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________________ १२ प्रकृति की अपेक्षा स्वाध्याय से अधिक मनुष्य श्रेष्ठ बने हैं। १३ जितना ही हम अध्ययन करते हैं, उतना ही हमको अपने अज्ञान का आभास होता जाता है। १४ जो पुस्तकें तुम्हें अधिक सोचने के लिए विवश करती है, उनको ही जानदार मानो १५ ज्ञान का कार्य है-मन को निष्काम बनाना, इच्छामुक्त करना। १६ एक अच्छी पुस्तक महान् आत्मा के जीवन का बहमूल्य रक्त है, जो जीवन के लिए सुरक्षित किया हुआ है । १७ जो मनुष्य एक पाठशाला खोलता है वह संसार का एक जेलखाना बंद कर देता है। १८ विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही अस्त्र हैं। १६ पुस्तकें वे विश्वस्त दर्पण हैं जो संतो और वीरों के मस्तिष्क का परावर्तन हमारे मस्तिष्क पर करती हैं। २० पुस्तकें जागृत देवता हैं, उनकी सेवा करके तत्काल वरदान प्राप्त किया जा सकता है । २१ वह ज्ञान सम्यक है जिस ज्ञान की धारा अपने भीतर की ओर जाती है। २२ शुद्धाचरण, आत्मगौरव, स्वावलम्बी, कर्त्तव्यपरायण और कर्त्तव्याकर्तव्य का विवेक जागृत करने वाली शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा है। २३ जिसके हाथ में दीपक है वही पुरुष यदि कुएं में गिर जाए तो दीपक हाथ में लेने से क्या लाभ ? इसी तरह ज्ञान प्राप्त करने पर भी मनुष्य यदि अन्याय का आचरण करे तो शास्त्र पढ़ने से क्या लाभ ? २४ जिससे तत्त्व जाना जाए, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा की विशुद्धि हो, जिससे जीव राग से विरक्त हो, जिससे श्रेय में रक्त हो, जिससे मैत्री भाव की वृद्धि हो, उसे ही जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है । २५ स्वाध्याय से आत्महित का ज्ञान, बुरे भावों का संवरण, नित्य नया संवेग, चारित्र में निश्चयता, तप, उत्तम भाव और परोपदेशकता-ये गुण उत्पन्न होते हैं । योगक्षेम-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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