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रीतिकाव्य शब्दकोश
डॉ.किशोरीलाल
-किशोरीलाल
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रीतिकाव्य शब्दकोश
डॉ.किशोरीलाल
स्मृति प्रकाशन
इलाहाबाद
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संस्करण
प्रथम, १६७६
प्रकाशक
स्मृति प्रकाशन १२४, शहराराबाग
इलाहाबाद स्टैण्डर्ड प्रेस २ बाई का बाग इलाहाबाद
मुद्रक
मूल्य
प्रकाशन इलाहाबाद
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प्रस्तावना
हिन्दी के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते समय मैंने बहुत पहले एक ब्रजभाषा कोश की मपेक्षा का अनुभव किया था, पर उस समय नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हिन्दी - शब्द-सागर के अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य काश उपलब्ध नहीं था, जो प्रायोगिक साक्ष्यों के माधार पर प्राचीन शब्दों का वास्तविक ज्ञान करा सके । इसमें संदेह नहीं कि संस्कृत में वी० एस० आप्टे का संस्कृत अंग्रेजी कोश प्रायोगिक साक्ष्यों की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण कोश माना जाता है । पर हिंदी के प्राचीन काव्यों का अध्ययन अध्यापन भक्ति अथवा रीति वाङ्मय के एक मानक समिधान के अभाव में प्रायः पीछे छूटता गया, और परिणामतः लोग प्राचीनता को छोड़कर नवीनता की ओर लपके, क्योंकि यहाँ प्राचीन काव्यों की मांति अर्थ समझने की समस्या प्रायः गौण थी ।
प्राचीन काव्यो में रमने को जैसो वृत्ति और लगन पुराने खेवे के साहित्यकारों में थी, वैसी प्रायः नये सहित्यकारों में लचित नहीं होतो । कारण स्पष्ट है, तब डिग्री धारियों का ऐसा बोल बाला नहीं था जैसा अब । स्वयं पं० रामचन्द्र शुक्ल एवं लाला भगवानदीन दोन डाक्टर होना तो दूर रहा किसी विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट भी नहीं थे, किन्तु उस युग के कितने ऐसे डी० लिट् उपाधिकारी अब भी हैं, जिन्हें प्राचार्य शुक्ल जो ने उनके शोध प्रबन्ध को फिर से लिखने की सलाह दी थी । यह थी डिग्री विहीन मनीषियों को मनस्विता, जिस पर ब्राज भी हिन्दी साहित्य को गर्व है । लाला जी और आचार्य शुक्ल जी में प्राचीन काव्यों में प्रयुक्त अप्रचलित एवं विकृत शब्दों को पकड़ने की जैसी क्षमता थी, यदि उसे कसौटी बना कर विश्वविद्यालयों में सम्प्रति नव नियुक्तियां की जांय तो कितने ही विभाग के महन्त शिष्यमण्डली समेत बहिर्गत होने को वाध्य होगें ।
बाज तो युग और परम्परा बदल चुकी है । अब न देव के ग्रन्थों का अर्थ समझना है और न बिहारी और पद्माकर की काव्यगत विशिष्टता । उलटे लाला भगवान दीन जी की खिल्ली इस लिए उड़ाई जाती है कि वे केवल टीकाकार थे समर्थ आलोचक नहीं, पर जो मूलग्रन्थों को पूर्णतया नहीं समझ पाता वह झूठी मालोचना की जिला और पालिश से काव्य में कहां तक दीप्ति उत्पन्न कर सकता है, यह सहज सम्भाव्य है । वस्तुतः लाला जी हिन्दी के मल्लिनाथ था उन्होंने उस युग में केशव एवं बिहारी के दुरूह ग्रन्थों का माष्य प्रस्तुत किया जब हिन्दी के प्राचीन शब्दों का कोई कोश नहीं था मौर केवल संस्कृत के कोशों से पूर्णतया काम चल नहीं पाता था । रामचन्द्रिका मोर सतसई उस समय मी एम० ए० के पाठ्यक्रम में निर्धारित थी । प्रयाग के स्वर्गीय डा० धीरेन्द्रवर्मा और बाबूराम सक्सेना इस बात के साक्षी हैं कि जब लाला जी की "केशव कौमुदी" प्रकाशित नहीं थी, उस समय दोनों महानुमाव किस कठिनाई से अर्धरात्रि तक पढ़ते थे और सुबह क्लास में छात्रों को ठीक-ठीक अर्थ बताने में धाना-कानी करते थे । लाला जी का बचपन बुंदेलखण्ड के उन अंचलों में बीता, जहां केशव, बालमे, ठाकुर, जैसे बुंदेलखण्डी कवियों द्वारा प्रयुक्त शब्दावली जन कण्ठ पर विराजमान है । क्या बुंदेलखण्डी का ठीक ज्ञान न रखने पर केवल संस्कृत कोशों के आधार पर केशव के ग्रन्थों का ठीक ठीक अर्थ किया जा सकता है ? इसका सहज उत्तर होगा कथमपि नहीं । वास्तव में लाला जी के श्रम एवं उनके
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( ४ ) वैदुष्य का मूल्यांकन वे ही कर सकेगें, जिन्हें प्राचोन काव्यों के दुरुह एवं ध्वान्तपूर्ण मार्ग से गुजरना पड़ा है। ऐसे दुर्गम कान्तार में भी लाला जी ने अपने भाष्य का जैसा पालोक बिखेरा है और पथ की भीषणता का जैसा परिहार किया है, इसे उस पथ के सच्चे पथिक ही बता सकते हैं।
कहा जाता है कि कालिदास की वाणी दुख्यिारूपी विष से मूछिता थी उसे मल्लिनाथ की संजीवनी व्याख्या ने पुनर्जीवित किया । इसमें सदेह नहीं कि प्राचीन काव्यों की अनेकशः भ्रांतियों का निराकारण करने वाली लाला जी की संजीवनी व्याख्या ने मृतप्राय रीति काव्य को पुनः नवजीवन दान दिया। लाला जी के समान पाचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल घनानन्द को कितना समझते थे और सेनापति कृतं कवित्त रत्नाकर के 'श्लेषतरगं" के संश्लिष्ट पर्थ को खोलने में वे कितना जुटते थे और पाने वाली कठिनाइयों से ग्रीष्मावकास के चरणों में कितना जूझते थे इसका ज्वलन्त प्रमारण पं. उमाश'कर जी शुक्ल हैं, जिन्हें सेनापति की कठिनाइयों के सिलसिले में शुक्ल जी का द्वार खटखटाने का प्रवसर प्राप्त हो चुका है।
हिन्दी के पूर्वमध्ययुग की रचनाओं के आधार पर एक कोश प्रस्तुत करने की योजना डा० माता प्रसाद गुप्त ने बनाई थी,किन्तु उनके असामयिक निधन से यह कार्य पड़ा ही रह गया। इधर विशेषतया प्रहिन्दी भाषाभाषियों की कठिनाइयों को दृष्टि-पथ पर रखकर मैंने केवल रीतिकाव्य से सम्बन्धित एक ऐसे कोश की रचना का विचार किया, जिसमें केशव से लेकर ग्वाल तक की शब्दावली उक्त कोश में पा जाय । पर कार्य की गुरूता को देखते हये इस कार्य में संलग्न होने का साहस न कर सका । कदाचित कोई सहायक मिलता तो कार्य की गुरुता को समेटने का यत्किंचित साहस भी प्रदशित करता, पर ऐसा अवसर नहीं मिला।
