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________________ अन्तर में न्यारा रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल १ मनुष्य को संसार में इस प्रकार रहना चाहिए जिस तरह कमल पानी में रहते हुए भी पानी से भीगता नहीं। इसी प्रकार मनुष्य को संसार में रहते हुए अपना मन ईश्वर और हाथ काम को सौंप देना चाहिए। २ संसार में रहना गुनाह नहीं है, गुनाह है संसार को अपने में रखने में। जैसे हम नाव में बैठकर नदी पार करते हैं, पर नाव से रंचमात्र भी आसक्ति नहीं रखते। वैसे ही संसार में रहकर तमाम कर्मों का निर्वाह करो पर आसक्ति मत रखो। ३ जिस तरह यात्री सराय में रहकर अन्य यात्रियों से मिलता जूलता और हंसता है। वैसे ही हमें भी अपने हमराहियों से दोस्ती निभानी है। न ये हमारे, न हम इनके। अरे भाई ! यह तो भाड़े की नाव है। कभी इस पार तो कभी उस पार। ४ साधक को संसार में उस चिड़िया की तरह रहना चाहिए जो अपनी भींगी पांखों को तुरन्त गड़कर भारहीन हो जाती है। सुबह की धूल शाम तक नहीं बचती और शाम की धूल सुबह तक। ५ सांसारिक कार्यों को उदासीनतापूर्वक करने से उस उदासीनता का लाभ मिलता है-नये कर्मों का बंध नहीं होता। ६ महान् आदमी की महिमा है कि वह भोगों को भी भोगे और राग-द्वेष न करे। ७ परिवार रूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाय, इससे ममता न बढ़ेगी। अन्तर में न्यारा रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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