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माया भीतरी पाप है
१ चित्त में छुपाने की, वस्तुस्थिति को बढ़ाकर एवं घटाकर
प्रस्तुत करना, अपने प्रति यथार्थ दष्किोण से न देखनामाया है। २ मायावी के भीतर हमेंशा शल्य रहता है। मायावी देवता
बनकर भी अपनी इच्छानुसार कर्म नहीं कर सकता। ३ मायावी व्यक्ति बाहर से उलग की पांख से हल्का दिखायी
देता है एवं भीतर से पर्वत से भी भारी होता है। ४ माया अहं या लोभ की रक्षा के लिए की जाती है । ५ पूर्वजन्म की माया से स्वतंत्रता, सम्मान की प्राप्ति नहीं
होती। ६ मायावी व्यक्ति अनन्त गर्भो को धारण करता है, गर्भ से
निकलते समय अनन्त यातनायें भुगतनी पड़ती हैं। ७ जहां जितना लुकाव-छिपाव, अलगाव होगा, वहां उतनी ही
माया पैदा होगी। ८ माया का अर्थ है-अनेक रूप होना। है कुटिल मन वाला मुक्त नहीं हो सकता । १० सरलता के लिए चतुर मन न हो, चतुर मन बौद्धिक, दार्शनिक
बन सकता है, आत्मस्थ नहीं।। ११ माया आगामी जीवन की सरलता को भी विकृत बना देती
१२ ध्यान-साधक माया से बच सकता है। १३ वस्तु को छुपाना इतना भयंकर नहीं जितना अपने आपको
छुपाना है। १४ जब व्यक्ति का मन नीचे गिरने लग जाता है तो वह हल्के से
हल्का काम करने लग जाता है । १५ जिसकी एक दिशा नहीं होती वह न जीता है न मरता है। १६ जहां माया होती है वहां क्रोध, मान और लोभ भी उपस्थित
रहते हैं। माया में क्रोध, मद और लोभ से उत्पन्न सभी दोष रहते हैं।
योगक्षेम-सूत्र
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