करीब आठ दस साल पूर्व मैंने प्राचीन हिन्दी काव्य की पाठ एवं अर्थ-समस्या विषय पर कई लेख प्रस्तुत किए थे, जो 'हिन्दुस्तानी', 'सम्मेलन पत्रिका', पौर 'रसवन्ती' में प्रकाशित भी हुए थे। उनका पुर्नमुद्रण मैंने प्राचीन साहित्य के कई विद्वानों की सेवा में भेजा था । उन लेखों में कुछ ऐसे शब्दों पर प्रथम बार विचार हुपा था, जिनकी प्रकाशित कोशों में कुछ भी चर्चा नहीं थी। मेरे इस प्रयास को काशी के प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद जी मिश्र, स्व० डा० भवानी शंकर याज्ञिक, स्वर्गीय ब्रजरत्नदास बी० ए, तथा स्व० प्राचार्य रामचन्द वर्मा के अतिरिक्त श्री प्रभुदयाल जी मीतल एवं डा. सत्येन्द्र जी ने पर्याप्त श्लाघा की थी। श्री मीतल जी ने तो प्राचीन हिन्दी काव्य के एक कोश की आवश्यकता पर बल भी दिया था, पर इस कार्य को व्यय एवं श्रमसाध्य समझ कर वे कुछ अधिक नहीं कह सके । कुछ वर्ष पूर्व जब वे 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि लेने के लिए प्रयाग पधारे तो मैंने कोश की पुनः चर्चा की, पर अपनी अवस्था और कार्य की गुरुता को समझते हुये वे इस सम्बन्ध में मौन ही रहे।
. कोश की पुनः चर्चा चलने पर हमारे सहपाठी पं० हरिमोहन मालवीय और 'स्मृति प्रकाशन' के अधिकारी पं० बालकृष्ण त्रिपाठी के निरन्तर पाग्रह ही नहीं परम दुराग्रह के कारण मुझे वाध्य होकर अपने दुर्बल कंधों पर यह मार लेना ही पड़ा । सच तो यह है कि यदि इन दोनों महानुभावों का कशाघात मेरे ऊपर न पड़ता तो कह नहीं सकता कि मुझ जैसे प्रमादी एवं मालसी व्यक्ति से यह
१-मारती कालिदासस्य दुव्याख्या विषमूर्छिता । एष संजीविनी व्याख्या तामद्योज्जीवयिष्यति ।
-कुमारसंभव-प्रथम सर्ग
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योजना कार्यान्वित होती अथवा नहीं। मैंने
उक्त दोनों सज्जनों के प्रादेश से १५ अगस्त १६७३ से कार्य प्रारम्भ किया और ऐसा विचार किया गया कि प्रस्तुत कोश में प्रथमतः चार और पाँच हजार से अधिक शब्द न रखे जाँय और जो मी शब्द संकलित हों उनकी निरुक्ति और प्रयोग को अधिक वरीयता दी जाय । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, अद्यावधि प्रायोगिक वैशिष्ट्य को दृष्टि में रखते हुए कोई भी ऐसा कोश हिन्दी में देखने को नहीं मिला । अतः प्रस्तुत कोश इस दिशा मे निश्चय ही एक नव्य प्रयास है, इसमें किंचित सन्देह नहीं । कोश प्रस्तुत करते समय कुछ गुरुजनों और मित्रों की यह सलाह थी कि इस कोश में रीतिकाव्य के शास्त्रीय शब्दों को भी समेटा जाय पर मैंने जानबूझ कर उन्हें इसलिए नहीं रखा कि शास्त्रीय शब्दों का एक स्वतन्त्र कोश प्रस्तुत कोश के अतिरिक्त निर्मित किया जा सकता है । पुनः रीतिकाव्य के बहुत से शास्त्रीय शब्द 'साहित्यकोश' में अन्तर्भूत हो चुके हैं ।
नागरी प्रचारिणी सभा के हिन्दी शब्द-सागर के निकल जाने पर कुछ स्थानिक बोलियों के भी कोश प्रकाशित हुए जिनमें 'अवधी कोश' और 'सूर ब्रजभाषा कोश' मुख्य हैं । 'अवधी कोश' का सम्पादन श्री रामाज्ञा द्विवेदी "समीर" ने किया और 'सूर ब्रजभाषा कोश' का सम्पादन कार्य डा० दीन दयाल गुप्त एवं डा० प्रेमनारायण टण्डन के समवेत प्रयास से पूरा हुआ । अवधी कोश की तुलना में सूर ब्रजभाषा कोश की कलेवर वृद्धि अधिक की गयी और अन्ततः यही निष्कर्ष निकालना पड़ा कि सूर के कठिन एवं महत्व के शब्दों पर उतना विचार उक्त कोश में नहीं किया गया, जितना अनावश्यक विस्तार एवं उपवृ हरण ब्रजभाषा के व्याकरणीय रूपों पर । इसी प्रकार 'अवधीकोष' में भी महत्वपूर्ण शब्दों को स्थान देने के बजाय अति सरल और सामान्य कोटि के शब्दों से उक्त कोश को लाद दिया गया । और उसमें सूफी साहित्य की मुख्य शब्दावली का समावेश करना तो दूर रहा तुलसीदास के भी पूरे शब्द नहीं आ सके ।
मैंने “ रीतिकाव्य-शब्दकोश" के प्ररणयन में उक्त प्रयास किया है तथा उन्हीं शब्दों का संकलन किया है साधारण कोटि के शब्दों को जान-बूझ कर छोड़ दिया को ग्रहण करने की चेष्टा की गयी है तो उनके विशिष्ट अर्थ के बोधक होने के कारण । उदाहरणार्थं गंग कवि के एक छंद में मुझे 'धजा' शब्द प्राप्त हुआ, जिस प्रसङ्ग में यह शब्द प्रयुक्त है, वहाँ यह 'ध्वजा' प्रथं का बोधक न होकर 'मस्तक' या 'सिर' के अर्थ में गृहीत हुआ है ।
कोशकारों की प्रवृत्ति से मरसक बचने का जो विशिष्ट महत्त्व के हैं । पल्प महत्व एवं गया है और यदि सामान्य कोटि के शब्दों
अभी तक हिन्दी कोशों में प्रायः कूटात्मक शैली या प्रवृत्ति के शब्दों की उपेक्षा की गई है । किन्तु जब प्राचीन हिन्दी काव्य का अध्येता अपनी जिज्ञासा के शमन के निमित्त हिन्दी कोशों के पृष्ठ पलटता है तो उसे निराश होना पड़ता है । मैंने यथाशक्य ऐसे कुटात्मक शब्दों को भी ग्रहण करने की चेष्टा की है; यथा श्राचार्यदास ने लक्ष्मण जी के लिए सौ हजार मन [ सौहजार = लक्ष + मन] शब्द का प्रयोग अपने 'काव्य निरय' में यथा प्रसङ्ग किया है । मैंने कोश के उपयुक्त समझ कर ऐसे शब्दों को सहर्ष प्राकलित करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं किया ।
हिन्दी रीति-काव्य में कुछ ऐसे मुहावरे भी दृष्टिगत हुए हैं जिनका चलन अब नहीं रह गया । ऐसे मुहावरों पर भी प्रासङ्गिक दृष्टि से पुन: विचार किया गया है; यथा 'शृङ्गार-संग्रह' के एक में यह मुहावरा—“मेरो मन माई री बहीर को ससा भयो” सर्वथा नूतन है । ब्रजभाषा के थोड़े
छन्द
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से हो कवियों में ऐसा मुहावरा देखने को मिला है । प्राचीन काव्य में इस प्रकार के मुहावरे मुझे जहाँ कहीं मिले हैं, मैंने उन्हें निःसंकोच ग्रहण किया है ।
