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________________ निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है १ हमारे निर्मल चित्त की तरंगें आसपास के वातावरण को प्रभावित कर उसे यथाशक्ति निर्मल बनाती हैं। २ जब-जब हमारा मन विचार-विमुक्त और निर्मल होता है, तब-तब वह स्नेह और सद्भाव से, मैत्री और करुणा से भर उठता है। ३ अपने शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का, अपने चित्त और चित्तवत्तियों का सतत निरीक्षण करते रहने का अभ्यास ही धर्म धारण करने का सही अभ्यास है। ४ धर्म एक आदर्श जीवन शैली है, सुख से रहने की पावन पद्धति है, शान्ति प्राप्त करने की विमल विधा है, सर्वजन कल्याणी आचार-संहिता है, जो सबके लिए है। ५ व्यवहार में जो काम न दे वह धर्म कैसे हो सकता है ? ६ केवल निर्मल हृदय उल्लास जानता है । ७ जिस व्यक्ति में उदारता है, दाक्षिण्य है, पापभीरता है, हर बात में से अनुकूलता स्वीकार करने की वृत्ति है, वह धार्मिक है। ८ धर्म एक दीप है, प्रकाशपुंज है, एक प्रतिष्ठा है, आधार है, एक गति है । यह उत्तम शरण है, जो हमें त्राण देता है। ६ धर्म का अर्थ है—प्रेम, एक-दूसरे के प्रति आदर । १० धर्म की श्रद्धा एक अपूर्व औषधि है । ११ धर्म शुद्ध आत्मा में निवास करता है । १२ धर्म का मूल सूत्र है-पाप से बचो। १३ धर्म का अर्थ है-चेतना को निर्मल तथा पवित्र बनाना। १४ धर्म का अर्थ है-चित्त की एकाग्रता। चित्त की निर्मलता। चित्त पर जमे मूर्छा के मैल का शोधन । निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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