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________________ मनुष्य का सुख संतोष में है १ सच्ची प्रसन्नता मन से उत्पन्न होती है अतः मन का संतोष पाने का प्रयत्न करो । २ सन्तोष संसार की समस्त आत्माओं के साथ आत्मीयता एवं मित्रता स्थापित करने का परम साधन है । ३ सन्तोष आत्मा की सन्निकटता प्राप्त करने का अमोघ उपाय है। ४ सन्तुष्ट मन एक अविराम उत्सव है । सन्तोषी व्यक्ति सदा शान्त और पवित्र होता है ! सन्तोष से सम्पन्न व्यक्ति में ही आत्मज्ञान का उदय होता है । ५ सुख साधनों में नहीं - प्राप्त साधनों में संतोष कर लेना है । ६ सन्तोष धर्म से सत्य की प्राप्ति होती है । ७ सबसे अधिक प्राप्ति उसी को होती है जो सन्तुष्ट होता है । सन्तोष के कारण ही मानव उन्नत बनता है । मानसिक आकुलता का अभाव संतोष के प्रभाव से होता है । 8 अहंकार को छोड़कर विपत्ति को भी सम्पत्ति मानना संतोष है । १० प्रसन्नता और सुख वर्तमान में सामंजस्य एवं संतोष में है । ११ सन्तोष मनुष्य के अपने उज्जवल दृष्टिकोण पर निर्भर है । यदि आपका दृष्टिकोण परिमार्जित और समीचीन है तो कोई कारण नहीं कि आप अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तुष्ट न रह सकें और आपको उत्तम सुख प्राप्त न हो सके । १२ तृप्ति के साथ अतृप्ति जुड़ी रहती है किंतु तोष के साथ, संतोष के साथ कुछ भी जुड़ा नहीं रहता । १३ प्रार्थना द्वारा कुछ मांगना है तो ऐसी कोई चीज मत मांगो जो अविनाशी है । १४ किसी से कुछ भी नहीं लेना' ऐसा निश्चय जिसके चित्त में आ गया हो, वही मानव सचमुच स्वतन्त्र है । १५ सन्तोष ही श्रेष्ठ सुख है । १६ असन्तोष दरिद्रता है, सन्तोष सम्पन्नता है । १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only योगक्षेम-सूत्र www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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