प्राचीन शब्दों का चयन करते समय लिंग एवं क्रियाओं के रूप निर्धारण करने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा । कारण यह है कि खड़ी बोली में लिंग और क्रियाओं के स्वरूप बहुत कुछ स्थिर हैं, पर ब्रजभाषा और अवधी सादि की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । कुछ उदाहरणों से हमारे कथन की पर्याप्त पुष्टि हो सकती है । यथा, ब्रजभाषा में 'गेंद' स्त्रीलिंग में प्रयुक्त हुआ है,
पर साधारणतः यह पुलिंग में ही गृहीत होता है । इसी प्रकार “शोर" शब्द है तो पुलिंग के अन्तर्गत, किन्तु दीनदयाल गिरि के प्रयोग से स्पष्टतया प्रतीत होता है कि यह स्त्रीलिंग है, नमूना लें -- " सुनै कौन या ठौर जिते ये खल की सोरैं ।" पुनः क्रियानों के सकर्मक और अकर्मक रूपों के निर्धारण में कहीं-कहीं रुकना पड़ा है, फिर भी उनके सम्बन्ध में यत्र-तत्र मतभेद की मी गुंजाइश हो सकती है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता ।
मुद्रित ग्रन्थों से ही किया गया है । मुद्रित ग्रन्थों में अधिकांशतः ऐसे बनारस के लाइट प्रेस, भारत जीवन प्रेस, लखनऊ के नवल किशोर कृष्णदास के यहाँ से प्रकाशित हुए थे । इन ग्रन्थों के शुद्ध पाठ को
शब्दों का चयन प्राप्त ग्रन्थ भी हैं, जो सैकड़ों वर्ष पूर्वं प्रेस तथा बम्बई के खेमराज श्री समझने और उनके मूल रूपों की कल्पना करने में मेधा को कहाँ तक दौड़ लगानी पड़ी है, इसे भुक्त भोगी ही समझ सकते हैं । हाँ, मथुरावासी पं० जवाहरलाल चतुर्वेदी को ऐसे पाठों से बहुत बड़ी शिकायत होगी । पर चतुर्वेदी जी यह भूल जाते हैं कि सम्प्रति हस्तलेखों की उपलब्धि ब्रह्म प्राप्ति से मी कठिन तथा दुर्लभ है । वस्तुस्थिति यह है कि राजाश्नों की लाइब्रेरी में तो सामान्य व्यक्ति का पहुँचना ही अति कठिन है, पर जहाँ नागरी प्रचारिणी सभा, काशी और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग जैसी राष्ट्रीय संस्थानों के हस्तलेखों के विनियोग-उपयोग का द्वार भी सामान्य व्यक्ति के लिये बन्द हो वह कौन सा द्वार खटखटाए ? वस्तुतः यह दुख का विषय है कि जिस पुनीत भावना से प्रेरित होकर वहाँ डा० श्यामसुन्दर दास एवं राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जैसी विभूतियों ने हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि एवं संवर्धन के निमित्त उक्त स ंस्थाओं को स ंस्थापना की थी, वे ही आाज दलबन्दी, जातीयता, सकता एवं स्वार्थपरक विचारों के पंक में पड़कर अपने लक्ष्य से स्खलित हो रही हैं - च्युत हो रही हैं । सत्य तो यह है कि बहुत लिखा-पढ़ी करने के पश्चात् यदि हस्तलेखो को देखने का अधिकार मिल भी गया तो प्रतिलिपि के अधिकार से तो सतत प्रयत्न करने पर भी वंचित होना पड़ता है । यदि किसी उदारमना अधिकारी से प्रतिलिपि करने का आदेश मिल भी गया तो उतने अंश का ही जितना वह "ऊँट के मुंह में जीरा" कहावत को चरितार्थ करता है । साहित्य के प्रबुद्ध अध्येता को इस रहस्य के समझने में किंचित देर नहीं लगेगी, यदि दृष्टि फैला कर भीतरी कुचक्रों और राजनैतिक झंझावातों को समझने का कुछ अवसर मिले । कहा जाता है कि इन स ंस्थाओं के अधिकारियों की ग्रन्थ- प्रकाशन की अपनी योजनाएँ हैं और ऐसे योजनाबद्ध स्वांग और नाट्य-प्रदर्शन से सरकार के साथ भी प्रवंचना की जाती है ।
ऐसी स ंस्थानों से पुस्तकें धड़ल्ले के साथ निकल रही है, प्राचीन ग्रन्थों का मी खूब सम्पादन हो रहा है | सम्पादक जी भले ही सम्पादन- कला की बारहखड़ी भी न पढ़े हो, पर सम्पादन कार्य में वे मूर्धन्य स ंपादकों में परिगणित होते हैं । सम्पादन उन्हीं का है या किसी से कराया गया है, यह भी
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एक रहस्य का विषय है । सम्पादन के नाम पर रचनावली या छन्दावली को “ग्रन्थावली” का भी जामा पहना दिया जाता है । " कृपाराम ग्रन्थावली” में कितनी ग्रन्थावलियाँ हैं, ईश्वर ही जाने । " सोमनाथ ग्रन्थावली" के पाठ की कैसी-कैसी कचूमर निकाली गई है, इसे जानने के लिए उक्त ग्रन्थावली का अवलोकन अवश्य करना चाहिए, जो कलेवर और मूल्य दोनों ही में भारी-भरकम है । यदि नमूने के लिए सम्पादक जी से पूछा जाय कि "कैसे ताहि लाऊँ ताकी छांह भई सखी डोल, भूषन समूल उदो कोढि करवीन कौ ।"" का क्या अर्थ है तो सम्पादक जी बगलें झांकने लगेगें । इसी प्रकार “अनुक्रमणिका' में जिन शब्दों का अर्थ दिया गया है, वे अति सरल और सामान्य पाठकों के लिये पूर्ण बोध गम्य हैं, किन्तु जहाँ "बखियान” २ जैसे कठिन शब्दों के अथं लिखने की बात आई, वहाँ सम्पादक महोदय ररण से पलायन कर गये ।
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ऐसी स्थिति में प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन और प्राचीन शब्दों का कोश कैसे और किस बल बूते पर प्रस्तुत किया जाये । जहाँ आर्थिक लाभ कम हो और श्रम अधिक करना पड़े, वहाँ किसे फुरसत है कि वह ऐसे गोरखधन्धे में पड़े । साधना के ऐसे पथ पर निस्पृहभाव से लगने वाले आचार्यं पं० विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र जैसे तपस्वी ही हो सकते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि पद्माकर, दास भूषरण, बिहारी, मतिराम ठाकुर, घनानन्द प्रादि की सुसम्पादित रचनाओं से शब्दाकलन में जितनी सुविधाएँ मिली, उतनी ही कठिनाइयाँ विकृत एवं अवैज्ञानिक प्रक्रिया से सम्पादित ग्रन्थों से मी मिली । जहाँ तक ज्ञात है, ग्वाल, पजनेस, रघुनाथ, चिन्तामणि त्रिपाठी श्रादि रीतिकवियों के ग्रन्थ पुरानी शैली की सम्पादन विधि के अनुसार ही सम्पादित हुए हैं । इनमें बहुत कुछ मूल की त्रुटियाँ हैं और उनसे बढ़कर तत्कालीन मुद्रण-जनित अशुद्धियाँ भी भरी पड़ी हैं । कुछ ग्रन्थ तो ऐसे भी देखने को मिले हैं जो बहुत पहले पाषाण यंत्रालय में मुद्रित हुये थे । लीथों में छपे इन ग्रन्थों में एक ही पंक्ति में इस प्रकार मिलाकर लिखा गया है कि उसका शुद्ध-शुद्ध पढ़ना भी अब मुश्किल हो रहा है । नमूने के लिए चाहे आप "सुन्दर कोप नहीं सपने” पढ़ लें अथवा "सुन्दर को पनही सपने”; स्थिति अधिकतर ऐसी ही है ।
