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________________ १२ मिथ्या आरोप लगाने वाले के साथ भी प्रेम से हाथ बढ़ाओ। ज्ञान की चक्षु खुलने पर वह स्वयं क्षमा मांगेगा। यदि अज्ञानवश न भी मांगे तो तुम स्मृति में उसका भार कब तक ढोओगे। उसे भूलकर अपने आपको हल्का बना डालो। १३ जो टूटता है वह वास्तविक प्रेम नहीं, अन्दर छुपा स्वार्थ है । वह सधने या न सधने पर कभी न कभी धोखा देता है। १४ जो प्यार सिक्कों की झंकार पर पनपता है, वह नफरत की घाटी में दम तोड़ देता है। जिस पेड़ को धन-दौलत की नदी के पानी से सींचा जाता है उस पर खुशियों के फूल नहीं बल्कि आंसूओं के जहरीले फल उगते हैं। १५ आत्मदान प्रेम है। १६ प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्य की भूख है । १७ दूसरों को प्यार करने में ही प्यार मिलता है। १८ जहां प्रेम के पूष्प हैं वहां ईर्ष्या और द्वेष के कांटे भी हैं। बुद्धिमान वही है जो अपने हृदय को इन कांटों से घायल न होने दे। १६ अपनी प्रसन्नता को दूसरे की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है। २० प्रेम के बिना महल कैदखाना जैसा लगता है जबकि प्रेमपूर्ण ___ झोपड़ी महल से भी अधिक अच्छी लगती है। २१ जो व्यक्ति दूसरों को सहारा देने के लिए तैयार रहता है, उसे जीवन भर लोग प्यार करते हैं। २२ बिना नींव के मकान को ऊपर मत उठाओ । यदि उठाते हो तो उससे दूर रहो। ७६ योगक्षेम-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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