसके वेग शान्त हैं । ५ सुख का रहस्य है - प्राप्त में संतोष करना, अप्राप्त के लिए व्यर्थ दौड़ बंद करना । ६ सुख पाने के सूत्र हैं— जीवन में आसक्ति कम रखो, पागलपन कम रखो । जो सामने आ रहा है, उसे स्वीकार करते चले जाओ । मस्ती का जीवन बिताओ । ७ जो मनुष्य जीवन में अच्छी आदतें डाल लेता है, वह सदा सुख और शांति पाता है । ८ १५५ वर्ष जीवित व्यक्ति ने अपने सुखी जीवन का रहस्य बताया कि मैं हर परिस्थिति में संतुलन रखता हूं, प्रतिक्रिया कम करता हूं । ६ जो संयमित एवं नियमित जीवन जीता है वह बड़ा आनन्दित होता है, सुखी होता है, अपने जीवन में वह कर गुजरता है जो हजारों आदमी नहीं कर सकते । १० एक सन्तुष्ट मन सबसे बड़ी देन है । जिससे मनुष्य इस संसार में आनन्द एवं सुख ले सकता है, और अगर वर्तमान जीवन में उसका सुख इच्छाओं को कम करने से उत्पन्न हुआ है तो आगे भी इच्छाओं का बलिदान करने से उसे सुख मिलेगा । सुख की बूंदे ३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सुखी जीवन के लिए जरूरी है - १. विचारों पर नियन्त्रण करो । २. तुलना में खड़े मत होओ- नकल मत करो । ३. मन को स्वस्थ रखो । ४. चिन्तन सही हो । ५. योगासनों का अभ्यास हो । ६. जीवन में मुस्कराहट हो, हंसता- खिलता जीवन हो । १२ जीवन में सुखी वही हो पाता है जिसे शांति का मार्ग मिल गया हो । १३ अपने सुख के लिए जरूरी है दूसरे को दुःख न देना । १४ शारीरिक पीड़ाओं और बीमारियों से मुक्त होना ही सुखी होना नहीं है, बल्कि आत्मा की चिन्ताओं और यन्त्रणाओं से मुक्त होना ही सुखी होना है । १५ सुख कोरे सौन्दर्य में नहीं, जिसमें सत्य, शिव का समावेश हो वही सौन्दर्य सुखद होता है । १६ जिसमें निस्पृहता आ जाती है, उसका सुख अबाध होता है । १७ जो जीव मद, माया और क्रोध से रहित है, लोभ से दूर है और निर्मल स्वभाव से युक्त है, वह उत्तम सुख को प्राप्त करता है । १८ सबसे निर्मम बुराई है - द्वेष । द्वेषी कभी सुखी नहीं हो सकता । योगक्षेम-सूत्र Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक मधुर गीत है, दर्दभरी कहानी नहीं १ जीवन को स्वीकार करो। वह परमात्मा का प्रसाद है । लड़ो नहीं । भागो नहीं, उससे प्रेम करो क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त और कोई विजय नहीं है । २ जीवन एक कहानी है - वह कितनी लम्बी है नहीं वरन् कितनी अच्छी है, यह विचारणीय प्रश्न है । ३ देखना चाहिए कि जीवन का तत्त्व कहां जा रहा है ? दो पैसे गुम जाने का तो रंज होता है मगर समग्र जीवन बीता जा रहा है, इसकी कोई चिन्ता नहीं । ४ गम से मुरझाया चेहरा जहां जिंदगी में लगे कांटों का राज खोलता है वहीं फूल - सा खिला-खिला चेहरा जिंदगी की मधुर रसभरी कहानी के तथ्य उजागर करता है । ५ अपने भीतर प्रवेश करो। गहरे और गहरे । देखोगे कि जीवन प्रेम, आदर्श और आनन्द से भरापूरा है । ६ जो व्यक्ति जीवन को संगीत बना लेता है, उसमें डूब जाता है, वास्तव में वह जीने की कला जानता है । ७ अपने घर की दीवारों पर ऐसे चित्र मत टांगो जो उदासी और गम दर्शाते हैं । चित्तको विस्मय से भरें, जीवन के रस में तल्लीन हों और आत्मा को प्रेमपूर्ण करें- इन तीन सीढ़ियों को पार करें और देखें कि जीवन में क्या हो जाता है । ६ जीवन में संतुलन का बहुत बड़ा स्थान है—अभावों और भावों के बीच का संतुलन, इतिहास और भूगोल का संतुलन और आदमी के दिल और दिमाग का संतुलन । १० संसार में वही मनुष्य सदा स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न और सफल होता है जो काम करते हुए, कठिन परिश्रम करते हुए भी मुस्कराता है । जीवन एक मधुर गीत है, दर्दभरी कहानी नहीं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अपना जीवन लेने के लिए नहीं, देने के लिए है । १२ जीवन का एक रहस्य उसमें अच्छाई देखना है । १३ आत्मा जागती है तब दुःख दूर होता है । १४ धर्म, सत्य और तप- -यही जीवन की सारी सम्पत्ति है । १५ जीवन में जागृति स्वार्थ त्यागने से आती है । १६ मेरा जीवन ही मेरा संदेश है । १७ हम अपने जीवन के स्वामी स्वयं हैं । कोई दूसरा हमारे जीवन को सम्पन्न नहीं बना सकता । अपने जीवन का निर्माण हमें स्वयं करना होगा । १८ जीवन तो वही है पर दृष्टि भिन्न होने से सब कुछ बदल जाता है । दृष्टि भिन्न होने से फूल कांटे हो जाते हैं और कांटे फूल बन जाते हैं । १६ जीवन को विधायक आरोहण दो, निषेधात्मक पलायन नहीं । सफलता का स्वर्ण सूत्र यही है । २० जीवन में पग-पग पर जो गुत्थियां आती हैं, उन्हें सुलझाओ, तन्मय बनकर सुलझाओ किन्तु मस्तिष्क पर उनका भार मत ढोओ । २१ जीवन पुष्पों से आल्हादित रहस्यात्मक एक वास्तविकता है । इसका अत्यल्प प्रकटन भी सुन्दरतम है । २२ जीवन बहुत जटिल है । उसमें कोई बात कैसे घटित हो रही है यह कहना एकदम मुश्किल है। लेकिन इतना कहना निश्चित है कि जो घटना हो रही है उसके पीछे कारण होगा, चाहे वह ज्ञात हो, चाहे अज्ञात हो । २३ वासना वालों के लिए यह जीवन अतृप्ति का मन्दिर है, कामना और निराशा की कन्दरा है । भोगी के लिए दहकती हुई आग है । डरपोक के लिए पाप की गठरी है । ज्ञानियों के लिए बदलते हुए मूल्यों का बंडल है । विरक्तों के लिए सिकता की भांति नीरस है । ईश्वर भक्तों के लिए ईश्वर की ओर ले जाने वाला पथ है और योगी के लिए चित्त शुद्धि का उपाय है । २४ जीवन तो कोरा कागज है । हमारी लिखावट ही उसे सुन्दर या असुन्दर बनाती है । योगक्षेम-सूत्र Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति का स्वाद लें १ मन की सच्ची शान्ति की जननी पवित्रता ही है । २ शान्तपद की प्राप्ति चाहने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह योग्य और अत्यन्त ऋजु बने । उसकी बात सुन्दर, मृदु और विनीत हो । वह संतोषी हो, सहज पोष्य हो, अल्पकृत्य हो और सादा जीवन बिताने वाला हो । उसकी इन्द्रियां शांत हों । ३ शांति का प्रारम्भ वहां से है, जहां कि महत्त्वाकांक्षा का अंत होता है । ४ अगर कोई मनुष्य शुद्ध मन से बोलता या काम करता है, आनन्द उसके पीछे साये की तरह चलता है जो कि उससे कभी अलग नहीं होता । ५ शांति सदैव भीतर से फूटती है और भीतर ही समा जाती है | ६ मानसिक प्रसाद, स्वास्थ्य या आनन्द के लिए नए सिरे से कलहों में प्रवृत्त न हों और जो पुराने कलह हैं, कदाग्रह हैं, उनका उपशमन करो । ७ शान्त वह है जो अशान्ति की स्थिति में शान्त रह सके, वही सच्ची शान्ति है । ८ युद्ध और शान्ति का सृजन मनुष्य ने ही किया है । & केवल निर्वैर मन ही शान्ति पा सकता है । १० इच्छाओं को शान्त करने से नहीं अपितु उन्हें परिमित करने से शान्ति प्राप्त होती है । ११ अपने मन पर इतना शासन हो कि प्रिय वस्तु मन को हर्षित न कर सके, उसका वियोग मुस्कान छीन न सके । १२ जिस दिन कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुंच जाता है जहां वह न किसी को सुख पहुंचाता है, न किसी को दुःख । वहीं से व्यक्ति सब को शान्ति एवं आनन्द पहुंचाने का कारण बन जाता है । १३ अशांति के अवसर का पूरी तरह होना और वहां शांत होना ही शांति है । मन की शान्ति का स्वाद लें Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थ कौन ? १ स्वस्थ वह है जिसका मन शक्तिशाली है, जिसका मन प्रसन्न है, जिसके मन में संकल्प-विकल्प नहीं उठते, जिसका मन समता से भावित है, जिसके वेग शान्त हैं । २ स्वस्थ व्यक्ति कुदरती तौर पर आकर्षण की लहरें छोड़ता है । उसकी मुस्कराहट से सारे माहौल में मुस्कराहट भर जाती है । स्वस्थ आदमी हंसता है तो हर कोई उसके साथ हंस पड़ने को मचल उठता है । ३ स्वस्थ व्यक्ति जागने पर प्रसन्न मन, प्रसन्न वदन तथा आत्मतृप्त होता है । ४ बिना किसी तकलीफ के, बिना किसी नकली उत्तेजना के जो आदमी शरीर की सब क्रियायें सम्पादन कर ले, वही स्वस्थ है । २५ स्वस्थ होने की एक निशानी यह भी है कि त्वचा से कोई बदबू नहीं आनी चाहिये | त्वचा स्पर्श में हल्की, गर्म और कोमल होनी चाहिये, सूखी नहीं । ६ जो अपने आप में स्थित होता है, वह स्वस्थ है । ७ सर्वाधिक स्वस्थ वह है जिसके कषाय शांत हैं, जिसके रतिअरति, भय, शोक, घृणा, हास्य उपशान्त हैं, जिसकी वासना शान्त है । सारे शरीर में निरन्तर रक्त का प्रवाह रहे तो शरीर स्वस्थ रहता है । e स्वस्थ दशा में निद्रा शान्त और गाढ़ी होती है । १० स्वस्थ मन और शरीर के लिए आवश्यक नियम हैं- भूख से काफी कम खाना, खुली वायु में जीवन यापन करना, सदा कार्यरत रहना, चिन्तामुक्त हंसी-खुशी की जिन्दगी जीना, जल्दी सोना, जल्दी उठना और निर्द्वन्द्व होकर गहरी नींद योगक्षेम-सूत्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोना, नियमित दिनचर्या अपनाना, नशेबाजी से दूर रहना एवं नित्य टहलना। ११ मानसिक उत्तेजना एवं उद्विग्नता ही आरोग्य की जड़ खोखली कर डालने वाली सर्वोपरि विपत्ति है। १२ जो व्यक्ति मन, मस्तिष्क और शरीर से हल्का रहता है, वह __स्वस्थ जीवन जीता है। १३ जिसका मनोबल कमजोर होता है, वह रोग से आक्रान्त रहता है। १४ कुंठा, घृणा, अवसाद और विषण्णता-ये ऐसे भयंकर कीटाणु हैं, जो स्वास्थ्य को लीलते रहते हैं। १५ सुख देनेवाली मति, सुखकारक वाणी और सुखकारक कर्म, अपने अधीन में रहने वाला मन और शुद्ध, पापरहित व सात्विक बुद्धि जिसके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने एवं योग का अभ्यास करने में सदैव तत्पर रहते हैं, उन्हें शारीरिक एवं मानसिक कोई भी रोग नहीं होते। १६ स्वस्थ मन वह होता है जिसमें प्रसन्नता का अजस्र स्रोत फट पड़ता है, जिसमें निर्ममत्व भाव का विकास है, जिसमें बुरे विचार नहीं आते, जिसमें उत्तेजना नहीं आती, जिसको वासना नहीं सताती। १७ मन की स्वस्थता में कोई रोग उत्पन्न नहीं होता। १८ शारीरिक सौन्दर्य स्वास्थ्य और प्रसन्नता से निर्मित होता है । १६ खिलखिलाकर हंसने से पाचन शक्ति ठीक रहती है जबकि चिंता और तनाव से पाचन शक्ति निर्बल होती है । मुस्कराने से चेहरा अच्छा लगता है जबकि क्रोध करने से मुखाकृति बीभत्स दिखाई देती है। रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने से चेहरा खिला हुआ और आंखें रसीली बनी रहती है। २० वह समय जरूर आयेगा जब रोगी होना उतना ही लज्जा जनक ठहरा दिया जायेगा जितना आज शराब पीकर नाली में गिरना। स्वस्थ कौन ? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन से बड़ा कोई मंदिर नहीं १ मौन से बड़ा कोई मन्दिर नहीं है। सत्य के सागर के लिए __ शून्य के अतिरिक्त और कोई नौका नहीं। २ जो मौन में बैठकर चारों तरफ के जगत के प्रति जागरूक हो जाता है, धीरे-धीरे उसके विचार अपने आप समाप्त हो जाते ३ मौन में अन्तःशक्ति को जगाने की क्षमता होती है। ४ चित्त शान्त हो जाय, मौन हो जाय तो शान्त और मौन चित्त में वैसे ही जीवन के सत्य झलक आते हैं जैसे शान्त झील में ऊपर का चांद दिखाई पड़ने लगता है। ५ आत्मा कोलाहल में व्यक्त नहीं होती, उसके लिए एकान्त, शान्ति और समाधि चाहिए। ६ क्रिया या प्रवृत्ति में तन्मय हो जाना ही मौन है, चुप है। ७ मौन उसी का नाम है जिसमें मन शान्त हो जाए। ८ मौन रहने से बहुत बड़ा लाभ है। ऐसा करने से आदमी बहुत-सी बुराईयों से बच जाता है। ९ जहां वाणी छानकर बोली जाती है, वहां विभूतियां दौड़ती हुई चली आती हैं। १० कटु और विद्वेष युक्त भाषण से तो मौन रहना अथवा मूक होना अधिक उपयुक्त है। ११ वाणी में संसार को न भरें, उसे हरि-स्मरण के लिए समर्पित करें। १२ अधिक बोलना अशुभ को निमंत्रण देना है। १३ वाणी से आदमी के अन्तःकरण की परीक्षा होती है। १४ कम बोलने वाले के पुण्याई बढ़ती है एवं बोलने में मधुरता पैदा होती है। १५ अल्पभाषी सर्वोत्तम मनुष्य है। १६ वाणी की शुद्धता के लिए निरवद्य वचन बोलें, निरवद्य वाणी बोलने वाले की वाणी पावरफुल बन जाती है। १७ आदमी की भाषा है--शब्दों में, परमात्मा की भाषा है मौन। योगक्षेम-सूत्र Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनता का संग्रह करें १ उदार मन के लोग सारे संसार को अपना घर मानते हैं। २ संग्रह करना है तो केवल सत्कर्मों का संग्रह करो । केवल उसी का संग्रह अच्छा है और किसी चीज का नहीं। ३ बुराई करने वालों के लिए भी मन में सद्विचार रखो। अच्छे विचारों से ही उनका सामना करो। यही तुम्हारा आदर्श होना चाहिए। ४ सज्जन व्यक्ति अपनी शरण में आये गुणहीन प्रेमी को भी अपनाये रहते हैं। चांद अपने उतार-चढ़ाव की हर अवस्था में अपने कलंक को हृदय में धारण किये रहता है। ५ सज्जन स्वभाव के पुरुष क्षमा से क्रोध को तुरंत उतार देते हैं, जैसे सांप कैंचली को। ६ महापुरुष सुख-दुःख में समभाव से रहते हैं। ७ शान्ति और प्रसन्नता सज्जन पुरुष के लक्षण हैं। ८ बुद्धि, कुलीनता, संयम, स्वाध्याय, पराक्रम, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता-ये आठ गुण मनुष्य को यशस्वी बनाते हैं। ६ सज्जन नारियल के समान दिखायी देते हैं, ऊपर से रूखे और __ कड़े, अन्दर से मधुर । १० सज्जन व्यक्ति क्रोध में कठोर होने के बाद भी नरम पड़ जाते हैं, नीच नरम नहीं होते। बर्फ सूर्य की पहली किरण से पिघल जाती है, तिनके नहीं पिघलते ।। ११ सज्जन व्यक्ति को हीरे-जवाहरात पाने में उतनी खुशी नहीं होती जितनी उन्हें मनचाहे मीत को भेंट करने में होती है। १२ जो घमण्ड नहीं करता, दूसरों की निन्दा नहीं करता, कठोर नहीं बोलता, किसी के द्वारा कही हुई कड़वी बात सह जाता है, गुस्सा नहीं करता, दूसरों के द्वारा बनाई गई लक्षणहीन सज्जनता का संग्रह करें Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाओं को सुनकर मौन धारण कर लेता है, दोषों को ढकता है और स्वयं वैसे दोष नहीं करता-यह सब सज्जनों के लक्षण हैं। १२ गुणों से युक्त व्यक्ति ही प्रिय होता है, रूप से युक्त व्यक्ति नहीं । खुशबू से रहित सुन्दर फूल को भी कभी कोई ग्रहण करने योग्य नहीं मानता। १३ जैसे रत्नों से भरा हुआ समुद्र सुशोभित होता है वैसे ही तप, विनय, शील, दान आदि रूप रत्नों से भरा हुआ सुशील मनुष्य सुशोभित होता है। १४ सदा शान्त रहें, वाचाल न हों। ज्ञानी पुरुषों के समीप रहकर अर्थयुक्त आत्मार्थ साधक पदों को सीखें । निरर्थक बातों को छोड़ें। १५ मित और दोषरहित वाणी सोच-विचारकर बोलने वाला पुरुष सत्पुरुषों में प्रशंसा को प्राप्त होता है। १६ जो व्यवहार धर्म से अनुमोदित है और ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करने वाला पुरुष कभी भी गर्हा-निन्दा को प्राप्त नहीं होता। १७ जो अपनी कमियों, बुराइयों को देखता रहे तो दूसरे को मजा लेने का अवसर नहीं मिलता। १८ दूसरे की अच्छाइयों को सहन करना सीखो। १६ भलाई करके यदि उपकार की मांग हो तो वह प्रतिदान की मांग भी बुराई है। २० वह आदमी वास्तव में बुद्धिमान है जो क्रोध में भी गलत बात मुंह से नहीं निकालते। २१ अपने मन में हो या दुनियां के सामने-अपने बारे में अच्छा ही हमेशा बोलिए । अपने प्रति भी उतने ही उदार रहिए, जितने दूसरों के प्रति होना चाहते हैं । २२ रोषपूर्ण विचार धारा को तुरन्त सुविचार में बदल लो, तुम्हें शान्ति और आराम मिलेगा। २३ एक दिन भी पूर्णरूप से स्वस्थ रहकर जीने वाले के सामने __ सैंकड़ों राजाओं की तड़क-भड़क और शान नहीं के बराबर . योगक्षेम-सूत्र Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलभ ही दुर्लभ १ हजार संपदाएं मिल सकती हैं, हजार प्रकार के वैभव मिल सकते हैं किन्तु शुद्ध-दृष्टि का मिलना दुर्लभ है। २ छह स्थान मनुष्य के लिए सुलभ नहीं होते-१. मनुष्य-भव । २. आर्यक्षेत्र में जन्म । ३. सुकुल में उत्पन्न होना।। ४. केवली प्रज्ञप्त धर्म का सुनना । ५. सुने हुए धर्म पर श्रद्धा। ६. श्रद्धित, प्रतीत, रोचित धर्म का सम्यक् कायस्पर्श (आचरण) ३ मानव-जीवन की पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं है। ४ तम काम-भोग नहीं छोड़ सकते तो कम से कम अनार्य कर्म छोड़कर आर्य कर्म तो करो। ५ हमारी चेतना ऐसी है जो या तो बदलती नहीं और बदल जाती है तो फिर उसे बदलना कठिन होता है। ६ देना दुर्लभ है, लेना सरल है। ७ बहुत अच्छे सुघटित भवनों से भी पानी चू जाता है । बिल्कुल निश्छिद्र स्थिति दुर्लभ है। ८ निर्धन व्यक्ति जो भी खाये, हमेशा अच्छा ही भोजन करते हैं। क्योंकि वे भूख से खाते हैं। स्वाद को पैदा करने वाली वह भूख धनिकों को दुर्लभ है। ६ भाग्य में लिखा हो तो असंभव भी संभव हो जाता है। १० देवता में इतनी ताकत है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क को काट कर चरा कर देता है और पुनः जिला भी देता है पर इन्द्रिय संयम की ताकत उनके लिए दुर्लभ है। ११ स्वाद सबसे दुर्जेय है। जिसने स्वाद को जीत लिया, उसने सभी रसों पर विजय प्राप्त कर ली। सुलभ ही दुर्लभ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जो श्रमण आराम-तलब जीवन जीते हैं, आलसी जीवन बिताते हैं, पूरा समय कपड़े और शरीर की सार संभाल में व्यतीत करते हैं--ऐसे श्रमण के लिए सुगति दुर्लभ है। १३ जो व्यक्ति श्रम करता है, साधनामय जीवन जीता है, तपस्या करता है, कठिनाइयों को झेलता है, सहन करता है, उच्चा वच्च अवस्था में सम रहता है, उसे सुगति सुलभ होती है। १४ इस संसार में सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चरित्र को सब दुर्लभों से भी दुर्लभ जानकर महान् आदर करो। योगक्षेम-सूत्र Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य पालन करने में मिठास है १ प्रत्येक कर्तव्य पवित्र है। २ कर्तव्य के प्रति कठोर रहो पर हृदय में सरल । अपने पर कठोरता बरतो पर मित्रों पर नहीं। ३ कर्त्तव्य-पालन करते समय शरीर को भी जाने दो। किन्तु शक्ति से बाहर कुछ उठा लेना कर्त्तव्य के प्रति राग होगा। ४ केवल एक ही कर्त्तव्य है और एक ही सुरक्षित मार्ग है और वह है ठीक होने का प्रयत्न करना और जो कुछ तुम ठीक समझते हो उसे करने यो कहने में भय न करना। ५ सहयोग देना आभार नहीं, कर्तव्य-पालन है। ६ जो कर्त्तव्य हमारे निकटतम हैं, जो कार्य अभी हमारे हाथों में है, उसको सुचारू रूप से सम्पन्न करने से हमारी कार्य शक्ति बढती है, और इस प्रकार क्रमशः अपनी शक्ति बढ़ाते हुए हम एक ऐसी अवस्था की भी प्राप्ति कर सकते हैं जब हमें जीवन और समाज के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित कार्यों को करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। ७ तुम जिसकी सेवा करते हो उस पर अहसान मत जताओ। उपकार समझकर नहीं वरन् कर्त्तव्य समझकर सेवा करो। ८ असंतुष्ट व्यक्ति के लिए सारे कर्त्तव्य नीरस हो जाते हैं। ६ माता-पिता जिन्होंने स्वयं कष्ट पाकर तुम्हारी परवरिश की और योग्य बनाया, उनका एहसान हमेशा याद रखो और अपने कर्तव्य का पालन करो। १० कर्त्तव्य कीजिए दूसरों के काम आइए । त्याग कीजिए आपको अधिकार स्वतः मिलते जायेंगे। ११ सेवाधर्म अत्यन्त गंभीर है। योगियों के लिए भी अगम्य है। कर्तव्य पालन करने में मिठास है १५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सच्चा त्याग अपने आपको न व्यक्त करता है, न प्रतिदान चाहता है। वह तो अपने साथ ऐसा आनन्द लाता है जो दूसरी तमाम खुशियों से कहीं अधिक होता है। १३ जो मनुष्य प्रेम से अभिभूत होकर बिना किसी बन्धन के कार्य करता है, उसे कार्य-फल की कोई परवाह नहीं रहती। १४ "मैं कार्य के लिए ही कार्य करता हूं"--यह कहना तो बहुत सरल है, पर इसे पूरा कर दिखाना बहुत ही कठिन है। योगक्षेम-सूत्र Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहना आत्म धर्म है १ जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों को समता से सह लेता है उसके मन में कभी गांठें नहीं घुलतीं। वह न प्रियता के लिए अकुलाता है और न अप्रियता से कतराता है । सच तो यह है कि उसे जीवन की कठिन से कठिन घड़ियां भी कठिन प्रतीत नहीं होती। वह सहजता से उन्हें पार कर देता है, मात्र इसी प्रशस्त चिन्तन से कि-'यह कष्ट चिरकाल तक ठहरने वाला नहीं है।' २ ऐसे मनुष्य के लिए प्रत्येक अवस्था आनंदमयी होती है, जो उसे शांतिपूर्वक सह लेता है। ३ सहन करना बड़प्पन लाता है, सहन न करना छुटपन । ४ सहनशीलता जिसमें नहीं है, वह शीघ्र टूट जाता है और जिसने सहनशीलता के कवच को ओढ़ लिया है, जीवन में प्रतिक्षण पड़ती चोटें उसे और भी मजबूत कर जाती हैं । ५ जो अनुकलता-प्रतिकूलता को सहन करता है, वह निग्रेन्थ है। ६ कष्ट-सहिष्णुता के बिना जीवन में उदात्त धर्म की साधना नहीं की जा सकती। ७ मनोबल बढ़े बिना सहन करने की क्षमता नहीं बढ़ती। ८ सहिष्णता प्रज्वलित अग्नि है, लौ है, जिसके द्वारा जीवन आलोकित होता है। ६ निरन्तर थोड़े-थोड़े कष्टों को सहन करने का अभ्यास करने वाला व्यक्ति कष्टों के पहाड़ को अपनी भुजाओं पर झेलने में सक्षम हो जाता है। १० जो दुःखों को सहन नहीं कर सकते उन्हें सुख भोगने का अधिकार नहीं होता। ११ कष्ट के लिए कष्ट नहीं सहे जाते अपितु उद्देश्य बड़ा होता है तो उसके लिए वे सह लिए जाते हैं। १२ जो सहन करना नहीं जानता, वह नेतृत्व नहीं कर सकता। सहना आत्म धर्म है Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विकोण १ महानता की दो सीढ़ियां हैं-१. कड़वी बात का मीठा उत्तर देना । २. क्रोध के अवसर पर चुप रहना। २ मन को प्रसन्न रखने के दो उपाय हैं--१. जो कुछ हुआ सो ___ अच्छा। २. जो कुछ होगा सो अच्छा। ३ पाप के दो द्वार हैं-१. विलासिता २. दरिद्रता। ४ दो पर अमल करो-१. कहो वह जो सच्चा हो। २. करो वह जो अच्छा हो। ५ आहार के पूरक तत्त्व दो हैं-१. उपवास । २. प्रसन्नता । ६ दो बातें कभी नहीं भुलानी चाहिए-१. हमारे प्रति दूसरे का किया हुआ उपकार । २. अपने द्वारा किया हुआ दूसरे का अपकार। ७ बार-बार जन्म होने में दो ही प्रधान हेतु हैं-१. पाप । २. ऋण। ८ हमारे आनंद और सुख को लीलने वाले दो तत्त्व हैं-भय और चिन्ता। ६.दो याद रखने योग्य हैं-१. कर्त्तव्य । २. मरण । १० दो भूल जाने योग्य हैं-वह नेकी जो अपने द्वारा किसी के साथ बन पड़ी और वह बदी जो दूसरे ने अपने साथ की। ११ बुद्धिमान बनने के दो उपाय-१. थोड़ा पढ़ना, अधिक सोचना । २. थोड़ा बोलना, अधिक सुनना।। १२ निर्बाध आनंद की दो बाधाएं हैं-१. मानसिक तनाव । २. प्रमाद . १३ ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर दो वस्तुएं हैं-१. हमारे ऊपर तारों जड़ा आसमान । २. हमारे अंदर कर्तव्य की भावनाएं । १४ भले-बुरे, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य के साक्षी इस दुनिया में केवल दो ही होते हैं.-१. अपनी आत्मा। २. सर्वसाक्षी परमात्मा। १५ परिश्रम और मिताहार-ये दोनों धरती के अश्विनीकुमार हैं, सबसे बड़े वैद्य हैं। योगक्षेम-सूत्र Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा चाहो वैसा करो १ जो व्यवहार तुम्हें अपने लिए बुरा लगता है, दूसरों के प्रति भी वैसा न करो। २ कोई वह करता है जो उसे नहीं करना चाहिए तो निश्चय ही वह भोगेगा जो उसे नहीं भुगतना पड़ता। ३ जो देता है उसी को लेने का अधिकार है। इसी प्रकार जो सेवा करता है, उसी को सेवा कराने का अधिकार है । ४ जगत् में दोष-गुण दोनों ही होते हैं। तुम दोष ही ढूंढने औस देखने लगोगे तो तुम्हें दोष ही मिलेंगे। तुम अपने मन में जैसा कुछ सोचते-विचारते हो, वैसा ही तुम्हें प्रतिफल प्राप्त होता है । जो दूसरों के प्रति घृणा, भय, द्वेष, वैर और डाह रखते हैं, उन्हें दूसरों से ये ही वस्तुएं मिलती हैं। ५ जिस विषफल से तू भागना चाहता है, उसके बीज एक दिन तेरी आत्मा ने बोए थे। फिर दूसरे पर रोष और दोष क्यों ? ६ यह आशा मत करो कि सब तुम्हारी ही बात मानें, तुम्हारे ही मत का समर्थन करें, तुम्हारे ही आज्ञाकारी बनें और तुम्हारे प्रत्येक कार्य की प्रशंसा ही करें। जब तुम दूसरों के लिए ऐसा नहीं कर सकते, तब दूसरों से ऐसी आशा क्यों करते हो। करोगे तो निराशा, दुःख, अपमान-बोध और विपद् के सिवा और कुछ भी हाथ न लगेगा। ७ जो स्वयं कटु शब्द नहीं सुनना चाहता, उसे अपने मुंह से कटु शब्द नहीं निकालना चाहिए। ८ जब तूं अपने को ही अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं बना पाता है तो दूसरों से अपनी इच्छानुसार बन जाने की आशा कैसे रख सकता है ? जैसा चाहो वैसा करो १६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ऐसी कौनसी परिस्थिति है जिसमें आदमी प्रेमपूर्ण न हो सके, ऐसी कौनसी परिस्थिति है जिसमें आदमी थोड़ी देर के लिए मौन और शांति में प्रविष्ट न हो सके। हर स्थिति में, हर परिस्थिति में वह जो होना चाहे वही हो सकता है । १० जैसे आपके विचार होंगे, वैसी ही आपके लिए आपकी दुनिया बनेगी। जिस बात का आपने पक्का इरादा कर लिया है, वह बात आपको संसार में दिखलाई पड़ेगी। ११ मनुष्य जैसा भाव करता है, वैसा ही हो जाता है । उसके ही भाव उसका सृजन करते हैं । वही अपना भाग्य विधाता है। १२ दृष्टि के अनुरूप सृष्टि बनती है । अपनी दृष्टि बदलो ताकि नई सृष्टि का दर्शन कर सको। १३ दूसरों को अशांत करने वालों को पहले स्वयं को अशान्त करना होता है। १४ जो औरों के पथ में कांटे बिछाता है, उसे पहले अपने पथ में कांटे बिछाने होंगे। १५ किसी के बगीचे में आक बोने के लिए पहले व्यक्ति को अपने हाथों में आक को थमाए रहना होगा। १६ इस दुनियां में किसी के दुःख को जान लेने का एक ही मार्ग होता है कि हम अपने आपको उसके स्थान पर रखकर सोचें। १७ दूसरों के हृदय में स्थान वही पा सकता है जो दूसरों के हृदय में विश्वास पैदा करता है। १८ हम वैसे हैं जैसे हमारे विचार हैं। लम्बे समय तक हम जिन विचारों के सम्पर्क में रहते हैं सचमुच वैसे ही बनने शुरू हो जाते हैं। १६ आप अपनी सुख-शान्ति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। २० योगक्षेम-सूत्र Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीने की कला १ जीवन-निर्माण की पहली शर्त है-कठोर श्रम । २ आदमी सुख के साधन तो बहुत जुटाता है पर सुख से जीना नहीं जानता। ३ अगर आप जीने की कला में माहिर हैं तो स्वयं को परेशानियों, क्रोध और निराशाओं से मुक्त रखकर प्रसन्न, सहज और संतुलित जीवन जी सकते हैं। ४ जीवन की सफलता के लिए दृष्टिकोण सही हो। ५ जो बात तुम्हें नापसन्द है, वह दूसरों के लिए मत करो। ६ बुराई करने वालों के प्रति भी मन में सद्विचार रखो। अच्छे विचारों से ही उनका सामना करो। यही तुम्हारा आदर्श होना चाहिए। ७ आरामतलबी का जीवन असफलता का जीवन है । ८ आनन्दमय जीवन बिताने का उपाय यही है कि मनुष्य मनो नुकूल कार्य में व्यस्त हो जाए, सुख-दुःख की चिंता में अपना समय न खोए। ६ जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है-अनुशासन । १० अगर कोई मनुष्य शुद्ध मन से बोलता या काम करता है, आनन्द उसके पीछे साये की तरह चलता है जो कि उससे कभी अलग नहीं होता। ११ दूसरों से अनुचित डाह मत करो। १२ जो आदमी गुस्से से भरा हो, उससे दूर रहो। १३ सुख में फूलो नहीं, दु:ख में रोओ नहीं । उतार-चढ़ाव किसमें नहीं होता? १४ जीने का मतलब मौज करना नहीं, दूसरे की सेवा करना है । जीने की कला Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सासर में वही व्यक्ति सदा स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न रहता है और सफल होता है जो काम करते हुए, कठिन परिश्रम करते हुए भी मुस्कुराता है । १६ मेघ समुद्र 'से जल झपटता है, खारे को मीठा बनाता है, नीचे से ऊंचा उठाता है और बिना प्रतिफल की आशा के जी खोलकर बरसता है, इसी को कहते हैं 'जीवन' | २२ योगक्षेम-सूत्र Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति ही जीवन है, कमजोरी ही मौत है १ अपने को हीन एवं असमर्थ मानना तथा कोसते रहना क्या अपना और अपनी शक्तियों का अपमान नहीं है ? २ कुदरत कमजोरों से नफरत करती है । ३ विश्व के आंचल में अनेक सौन्दर्य के रत्न छिपे पड़े हैं यदि हम अपनी शक्तियों पर विश्वास रख उन्हें पाने का प्रयत्न करेंगे तो वे अवश्य प्राप्त हो जाएंगे । ४ मनुष्य कमजोर और निःसहाय नहीं है । उसका भय ही उसकी कमजोरी है, उसके दुःख ही उसकी मजबूरियां हैं और उसके भावात्मक विकार ही उसकी समस्या है | ५ तुफानी घोड़े को रस्सी की ढील देकर उसे चाहे जहां जाने देने के लिए अधिक सामर्थ्य की जरूरत नहीं, यह तो कोई भी कर सकता है, किन्तु रस्सी खींचकर उसे खड़ा रखने में कौन समर्थ है ? ६ अपने ही बल से पाये धन का भोग सुखकर होता है । ७ दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है— कामना, वासना एवं इच्छा का नियंत्रण करना । ८ सामर्थ्य के हाथी पर जब विवेक का अंकुश नहीं रहता है तो वह रौंदने और कुचलने में ही जुट जाता है । & अज्ञान एक अपूर्णता है, शक्तिहीनता एक अपूर्णता है, सुखदुःख की अनुभूति एक अपूर्णता है । १० शक्तियों में सबसे बड़ी शक्ति होती है— आत्म विश्वास की । ११ कमजोर आदमी बहुत बड़ा अच्छा काम नहीं कर सकता तो बहुत बड़ा बुरा काम भी नहीं कर सकता । १२ स्वास्थ्य, वैभव और चातुर्य यदि कम पड़ता है तो चिन्ता न करो । चिन्ता की बात एक ही है-आत्मगौरव का भान न होना और आत्मबल का घट जाना । शक्ति ही जीवन है, कमजोरी ही मौत है। २३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ मन की शक्ति का विकास अभ्यास करते रहने में है, विश्राम में नहीं। १४ स्वेच्छा से ग्रहण किये गए दुःख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है। १५ अपनी शक्ति का उपयोग करो, उसे छिपाओ मत । योगक्षेम-सूत्र Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाकीपन का आनन्द १ आत्मिक रूप से एकाकी होने का आभास व्यक्ति को दिव्यता की ओर प्रेरित करता है। २ महापुरुष सर्वाधिक शक्तिशाली तभी होते हैं, जब वे अकेले खड़े होते हैं। ३ एकाकीपन से स्मृति तीव्र होती है। ४ जब हम लोगों से घिरे रहते हैं तो अंतर्दृष्टि क्षुद्र बातों में व्यर्थ चली जाती है। हां, जब अकेले होते हैं तो हम उन प्रश्नचिन्हों की ओर ध्यान देने के लिए विवश हो जाते हैं, जिन्हें अनुभव हमारे हृदय में उठाता है। ५ अकेलेपन की प्रकृति में कुछ ऐसा है जो आत्मा के विकास में योग देता है। बहुत से लोगों का अकेलापन उस खोज से आलोकित हुआ है जिसके बारे में कहा गया है-ईश्वर हर व्यक्ति में विद्यमान है। ६ अकेलेपन में ही हम अपनी भय की वृत्ति पर काबू पाना सीखते हैं। ७ याद रखिए, लोगों से भरेपूरे घर में रहते हए भी हम सब के सब अकेले हैं। हम सब अकेले पैदा होते हैं और अकेले अपने जीवन का अर्थ पाते हैं। अकेले मरते हैं। हम सबसे महत्त्वपूर्ण काम यही कर सकते हैं कि साहस, विनय और सुंदरता के साथ जीना सीख जाएं। ८ महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि आप अकेले हैं । महत्त्वपूर्ण यह है कि आप अकेलेपन का उपयोग क्या करते हैं ? अकेले होकर आप दुष्टता की सीमा तक भी जा सकते हैं और महानता के शिखर को भी छू सकते हैं। ६ अकेलापन कोई विपदा नहीं बल्कि एक अवसर है शक्ति को जगाने का । अपने भीतर के उन आलोकित कोनों में जाइए, जिनसे आप अब तक प्रायः अपरिचित रहे हैं। 