कोश में जिन शब्दों का समावेश किया गया है उनके अर्थ और पाठ के सम्बन्ध में यथा शक्य पर्याप्त विमर्श करने का अवसर मिला है, पर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराद्ध के रीतिकवियों ने शब्दों की ऐसी कपाल-क्रिया की है कि अब उनका मूल अर्थ बताना मी दुस्तर हो रहा है । ऐसी स्थिति में शुद्ध अर्थ का पूर्णं दावा नहीं किया जा सकता । हाँ, अपने सन्तोष के लिए बहुत से शब्दों के शुद्ध पाठ और श्रथं पर विचार करने के लिए इस विषय के कतिपय विद्वानों से भी सम्पर्क स्थापित करना पड़ा है ।
पिछले खेवे के कवियों में पजनेस और ग्वाल की रचनाओंों का अभी तक कोई सुसंपादित संस्करण देखने को नहीं मिला, केवल नखशिख विषय का एक पुराना संग्रह "पजनेस प्रकाश” नाम से भारत जीवन प्रेस, काशी ने बहुत पहले प्रकाशित किया था । वही संग्रह यत्र-तत्र उपयोग में लाया जाता है । इस मुद्रित संस्करण में प्रेस की इतनी अशुद्धियाँ मरी पड़ी हैं कि शुद्ध पाठ और अर्थ
१. सोमनाथ ग्रन्थावली - खण्ड १, पृष्ठ १६७ । २. वही, पृष्ठ १-२ ।
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ग्रहण करने में काफी परेशान होना पड़ा । ग्रंथ में संस्कृत मोर फारसो के ऐसे मप्रचलित एवं मल्प प्रयुक्त शब्दों की प्रचुरता है कि कहीं-कहीं पर्याप्त दृष्टि गड़ाने पर मो ठोक अर्थोपलब्धि नहीं हो सकी, अतः असमर्थ होकर उन शब्दों का मोह छोड़ देना पड़ा ।
ग्वाल की अधिकांश रचनाएँ अप्रकाशित हैं । इनको प्रकाशित रचनाओं में कविहृदय विनोद, यमुना लहरी, षट्ऋतु और नखशिख है । "कविहृदय विनोद" बहुत पहले मथुरा से लीथो में मुद्रित हुआ था उसका पाठ इतना भ्रष्ट है कि उसके आधार पर सही-सही अर्थ निकालना अति कठिन है । " यमुना लहरी" मुंशी नवलकिशोर प्रेस के अतिरिक्त काशी के भारतजीवन प्रेस से भी छप चुकी है । " षट्ऋतु" को प्रथम बार भारत जीवन प्रेस, काशी ने ही प्रकाशित किया था, किन्तु पाठ इस ग्रन्थ का मा सन्तोष जनक नहीं है । "नखशिख" लक्ष्मीनारायण प्रेस, मुरादाबाद से सन् १९०३ में प्रका शित हुआ था । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त ग्वाल के कुछ संग्रह ग्रन्थ मी छपे हैं, जिनमें भारतवासी प्रेस, दारागंज से प्रकाशित 'ग्वाल रत्नावली' अग्रवाल प्रेस, मथुरा से मुद्रित 'ग्वालकवि' प्रमुख है । सुना गया है कि पाचायं पं विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र ग्वाल के समस्त ग्रन्थों का सम्पादन बहुत समय से कर रहे हैं । प्रतः अधिकारी विद्वान द्वारा सुसम्पादित होने वाली “ग्वाल ग्रन्थावली" निश्चय ही महत्वपूर्ण होगी ।
मुझे ग्वाल के मुद्रित ग्रन्थों से कोश के लिए जिन शब्दों का संग्रह करना पड़ा, उनसे पदेपदे भ्रमित होना पड़ा है । कारण यह है कि ग्वाल ने शब्दों की ऐसी कांट-छांट और तराश की है कि पहले तो उनके पसली रूप का जल्दी पता ही नहीं चलता मौर यदि कहीं पाठ भी विकृत हो गया तो ग्वाल के प्रध्येता को निश्चय ही पथ भ्रष्ट हो जाना पड़ा है ।
ग्वाल ने यत्र-तत्र संस्कृत और फारसी के मिश्रण से नये शब्द भी गढ़ने का यत्न किया है; यथा-स ंस्कृत ‘सिता' (मल्लिका) और फारसो 'आब' (जल या मकरन्द) के योग से सिताब शब्द प्रस्तुत किया जो फारसी 'शिताब' (शीघ्र ) से सवथा भिन्न है । इसी प्रकार फारसी के अपभ्रंश शब्दों के प्रयोग में उन्होंने इतनी निरंकुशता प्रदर्शित की है कि बेचारा "तौहीन" "ताहिनो” में बदल गया है मोर "मुकावा' 'मुकब्बा' का रूप ले बैठा । प्राचीन शब्दों की विकृतियों की इस कुज्झटिका में वास्तविकता की रश्मियाँ कहाँ खो गयी जल्दी, पता नहीं चलता ।
ब्रजभाषा का शब्द भण्डार हिन्दी की अन्य कारण यह है कि ब्रजभाषा धार्मिक और राजनैतिक स्व॰ डा० धीरेन्द्र वर्मा ने बहुत पहले ब्रजभाषा बोलने से इस प्रकार प्रस्तुत किया है :
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विभाषाधों से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न है । दोनों कारणों से दूर-दूर तक फैली हुई थी, वालों को संख्या का मांकड़ा तुलनात्मक दृष्टि
ब्रजभाषा बोलने वाले युरोप के आस्ट्रिया, बलगेरिया, संख्या से लगभग दुगुने हैं तथा डेनमार्ग, नार्वे या स्विटज़रलैंड की
पुतंगाल या स्वंडिन देशों की जनजनस ंख्या के लगभग चौगुने । चित्र गांत से होता प्रदेश की सीमा से
इसके अतिरिक्त व्रजभाषा का परिविस्तार राजदरबारों में भी उत्तरोत्तर गया । परिणाम यह हुआ कि हिन्दी रीति साहित्य की बहुत सी रचनाएँ हिन्दी
१. ब्रजभाषा व्याकरण - डा० धीरेन्द्र वर्मा, पृ० १४ ।
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बाहर भी निर्मित होने लगीं। स्वयं हिन्दी प्रदेश के रहने वाले ग्वाल और चन्द्रशेखर बाजपेयी पटियाला और नामा प्रदेश में रहकर दीर्घकाल तक रीतिकाल का सृजन करते रहे । यही कारण है कि इनकी रचनाओं पर उर्दू, फारसी के प्रभाव के अतिरिक्त यत्र-तत्र पंजाबी का मी प्रमाव लक्षित होता है । चन्द्रशेखर बाजपेयी के एकाध छन्द में पंजाबी क्रियापदों को भी झलक मिलती है, यथा 'होदा मन मुदित घरोदा सुख देत मट् निबिड़ निकुंज जे जसोदा के नगर मैं ।'
स्पष्टतया इस पंक्ति में 'होदा' शब्द 'होना' अर्थ में प्रयुक्त है, किन्तु 'धरोदा' में पंजाबी षष्ठी विभक्ति 'दा' लगाकर कवि ने 'घर का' अर्थ ग्रहण किया है। इसी प्रकार पंजाबी की षष्ठी विभक्ति का प्रयोग बेनी प्रवीन के 'नवरस तरंग' में भी देखने को मिला है
पाई सग सखिन के पनिघट तें लै घट, बोली तौलौं सारसी अचानक ही बनदी। टपकत आँसू तपकत हियरा है सियरा, है अति कहति बिसारी दसा तनदी । दीन्ही पानि पान के सुपानि धरि अापने ही, जाने की प्रवीन बेनी बिथा वाके मनदी।
