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________________ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत १ उठो, जागो, श्रेष्ठजनों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। २ परमार्थ की प्रेरणा के बिना व्यक्ति ऊंचा नहीं उठ सकता। ३ चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की शालीनता अपनाकर मनुष्य ऊंचा उठ सकता है, आगे बढ़ सकता है। ४ जागो ! बैठो ! सोने से तुम्हें क्या लाभ ? (दुःख रूपी) तीर लगे रोगियों को नींद कैसी ? ५ आचार की पवित्रता विचारों की पवित्रता पर अवलंबित है और विचारों की पवित्रता महापुरुषों के सान्निध्य से सुरक्षित रहती है। ६ हमारी संवेदनशीलता, हमारी पात्रता, हमारी ग्राहकता, हमारी रिसिप्टीविटी इतनी विकसित हो कि जीवन में जो सुन्दर है, जीवन में जो सत्य है, जीवन में जो शिव है, वह सब हमारे हृदय तक पहुंच सके। ७ अपने श्रेष्ठ आचारों के प्रति सतर्क तथा धर्म में सदैव प्रतिष्ठित रहने वाला जीवन की संध्या में कभी पश्चात्ताप के आंसू नहीं बहाता है। ८ हम उत्कृष्ट भावनाओं को अपने अन्तःकरण में स्थान देकर ही परमात्म सत्ता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और उसके साथ आबद्ध हो सकते हैं। ९ स्वयं को जो आमूल बदलने को तैयार हो जाता है वह पाता है कि जीवन एक धन्यता है, एक कृतार्थता है। वह परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर उठता है, इतना सुन्दर है जीवन, इतना अद्भुत, इतना रसपूर्ण, इतना छन्द से भरा, इतने गीतों उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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