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________________ भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमच्चइ १ भोगों से आत्मा पर कर्मों का लेप होता है। अभोगी निर्लेप रहता है । भोगी संसार में परिभ्रमण करता है और अभोगी (भोगों का त्यागी) मुक्त हो जाता है। २ ऊपर से सुन्दर लगने वाले विषय अन्त में दुःख देते हैं। ३ विष तो खाने पर मारता है परन्तु विषय स्मरण से भी मार डालते हैं। ४ स्त्रियां अनादर करनेवाली जेल हैं, बन्धुजन बन्धन हैं और विषय विष हैं। मनुष्य का यह कैसा मोह है कि जो शत्रु हैं, उन्हीं से वह मित्रता की आशा करता है। ५ विषय-भोग सांप के फन की तरह शीघ्र ही प्राणों का अप हरण करने वाले हैं। ६ जैसे किंपाक वृक्ष के फलों का परिणाम सुन्दर नहीं है, वैसे ही भुक्त भोगों का भी परिणाम सुन्दर नहीं होता। ७ जब तक हृदय में मूढ़ता है तभी तक ये विषय सुख देते हैं । ८ अभोग का अर्थ केवल छोड़ना नहीं है अपितु अनासक्त भाव का विकास ही अभोग है। ६ कर्म से कर्म के जाल को नहीं तोड़ा जा सकता, अकर्म से कर्म के जाल को तोड़ा जा सकता है। १० वस्तु का उपयोग करें, उपभोग नहीं । उपयोग अनासक्ति की अवस्था एवं उपभोग आसक्ति की अवस्था। ११ विरक्त व्यक्ति संसार-बंधन से छूट जाता है, आसक्त का संसार अनन्त होता चला जाता है । १२ उलझा हआ अज्ञानी राग और स्नेह में रमण कर रहा है। उसे पाप रूप फल भोगना होता है। १३२ योगक्षेम-सूत्र For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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