'एकाकीपन का आनन्द Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अपने आप से प्रेम कीजिए । अपना आदर कीजिए और जीवन का आनन्द लूटिए। ११ अकेलापन परिपक्वता की ओर अग्रसर होने का अवश्यंभावी अंश है । अच्छी तरह व्यतीत हुआ अकेलेपन का समय उस गन्दगी की निकासी का मार्ग है जिसने जीवन में अवरोध पैदा कर दिया था। १२ जो व्यक्ति अपने अकेलेपन का आनन्द उठाने का साहस नहीं जुटा पाता, वह स्वतंत्र नहीं है। १३ हमारा जीवन ऋतुओं के समान है, उसमें कभी बसंत का आगमन होता है तो कभी पतझड़ का। दोनों में मध्यस्थ रहने वाला एकाकीपन का आनन्द ले सकता है। १४ एकाकी लोगों के जीवन में समय-समय पर अकेलेपन के जबरदस्त झोंके आते हैं, वे उन उदास घड़ियों में क्षत-विक्षत हो जाते हैं, जिनमें उन्हें बिना किसी की मदद के जो करना होता है, बहत बड़ा बोझ लगता है। लेकिन एकाकीपन में भी संतोष, संवेदनशीलता और आनन्द से परिपूर्ण जीवन प्राप्त हो सकता है। एकाकीपन की अनचाही घड़ियां आनंद पाने के ढंग सिखाने का प्रयत्न करती हैं। १५ जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह उन्हें मिलता है जो अकेले होने का साहस रखते हैं। १६ वही व्यक्ति अकेला हो सकता है, जो अभय है। १७ जो अकेला होना जानता है, वह ईश्वर है। जो अकेला होना जानता है, वह आत्मज्ञानी है। जो अकेला होना जानता है, वह आध्यात्मिक है। जो अकेला होना जानता है, वह धामिक है। १८ जो आदमी अपने भरोसे पर होता है, विश्वस्त होता है, तनाव से मुक्त रहता है, वास्तव में वह अकेला होता है। १९ अकेलेपन का अनुभव सबसे बड़ा आनंद है और अकेलेपन की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। २० एकान्त में बैठनेवाले के राग-द्वेष कम होता है एवं काम जल्दी होता है। २१ एकान्त में रहना ही महान् आत्माओं का भाग्य है । योगक्षेम-सूत्र Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहार पवित्र होने से अन्तःकरण पवित्र होता है १ जो आमाशय पर अधिक भार लादता है, वह व्यक्ति अपने जीवन में कभी प्रफल्लता की अनुभूति नहीं कर सकता। जितनी ओवर इटिंग होगी, पाचन-तंत्र को अधिक सक्रिय होना पड़ेगा। फलतः ऊर्जा की खपत अधिक होगी और व्यक्ति दीनता-हीनता का शिकार हो जाएगा तथा उसे अजीर्ण, अपच, गैस ट्रबल जैसी बीमारियों से निरन्तर जूझना पड़ेगा। २ उपवास से मन का संयम, वत्तियों का परिमार्जन और भावनाओं की विशुद्धता बढ़ती है। ३ प्रातःकाल का हल्का भोजन दिनभर की स्वस्थता एवं प्रसन्नता का दाता है। ४ भोजन की अतिमात्रा बुद्धि की निर्मलता एवं शारीरिक क्षमता को कम करती है। ५ मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसा ही उसका मन हो जाता है। ६ आंतों को स्फूर्ति उपवास से मिलती है। ७ स्वास्थ्य का उपाय दवा नहीं, स्वास्थ्यकारी भोजन है। ८ क्षोभरहित प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए। ६ जो भोजन दीर्घ जीवन, आरोग्य, स्वर्ग देने वाला न हो, पेट पालक ही हो, उसे त्याग दें। १० शुद्ध, सात्विक, न्यायोपाजित, संस्कारी आहार प्राप्त किया जाना चाहिए और उसे शरीर के लिए औषधि एवं अन्तःकरण शुद्धि के लिये सहयोगी मानकर अनासक्त भाव से खाना चाहिये। ११ आप अंटसंट खाकर जीभ की आराधना करते रहें और ईश्वर पद मिल जाए, यह कैसे संभव है ? १२ भोजन को खूब चबाकर खाओ, क्योंकि पेट में दांत नहीं होते। आहार पवित्र होने से अन्तःकरण पवित्र होता है २७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ दुर्जन का अन्न खाने से बुरी वृत्ति अवश्य पैदा होती है । १४ जो मनुष्य जिह्वा के वश होता है, उसकी बुद्धि नाश को प्राप्त होती है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि भी मंद हो जाती है । १५ बुरे संस्कार आने का पहला द्वार है-आहार-अशुद्धि । १६ आहार-शुद्धि से मन शुद्ध होता है। १७ मन के असंतुलित होने पर सात्विक भोजन भी तामसिक बन जाता है। १८ मन को सरस, सात्विक एवं हल्का बनाने के लिए तामसिक भोजन का परहेज आवश्यक है। १६ आहार शुद्धि के अभाव में ब्रह्मचर्य, वाणी की मधुरता, पवित्रता एवं स्वास्थ्य उपलब्ध नहीं होता।। २० जो हित, मित और अल्पमात्रा में भोजन करते हैं, उनकी वैद्य चिकित्सा नहीं करते । वे स्वयं अपने चिकित्सक हैं। २१ भोजन के प्रति आसक्ति उतनी तीव्र न हो जाए कि रस मनुष्य को पराजित कर दे। २२ अच्छा व्यवहार अच्छे विचार बिना नहीं, अच्छे विचार अच्छे संस्कार बिना नहीं और अच्छा संस्कार अच्छे आहार बिना नहीं हो सकता। २३ हमारा आहार पवित्र धन द्वारा इकट्ठा किया गया होना चाहिए और उसमें वही पदार्थ होने चाहिये जो मंदिर में देवताओं के भोग के लिए रखे जाते हैं। २४ हमें किसी कामी व क्रोधी मनुष्य द्वारा पकाया गया भोजन सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि जैसे अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है, वैसे ही मन का प्रभाव भी अन्न पर पड़ता है। २५ सतोगुणी आहार अपार सद्बुद्धि उपजाता है, तमोगुणी . आहार दुर्बुद्धि उपजाता है। २६ आहार पवित्र होने से अन्तःकरण पवित्र होता है । अन्तःकरण की शुद्धि से विवेक-बुद्धि प्रखर होती है । २७ सात्विक भोजन सात्विक मन को पैदा करता है। २८ यह सच कहा है-'जिसने थोड़ा खाया उसने बहुत खाया, जिसने बहुत खाया उसने कम खाया।' योगक्षेम-सूत्र Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्की भारी खम लेणी पण कडवो बोल न केणो १ मधुरवाणी में शक्ति बसती है और सुन्दर आचरण में पवित्रता रहती है। २ चभती बात से मोती की तरह मन टूट जाता है। किंतु मुश्किल यही है कि मोती मिल जाता है, मन नहीं मिलता। ३ आप कुछ नहीं दे सकते तो मीठे वचन तो दे सकते हैं। मीठे वचनों के लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। मीठे वचन बोलने में कोई विशिष्ट श्रम या कठिनाई भी नहीं होती। वे सबके लिए सर्वत्र सुलभ हैं। ४ पहले सोचो, फिर बोलो। ५ मृदु बोलने से व्यक्ति संतुष्ट एवं कड़वा बोलने से रुष्ट होता ६ अहितकारी वाणी मत बोलो। जहां कलह हो, दूसरों का अहित हो, वहां मौन करना, मौन के मर्म को समझना है । ७ अनेकान्त की भाषा प्रतिक्रिया पैदा नहीं करती। दूसरों को सोचने को बाध्य नहीं करती। ८ पाप और पुण्य इसी वाणी के प्रतिफल हैं। ६ बोलते समय इस बात का ध्यान रखो कि तुम गुस्से में तो नहीं बोल रहे हो? १० बोलो तो वैसा शब्द बोलो जिसे वापस न लेना पड़े। ११ जब बोलो, तब नम्रता से बोलो। १२ मीठी बात से सभी प्रसन्न होते हैं, वही कहो । कहने में कंजूसी क्यों ? १३ मीठा बोल्यां मन बढे, कड़वा बोल्यां राड़। १४ अधिक बोलने की प्रवृत्ति आदमी को झूठ बोलना सिखा देती है । जो संयत, सीमित बोलता है, वह झूठ बोलने से बच जाता है। हल्की भारी खम लेणी पण कडवो बोल न केणो २६ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ वह आदमी वास्तव में बुद्धिमान है, जो क्रोध में भी गलत बात मुंह से नहीं निकालता। १६ सभी आक्रमण अतिक्रमण से उत्पन्न होते हैं, लिहाजा कटु वचन बोलना भी सामने वाले के आत्म-सम्मान और व्यक्तित्व के प्रति किया गया अतिक्रमण ही है, एक अनधिकृत और निन्दनीय चेष्टा है और मानसिक विकृति का सूचक है। अहंकारी, ईर्ष्यालु व क्रोधी कठोर वाणी का प्रयोग करते हैं। योगक्षेम-सूत्र Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसी जीवन का प्रभात है १ जो स्वयं हंसता है, वह दूसरों को भी हंसा सकता है । २ जीवन भर हंसते रहने वाला व्यक्ति अपने अन्त समय का स्वागत भी हंसकर करता है । ३ हम प्रसन्न रहें, प्रसन्नता बांटे और हंसी-खुशी का वातावरण बनायें, इसी में जीवन की सार्थकता है । ४ हंसी एक स्वस्थ मन की उपज है । ५ एक ताजगी, एक उत्फुल्लता - यही है हंसी का लुभावना उपहार | ६ आदमी सब दुःखों को हंसकर भूल जाता है, रोकर बढ़ाता है । ७ हंसी मन की गांठें खोलती है । अपनी ही नहीं, दूसरों की भी । वह सन्तुलन जो किसी निद्राविहीन रात्रि, अशुभ समाचार या दुःख, संताप अथवा चिंता के कारण बिगड़ सकता है एकबार जी खोलकर हंस लेने से पूरी तरह पुनः स्थापित हो जाता है । ६ शोकाकुल, चिंतातुर, व्यग्र, उद्विग्न और क्रुद्ध व्यक्तियों को कभी हंसी नहीं आती । ऐसे व्यक्तियों को किसी प्रसंगवश हंसी आ जाये तो फिर न संताप रहता है, न शोक, न चिन्ता सताती है और न व्यग्रता । १० हमेशा खुश रहो, इससे दिमाग में अच्छे विचार आते हैं और मन सदा नेकी की ओर लगता है । ११ नन्हीं - नन्हीं टहनियों पर खिलने वाले फूल केवल खिलना ही नहीं जानते, आगन्तुक को खिलाना भी जानते हैं । मुरझी हुई पत्तियां पथिकको आनन्द एवं उल्लास प्रदान नहीं करा पाती । १२ हंसते-मुस्कराते व्यक्ति के पास बैठने का, उससे बातें करने का हर किसी का मन करता है । १३ मन की दबी-जमी परतें हंसी की सरस उमंग से थिरककर खुलती ही चली जाती हैं और आप बेहद हल्के हो उठते हैं । हंसी जीवन का प्रभात है ३१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विपत्ति संपत्ति है १ सङ्कट या तो मनुष्य को तोड़ देते हैं या फिर उसे चट्टान जैसा मजबूत बना देते हैं । २ कष्ट और क्षति सहने के पश्चात् मनुष्य अधिक विनम्र और ज्ञानी होता है । ३ सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं । बाजी पर बाजी हारते हैं, चोट पर चोट खाते हैं, धक्के पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं । उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते, हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते। वे न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं । ४ पेड़ के नीचे चीते को खड़ा देखकर बन्दर हक्का-बक्का हो जाता है और हड़बड़ी में नीचे आ गिरता है । चीता उसे चुपचाप मुंह में दबाकर चल देता है । विपत्ति की घड़ी सामने आने पर अक्सर लोग ऐसी ही भयभीत स्थिति में फंस जाते हैं और बेमौत मरते हैं । ५ जीवन में आने वाली कठिनाइयां व समस्याएं आत्म विकास को गति देती है । ६ विपत्ति मनुष्य के ओज, धैर्य और साहस की कसौटी है । ७ जितनी कठिनाईयां सुख में बढ़ती है, उतनी दुःख में नहीं । समझदार वही हैं जो मुसीबत में भी होश - हवास न खोये । विपत्ति में भी जिस हृदय में सद्ज्ञान उत्पन्न न हो, वह उस सूखे वृक्ष के मानिंद है जो पानी पीकर भी पनपता नहीं, सड़ जाता है । १० अजेय है वह, जो जीवन की हारों में हारा नहीं । ११ सुख सौभाग्यशाली को परखता है और संकट महान् व्यक्ति को । योगक्षेम-सूत्र Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संकट अगर न होते तो इस विश्व में महान् व्यक्तियों के चरित्रों को, जो हीरे के समान आज चमक रहे हैं, कौन चमकाता ? १३ विपत्ति से बढ़कर तजुर्बा सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला । १४ महान् वही है, जिसने जीवन के समस्त तूफानों को हंसतेहंसते झेलकर असफलताओं व कठिनाइयों को पार किया है, सफलता के पास पहुंचे हैं । विपत्ति संपत्ति है ३३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याओं का सागर : प्रयोगों की नौका १ समस्या सुलझाने का छोटा सा प्रयोग शांत होकर कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठे। श्वास शांत, शरीर शांत, मांसपेशियां शिथिल । दस मिनिट तक आंखें बन्दकर चाक्षष-केन्द्र आंखों पर पीले रंग का ध्यान करें। अथवा आनन्द केन्द्र पर दस मिनट तक सुनहले रंग का ध्यान करें। ऐसा लगेगा समस्या बिना सुलझाए सुलझ रही है, समाधान स्वतः कहीं से उतरकर सामने आ रहा है। २ समस्या को समझना एक समाधान है। ३ तनावों की तीव्रता में नाक से श्वास लेकर मुंह से निकालते हुए तुरन्त लाभ उठा सकते हैं। इससे कार्बन का विशेष भाग बहिष्कृत हो जाता है। ४ खाना खाने के बाद वज्रासन में बैठने से गैस कम बनती है। ५ दीर्घ श्वास लेना तथा दांये स्वर में भोजन करना स्वस्थता का उपाय है। ६ उत्तेजना के समय श्वास को देखें और उस कमजोरी से मुक्त होने के लिए ज्योतिकेन्द्र-ललाट पर चमकते श्वेत रंग का ध्यान करें। ७ खाने के बाद सोयें तो कायोत्सर्ग में सोयें। ८ श्वास को गले से पीने से क्षुधा शांत होती है। ६ स्मरण-शक्ति की दुर्बलता मिटाने के लिए मस्तिष्क के आस पास चमकते पीले रंग का ध्यान करके लाभ उठा सकते हैं। १० सोते समय शरीर को ढीला एवं मन को विचारों से खाली करने का सर्वोत्तम उपाय श्वास-दर्शन और कायोत्सर्ग है । योगक्षेम-सूत्र ३४ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अधिक देखने तथा अधिक सुनने से चित्त चंचल होता है अतः कम देखें, कम सूनें। यदि किसी क्षण मन ज्यादा चंचल हो जाये तो एक आसन में स्थिर होकर अपने दोनों हाथों को बगल में दबा लें। इस प्रयोग से चित्त-स्थिरता प्राप्त होती है । १२ बायें स्वर के चलते समय अगर माला, जाप एवं ध्यान करते हैं तो मन स्थिर होगा। दांये स्वर में चित्त की चपलता बढ़ेगी। १३ शरीर में विकार, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा की बीमारी अधिक नमक खाने से होती है। १४ सुबह बिस्तर पर आंख खुलते ही जिस ओर का स्वर चल रहा हो, उसी ओर का प्रथम पैर जमीन पर रखने से भाग्योदय होता है। १५ छाती, पीठ, कमर, पेट में एकाएक दर्द उठने पर जो स्वर चलता हो, उसे सहसा पूर्ण बन्दकर देने से दर्द शान्त । १६ थकावट या परिश्रम को दूर करने या धूप की गर्मी से शांति पाने के लिए थोड़ी देर दाहिनी करवट लेटने से फायदा होता १७ तत्काल गुस्से से छुटकारा पाने का एक उपाय है-एक क्षण के लिए श्वास को रोक देना। १८ पेट में गर्मी एवं जलन होने पर उसे शान्त करने के उपाय हैं-भुजंगी प्राणायाम (पूरा मुंह खोलकर तेजी से श्वास लेना या दंत पंक्तियों को मिलाकर जोर से श्वास खींचना, श्वास नासिका से निकालना एवं मुंह से लेना) व ठंडी चीज का स्मरण, ब्लू रंग की बोतल पानी का प्रयोग । १६ दांत दर्द होने पर पेशाब या शौच के समय अपने दांतों को जोर से दबाने पर शिकायत दूर होती है। २० आंख बीमार होती है तो पैरों को ठंडे पानी में रखने से बीमारी शांत होती है। २१ सर्दी के दिनों में अंगुलियों के बीच के अंतरालों में यदि सरसों का तेल मसला जाए तो भयंकर सर्दी का प्रकोप मिट सकता समस्याओं का सागर : प्रयोगों की नौका ३५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कलह का वातावरण हो, वहां मौन हो जाएं, कलह टल जाएगा। २३ अधिक नमक का उपयोग, अधिक खट्टा भोजन तथा ठंडे भोजन को दोबारा गर्म करके खाना ये सब शरीर में Acidity को बनाते हैं। २४ अपना सिर उत्तर दिशा में रखकर सोने से कुछ प्रमुख दिमागी तरंगें दब जाती हैं, जिससे संशय की संभावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। साथ ही उल्लासविहीनता, बैचेनी और सामान्य सुस्ती भी पैदा हो जाती है। पूर्व की ओर शीर्षाग्र करके सोने से अतिशय शान्ति, सजगता तथा स्वस्थता का अनुभव होता है। योगक्षेम-सूत्र Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल करे सो आज कर १ आज का स्वागत करो। यही जीवन है, जीवन का सार है । मानव अस्तित्व की सभी विविधताएं, वास्तविकताएं इसी में निहित हैं। इसमें विकास का वरदान है, कर्म का माहात्म्य है और सिद्धि का वैभव है। २ ऐसा न सोचें कि अवसर दोबारा द्वार खटखटायेगा। ३ विचार उठा, अवसर मिला और काम पूरा किया-यही मूल मंत्र है समय का पूरा-पूरा उपयोग करने और विचारों को सार्थक करने का। ४ तुम काम करने के लिए जिस उपयुक्त क्षण की प्रतीक्षा करते हो, वह यही क्षण है। ५ जीवन का कोई भरोसा नहीं, नेक काम के लिए समय की प्रतीक्षा न करो। ६ कल की प्रतीक्षा न करो, कौन जाने जीवन का कल आयेगा या नहीं। ७ बीती रात कभी वापस नहीं लौटती। ८ वर्तमान में ही सब कुछ होता है, अतीत अभिव्यक्त होता है वर्तमान में और भविष्य जन्म लेता है वर्तमान में। ६ किसी काम को कल के लिए छोड़ना सचमुच सदा के लिए छोड़ने जैसा है। १० अपना काम बनाने में शीघ्रता करो, क्योंकि जीवन के दिन बहुत ही शीघ्र बीते जा रहे हैं। परोपदेश में ही आयु बिता दोगे तो न तुम्हारा कल्याण होगा और न कोई जबानी खर्च से दूसरों का ही दुःख दूर होगा। पहले धनी बनो, फिर बांटो। काल करे सो आज कर ३७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ इस दुनिया में भीड़ इतनी बढ़ चुकी है कि यदि हम आज किसी को खो दें तो कल उसे पाना कठिन हो जाता है । १२ गया वक्त न वापस आता, आवे चाहे आप विधाता। १३ जो आज जीने की हिम्मत करता है और कल की फिक्र नहीं करता, ऐसा आदमी खतरे में जी रहा है। १४ जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के पंजे से निकलकर पलायन कर सकता हो और जो जानता हो कि मैं नहीं मरूंगा, वही इच्छा कर सकता है कि यह काम कल करूंगा। योगक्षेम-सूत्र Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है १ क्रोधी का दिमाग मानों बारुद का कारखाना है, जरा सी ____टक्कर लगते ही भड़का होते देर नहीं लगती। २ मौत शरीर को मारती है तो क्रोध संयम की मौत है। ३ शब्द की टक्कर लगते ही क्रोध उबल पड़ता है। क्रोध के क्षणों में मनुष्य सोचता है जिसके प्रति क्रोध आ रहा है उसको अधिक से अधिक पीड़ा पहुंचाई जाये और इसीलिए वह मर्मबेधी शब्दों का प्रयोग करता है। ४ क्रोध की उत्पत्ति में बहुत बड़ा कारण है-दृष्टिकोण । ५ क्रोध की अवस्था में खाना-खिलाना अस्वस्थता को जन्म देता ६ जिसके पित्त का प्रकोप है उसके क्रोध का प्रकोप ज्यादा होता है, उसे दिन भर नोंकझोंक करना पंसद है। ७ क्रोध आवे तो उसे जल्दी विदा कर दो। रात भर अपने साथ मत सोने दो। ८ क्रोध करने वाला हार जाता है एवं समता रखने वाला विजयी बन जाता है। ६ क्रोध सबसे फुर्तीला मनोविकार है। १० क्रोध प्रीति का नाश करता है । ११ क्रोध गलती पर करो, गलती करने वाले पर नहीं। १२ क्रोधी मनुष्य आंखें मूंद लेता है और मुंह खोल देता है। क्रोध के उपशमन के लिए क्षमा के देवता गजसुकुमाल मुनि को याद करना चाहिए। १३ जब तक मोह है तब तक क्रोध आता रहेगा। क्रोध आया, लड़ लिये और मिल गए, यह मानव का चित्र है। किंतु क्रोध क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया लड़े और क्रोध शान्त होने के बाद एक-दूसरे को मिटाने में जुट गए, यह भेड़िए का चित्र है । लड़ाई शत्रुओं की अपेक्षा मित्रों में ज्यादा होती है । १४ क्रोध का प्रभाव पेट पर बुरा पड़ता है यह रक्त को पानी के समान पतला कर देता है । १५ जो विवेक का अपहरण करले, वह क्रोध नहीं पागलपन है । १६ क्रोध पैदा होने का एक कारण है – 'काम' । कामना की अपूर्ति की पहली प्रतिक्रिया है - क्रोध । १७ सज्जनों का क्रोध शीघ्र समाप्त हो जाता है । १८ ज्योति केन्द्र पर ध्यान करने वालों का क्रोध शांत हो जाता है | १६ धैर्यवान व्यक्ति के क्रोध से बचो २० जब तुम खिन्न मन हो तब किसी प्रकार का निर्णय न लो । २१ दूसरे को गुस्से में देखकर हमने शान्ति छोड़ दी तब फिर हमारी शांति का कोई मूल्य नहीं है । २२ जीव- पुद्गल के योग से ही क्रोध, मान आदि अवस्थाएं घटित होती हैं । ४० २३ जैसे ही मन में क्रोध जागृत हो, दीर्घश्वास का प्रयोग शुरु कर दें | श्वास के रेचन के साथ कार्बन निकलता है और साथ-साथ क्रोध की ऊर्जा भी निकल जाती है । २४ थोड़ी-सी अनुकूलता - प्रतिकूलता पाकर काम-क्रोध आदि का उभड़ आना आन्तरिक कमजोरी का लक्षण है । २५ गुस्से में आदमी अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुःखाना चाहता है । क्रोध अत्यन्त कठोर होता है, वह देखना चाहता है कि मेरा एक-एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं। ऐसा कोई घातक शस्त्र नहीं है जिससे बढ़कर काटनेवाले यंत्र उसकी शस्त्रशाला में न हों लेकिन मौन वह मंत्र है जिसके सामने गुस्से की सारी शक्ति विफल हो जाती है, मौन उसके लिए अजेय है । योगक्षेम-सूत्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ क्रोध आता है-दुर्बल को, आर्थिक दृष्टि से कमजोर को, प्यासे को, भूखे को, सम्मान की आकांक्षा वाले को, तपस्वी को, बीमार को या फिर कर्मों के कारण।। २७ क्रोध अग्नि है वह तन और मन को जलाता है। समता के __अमृत रस से उसे शान्त करने का प्रयास करो। २८ समझाने-बुझाने से जिसका गुस्सा शान्त नहीं होता, जीवन में बहुत सारी ठोकरें खाने के बाद उसका गुस्सा सुगमता से शांत हो जाता है। "क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है ४१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुको मत, बुझना पाप है १ बुझो मत, बुझना पाप है । जलो और इस प्रकार जलो कि तुम्हारे जलने से घोर अमां पूनम की रात बन जाये और आसपास की कालिमा भी दूर हो जाये । २ निराशा की गोद में घुसकर आप कोई काम नहीं कर सकते । मैं मरूंगा नहीं क्योंकि मैं कोई ऐसा काम करूंगा नहीं । मरे वो जो जिंदगी से बुझे, थके, हारे या टूटे या जो पराये दर्द का पंथ नहीं बुहारे । ४२ ४ जितने बड़े काम उतने ही बड़े खतरे । अतः किसी खतरे के भय से बड़े काम को रोकना भूल है । ५ जिसका मन हार जाता है वह बहुत कुछ होते हुए भी अन्त में पराजित हो जाता है । जो शक्ति न होते हुए भी मन से हार नहीं मानता उसको दुनियां की कोई ताकत परास्त नहीं नहीं कर सकती । ६ धैर्य से शांति से क्या नहीं हो सकता ? , ७ अनेक बार घोर निराशा के बादलों के पार ही आशा की किरण चमक उठती है और पहले के आशा के खण्डहरों पर ही सफलता का नया भवन बन जाता है । दीप समजला करो, फूल सम हंसा करो । हर कठिन जीवन घड़ी में धैर्य धर बढ़ा करो ॥ ६ वही सच्चा साहसी है जो कभी निराश नहीं होता । १० मंजिल पाने में गति भले ही धीमी हो, पहुंच जायेंगे पर न चलने से नहीं पहुंचा जायेगा । ११ जूगनू तभी तक चमकता है जब तक उड़ता रहता है, यही हाल मन का है । जब भी हम रुकते हैं, अंधेरे में पड़ जाते हैं । योगक्षेम-सूत्र Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मशील व्यक्ति प्रायः उदास नहीं रहते क्योंकि कर्मशीलता और गमगीनी साथ-साथ नहीं रह सकती । १३ असफलताओं से हिम्मत ना हारो । १४ निराशा से हिम्मत ना हारिए सदैव आशान्वित रहिए। जहां चाह है मार्ग स्वतः बनता जाता है । १५ सबसे बड़ी शक्ति अपनी शक्ति है । सच्चा साथी तो अपनी योग्यता है | सच्ची प्रेरक शक्ति प्रकृति है जो हर वक्त प्रेरणा दे रही है । उठो ! आगे बढ़ो ! गतिशील रहो ! ठहरो मत ! ठहराव ही सड़न पैदा करता है । रुका हुआ पानी सड़ जाता है । १६ जो लोग आत्महत्या करके मर जाते हैं उनमें अधिकांश निराशावादी होते हैं । जीवन से निराश लोग होते हैं । १७ साहस मानसिक शक्तियों का नायक है । यह हार जाता है तो निर्णयशक्ति समाप्त हो जाती है, उत्साह फीका पड़ता है एवं तर्क शक्ति मन्द पड़ जाती है । यह सब मनुष्य के मन में शंका एवं भय भर जाने से होता है । १८ आप धरती पर प्रसन्नता से जीने के लिए आये हैं । आप जीवन से हारने नहीं जीतने आए हैं। आपका जीवन प्रसन्नता, शान्ति और उत्साह के लिए है, दुःखों और निराशाओं के लिए नहीं । १६ मानव ! तुम संसार में महान् आदमी हो। तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, अक्षय आनन्द के भंडार हो । तुम्हारे एक हाथ में स्वर्ग और दूसरे में नरक । तुम्हारी एक भुजा में संसार दूसरी में मुक्ति । तुम्हारी एक दृष्टि में सृष्टि दूसरी में प्रलय । तुम भाग्य के खिलौने नहीं, निर्माता हो । तुम समय के सेवक नहीं, शासक हो । तुम काल के ग्रास नहीं, किन्तु कालजयी पुरुष हो । तुम अपने स्वरूप को समझो, शक्तियों को जगावो और जो आज तक नहीं कर पाए, वह कर दिखाओ । २० जो अपने से निराश हो गया उसकी कौन आशा बांधेगा । बुझो मत, बुझना पाप है ૪૩ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ दूर से पहाड़ जैसी बड़ी और भयंकर दिखायी पड़ने वाली __ मुसीबत चाहे जितनी विशाल और विराट क्यों न दिखाई दे, निकट आने पर उसमें कहीं न कहीं पगडंडी और रास्ते निकल ही आते हैं। २२ जीवन में पग-पग पर जो गुत्थियां आती हैं, उन्हें सुलझाओ, तन्मय बनकर सुलझाओ किन्तु मस्तिष्क पर उनका भार मत ढोओ। २३ अरे आलसी ! चींटियों के पास जा और उनका श्रम देख । २४ कर सकता हं पर करता नहीं-यह सबसे बुरी आदत है। यह बदल जाये तो शक्ति का महान् स्रोत उपलब्ध हो जाता है। ४४ योगक्षेम-सूत्र Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोये बबल, खाये आम ? १ अच्छी और सदाचारी संतान उत्पन्न करने के लिए पहले माता-पिता को अच्छा और सदाचारी बनना चाहिए। बबूल के वृक्ष में आम का फल नहीं लग सकता।। २ मनुष्य जो बोता है वही काटता है। यदि आप अपने अन्दर शंका, निराशा, तुच्छता आदि विचारों के बीज बोते हैं तो आपको जीवन में ये दुर्गुण सौगुने प्राप्त होंगे। इसके विपरीत सफलता, प्रेम, सुख, स्वास्थ्य और सम्पन्नता के विचार रखते हैं तो जीवन में वही प्राप्त होंगे। ३ व्यक्ति किसी दिन पाप का पौधा उगाकर भाग खड़ा होता है लेकिन एक दिन वह पाप का पौधा वटवृक्ष बनकर व्यक्ति के सामने आ खड़ा होता है । ४ आज जो बीज बोया जा रहा है, कल वह भविष्य बनेगा। ५ जैसा मूल होगा वैसा ही फूल होगा, वैसा ही फल होगा। ६ अपनी अच्छी करणी अच्छा फल देगी, अपनी बुरी करणी बुरा फल देगी। ७ एक पाप दूसरे पाप के लिए दरवाजा खोल देता है। ८ यह जीव लक्ष्मी को चाहता है पर अच्छे-अच्छे धर्म में आदर बुद्धि नहीं करता। क्या बीज के बिना भी कहीं धान्य की उत्पत्ति दिखाई देती है। ६ अपना किया हुआ अपने को ही भुगतना पड़ेगा। १० कोई आदमी चाहे जितना खतरनाक हो लेकिन इतना खतर नाक कभी नहीं होता कि अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारे । ११ जिन दृश्यों के अभिनय ने तुम्हें रूलाया, वैसे दृश्य जीवन में ___तुमने स्वयं निर्मित किए। बोये बबूल, खाये आम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ हमारा पतन और उत्थान हमारे ही हाथ है। १३ होशियार बनकर तुम सदा इस फिक्र में रहते हो कि कोई मुझे ठगे नहीं, गाली न दे, अपमानित न करे, इससे कहीं अधिक उत्तम यह है कि तुम इस बात की फिक्र रखो कि मैं कभी दूसरों को न ठगं, न गाली दूं और न ही अपमानित करूं । योगक्षेम-सूत्र Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतावला सो बावरा, धीरा सो गंभीरा १ जल्दबाज, उद्विग्न, आवेशग्रस्त, सामर्थ्य से अधिक काम करने वाला, तनाव भरा जीवन वस्तुतः गरम जीवन कहा जा सकता है । धैर्यवान, शान्तचित्त, दूरदर्शी, प्रवृति के मनोविकारों एवं इन्द्रिय उत्तेजनाओं को नियंत्रण में रखने वाले, आहार-विहार में सात्विकता बरतने वाले ही शांत एवं शीत प्रकृति के कहे जा सकते हैं । उन्हीं का हृदय, फेफड़ा, स्नायुसंस्थान तथा रक्त प्रवाह सौम्य, शान्त एवं स्वाभाविक रीति से काम करता है । गर्मा-गर्म गर्मी से भरे लोग जल्दी उफनते और जल्दी चलते हैं । उनका आयुष्य कम हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? २ जिस व्यक्ति ने रात्रि के समय आनेवाले कल का कार्यक्रम नहीं बना लिया तथा जिसने बिस्तर से उठते समय आंखें मूंदकर भगवान् का ध्यान नहीं किया, उसका दिन कभी ठीक न बीतेगा। बिस्तर से जो कूदकर उठता है, वह वैसी ही मूर्खता करता है जैसी कि मोटर गाड़ी चलाने वाला तीसरे गियर में गाड़ी स्टार्ट करने में करता है । झटके से गाड़ी खराब हो जाती है । आंख खुलते ही कूद पड़नेवाला व्यक्ति शरीर की मशीन को घिस डालता है । ३ उतावली न करो । प्रकृति के सब काम एक निश्चित गति से चलते हैं । ४ जो निमित्त मिलने पर भी अपने को स्थिर रखते हैं, वे धीर हैं । ५ विशिष्टि ज्ञान उत्तेजना की स्थिति में नहीं, समाधि में होता है । ६ जीवन धरती है आकाश नहीं, इसलिए धीरे चलो पर क्रम से चलो । उतावला सो बावरा, धीरा सो गंभीरा ४७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ जीवन में उतावले न हों, जल्दबाजी को निकाल दें। ऐसा काम न करें जिससे सांस को धक्का लगे । कैसी ही परिस्थिति क्यों न आए सांस को आघात न पहुंचने दें। दिमाग को ठण्डा रखें। हर परिस्थिति में कहें ठीक है। ठीक है शब्द एक रामबाण औषधि है । जिससे शान्ति और आनन्द में रह सकते हैं। ८ जब काम बहुत है और समय कम है तो मनुष्य क्या करे ? धैर्य रखे जो ज्यादा उपयोगी माने उसे पूरा करे और बाकी ईश्वर पर छोड़ दे। ६ अल्लाह सब्र करनेवालों से मुहब्बत रखता है। १० आज के युग में सबसे बड़ी बीमारी है-- उतावलापन । ११ धीमी श्वास धीरज की निशानी है । ४८ योगक्षेम-सूत्र Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनदेखा करना सीखिए १ छोटी-छोटी भूलों को तूल देने की बजाए बेहतर है उसे अनदेखा कर दिया जाए। बेवजह उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर क्यों अनावश्यक तनाव को जन्म दिया जाए? २ स्वभाव में थोड़ा सा लचीलापन लाकर बात को आई गई ___ कर देना बेहतर है, कम से कम इससे शांति तो बनी रहेगी। ३ जो जरूरी है, उसे पूरा कर दें। जो गैर जरूरी है, उसे भूला ४ झगड़े का मुख्य कारण है-अनदेखा न करना। ५ छोटी-छोटी रोजमर्रा की बातों पर बहस करना, प्रतिष्ठा का मुद्दा बना उन पर उसूल लादना जहां तनाव पैदा करता है, वहां संबंधों में खिंचाव भी लाता है। ६ आपकी आज की भलाई कल भुला दी जाएगी, तो भी किसी तरह भलाई कीजिये। ७ अनेक मामलों में बात को बेवजह खींचने से बात टूटती ही है, अच्छा हो यदि इन्हें अनदेखा ही कर दिया जाए। ८ प्रायः लोगों की आदत होती है कि जरा कोई बात मन के खिलाफ हुई या जो उनके बनाए उसूलों पर खरी नहीं उतरी, बस वे तुनक जाते हैं और चाहते हैं कि सामने वाला तुरंत अपनी भूल सुधार ले, जबकि गलती दोनों को समझ में नहीं आती और दोनों ही तने रहते हैं। ६ लोग क्या कहते हैं इस पर ध्यान न दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह किया या नहीं। १० जो लोग अविवेकी, असंगत और स्वार्थी हैं, उनके प्रति भी सद्भावना रखो।। ११ आप भलाई करें तो लोग आप पर निहित स्वार्थी और मतलबी होने का आरोप लगाएंगे, तो भी किसी तरह भलाई कीजिये। अनदेखा करना सीखिए Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब खुशियों में परिश्रम का फल मधुरतम है २ हाथ और पैर का श्रम ही सच्चा श्रम है। २ श्रमशील मनुष्य ही जीवन का आनन्द पाता है। ३ मेहनत में मन लगे तो दूसरे मनोरंजनों की जरूरत नहीं। ४ जिस व्यक्ति को जीवन में सफल होना है, उसे श्रममय जीवन जीना होगा, कष्ट सहना होगा। ५ आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है किंतु महत्त्व पूर्ण तो यह है कि आप कुछ करें। ६ आधि-व्याधि को नष्ट करने का उपाय-श्रम करना है । ७ जो मस्तिष्क से श्रम नहीं लेता, वह बूढ़ा जल्दी होता है। ८ जितना श्रम उतना सुख, जितना आराम उतना दुःख । ६ श्रमशील मनुष्य ही जीवन में खुशी पाता है, वही स्वादिष्ट फल भोगता है। सूर्य सदैव श्रम करता है, सदा चलता रहता है, कभी आलस्य नहीं करता, इसलिए बराबर चलते रहो। १० अज्ञानी व्यक्ति छोटा-सा काम आरंभ करते ही बहुत परेशान हो जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति बड़े से बड़े काम को करके भी शांत बने रहते हैं। ११ आलसी, उदासीन, साहस-शून्य और भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्य के पास धनलक्ष्मी नहीं आती जैसे वृद्ध के पास युवा पत्नी। १२ पराधीन कामों का यत्नपूर्वक त्याग करो और अपने पुरुषार्थ से ऐसे काम करो जिन्हें तुम स्वतंत्र रूप से कर सकते हो। १३ परिश्रम से जीवन आनन्द से भरा रहता है, स्वास्थ्य में वृद्धि होती है, और रोगों से मुक्ति मिलती है। १४ गुनगुनाते अधरों के साथ किये गए श्रम से थकान नहीं आती और न थकान व्यक्ति पर प्रभाव डालती है-चहकते हुए मन की शक्ति आश्चर्यजनक होती है । योगक्षेम-सूत्र १ . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टाल सके तो टाल १ जहां नम्रता से काम निकल जाये वहां उग्रता नहीं दिखानी चाहिए। २ एक बार की गलती अनेक बार रुलाती है । ३ थोड़ी देर की प्रसन्नता ही अप्रसन्नता का सच्चा स्वरूप है। ४ लेन-देन में, बोलचाल में किसी से कोई झगड़ा हुआ हो, मनमुटाव हुआ हो, कलह हुआ हो तो उसे भुला दो। किसी प्रकार की कलुषता हृदय में मत रखो। ५ उस खुशी से बचो जो कल तुम्हें काटे । ६ परनिन्दा-रूपी खेत में अपनी जिह्वा रूपी गौ को चरने से रोक दो तो इस एक काम से ही जगत् के लोग तुम्हारे वश में हो जायेंगे। ७ वास्तविक उल्लास मन को सन्तुष्ट रखने पर मिलता है। इसलिए उन बातों से बचो जो असंतोष भड़काती हैं। ८ आत्मा की विस्मृति के क्षण दुर्घटना के क्षण होते हैं। मान वीय जीवन में जितनी दुर्घटनाएं होती हैं, वे सब इन्हीं क्षणों में होती हैं । इन क्षणों को टालें। ६ असावधानी सभी जगह खतरनाक है । १० हम भीतर शान्त हों तो बाहर का कोई कोलाहल बाधा नहीं है, हम भीतर अशान्त हैं, यही एकमात्र बाधा है। ११ विवाद तब उठता है जब पानी की शांत सतह पर एक छोटा सा कंकड़ आ गिरता है। १२ बने जहां तक किसी की हित बात भी मत सुनो। माना कि उस बात से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, फिर भी टाल सके तो टाल ५१ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बुरी बात तुम्हारे पर कुछ तो अपना संस्कार डालकर ही जायेगी। १३ किसी की नुक्ताचीनी मत करो। उसी तरह दूसरों से अपनी नुक्ताचीनी सुनकर धैर्य मत खोओ। नुक्ताचीनी करने से व्यक्ति का महत्त्व न्यून होता है, धैर्यपूर्वक सुनने से महत्त्व बढ़ता है। १४ किसी के अपराध को याद मत रखो। इससे अपना ही अन्तःकरण अशान्त बनता है। किंतु अपराधी का कुछ भी अनिष्ट नहीं होता। ५२ . योगक्षेम-सूत्र Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरता आकांक्षा नहीं, परमानन्द है १ सुन्दर वह होता है जिसका अन्तःकरण सुन्दर होता है, आत्मा निर्मल होती है। २ जो व्यक्ति भीतर में सुन्दर है, वही वास्तव में सुन्दर है । ३ सुन्दर चेहरा आकर्षक भर होता है पर सुन्दर चरित्र की प्रामाणिकता तो अकाट्य होती है। ४ सुन्दरता की तलाश में चाहे हम सारी दुनियां का चक्कर लगा आएं, अगर वह हमारे अन्दर नहीं है तो कहीं न मिलेगी। । ५ अच्छे संकल्प करो ताकि अच्छे मार्ग पर चल सकना संभव हो सके। ६ कला का मतलब-प्रकृति से मिली तुच्छ वस्तु को अतिसुन्दर बना देना। ७ प्रेम और मधुरता की भावना से जो सौन्दर्य आता है, वह सुखद होता है। ८ अच्छा स्वभाव सदा सौन्दर्य के अभाव को पूरा कर देगा, किंतु सौन्दर्य अच्छे स्वभाव के अभाव की पूर्ति नहीं करता। ६ सौन्दर्य का सर्वोत्तम भाग वह है, जिसको कोई चित्रित न कर सके। १० जिसका मन संयमी हो, बुद्धि विवेकवती हो, हृदय अनुरागी हो, शरीर परिश्रमी हो, वहां सौन्दर्य का निवास होता है। ११ विवेक पूर्ण शब्द प्रयोग, शालीन प्रवृत्तियां, उर्ध्वमुखी चिंतन सुलझे हुए विचार, पवित्र आचार, प्रेमपूरित व्यवहार तथा अच्छी आदतों का निर्माण एक सौन्दर्यपूर्ण व्यक्तित्व को जन्म देती है। सुन्दरता आकांक्षा नहीं, परमानन्द है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सौन्दर्य से भरपूर जीवन वह है जिसके आरपार निहित है आत्मीयता का दर्शन, सहज समर्पण, करुणा से भीगा हर स्पन्दन, मानवीयता का अंकन । जिनकी पारदर्शी चेतना पर प्रतिबिम्बित है-अहिंसा का मुक्त आकाश, सत्य के चमकते सितारे, समता के सुकोमल सुमन और अध्यात्म की बहती बासंती बहारें। ५४ योगक्षेम-सून Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-राज्य के अधीश्वर १ गुरु स्वयं में एक धर्म, चेतना के एकीकरण के अभिकर्ता तथा शरीर, मन और आत्मा के राज्य के अधीश्वर होते हैं। २ सच्चा गुरु वह है जो समय-समय पर आध्यात्मिक शक्ति के भण्डार के रूप में अवतीर्ण होता है और गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा उस शक्ति को अगली पीढ़ी के लोगों में संचरित करता ३ सदगुरु-जो श्रुति के ज्ञान से युक्त हों, पाप रहित हों, कामना शून्य हों, श्रेष्ठ ब्रह्म-वेत्ता हों, ब्रह्मनिष्ठ हों, ईंधन रहित अग्नि के समान शान्त हों। ४ चारित्र की उत्कृष्टता, व्यक्तित्व की प्रभावोत्पादकता आचरण में शील तथा व्यवहार में उदारता गुरु-अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। ५ जो स्वयं देवता नहीं होता, वह देवता की पूजा नहीं कर सकता। ६ परमात्मा वही बन सकता है जो परमात्मा को देखता है, उसका मनन करता है, उसका चिन्तन करता है और उसमें तन्मय रहता है। ७ धरती के देवता वे हैं जो अपने अनुकरणीय आचरण से दूसरों में सत्पथ-गमन की प्रेरणा भर देते हैं। ८ सारा संसार स्त्री और काञ्चन के चक्र में घूम रहा है। जो व्यक्ति इनसे विरक्त रहता है, वह दूसरा परमेश्वर है । है जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध हो गया, आत्म-जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया। १० निष्कषाय, शुद्ध, चैतन्य-योगमय आत्मा ही समाधि, निर्वाण और शान्ति है। ११ मन-मन्दिर के उजड़ जाने पर, इन्द्रिय वातायनों के बंद हो जाने पर और शुद्ध स्वभाव के प्रकट होने पर यह आत्मा ही परम आत्मा बन जाती है। आत्म-राज्य के अधिकार Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख में फूलो नहीं, दुख में रोओ नहीं २ रोने से दुःख दूविधाएं विदा नहीं हो जाती, प्रत्युत् नये-नये नेपथ्य में द्वार खड़खड़ाने लगती है। २ दुःख और सुख तुम्हारे मार्ग में आ सकते हैं, कष्ट के बादल तुम्हारे अन्तर-मंदिर को आच्छादित कर सकते हैं लेकिन किसी के हाथों तुम अपनी आत्मशक्ति का सौदा न करो। केवल वही जो सुख और दुःख को उड़ते हुए बादल समझता है और अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण सजग रहता है, वास्तव में सुखी बन पाता है। ३ जो बुरी खबर में घबराता नहीं, वह अच्छी खबर से फूलेगा नहीं। ४ प्रभ का भक्त न सुख में छलकता है, न दुःख में कुम्हलाता है। ५ दुःख और सुख अपना किया हआ होता है। अबोधि-अज्ञान से दुःख अजित होता है और बोधि-ज्ञान से उसका नाश होता ६ अपने अधिकांश दु:ख को तुमने स्वयं चना है। ७ वह व्यक्ति बहुत दुःखी होता है जो मन की मांग के साथ चलता है। ८ जिसके मन में मैत्री का विकास हुआ है, वह कभी विषण्ण नहीं होता, दुःखीं नहीं होता, निरंतर प्रसन्न रहता है । ६ एक साथ एक से अधिक दुःख मत भोगो। १० मन में कभी सफलता में हर्ष और विफलता में विषाद न हो। ११ जिसका भी सुख संसार-आश्रित है, उसका सुख क्षणभर से ज्यादा नहीं हो सकता। १२ सुख-दुःख आने जाने वाली परिस्थितियां हैं। १३ दु:ख को भूलने से दुःख मर जाता है । योगक्षेम-सूत्र ६ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-सचेतना का उद्घोषक है १ शिक्षा वह है जो हाथों को आजीविका-उपार्जन सिखाये, और मानवीय दायित्वों का निर्वाह सिखाये जो शिक्षा पेट के लिए पराधीनता सिखाये और मन के लिए विलासिता वह किस काम की? २ समझदारी, साहसिकता और पुरुषार्थ-परायणता के समन्वय को प्रतिभा कहते हैं। ३ जो शिक्षा मनुष्य को धूर्त, परावलम्बी और अहंकारी बनाती हो, वह अशिक्षा से भी बुरी है । ४ आत्मज्ञान अपने घर में एक ऐसी ज्ञान-किरण छोड़ता है जिसके प्रकाश में भीतरी रचना को पढ़ा, समझा जा सकता ५ फूल की सुन्दरता और महक उसकी किसी पंखुड़ी तक सीमित नहीं है । वह उसकी समूची सत्ता के साथ गुंथी हुई है। ६ शिक्षा से मतलब केवल कुछ शब्द ही नहीं है। हृदय और मस्तिष्क की शक्तियों का प्रकृत विकास ही वास्तविक शिक्षा ७ गहन अध्ययन की अवस्था में मस्तिष्क स्थिर रहता है । ८ विद्या उसे कहते हैं जो सन्मार्ग पर चलाए और विनयशील बनाए। ६ विद्यालयों की शिक्षा पुस्तकों के आधार पर होने वाली शिक्षा है और जीवन-विज्ञान की शिक्षा जीवन की पोथी के आधार पर होने वाली शिक्षा है। १० प्रतिदिन का स्वाध्याय नवोदित सूर्य की तरह नया प्राणतत्त्व और नयी ऊर्जा प्रदान करता है। ११ जीवन-यात्रा को निर्बाध रखने के लिए बौद्धिक सात्विकता का होना अनिवार्य है। यह जीवन के हर मोड़ पर पायलट का कार्य करती है, आगे का संकेत देती है। ज्ञान-सचेतना का उद्घोषक है ५७ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रकृति की अपेक्षा स्वाध्याय से अधिक मनुष्य श्रेष्ठ बने हैं। १३ जितना ही हम अध्ययन करते हैं, उतना ही हमको अपने अज्ञान का आभास होता जाता है। १४ जो पुस्तकें तुम्हें अधिक सोचने के लिए विवश करती है, उनको ही जानदार मानो १५ ज्ञान का कार्य है-मन को निष्काम बनाना, इच्छामुक्त करना। १६ एक अच्छी पुस्तक महान् आत्मा के जीवन का बहमूल्य रक्त है, जो जीवन के लिए सुरक्षित किया हुआ है । १७ जो मनुष्य एक पाठशाला खोलता है वह संसार का एक जेलखाना बंद कर देता है। १८ विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही अस्त्र हैं। १६ पुस्तकें वे विश्वस्त दर्पण हैं जो संतो और वीरों के मस्तिष्क का परावर्तन हमारे मस्तिष्क पर करती हैं। २० पुस्तकें जागृत देवता हैं, उनकी सेवा करके तत्काल वरदान प्राप्त किया जा सकता है । २१ वह ज्ञान सम्यक है जिस ज्ञान की धारा अपने भीतर की ओर जाती है। २२ शुद्धाचरण, आत्मगौरव, स्वावलम्बी, कर्त्तव्यपरायण और कर्त्तव्याकर्तव्य का विवेक जागृत करने वाली शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा है। २३ जिसके हाथ में दीपक है वही पुरुष यदि कुएं में गिर जाए तो दीपक हाथ में लेने से क्या लाभ ? इसी तरह ज्ञान प्राप्त करने पर भी मनुष्य यदि अन्याय का आचरण करे तो शास्त्र पढ़ने से क्या लाभ ? २४ जिससे तत्त्व जाना जाए, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा की विशुद्धि हो, जिससे जीव राग से विरक्त हो, जिससे श्रेय में रक्त हो, जिससे मैत्री भाव की वृद्धि हो, उसे ही जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है । २५ स्वाध्याय से आत्महित का ज्ञान, बुरे भावों का संवरण, नित्य नया संवेग, चारित्र में निश्चयता, तप, उत्तम भाव और परोपदेशकता-ये गुण उत्पन्न होते हैं । योगक्षेम-सूत्र Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनाव - अधर में नाव १ आवेश में व्यक्ति बेभान हो जाता है लेकिन आवेश के थोड़ से उतरते ही कमजोरी सुस्ती आने लगती है । २ खींचने वाला गिरता है, ढीला छोड़ने वाला खड़ा रहता है । ३ टॉलस्टाय ने कहा है- 'जो युवक तंग कपड़े एवं जूते पहनते हैं वो रद्दी की टोकरी में डालने जैसे हैं - इससे मन एवं शरीर का तनाव पैदा होता है, कड़ापन आता है, विनम्रता का लोप होता है । ४ ढीले कपड़े व्यक्तित्व को एक शिथिलता और शांति देता है, कसे हुए कपड़े व्यक्तित्व को एक तेजी और चुस्ती देते हैं । ५ तनाव मुक्ति का साधन है— सामायिक, कायोत्सर्ग, श्वासप्रेक्षा । ६ अशांति दुःख का कारण है फिर भी सुख के लिए अशांति को मोल लेने में मनुष्य नहीं सकुचाता । ७ लम्बे समय तक शोक, उदासी और दुःख में रहने वाला शक्तिहीन बन जाता है । ८ तनाव को मिटाने का सबसे अच्छा सूत्र है -- 'अभय' । भय नहीं खाना, डराना नहीं । ६ तनाव का एक कारण होता है-- जब व्यक्ति को प्रतिकूल का संयोग और अनुकूल का वियोग होता है । १० तनाव उत्पत्ति के मूल प्रेरक हैं - १. अशुद्ध व अधिक भोजन । २. विषम बैठक । ३. अविश्राम व अतिविश्राम । ४. नींद की कमी व अधिकता । ५. गृह वातावरण । ६. मानसिक अविश्राम । ७. इच्छा बहुलता । ८. बदलते मापदण्ड । ६. आर्थिक उतार-चढ़ाव । तनाव - अधर में नाव ५६. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ तनाव-मुक्ति के उपाय हैं--प्राणायाम, योगासन, जीवन मूल्यों का परिवर्तन। १२ तनाव का कारण पदार्थवादी वृत्ति है। १३ दुनियां की यह प्रकृति है कि जो चाहता है वह नहीं होता और जो नहीं चाहता वह हो जाता है । यह चाहने और होने __ में जो अन्तर है, दोनों के बीच जो दूरी है वही वास्तव में तनाव पैदा करता है। १४ आवेश की स्थिति में अपने आपको संभालना बहुत मुश्किल १५ दुःख का अपने आपमें कोई अस्तित्व नहीं है। सत्य से तुम्हारी जितनी दूरी है, उतना ही दुःख है। १६ शांत होने की उतनी जरूरत नही है, जितनी अशांति को समझने की जरूरत है। पहले तो अशांति को स्वीकार करने की जरूरत है कि मैं अशांत हं। फिर अशांति को पहचानने की जरूरत है कि यह अशांति क्या है ? १७ तनाव विकल्पों के लिए, बुरे विचारों के लिए उर्वरा भूमि है। १८ जहां धन को सब कुछ मान लिया जाता है वहां मानसिक संतप्तता, तनाव अधिक रहता है। १६ निराशा और असफलता की बात सोचने वाला देर-सबेर आत्महत्या को तैयार हो जाता है। २० तनावपूर्ण जीवन जीने वाले लोगों की ईर्ष्या जब पुरानी हो जाती है तब उसके फलस्वरूप रक्तचाप या हृदयरोग की उत्पत्ति होती है। योगक्षेम-सूत्र Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके भी बयां जुदा-जुदा १ प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहते हैं- "मैंने सब कुछ जाना किन्तु जो जानने वाला है, उसे नहीं जाना। यदि इस प्रकार का जीवन वापस मिला तो मैं सर्वप्रथम उसे जानने की कोशिश करूंगा, जो शेष रह गया है।" २ सुकरात कहते हैं—“प्रकृतित: मैं कुख्यात हत्यारा ही हो सकता था, पर मैंने प्रयत्नपूर्वक अपने को बदलने में सफलता प्राप्त की है।" ३ विलियम जेम्स----"अच्छा जीवन जीने के लिए अच्छी आदतों का बनाना जरूरी है। और अच्छी आदतों के निर्माण के लिए अभ्यास जरूरी है।" ४ बर्टेड रसेल-"मरते वक्त मैं यह तय नहीं कर पाऊंगा कि जो हुआ, वह सचमुच में हुआ था कि मैंने एक सपना देखा। ५ खलील जिब्रान-- "मुझे यह एक नवीन बात जान पड़ी है कि सुख पाने की इच्छा का ही अर्थ दुःख है।" ६ जान वेजली-“मैं पैसा पास आते ही उससे तत्काल छटकारा पाने की कोशिश करता हूं कि कहीं वह मेरे दिल में घर न कर ले।" ७ आचार्य भिक्षु-"ज्योतिहीन जीवन भी श्रेय नहीं है और ज्योतिहीन मृत्यु भी श्रेय नहीं है। ज्योतिर्मय जीवन भी श्रेय है और ज्योतिर्मय मृत्यु भी श्रेय है। ८ आचार्य तुलसी-"चिन्ता नहीं, चिन्तन करो। व्यथा नहीं, व्यवस्था करो। प्रशस्ति नहीं, प्रस्तुति करो।" ६ हजरत मुहम्मद-"जब आदमी व्यभिचार करता है, ईमान उसे छोड़कर चला जाता है। इनके भी बयां जुदा-जुदा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० हैनरी क्ले-“मैं राष्ट्रपति होने की अपेक्षा सत्य पर टिके रहना अधिक पसन्द करता हं।" । ११ एडीसन- 'मैंने आज तक ऐसा कोई आदमी नहीं देखा जो प्रतिदिन जल्दी उठता हो, मेहनत करता हो और ईमानदारी से रहता हो, फिर भी दुर्भाग्य की शिकायत करता हो। १२ लिंकन- "चाहे सफलता मेरे हाथ में नहीं है पर डटे रहना तो हाथ में ही है।" १३ पेस्कल-"क्या तुम चाहते हो कि दुनियां तुमको भला कहे ! यदि चाहते हो तो तुम स्वयं को भला मत कहो।" १४ कनफ्यूशस- "सुव्यवस्थित संस्थान में धन से उदय नहीं माना जाता है लेकिन लोक और लोकनायक की पवित्रता ही उनका सच्चा धन है।" १५ टैगोर-"जब मैं स्वयं पर हंसता हूं तो मेरे मन का बोझ हल्का हो जाता है।" १६ रवीन्द्रनाथ ठाकुर–“जल में मीन मौन है, पृथ्वी पर पशु कोलाहल कर रहे हैं एवं आकाश में चिड़िया गा रही है परन्तु मनुष्य में समुद्र का मौन है, पृथ्वी का कोलाहल है एवं आकाश का संगीत है।" १७ महात्मा गांधी-"जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है ।" १८ प्रेमचन्द-"श्रद्धा देवता को भी खींच लेती है।" १६ शेक्सपीयर--"नाम में क्या रखा है ? जिसे हम गुलाब कहते हैं, वह किसी अन्य नाम से भी वैसी सुगन्ध ही देगा।" २० अरस्तू–“संगीत में वह शक्ति है जो आन्तरिक शूद्धि करती है और संगीत के प्रभाव से हम शुद्ध, पवित्र, तरोताजा, स्फूर्त व स्वस्थता की अनुभूति करते हैं। यह खुशबुदार अगरबत्ती की तरह है । यह दुर्गन्ध को मारती है।" २१ चाणक्य-गुणों से ही मनुष्य ऊंचा होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से नहीं, महल के ऊंचे शिखर पर बैठने से भी कौवा गरुड़ नहीं हो सकता। योगक्षम-सूत्र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैज्ञानिक तथ्य १ पश्चिमी जर्मनी की एक फर्म ने सौर ऊर्जा से चलने और सही समय बताने वाली एक घड़ी तैयार की है । इस घड़ी की विशेषता यह है कि यह कभी भी बंद नहीं होगी और घड़ी के बंद होने की संभावना केवल उसी समय हो सकती है, जब सूर्य लगातार अड़तालीस दिन अस्त रहे । किंतु ऐसा शायद ही कभी हो । २ वास्तव में 'प्लास्टिक सर्जरी' ऑपरेशन नहीं होता है । इसका मतलब 'कास्मेटिक सर्जरी' से होता है । प्लास्टिक सर्जरी में शरीर के एक स्थान से त्वचा हटाई जाती है और दूसरे स्थान पर जमाई जाती है । इसमें त्वचा की केवल ऊपर की दो परतें ली जाती हैं। क्योंकि इनमें नई जगह पर जीवित रहने की अधिक क्षमता होती है । ३ मनुष्य के चारों ओर एक तेजोवलय छाया रहता है । कई व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है, कईयों का सान्निध्य अरुचिकर और कष्टप्रद प्रतीत होता है, इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण - विकर्षण ही होता है । यदि समीपवर्ती लोगों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकराकर वापिस लौटेगी और घृणा, अरुचि, अप्रसन्नता, खीज जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करेगी । ४ व्यक्ति के चिन्तन के आधार पर वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन होता है । मंगल भावनाओं से भरे हुए व्यक्ति के द्वारा सिंचन पाकर पेड़-पौधे अधिक स्वस्थ, सुन्दर और विकसित हो जाते हैं तथा ईर्ष्या, घृणा और उत्तेजना पूर्ण चिन्तन से भरे हुए व्यक्ति से सिंचन पाकर वे रुग्ण और असुन्दर हो जाते हैं, अविकसित ही रह जाते हैं । वैज्ञानिक तथ्य ६३ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वैज्ञानिकों ने आंसुओं का रासायनिक विश्लेषण करके पाया कि उसमें 'लीसोजीम' नामक एक तत्त्व होता है जो इतना प्रबल कीटाणुनाशक होता है कि उसकी एक बूंद दो लीटर पानी में डाल दी जाये तो पानी के सख्त से सख्त वैक्टीरिया भी मर जायेंगे। ६ नवजात शिशु रोते समय आंसू नहीं निकालते क्योंकि आंसू बहाने की ग्रंथियां जन्म के चार-पांच महीने पश्चात् ही विकसित होती हैं। ७ मनुष्य की आंखों में कई प्रकार के आंसू होते हैं। आंख को स्निग्ध रखने वाले आंसू एक ही प्रकार के होते हैं और वे सब व्यक्तियों की आंखों में समान रूप से पाए जाते हैं। लेकिन मनुष्य की आंख से जो दुःख-दर्द, पीड़ा, हर्ष और ममता को अभिव्यक्त करनेवाले आंसू निकलते हैं, वे सबकी आंखों में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। ८ ध्वनि-वैज्ञानिक के अनुसार जितनी भी प्राकृतिक ध्वनियां हैं, वे सब बहुत ही लाभकारी होती हैं । जैसे—वारिश होती हो, वृक्षों से टकराकर हवा बहती हो, पक्षी गाते हों, समुद्र उफनता हो, कलकल करते झरने बहते हों-ये आवाजें स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करती हैं। इसी प्रकार धीमी और मधुर ध्वनियों की तरंगों से ज्ञान तन्तुओं का दबाव और तनाव कम होता है । व्याधि का तीव्र प्रकोप हल्का होता है। गहरे घाव भर जाते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता का विकास होता है । योगक्षेम-सूत्र ६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नता अन्तःकरण की सहज स्वच्छता है १ प्रसन्नता से प्रफुल्लित हृदय अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी प्रीतिभोज के समान मधुर है। २ संस्कृत में प्रसन्न का अर्थ स्वच्छ है । जो स्वच्छ है वह प्रसन्न ३ सभी प्रकार के कुविचारों से दूर रहना, प्रसन्न रहने का सबसे उत्तम उपाय है। ४ निष्कलुष, निष्पाप, निर्दोष और पवित्र जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति ही सभी परिस्थितियों में प्रसन्न रह सकता है। ५ प्रसन्नता आत्मा को शक्ति देती है। ६ यदि हम प्रसन्न हैं तो सारी प्रकृति ही हमारे साथ मुस्कराती प्रतीत होती है। ७ यदि हम प्रसन्न रहेंगे तो अज्ञात रूप से विश्व की बहुत भलाई करेंगे। ८ मन को प्रसन्नता ही व्यवहार में उदारता बन जाती है। ६ प्रसन्नता आरोग्य है । अप्रसन्नता रोग है। १० मनुष्य अपनी प्रसन्नता के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। ११ पाप और प्रसन्नता कभी साथ-साथ नहीं रह सकते। १२ प्रसन्नता यह एक आन्तरिक दिव्यभाव अथवा अभिव्यंजना १३ प्रसन्न रहने का स्वभाव ही सफलता की आत्मा है। १४ प्रसन्नता का आधार है मानसिक सन्तोष । १५ हमारा भविष्य सुनहला है-इस तरह सोचने से हमारे हृदय में पवित्र सौन्दर्य उभरेगा और वर्तमान जीवन में चारों ओर प्रसन्नता ही प्रसन्नता छा जायेगी। प्रसन्नता अन्तःकरण की सहज स्वच्छता है ६५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रसन्न व्यक्ति के भीतर आत्मा की ज्योति जगमगाती रहेगी । -१७ प्रसन्नचित्त व्यक्ति कभी अभागा नहीं रहता । वह अपने दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में बदल सकता है । : १८ जो प्रसन्न नहीं रहते, उन्हें साथी मत बनाओ । उन्हें साथी बनाओ, जो हंसते-मुस्कराते हैं, जो जीवन की वेदनाओं से नहीं मरते । १९ जो लोग प्रसन्नचित्त रहते हैं, वे स्वस्थ रहते हुए बहुत दिनों तक जीते हैं, जबकि क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव वाले व्यक्ति बहुत कम जीते हैं । २० बाजार सदैव प्रसन्नचित्त और धैर्यवान लोगों के हाथों में रहता है | उन्हें ही अधिक सफलताएं मिलती हैं । ६६ योगक्षेम - सूत्र Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन-वीथी १ उस आदमी को फरिश्ता ही जानिये जिसकी नजरों में कोई इंसान बुरा नहीं। ३ हर पल जो नवीन दिखायी दे, वही सुन्दरता का उत्कृष्ट नमूना है। २ दिमाग के द्वार बन्द मत करो, न जाने किस समय में क्या अनोखा तत्त्व समझ में आ जाएगा। ४ बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है, वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना ही बंद कर देंगे। ५ बड़प्पन सूटबूट और ठाटबाट से नहीं होता है, जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। ६ व्यस्त रहो किन्तु अस्त-व्यस्त न रहो। ७ हमेशा झूठ बोलने वाले द्वारा कही गई सच्ची बात भी झूठ ही लगती है। ८ एक पाप दूसरे पाप के लिए दरवाजा खोल देता है। ६ मन में जितनी पवित्रता होती है, उतना ही वह हल्का होता १० पापों में लिप्त होने की अपेक्षा दुःखों में फंसा रहना अच्छा है। ११ तुच्छ बात के लिए बड़ी आय को मत छोड़ो। १२ आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है । १३ धनी जहां पैसे के सहारे जीता है, निर्धन परिश्रम और प्रभु के सहारे जीता है। १४ मौत तो वैसे भी आती है, फिर उसके लिए अस्त्र-शस्त्र का अंबार क्यों? वचन-वीथी ६७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पाप के धागों से पुण्य की चादर नहीं बुनी जा सकती । १६ बिना देखे किसी वस्तु का पान न करो और बिना पढ़े कहीं हस्ताक्षर न करो । १७ माता-पिता के प्रसन्न हो जाने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाया करते हैं । १८ जहां पुत्र से भय होने लगता है, वहां सुख कैसा ? १६ जो परमात्मा से डरता है उसे फिर किसी से डरने की जरूरत नहीं पड़ती और जो परमात्मा से नहीं डरता उसे फिर हर किसी से डरकर रहना पड़ता है । २० मानव शरीर में दानव की आत्मा उतनी खतरनाक नहीं होती, जितनी खतरनाक होती है धर्म की पोशाक में अधर्म की पूजा । २१ अधिकार जितना बड़ा होता है, सहिष्णुता उतनी ही अधिक अपेक्षित हो जाती है । २२ समूचे विश्व पर अधिकार जमाने की आकांक्षा रखनेवाला एक मुहूर्त्त भी सुख की नींद नहीं सोता, प्राणीमात्र को आत्मतुल्य समझने वाला क्षण भर भी उद्विग्न नहीं होता । २३ अध्ययन का अर्थ केवल पास या फेल होना नहीं है । अध्ययन का वास्तविक अर्थ है - विनय | २४ सब शिष्ट और नेक आदमियों का आदर करते हैं । २५ बेईमान होने से गरीब होना बेहतर है । २६ जवान, स्वस्थ व ज्ञानवान आदमी दुनियां में सबसे अधिक किस्मतवाला होता है । २७ साफदिल आदमी हर वक्त सच बोलता है । ६५. योगक्षेम-मूत्र C Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपात्र दान बना देता महान १ धन की तीन गतियां होती हैं - दान, भोग और नाश । जो न दान दिया जाये, न भोगा जाये उसकी तीसरी गति होना निश्चित है । २ कमाये धन की रक्षा त्याग से होती है । ३ श्रेष्ठ पुरुषों का धन दुखियों का दुःख दूर करने के ही काम आता है । ४ जहर से तो खाली पात्र देना बेहतर है । ५ तुम्हें जो सम्पदा मिली है, वह संगृहीत करते और फूंकने के लिए नहीं, बल्कि सत्कार्यों में उपयोग करने के लिए है । ६ जब तक देह है, दे, दे, कुछ दे । जब देह नहीं रहेगी तो कौन कहेगा दे || ७ भोग को सीमित करने में ही सम्पत्ति का यथार्थ गौरव है । ८ दान का श्रेय यश नहीं, आत्म-संतोष है । ६ निराधार के सहारे बनो, सदाचार के प्यारे बनो । १० मांगने पर देना अच्छा है लेकिन आवश्यकता अनुभव करके बिना मांगे देना और भी अच्छा है । ११ धन वह है जिसमें विनिमय की क्षमता है, जिसकी उपयोगिता है । १२ किसने कितना दान दिया यह मत पूछो वरन् यह पूछो कि किस प्रयोजन के लिए किसके हाथों में सौंपा है । १३ तुम्हारे पास ऐसा है ही क्या जिसे तुम रखे रह सकते हो ? जो कुछ तुम्हारे पास है सब एक दिन दिया ही जायेगा । इसलिए अभी दे डालो ताकि दान देने का मुहूर्त्त तुम्हारे वारिसों को नहीं, तुम्हे ही प्राप्त हो जाये । १४ धनी वह होता है जो सोचता है कि अपनी सामर्थ्य से हर किसी के आंसू पौंछ दूं । सुपात्र दान बना देता है महान ६ε Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ व्यर्थ व्यय को बन्द करके आप दीन-दुखियों की मदद कर सकते हैं, भूखों मरते गरीबों को जीवन दान दे सकते हैं, देश और धर्म के उत्कर्ष में योग दे सकते हैं। १६ धन को अपने पास जमा करके मत रखो। संग्रह की मनो वृत्ति आदमी को बांधती है। १७ आनन्द परिग्रह को बढ़ाने से नहीं, दिल को बढ़ाने से बढ़ता १८ संग्रह करना सरल है किन्तु उस का विसर्जन कठिन है। १६ सौ हाथों से कमाओ और सहस्र हाथों से वितरण कर दो। २० पैसा स्वयं में बेमतलब है तब तक जब तक कि वह किसी __ आदर्श ने नहीं जुड़ता। श्रेष्ठ और निष्कलंक चरित्र से जुड़े हुए धन की बराबरी दुनियां की कोई दौलत नहीं कर सकती। २१ जब तुम अपनी सम्पत्ति में से कुछ देते हो, तो देते हो सही लेकिन 'नहीं' के बरावर। जब तुम अपने आपमें से देते हो तब वास्तव में दान करते हो। २२ कई ऐसे लोग भी हैं जो अपने विपुल संग्रह में से थोड़ा-सा दान देते हैं और इसलिए देते हैं कि उनका नाम हो। और यह गुप्त वासना उनके दान को अशिव बना देती है। और ऐसे लोग भी हैं जिनके पास थोड़ा ही है, लेकिन वे सब कुछ दे डालते हैं। २३ जिसमें दान देने की क्षमता नहीं होती, वह दीन है। २४ दूसरे को देगा कौन? जो दूसरे से आगे निकल जाने को आतुर नहीं है वही। बांटेगा कौन ? जो छीनने को उत्सुक नहीं है, वही। दूसरे के लिए जीयेगा कौन? जो दूसरे के जीवन को पीछे नहीं हटा देता। २५ शोषण का द्वार खुला रखकर दान करने वाले की अपेक्षा अदानी बहुत श्रेष्ठ है, चाहे वह एक कौड़ी भी न दे। योगक्षेम-सूत्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय १ मन में बुरे विचार, मैले विचार, गिरे हुए विचार आना मन की हिंसा है। २ किसी को दुःख देने का जो भाव है, वही हमें नीचे गिरा देता ३ मन का हर मैल हमें दुःखी बनाता है, सुखी नहीं। ४ जब व्यक्ति का मन नीचे गिरने लग जाता है तो वह हल्के से हल्का काम करने लग जाता है। ५ मन को भरना चाहिए मन की समाधि से, अच्छे विचारों से। ६ मन को समझना, खुश करना बहुत मुश्किल है। ७ मन की चोट बहुत भयंकर होती है। ८ जीवन बहुत सादा और आसान हो सकता है यदि मनुष्य का __ मन उसमें निरर्थक उलझने न डाले। ६ जिसके ऊपर व्यक्तिगत व पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ जितना हल्का होगा, वह उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेगा। १० सूखी व्यक्ति न स्वयं को सताता है और न दूसरों को कष्ट देता है। ११ ज्ञात-अज्ञात पाप ही अन्तःकरण की मलिनता है। १२ विशिष्ट उपलब्धि के लिए शुभ अध्यवसाय चाहिये । १३ मन की शान्ति-मानसिक सुख है। सहिष्णुता, मनोबल एवं धृति मानसिक सुख के पहलू हैं। १४ शरीर-सुख की अपेक्षा मानसिक-सुख में रुचि जागे। १५ अपने को प्रसन्न रखने की शक्ति तो मनुष्य के ही मन में है और वह शक्ति उसकी शुद्धता है। विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कष्टों और कठिनाइयों का या किसी दुःखद घटना का निरंतर चिंतन जीवन में जहर घोल देता है। १७ तन का सीधा रिश्ता मन से है। दुःखी मन होगा तो शरीर भी दुःखी रहेगा, सेहत गिरती जाएगी, नए-नए रोग विकसित होंगे। १८ मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। १६ जब व्यक्ति का मन स्वस्थ होता है तब उसमें धर्म का अवतरण होने लगता है। २० देव, गन्धर्व, पिशाच और राक्षस उस व्यक्ति को नहीं सताते, जिसका मन क्लेशयुक्त नहीं होता। वे उसी व्यक्ति को सताते हैं, जिसका मन संक्लेश से भरा होता है। २१ परिस्थिति को सुधारने की अपेक्षा पहले मनःस्थिति सुधारना जरूरी है। २२ आत्म-विजय ही मनुष्य की सबसे बड़ी विजय है। २३ हमारा शिक्षित मन ही हमारा सही मार्गदर्शन कर सकता २४ मन के सरोवर में उठने वाली लहरों को चुपचाप देखते रहें तो धीरे.