अधिकांश रीति काव्य है तो ब्रजभाषा में रचित परन्तु बुन्देलखण्डी का मी अमिट प्रभाव उस पर है, विशेषतया उन कवियों पर इसका बहुत अधिक प्रमाव पड़ा है जो बुन्देलखण्ड से घनिष्ट सम्बन्ध बनाये हुए थे। केशव, बिहारी, ठाकुर, प्रतापसिंह के अतिरिक्त बुन्देलखण्डी शब्दों की प्रचुरता बकसी हसराज कृत "सनेहसागर" में स्थान स्थान पर मिलेगी । ब्रजभाषा मर्मज्ञ लाला भगवानदीन ने उक्त ग्रन्थ का सम्पादन करते समय बुन्देलखण्ड के ठेठ और वहां के ग्रामीण अंचलों में बोले जाने वाले शब्दों पर पूर्ण विचार किया है।
मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि प्रस्तुत कोश की रचना करते समय मैंने मूल ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों का ग्रहण उनके अनुषंगों का पूर्ण ध्यान रखकर ही किया है तथा काव्यग्रन्थों में प्रयुक्त जिन शब्दों का प्रर्थ स्पष्ट नहीं था, उन्हें भरसक समझने का यत्न किया है और यत्न करने पर मो जहाँ कोई मार्ग नहीं मिला वहीं उन शबदों को त्याग देना पड़ा । बिना अर्थ और प्रसंग-विधान को समझे कल्पना के बल पर किसी शब्द को बलात् रखने का प्राग्रह कहीं भी लक्षित नहीं होगा। हां, यह पवश्य है कि जहाँ पूर्वी कोशकारों का कहीं भी सहारा नहीं मिला, वहाँ प्रसंग-संपुष्ट प्रथं को ग्रहण करने में मुझे किसी भी प्रकार की झिझक नहीं हुई।
शब्दों के ठीक अर्थ-बोध के साथ ही उनकी निरुक्ति की समस्याए कम जटिल न थी, पर मुझे हर्ष है कि अधिकांश स्थलों पर नागरी प्रचारिणी समा के "हिन्दी शब्द सागर" के अलावा "प्राकृत शब्द महाणंव" वी० एस प्राप्टे कृत संस्कृत अंग्रेजी कोश मोनियर विलियम्स कृत विशाल संस्कृत अंग्रेजी कोश, उर्दू हिन्दी कोश' एवं अंग्रेजी कोश से मुझे बहुत बड़ी सहायता मिली है। मैं एतदर्थ उक्त कोशों के सुविज्ञ एवं सुधी संपादकों का हृदय से आभारी हूँ। कोश में जहां निरुक्ति की ठीक दिशा ज्ञात नहीं हो सकी वहां अज्ञात सूचक चिह्नों द्वारा कोष्ठकों में इगित कर दिया गया है और यथा संभव प्रयुक्त छंद की पंक्तियों में कवि का नाम दे दिया गया है। किन्तु जहां कवि का नाम ज्ञात नहीं हो सका, वहां मूल नथ अथवा संग्रह प्रथ का उल्लेख मात्र कर दिया गया है । ठीक अर्थ
१. रसिक विनोद- चन्द्रशेखर बाजपेयी, पृ० ०२ प्रथम संकरण । २. नवरस तरङ्ग-बेनी प्रवीन पृ० १६, प्र० सं० ।
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ग्रहण करने के लिये इन कोशों के अतिरिक्त कुछ अतिशय पुराने कोशों को भी देखना पड़ा है। इनमें श्री धर भाषा कोश [सन् १८७४ ई० में नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित] 'फैलन कोश' तथा प्लाटस कोश [सन् १८८४ में लंदन से प्रकाशित] मुख्य हैं । संस्कृत के जिन प्राचीन कोशों को मुझे देखने का अवसर मिला है उनमें' अभिधान चिन्तामणि कोश, अमरकोश एवं मेदनी कोश, प्रमुख हैं।
. "रीतिकाव्य-शब्द कोश" के अन्तगर्त लाला भगवान दीन, पं० कृष्ण बिहारी मिश्र, मिश्रबन्धु महोदय एवं प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र प्रादि के सुस'पादित ग्रन्थों की टिप्पणियों को भी लिया गया है, किन्तु जहाँ इन संपादकों की टिप्पणियां मुझे अधिक संन्तोषप्रद नहीं प्रतीत हुई, उन्हें यथावत् न ग्रहण करके उन पर नये सिरे से विचार करना पड़ा है। अतः मैं इन पूर्ववर्ती विद्वान संपादकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनके सहयोग के अभाव में अभीष्ट लदय की सपूर्ति संभव न थी।
वस्तुत: कोश-रचना की दिशा में मेरा यह प्रथम प्रयास है, अतः इस कार्य में होने वाली संभाव्य त्रुटियों एवं भ्रांतियों से मैं इनकार नहीं कर सकता है । हां, सुविज्ञ पाठकों पौर विपश्चितों को इस लघु प्रयास से यदि थोड़ा भी प्रसादन हो सका तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझंगा और पुन: इससे प्रेरित होकर मक्ति-काव्य कोश की भी रचना में निरत होऊँगा।
कोश की रूपरेखा प्रस्तुत करने में मुझे पूज्य पं० उमा शकर जी शुक्ल से अमित सहायता मिली है, मैं इसके लिए उनका चिरबाधित हूँ। इस कार्य में मुझे मथुरा निवासी भादरास्पद श्री प्रभु दयाल जी मीतल से भी अत्यधिक प्रोत्साहन मिलता रहा है। मैं उनकी ऐसी अकारण एवं सहज कृपा के लिए उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ। पूज्य पं० विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र तो प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः दोनों ही रूपों में मेरे शुभचिन्तक रहे हैं । अतः धन्यवाद देकर उनकी शुभचिन्तना की गुरूता को हलका नहीं करना चाहता ।
बन्धुवर डा० किशोरी लाल गुप्त, प्रिंसिपल जमानिया हिन्दू डिग्री कालेज को भी धन्यवाद देता हैं जिन्होने पत्र द्वारा अपने मार्मिक सुझावों से मुझे लाभान्वित करने की कृपा की है। पूज्यवर डा. रघवंश एवं मान्यवर डा. जगदीश गुप्त के तथ्यपूर्ण परामर्शो की उपेक्षा कैसी की जा सकती है, प्रतः नतमस्त होकर उनकी कृतज्ञता को स्वीकार करता हूँ।
डा० पारसनाथ तिवारी, डा मोहन अवस्थी एवं डा. राजेन्द्र कुमार को हृदय से धन्यवाद देता हूँ जिनसे विवादास्पद शब्दों पर परामश करने का मुझ महाध अवसर प्राप्त हुआ है । मित्रवर सन्त लाल जी तो मेरे बचपन के हितैषी हैं और मुझे वे ही काम आते हैं जब मैं पूर्ण निराश हो जाता हूँ, अतः धन्यवाद द्वारा उनके महत्व का घटाना मुझे वांछनीय नहीं है । इसके अतिरिक्त ज्ञात अज्ञात सभी सज्जनों को धन्यवाद देता हूँ जिनसे किसी भी प्रकार का सहयोग कोश-निर्मिति के सम्बन्ध में मिला है। अन्त में विद्वानों से मेरा यही नम्र निवेदन है कि यदि इसमें किसी भी प्रकार की त्रुटियाँ मिले तो वे उन्हें इंगित करें जिससे मैं ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में कथित त्रुटियों का मार्जन कर सकू।
विजयादशमी : सं० २०३२ १६०, नैनी बाजार,-इलाहाबाद
किशोरी लाल
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संकेताक्षर
अ.
पहा.
