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________________ साधक! १ साधक को संसार में उस मछली की तरह रहना चाहिए जिसका शरीर कीचड़ में रहकर भी निलिप्त रहता है। साबुन से धुले बर्तन की तरह चमकता है। यही निर्लेप भाव आत्म-साधना की रीढ़ है। २ साधक ! समस्त अनुकूल और प्रतिकूल द्वन्द्वों में सतत समतावान रहे, तटस्थ रहे। बाहर से होने वाले आघातों के प्रति सतत जागरूक रहना और अपने मन को किंचिदपि आंदोलित नहीं करना, साधक के लिए नितान्त अपेक्षित ३ साधक को सबसे प्रथम जान लेना चाहिये—उसे कुछ करना पड़ेगा, उसे कुछ होना पड़ेगा, उसे अपने जीवन-विधि में कोई परिवर्तन, अपने जीने के ढंग में कोई भेद, अपने होने की व्यवस्था में कोई क्रांति करनी पड़ेगी तो कुछ हो सकता है, अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता है। ४ साधक ! आशा से भरकर जीवन को देखे ! धैर्य से अनन्त धैर्य से जीवन को देखे । प्रतीक्षा, अनन्त प्रतीक्षा से जीवन को देखे ! ५ साधक, कषायोत्पादक वातावरण को दूर से ही छोड़ दे । ६ साधक के लिए स्पष्ट रूप से आशावादी दृष्टि चाहिए। बहुत प्रकाश पूर्ण पक्ष को देखने की सामर्थ्य चाहिए। प्रत्येक स्थितियों में वह खोज सके कि शुभ क्या है और घने से घने कांटों के जंगल में वह एक फूल भी खोज सके कि यह फूल है तो उसका रास्ता निरन्तर कांटों से मुक्त होता चला जाता ७ साधक ! तूं भूल रहा है गुलाब के नीचे कांटे हैं तो स्वर्ग की रंगीन सुषमा के पीछे दुःख की काली छाया है। साधक ! १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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