धीरे उनका विलय स्वतः हो जाएगा। २५ विचार मन की खुराक है । जैसे सात्विक भोजन पाकर शरीर ताजगी का अनुभव करता है, ठीक उसी प्रकार स्वस्थ विचार मन को शान्ति प्रदान करते हैं, उसे पुष्ट करते हैं। २८ मानसिक शान्ति भोगने के लिए कुविचार, घृणा, चिन्ता तथा स्पर्धा जैसे मनोभावों को त्यागना होगा। २७ अशुद्ध-अशान्त वातावरण में क्लेश और दुःख उत्पन्न होते २८ अपने मन को कभी गरीब मत होने दीजिए। २६ अपनी मनोदशा को हमेशा परिष्कृत और ऊंची रखिये । ३० उत्तम रुचियां हैं तो उत्तम को प्राप्त करेंगे। घटिया रुचियां _ हैं तो घटिया को प्राप्त करेंगे। ३१ सदैव वह मार्ग अपनाना चाहिए जो संतुलन बनाए रख सके और जीवन को आनन्द से भर सके । योगक्षेम-सूत्र Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन उजियारा : जग उजियारा १ दूसरों को चाहे जितना शान्ति का उपदेश दो, सुख-दुःखों में सम रहकर आनन्द-मग्न रहने की चाहे जितनी मीमांसा करो, जब तक तुम्हारा हृदय शान्त नहीं है, जब तक तुम्हारा हृदय आनन्द से पूर्ण नहीं है, तब तक सब व्यर्थ है । २ याद रखो जहां तुम्हारा मन है, तुम वहीं हो । मन्दिर में रहो या वन में, मन यदि कारखाने में या बाजार में है तो तुम वहीं हो । जिसके मन में भगवान् बसते हैं, वह भगवान् के मन्दिर में है और जिसके मन में विषय बसते हैं, वह संसार में है। ३ मन में बुरे विचार आते ही उन्हें निकालने की चेष्टा करो। सदा चौकन्ने बने रहो। मन के बुरे विचार ही बुरे कार्यों की जन्मभूमि है। ४ अपने को सदा सत्कार्य में लगाये रखो। तुम्हारे मन को कभी अवकाश ही नहीं मिलना चाहिए-असत् का विचार भी करने के लिए। मन के सामने सदा इतने सदविचार और सत्कार्य रखो कि एक के पूरा होने के पहले ही दूसरे की चिन्ता उस पर सवार रहे। निकम्मा मन ही प्रमाद करता ५ मनोबल ही सुख है, जीवन है। मनोदौर्बल्य ही रोग है, दुःख है, मृत्यु है। ६ जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसकी जीत को कोई भी हार में नहीं बदल सकता। ७ जिस तरह सुबह के समय ओस के प्रत्येक कण में सूर्य का लघु सा प्रतिबिम्ब झलकता है, उसी प्रकार हमारे शरीर के प्रत्येक अण में हमारे मस्तिष्क का लघु रूप झलकता है। मन उजियारा : जग उजियारा ७३ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे मन के उद्देश्य तनु के अणु-अणु में झलक आते हैं और हमारे चरित्र का प्रतिबिम्ब अंग-प्रत्यंग से झलकने लगता है। ८ संसार में आधे लोगों की अप्रसन्नता का कारण है-दूसरों से ईर्ष्या एवं अपने से असन्तोष । है जितना समय शरीर की सफाई पर लगाते हैं उससे चौथाई हिस्सा भी मन पर लगाएं तो समस्याए आगे नहीं बढ़ती। १० जैसे-तैसे चेतना का उर्ध्वगमन होता है मनुष्य का व्यक्तित्व खिल उठता है । चेतना के विकास के लिए स्वस्थ और शान्त मन की आवश्यकता होती है। ११ मनोवृत्ति का परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। १२ मन की शक्ति गिरे नहीं, मन शक्तिशाली बना रहे—यह __ साधना का प्रथम बिन्दु है। १३ जैसी अपनी मनःस्थिति होगी, वैसी परिस्थितियां बनेंगी, वैसे ही साथी मिलेंगे और स्तर के अनुरूप साधन जुटेंगे। १४ जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिए उसका मन सबसे अच्छा मित्र है। परन्तु जो ऐसा करने में असफल हुआ है, उसके लिए वही मन सबसे बड़ा शत्रु है। १५ मनुष्य के व्यवहारों, विचारों, व्याधियों की पृष्ठभूमि उसका अपना मन है। १६ मन शरीर में केवल मनोवैज्ञानिक बीमारी ही नहीं बल्कि शारीरिक रोग भी पैदा करता है। गलत विचार से हार्ट अटैक, कैन्सर, गैस्ट्रिक अल्सर हो सकता है। १७ मन ही अपने लिए जीवन का रास्ता बनाता है और मृत्यु का रास्ता भी मन में ही तैयार होता है। १८ एकाग्र तथा शान्त मन बिना थके लम्बे समय तक कठिन कार्य कर सकता है। भीतरी तथा बाहरी व्यवधानों द्वारा वह अपने लक्ष्य से भटकता तथा विचलित नहीं होता। १६ जिसका मन हार जाता है वह बहुत कुछ होते हुए भी अन्त में पराजित हो जाता है। जो शक्ति न होते हुए भी मन से हार नहीं मानता उसको दुनियां की कोई ताकत परास्त नहीं कर सकती। ७४ योगक्षम-सूत्र Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम की ईंट से अपने सुख का मन्दिर बनायो १ जीवन एक फूल है, प्रेम उसका मधु । २ प्रेम सबसे करो, विश्वास थोड़े का। ३ अपने सुख में हिस्सा दूसरों को देना एवं दूसरों के दुःख में हिस्सा बंटाना—यही जीवन की कला है । यह चाबी जिसने पायी, उसने जीवन में सुख ही सुख पाया। ४ प्रेम देना और प्रेम पाना जीवन का सर्वोत्तम आनन्द है। ५ प्रेम थकान को मिटाता है, दुःख को सुख बनाता है । जीवन के बगीचे में प्रेम का गुलाब खिलाकर अपने चहुं ओर सुगन्ध बिखेर देता है। ६ प्रेम पाने का सबसे सरल तरीका है-दूर रहो। इसीलिए भगवान् भी जल्दी नहीं आते हैं। वे सोचते हैं कि जितने दिन दूर रहेंगे, लोग मेरी बहुत प्रार्थना, पूजा, अर्चना और प्रेम करेंगे। ७ प्रेम दुःख और वेदना का बन्धु है। इस संसार में जहां दुःख और वेदना का अथाह सागर है, वहां प्रेम की अधिक आवश्यकता है। ८ अपने प्रेम की परिधि हमें इतनी बढ़ानी चाहिए कि उसमें गांव आ जाए, गांव से नगर, नगर से प्रान्त, यों हमारे प्रेम का विस्तार सम्पूर्ण संसार तक होना चाहिए। ६ प्रेम उन्नत करता है, काम अधःपतन करता है। १० आत्मदृष्टि से प्रेम उत्पन्न होता है और शरीर-दृष्टि से मोह उत्पन्न होता है। ११ मन को प्रभु-प्रेम में डूबो दो, मन भर जाएगा, जीवन तर जाएगा। प्रेम की ईंट से अपने सुख का मंदिर बनाओ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मिथ्या आरोप लगाने वाले के साथ भी प्रेम से हाथ बढ़ाओ। ज्ञान की चक्षु खुलने पर वह स्वयं क्षमा मांगेगा। यदि अज्ञानवश न भी मांगे तो तुम स्मृति में उसका भार कब तक ढोओगे। उसे भूलकर अपने आपको हल्का बना डालो। १३ जो टूटता है वह वास्तविक प्रेम नहीं, अन्दर छुपा स्वार्थ है । वह सधने या न सधने पर कभी न कभी धोखा देता है। १४ जो प्यार सिक्कों की झंकार पर पनपता है, वह नफरत की घाटी में दम तोड़ देता है। जिस पेड़ को धन-दौलत की नदी के पानी से सींचा जाता है उस पर खुशियों के फूल नहीं बल्कि आंसूओं के जहरीले फल उगते हैं। १५ आत्मदान प्रेम है। १६ प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्य की भूख है । १७ दूसरों को प्यार करने में ही प्यार मिलता है। १८ जहां प्रेम के पूष्प हैं वहां ईर्ष्या और द्वेष के कांटे भी हैं। बुद्धिमान वही है जो अपने हृदय को इन कांटों से घायल न होने दे। १६ अपनी प्रसन्नता को दूसरे की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है। २० प्रेम के बिना महल कैदखाना जैसा लगता है जबकि प्रेमपूर्ण ___ झोपड़ी महल से भी अधिक अच्छी लगती है। २१ जो व्यक्ति दूसरों को सहारा देने के लिए तैयार रहता है, उसे जीवन भर लोग प्यार करते हैं। २२ बिना नींव के मकान को ऊपर मत उठाओ । यदि उठाते हो तो उससे दूर रहो। ७६ योगक्षेम-सूत्र Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ वह कौनसा कठिन कार्य है, जिसे धैर्यवान मनुष्य संपन्न नहीं कर सकता । झलकियां - बृहत्कल्प भाष्य २ वाणी के दुष्प्रयोग से जो घाव हो जाता है वह बहुत ही भयंकर होता है और भरता नहीं है । -महाभारत ३ वह दान प्रशंसनीय नहीं होता जिसके कारण जीवन निर्वाह खतरे में पड़ जाए । -भागवत ४ शुक्ल पक्ष का आरंभ कृष्ण पक्ष के अनंतर होता है, कांटों से व्याप्त पौधों से सुंदर पुष्पों का उद्गम होता है । - अमृतमंथन ५ जो मृत्यु के पूर्व इस देह में काम-क्रोध के वेगों को पचाकर समाप्त कर देता है, वह योगी है और वही वास्तविक सुखी है । -गीता ६ जो कर्मबंध के कारण हैं, वे ही कर्ममुक्ति के कारण हैं और जो कर्ममुक्ति के कारण हैं, वे ही कर्मबंध के कारण हैं । 1 - आचारांग ७ निरंतर काम करते हुए ही सौ वर्ष जीने की कामना करो - यजुर्वेद ८ इन्सान बुरी राह पर आगे बढ़ता है तो उसे कुछ समय सुख भी मिलता है, जीत भी मिलती है । लेकिन अन्त में सब समूल नष्ट हो जाता है । - मनुस्मृति झलकियां ७७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ धन-धान्य आदि से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी किसी एक मनुष्य को दे दिया जाए तो भी वह सन्तुष्ट नहीं होता। इतनी दुष्पूर है यह आत्मा। -उत्तराध्ययन १० देव शक्तियां जगत् की रक्षा चरवाहों के हथियार लाठी से नहीं करतीं। उन्हें जिसकी रक्षा करनी होती है, उसे बुद्धि दे देती है। -नीतिकल्प ११ दु:ख के बाद मिला सुख अधिक आनंद देता है। धूप में तो . पथिक को ही वृक्ष की छाया विशेष सुख देती है। -विक्रमोर्वशीय १२ सच्चे संयमी वही हैं जो प्रलोभन होते हुए भी नहीं फिसलते। -कुमारसंभव १३ वाणी से निकले एक असंयत शब्द को एक रथ और चार घोड़े भी वापिस नहीं ला सकते। -चीनी कहावत योगक्षेम-सूत्र Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है १ हमारे निर्मल चित्त की तरंगें आसपास के वातावरण को प्रभावित कर उसे यथाशक्ति निर्मल बनाती हैं। २ जब-जब हमारा मन विचार-विमुक्त और निर्मल होता है, तब-तब वह स्नेह और सद्भाव से, मैत्री और करुणा से भर उठता है। ३ अपने शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का, अपने चित्त और चित्तवत्तियों का सतत निरीक्षण करते रहने का अभ्यास ही धर्म धारण करने का सही अभ्यास है। ४ धर्म एक आदर्श जीवन शैली है, सुख से रहने की पावन पद्धति है, शान्ति प्राप्त करने की विमल विधा है, सर्वजन कल्याणी आचार-संहिता है, जो सबके लिए है। ५ व्यवहार में जो काम न दे वह धर्म कैसे हो सकता है ? ६ केवल निर्मल हृदय उल्लास जानता है । ७ जिस व्यक्ति में उदारता है, दाक्षिण्य है, पापभीरता है, हर बात में से अनुकूलता स्वीकार करने की वृत्ति है, वह धार्मिक है। ८ धर्म एक दीप है, प्रकाशपुंज है, एक प्रतिष्ठा है, आधार है, एक गति है । यह उत्तम शरण है, जो हमें त्राण देता है। ६ धर्म का अर्थ है—प्रेम, एक-दूसरे के प्रति आदर । १० धर्म की श्रद्धा एक अपूर्व औषधि है । ११ धर्म शुद्ध आत्मा में निवास करता है । १२ धर्म का मूल सूत्र है-पाप से बचो। १३ धर्म का अर्थ है-चेतना को निर्मल तथा पवित्र बनाना। १४ धर्म का अर्थ है-चित्त की एकाग्रता। चित्त की निर्मलता। चित्त पर जमे मूर्छा के मैल का शोधन । निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है ७६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ धर्म का अर्थ है—ग्रन्थियों का सन्तुलन, भावना का ___ सन्तुलन। १६ धर्म का अर्थ है-सत्य की खोज, सबके प्रति मैत्रीभाव का विकास, समन्वय का विकास । समस्त मानसिक विकृतियों से मुक्ति। १७ धार्मिक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सदा कलह से बचने का अभ्यास करे। १८ दूसरे व्यक्ति के साथ क्रूर व्यवहार न करना, दूसरे को धोखा न देना तथा अपने चित्त को निर्मल रखना, यह है नैतिकता। १६ मन में सबके प्रति करुणा का, मैत्री का अजस्र स्रोत फूट पड़े-यह धर्म है। २० धार्मिक होने पर भी मृदु नहीं तो दिन तो है पर उजाला नहीं। २१ धर्म हमारा धीरज है, हमारी आत्मा है। हमारा व्यक्तित्व है। धर्म हमारी संस्कार-परंपरा को उजागर करता है । २२ जो सम्यगदष्टि होते हैं, धार्मिक होते हैं, वे कष्ट के आने पर उसे शांतभाव से झेलते हैं। वे अपनी समता को नहीं खोते। २३ चाहे आंधी आये-चाहे तूफान आये, चाहे धूप या कैसा भी कष्ट आये लेकिन मन की प्रसन्नता बनी रहे यह धर्म २४ दृढ़ मनोबल धार्मिकता की पहचान है। २५ वही धर्म सच्चा है जो मनुष्य का निर्माण करता है । उसका जीवन बनाता है। २६ धर्म की रक्षा करने वाला सबकी रक्षा कर सकता है। २७ धर्म ने चेतना की शक्ति को पहचाना है, विज्ञान ने पदार्थ की शक्ति को जाना है। योगक्षेम-सूत्र Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंदर रहना है तो अपने मिजाज का ध्यान रखना होगा १ जिनका चित्त शान्त होता है उनके चेहरे पर शान्ति, दया, करुणा, प्रेम और परोपकार स्पष्ट झलकता है। जब मन अशान्त होता हे उस समय चेहरे की प्रभा, कान्ति नष्ट हो जाती है, चेहरा तनावपूर्ण रहता है, चेहरे पर फुन्सियां, मुंहासे, काले धब्बे निकल आते हैं और उससे व्यक्ति का चमड़ा मोटा हो जाता है, रक्त प्रवाह ठीक से नहीं हो पाता २ आमोद-प्रमोद, आशा, प्रेम, स्वास्थ्य एवं सुख की कामना शरीर को सुदृढ़ तथा पुष्ट बनाती है तथा उसे भरपूर स्वास्थ्य प्रदान करती है। ३ भावनाओं का प्रभाव शरीर पर विभिन्न रूपों में होता है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए मन का स्थिर और शांत होना आवश्यक है। ४ चमढ़ी का रंग, मिजाज का ढंग । ५ दुनिया का सारा सौन्दर्य शरीर में है। ६ उदास मन की कोई दवा नहीं होती। दूर से न कोई उसे सहला सकता है, न बहला सकता है, रह-रहकर तन भी मन का साथ दे देता है। लाख प्रयत्न करने पर भी आंखें बहुत कुछ बता देती हैं—मन की जिज्ञासा और तन की पीड़ा। ७ जब आप प्रसन्नचित्त होते हैं तो आपकी दिमागी कार्यक्षमता भी बुलंदी पर होती है। जब आप चिंताग्रस्त, खिन्न, भयभीत या निराशापूर्ण मनःस्थिति में होते हैं तो दिमागी क्षमता निश्चय ही घट जाती है। सुंदर रहना है तो अपने मिजाज का ध्यान रखना होगा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८जिसका शरीर सुन्दर है, वह सर्वदा प्रिय न भी लगे परन्तु जिसका स्वभाव सुन्दर है वह सर्वदा प्रिय लगता है । ८२ ६ सुन्दर व्यवहार हर जगह आदर पाने के लिए प्रवेश पत्र है । १० चिरयुवा बने रहने के सूत्र हैं -- निश्चिन्तता, आशावादीदृष्टिकोण, प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता से परिपूर्ण मनोभूमि । ११ आप जो कुछ हैं, अपने वातावरण की देन है । योगक्षेम-सूत्र Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत-वाणी १ उठ्ठिए णो पमायए-उठो, प्रमाद मत करो। जाग गये हो, अब मत करना कभी प्रमाद । २ खणं जाणाहि पंडिए-समय का मूल्य आंको। ३ णो हूवणमंति राइओ-बीती हुई रात लौट कर नहीं आती। ४ अप्पणा सच्चमेसेज्जा-स्वयं सत्य की खोज करो। ५ सच्चं लोयम्मि सारभूयं-सत्य ही लोक में सार है । ६ सच्चम्मि धिई कुव्वहा–सत्य में अटल रहो। ७ सव्वेसि जीवियं पियं—सबको जीवन प्रिय है। ८ मेत्ति भएसु कप्पए-सबके साथ मैत्री करो। ६ णो हपाए णो पाराए-न घर का, न घाट का। १० मा य ह लालं पच्चासि-लार को मत चाटो। ११ णत्थि कालस्स णागमो-- मौत के लिए कोई अनवसर नहीं। १२ सयं कडं नन्नकडं च दुक्खं जो दुःख है, वह अपना किया हुआ है। १३ मा अप्पेणं लुपहा बहुं-थोड़े के लिए बहुत को मत गंवाओ। १४ से केयणं अरिहइ पूरित्तए-आदमी चलनी को भरना चाहता १५ नाति कंडूइयं सेयं-घाव को ज्यादा खुजलाना अच्छा नहीं । १६ पढमं नाणं तओ दया-पहले जानो फिर करो। १७ निदं च न बहुमन्नेज्जा-नींद को बहुमान मत दो। अर्हत्-वाणी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ काले कालं समायरे-हर काम ठीक समय पर करो। १६ वच्चं मुत्तं न धारए-मल-मूत्र का वेग मत रोको। २० कोहं असच्चं कुग्विज्जा--क्रोध को विफल करो २१ अस्थि सत्थं परेण परं-जहां शस्त्र है, वहां स्पर्धा है । २२ तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ब्रह्मचर्य सब तपों में उत्तम है। २३ नेहपासा भयंकरा-स्नेह का बंधन बड़ा भयंकर होता २४ न तं तायन्ति दुस्सील-दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। २५ न य भोयणम्मि गिद्धे-रस-लोलुप मत बनो। २६ कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म-कर्म कर्ता के पीछे दौड़ता २७ एवं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं । किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, यही ज्ञान का सार है। २८ अन्नाणी कि काही, किं वा नाहिइ छेय पावगं । ___ अज्ञानी क्या करेगा, जो श्रेय और पाप को भी नहीं जानता। २६ सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । ___ मनुष्य का कोई सत्प्रयत्न विफल नहीं होता। ३० इहलोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं । उसके लिए कुछ भी दुःसाध्य नहीं है, जिसकी प्यास बुझ चुकी। ३१ ना पूलो वागरे किंचि, पुदो वा नालियं वए। बिना पूछे मत बोलो और पूछने पर झूठ मत बोलो। ३२ अणायारं परक्कम्म, नेव गृहे न निण्हवे । अपने पाप को मत छिपाओ।। ३३ अपूच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। बिना पूछे मत बोलो, बीच में मत बोलो। ३४ चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । शरीर को छोड़ दो पर धर्म को मत छोड़ो। ८४ योगक्षेम-सूत्र Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ असंकिलिछेहि समं वसेज्जा। __ क्लेश न करने वालों के साथ रहो। ३६ सुत्ता अमुणिणो मुणिणो सया जागरंति । असंयमी जागकर भी सोते हैं और संयमी सोकर भी जागते ३७ कडेण मूढो पुणो तं करेइ। बुराई को वह दोहराता है, जो एक बार बुराई कर चुका। अर्हत्-वाणी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब कुछ कहे बिना रहा नहीं जाता १ सब कुछ कहना नहीं चाहिए, पचाना सीखना चाहिए। २ कितना कहो, कब कहो, कैसा कहो तथा कहां कहो—इस चतुष्कोण को जानने वाला विवेकी होता है। ३ वाणी तारक और मारक दोनों होती है-भाषा का सही उपयोग हो तो वह तारक बन जाती है। ४ जिसका हृदय खाली है वो ज्यादा बोलेगा। अपने को भरना है तो थोड़ा मौन करो। ५ बूढ़ा व्यक्ति ज्यादा बोलता है। ६ दूसरे को मर्म कहना अपने आपको बेचना है। ७ बहुत कम बोलकर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। ८ छोटी नदियां आवाज करती हई बहती हैं और सागर बिना आवाज के बहता है, जो पूर्ण नहीं वह आवाज करता है, जो पूर्ण है वह शांत रहता है। ६ जिन्हें कहना कम से कम होता है, वह बोलते अधिक से ___ अधिक हैं। १० बिना अवसर के बोलना निरर्थक है। ११ जीभ से अधिक पाप करने वाला व्यक्ति अगले जन्म में गंगा होता है। १२ मनुष्य असत्य बोल सकता है लेकिन पशु-पक्षी नहीं। १३ अधिक बोलना, जोर से बोला, अनावश्यक बोलना वाचिक हिंसा है। १४ विवेकी बिना पूछे न बोले, पूछने पर झठ न बोले। १५ ऐसी बात मत बोलो जिसके दो अर्थ निकलते हों। १६ तुम अपना मुंह और पर्स सावधानी से खोलो ताकि तुम्हारी सम्पत्ति और कीर्ति बढ़े और तुम यशस्वी और महान् बन सको। १७ व्यक्ति हास्य में, चपलता में अधिक बोलकर अपनी अनन्त पुण्याई को खो देता है। योगक्षेम-सूत्र Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमड़ी का रंग, मिजाज का ढंग १ प्रसन्नचित्त मनःस्थिति ही सुदृढ़ स्वास्थ्य का सुदृढ़ आधार २ बहुत अधिक चिन्ता करने या किसी चिन्ता में घुलते रहने के कारण त्वचा संबंधी रोग उत्पन्न हो जाते हैं। डॉ० जार्ज पेगेट के अनुसार-फोड़े फुन्सियो रक्त विकार की अपेक्षा चिन्ता और तनाव के कारण ही अधिक होती हैं और रक्त विकार भी प्रायः मानसिक कारणों से ही उत्पन्न होता है। फेफड़े संबंधी रोगों का प्रमुख कारण लम्बे समय तक किसी मानसिक आघात को सहते रहना है। इतना ही नहीं पथरी और वक्षस्थल के कैंसर जैसे रोगों का कारण भी दिन रात चिन्ता में घुलते रहना है। ३ दीर्घकाल के संताप से रक्त संचार मन्द पड़ जाता है, चेहरा पीला, त्वचा शुष्क और आंखें गंदली हो जाती हैं। मनःक्षेत्र में जमा हुआ कोई विचार जब बहुत अधिक क्षुब्धता उत्पन्न करता है तब उसकी प्रतिक्रिया कम ज्यादा रूप में शरीर पर भी प्रकट होती है। कई बार तो यह प्रभाव इतना अधिक होता है कि मृत्यु तक हो जाती है । ४ मस्तिष्क का विचार-संस्थान उस नाड़ी जाल को प्रभावित करता है जो शरीर में गूंथा पड़ा है। अच्छे विचारों के उभरने से शरीर में स्वास्थ्यवर्धक और आरोग्य-वर्धक रस उत्पन्न होते हैं जो रक्त में मिलकर स्वास्थ्य पोषक रस उत्पन्न करते हैं । उसी प्रकार खराब विचार विष उत्पन्न करते हैं। ५ बेमन से लगातार मानसिक श्रम करते रहने के कारण चमड़ी पर खरोंच तथा अन्य त्वचा संबंधी बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। चमड़ी का रंग, मिजाज का ढंग ८७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ क्षोभ के कारण शारीरिक पोषण में निश्चित रूप से रुकावट या व्यक्तिक्रम आता है। इसके कारण रक्तवाहिनी नलियां असामान्य रूप से फैलती और सिकुड़ती हैं। ७ चिन्ता मानसिक अस्त-व्यस्तता का प्रधान लक्षण है। ८ जो मनुष्य अपने दुःखों को गाता है, वह उसे चौगुना बढ़ाता ६ ध्यान करने से चिन्ता में कमी तथा मन में एक प्रकार की शान्ति स्थापित हो जाती है। १० चिढ़ो मत, ऊबो मत, झुंझलाओ मत, खीझो मत, अहंकार के भाव न मन में आने दो और न जीभ पर । ऐसा कर सको तो याद रखो-तुम्हारे बहुत से दुःख और संकट अपने-आप ही दूर हो जाएंगे। योगक्षम-सूत्र Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्कराइये, छोटी बात को बड़ी चिन्ता मत बनाइये १ प्रसन्नता को वही पा सकता है जो हर चीज में कोई न कोई प्रसन्नता ढूंढने की आदत बना लेता है। २ प्रसन्नता के प्याले को दूसरों के लिए आगे बढ़ाने से अधिक दैवी कार्य क्या हो सकता है ? ३ आदमी वह है जो मुस्कुराते हुए हर चुनौती को स्वीकार करे। ४ चिन्ताजनक समस्या के समय अपने आपसे पूछिये कि इससे संभावित अनिष्ट क्या हो सकता है? कोई उपाय न हो तो स्वीकार कर लीजिये या धैर्यपूर्वक उस अनिष्ट को सुधारने के लिए बढ़ चलिए। ५ चिन्तित व्यक्ति को चाहिये कि हर वक्त व्यस्त रहे नहीं तो नैराश्य में डूब जायेगा। ६ अपने जीवन के खटास को मिठास में बदलने का प्रयत्न करो। ७ जो मनुष्य आनंद-विनोद से भरा रहता है, उसकी कठिनाईयां उसके सामने पिघल जाया करती हैं। किंतु जो व्यक्ति अपने दुर्भाग्य को कोसने में लगा रहता है उसके सामने कठिनाईयां हमेंशा जमा रहती हैं। उसके भाग्याकाश से बादल कभी नहीं हटते। ८ उठो, जीवन की यात्रा प्रफुल्लता से करनी है। जो हर हाल में खुश है, उसके जीवन में बसन्त आता है, पतझड़ कभी नहीं आता। ६ कष्टों और कठिनाईयों का या किसी दुःखद घटना का निरंतर चिंतन जीवन में जहर घोल देता है। १० शांतिपूर्ण नींद पाने के लिए चिन्ताओं को कोट की भांति उतारकर खूटी पर टांग दो। मुस्कुराइये, छोटी बात को बड़ी चिन्ता मत बनाइये Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जो आदमी यह जानता है कि कब किस दरवाजे को खोलना है और कब किस दरवाजे को बन्द करना है, वह शांति के साथ जी सकता है। १२ कोई भी परिस्थिति बड़ी नहीं होती, पर आदमी उसे बड़ी बना देता है। १३ जिसका दृष्टिकोण सही होता है, जिसका मनोबल विकसित होता है, उसके लिए पहाड़ जैसी सपस्या भी राई जितनी छोटी बन जाती है। योगक्षेम-सूत्र Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं १ कहते हैं---"यौवन दृढ़ और साहिक कार्यों का काल होता है, प्रौढ़ावस्था विवेक-संगत और सोच-समझकर काम करने का दौर होती है, वृद्धावस्था में आदमी अपने गुजरे जीवन का लेखा-जोखा करता है। २ कहते हैं-"जो दुनियां से चिपटता है, दुनियां उससे भागती है और जो दुनियां से घृणा करता है, दुनियां उससे चिपटने को बेचैन रहती है। ३ कहते हैं---"इस संसार में भगवान का दर्शन पाना आसान हो सकता है लेकिन गुरु-कृपा प्राप्त करना आसान नहीं है।' ४ कहते हैं-."