मनु
अं० अंगरेजी भाषा
अरबी
अनुकरणात्मक शब्द प्रपन अपभ्रंश पव्य० अव्यय पा०
प्रागम उदा० उदाहरण क्रि० क्रिया क्रि०अ० क्रिया अकर्मक क्रि० वि० क्रिया विशेषण क्रि० स० क्रिया सकर्मक केशव प्राचार्य केशवदास तु० तुर्की भाषा दास प्राचार्य मिखारीदास देश देशज
पं० पंजाबी भाषा
पहाड़ी भाषा पा०
पाली पु० पुलिंग प्रा० प्राकृत भाषा फा० फारसी भाषा बं० बुंदेलखण्डी भाषा ब्रज० ब्रजमाषा मुहा० मुहावरा रघुराज महाराज रघुराजसिंह वि० विशेषण सं. संस्कृत सर्व सर्वनाम स्त्री० स्त्री लिंग हि. हिन्दी
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अ
अंगछ-संज्ञा, पु० [षडंग] षडंग, वेद के छः
३. गोरी अँगेठि अडीठि सी डीठि सुपैठि अंग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द
रह यो मन पीठ पनारी । -गंग तथा ज्योतिष ।
अंगोटना-क्रि० स० [सं० अग्र+हिं० ओट] उदा० अंग छबि लीन उति धुनि सुनिय न
- घेरना, छेकना । मुख लागी अब लार है न नाकहू कौं
उदा० हाथ मैं मालती माल लिये चली भीतर ज्ञान है।
ताहि गोसांइ अँगोटी ।
-बोधा ___ सेनापति
अइलाना-क्रि० अ० [हिं० ऐंडाना] ऐंडाना, अंचक-क्रि० वि० [हिं० अचानक] अचानक, टेढ़ा होना। सहसा, एकबारगी ।
उदा० जो तुम होह बड़े घर को उदा० अरु इक बंधु परोसति थारी ।
अइलात कहा हो, जगात न दैहौ। चली अंचकै उठि नव नारी ॥
-रसखानि -सोमनाथ
अऊलना-क्रि० अ० [सं० उल्- जलना] १. अन्तरभाव--संज्ञा, पू० [सं० भावान्तर] भावा
ग्रौलना, जलना, गरम होना २. छिलना, छिदना न्तर, भिन्नता, -अन्तर्भाव ।।
आन्-अच्छी तरह शुलन] उदा० कछु पुनि अन्तरभाव तें कही नायिका जाहि
उदा० छत आजु की देखि कहाँगी कहा छतिया बिना नियम सब तियन में सुन्यो कबीसन
निति पैसे अऊलति है। -रघुनाथ पाहि । -दास
प्रकनना-क्रि० स० [सं० प्राकान] कान लगा अंकावना-क्रि० स० [सं० अंकन] जाँच कर
कर सुनना, प्राहट लेना। वाना, मूल्यांकन करवाना।
उदा० अकनि अकनि रन परसपर, असिप्रहार उदा० प्रेम बजार के अन्तर सो पर नैन दलाल
झनकार ।
-दास अंकावने है।
-ठाकुर प्रकलैंनि--संज्ञा, स्त्री [हिं० अकेला] अनन्य अखांगी-वि० [सं० प्र+हिं० खाँगी=खडित] प्रेमिका, एकाकी साधिका । _ अखंडित, निरन्तर, लगातार ।
उदा, कान्ह परे बहुतायत मैं अकिलैनि की बेदन उदा० जाके मुख सामुहे भयोई जी चहत मुख,
जानौ कहा तुम।
-घनानन्द लीन्हो सो नवाइ डीठि पगनि अखाँगी री।
अकस-संज्ञा, स्त्री [फा० अक्स-उलटा] बैर, -पद्माकर
शत्रु ता । अंगेट-वि० [सं० अंग इष्ट] चुस्त, अंग के | उदा० मनु ससिसेखर की प्रकस किम सेखर सत लिए जितना उपयुक्त है।
चंद।
—बिहारी उदा० गाढ़ी अंगेट गढ़े से खएनि में, प्रकसीर-संज्ञा, स्त्री [अं०] १. रसायन, कीमिया ठाढ़े उरोजनि ठाढ़ी लज हैं ।-गंग
२. अत्यंत गुणकारी । अंगेठी-वि० [सं० अंग+ इष्ट] १. चुस्त २.
उदा० ग्वाल कवि गोरी द्रग तीर के. तसीर के स अत्यंत सुंदर ३.अंगदीप्ति ।
मोद मिलें जैसे अकसीर के, खमीरके । उदा० १. पातरी अंगठी ऑगी अंगहू सों लागी रहे ।
-ग्वाल -आलम प्रकाथ-क्रि० वि० [सं० अकार्यार्थ, हिं० २. कौल के से पात नैन पातरी अंगेठी है। अकारथ] ब्यर्थ, निष्प्रयोजन, वृथा।
-पालम ] उदा० फेरि फिरन कों कान्ह कत करत
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अकुंठ ( २ )
अखेल पयान अकाथ । रही रोकि मग ग्वारिनी । उदा० मौजी मान सिंहावत रीझत जगत सिंह, नेहकारनी साथ ।।
-दास
बकसे तुरंग तुंग वै उठत अक्कासे । अकुंठ-वि० [सं०] जो मन्द न हो, उज्ज्वल,
-पदमाकर अमंद ।
अखज-वि० [सं० अखाद्य] अखाद्य, न खाने उदा० पूरन परम ग्राम बैकुंठ अकुंठ धाम
योग्य । लीने बिसराम प्रभु संपति अपांडिको उदा० भख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर को धारत
-देव बिहरत पंख फुलाय नहीं खज अखज विचारत । अकुताना--क्रि० प्र० [?] घबराना
-दीनदयाल गिरि व्याकुल होना।
अखतीज-संज्ञा, स्त्री [सं० अक्षय तृतीया] अक्षय उदा० सुनि अकुताने राजाराम । .
तृतीया, आखातीज ।। भूलि गयौ तिहि बल धन धाम । ----केशव उदा० बाढ़ी अखतीज सी असाढ़ी अनबीज खेत, अकूठो-वि० [सं० आकुंठन] १. शुष्क, सूखा,
दान दरसावनी सरस राखी रसमी । नीरस ०. बहुत अधिक, राशि, समूह ।
-देव उदा० जैसी करा उन प्रीति की रीति लखे पल है प्रखम-वि० [सं० अक्षम] अक्षम, अशक्त, असमर्थ बलि काठ अकूठो ।
--तोष उदा० मुकुतपुरी है जाके माँग महि खीन मध्य, अकैठे-वि० [सं० एक+इष्ट] १. एक मात्र,
सोम सिव सोमा माह अँग न अखम है। २. एकत्रित ।
--बेनी प्रवीन उदा० आवत बात न कोऊ हिये,
प्रखांगना-क्रि० स० [अं= अागम+हिं चित कैसे तजै कुलकानि अकैठे ।
खाँगना] –बेनी प्रवीन
१. मारना २. वृद्धि करना [सं, प्र+हिं अकोति-वि० [हिं० अकूत] अपरिमित, असीम ।
खाँगना:-कम होना] उदा० कंधों सबै नखतान की ज्योति प्रकोति उदा० कहै पद्माकर अखाँग्यो तुम लंकपति हमहें विरंचि बटोरि धरी है। -रघुराज
कलंकपति ह्व बोई अखाँग्यो है । प्रकोर-संज्ञा, स्त्री० [सं. अंकमाल] प्रालिंगन
-पद्माकर की चेष्टा, छाती से लिपटने की मुद्रा।
अखारा-संज्ञा, पु० [हिं, अखाड़ा] नाच, उदा, रीझ बिलोएई डारति है हिय,
नृत्य २. रंगभूमि । मोहति टोहति प्यारी अकोरै।
उदा० देखत हो हरि ! देखि तुम्हें यही होत है -घनानन्द प्रांखिन में ही अखारो।
-केशव अकोरना--क्रि, सं. [सं० आक्रोडन, प्रा. अखिलमा--क्रि० अं०[हि प्रखरना] अखरना, अक्कोडण] इकट्ठा करना, संग्रह करना ।
कष्ट पाना, दुख पाना। उदा० पातम राम रमे, उठि अंत निरन्तर अन्तर उदा० सुचित गुबिंद ह्व के सेवते कहाँ धौं जाइ, ताप अकोरी ।
जल जंतु पंति जरि जैबे को अखिलती । अकोसना--क्रि० सं० [हिं० कोसना]--कोसना
--पद्माकर शाप के रूप में गाली देना।