मानसिक अवसाद के ही कारण अति भोजन की प्रवृत्ति जागती है । असंतृप्त वासनाओं के रूप में बैठी कुंठाएं अतिभोजन के रूप में प्रकट होती हैं। ५ कहते हैं--"पन्द्रह मिनिट क्रोध के रहने से मनुष्य की जितनी शक्ति नष्ट होती है, उससे वह साधारण अवस्था में नौ घण्टे कड़ी मेहनत कर सकता है।" ६ कहते हैं- "बात करने के समय का ध्यान रखना चाहिए। दिन में कुछ समय ऐसे होते हैं, जिनमें सलाह देना घातक होता है-यथा अति प्रातःकाल, भोजन से पूर्व तथा भोजन के तत्काल बाद या सप्ताहान्त के दिनों में। कभी किसी को सलाह उस समय न दें, जब कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित हो।" ७ कहते हैं- “सवेरे दस बजे तक प्रसन्नचित्त रहिए फिर दिन का शेष भाग आप ही अपना ध्यान रख लेगा। यानि दिन का आरंभ यदि प्रसन्नता से करते हैं तो दिन भर चुस्त और स्वस्थ रहेंगे। कहते हैं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कहते हैं-"जिस समय अपना समय अच्छा नहीं होता उस समय बहुत शान्त, मौन रहना चाहिए अन्यथा बिना मतलब की आपदाएं पैदा हो जाती हैं। उस समय मौन, ध्यान, स्वाध्याय करने से बाधाएं टल जाती हैं।" ६ कहते हैं-"जिसका पृष्ठरज्जू दूषित होता है, उसका संतुलन बिगड़ जाता है । सीधे बैठने में कठिनाई होती है लेकिन उसमें बहुत हित छुपा हुआ है। पृष्ठरज्जू सीधा रहता है तो शारीरिक और मानसिक कठिनाईयों से बच जाते हैं। आयुर्वेद का चरक कहता है कि पानी पियो तो समकाय-सीधे रहो। टेढ़े होकर पानी मत पियो। किसी से बात करनी हो, रोटी खानी हो तो टेढ़े होकर मत करो, श्वास भी लेना हो तो सम रहो जिससे की सारा संतुलन बना रहे । योगक्षेम-सूत्र Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कोण १ प्रथम महान सम्पत्ति है-सुन्दर स्वास्थ्य । २ उन्नति का एक भयंकर शत्रु है--आलस्य। ३ आलस्य का एक पुरस्कार है--दरिद्रता। ४ जनप्रिय बनने का सरल नुस्खा है-मीठा व्यवहार । ५ वाणी का एक चमत्कार है-सुन्दर वचन । ६ मानसिक प्रसन्नता का साधन है--निश्चतता। ७ जीवन का एक अनन्य साथी है-आत्म-विश्वास । ८ मानवता का एक अपमान है-भूखमरी। है सष्टि का एक महान दोष है-गरीबी। १० पुरुषार्थ का एक लांछन है-मांगना। ११ मनुष्य का एक अमर सहारा है-आशा । १२ संसार में एक अमत है-मधुर वाणी। १३ दुनियां में एक अक्षय अंधेरा है-अज्ञान । १४ धन का एक जन्मजात शत्रु है-जुआ। १५ संसार में एक शाश्वत रोग है-भूख । १६ मानव को जिन्दा ही निगलने वाली डायन है-चिन्ता। १७ आकर्षण का एक मुख्य साधन है-मुस्कान । १८ मानसिक पवित्रता का साधन है-ब्रह्मचर्य । १९ सौन्दर्य का अक्षय स्रोत है--स्वच्छता। २० वाणी का एक भूषण है--सत्य । २१ समस्त दुःखों की एक जड़ है-तृष्णा। २२ एक चीज पर्वत से भी ऊंची है-सरल मानस । २३ कभी नहीं टूटने वाला एक कवच है-नम्रता। २४ एक बहुत मीठा जहर है-खुशामद। २५ भूत को भी परेशान करने वाला एक भूत है-बहम । २६ मनुष्य मात्र के लिए एक सद्गुण है—कृतज्ञता । एक कोण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ कभी नुकसान नहीं करने वाला एक उत्तर है--मौन । २८ साधुता की एक कसौटी है-कथनी-करनी में समता। २६ संसार का स्वाद बनाने वाला एक नमक है—मनुष्य । ३० दुःख को भुलाने वाली एक दया है-दुःख का चिन्तन मत करो। ३१ धोखे से बचने का एक ही उपाय है-किसी को दिल मत दो। ३२ मनुष्य के विवेक को डुबोने वाला एक चुल्लूभर पानी है शराब। ३३ प्रत्येक मनुष्य के साथ एक वरिष्ठ सलाहकार है-जागृत विवेक। ३४ मनुष्य के उदात्त चरित्र की एक विशेषता है-तितिक्षा। ३५ महान बनने की एक कुंजी है—अपनी आलोचना, अपनी क्षुद्रताओं के क्षणों को देखना । १४ योगक्षेम-सूत्र Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटूक्तियां १ आदमी संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है, लेकिन ऐसा कौन __ कहता है ? आदमी ही न। २ मित्र वही है जो आपके बारे में सब कुछ जानता है, फिर भी आपको प्यार करता है। ३ दूसरों की बहन बेटियों को अपनी बहन बेटी मानो, पर दूसरों ___ की बीवियों को अपनी बीवी नहीं। ४ हस्पताल-जहां रोगों का आदान-प्रदान होता है। ५ अहिंसा को परम धर्म मानते हुए पड़ौसी का गला चाहो तो काट लो, पर सुबह चीटियों को आटा जरूर खिलाओ। ६ किए गए कार्यों को ठीक करने से बेहतर है कि ठीक कार्य ही किए जाएं। ७ बंधा हुआ बांध तबाही नहीं कर सकता, कैसे सोच लिया ? ८ सागर पार कर लिया तो सागर छोटा नहीं हो गया। ६ दिल छोड़ दिया फिर वहां पहुंचने की इच्छा क्यों ? १० जिस दंभ और जयनाद को शक्ति माना जाता है, वह सच पूछिए तो समय के हथौड़ों की आवाजें हैं। ११ प्रेम के बड़े खजाने भीतर हैं लेकिन हम दूसरों से मांग रहे हैं कि हमें दो ! १२ मन चाहा वैभव कब किसे मिला है ? १३ स्त्री का प्रमुख अस्त्र है जीभ जिस पर वह कभी जंग नहीं लगने देती। १४ प्रेमियों की कलह से ज्यादा और कोई कलह दिखायी नहीं पड़ती दुनियां में। कटूक्तियां Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजादी की तड़फ आत्मा का संगीत है १ कोरा वात्सल्य उच्छृखलता की ओर ले जाता है और कोरा नियन्त्रण वैमनस्य की ओर। पर जब वे जीवन में साथ-साथ चलते हैं तब संतुलन पैदा करते हैं। २ पराश्रित रहनेवाला व्यक्ति असली अवसर पर धोखा खाकर दुःखी होता है। ३ पक्षी, जिसे केवल आजादी ही प्रिय है। ४ परतंत्रता में जो कुछ घटित होता है, वह दुःख है। स्वतंत्रता ___ में जो कुछ घटित होता है, वह सब सुख है। ५ आदमी को जितनी कम जरूरतें होती हैं, उतना ही कम वह पराधीन होता है। ६ जितनी आकांक्षा उतनी परतंत्रता। जितनी अनासक्ति उतनी स्वतंत्रता। ७ स्वतंत्रता धर्म है और परतंत्रता अधर्म है। ८ स्वतंत्रता का अर्थ है-आत्मानुशासन का विकास । ६ क्रियात्मक जीवन जीना और स्वतंत्र कर्तुत्व का अनुभव करना—जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। १० स्वतंत्रता आंतरिक गुण है। जिसका अन्तःकरण आवेश से मुक्त हो जाता है, जो समस्या का समाधान अपने भीतर खोजता है, क्रिया का जीवन जीता है, वह सही अर्थ में स्वतंत्र होता है । वह गाली के प्रति मौन, क्रोध के प्रति प्रेम, अहं के प्रति विनम्रता तथा प्रहार के प्रति शांति रखता है।। ११ पूर्वजन्म की माया से स्वतंत्रता, सम्मान की प्राप्ति नहीं होती। १२ स्वतंत्र बनो । तोड़ो चित्त की जंजीरों को–मुक्ति की प्रथम शर्त यही है। १३ मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का उपयोग श्रेय की दिशा में करे, हर बुराई को अच्छाई में बदल डाले । योगक्षेम-सूत्र Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुरे अन्तःकरण की यातना जीवित प्रात्मा का नरक है १ जो पुरुष अन्य पुरुषों की जीविका नष्ट करते हैं, अन्य लोगों का घर उजाड़ते हैं, अन्य लोगों की पत्नियों का उनके पतियों से वियोग कराते हैं और मित्रों में भेदभाव उत्पन्न करते हैं, वे अवश्य नरक में जाते हैं। २ वे पुरुष जो ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें बताते हैं; किन्तु जिनके हृदय में दया-भाव नहीं है, अवश्य नरक में जाते हैं। ३ अवसर का हाथ से निकल जाना और समय बीतने के बाद यथार्थता का ज्ञान होना ही नरक है। ४ किसी का आशीर्वाद नहीं लें तो कुछ नहीं, किंतु किसी की आह नहीं लेनी चाहिए। ५ अन्तःकरण जितना भ्रष्ट होता जाता है, बुद्धि का वैभव उतना ही संकीर्णता अपनाता जाता है। ६ जब हम दूसरों को दुःख देने को आतुर होते हैं उसका इतना ही अर्थ है कि दुःख हमारे भीतर भरा है और हम उसे किसी पर उलीच देना चाहते हैं । जैसे बादल पानी से भर जाते हैं तो पानी को छोड़ देते हैं जमीन पर । ७ यदि मन में स्वर्ग है तो सारे संसार में स्वर्ग है। मन में नर्क है तो सर्वत्र नरक है। जिनका मन चिन्ता और वासना की नारकीय यातनाओं से पीड़ित रहता है उनके लिए स्वर्ग का द्वार सदा-सदा बन्द रहता है। ८ नारकी में जाने या नारकी से आने वाले की पहचान है कि वह रात-दिन क्रोध करता है, आर्तध्यान करता है। ६ मानसिक विषाद भयंकर अभिशाप है । बुरे अन्ताकरण की यातना जीवित आत्मा का नरक है Ste Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दूसरों को दिया गया धोखा अन्त में स्वयं को ही दिया गया धोखा सिद्ध होता है। ११ सबसे ऊंचा आदर्श द्वेष से मुक्त होना है। १२ पाप पाप है चाहे वह किसी भी रूप में आये और वह हमारे मन की पवित्रता को उसी प्रकार हर लेता है जैसे नदियों की उछलती हुई लहरें तट की हरियाली को। योगम-सूत्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपा उलके उलभिया, आपा सुलके सुलभिया १ व्यक्ति स्वयं ही स्वयं को उलझाता है और स्वयं ही स्वयं को सुलझाता है। २ सारे विघ्नों को समाप्त करने का सूत्र है - दूसरों की ओर झांकने की दृष्टि को कम करना और अपनी दृष्टि में आकर्षण पैदा करना । ३ सहज जीवन नितान्त सरल है पर लोगों ने जानबूझकर उसे जटिल बना लिया है । ४ मन में जिसके ऊपर कामनाओं का, महत्त्वाकांक्षाओं का जितना अधिक बोझ लदा होगा, वह बन्दर जैसी उछलकूद करके कुछ संग्रह कर सकता है और बालकों जैसा मोद मना सकता है, फिर भी इसके लिए जिन अन्तर्द्वन्द्वों में उलझे रहना पड़ता है, वे बेतरह थका देते हैं । हल्का मन रखकर खिलाड़ी की भावना से किये हुए सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही स्तर के कार्य सरल भी होते हैं और सफल भी । ५ मनुष्य को तीन बड़ी विपदाओं का सामना करना पड़ता है; मौत, बुढ़ापा और बुरे बच्चे । कोई भी घर मौत और बुढ़ापे से बच नहीं सकता, लेकिन हम उस घर को बुरे बच्चों से जरूर बचा सकते हैं । ६ आज का मनुष्य न घर छोड़ सकता है, न घर में शांति से रह सकता है । ७ जीवन में अनेक स्थितियां आती हैं, विषमताएं आती हैं। यदि हम आन्तरिक शक्तियों का उपयोग करें, अपने भीतर की शक्तियों का उपयोग करें तो बहुत सी विषमताओं को कम किया जा सकता है । मन की स्थिति बदलती है और सुख की स्थिति बदल जाती है । आपा उलके उलभिया, आपा सुलभे सुलभिया &E Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ इच्छा ज्यादा है तो दुःख ज्यादा है, इच्छा कम है तो दुःख कम है। १० सरल जीवन, न्यूनतम आवश्यकताएं, सरल विचारधारा यही सुलझे व्यक्तित्व का चिह्न है । ११ खुशी किसी तितली की तरह है । आप उसका पीछा करें तो आपके हाथ आते-आते रह जाती है । हां, आप शान्त होकर बैठ जाएं तो वह आप पर भी आ बैठती है । १२ कोई भी परिस्थिति बड़ी नहीं होती, पर आदमी उसे बड़ी बना देता है । १३ आदमी समझदारी से जटिलता का तानाबाना बुनता है, जाल बुनता है और स्वयं उसमें ऐसा फंसता है कि उससे मुक्त होना कठिन हो जाता है । १४ धार्मिक व्यक्ति भयंकर कष्टों से घबराता नहीं, उन्हें प्रसन्नता से सह लेता है, जबकि अधार्मिक व्यक्ति छोटी-सी समस्या में इतना उलझ जाता है कि वह समस्या के समक्ष घुटने टेक देता है । १०० योगक्षेम-सूत्र Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत १ उठो, जागो, श्रेष्ठजनों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। २ परमार्थ की प्रेरणा के बिना व्यक्ति ऊंचा नहीं उठ सकता। ३ चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की शालीनता अपनाकर मनुष्य ऊंचा उठ सकता है, आगे बढ़ सकता है। ४ जागो ! बैठो ! सोने से तुम्हें क्या लाभ ? (दुःख रूपी) तीर लगे रोगियों को नींद कैसी ? ५ आचार की पवित्रता विचारों की पवित्रता पर अवलंबित है और विचारों की पवित्रता महापुरुषों के सान्निध्य से सुरक्षित रहती है। ६ हमारी संवेदनशीलता, हमारी पात्रता, हमारी ग्राहकता, हमारी रिसिप्टीविटी इतनी विकसित हो कि जीवन में जो सुन्दर है, जीवन में जो सत्य है, जीवन में जो शिव है, वह सब हमारे हृदय तक पहुंच सके। ७ अपने श्रेष्ठ आचारों के प्रति सतर्क तथा धर्म में सदैव प्रतिष्ठित रहने वाला जीवन की संध्या में कभी पश्चात्ताप के आंसू नहीं बहाता है। ८ हम उत्कृष्ट भावनाओं को अपने अन्तःकरण में स्थान देकर ही परमात्म सत्ता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और उसके साथ आबद्ध हो सकते हैं। ९ स्वयं को जो आमूल बदलने को तैयार हो जाता है वह पाता है कि जीवन एक धन्यता है, एक कृतार्थता है। वह परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर उठता है, इतना सुन्दर है जीवन, इतना अद्भुत, इतना रसपूर्ण, इतना छन्द से भरा, इतने गीतों उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से, इतने संगीतों से। लेकिन उस सबको देखने की क्षमता और पात्रता चाहिये । उस सबको देखने की आंखें, सुनने के कान, स्पर्श करने वाले हाथ चाहिए। १० जब भी आपको ऊंचा उठने की प्रेरणा आपके अन्दर से मिले तो उन क्षणों को व्यर्थ न खो दो। अपने अंदर उमड़े शक्ति के समन्दर को उफनने दो। ज्वार को उठने दो। जीवन बदल जाएगा। ११ हम नवीन से नवीनतर और उत्कृष्ट से उत्कृष्टतर जीवन की ओर बढ़ते रहें। १०२ योगक्षेम-सूत्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख हिंसा है : हर्ष भी हिंसा है १ हिंसा व्यक्ति अपने लिए करता है-स्वास्थ्य के लिए, इन्द्रियों ___ की तृप्ति के लिए, आसक्ति के लिए, यशख्याति के लिए। २ हिंसा से व्यक्ति स्वयं दण्डित होता है, अपनी शक्ति को खोता ३ हिंसा करने वाले का आत्म विश्वास खो जाता है। ४ जिसके जीवन में आसक्ति है वह हिंसा करेगा, अनासक्त व्यक्ति आवश्यक हिंसा भी निलिप्तता पूर्वक करेगा। ५ अधिकांश हिंसा व्यक्ति परिवार के लिए करता है। ६ दृष्टि-विपर्यास बहुत बड़ी हिंसा है। ७ जल्दबाजी हिंसा है। ८ हिंसा के मूलभूत कारण अपने भीतर हैं। ९ आलोचना, निंदा भयंकर पाप है। अनावश्यक हिंसा है। झूठ बोलने वाले के माथे पर एक ही पाप रहता है लेकिन निंदा करने वाले के माथे पर हजार पाप रहते हैं। १० अधिक सोचना, अधिक मोह करना अनर्थ हिंसा है। ११ नारकीय आयुष्य का एक कारण जमीकन्द, जड़ी बूटियों की विशेष हिंसा करना। १२ मन में बुरे विचार, मैले विचार, गिरे हुए विचारों से मन की हिंसा होती है। १३ बहुत सारे मानसिक पाप, भावनात्मक पाप अनावश्यक है फिर भी व्यक्ति करता चला जाता है। १४ अधिक बोलना, जोर से बोलना, अनावश्यक बोलना--वाचिक हिंसा है। १५ अहिंसा का मतलब है-जीवन की एकता का सिद्धान्त, इस बात का सिद्धान्त कि जो जीवन मेरे भीतर है, वही तुम्हारे भीतर है। १६ सुख और दुःख दोनों ही उत्तेजित अवस्थाएं हैं। दुःख की उत्तेजना में भी मृत्यु हो सकती है और सुख की उत्तेजना में भी। दुःख हिंसा है : हर्ष भी हिंसा है १०३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य का सुख संतोष में है १ सच्ची प्रसन्नता मन से उत्पन्न होती है अतः मन का संतोष पाने का प्रयत्न करो । २ सन्तोष संसार की समस्त आत्माओं के साथ आत्मीयता एवं मित्रता स्थापित करने का परम साधन है । ३ सन्तोष आत्मा की सन्निकटता प्राप्त करने का अमोघ उपाय है। ४ सन्तुष्ट मन एक अविराम उत्सव है । सन्तोषी व्यक्ति सदा शान्त और पवित्र होता है ! सन्तोष से सम्पन्न व्यक्ति में ही आत्मज्ञान का उदय होता है । ५ सुख साधनों में नहीं - प्राप्त साधनों में संतोष कर लेना है । ६ सन्तोष धर्म से सत्य की प्राप्ति होती है । ७ सबसे अधिक प्राप्ति उसी को होती है जो सन्तुष्ट होता है । सन्तोष के कारण ही मानव उन्नत बनता है । मानसिक आकुलता का अभाव संतोष के प्रभाव से होता है । 8 अहंकार को छोड़कर विपत्ति को भी सम्पत्ति मानना संतोष है । १० प्रसन्नता और सुख वर्तमान में सामंजस्य एवं संतोष में है । ११ सन्तोष मनुष्य के अपने उज्जवल दृष्टिकोण पर निर्भर है । यदि आपका दृष्टिकोण परिमार्जित और समीचीन है तो कोई कारण नहीं कि आप अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तुष्ट न रह सकें और आपको उत्तम सुख प्राप्त न हो सके । १२ तृप्ति के साथ अतृप्ति जुड़ी रहती है किंतु तोष के साथ, संतोष के साथ कुछ भी जुड़ा नहीं रहता । १३ प्रार्थना द्वारा कुछ मांगना है तो ऐसी कोई चीज मत मांगो जो अविनाशी है । १४ किसी से कुछ भी नहीं लेना' ऐसा निश्चय जिसके चित्त में आ गया हो, वही मानव सचमुच स्वतन्त्र है । १५ सन्तोष ही श्रेष्ठ सुख है । १६ असन्तोष दरिद्रता है, सन्तोष सम्पन्नता है । १०४ योगक्षेम-सूत्र Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की शरण : अपनी शरण १ धर्म आध्यात्मिक अनुभूति है । २ धर्म से हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व बनता और अधर्म से वह बिगड़ता है । ३ धर्म का आरोपण नहीं होता, वह तो आत्मा का स्वभाव है । ४ धर्म का प्रशासन रक्षापरक है, दण्डपरक नहीं । ५ अच्छा जीवन जीने के लिए धर्म के सिवाय कोई मार्ग नहीं है। ६ धर्म एक ऐसा द्वीप है, जिसमें चले जाने पर कोई कष्ट नहीं रहता । ७ यदि शान्ति, पवित्रता की चाह है तो जीवन में धर्म की अवश्य जरूरत है । अपना मन सबसे अच्छा धर्मस्थान है, इसमें धर्म का सतत निवास रहता है । मेरा धर्म मेरे पास रहता है, उसे कोई छीन नहीं सकता । १० धर्म मानसिक शान्ति का सूत्र है । संबंधों की आंच पर आदमी को शांति का सूत्र देने वाला है । ११ सबसे बड़ा पाप है - स्वयं को भूल जाना। सबसे बड़ा धर्म है - अपने आपको याद रखना । १२ धर्म मानव जीवन की प्राकृतिक चिकित्सा है । १३ जिन्दगी दूसरे का अनुसरण नहीं, स्वयं का उद्घाटन है । जिन्दगी दूसरे जैसे होने की प्रक्रिया नहीं, स्वयं जैसे होने का आयोजन है । १४ धर्म श्रद्धा जागने पर व्यक्ति सोचता है-पुण्य का भोग उतना न भोगूं जिससे वह बंध का कारण बन जाये । - धर्म की शरण : अपनी शरण १०५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जो जीव धर्म में स्थित है वह शत्रुओं के समूह पर भी क्षमा भाव करता है, दूसरे के द्रव्य का वर्जन करता है और परस्त्री को मां के समान समझता है । १६ धर्म से मनुष्य पूजनीय, विश्वसनीय, प्रिय और यशस्वी होता है। धर्म मनुष्य के लिए सुख-साध्य है। धर्म ही मनुष्य को शांति प्रदान करता है। योगक्षेम-सूत्र Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर १ ऊंचा उठना हल्केपन पर निर्भर है। भारी तो नीचे हो गिरेगा। २ हल्कापन-सौमनस्य पानी की तरह बरसता है, बहता है और सर्वत्र शीतलता, हरितमा एवं तृप्ति की परिस्थितियां विनिर्मित करता है। ३ ईश बड़े-बड़े साम्राज्यों से विमुख हो जाता है किन्तु छोटे छोटे पुष्पों से कभी खिन्न नहीं होता। ४ छोटा बच्चा हुए बिना कोई उपलब्धि नहीं है। ५ आदमी जितना महान् होता है, उतना ही उसका अभिमान छोटा होता है । जो जितना छोटा होता है, उसका अहं उतना ही बड़ा होता है। ६ जिसके मस्तिष्क में अभिमान भरा है, कभी मत सोचो कि वह सत्य को सुन सकेगा। ७ जिसने अहंकार का बोझ उतारकर नम्रता एवं विनयशीलता का शिष्ट हल्कापन धारण कर लिया समझना चाहिये उसने महानता प्राप्त करने का मर्म समझ लिया। ८ हमारा अंतर अंतरिक्ष है वहां निर्भार होकर जाना होगा। ९ विनम्रता जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। १० जब तक हृदय में सरलता और पवित्रता नहीं आती तब तक साधना जलधारा पर चित्र का आलेखन है। ११ भगवान् को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन् सब करना छोड़कर देखना है । चित्त जब शान्त होता है और देखता है तो द्वार मिल जाता है। लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ साधना में दूसरों से आदर पाने की आकांक्षा उसका अनादर है। मुहम्मद ने कहा है----जब तुम प्रार्थना करो तो तुम्हारी पत्नी को भी पता न चले । जीसस ने कहा---एक हाथ से दान दो, दूसरे हाथ को खबर न हो, यही सच्चा सम्मान है। १३ जिसकी आंखों में परमात्मा झांकता है वह हल्का होता है और जिसकी आंखों में शैतान झांकता है, वह भारी होता है। १४ ईश्वर का दर्शन और अनुग्रह दुर्बल दुरात्माओं के लिए संभव नहीं। उसे उपलब्ध करना मात्र तपस्वी और विवेकवानों के लिए ही संभव है। १०८ योगक्षम-सूत्र Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख की राह १ अपने सामने लक्ष्य स्पष्ट रखें और उसे पाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहें। २ अपनी प्रसन्नता में लोगों को भागीदार बनाएं। ३ आप जिस दुनियां में हैं, उसे बेहतर बनाने का प्रयास करें। ४ दयालु बनें और प्रतिदिन जीवन में रस लेते रहें। ५ जब भी तबियत ढीली लगे, कुछ न खायें। ६ नाक भौंहें सिकोड़ने का जीवन में अवसर न आने दें। ७ प्रकृति के नियमों से तालमेल बनाये रखना सीखें। ८ अवसर के प्रति पूर्णतः सजग रहें। है जो अत्यावश्यक नहीं है, उसका परित्याग कर दें। १० समझ बूझकर खतरा मोल लें। ११ प्रतीक्षा में धीरज रखें। १२ सफलता के लिए जल्दबाजी न करें। १३ एक समय में एक ही काम करें। १४ थोड़ी-थोड़ी देर बाद शिथिलन लाते रहें। काम बंद करके थोड़ी देर बैठे । पर चाहे बैठे हों या खड़े अपने को तनावमुक्त बनाने का प्रयास करें। १५ विचारों और वातावरण में यौवन की झलक होनी चाहिए। १६ फुरसत के समय अपनी उन्नति के सूत्रों को संग्रह करें। १७ स्वास्थ्य और सुख की कामना हो तो ईश्वर में श्रद्धा रखिए, गहरी नींद सोइये। १८ खुले दिल से भूल स्वीकार करें। अपनी बात संक्षेप में कहें। मिताहारी बनें । सांस गहरी लें। मन से सेवा करें। हृदय से प्रार्थना करें। बड़ाई ईमानदारी से करें। सुख की राह १०६ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का पालन मानव-पर्याय में ही होता है १ ब्रह्मचर्य दो शब्दों ब्रह्म और चर्य के मेल से बना है। ब्रह्म का अर्थ होता है-उच्च चेतना और चर्य का मतलब होता हैअवस्थित होना। अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ-उच्च चेतना में विचरण करना तथा कामवासनाओं से बचना व उसे नियंत्रित करना। २ मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण संयम में रहने का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ३ जिसे महर्षि मौन कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है । ४ ब्रह्मचर्य उत्तम बाण है जिससे हृदयस्थ वासना भेद दी जाती ५ ब्रह्मचारी को कभी दुःख प्राप्त नहीं होता, उसको सब प्राप्य ६ ब्रह्मचर्य शारीरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए संजीवनी बूटी ७ ब्रह्मचारी को घी-दूधादि रसों का ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि रस प्रायः उद्दीपक होते हैं। उद्दीप्त रस से युक्त पुरुष के पास कामवासनाएं वैसे ही चली आती हैं; जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षीगण चले आते हैं। ८ ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए प्रभु-भक्ति, स्वाध्याय, खान पान शुद्धि तथा श्रृंगार त्याग आवश्यक है। ६ ब्रह्मचर्य अत्यन्त सुसज्जित रथ है जिसमें बैठकर मानन स्वर्ग में अनायास पहुंच जाता है । १० ब्रह्मचर्य से मंत्र विद्या शीघ्र सिद्ध हो जाती है। ओज, तेज ____ और कांति की वृद्धि होती है। निर्मल ब्रह्मचर्य के प्रभाव से योगक्षेम-सूत्र Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रूर प्राणी अपनी क्रूरता छोड़ देते हैं। इसलिए अत्यन्त सावधानी से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। ११ सादी पोशाक ब्रह्मचर्य पालन में मददगार होती है। १२ ऊंचा आदर्श सामने रखना और उसके लिए संयमी जीवन का आचरण; यही ब्रह्मचर्य है। १३ ब्रह्मचर्य का स्थूल लाभ है-शक्ति, बल, शारीरिक संतुलन, गर्मी, जीवनी शक्ति में अभिवृद्धि, प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास, तेज, सहनशीलता एवं स्वेच्छा से मृत्यु प्राप्ति की शक्ति आदि। १४ घोर ब्रह्मचर्य का पालन शुरवीर ही कर सकते हैं, कायर नहीं । ब्रह्मचर्य का पालन मानव पर्याय में ही होता है Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की भूमि १ साधना की भूमि मंदिर और उपाश्रय नहीं है अपितु मानव का अन्तःकरण है । २ साधना की सबसे बड़ी बात है - आकर्षण की धारा को बदल देना । ३ अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरों को नसताना -साधना का एक बिन्दु है । ४ साधना किसलिए ? १. णिज्जरट्ठाए - निर्जरा के लिए । २. स्वास्थ्य के लिए । ३. सुख की प्राप्ति के लिए । ४. ज्ञानवृद्धि के लिए । ५. शक्ति सम्पन्नता के लिए । ५ सबसे बड़ी साधना एवं निष्पत्ति है - मैत्री के साकार रूप बनें । ६ स्वभाव में शान्तता ही साधना की कसौटी है । ७ जीवन में जागे हुए जियें । क्योंकि जो सोता है वह स्वयं को खो देता है । ८ उतावल, जल्दबाजी साधना में विघ्न है । e सबसे पहली साधना पद्धति है - कम बोलना । १० वह साधना-साधना नहीं जिसके साथ प्रयोग न हो, आत्मचिंतन न हो । ११ ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इस त्रयी में सामंजस्य स्थापित करना-यह जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिये । १२ जब तक हृदय में सरलता और पवित्रता नहीं आती तब तक साधना जलधारा पर चित्र का आलेखन है । १३ साधना की पहली शर्त है-आशा का परित्याग, आकांक्षा, तृष्णा से मुक्त होना । १४ मनोवृत्ति का परिवर्तन ही हमारी असली विजय है । १५ अकेलेपन का अनुभव करना, उदास न होना, प्रसन्न रहना -यह अध्यात्म-साधना से संभव है । १६ साधना का मूल प्राण है— दृष्टि की विशुद्धि | १७ समता साधना का अन्तः प्राण है । ११२ योगक्षेम-सूत्र Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौत हर व्यक्ति को साधक बना देती है १ मृत्यु जीवन से उतनी ही सम्बन्धित है जितना जन्म । जन्म या जीवन का प्रभात । मृत्यु याने जीवन की शाम । २ मृत्यु से अधिक सुन्दर कोई और घटना नहीं हो सकती । ३ मृत्यु में आतंक नहीं होता बल्कि मृत्यु तो एक प्रसन्नपूर्ण निद्रा है जिसके पश्चात् जागरण का आगमन होता है । ४ मृत्यु से नया जीवन मिलता है । जिससे पुराना शरीर नया बनता हो, उस मृत्यु से डरना क्या ? ५ मृत्यु की घड़ियों में भी मन के उद्गार शान्त नहीं हुए हैं तो इस अवस्था में मृत्यु सुंदर नहीं हो सकती । ६ जो अपनी अच्छी मौत के प्रति सावधान है, वह अवश्य अच्छा जीवन जियेगा । ७ मृत्यु एक सुनिश्चित घटना है, वह होनी है जो होकर ही रहेगी । मनुष्य के वश में बस इतना ही है कि वह इस घटना को भव्य और गरिमायुक्त, श्रेष्ठ और शुभप्रद बना सके । अन्यथा अनिच्छा, अनुत्साह और अशान्ति के साथ ही सही, मरना तो पड़ेगा ही । तब फिर शानदार मौत ही क्यों न मरें ? जिसने जीवन को देखा, वह उलझ गया तथा जिसने मौत को देखा, वह पार हो गया । ६ सदा मृत्यु का स्मरण रहे तो दुष्कर्म बन भी न पड़ें। १० शरीर आदमी को छोड़ता है घटती । जिस दिन आदमी स्वयं दिन एक नयी घटना घटती है । ११ अपने जीवन में जिसने अशुभ कर्म शांति भंग की है, अपनी शान्ति के लिए वह आत्मा कभी भी शान्तिपूर्वक नहीं मर सकती है । मृत्यु ही किए हैं, दूसरों की दूसरों को रुलाया है, मौत हर व्यक्ति को साधक बना देती है ११३ तब कोई नयी घटना नहीं शरीर को छोड़ देता है, उस Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की परीक्षा का परीक्षा-फल है। अध्ययन और उत्तरपुस्तिका के आधार पर ही परीक्षाफल आता है। जिसके जीवन की उत्तरकापियां गलत हैं उसका परीक्षाफल कभी भी अच्छा नहीं आ सकता है। १२ हे मृत्यु ! आप अकेले अपने ही बल से किसी को नहीं मार सकतीं। जो मरता है अपने ही कर्मों से मरता है, आप तो निमित्तमात्र हैं। १३ जितना सरल, सौम्य, हल्का और आवेश, उत्तेजनाओं से रहित जीवन जिया जायेगा, उतना ही मृत्यु का भय और कष्ट हल्का होता जायेगा। १४ श्मशान नवजीवन का उद्यान है, उसे देख कुड़कुड़ाओ मत । ११४ योगक्षेम-सूत्र Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगक्षेम-सूत्र १ मैं अपने भाग्य का निर्माता आप हूं। अपनी परिस्थितियों को प्रयत्नपूर्वक बदल सकता हूं। २ अनासक्ति का विकास हो, ममत्व का विलीनीकरण हो। ३ सामुदायिक जीवन में भी एकाकीपन की अनुभूति हो। ४ मैं अविनाशी, एकाकी और कर्ममल से रहित विशुद्ध आत्मा ५ बिना देखे कोई निर्णय मत करना। ६ निश्चय करो आज से मुझे नया पाप नहीं करना है । ७ भार नहीं, उपयोगी बनकर जीओ। ८ औरों को अपनाओ पर अधीन मत बनाओ। ६ लोक कल्याण की वृत्ति ही भगवान् की श्रेष्ठ आराधना है। १० गुरुजनों की अवज्ञा मत करो। ११ अपनी परिक्रमा ही सफलता का सूत्र है । १२ समाधि तथा आध्यात्मिक सुख में संस्थित बनें । १३ मन की शान्ति का स्वाद लें। १४ भारहीनता का अनुभव करें। १५ आनन्द हमारे भीतर है। १६ मेहनत बहुत श्रेष्ठ और पवित्र कार्य है । १७ अपने प्रति संतोष प्रकट करो। १८ योगक्षेम की पहली शर्त-अच्छाई को पाने का संकल्प जागृत हो। योगक्षेम-सूत्र ११५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छे विचार रखना भीतरी सुन्दरता है १ अपने विचारों पर नजर रखिए, वे शब्द बन जाते हैं, अपने शब्दों पर नजर रखिए वे कर्म बन जाते हैं, अपने कर्मों पर नजर रखिए वे आदत बन जाते हैं, अपनी आदतों पर नजर रखिए वे चरित्र बन जाते हैं, अपने चरित्र पर नजर रखिए क्योंकि वह आपकी नियति बन जाती है । २ जिसका सोचने का तरीका ठीक होगा उसे कोई भी परिस्थिति या किसी का दुर्व्यवहार दुःखी नहीं कर सकता । सुखी रहना चाहते हो तो ठीक से विचार करना सीखो। ३ अच्छा विचार जीवन का आलोक है । ४ सात्विक विचार का आना, मूर्च्छा का टूटना है । ५ अच्छे विचारों के उमड़ने से शरीर में स्वास्थ्यवर्धक और आरोग्यवर्धक रस उत्पन्न होते हैं जो रक्त में मिलकर स्वास्थ्यपोषक रस उत्पन्न करते हैं । उसी प्रकार खराब विचार विष उत्पन्न करते हैं । ६ पवित्र विचारों से ऊर्जा बढ़ती है, आभामण्डल पवित्र हो जाता है, बुरे विचारों से ऊर्जा घटती है, आभामंडल मलिन हो जाता है । ७ बुरे विचार बुरे संस्कारों के कारण पैदा होते हैं । ८ जो तुम्हें बुरा लगता है उसका समर्थन, अनुमोदन भी न करो । & प्रेम से देखने का मतलब है भीतर नई शक्ति आ रही है । बुरी भावना, आवेग से जुड़े रहने के समय लगेगा भीतर से खाली, कंगाल बन रहे हैं, अपवित्र बन रहे हैं । १० मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है । मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व है, उसका निर्णय ही उसकी नियति है, योगक्षेम-सूत्र ११६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी अभीप्सा है, उसका आत्मसृजन है। व्यक्तित्व अपने विचारो से भिन्न नहीं हो सकता। ११ हमारा प्रत्येक भाव, विचार और कर्म हमें निर्मित करता है। उन सबका समग्र जोड़ ही हमारा होना है। १२ सफल जीवन के लिए आवश्यक है कि दृष्टिकोण सही रहे, ___ विधायक रहे, सृजनात्मक और रचनात्मक रहे। १३ जिन्दा रहना है तो विचार शुद्ध रखो। अच्छे विचार रखना भीतरी सुंदरता है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का सुन्दर साथी मानव को ऊर्ध्वगामी बनाता है १ श्रेष्ठ और समान मित्रों की संगति करनी ही चाहिये। २ सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक है--स्वास्थ्य, धन, बुद्धि, मित्रता। ३ सच्चा मित्र वही है जो कुपथ से हटाकर सुपथ में लगाये और आपत्ति में विशेष प्रेम करे । ४ वह मित्र जो निराशा या उलझन के क्षणों में हमारे साथ शान्त रह सकता हो, जो हमारी दुःख संताप की घड़ियों को बदलने में हमारी अज्ञानता, हमारी निष्क्रियता से सर्वथा विरक्त रहकर हमारे साथ डटा रहता हो और जो हमारी तमाम दुर्बलताओं की वास्तविकता को स्वीकार कर हमारे साथ बना रह सकता हो, वही है सच्चा शुभचिन्तक' मित्र। ५ वह सच्चा साथी है जिसमें सौहार्द है, वात्सल्य है और व्यथित दिलों को समझने की परख है। उसके पास जाओ दिल-दर्द भरी कहानी सुनाओ, दिल की कालिमा धोने का यह सुनहला मौका है। हृदय-फफोलों को मुक्त होकर फटने दो। स्मृति में छायी हुई घनीभूत पीड़ा को अविरल गति से बहने दो। मस्तिष्क का भार हल्का हो जाएगा और एक सुनहली राह मिलेगी। ६ सहायक उसे बनाओ जिसका मन, वाणी, आभामंडल पवित्र हो, जिसकी बुद्धि कुशल, निपुण हो । ७ पवित्र व्यक्ति के पास बैठने से पवित्रता बढ़ती है, भाव विशुद्ध होता है, बीमारी कम होती है। ८ भलों के संग से विष भी अमृत हो जाता है, बुरों के संग से अमृत भी विष में बदल जाता है। गौ मामूली तिनकों से दूध सरद योगक्षेम-सूत्र Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना देती है और उसी अमृतमय दूध को सांप जहर में बदल देता है। ६ धर्मकार्यों में और संकट-काल में सच्चे सहायक पाना कठिन होता है। १० दुर्जन के साथ चलते सज्जन भी राह भूल जाता है। साथ कैसा है, इसका चुनाव अवश्य करना चाहिए। ११ अच्छे साथी दुःख दर्द में भी सहभागी बनते हैं। १२ जीवन में मित्रता से बढ़कर कोई सुख नहीं। १३ मित्रता करने में शीघ्रता मत करो। यदि करो तब अन्त तक निभाओ। १४ सम्पर्क और साहस इज्जत का रास्ता दिखाते हैं । जीवन का सुंदर साथी मानव को ऊर्ध्वगामी बनाता है Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोचने की बात १ हमारा शरीर महाग्रंथ है जिसे हजारों-हजारों लोगों ने पढ़ा, हजारों बार पढ़ा पर उसका एक पृष्ठ भी समझ में नहीं आया और अब तक भी नहीं आया। महाग्रंथ, जिसकी हर पंक्ति पर अर्द्धविराम और पूर्ण विराम है, जिसकी यात्रा न जाने कितने लोगों ने की पर पहुंचना कठिन रहा। वह महाग्रंथ किसी महान् ग्रंथकार किसी महाकवि के द्वारा लिखा हुआ नहीं है, कितु एक प्रकृति प्रदत्त रचना है। २ जीवन ताश का खेल है, जिसमें पत्ते बंट जाने पर हर खिलाड़ी को वे पत्ते उठाने ही पड़ते हैं। फिर खिलाड़ी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह उन्हीं पत्तों से कितना अच्छा खेल खेल पाता है। जीवन की अधिकांश असफलताएं इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि इंसान इस नियम को मानने से इंकार कर देता है और उन्हीं पत्तों से खेलने की जिद पकड़ लेता है जो उसके विचार से उसे मिलने चाहिए थे। ३ मनुष्य ने प्लास्टिक के सुंदर रंग-बिरंगे फूल बनाकर अपने गमले सजाने की कल्पना से मन को छलना तो सीख लिया पर उनमें सौरभ पैदा करने में आज तक असफल रहा है। जीवन के दुःख दर्दो पर कृत्रिम हास-परिहास व मनोरंजन के आकर्षक आवरण डालकर उन्हें भुलाने की कोशिश तो कर सका है पर उनमें आत्मतृप्ति की सुखद अनुभूति का स्पर्श नहीं जगा सका। ४ माता-पिता के लिए पुत्रों की कृतज्ञता, अपने बच्चों की कृतज्ञता से बढ़कर हर्षदायक कोई बात नहीं होती। और बेटा-बेटी उदासीन हैं, परवाह नहीं करते, अकृतज्ञ हैं-माता योगक्षेम-सूत्र १२० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता के लिए ऐसा अनुभव करने से बढ़कर कोई अन्य क्षोभकारी बात नहीं होती । ५ मानव जीवन की सबसे महान् घटना ( मौत ) कितनी शांति के साथ घटित हो जाती है । वह विश्व का एक महान् व्यंग, वह महत्त्वाकांक्षाओं का प्रचंड सागर, वह उद्योग का अनंत भंडार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीलाक्षेत्र, वह बुद्धि और बल की रंगभूमि न जाने कब और कहां लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती । एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छ्वास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती । सागर की हिलोरों का अन्त कहां होता है, कौन बता सकता है ? ध्वनि कहां वायुमग्न हो जाती है, कौन जानता है ? मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है ? उसका अवसान भी उतना ही शान्त, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है ? ६ मानव-‍ व - मस्तिष्क एक ऐसा गोदाम है जिसमें वर्षानुवर्ष के अनुभव, घटनाएं, कहानियां, शब्द, दृश्य और नाम एकत्र होते हैं। एक ऐसा कैमरा जो ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से अनेक चित्र लेता रहता है । शरीर विज्ञान के ज्ञाता बताते हैं कि मानव मस्तिष्क में ५ अरब तहें होती हैं इनमें से केवल ५ लाख काम आती । एडीसन जैसा प्रसिद्ध वैज्ञानिक भी अपने मस्तिष्क का तीन चौथाई ही काम में ला सका । : सोचने की बात १२१ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-कण १ उद्यमी पुरुषों के हाथ में समस्त कल्याण सदा रहते हैं। २ हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं, क्यों? क्योंकि हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है । ३ मनुष्य में आत्मध्वंस और आत्मसजन दोनों की ही शक्तियां हैं। वह अपना विनाश और विकास दोनों ही कर सकता है। ४ जीवन की बहुमूल्य वस्तुएं आपकी प्रतीक्षा में हैं, उन्हें पाने को प्रयास तो कीजिए। ५ कितनी ही भीड़ हो जिन्दगी बिल्कूल सूनसान है। ६ कष्ट सहे बिना जो मार्ग मिलता है वह कष्ट आ पड़ने पर नष्ट हो जाता है। ७ आज की चिन्ता आज ही समाप्त कर दें। ८ बहत ही मुश्किल है कोई जीवन का सम्राट हो सके। ६ खुशी के प्रसंगों पर सावधान रहो।। १० पाप करना पाप है और उसे न समझना महापाप है। ११ वास्तविक अहिंसक वही है जो मारने की क्षमता रखते हुए भी किसी को नहीं मारता । १२ जिसके मन, वाणी, कर्म में एकत्व है, वही महात्मा है । १३ संकल्प बहुत बार मनुष्य को गिरते-गिरते बचा लेता है। १४ आनन्द परिग्रह को बढ़ाने से नहीं, दिल को बढ़ाने से बढ़ता १५ वह कैसा विचक्षण है जो पारसमणि को ठुकरा रहा है। १६ प्रियता और अप्रियता के जाल में फंसे हो, फिर तटस्थ कैसे? १७ आत्म-प्रशंसा करना अपनी अच्छाइयों के प्रति औरों को उदासीन बनाना है। १२२ योगक्षेम-सूत्र Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रशंसनीय काम करके आत्म-प्रशंसा की मादकता में न छकने वाले व्यक्ति तपस्वी एवं महान् होते हैं । १६ जीवन का प्रत्येक क्षण एक अवसर है। क्षण-प्रेक्षा करें कि इस क्षण मैं भीतर हं या बाहर, शान्त हूं या अशान्त किस क्षण में कैसे भाव आ रहे हैं--देखें। हर क्षण के प्रति जागने वाला व्यक्ति निश्चित सफल होता है। २० चिथड़े का भी अपमान मत करो, उसने भी किसी की लाज रखी थी। २१ समस्या का सागर तैरने के लिए धैर्य, साहस एवं मस्तिष्क के संतुलन की अपेक्षा होती है। २२ कोई समय बोलने और काम करने का होता है तो कभी मौन एवं अकर्मण्यता धारण करनी पड़ती है। २३ कितना मर्माहत होता है वह क्षण जब सागर के किनारे खड़ा आदमी लहरों को छ न पाये, अक्षय-कोष का स्वामी होकर भी तिजोरी खोल न सके। २४ हमारा अहंकार ही है, जिससे हमें अपनी आलोचना सुनकर दुःख होता है। २५ न तू है, न मैं हूं, न यह लोक है, फिर शोक किसलिए? २६ हर वस्तु में संगीत है, यदि मनुष्य उसे सुन सके। २७ वही सफल होता है जिसका काम उसे निरंतर आनंद देता रहता है। २८ मेहनत से शरीर बलवान होता है और कठिनाई से मन । २६ ठीक ढंग से उचित समय पर किया हुआ विश्राम फटे कपड़े में समय पर टांका लगाने जैसा है। विषय परिवर्तन से, खेलकूद से व हंसने से विश्राम होता है। निद्रा से भी अच्छा विश्राम होता है। ३० बहुत अधिक विश्राम स्वयं दर्द बन जाता है। ३१ विश्राम में भी उद्यम की गति है। शान्त समुद्र की तरंगें भी गतिहीन नहीं होती। ३२ जो खुद निर्विकार, निर्भय और सुन्दर है, वह भला बाह्य पदार्थों से स्वयं को विकृत क्यों करेगा ? ३३ मानव जीवन ! तूं इतना क्षणभंगुर है पर तेरी कल्पनाएं कितनी दीर्घायु ! ३४ दूसरों को धमकाना अपनी कायरता प्रकट करना है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु का दास कभी उदास नहीं होता १ कमजोरी से भाग सकना असंभव है। या तो हम उसे खतम कर दें या वह हमें खतम कर देगी। यदि यह सच है तो हम अभी इसी वक्त उसे खतम करने में क्यों नहीं जुट जाते ? २ समय उन्हीं को पूजता है जो नये स्तम्भों की नींव रखते हैं और प्रतिकूल हवाओं के सहारे तैरकर आगे बढ़ते हैं । ३ कर्मशील व्यक्ति प्रायः उदास नहीं रहते क्योंकि कर्मशीलता __ और गमगीनी साथ-साथ नहीं रह सकती। ४ प्रतिक ल परिस्थिति में हम जड़ न हों। उछलकर नई जमीन पर आ जाएं, नए उद्योग करें। नई संभावनाएं खोजें, नए सपने लें और नए प्रयोग करें। ५ विफलता सफलता की ही सीढी है। कभी भी निराश मत बनो। ए वीर बढ़ते चलो ! ६ दुःख के भीष्म ग्रीष्म में ही मानव में माधुर्य आता है। ७ सफल व्यक्ति वह है जो अपने जीवन में अनुकूल परिस्थितियों को निर्मित करता है अथवा वह प्रत्येक अवसर को अपने अनुकूल बना लेता है। ८ जिन्दगी को वरदान बनाओ। सदा प्रसन्न रहो, मुस्कराओ। ६ वही सच्चा साहसी है जो कभी निराश नहीं होता। १० अचानक ही दिल और दिमाग पर ढेर सारा बोझ मानसिक शान्ति को उथल-पुथल करने लगे तो उस बोझ को किसी के साथ बांट लेना चाहिये। ११ नेगेटिव दृष्टिकोण निराशा का बहुत बड़ा आघार है। योगक्षेम-सूत्र १२४ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महान् व्यक्ति वह होता है जिसका दृष्टिकोण विधायक होता है, समस्या में से समाधान निकाल लेता है, दुःख में से 'सुख निकाल लेता है । १३ असफलताओं के लिए खेद मत करो। वे स्वाभाविक हैं, वे जीवन के सौंदर्य हैं । इन असफलताओं के बिना जीवन है ही क्या ? यदि जीवन में संघर्ष नहीं है तो वह जीवन जीने योग्य है ही नहीं । इसलिए एक हजार बार प्रयत्न करो और यदि एक हजार बार भी असफल रहो तो एक बार प्रयत्न और करो । १४ मन की दुर्बलता से अधिक भयंकर और कोई पाप नहीं है | १५ निराशा के बादलों में छिपी आशा के चांद की, चांदीकिरणों को देखिए। आपकी सारी समस्याएं हल हो जाएंगी । प्रभु का दास कभी उदास नहीं होता १२५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा को पाना कठिन नहीं, इन्सान बनना मुश्किल १ मानव-‍ व चरित्र न बिल्कुल श्यामल होता है, न बिल्कुल श्वेत । उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है, किन्तु स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम । मानवीय चरित्र इतना जटिल है कि बुरे से बुरा आदमी देवता हो जाता है और अच्छे से अच्छा आदमी पशु भी । २ एक दिन ही जी, मगर इन्सान बनकर जी । ३ प्रसन्न रहना, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में अपने भीतर शांत होकर आनंद का निर्झर बहते देखना - मानव की सफल मानवता है । ४ मानव का मन एक विराट सागर है, जहां सैंकड़ों लहरें प्रतिक्षण उठती एवं विलीन होती है । ५ जो मन में सोता है अर्थात् चिन्तन-मनन में लीन रहता है, वह मानव है | ६ मानव - मन जितना सरल व सादे वेशभूषा में रहेगा, उतना ही शुद्ध व पवित्र रहेगा । ७ मनुष्य धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है । ८ मनुष्य ही ईश्वर का जीवन्त मन्दिर है । 2 परमात्मा की उपासना में लम्बा समय लगता है, परमात्मा होने में लम्बा समय नहीं लगता । १० बड़ा चमत्कार है - अपने आपको पा लेना, चेतना के आकाश में उड़ना और आत्म - चैतन्य के अथाह समुद्र को तैरना । ११ आत्मा से आत्मा को देखो, परमात्मा बन जाओगे । १२६ योगक्षेम-सूत्र Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ लगता है, पूरी दुनियां ही शैतानों से भरी पड़ी है। शरीफ शायद वही हैं जिन्हें शैतान बन पाने का अवसर नहीं मिलता। अवसर पाते ही आदमी आदमी नहीं रहता, शैतान बन जाता १३ मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात् मन्दिर है, इसलिए साकार देवता की पूजा करो। १४ वास्तव में मनुष्य बनो, अन्यथा मनुष्य की सी बोली तो पक्षी (तोता) भी बोल लेते हैं। १५ मनुष्य एक भटका हुआ भगवान् है। सही दिशा पर चल सके तो उससे बढ़कर इस संसार में श्रेष्ठ और कोई नहीं परमात्मा को पाना कठिन नहीं, इन्सान उनना मुश्किल है १२७ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाली दिमाग शैतान का नहीं, भगवान् का घर होता है १ भगवान् को चाहते हो तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं से भरा है, वही भगवान् से खाली है और जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान् से भरा हुआ था। २ भगवान् को पाने को कुछ करना नहीं है वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है तो द्वार मिल जाता है। ३ विचार को छोड़ो और निर्विचार हो रहो तो तुम जहां हो, प्रभु का आगमन वहीं हो जाता है। ४ अवकाश के समय हम कभी-कभी मस्तिष्क की सतह पर तैरते विचार को देखें, सम्भव है देखते-देखते निविचार हो जाएं। निर्विचार में स्वास्थ्य, सौन्दर्य और शक्ति तीनों का अधिवास है। ५ दिमाग से जितना कम काम लिया जायेगा, वह उतना ही जल्दी और तेजी से बेकार हो जाएगा। ६ मौनावस्था में बड़ी-बड़ी कल्पनाएं मूर्त रूप प्राप्त करती हैं और फिर बाहर प्रकट होकर हमें अपार आनंद का भागी बनाती एवं हमारे जीवन की पतवार बनती है। ७ मस्तिष्क को संपूर्ण रूप से जागृत करने और उसकी क्षमताओं का समग्र लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि यथासम्भव उसे निश्चित, निर्भार, हल्का-फुल्का एवं स्थिर बनाएं। ८ वह मौनावस्था ही होती है जब हम दुनियां के सारे बंधनों से छूटकर अपने प्रभु से अपने सम्बन्ध की प्रतीति कर योगक्षेम-सूत्र १२५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाते हैं। तभी हम ईश्वरप्रदत्त अपनी शक्तियों को भी पहचानते हैं। ६ मौन एवं एकान्तवास द्वारा अजित शक्ति लेकर हम लोक कल्याण और मानव-सेवा के उच्चतर कार्य में लगें। १० बड़े-बड़े काम शांत और चुपचाप रहकर ही होते हैं। बड़े-बड़े जंगल चुपचाप उगते हैं, जिस विशाल धरा-पृथ्वी पर चल फिर रहे हैं, वह चुपचाप अपनी धुरी पर गतिशील रहती है। ११ जब मन बाह्य विचारों से शून्य होता है तब उस शून्यता को चैतन्य की अनुभूति भर देती है। जब मन चैतन्य की अनुभूति से शून्य होता है तब उस शुन्यता को बाह्य विचार भर देते हैं। खाली दिमाग शैतान का नहीं, भगवान् का घर होता है १२६ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं जीओ और दुनियां सीखे १ सिखाने की बात मत बोलो, पहले जीने की बात को बोलो । २ जिस व्यक्ति ने अपने व्यवहार से और आचरण से पढ़ाना शुरू किया, सिखाना शुरू किया, वह वास्तव में शिक्षक होता है । ३ दूसरों को वही व्यक्ति विनय के मार्ग पर ले जा सकता है जो स्वयं विनय के मार्ग पर चल चुका है । ४ आचरण से जो पाठ पढ़ाया जा सकता है, वह शब्दों से नहीं पढ़ाया जा सकता । ५ प्रत्येक आदमी अन्तर्विरोध का जीवन जीता है, कहता कुछ है और करता कुछ है । ६ उपदेश से आदमी कम बदलता है। जब तक भीतरी परिवर्तन नहीं होता तब तक आदमी नहीं बदलता । ७ जो स्वयं अभ्यासी नहीं होता, वह अच्छा प्रशिक्षक नहीं बन सकता । ८ मनुष्य का व्यवहार ही वह दर्पण है जिसमें उसका व्यक्तित्व भलीभांति देखा जा सकता है । & शांति के क्षणों में जो सलाह तुम दुसरे को दे सकते हो, अशांति के क्षणों में खुद के ही काम नहीं आती। अपनी ही सलाह के विपरीत चले जाते हो । १० धरती के देवता हैं वे जो अपने अनुकरणीय आचरण से दूसरों में सत्पथ गमन की प्रेरणा भरते हैं । ११ अपने चरित्र को दर्पण के सामन सहेजकर रखो जिससे दूसरों को भी उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखने की आकांक्षा हो । १२ जो सिखाओ उस पर खुद भी चलो । १३ श्रेष्ठ दिखने का नहीं, श्रेष्ठ बनने का प्रयास करें । १४ दूसरों को सिखाने की भावना रखने वाला व्यक्ति स्वयं कुछ नहीं सीख सकता, दूसरों पर रोब जमाने वाला अधिकारलोलुप कभी भी अच्छा शासक नहीं बन सकता । १५ आत्मसुधार से प्रसन्नता आती है । १६ जो दुनियां को हिलाना चाहता है, उसे पहले अपने को ही गतिशील बनाना चाहिए । १३० योगक्षेम-मूत्र Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख पक्षी दाना देखता है फन्दा नहीं १ लोभी धन देखता है, संकट नहीं । बिल्ली दूध देखती है, लाठी की प्रहार नहीं। २ गरीबी (निर्धनता) कुछ वस्तुएं चाहती है, विलास बहुत-सी वस्तुएं चाहता है, परन्तु लोभ समस्त वस्तुएं चाहता है। ३ लोभी आदमी रेगिस्तान की बंजर रेतीली जमीन की तरह है जो तृष्णा से तमाम बरसात और ओस को सोख तो लेती है मगर दूसरों के लाभ के लिए कोई फलद्रुम, जड़ीबूटी या पौधा नहीं उगाती। ४ लोभ जन्म देता है-पाचन-तंत्र की मंदता एवं हृदय-दुर्बलता को। ५ शक्ति, लोभ एवं करता का परस्पर गठबन्धन है। ६ क्या हम उन मछलियों की भांति नहीं हैं जो कि मछए के जाल में फंस गई हैं और तड़प रहीं हैं। ७ छोड़ देना आसान है, पकड़ रखना भी आसान है, पकड़े हुए को छोड़ देना अति कठिन है। ८ लोभ के कारण ही क्रूरता का भाव उभरता है। ६ महत्त्वाकांक्षी चित्त कभी भी आनन्दित नहीं हो सकता क्योंकि जो भी मिल जाएगा उससे वह सन्तुष्ट नहीं होगा और जो नहीं मिलेगा, उसके लिए पीड़ित हो जाएगा। १० जो सुख कल को दुःखदायी सिद्ध हो वह सुख दरअसल सुख है ही नहीं बल्कि दुःख का प्रारम्भ ही है। ११ यह बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि दुःख का कारण अज्ञान है और कुछ नहीं। १२ अनार्य मनुष्य जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग में मूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता। १३ हर विषयासक्ति चेतना की धारा को पतित करती है। १४ हमारी कुंजर जैसी आत्मा कीड़ी जैसे कर्मों में उलझकर भटक जाती है। मूर्ख पक्षी दाना देखता है फन्दा नहीं १३१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमच्चइ १ भोगों से आत्मा पर कर्मों का लेप होता है। अभोगी निर्लेप रहता है । भोगी संसार में परिभ्रमण करता है और अभोगी (भोगों का त्यागी) मुक्त हो जाता है। २ ऊपर से सुन्दर लगने वाले विषय अन्त में दुःख देते हैं। ३ विष तो खाने पर मारता है परन्तु विषय स्मरण से भी मार डालते हैं। ४ स्त्रियां अनादर करनेवाली जेल हैं, बन्धुजन बन्धन हैं और विषय विष हैं। मनुष्य का यह कैसा मोह है कि जो शत्रु हैं, उन्हीं से वह मित्रता की आशा करता है। ५ विषय-भोग सांप के फन की तरह शीघ्र ही प्राणों का अप हरण करने वाले हैं। ६ जैसे किंपाक वृक्ष के फलों का परिणाम सुन्दर नहीं है, वैसे ही भुक्त भोगों का भी परिणाम सुन्दर नहीं होता। ७ जब तक हृदय में मूढ़ता है तभी तक ये विषय सुख देते हैं । ८ अभोग का अर्थ केवल छोड़ना नहीं है अपितु अनासक्त भाव का विकास ही अभोग है। ६ कर्म से कर्म के जाल को नहीं तोड़ा जा सकता, अकर्म से कर्म के जाल को तोड़ा जा सकता है। १० वस्तु का उपयोग करें, उपभोग नहीं । उपयोग अनासक्ति की अवस्था एवं उपभोग आसक्ति की अवस्था। ११ विरक्त व्यक्ति संसार-बंधन से छूट जाता है, आसक्त का संसार अनन्त होता चला जाता है । १२ उलझा हआ अज्ञानी राग और स्नेह में रमण कर रहा है। उसे पाप रूप फल भोगना होता है। १३२ योगक्षेम-सूत्र Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ संसार चक्र का अन्त कौन करता है-१. जिसने विकारों पर विजय पाई है। २. छोटी-छोटी भूलों पर भी जो बारीकी से दष्टि रखता है, ३. मन-वाणी-कर्म में एकरूपता है। ४. जिसकी इन्द्रियां विपथगामिनी नहीं है। ५. जिसने कषायों पर विजय पाई है। ६. ब्रह्मचर्य की प्रभा से जो मंडित है। ७. जिसका मन समाधि में लीन है। १४ जितना-जितना पुद्गलाकर्षण, उतना-उतना पाप की ओर प्रस्थान करना है। भागी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ १३३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया भीतरी पाप है १ चित्त में छुपाने की, वस्तुस्थिति को बढ़ाकर एवं घटाकर प्रस्तुत करना, अपने प्रति यथार्थ दष्किोण से न देखनामाया है। २ मायावी के भीतर हमेंशा शल्य रहता है। मायावी देवता बनकर भी अपनी इच्छानुसार कर्म नहीं कर सकता। ३ मायावी व्यक्ति बाहर से उलग की पांख से हल्का दिखायी देता है एवं भीतर से पर्वत से भी भारी होता है। ४ माया अहं या लोभ की रक्षा के लिए की जाती है । ५ पूर्वजन्म की माया से स्वतंत्रता, सम्मान की प्राप्ति नहीं होती। ६ मायावी व्यक्ति अनन्त गर्भो को धारण करता है, गर्भ से निकलते समय अनन्त यातनायें भुगतनी पड़ती हैं। ७ जहां जितना लुकाव-छिपाव, अलगाव होगा, वहां उतनी ही माया पैदा होगी। ८ माया का अर्थ है-अनेक रूप होना। है कुटिल मन वाला मुक्त नहीं हो सकता । १० सरलता के लिए चतुर मन न हो, चतुर मन बौद्धिक, दार्शनिक बन सकता है, आत्मस्थ नहीं।। ११ माया आगामी जीवन की सरलता को भी विकृत बना देती १२ ध्यान-साधक माया से बच सकता है। १३ वस्तु को छुपाना इतना भयंकर नहीं जितना अपने आपको छुपाना है। १४ जब व्यक्ति का मन नीचे गिरने लग जाता है तो वह हल्के से हल्का काम करने लग जाता है । १५ जिसकी एक दिशा नहीं होती वह न जीता है न मरता है। १६ जहां माया होती है वहां क्रोध, मान और लोभ भी उपस्थित रहते हैं। माया में क्रोध, मद और लोभ से उत्पन्न सभी दोष रहते हैं। योगक्षेम-सूत्र Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयु घट तृष्णा बढ़ १ आयु पल-पल क्षीण हो रही है लेकिन पापबुद्धि बढ़ रही है - यही विचित्रता है । २ साधना की पहली शर्त है— आशा का परित्याग, आकांक्षा, तृष्णा से मुक्त होना । ३ जब आदमी इच्छाओं का दास बन जाता है, प्रत्येक इच्छा की पूर्ति में रत रहता है, इन्द्रियों के पीछे-पीछे चलता है वह अपने अमूल्य जीवन को नीरस बना डालता है, रस निचुड़े हुए ईख के छिलके की भांति उसका जीवन खोखला बन जाता है । तब केवल मक्खियां भिनभिनाती हैं । ४ कामना सागर की भांति अतृप्त है, ज्यों-ज्यों हम उसकी आवश्यकता पूरी करते हैं त्यों-त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है। ५ तृष्णा मनुष्य को आंखों वाला अन्धा बना देती है, मानों काली रात ही है । ६ मन प्राप्त के प्रति आकर्षण अनुभव नहीं करता, अप्राप्त की और जाता है । ७ आपत्ति मानव बनाती है और दौलत दानव । ८ मनुष्य जब प्रार्थना करता है तो चाहता है कुछ चमत्कार हो जाए । & निर्धन वह नहीं जिसके पास उपयोग के साधन कम हैं वरन् वह है जिसकी तृष्णा अधिक है । १० यौवन में संयमी है, वही वास्तव में संयमी है । क्योंकि वृद्धावस्था में धातुओं के क्षीण होने पर किसे शांति नहीं हो जाती ? ११ गरीब वही होता है, जिसकी तृष्णा विशाल है । मन में सन्तोष होने पर कौन धनवान है और कौन गरीब ? आयु घट तृष्णा बढ़ १३५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आज के मनुष्य को पद, यश और स्वार्थ की तीव्र भूख लग गई है, जो बहुत कुछ बटोर लेने के बाद भी शान्त नहीं होती । १३ यदि किसी फकीर के पास एक रोटी है तो वह आधी रोटी खुद खाता है, आधी किसी गरीब को दे देता है । लेकिन अगर किसी बादशाह के पास एक मुल्क होता है तो वह एक और मुल्क चाहता है । १४ जैसे-जैसे मनुष्य भोगों को भोगता है, उसकी भोग तृष्णा बढ़ती जाती है । चिरकाल तक भोगों को भोग लेने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती । बिना तृप्ति के चित्त सदा व्याकुल एवं उत्कंठित रहता है । १३६ योगक्षेम-सूत्र Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व को मांजने-संवारने का उपाय-ध्यान है १ ध्यान का मतलब-जागरण है। ध्यान का अर्थ है-निर्मल, शान्त, मौन मन की तैयारी। २ समता की अनुभूति का नाम ध्यान है। ३ ध्यान करने से दिशा व दृष्टि बदलनी चाहिये । ४ ध्यान परम समर्पण है। ५ ध्यान का सार विनम्रता है। करुणा ध्यान का फल है। ध्यान लग जाय और करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है। ६ ध्यान न केवल आध्यात्मिक उन्नति का साधन है बल्कि वैयक्तिक स्तर पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन भी है। अपने दैनिक जीवन में इसके समावेश करने से हम न केवल अपने आपको सुव्यवस्थित कर सकते हैं बल्कि औरों के साथ हमारे मूलभूत संबंधों पर भी इसका गहन एवं सुन्दर प्रभाव पड़ता है। इसके नियमित अभ्यास से व्यक्ति दिन-प्रतिदिन सुधरते व परिष्कृत होते हैं। ७ जो कुछ हो रहा है, उसे स्वीकार करना ध्यान है । ८ ध्यान के द्वारा वृत्तियों का परिवर्तन, मस्तिष्क का नियमन, नाड़ी-संस्थान और ग्रंथि-संस्थान पर नियंत्रण होता है। ६ ध्यान की निष्पत्ति है-सच्चाई का जीवन जीना । स्वभाव और व्यवहार का परिवर्तन । १० ध्यान की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है-सत्य की दिशा में प्रस्थान, सत्य के निकट जीना। ११ ध्यान और धर्म की निष्पत्ति होती है-पदार्थ और चेतना के बोच की रेखा स्पष्ट ज्ञात रहे । व्यक्तित्व को मांजने-संवारने का उपाय-ध्यान है १३७ १३७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ध्यान शक्तिशाली टॉनिक है। यह मन तथा स्नायुओं को शक्ति प्रदान करता है । पवित्र स्पन्दन शरीर के सारे जीव कोषों में प्रवेश करते तथा रोग को दूर करते हैं। १३ ध्यान वायुयान है जो साधक को अनंत आनंद और अक्षय शान्ति के साम्राज्य में उड़ा ले जाता है। १४ जैसे-जैसे चेतना का ऊर्ध्वगमन होता है, मनुष्य का व्यक्तित्व खिल उठता है । चेतना के विकास के लिए स्वस्थ और शान्त मन की आवश्यकता है। १५ ध्यान हमारे जीवन की स्थिति है, उसमें हम लंबे समय तक ठहर सकते हैं, शांति हमारा अधिकार है, उसे हम किसी भी समय आह्वान कर सकते हैं । १६ जैसे क्षुधा को नष्ट करने के लिए अन्न होता है तथा जिस तरह प्यास को नष्ट करने के लिए जल होता है वैसे ही विषयों की भूख तथा प्यास को नष्ट करने के लिए ध्यान १७ जैसे मनुष्य के रोगों की चिकित्सा करने में वैद्य कुशल होता है वैसे ही कषायरूपी रोगों की चिकित्सा करने में ध्यान कुशल होता है। १८ जैसे श्वापदों का भय होने पर रक्षक का और संकटों में मित्र का महत्त्व होता है वैसे ही संक्लेश परिणाम-रूप व्यसनों के समय ध्यान मित्र के समान है। १६ जैसे हवा को रोकने के लिए गर्भगृह होता है वैसे ही कषाय रूपी हवा को रोकने के लिए ध्यान है और जैसे गर्मी के लिए छाया होती है वैसे ही कषायरूपी गर्मी को नष्ट करने के लिए ध्यान है। २० ध्यानकर्ताओं के दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन होता है। उनमें भौतिक और सामाजिक अपर्याप्तता, दबाव एवं कठोरता युक्त व्यवहार में कमी तथा आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। २१ ध्यान के द्वारा शरीर के अन्दर शक्ति का संरक्षण और __ भण्डारण होने लगता है। और यह अतिरिक्त ऊर्जा शरीर योगक्षेम-सूत्र १३८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मन के विभिन्न कार्यों व्यवहारों को अच्छे ढंग से संपादित करने के कार्य में प्रयुक्त होने लगती है। २२ ध्यान का अभ्यास करने वाले व्यक्ति तनाव जैसी मानसिक बीमारियों से जल्दी ही छुटकारा पा लेते हैं। २३ ध्यान करने वाले लोगों में शरीर और मस्तिष्क के बीच अच्छा समन्वय, सतर्कता में वृद्धि, मति मन्दता में कमी और प्रत्यक्ष ज्ञान, निष्पादन क्षमता एवं रिएक्शन टाइम में वृद्धि असामान्य रूप से होती है। व्यक्तित्व को मांजने-संवारने का उपाय-ध्यान है Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ तोड़ो मत, जोड़ो १ घृणा तोड़ती है, प्रेम जोड़ता है । २ संवाद का अर्थ है— जुड़ जाना । विवाद का अर्थ है - टूट जाना | संवाद करना सीखें । ३ आशा टूट जाने जैसा भयंकर दुःख इस दुनियां में और कोई नहीं अतः आशा को जीवन से जोड़े रखो । ४ ईमानदारी और स्पष्टवादिता से आप मुसीबत में पड़ जाएंगे, तो भी किसी तरह ईमानदार और स्पष्टवादी बनिए । ५ वर्षों की मेहनत से बनाया महल रातोंरात मटियामेट हो सकता है, तो भी किसी तरह निर्माण करते रहिए । ६ दुनियां को अपना सर्वस्व दे दीजिए, पर दुनियां आपके दांत तोड़ देगी, तो भी अपना सर्वस्व दिए जाइये । ७ आप सफल हो जाएं तो आपके बहुत से कपटी मित्र और सच्चे दुश्मन निकल आएंगे, तो भी किसी तरह सफल होइए । ८ व्यक्तित्व रुपान्तरण का एक उपाय है - बाहरी चेतना को अन्तर्चेतना से जोड़ देना । & तोड़ना ही है तो तोड़ो जड़ताओं को, सामाजिक और आर्थिक दासताओं को, मन की मूर्च्छा को । १० नई प्रतिष्ठा का अर्जन न कर सको तो मत करो किन्तु अर्जित प्रतिष्ठा रुठकर विदा हो चले, ऐसा कभी कुछ भी मत करो । ११ आप एक व्यक्ति का समय खरीद सकते हैं, आप मनुष्य की शारीरिक उपस्थिति क्रय कर सकते हैं, यहां तक कि आप एक कुशल व्यक्ति की प्रति घण्टा या प्रतिदिन के हिसाब से शारीरिक गतिविधियां खरीद सकते हैं । किन्तु आप उसका उत्साह नहीं खरीद सकते, आप उसकी लग्न एवं स्वामिभक्ति नहीं खरीद सकते हैं, आप उसके दिल, दिमाग और आत्मा की निष्ठा नहीं खरीद सकते हैं । १२ जब तक जीना तब तक सीना । १३ लड़ाई का अर्थ होता है—अकड़न, जिद्द और गर्म मिजाज । एक शब्द मन के टुकड़े कर देता है और एक शब्द गिरते मन थाम लेता है । योगक्षेम-सूत्र Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीर्घ जीवन की कुंजी १ दीर्घजीवन की कुंजी सादगी और शान्ति के अतिरिक्त और कहीं नहीं है। २ दीर्घजीवन का प्रथम आधार-मानसिक शान्ति, स्थिरता और उत्साह है। ३ बहुत जीने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना जरूरी है। ४ अधिक सक्रियता, दौड़धूप, उत्तेजना और गर्मी शरीर को संतप्त करके उसकी जीवनी शक्ति के भण्डार को बेतरह खर्च कर देती है। ५ शान्त, सरल, सन्तुष्ट और प्रसन्न जीवन जीने से निरर्थक उत्तेजना से बचा जा सकता है और जीवनी शक्ति के क्षण को बचाकर लम्बा जीवन जिया जा सकता है। ६ थकान धीरे-धीरे पैदा हो-दीर्घजीवन का प्रधान सूत्र यही ७ हल्का-फुल्का, सीधा-सरल जीवन अपनाकर लंबी आयु प्राप्त की जा सकती है। ८ कितने ही सिद्ध पुरुष दीर्घजीवी पाये जाते हैं, इसका एक कारण है उनका शीत प्रदेश में निवास । ६ स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए नियमित और निर्धारित दिन चर्या, मनःसंस्थान में शांति और संतुलन, अनावश्यक श्रम संताप से बचत आवश्यक है। १० कठिन श्रम तथा शुद्ध व पौष्टिक भोजन दीर्घजीवन के बहुत सहायक हैं। ११ दीर्घजीवन के दो प्रमुख आधार यह भी माने जाते हैं कि श्वास धीमे लिये जांय तथा शीत वातावरण में रहा जाय । दीर्घ जीवन की कुंजी १४१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उत्तेजित आहार और उद्विग्न चिन्तन स्नायु संस्थान को संतप्त करके मनुष्य को दुर्बल बनाता है और पूरी आयु भोगने से वंचित रखता है। १३ हंसमुख स्वभाव दीर्घ आयु का सर्वोत्तम साधन है। १४ जिन्हें लम्बी जिन्दगी जीनी हो तो बिना कड़ी भूख लगे कुछ भी न खाने की आदत डालें। १५ जो बुरे विचारों में घुले रहते हैं उनके ग्रंथिसमूह को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, फलतः उनकी आयु कम हो जाती है। १६ प्रसन्नचित्त लोग चिरकाल तक जीते हैं। १७ दीर्घायु के लिए खीज और उत्तेजना को अपने आप पर हावी न होने देना चाहिए, शोरगुल, झगड़ों, वाद विवाद और नींद की गोलियों से बचना चाहिए। १८ परस्पर मुस्कान, प्रशंसा, नेक कामना, दया, स्वागत- सेहत के महत्त्वपूर्ण कारक हैं । जो कोई बड़बड़ाता है, गुस्सा करता है वह समय से पहले बूढ़ा हो जाता है। १४२ योगक्षेम-सूत्र Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किससे क्या सीखें १ अग्नि तेजस्वी है। तेज और प्रकाश उसका गुण और धर्म है। व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रकाशत्व और तेजस्विता अग्नि से ग्रहण करे। २ पृथ्वी ने सहने और चुप रहने को कहा, सूर्य ने तपने का वरदान दिया एवं फलों ने कांटों में हंसना सिखाया। ३ सूर्य और चन्द्र से क्रमश: तेजस्विता और शीतलता को ग्रहण करें साथ ही कर्तव्य में नियमितता का पाठ सीखें । ४ सागर और सरिता से गंभीरता और जीवन का कण-कण लुटा देने का स्वभाव ग्रहण करें। ५ इन्द्रध्वज और सेना से प्रेरणा और पुरुषार्थ पायें और नये मेघ से क्षणिक आभा और परहित में सम्पत्ति व्यय करने की प्रेरणा पायें। ६ कार्य सिद्धि के लिए-मिन्नी री चाल जावणो, कुत्ते री चाल आवणो। ७ शरीर इसलिए मिला है कि उससे आदर्शवादी कार्य कराए जाएं। ८ मन इसलिए मिला है कि जीवनोद्देश्य को पूरा करने की योजनाएं बनाएं और अवरोधों की गुत्थियां सुलझायें। ६ परिवार इसलिए मिला है कि सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को सुविकसित करने, अपने आन्तरिक परिपुष्टता के लिए इस प्रयोगशाला में अभ्यास करें। १. 