अखेटक-संज्ञा, पु० [सं० पाखेटक] शिकारी उदा. रोसै भरि देवहि प्रकोसति इकोसे', फेरि बहेलिया । दौरी फिरै ब्याकुल बहीर सखियान की। उदा० बैननि मैन के बान चले, मृगनैननिह को
-सोमनाथ खिलारू अखेटक ।
--देव अक्करी–वि० [हिं० अकड़] अकड़ वाली। उदा० फिरै चक्करी से गली सक्करी में । लिये
अखेलत-वि० [स० अं०- केलि] बिना खेलते अक्करी ऐंड ज्यौं हिक्करी में। -पद्माकर
हुए, अचंचल, भारी, गंभीर ।
२. आलस्यपूर्ण, उनींदा अक्कासे . संज्ञा, पु. [सं० आकाश] प्राकाश, | उदा० भारी रसभीजे माग भायनि भुजन भरे नभ ।
भावते सुभाइ उपभोग रस मोहगे । खेलत ही
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अंगड़
अध
खेलत प्रखेलत ही प्रांखिन सों खिन-खिन खीन ह । अगिनिबासी-संज्ञा, पु० [हिं० अगिनबासा] खरे ही खिन खोइगे ।
-देव । __ बाज की जाति का एक पक्षी, अगिनबासा । अगड़-संज्ञा, स्त्री. [सं० निगड़] जंजीर, बेड़ी,
उदा.. इनको तौ हाँसो वाके अंग में प्रांदू ।
अगिनिवासो, लीलहीं जु सारो उदा० मत्त द्विरद मनौ अगड़ तोड़ि गहगडसौं
सुख सिंधु बिसराएरी। -दास धाये ।
-नागरीदास अगारिन-क्रि० वि० [सं० अग्र] आगे, पूर्व । प्रगति-संज्ञा, पु० [सं०] समुद्र, जड़, जो गति
उदा० ग्वाल कवि ऊँचे वे उरोज की अगारिन शील न हो ।
पै लिपटी अलक ताके ताके यों तमासे में । उदा० निपट पतिब्रत धरणी । मग जन
-ग्वाल को सुख करणी। निगति सदा गति अगिहाई----संज्ञा, स्त्री [सं. अग्निदाह] अग्निदाह सुनिये । प्रगति महा पति गुनिये । उदा०
-केशव अनदीने सब हाँसी करै । चोर लेइ अगिहाई जरै । अगम्बि-संज्ञा, स्त्री [?] १. मसोसना
-केशव २. फटकार, डाँट ।
अगीठि-संज्ञा, पु० [सं० अग्र] अग्रभाग, आगे उदा० १. कोउ अधर दसननि दब्बि। रह गई का हिस्सा। उरनि प्रगब्बि ।
--सोमनाथ
उदा० काटि किधौं कदलीदल गोप को दीन्हो
जमाइ निहारि अगीठि । अपरि—वि० [सं० अग्र प्रा० अग्ग] १. प्रचुर,
-दास बहुत, अच्छी तरह, २. श्रेष्ठ उत्तम, ३. अग्र,
अगोचर-वि० [सं०] अपरिचित । आगे, पहले।
उदा० बाल सों ख्याल, बड़े सों विरोध, अगोचर उदा० तन मन जटी, ते बिकट बन टूटी, पानि
नारि सों न हँसिये ।
-गंग खाइ विष बूटी, भिदी अंगनि अगरि कै। प्रमोनी-संज्ञा, स्त्री० [?] १. अँगीठी, जिसमें
-देव
प्राग सुलगाई जाती है २. वह स्त्री जो गौने प्रगरी-वि० [सं० अग्र] उच्च, बढ़कर, श्रेष्ठ । नहीं गई हैं। उदा० देव गुण अगरी उसासे मरे अगरी
उदा० देव दिखावति कंचन सो तन औरन को मन दबाए दंत अंगुरी अचल अंग अंगरी।।
तावै अगोनी ।
-देव -देव अगोरना-क्रि० [हिं० प्रगोड़ना] चौकीअगवानी-संज्ञा, स्त्री [सं० अंग-सूर्य-+- वानी
दारी करना, पहरेदारी करना। हिं० कान्ति ।
उदा कल न परै पलको भटू लटू कियो तुव नेह १. सूर्य प्रभा २.अभ्यर्थना, पेशवाई।
गोरे मुहुँ मन गड़ि रहयो रहे अगोरे गेह । उदा० नीकी अगवानी होत सुख जन वासी
-दास सब सजी तेल ताई चैन मैन मयमंत है। | अगोरही--अव्य. [सं० अग्र + हिं. प्रत्यय] पहले
-सेनापति से ही, पूर्व से, ही, २. प्रतीक्षा [संज्ञा, अगोर] अगाउनी–क्रि० वि० [सं० अग्र+हिं० आवनी]
उदा० मैं बरजे हैं अगोरही गोविंद, गोरी को पहले से, पूर्व ।
नेह गरे परिहैगी।
-गंग उदा.मुरली मृदंगन अगाउनी भरत स्वर भाउती अगौने-क्रि० वि० [सं० अग्र] पहले, आगे २.
सुजागर भरी है गुन आगरे ।---देव बिना गौना के, द्विरागमन के पूर्व। अगाज-संज्ञा, पु० [अ० अग्राज] इच्छाएँ,
उदा० लोने मुख सलज सलोने वे सुसील ते ख्वाहिशें, २. स्वार्थ ।
रिझाये रैनि गौने की, अगौने रूप गुनि के। उदा० शेर की सी गाज होय, सुत कौ अगाज अघ-संज्ञा, पु० [सं० अघासुर] ? अघासुर जिसे
होय, सदा शुभ काज होय, उमर दराज श्री कृष्ण ने मारा था २. पाप । होय,
-ग्वाल ] उदा० कालीनाग नाथ्यो संखचूर चूर कियो, अघ
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प्रधामल
अछ्छ
अजगर मारयो, पूतना की बात साचली। । उदा० रचि सूर से लिय अंग । अच्छरिय हार
-देव उमंग ।
-जोधराज प्रधामल--क्रि वि० [हिं० अघाना] पूर्णतया, | अच्छिनि-संज्ञा, पु० [सं० अक्ष+हिं०न (प्रत्य) अच्छी तरह, पूरीतरह ।
आँखें, नेत्र, अक्ष ।। उदा. फिरै रन घुमत घायल सूर ।
उदा० दरस हेतु तिय लिखति, पीय सियरावहु अघायल स्रोनित चायल चूर ।
अच्छिनि ।
-सेनापति -चन्द्रशेखर
अछड़ती-संज्ञा, स्त्री [सं० अ+छल], निष्कपट पचका-क्रि० वि० [हिं० अचानक] सहसा,
की बातें, प्रेम चर्चा । अचानक ।
२. छल न करने वाली [वि.] उदा० आइ गयौ प्रोसर ही अचका कन्हाई तहाँ
उदा. वै परै पायन प्रेम पगे हँसि, कण्ठ लगाइ सजें फूल माल मंजू मोर पखियान में ।
कहौ अछड़ती।
-बेनी प्रवीन -सोमनाथ
प्रछत---वि० [सं० अक्षय] अक्षय, न नष्ट हए अचगर-संज्ञा, पु० [? 1 शरारत, बदमाशी ।
उदा० गनती गनिबे ते रहे, छतहूँ अछत समान । उदा० 'पालम' न काहू डरै देरब्यो अचगर मैं । -पालम
-बिहारी
अछवाई-संज्ञा, स्त्री [१] सौन्दर्य, सुन्दरता । प्रचाक चक--[हिं०+ सु० चाक] प्ररक्षित, कम- उदा० रति साँचे ढरी अछिवाई भरी पिंडूरीन अनु० चक जोर ।
गुराई पै पेखि पगै घनानंद एडिन पानि उदा० चाकचक चमू के अचाकचक चहूँ ओर
मिडै तरवानि तरे ते भरे न डगै। -घनानंद -भूषण
अछीने-वि० [सं० अक्षीण] पुष्ट, बलवान, अचनी-वि० [हिं० प्राचमन] आचमन करने
शक्तिशाली। वाली, पीजाने वाली ।
उदा० अोछ कद ओछे बैस उदित अछीने छीने उदा० चैनी जमराज की अचैनी जी जरेनी जोर
__ अोछे ओछे उन्नत उरोज अलबेली के । बोर देनी कागद गुपित्र के गरेनी है।
-परमेश -वाल
अग्रवा-संज्ञा, स्त्री[हिं० पाछ] पाडू, बिछिया। अचोतना-क्रि० स० [सं० आचमन] आचमन उदा० पहिरे लाल अप्रवा, तिय-गज पाय । करना, पान करना, पीना ।
चढ़े नेह हथिअवहा, हलसत जाय । उदा० सेखर अनूप छबि मदमतवारो मनु बार
-रहीम बनिता को रस सरस अचोत है।
अछेव-वि० [सं० अछिद्र ] दोष रहित निदोष, -चन्द्रशेखर