'वृक्षन की मत लें'-वृक्ष तपता है और हमको शीतलता देता ११ अहिंसा-महात्मा गांधी। शान्ति सीखें-नेहरू से। क्षमा सीखें-महावीर से । अणव्रत-जीने की राह-आचार्य तुलसी से। न्याय-राजा विक्रम का। वीरता-अभिमन्यू की। संगीतकिससे क्या सीमें १४३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानसेन । दानवीरता-कर्ण की। भ्रातृप्रेम-भरत । कोमलतालता। कर्त्तव्यपालन-चींटी। परोपकार-पेड़, नदी। दयाअशोक । ब्रह्मचर्य-भीष्म का। गुरुभक्ति में एकलव्य । पितृभक्ति-सुभाष । सादगी-विनोबा। बलिदान-ईसा। कवितामैथिलीशरण गुप्त । तीरविद्या-अर्जुन। स्वाभिमान-महाराणा प्रताप । स्वामिभक्ति-भामाशाह। दृढ़ता-ध्रुव । निश्छलताबालक । सत्य-हरिश्चंद्र । आज्ञाकारिता-राम । नारीत्व-सीता। शरणागतरक्षा-हमीर । सच्ची भक्ति-प्रह्लाद । १२ बाल्यावस्था से निश्चिन्तता, यौवन से कार्य-परायणता और वृद्धत्व से शान्तवाहिता सीखो। योगक्षेम-सूत्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहो भीतर में, जीओ द्र १ युगीन परिस्थितियों का समाधान है—रहो भीतर में, जीओ व्यवहार में । २ कभी अपने आपको वैसा प्रकट करने का प्रयत्न न करें जैसे कि हम वास्तव में नहीं हैं । ३ हम आनन्द का अनुभव करने की अपेक्षा दूसरों को दिखाने का प्रयास अधिक करते हैं कि हम आनन्द में हैं । व्यवहार ४ हम 'पर' में ज्यादा उलझे रहते हैं, यहां तक कि 'स्व' को भी पर में खोजते हैं। में ५ मनुष्य के विकास और आध्यात्मिकता का प्रमाण उसके व्यावहारिक जीवन से ही मिल सकता है । ६ सम्बन्धों की इस दुनियां में कोई किसी का नहीं है । यदि कोई किसी का होता तो कोई किसी को छोड़कर नहीं जाता । ७ अज्ञानी के लिए यह सारा भरा हुआ है । ज्ञानी के समस्याओं से शून्य है । संसार में हर किसी को खुश रखने के लिए ही जो जीता है, वह बेवकूफ बनकर रहता है। संसार की कोई निर्धारित पालिसी ही नहीं है, जिसका अनुगमन किया जा सके ।। संसार दुःखमय है, समस्याओं से लिए यह संसार आनन्दमय है, जब मन विषयों की तरफ जाता है, वह सांसारिक जीवन है । जब मन अन्दर की तरफ जाता है, वह आध्यात्मिक जीवन है । १० मनुष्य के जीवन का धर्म एक है, दो नहीं हो सकता । और वह धर्म कौन-सा ? अन्दर जाना सीखो और अन्दर रहना सीखो, अन्दर और बाहर दोनों को मिलाना सीखो । जीओ भीतर में, रहो व्यवहार मैं १४५ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जो व्यक्ति अपने आपको देखने में जागरूक नहीं होगा, वह दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर सकता। १२ पदार्थ निरपेक्ष तृप्ति का आनन्द वही ले सकता है जो भीतर में जीना जानता है। १३ मनुष्य का व्यवहार ही वह दर्पण है, जिसमें उसका व्यक्तित्व भलीभांति देखा जा सकता है। १४ आदमी जब अन्दर से खाली होता है तो बाहरी वैभव उसके खालीपन को भर नहीं पाता। योगक्षेम-सूत्र Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आप से लड़ो, दूसरों से लड़ने से क्या ? १ परिस्थिति खराब नहीं है, हमारा मन खराब है । हमारे मन को अनुशासन की ठीक प्रकार से शिक्षा नहीं मिली है । इस विकराल और भयंकर मन के साथ युद्ध करें । खराब परिस्थितियों के विरुद्ध शिकायत न करें । प्रथम अपने मन को शिक्षित करें । २ वही लड़ाई सफल होती है जिसमें एक तरफ आग दूसरी तरफ पानी, एक तरफ आक्रोश एवं दूसरी तरफ मौन हो । ३ दूसरों को पराजित करने का एक ही उपाय है-अपने आपको शान्त रखना । ४ युद्ध वस्तुतः व्यक्ति के अन्दर होता है । ५ सबसे कठिन है -- अपने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखना । ६ ज्ञाता-द्रष्टाभाव आत्मयुद्ध का एक तरीका है । ७ बुराई से बचाव करना अपने आप से लड़ना है । ८ युद्ध का क्षण भाग्य से मिलता है, वह युद्ध आत्मयुद्ध है । जिसने अपने आपको वश में कर लिया उसकी जीत को कोई भी हार में नहीं बदल सकता । १० आत्मा के हित और अहित के बीज स्वयं में हैं, दूसरे केवल निमित्त हैं । ११ दुनियां गलती करती है, गलतियों के बारे में सुनती है लेकिन सबक कभी सीखती नहीं । हर आदमी जिन्दगी के अन्तिम मोड़ पर कुछ सयाना हो जाया करता है, लेकिन यह समझ - दारी दूसरों की ठोकरों से नहीं, बल्कि उसके अपने जख्मों से आया करती है । १२ आन्तरिक धरातल पर युद्ध आत्मभूमि तथा उसका साधन जागरूकता है । अपने आपसे लड़ो, दूसरों से लड़ने से क्या ? १४७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जो दस लाख शक्तिशाली योद्धाओं को रणभूमि में जीतता है, उसकी अपेक्षा अपनी आत्मा को जीतनेवाला अधिक पराक्रमी होता है। १४ अपनी परिक्रमा करने पर वह सब कुछ मिल जाता है, जिसके मिल जाने पर फिर किसी वस्तु के मिलने की आकांक्षा शेष नहीं रहती। १५ औरों को मनवाने की बात छोड़ दो, स्वयं को मनाओ। १६ यदि तूं मस्तिष्क को शान्त रख सकता है तो तूं विश्व पर विजयी होगा। १४८ योगक्षम-सूत्र Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के पुजारी पर परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता १ जिसका मन सत्यशीलता में निमग्न है, वह व्यक्ति तपस्वी से भी महान और दानी से भी श्रेष्ठ है। २ तर्क का नहीं आत्मा का सत्य पूर्ण सत्य है। ३ सत्य से आकृष्ट होकर देवता भी सत्यवादी की सेवा में सदा तत्पर रहते हैं। ४ सच्चाई क्या है ? जिससे दूसरों को कुछ भी हानि न पहुंचे, उस बात का बोलना ही सच्चाई है। ५ उस झूठ में भी सत्यता की रंगत है जिसके परिणाम में नियमतः भलाई ही होती है। ६ सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह कि तुम्हें याद नहीं रखना पड़ता कि तुमने किससे क्या कहा था। ७ जिस बात को तुम्हारा मन जानता है कि वह झूठ है उसे कभी मत बोलो, क्योंकि झूठ बोलने से स्वयं तुम्हारी अन्तरात्मा ही तुम्हें जलायेगी। ८ जो लोग इस संसार में अपने स्वार्थ के लिए या दूसरे के लिए अथवा विनोद या मजाक में भी असत्य नहीं बोलते; वे सत्यवादी स्वर्गगामी होते हैं। ह सत्य में हजार हाथियों के समान बल होता है, इसलिए अन्तिम विजय उसी की होती है, चाहे संघर्ष कितना ही लंबा क्यों न चले। १० निकम्मा शब्द भी सत्य का भंग करता है। यही कारण है कि मौन से ही सत्य का पालन आसान बन सकता है । ११ निर्मल अन्तःकरण को जिस समय जो प्रतीत हो, वही सत्य है । उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है । सत्य के पुजारी पर परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता १४६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सत्यवादी को अग्नि नहीं जला पाती, पानी डुबोने में असमर्थ होता है । सत्य से बली पुरुष को बड़े वेग से पर्वत पर से गिरनेवाली नदी भी नहीं बहा पाती। १३ सत्यवादी पुरुष लोगों के लिए माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूजनीय और निकटतम बन्धु के समान प्रिय होता है। १४ भावों की शुद्धता होने पर आसुरी शक्तियां भी अपना प्रभाव नहीं दिखा सकतीं। १५० योगक्षेम-सूत्र Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मां बराबर सौ गुरु १ ईश्वर सर्वत्र नहीं रह सकता था इसलिए उसने मां बनाई । २ माता बच्चे के भावात्मक जीवन की तारिका है । ३ मातृत्व महान् गौरव का पद है, इस पद में कहीं अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला । माता का काम जीवनदान देना है । ४ मां के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे वह भूमण्डल का स्वामी ही क्यों न हो । ५ सिर पर मां का साया बने रहने तक बचपन छूटना नहीं । ६ 'मां' शब्द में कौन-सी ममता और स्नेह का कैसा अमृत भरा है जो निरन्तर दान किये जाने पर भी रिक्त नहीं होता । ७ माता की कोमल गोद ही शान्ति का निकेतन है । ८ माता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकती है उतना दूसरा कौन कर सकता है ? ६ माता सबसे महत्त्वपूर्ण जीवनदायी सूत्र है, जिससे शक्ति, विवेक और नैतिक सम्पदा प्राप्त करता है । १० मां की मार में प्यार छुपा रहता है, गुरुओं की खार में निहित रहता है । ११ माता आप चाहे पुत्र को कितनी ताड़ना दे, वह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे । १२ ' माता का वात्सल्य धन्य है, धन्य-धन्य उसकी उदारता । सब कुछ हो पर मां न रहे तो जीवन में सारी असारता ॥' १३ "जिस घर के बच्चे संस्कारी । मनुष्य सुधार वह घर मात-पिता का आभारी ॥ " १४ मातृत्व ही नारी की सार्थकता है, यही उसके जीवन की चरम उपलब्धि है और है उसके जीवन- प्रदीप को प्रज्वलित करने वाला स्नेह | १५ जो नारी अपने पति तथा पुत्रों को सदैव सानन्द रखती है, उसके समक्ष संसार की महारानी का वैभव भी तुच्छ है । एक मां बराबर सौ गुरु १५१ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्कोण १ भगवान् के भजन से चार बातों की प्राप्ति-१. भगवान् के ऐश्वर्य का अनुभव । २. तात्कालिक अर्थात् दृष्ट दुःख का अभाव । ३. रजोगुण तमोगुण का अभाव और ४. आनन्द की प्राप्ति अर्थात् जन्म-मरण का अभाव। २ चार बातें बाहर न करें-१. धन का अभाव । २. मन की व्यथा। ३. घर का अनाचार । ४. अपमान भरे शब्द । ३ दैनिक जीवन के चार नियम-१. सोते समय दिमाग पत्ते से भी हल्का रहे। २. प्रातः जल्दी उठना। ३. सात्विक भोजन करना । ४. योगासनों का अभ्यास । ४ सौभाग्य-लक्ष्मी के निवास में चार आधार अपेक्षित-१. परिश्रम में रस । २. दूरदर्शी निर्धारण । ३. धैर्य और साहस । ४. उदार सहकार। ५ चार बातों से मनुष्य दूसरों के विद्यमान गुणों को अस्वीकार करता है--१. क्रोध से । २. दूसरों की पूजा-प्रतिष्ठा सहन न करने से । ३. कृतज्ञता का अभाव होने से। ४. मिथ्या आग्रह से। ६ सज्जन पुरुषों के घर में इन चार बातों का कभी अभाव नहीं होता—१. तृण । २. भूमि। ३. जल। ४. मधुरवाणी। ७ जोवन में इन चार बातों को याद रखें-१. खाने को आधा करो। २. पानी को दूना। ३. कसरत को तिगुना । ४ हंसना चौगुना करो। ८ शरीर-शुद्धि करने वाले मुख्य चार अवयव हैं-१. फेफड़े, २. त्वचा, ३. गुर्द, ४. आंते । ६ स्वास्थ्य के सामान्य चार नियम हैं-१. भोजन के बाद सौ कदम शान्त भाव से चलना । २. बाईं करवट सोना । ३. ब्रह्म योगक्षेम-सूत्र १५२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेला में शय्या त्याग करना। ४. इन्द्रियों को अत्यधिक नहीं थकाना। १० आदत डालने के चार नियम-१. दृढ़ संकल्प करना। २. कार्यशीलता-वह कार्य करने लग जाना। ३. संलग्नताउस कार्य में लीन हो जाना। ४. अभ्यास-उसको बार-बार करना। ११ लोकप्रियता के चार लक्षण हैं-१. हंसमुख चेहरा । २. उदार हाथ । ३. मीठी बोली। ४. स्नेही हृदय । १२ कम बोलने के चार लाभ-१. झूठ छूटता है। २. परनिन्दा छुटती है। ३. व्यर्थ की चर्चा छटती है। ४. वाणी में शक्ति आती है। चतुष्कोण १५३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहराई विजय है, उथलाई हार है १ महानता अन्तस्तल में छिपी रहती है, क्षुद्रता सतह पर तैरती २ जितनी बड़ी चीज खोजनी हो उतने गहरे उतरना पड़ता ३ जीवन की सारी सम्पदा अन्तरतम स्थानों में छिपी होती ४ सदा स्वयं के भीतर गहरे से गहरे होने का प्रयास करते रहो। भीतर इतनी गहराई हो कि कोई तुम्हारी थाह न ले सके। अथाह जिसकी गहराई है, अगोचर उसकी ऊंचाई हो जाती है। ५ जहाज वहां नहीं रह सकते जहां पानी बहुत उथला हो । ६ किनारे पर जो बैठे हैं, वे पागल ही हैं। ७ जितने गहरे पानी में जाओ, उतने ही ज्यादा रत्न मिलते ८ गहरे उतरकर तुम अपनी खोज नहीं करते, इसीलिए तो उसे नहीं पा सकते। ६ जहां गहराई नहीं होती वहां तरने की बात नहीं होती। १० अपने आपको खरा रखो। अन्तर को टटोलो। देखो कि कहीं उसमें खोट तो छिपा हुआ नहीं है। चिनगारी छोटी होने पर भी अवसर पाकर प्रचण्ड ज्वालमान बन सकती है। अपनी ही कमियां चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को गहित बनाती है। प्रकाश की ओर पीठ करके चलने वाला मात्र अपनी काली परछाईं ही देखता है । आदर्शों से विमुख होकर कोई व्यक्ति न तो गरिमा अजित करता है और न ओछे उपायों से प्राप्त की गई ख्याति को बनाये रह सकता है । छद्म में देर तक पैर जमाये रहने की सामर्थ्य नहीं है। योगक्षेम-सूत्रः Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मनुष्य वही है जो सहसा किसी बात को सुनकर निर्णय न देने लगे। ११ उतावली, आवेश, हड़बड़ाहट, चिन्ता एवं भावुकता के उतार चढ़ाव मनुष्य को अत्यधिक थका देते हैं। १२ जितनी बड़ी सांसारिक या आध्यात्मिक उपलब्धियां होती हैं, गंभीर काम होते हैं वे अंधेरे में होते हैं। इसलिए साधक को कभी-कभी गहन अंधकार में रहने का अभ्यास करना चाहिये, उस लीनता में डुबना चाहिये ।। १३ जीवन की पहचान बड़े-बड़े कृत्यों में नहीं, छोटे-छोटे कृत्यों में छिपी है। गहराई विजय है, उथलाई हार है Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृत्व का वरदान १ शिशु, मातृत्व का वरदान है। २ बच्चों की विशेषता है-सुंदरता । ३ बच्चे की हंसी के आगे तो दुनिया की हर सुन्दरता फीकी है। ४ अच्छे बच्चों के निर्माण का सर्वश्रेष्ठ उपाय है-उन्हें प्रसन्न रखना। ५ बालक वर्तमानजीवी होता है। ६ इस बाल-जीवन में कितनी निर्मल, कितनी हृदयस्पर्शी भाव नाएं निहित हैं। ७ इस मानव लोक का सबसे अधिक सुन्दर, प्रिय और आकर्षक बिन्दु है- 'बालक ।' उसका निर्विकार सौन्दर्य अनायास ही मन को मुग्ध कर लेता है। ८ स्वर्ग बालक की निर्दोष मस्ती में है। ६ भगवान् जीवन का सारा आनन्द शैशव में ही क्यों भर देता १० बालक शीघ्र अनुकरण करता है, उसके सामने कभी पाप मत करो। ११ जीवन के प्रारंभिक क्षणों में जो अधिक चंचल, चपल रहते हैं वो आगे जाकर बड़े अच्छे बनते हैं। १२ बच्चे बहुत जिज्ञासु होते हैं, उन्हें रोकें-टोके नहीं अपितु __ समाधान दें। १३ बालक वे चमकते हुए तारे हैं जो ईश्वर के हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़े हैं। १४ बच्चों को केवल पढ़ाई में ही न डालें, उन्हें सद्संस्कार भी दें। १५ बालक आंगन की शोभा है । १६ प्रशंसा, हर्ष और प्रोत्साहन से परिपूर्ण बचपन ही जीवन भर के दृढ़, महान्, निर्भीक विचार और अच्छे स्वास्थ्य की आधारशिला बनते हैं। १७ बाल्यावस्था एक पवित्र और निर्दोष अवस्था है। यह प्रकृति की अनमोल देन है, सुन्दरतम कृति है। योगक्षेम-सूत्र ५६ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक! १ साधक को संसार में उस मछली की तरह रहना चाहिए जिसका शरीर कीचड़ में रहकर भी निलिप्त रहता है। साबुन से धुले बर्तन की तरह चमकता है। यही निर्लेप भाव आत्म-साधना की रीढ़ है। २ साधक ! समस्त अनुकूल और प्रतिकूल द्वन्द्वों में सतत समतावान रहे, तटस्थ रहे। बाहर से होने वाले आघातों के प्रति सतत जागरूक रहना और अपने मन को किंचिदपि आंदोलित नहीं करना, साधक के लिए नितान्त अपेक्षित ३ साधक को सबसे प्रथम जान लेना चाहिये—उसे कुछ करना पड़ेगा, उसे कुछ होना पड़ेगा, उसे अपने जीवन-विधि में कोई परिवर्तन, अपने जीने के ढंग में कोई भेद, अपने होने की व्यवस्था में कोई क्रांति करनी पड़ेगी तो कुछ हो सकता है, अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता है। ४ साधक ! आशा से भरकर जीवन को देखे ! धैर्य से अनन्त धैर्य से जीवन को देखे । प्रतीक्षा, अनन्त प्रतीक्षा से जीवन को देखे ! ५ साधक, कषायोत्पादक वातावरण को दूर से ही छोड़ दे । ६ साधक के लिए स्पष्ट रूप से आशावादी दृष्टि चाहिए। बहुत प्रकाश पूर्ण पक्ष को देखने की सामर्थ्य चाहिए। प्रत्येक स्थितियों में वह खोज सके कि शुभ क्या है और घने से घने कांटों के जंगल में वह एक फूल भी खोज सके कि यह फूल है तो उसका रास्ता निरन्तर कांटों से मुक्त होता चला जाता ७ साधक ! तूं भूल रहा है गुलाब के नीचे कांटे हैं तो स्वर्ग की रंगीन सुषमा के पीछे दुःख की काली छाया है। साधक ! १५७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ साधक ! सभी जगह युद्ध से विजय नहीं होती। कहींकहीं हार से भी विजय होती है, लेकिन यह विजय ज्ञानियों की है। ९ साधक ! आत्मा को समता के इस प्रकार भावित कर कि राग-द्वेष से वह किसी भी पदार्थ को ग्रहण न करे। १० साधक, मैत्री, उपेक्षा, करुणा, विमुक्ति और मूदिता का समय-समय पर आसेवन करते हुए सारे संसार में कहीं भी विरोध भाव न रख अकेला विचरे । ११ साधक ! मन के प्रवाह में न बहे। १२ साधक के शरीर, इन्द्रियां, मन आदि वश में रहते हैं जिससे किसी मनुष्य को उद्वेग नहीं होता और जिसे स्वयं भी किसी मनुष्य से उद्वेग नहीं होता। १५८ योगक्षेम-सूत्र Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर में न्यारा रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल १ मनुष्य को संसार में इस प्रकार रहना चाहिए जिस तरह कमल पानी में रहते हुए भी पानी से भीगता नहीं। इसी प्रकार मनुष्य को संसार में रहते हुए अपना मन ईश्वर और हाथ काम को सौंप देना चाहिए। २ संसार में रहना गुनाह नहीं है, गुनाह है संसार को अपने में रखने में। जैसे हम नाव में बैठकर नदी पार करते हैं, पर नाव से रंचमात्र भी आसक्ति नहीं रखते। वैसे ही संसार में रहकर तमाम कर्मों का निर्वाह करो पर आसक्ति मत रखो। ३ जिस तरह यात्री सराय में रहकर अन्य यात्रियों से मिलता जूलता और हंसता है। वैसे ही हमें भी अपने हमराहियों से दोस्ती निभानी है। न ये हमारे, न हम इनके। अरे भाई ! यह तो भाड़े की नाव है। कभी इस पार तो कभी उस पार। ४ साधक को संसार में उस चिड़िया की तरह रहना चाहिए जो अपनी भींगी पांखों को तुरन्त गड़कर भारहीन हो जाती है। सुबह की धूल शाम तक नहीं बचती और शाम की धूल सुबह तक। ५ सांसारिक कार्यों को उदासीनतापूर्वक करने से उस उदासीनता का लाभ मिलता है-नये कर्मों का बंध नहीं होता। ६ महान् आदमी की महिमा है कि वह भोगों को भी भोगे और राग-द्वेष न करे। ७ परिवार रूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाय, इससे ममता न बढ़ेगी। अन्तर में न्यारा रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल १५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ घर में अतिथि की भांति रहो, कुछ भी अपना मत समझो । सेवा कराने में संकोच करो, डर-डरकर व्यवहार करो । सबका हित चाहो । किसी को दुःख न पहुंच जाए, इस बात का ध्यान रखो। ममता मत बढ़ाओ । अतिथि को घर से चले ही जाना है, इस बात को याद रखो । I & जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए । १० जिसके ऊपर व्यक्तिगत पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ जितना हल्का होगा वह उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेगा ।. ११ अपने काम को चांद-सूरज के काम की तरह निःस्वार्थ बना दो, तभी सफलता मिलेगी । १२ कार्य करते हुए अन्तर् को दूषित - मलिन मत करो । इन्द्रियां अपना काम करती हैं, करने दो, उनके कार्यों का मानसिक लिप्सा से भोग मत करो, किन्तु उपयोग करो । यह निष्काम आत्म-साधना ही सर्वोच्च साधना है । १६० योगक्षेम-सूत्र Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी केवल मांसपिंड की संज्ञा नहीं है १ नारी केवल मांसपिंड की संज्ञा नहीं है । आदिमकाल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर, उसकी यात्रा को सरल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर मानवी ने जिस व्यक्तित्व चेतना और हृदय का विकास किया है, उसी का पर्याय नारी है । २ नारी पद्मिनी और मालती की माला के समान है । वह माता मातृभूमि - सी पवित्र है । वह पृथ्वी की भांति सर्वंसहा है । वह तिरस्कार और अपमान सहती है तथा उसके बदले में सेवा और प्यार करती है । ३ कौनसी ऊंचाई है जहां नारी चढ़ नहीं सकती । कौनसा ऐसा स्थान है जहां वह पहुंची नहीं । हजारों अपराध करो वह क्षमा कर देती है । जब किसी बात पर अड़ जाती है तो संसार की कोई शक्ति रोक नहीं सकती । ४ नर भाव है तो नारी भाषा है । पुरुष मस्तिष्क है तो नारी हृदय है । पुरुष स्वर है तो नारी संगीत है । पुरुष कौमुदीश है तो नारी कुमुदिनी है । दोनों हैं एक रथ के पहिये, एक पक्षी की दो पांखें, एक जीवन की दो आंखें और एक वृक्ष की दोशाखें । ५ ममता, समता और करुणा की त्रिवेणी में नारीत्व बहता है । ६ नारी एक ऐसी दुर्बलता है जो आशंसा के ऊंचे टीलों पर उभर सामने आती है । नारी एक ऐसी विवशता है जो विलासिता की फिसलन भरी राह में पड़ी तड़प रही है । नारी एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें सृजन की चेतना सुषुप्त सी रहती है । नारी एक ऐसी आभा है जो हजारों-हजारों नारी केवल मांसपिंड की संज्ञा नहीं है १६१ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहलुओं से दीप्त हो रही है । युगव्यापी प्रत्येक समस्या को नारी एक ऐसी प्रज्ञा है जो समाधान दे सकती है और नारी एक ऐसा पुरुषार्थ है जो असफलता के बीहड़ जंगल में सफलता के मोहक सुमन खिला सकती है । ७ आध्यात्मिक जीवन में प्रत्येक स्त्री एक मां का पार्ट अदा कर सकती है । मातृत्व नारी का एक स्वतंत्र अस्तित्व है । वह जगत् जननी बनकर समस्त प्राणियों के लिए प्रेम, करुणा, वात्सल्य व संरक्षण देने में समर्थ हो सकती है । ८ एक युवती के लिए अपने पति की केवल पत्नी बनना काफी नहीं है । उसे तो उसकी सखी, उसकी बहन, उसकी कन्या - यही क्यों मौका आने पर उसकी मां भी बनना पड़ता है । १६२ 2 स्त्री जगत् की एक पवित्र ज्योति है, वह पुरुष के लिए जीवनसुधा है । लाभ उसका स्वभाव है, प्रदान उसका धर्म, सहनशीलता उसका व्रत और प्रेम उसका जीवन है । योगक्षेम-सूत्र Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोग का आनन्द १ यह सच्चाई है कि रोग का आनन्द होता है। रोग की अवस्था में आदमी जितनी बड़ी उपलब्धि कर लेता है उतनी बड़ी उपलब्धि शायद निरोग अवस्था में भी नहीं हो सकती। नीरोग व्यक्ति की एक चिन्तन धारा होती है और रोगी व्यक्ति की दूसरी चिंतन धारा होती है। २ ज्ञानी आदमी की दृष्टि में रोग हो सकता है पर रोग का कष्ट नहीं होता। वहां उसका आनन्द होता है। वहां रोगों को समाधि का निमित्त बनाया जा सकता है, ध्यान का साधन बनाया जा सकता है और उसे अनेक बुराइयों से बचने का साधन बनाया जा सकता है। ३ अवसाद को उत्साह में बदल देना ही मानसिक रोगों की कारगर चिकित्सा है। इसमें प्रेमोपचार को जितनी सफलता मिलती है, उतनी और किसी प्रयोग को नहीं। ४ भय, चिन्ता और तनाव से मुक्त होना रोग और पीड़ा के साथ मैत्री स्थापित करना है । ५ दुःख में यदि सुख की अनुभूति चाहते हो तो हंसमुख बनो। ६ रोग की पीड़ा शान्त करने के लिए चित्ताकर्षक और मनोरंजक पुस्तक से बढ़कर दूसरा कोई अच्छा साधन नहीं ७ संकल्प के द्वारा आदमी रोग के साथ मैत्री स्थापित करता है और पीड़ा को बिल्कुल शान्त कर देता है। ८ दूसरों की सहायता कीजिये। दूसरों का दुःख-दर्द बांटकर अपनी पीड़ा दूर कीजिये। रोग का आनन्द १६३ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ अच्छा रोगी कौन ? १. जो बीमारी के दिनों में सदा आशावादी रहे। २. अपनी इच्छाशक्ति, डाक्टर और सबसे ऊपर प्रकृति पर भरोसा करे कि वह स्वस्थ हो जाएगा। ३. जो अपने मित्रों, संबंधियों और पड़ौसियों में अपनी बीमारी का शोर नहीं मचाता। ४. डाक्टर या हकीम के समक्ष अपनी बीमारी का विवरण बेझिझक प्रस्तुत करे। ५. जो संतोष व संयम का साथ नहीं छोड़ता। ६. जो इलाज के मामले में जल्दबाजी नहीं करता वरन् दृढ़ता दिखाता है । ७. शरीर व मस्तिष्क को पूरा विश्राम का अवसर देता है। ८. अपना काम खुद करने में दिलचस्पी ले। ह. रोग से पाठ ग्रहण करे, उसे दोहराए नहीं। १०. डा० को धन्यवाद ज्ञापित करे। ११. संबंधियों का आभार माने एवं १२. रोग को प्रकृति की चेतावनी समझे। १० जिसने दुःख नहीं देखा वह सबसे बड़ा दुखियारा है। १६४ योगक्षेम-सूत्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंसू रोको मत १ जिस समय घुटन, दु:ख, विषाद आदि रोग पैदा हों, उस समय उनके विष को रोकर बाहर निकाल दीजिए ताकि उनसे संबंधित रोग पैदा न हों। २ दरअसल अगर हमें ठीक से आंसू बहाना आ जाए तो शायद हम अपनी कुछ दवाइयों को फेंक डालें। चार्ल्स डिकेंस के अनुसार--"रोने से फेफड़े खुल जाते हैं, मुंह धुल जाता है, आंखों की कसरत हो जाती है और मिजाज ठीक हो जाता है सो रोना आए तो रोको मत ।” ३ डा० फेके का कहना है--- "रोने से मन का सारा मैल धुल जाता है, आत्मा पवित्र हो उठती है।" ४ भावनात्मक आंसू उदासी, अवसाद और गुस्से से मुक्त होने के योग्य बनाते हैं। ५ असफलता, असंतोष, आघात किसके जीवन में नहीं आते। उस समय प्रशान्त मनःस्थिति परिष्कृत व्यक्तित्व का चिह्न है। पर जब ऐसी स्थिति न हो, मनःक्षेत्र घटनाओं को ही गुनधुन रहा हो तो उपयुक्त यही है कि भीतर से उठ रही रूलाई को रोका न जाय। नकली बहादुरी के प्रदर्शन का प्रयत्न मन के भीतर की घुटन को तो हल्का करेगा नहीं, मस्तिष्क की क्रियाशीलता को अवश्य क्षति पहुंचाएगा। यदि फूट-फूटकर रो लिया गया हो या कि अपना दुःख खोलकर किसी विश्वस्त आत्मीय से विस्तारपूर्वक कह दिया गया हो तो स्वस्थता बनी रह सकती है । ६ वैज्ञानिक जेम्सवाट के अनुसार-"स्त्रियां अपने आंसू बहाने में कंजूसी नहीं करने के कारण ही घुटन से मुक्त रहती हैं और अधिक स्वस्थ एवं दीर्घजीवी रहती हैं जबकि पुरुष मांसू रोको मत Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी कठोर प्रकृति का दण्ड स्वास्थ्य के क्षरण के रूप में भोगते हैं । ७ हठात् रुलाई रोकने से जुकाम, सिरदर्द ही नहीं चक्कर आना, अनिद्रा, आंखें जलना, स्मरण शक्ति की कमी आदि रोग हो जाते हैं। ८ मूत्र और पसीने की तरह आंसू भी शरीर की उत्सर्जक प्रक्रिया का उत्पादक है । ६ प्रसन्नता या आनन्द की अनुभूतियों को हंसी या मुस्कान के साथ अभिव्यक्त कर देने पर मन हल्का हो जाता है । यही बात रोने, उदास होने के संबंध में है । १० रोने की आदत बना लेना दुर्बलता की निशानी है । ११ अपने लिए किसी को आंखों में आंसू भर आए देखने में एक अपूर्व आनंद होता है । केवल आनंद ही नहीं, धीरज बंधाने की बड़ी शक्ति भी हुआ करती है उन आंसुओं में । १२ घनीभूत पीड़ा की अभिव्यक्ति का नाम ही आंसू है । मनुष्य के अंतःकरण में स्थित पीड़ा का पर्वत जब पिघलता है, उसका तेज प्रवाह थामे भी नहीं थमता । १६६ योगक्षेम-सूत्र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्दी सोना जल्दी जगना, स्वस्थ सुखी संतोषी बनना १ जल्दी सोने वाला और प्रातःकाल जल्दी उठने वाला मनुष्य आरोग्यवान, भाग्यवान और ज्ञानवान होता है। २ हमें अपने आपको जगाना और जगाते रहना अवश्य सीखना चाहिए। किंतु यह काम किसी मशीनी युक्ति से नहीं अपितु भोर की अनंत प्रत्याशा से होना चाहिए। ३ जो ब्रह्ममुहर्त में नहीं उठता उसके दरवाजे पर आया ज्ञान देवता लौट जाता है। ४ प्रभात की उपासना में प्रतिदिन अपने अन्तःस्थित मानवता के महात्म्य को हम एकदम बाधामुक्त होकर देख सकते ५ भोर की बयार ! दिनारम्भ की इस प्रथम फुहार का रसास्वादन भी लोग नहीं कर पाते हैं तो हमें चाहिए कि हम इसे थोड़ा बहत बोतलों में बंद कर लिया करें और उन्हें दुकानों पर रखकर उन लोगों में बेचा करें जो इस दुनिया में प्रातःकाल के आनन्द का अधिकार पत्र खो चुके ६ नींद में जाते समय ऐसी-वैसी बातों का संग्रह लेकर नहीं सोना चाहिए, हल्का साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए, इसका हमारे जीवन पर बहुत असर पड़ता है। ७ जब सूर्यास्त यानि रात और दिन का मिलन होता है उस समय प्रकृति में, हमारे शरीर व मन में परिवर्तत घटित होने लगता है, सुषुम्ना-स्वर चलने लग जाता है-इस समय को धार्मिक कार्य में लगाना चाहिए क्योंकि इसे अनिष्ट उत्पन्न का क्षण माना है, सुषुम्नास्वर में किसी प्रकार का भौतिक कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। जल्दी सोना जल्दी जगना स्वस्थ सुखी सम्पन्न बनना Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ हर प्रभात सूर्योदय की सूचना देता है। हर दिन जीवन को आगे बढ़ा रहा है। हम प्रभात को जानते हैं, जीवनवृद्धि को जानते हैं पर चेतना की आंच में पकते भावों को नहीं जानते हैं। ६ आप उठे न उठे दिन तो उगेगा ही। १० जल्दी सोना और प्रातः उठना मनुष्य को स्वस्थ, धनवान और बुद्धिमान बनाता है। ११ प्रभात की बेला होने पर पक्षी अपने घोंसलों में सोये नहीं पड़े रहते। उनमें मानो नवजीवन का संचार हो जाता है । वे अपने कलरव द्वारा सूर्य का आह्वान करते हैं या नवीन आलोक-पुंज पाकर अपने हृदय में न समा सकने वाले हर्ष को बाहर उंडेलते हैं। वे सूर्य को पुरानी चीज समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करते और न ही प्रमाद का सेवन करते हैं। जो मनुष्य सूर्योदय होने पर भी टांगे पसारे पड़ा रहता है, वह आगे क्या कर सकता है। योगक्षेम-सूत्र Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालने से लेकर कब्र तक ज्ञान प्राप्त करते रहो १ साहित्य का अध्ययन युवकों का पालन-पोषण करता है, वृद्धों का मनोरंजन करता है, उन्नति का शृंगार करता है, विपत्ति को धीरज देता है, घर में प्रमुदित करता है और बाहर विनीत बनाता है। २ आजीवन अध्ययन करते रहना श्रेयस्कर नहीं, बल्कि अनिवार्य है। ३ पढ़ाई जारी रखना अच्छे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। ४ जानकारी के बाद व्यक्ति पापों से डरता है अतः स्वाध्याय अपेक्षित है। ५ स्वाध्याय की प्रवृत्ति जिसमें हो वह जीवन को परिवर्तित कर __सकता है। ६ एक छात्र आसानी से पढ़-लिख सकता है, जीने के लिए नहीं बल्कि तर्क करने के लिए। ७ शिक्षा का समूचा उद्देश्य लोगों को ठीक कार्यों में लगा देना ही नहीं बल्कि उन्हें ठीक कार्यों में रस लेने लायक बना देना है। ८ राजा अपने देश में पूजा जाता है परन्तु विद्वान् सर्वत्र पूजा जाता है। ह विद्या दो प्रकार की होती है, एक हमें आजीविका दिलाती है और दूसरी जीना सिखाती है। १० स्वाध्याय और ध्यान में सतत अभ्यस्त रहने वाला व्यक्ति पुरातन कर्म-मल को दूर कर देता है । पालने से लेकर कब्र तक ज्ञान प्राप्त करते रहो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ स्वाध्याय से वृत्तियां शांत हो जाती हैं, चित्त का भटकाव कम हो जाता है साधक अपने अन्तस्तल में उठने वाली तरंगों से सम्यक् परिचित हो जाता है। १२ अध्ययन के साथ-साथ आचरण की पवित्रता बढ़नी चाहिए। १३ ज्ञान का जैसे ही विकास होगा, इच्छाएं अल्प होती जाएंगी। १४ ज्ञान की आग सब कर्मों को भस्म कर देती है । १५ सक्रिय बने रहने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आता। पढ़ाई भी क्रियाशीलता है। अध्ययन के समय हमारा पूरा शरीर क्रियाशील हो उठता है। आंख, कान एवं स्वतः क्रिया सहित सारी इन्द्रियां सक्रिय हो उठती है। यहां तक कि हमारे व्यक्तित्व की सबसे रहस्यपूर्ण विशेषता प्रेरणा भी खुद-बखुद क्रियाशील हो उठती है। अध्ययन की प्रक्रिया और इसकी अपेक्षाएं मनुष्य को एक स्वस्थ जिंदगी देती है। उम्र चाहे जो हो। ..... १७० योगक्षेम-सूत्र Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय कब किसके लिए रुका है ? १ समय तो स्प्रिट के समान है, अगर खुला छोड़ा तो उड़ जायेगा। २ अवसर या समय बड़ी चिकनी चीज है, सामने आते ही पकड़ लीजिये । गुजर गया तो पीछे से न पकड़ सकोगे। हाथों में से फिसल जाएगा। ३ समय की पाबंदी में यह है कि आपको एकांत के कुछ क्षण मिल जाते हैं। ४ जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है-समय। जिंदगी का बीज पड़ा नहीं कि घुन की तरह समय उसके पीछे लग जाता है। ५ समय संसार का सबसे बड़ा मरहम है। लेकिन मरहम का सही इस्तेमाल मरहम-पट्टी करने वाले के हाथ में होता है। ६ धर्माचरण करने के लिए शीघ्रता करो, एक क्षणभर भी प्रमाद मत करो। जीवन का एक-एक क्षण विध्नों से भरा है, इसमें संध्या की भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ७ हमारे जीवन की यह छोटी-सी शोभा यात्रा भी कितनी विचित्र है। आज का काम कल पर छोड़ दिया जाता है। बालक कहता है कि किशोर होने पर देखा जाएगा, किशोर युवावस्था की प्रतीक्षा करता है, और युवा बनने पर कहता है गृहस्थ बनने पर देखेंगे और तब तक विचार बदल जाता है। सोचता है गृहस्थ हो गया तो क्या हुआ पहले सांसारिक झंझटों से निपट लूं । और जब कामकाज से छुट्टी मिल जाती है तब वह अपने भीतर अतीत पर दृष्टिपात करता है और उसे लगता है जैसे अतीत पर पाला पड़ गया हो, सब कुछ समाप्त हो गया हो। समय कब किसके लिए रूका है ? Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ बहती सरिता के पल-पल परिवर्तित जल में एक बार पैर रखकर उसी जगह दूसरी बार, फिर उसी जल में पैर नहीं रखा जा सकता क्योंकि तब तक तो वह बहने वाला जल बह चका होता है। है मृण्मय घरों को ही बनाने में जीवन को व्यय मत करो। उस चिन्मय घर का भी स्मरण करो जिसे कि पीछे छोड़ आये हो और जहां कि आगे भी जाना है। १७ जाग, ए मानव, उठ ! समय सरपट चाल से भागा जा रहा है। तुझे जो क्षण मिला है, वह फिर कभी नहीं मिलेगा। मनुष्य जीवन की ये अनमोल घड़ियां अगर भोग-विलास में गंवा देगा तो सदा के लिए पश्चात्ताप करना ही तेरी तकदीर में होगा, इसलिए अक्षय कल्याण की साधना के मार्ग पर चल । देख, अनन्त मंगल तेरे स्वागत की प्रतीक्षा कर रहा योगक्षेम-सूत्र Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीच में रहें, अतियों से बचें १ हमारी हर वृत्ति और प्रवृत्ति जब तक संतुलित रहती है, जीवन के लिए वरदायी सिद्ध होती है। वही प्रवृत्ति जब 'अति' तक पहुंच जाती है तो जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है। २ अति भोजन, अहितकर भोजन और प्रतिकूल भोजन-ये रोगोत्पत्ति के प्रमुख कारण हैं। ३ अतिनिद्रा या अधिक सोना जीवनी शक्ति को नष्ट करता है तथा अति जागरण पाचन-क्रिया को असन्तुलित करता है। ४ सब कुछ पाकर भी वह व्यक्ति आनन्द और शांति का जीवन नहीं जी सकता, जिसके पास स्वस्थ तन, सधा हुआ मन और शान्त वत्तियों का वैभव नहीं है। ५ नमक और चीनी का अति प्रयोग तथा परस्पर विरोधी पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के शत्रु हैं। ६ अतिश्रम, अतिभोजन, अतिशक्ति-व्यय, उत्तेजना और वासना-इनसे प्राणशक्ति क्षीण होती है। ७ उचित श्रम और मिताहार ये दोनों धरती के अश्विनीकुमार हैं। सबसे बड़े वैद्य हैं। ८ यदि आप स्वस्थ रहना चाहते हैं तो हर तरह की अति से बचें न बहुत गरम भोजन करें, न बहुत गरम पेय पीये, न बेमतलब की भागदौड़ में लगें, न बहस में तीव्रता से पड़ें। है जहां भी भोग भोगने का सवाल हो उसमें अति करना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना सिद्ध होता है ।। १० आप अधिक लम्बे समय तक अति करते नहीं रह सकते। कभी न कभी आपको जमीन पर आना ही पड़ेगा, जैसे कोई पक्षी कितना ही ऊंचा उड़ जाए पर आखिर तो नीचे उतरता ही है। वीच में रहें, अतियों से बचें Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ विष का अधिक मात्रा में प्रयोग करने से वह मनुष्यों को मार देता है । उचित मात्रा में सेवन करने से विष भी रोग को दूर करता है। १२ व्यक्ति किसी कार्य में संलग्न हो, उसकी आंख, कान और वाणी का सीमित प्रयोग हितकर होता है। सीमा का अति क्रमण सृजन की शक्ति को ध्वंस में परिणत कर देता है । १३ काम के बाद आराम और आराम के बाद काम जो करता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक काम कर सकता है जो निरन्तर काम ही काम करता है, विश्राम नहीं करता। १४ अति आशा का परिणाम कभी सुखद नहीं होता । अप्रत्यक्ष रूप से वह निराशा को ही आमन्त्रण है। योगक्षेम-सूत्र Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान नहीं स्थिति बदलिये, कपड़े नहीं मन बदलिये १ वस्तुतः नाम बदलने से जीवन नहीं बदलता। दैनिकी बदलने से अतीत की काली छाया नहीं मिटती। पदार्थ का विनिमय हो सकता है पर जीवनगत अच्छाईयों और बुराईयों का विनिमय नहीं हो सकता। जीवन तब बदलता है जब आचरण और व्यवहार बदलता है। २ प्रतिकल स्थिति को बदल देना मनुष्य के लिए शक्य नहीं है। परिस्थितियों के प्रति होने वाले अपने दृष्टिकोण को अवश्य बदला जा सकता है। ३ दुर्बल व्यक्ति किसी भी घटना से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है, यही उसके हर्ष-शोक का निमित्त बनती है। ४ मन को हमेंशा ऊंचा रखना चाहिए, गलत भावना आते ही तुरंत उसे निकालकर ऊंचा विचार रख देना चाहिए । ५ परिस्थिति कैसी है, इस पर कुछ निर्भर नहीं करता। हम परिस्थिति को कैसे लेते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता ६ परिस्थिति आने पर स्थिरीकरण हो तो समस्या सुलझ जाती ७ प्रकृति जिसकी स्थिति के अनुकूल हो, वह सुखी है। पर जो मनुष्य अपनी स्थिति के अनुकूल अपनी प्रकृति बना लेता है वह बुद्धिमान है। ८ जो अनिन्द्य कर्म हैं, उन्हें करो । दूसरे नहीं। ६ जो हमारे सुचरित हैं, उन्हें ही अपनाओ । दूसरे नहीं। स्थान नही स्थिति बदलिये, कपड़े नहीं मन बदलिने १७५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आत्मा के प्रति करुणा व दया रखने वाले कम होते हैं । क्रोध की अवस्था में आत्मा का ही अहित होता है। ११ दूसरे तुम्हारे संबंध में क्या सोचते हैं, इसकी अपेक्षा तुम्हारे विषय में तुम्हारे अपने विचार अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। १२ भीतर रूग्णता हो और बाहर स्वस्थ दिखाई पडे तो किसी भी क्षण दुर्घटना घटित हो सकती है । १३ तुम्हारे जीवन की फिल्म तो जन्म के पहले ही निश्चित हो गई है । उसे साक्षीभाव से देखोगे तो सुखी रहोगे । कर्त्ताभाव रखोगे तो दुःख उठाओगे। १४ जो व्यक्ति हर स्थिति में अपने आपको संतुलित रख सकता है, वह साधक है। योगक्षेम-सूत्र Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय मन की मादकता है १ जिससे कर्मों की कृषि लहलहाती है, वह कषाय है। इस कषाय के पकते ही सुख और दुःख रूपी फल निकल आते हैं । २ जिससे समता, शान्ति और सन्तुलन भंग होता है, टूटता है, वह कषाय है। ३ विकारों का गुप्त वातावरण स्वयं अपने में ही शरीर, मन और आत्मा को भारी बना देता है। ४ कषायोदय व्यक्ति की बातचीत क्रोध और अहं को पुष्ट बनाने वाली होगी। उसका कार्य कलाप कपट और लोभ से परिपूर्ण होगा। उसको शारीरिक गन्ध भी स्वार्थ से रहित नहीं हो पाती। उसके सपने भी ऐसे आयेंगे, जो उसे नींद में भी शान्त नहीं रहने देते हों। ५ शान्तता, विनम्रता, सरलता, निःस्पृहता की प्राप्ति ही कषाय मुक्ति का प्रतिफलित है। ६ क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा और चुगली करना-ये ताममिक वत्तियां हैं, तामसिक वत्ति वाला आदमी कभी शांत नहीं हो सकता। ७ जब कषाय सिंहासन पर होती है तब विवेक घर से बाहर होता है। ८ लोग अपना जीवन कषायों की सेवा में ही बिता देते हैं इसकी ___ अपेक्षा कि वे कषायों को अपने जीवन की सेवा में जोतें। ६ कषाय का अन्त पश्चात्ताप की शुरूआत है। १० जैसे कषाय रसप्रधान वस्तु (हरड़ आदि) के सेवन से अन्न रुचि कम होती है, वैसे ही कषाय-प्रधान जीवों में मोक्षाभिलाषा क्रमशः न्यून हो जाती है। कषाय मन की मादकता है Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जो व्यक्ति अकषायी बन गया, उस व्यक्ति के परमाणु करुणा विकिरण करते रहते हैं। उससे आभामण्डल सुन्दर और स्वच्छ बनता है, उस व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति में मधुरता और निखार आ जाता है। १२ आलसी व्यक्ति आने वाली संपदा को भी ठकरा देता है। १३ जो क्रोधी है उसके लिए शत्रुओं की कमी नहीं, क्षमाशील के लिए मित्रों की कमी नहीं। १४ अशान्त मन सब बुराईयों की जड़ है। १५ जिसने जीवन भर सम्मान प्राप्त किया हो, उसके लिए अपमान के समय क्रोध से बचना कठिन है। मोमोम-सूत्र Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकोण १ दीर्घजीवन का रहस्य तीन छोटी बातों में छिपा हुआ है १. सादा और शाकाहारी भोजन । २. भरपूर परिश्रम ३. प्रकृति की घनिष्ठता। २ तीन बातें करो-१. प्रेम सबसे करो। २. विश्वास थोड़ों का करो। ३. बुरा किसी का मत करो। ३ तीन बातें मत खोलो-१. पराया छिद्र । २. अपना पुण्य । ३. गुप्त-शुभ-मंत्रणा। ४ तीन समय पर रुको-१. क्रोध के समय । २. कामवासना के समय । ३. लोभ के समय । ५ संसार के ताप से जलते हुए प्राणियों के लिए तीन विश्राम के स्थान हैं-१. अपत्य-संतान । २. कलत्र-स्त्री । ३. सत्संगति । ६ शरीर के विषमय होने के तीन कारण-१. गलत भोजन । २. कम सोना। ३. शरीर की ग्रंथियों का कार्य अव्यवस्थित होना। ७ स्वस्थ बने रहने के तीन नियम-१. भोजन करें, पर परितृप्ति से थोड़ा कम । २. काम करें, इतना कि थककर चूर न हो जाएं । ३. प्रकृति के अनुरूप अपना जीवन बनाये रहें । ८ गहीत संकल्प तीन कारणों से स्वलित होता है-१. इन्द्रियों की अनियंत्रित वृत्ति । २. कठिनाईयों को झेलने की अक्षमता। ३. चित्त की चंचलता। ६ तीन वस्तुएं निरालंब होकर शोभित नहीं होती–१. पंडित । २. स्त्री । ३. लता। १० संसार में तीन सम्मान सबसे बड़े हैं-१. सन्त २. सुधारक ३. शहीद। त्रिकोण १७९ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सफलता प्राप्ति के लिए तीन शर्ते---१. लक्ष्य सदा आंखों के सामने रहना चाहिए । २. विश्वास सदा मजबूत रहना चाहिए। ३. इच्छाओं के साथ विश्वास रहना चाहिये। १२ तीन चीजें जाने के बाद वापिस नहीं लौटती-१. कमान से छूटा तीर २. बीता हुआ समय ३. मुंह से निकली हुई बात। १३ आप जो भी सोचें उसे छपाकर रखने के तीन लाभ हैं-१. आपकी क्रियाशक्ति हवा में नहीं बिखरेगी। २. असफल होने पर अकारण लज्जित नहीं होना पड़ेगा। ३. अन्य व्यक्ति मुकाबले में आकर आपको हानि नहीं पहुंचा सकेंगे। १४ तीन चीजें जीवन में एक बार मिलती हैं-१. मां की ममता। २. सुन्दरता ३. जवानी। १५ तीन वस्तुएं मनुष्य को दुःखी बनाती हैं-१. अज्ञान । २. ___ अभाव । ३. अशक्ति। १६ तीन मनुष्य सदा सुखी रहते हैं---१. साधु २. दानी। ३. सत्यवादी। १७ तीन चीजें मनुष्य को नष्ट कर देती हैं.-१. क्रोध । २. लालच ३. दुराचार। १८ आरोग्य-रक्षा के लिए तीन बातें जरूरी-१. सदा प्रसन्न चित्त रहें। २. शुद्ध आहार या ठीक खाना । ३. शरीर के भीतर पैदा होने वाले मल या कूड़े की ठीक तरह से सफाई होना। १६. तीन समय पर विशेष सावधान रहो-१. बीमारी के समय । २. ऋतु-परिवर्तन के समय । ३. घर की फूट के समय । २० सबसे कठिन तीन वस्तुएं हैं-१. रहस्य को गुप्त रखना । २. कष्ट को भूल जाना । ३. समय का सदुपयोग करना।। २१ नम्रता के तीन लक्षण हैं-१. कड़वी बात का मीठा उत्तर देना। २. क्रोध आने पर चुप रहना । ३. अपराधी को दण्ड देते समय भी कोमलता रखना। २२ तीन शत्रु पीछे लगे हुए हैं १. रोग २. बुढ़ापा ३. मृत्यु । २३ खुशी, मधुरता और गहरी नींद--ये तीनों डाक्टर को घर का दरवाजा नहीं देखने देते। २४ दुःख के तीन कारण माने हैं--१. जीभ । २. वासना। ३. कषाय। १८० योगक्षेम-सूत्र Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटी-छोटी बातें १ एक छोटा-सा वाक्य किसी का जीवन बदल सकता है। २ एक साधारण-सी मीठी बात और मधुर मुस्कान प्यार के बीज बो देती है। ३ तनिक-सी भूल जीवन को तबाह कर देती है और छोटी-सी भूल से सीख लेने पर जीवन संवर सकता है । ४ स्मरण रखना कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जायेगा। ५ मन की थोड़ी-सी भी असमाधि शरीर पर जल्दी असर करती है। ६ श्रम से कतराना विकास को रोकना है। ७ जब क्रोध आए या क्रोध का तनाव बढ़े तब किसी न किसी प्रकार के शारीरिक श्रम में लग जाना चाहिए या स्वाध्याय या किसी मनोरंजन में लग जाना चाहिए जिससे कि ध्यान बंट जाने के कारण क्रोध का आवेग कम हो जाए। ८ जीभ, दाएं पैर का अंगूठा, आंखें आदि अचूक साधन है मन को वश में करने के। ६ धरती तुम्हारी नंगी पगतलियों का स्पर्श पाकर प्रसन्न होती १० सिर में दर्द होने पर गर्दन थपथपाना और मलना बहुत लाभ करता है। पेट और पिंडली पर थपथपाना साधारणतया बहुत लाभकर है, स्वास्थ्य उन्नत होता है। ११ मुलायम गद्दी-तकिया लगे सोफे पर बैठने या लेटने पर शरीर के कुछ अंग बहुत अधिक गरम हो जाते हैं जिससे शरीर के रक्त संचालन में बाधा पड़ती है, थकान और सुस्ती आती है। छोटी-छोटी बातें १८१ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शरीर की शक्ति में असंतुलन आने पर आलस्य आता है, तनाव उत्पन्न होता है तथा अंग विशेष में दर्द आदि होता है। स्वर परिवर्तन द्वारा इसका निराकरण किया जा सकता १२ सबसे अधिक खतरनाक अपराधी हैं—अत्यधिक लचीली सीटें, फोम या डनलोपिलो आदि की लुभावनी शय्याएं जो रातभर गाढ़ निद्रा में सोने का आमंत्रण देती हैं और दिनभर पीठ के दर्द से पीड़ित होने के लिए बाध्य करती हैं। १२२ योगक्षेम-सूत्र Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करें ! १ पहले से पहने हुए वस्त्र ही पहने रहकर भोजन न करें दूसरों द्वारा पहने वस्त्र या अन्य पदार्थों का सेवन न करें । २ अनजान मार्ग पर रात में न जाएं। में न जाएं। किसी के भी यहां जाएं । पराये मकान में अन्धेरे ज्यादा या बेजरूरत न I ३ पूछे बिना राय न दें । अपने से बड़ों का अपमान व छोटों की उपेक्षा न करें । ४ किसी के पीठ पीछे उसकी निन्दा न करें । ५ स्नेह (चिकनाई ) रहित भोजन न करें, अतिमात्रा में भोजन न करें, प्रात: और सायंकाल के सन्धिकाल में भोजन न करें, दोपहर का भोजन अतिमात्रा में किया हो तो शाम को भोजन न करें। अपना जूठा किसी को न दें। दो भोजन के बीच में तीसरी बार भोजन न करें, भोजन के अन्त में जल न पियें और जूंठे हाथ व मुंह से कहीं बाहर न जाएं। एक ही प्रकार के रसवाले व्यंजन लगातार अधिक समय तक सेवन न करें । ६ जो कोई जो कुछ कहे, उसे सुन लो पर उसे जहां-तहां दोहराते मत फिरो । ७ कीचड़ ! तू मेरे पैर खराब मत करना, पथिक ने कहा । उत्तर मिला- मुझे छेड़ना मत । ८ किसी भी बात का जबाव चौबीस घण्टे से पहले मत देना, अन्तराल छोड़ देना और यह बड़े मजे की बात है कि कोई भी बुरा काम अन्तराल पर नहीं किया जा सकता, तत्काल ही किया जा सकता है क्योंकि अन्तराल में समझ आ जाती है, ख्याल आ जाता है । न करें ! १८३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ किसी के साथ बोलने से सामने वाले को कष्ट हो तो स्वयं चलाकर न बोलें। १० दूसरों के साथ तुलना करना छोड़ दें-यह अहं व हीनता की जनक है। ११ नकलची न बनें हमें जो बनना है, जो करना है, करें। १२ दूसरे के अधिकार का अपहरण करके यश प्राप्त करने की इच्छा मत करो, जिसका अधिकार हो उसे वह सौपकर यश के भागी बनो। १८४ योगक्षेम-सूत्र Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियत समय पर कार्य करना - सफलता का सोपान है १ सफलता उन्हीं को प्राप्त होती है, वही मनचाहा काम कर सकते हैं, जिनकी प्रवृत्ति निश्चयात्मक होती है । २ मनुष्य का प्रतिभाशाली और समुन्नत व्यक्तित्व भी समय के सदुपयोग और नियमित क्रम व्यवस्था पर ही निर्भर रहता है । ३ जो निश्चित समय पर क्रिया कहता है वह दूसरों का विश्वासपात्र बन जाता है । ४ नियमित दिनचर्या जीवन की सफलता का अति महत्त्वपूर्ण सूत्र है । ५ नियमित व्यवस्था को अपनाकर हर मनुष्य अधिक काम कर सकता है, अधिक व्यवस्थित एवं निश्चिन्त रह सकता है । घर-परिवार के लोग तथा साथी - सहचर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रह सकते हैं। साथ ही अधिक मात्रा में अच्छे स्तर का उपार्जन हो सकता है । ६ अनियमितता शक्ति को प्रस्खलित करने का बहुत बड़ा कारण है । ७ संकल्प-शक्ति के विकास में नियमितता का बहुत बड़ा महत्त्व होता है । ८काम की अधिकता नहीं, अनियमितता आदमी को मार डालती है । ६ जो मनुष्य समय पर काम करते हैं वे कभी पछताते नहीं । १० तुम जैसा बनना चाहते हो, उस लक्ष्य प्रतिमा का निर्माण कर उसे आदर हो, उसे भलीभांति जानो, प्रतिक्षण उसी का चिंतन - स्मरण करो, उसी के साथ तादात्म्य स्थापित करो, १८५ नियत समय पर कार्य करना --- सफलता का सोपान है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे पाने का दृढ़ निश्चय करो और अपनी चित्तधारा को उसी में नियोजित कर दो । निश्चित ही तुम एक दिन वैसे बन जाओगे । ११ संकल्प सिद्धि के लिए सतत् - जागरूक प्रयत्न अपेक्षित है । क्योंकि लापरवाही आत्मा का वह जंग है जो दृढ़ से दृढ़ संकल्प को भी क्षार-क्षार कर देता है । १२ जिसकी दिनचर्या, निशाचर्या और ऋतुचर्या सम्यक्, नियमित और व्यवस्थित होती है वह सामान्यतः बीमार नहीं हो सकता है और जिनकी चर्या संयमित व्यवस्थित नहीं होती, उसे अस्वस्थ होने से कोई बचा भी नहीं सकता । १८६ योगक्षेम-सूत्र Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. Freedom starts in the mind not by cutting ropes. 2. A Smile can make short work of any difficulty. 3. Balance is the real foundation of a blissful life. 4. A lazy man is always occupied with his laziness. 5. When an obstacle comes in your way stop crying and start trying. 6. Silence is not only the absence of sound but also stillness of the mind. 7. When you burn with fire of anger smoke gets in your eyes, 8. True Victory means complete control over the sense organs. 9. The lie you tell today will force you to lie again tomorrow. 10. Pure love is the basis of eternal relationhsips. 11. Do not lose hope in the hopeless. 12. Sticks and Stones break bones-words often break relationships. 13. Time is life, Wasting time is wasting one's life. 14. If you give your heart to God, you will not get heart attacks. 15. If you always do your best you will be free from reg rets. 16. Success springs from calmness of the mind. It is a cold iron which cuts and bends hot iron. 17. Every day has a hidden secret, you have seen it many times. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ संकल्प-समन बहिन निरंजना ने योगक्षेम वर्ष में संयम एवं संकल्प शक्ति जागरण हेतु विविध प्रयोगों से अपने आपको भावित कर आचार्यश्री के चरणों में ७५ संकल्प-सुमनों की माला अर्पित की। उसके द्वारा कृत संकल्पों की सूची यहां दी जा रही है। वर्ष भर के संकल्प चार खण्डों-दैनन्दिन, मासिक, वार्षिक एवं जप-प्रयोग के रूप में संकल्पित किए गए हैं। दैनन्दिन-प्रयोग १. 'ॐ' की नौ बार ध्वनि करना। २. प्रति रविवार को भक्तामर-स्मरण । ३. प्रति सोमवार को पंचपद-वंदना-स्मरण । ४. प्रति मंगलवार को आलम्बन-सूत्र-स्मरण । ५. प्रति बुधवार को शान्त-सुधारस-भावना-स्मरण । ६. प्रति वृहस्पतिवार को चौबीसी-स्मरण । ७. प्रति शुक्रवार को पच्चीस-बोल-स्मरण । ८. प्रति शनिवार को कल्याण-मंदिर-स्तोत्र स्मरण । ६. प्रतिदिन १० मिनट खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना । १०. प्रतिदिन एक मंत्र या यंत्र लिखना। ११. प्रात: एवं सायंकाल नमस्कार-महामंत्र का स्मरण (५ बार) १२. सायंकाल गुरु-वंदना करना। १३. समवृत्ति श्वास का प्रयोग (नित्य ५ आवृत्ति) १४. शशांकासन का नियमित प्रयोग (१० मि०) १५. 'साप्ताहिकी अनुप्रेक्षा' के चयनित बिन्दुओं की प्रातः सायं अनुप्रेक्षा। १६. प्रतिदिन प्रवचन में जाना, प्रवचन लिखना दूसरे दिन पुनरा वृत्ति करना। १७. प्रतिदिन भोजन में दो सब्जी से अधिक नहीं लेना। १८८ योगक्षेम-सूत्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिक प्रयोग १८. जनवरी मास में भोजन में ५ द्रव्य लेना। १६. फरवरी में पापड़ नहीं खाना। २०. मार्च में प्रतिदिन एक प्रहर करना। २१. अप्रैल में प्रति सोमवार-चीनी वर्जन, मंगलवार-दूध वर्जन, बुध-दही वर्जन, गुरु-पापड़-त्याग। शुक्र०-धी-त्याग, शनि० ५ द्रव्य, रवि०-नमक वर्जन । २२. मई में भोजन मौन पूर्वक करना। २३. जून मास में प्रतिदिन : द्रव्यों से अधिक नहीं लेना। २४. जुलाई में आम का प्रत्याख्यान । २५. अगस्त में पूरे महिने चयनित २१ द्रव्यों का सेवन । २६. सितम्बर में दिन के १२ बजे से ३ बजे तक तीनों आहार का त्याग। २७. अक्टूम्बर में दिन में एक बार से अधिक चाय-सेवन नहीं। २८. नवम्बर में सब्जी-फलका-चावल को अलग-अलग खाने का अभ्यास। २६. पौष वदी १० से २७ दिनों तक "उवसग्गहर-स्तोत्र" का सविधि जाप। ३०. दिसम्बर में एकांतर मौन एवं अन्नाहार ग्रहण करना। ३१. सावन-मास में दूध का त्याग । ३२. सावन एवं भादवा में आलू, प्याज, मिठाई, तली चीजों का त्याग । ३३. भादवा में दही-प्रत्याख्यान । ३४. १२ अक्टूबर से १२ जनवरी-तीन महीने तक एकत्व-अनुप्रेक्षा - एकोऽहं' का अभ्यास । वार्षिक-प्रयोग ३५. योगक्षेम वर्ष में रात्रि-भोजन-त्याग । ३६. नित्य १५ मि० पुस्तक-वाचन । ३७. योगक्षेम वर्ष में एक महिने का मौन करना। ३८. नित्य १५ मि० अंग्रेजी-साहित्य का वाचन । ३६. पूरे वर्ष भर में एक प्रकार की दवा के सिवाय दवा-सेवन त्याग। ७५ संकल्प-सूत्र १८६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. पूरे वर्ष भर दिन में एक प्रकार की मिठाई के सिवाय त्याग । ४१. सौंफ एवं धनिया के सिवाय तंबोल खाने का त्याग । ४२. प्रतिदिन १० मिनट 'सव्व साहणं' का शक्तिकेन्द्र पर नीले रंग में जाप। ४३. सप्ताह में पांच दिन स्नान में एक लोटा पानी का प्रयोग । ४४. योगक्षेम वर्ष में प्रतिदिन 'ग्रह-निवारक-मंत्र' की एक माला फेरना। ४५. प्रत्येक महिने की दोनों तेरस को अन्नाहार-प्रत्याख्यान तथा खड़े-खड़े 'ॐ भिक्षु' की २१ माला। ४६. प्रवचन में स्थित होने के साथ ही नौ नवकार मंत्र का पूरक, कुंभक एवं रेचन के साथ अभ्यास । ४७. पूरे वर्ष में नये वस्त्र न खरीदना, पहनना और सिलवाना । ४८. 'कोदर तपसी..... भिक्खु शिष्य बड़वीर'-६ बार सविधि उच्चारण के साथ प्रतिदिन गमन । ४६. योगक्षेम वर्ष में व्याख्यान से पूर्व १० मिनट ध्यान के साप्ताहिक-प्रयोग। ५०. योगक्षेम वर्ष में परदेस-गमन नहीं करना। ५१. विशेष अवसर पर कहीं भोजन करने नहीं जाना। ५२. प्रातः उठते ही एक घण्टा मौन करना। जप-प्रयोग ५३. 'उवसग्गहर-स्तोत्र' का सविधि जाप। ५४. सावन-भादवा में खड़े-खड़े दो माला 'ॐ भिक्षु' की। ५५. ॐ णमो पार्श्वनाथाय ह्रीं णमो' एक माला (७ दिन) ५६. ॐ णमो सयंसंबुद्धाणं ह्रौं भौं स्वाहा-एक माला (एक सप्ताह)। ५७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा स्वाहा'-एक माला (७ दिन)। ५८. ॐ ह्रीं अहं श्रीं स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं णमो अरहताणं'-एक सप्ताह तक प्रतिदिन एक माला। ५६. ॐ णमो सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं मम नाणाइसयं कुरु ह्रीं नमः-७ दिन तक जप । योगक्षेम-सूत्र १९० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. ॐ ह्रीं णमो अरहताणं मम ऋद्धिं वृद्धि समीहितं कुरु-कुरु स्वाहा'--का एक सप्ताह जप। ६१. ॐ नमः शिवाय' का जप (एक सप्ताह)। ६२. 'सिद्धा' की एक माला सात दिन नित्य । ६३. 'ॐ श्रीं ह्रीं अर्ह नमः' का जप। ६४. 'आरुग्ग-बोहिलाभ-समाहिवर मुत्तमं दितु'-का सात दिन जप। ६५. 'ॐ ह्रीं अभी राशि को नमः' का जप। ६६. 'नमस्कार-महामंत्र' की उल्टे क्रम से एक माला फेरना (७ दिन)। ६७. 'अरहंत सिद्ध' का जाप । ६८. 'जय तुलसी' की एक माला (७ दिन)। ६६. ॐ अहम्' की एक सप्ताह एक माला नित्य फेरना। ७०. ॐ अ सि आ उ सा'-का जाप । ७१. 'नमिऊण-असुर-सुर...' का २१ बार जाप । ७२. योगक्षेम वर्ष का प्रारम्भ तीन दिन के मौन एवं तीन दिन __ अन्नाहार-प्रत्याख्यान से । ७३. योगक्षेम वर्ष में प्रवचन में एक आसन, एक मुद्रा एवं जागरूकता का अभ्यास । ७४. योगक्षेम वर्ष में शान्त सहवास, दृष्टि-संयम एवं खाद्य-संयम __ का अभ्यास। ७५. संकल्प-शक्ति एवं संयम-शक्ति के जागरण के लिए गुरु-आज्ञा से योगक्षेम वर्ष में एक विशेष संकल्प स्वीकारना। प्रस्तोत्री-माणक मैन Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ता नहीं चिन्तन करोव्यथा नहीं व्यवस्था करोप्रशस्ति नहीं प्रस्तुति करो -आचार्य तुलसी हार्दिक शुभकामनाओं के साथ बद्धमल निर्मलकुमार चोरड़िया शहरीया बास लाडनूं-३४१३०६ (राजस्थान) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याओं से घबराओ मत, सामना करो, समस्यायें स्वतः समाप्त हो जायेगी। -आचार्य तुलसी With Best Compliments Budhmal Choraria Nirmal Choraria Tulsi Ram Choraria Subhash Choraria *** Phone-21449 (0097791) Bharat Milap Dhangadli (Nepal) Viapo :--Gouriphanta Khiri (U.P.) *** Shree Balaji Iudustries 24, Jhilmil Ind. 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Area Delhi-110095 Delhi-110095 Phone-2285309 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पिता परिचय : निरंजना कुमारी जैन 2014 माघ कृष्णा चुतर्थी, लाडनूं (राज०) : श्री बुधमल चोरडिया श्रीमति रतनी देवी बी.ए., होमियोपैथी डिप्लोमा प्राकृत साहित्य (एम.ए.) चालूक्रम स्वाध्याय, ध्यान, जप, योग एवं विविध आध्यात्मिक प्रयोग माता शिक्षा बीती रुचि