बेदाग। मचौन-संज्ञा पु० [सं० आचमन] आचमन या । उदा० बसन सपेद स्वच्छ पेन्हे आभषण सब पीने का पात्र, कटोरा ।
हीरन को मोतिन को रसमि अछेव को । उदा० देखि देखि गातन अधात न अनूप रस,
-रघुनाथ भरि भरि रूप लेत लोचन प्रचौन से ।
अछह-वि० [सं अछेध] १. निरन्तर, लगातार, -देव
२. अत्यधिक । मच्छर-संज्ञा, पु० [सं० अक्षर] १. आकाश
उदा० सीतल पवन पूरवाई के परस नव. बेलिन २. अक्षर।
विद्रुमन सौं लगनि अछेह की। उदा० अक्षर हैं विशद करति उर्फ आप सम जाते
-सोमनाथ जगत की जड़ताऊ बिनसति है।
अछछ-संज्ञा पु० [सं० अक्ष] अक्ष, आँख, नेत्र । -सेनापति
उदा० सुख रस भीने, प्रान प्यारी बस कीने पिय, अच्छरिय-संज्ञा, स्त्री० [सं० अप्सरा] परी,
चिन्ह ए नवीने परतच्छ अछछ देखिये । अप्सरा ।
-सेनापति
meeting
कर सके... 16. पक्षिस ) कोप राहत
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अज
धज
-संज्ञा, पु० [सं०] १. कामदेव २. ब्रह्मा, ३. विष्णु । उदा० १. धुनि पूर रहे नित कानन में ग्रज को उपराजबोई सो करें ।
घनानन्द
अजगंबी-संज्ञा, स्त्री, [फा० बज + अ०मेव ] स्वर्गीय, प्रभुता, शोभा ।
अजब संज्ञा, पु [फा०] अर्जुन
का नाम ।
---
-
उदा० कहै पद्माकार त्यों तारन विचारन की विगर गुनाह अजगैबी गैरश्राब की ।
- पद्माकर
सिंह के हाथी झपटे झुकं
- पद्माकर
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( ५ )
अजीम — वि० [अ० अजीम] महान्, उदा० तदपि गौरी सुनि बाँझ हैं अजीम ।
उदा० गज अजब अर्जुनसिंह को झुकि भूमिकै । मजमूर्व संज्ञा, पु० -संज्ञा, पु० [?] आनन्द, सुख हर्ष उदा० लीज अजमूदे अब याही मनि मंदिर मैं आवो लाल ललकि मिले तो गलबाही दे । - बेनी प्रवीन बजार -संज्ञा, पु० [फा० आजार ] बीमारी, रोग २. दुख तकलीफ ।
उदा० जर के प्रजार मिस पलका पे परी अनि बरै बिरहानल अखिल वाके गात री,
-कवीन्द्र यह प्रीति अजार को औरे तबीब परन्तु कछू सुनि लीजतु है ।
-
-
—ठाकुर
बड़ा । वरु है संभु -रहीम
( श्रागम +
अजुही संज्ञा स्त्री० [सं० यूथी,] हि० जूही ) जूही नामक एक पुष्प । उदा० अजुही गुहि रेसमतगा कीनी माल बिसाल हरि हराउ तन को कियो मोकर कीनी लाल - मतिराम अजूजा-संज्ञा, पु० [देश०] विज्जु की भाँति एक जानवर जो मुर्दा खाता है । उदा० कहै कवि दूलह समुद्र बढ़े सोनित केजुम्मन पर फिर जम्बुक अजूजा से
-दुलह
अनोखे वि० [हिं० + जो = तोले, अतुल ] अतुलनीय बेजोड़ ।
अठंग
उदा० पांव न देत नदी तट मैं सरनीर निमज्जत नेम श्रजोखे । - चन्द्रशेखर
पुष्ठ; मजबूत
अभूनो - वि० [सं० पक्षीण] अक्ष एरण न नष्ट होने वाला । उदा० डोलत है अभिलाष भरे;
सुलग्यो बिरहा ज्वर संग सभूनो तुम्हें बिन सांवरे ये नैन सूनै । हिये में से दिये बिरहा भूले। श्रटकरना- क्रि० स [हिं० अटकर] प्रन्दाज
-घनानन्द
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गहि घू घरिया उर मुख नाहीं रटै ।
करत
लगाना; ताक लगाना; घात लगाना । उदा० कहा भयौ जो होरी आई तुम अटपटो दाव । अटकरी -संज्ञा, स्त्री० [हिं० श्रटकल ] अन्दाज, अनुमान, कल्पना सहारा ।
-घनानन्द
.
प्रटब्बर - संज्ञा, पु विस्तार, फैलाव 1
उदा०
—
उदा
निरख्यौ न मीत ह्वां अनीति करी पंचबान, फिरी निजधाम को प्रकास अटकरी मैं -सोमनाथ घटना- -क्रि० [हिं० प्रोट] बाधा डालना, आड़ करना, छेकना ।
उदा० फारों जु घू घट श्रोट श्रटै सोई दीठि फोरों अध को जु ध साई ।
बाहु श्रटै
घटा-संज्ञा, पु० [हिं० 'ड |
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- देव
जुग जांघ जटै
-तोष [सं० श्राडम्बर ] श्राडम्बर,
अब तो गुनिया दुनिया को भर्ज, सिर बांधत पोट श्रटब्बर की । गंग घटहर—संज्ञा स्त्री० [सं० अट्ट] ढेर, फॅटा, पगड़ी | उदा० आप चढ़ी सीस यह कसबी सी दीन्ह ओ, हजार सीसवारे की लगाई अटहर है, - पद्माकर समूह,
अट्ट ] अट्ट
--
-केशव
उदा०
कारी पीरी ढालै देखिये बिसाले प्रति, हाथिन की टा घन घटा सी अरति है । -केशव टंग-संज्ञा, पु० [सं० श्रष्टाङ्ग] - अष्टांग योग ।
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अंठपावं
अतीत
उदा० उठत उरोज न उठाये उर ऐठ भुज,
जग डोलत डोलत नैनाहा । उलटि अड़ार अोठन अगे?, अंग आठहू अठंग सी।
चाह पल माहाँ ।
-जायसी -देव
अडु-संज्ञा, पु० [हिं० अड़ा 1 शरण, आड़। अठपाव-संज्ञा, पु० [स० अष्टपाद] उपद्रव, उदा० काल पहँच्यो सीस पर नाहिन कोउ अङ्क । शरारत; बदमाशी ।
-दास उदा. भूषन क्यों अफजल्ल बचे अठपाव के सिंह पढ़-संज्ञा, पु० [हिं० अढुक] नाश, क्षय, चोट, को पांव उमैठो।
-भूषण माघात, ठोकर । अठाई–वि० [बुं०] बदमाश, दुष्ट ।
उदा० कहै कवि गंग महागढ़ बढ़ : कीने । उदा० कहिये कहा बात कान्हर की पाठो गॉठ
मीडि डारे चटपट चढ़ि थर चरी सी। अठाई। -बक्सी हंसराज
-गंग
कैयो देस परिब्रढ़ कैयौ कोट-गढ़ी-गढ़ कीन्हे अठाएँ-संज्ञा पु० [सं० प्र+हिं ढाँव स्थान बुरे स्थान, कुठाँव, अनुपयुक्त स्थान ।
अढ़ पढ़ डिढ़ काहू में न गति है। उदा० पुनि बुधि बिसराऐं गिरै अठायें मोचक
-भूषण आँए ताँवरिया
-सोमनाथ
पढ़ना-क्रि० अ० [हिं० अड़ना] रुकना, अड़े
रहना। अठान-संज्ञा, पु० [सं० प्र+हिं० ठानना] १.
उदा० रीझनि भीजे सुधा-रत स्याम सदा घनधरना, वैर, शत्रुता २. न करने योग्य,
आनंद ऐंड बढ़ी है।
-घनानंद प्रकरणीय ।
अतंबर-वि० [सं० अतंद्रिक] १. तेज, चंचल उदा० नित ठान्यो अठान जिठानिन सों पनि सास
आलस्य रहित २. ब्याकुल, बेचैन । की केती रिसाई सही।
-सुन्दर
उदा० १. जोगीदास नंदन भुवाल भोगीलाल को तजतु अठान न, हठ परयौ सठमति ।
बिशाल जलजाल है प्रताप अति प्रतंदर । आठोयाम । --बिहारी
-देव २. ऐसी अठाननि ठानत हौ कित धीर धरौ न, परौ ढिग ढूके।
-घनानन्द
प्रतन्द्रमा-वि० [सं० अतन्द्र ] तन्द्रा रहित ।
उदा० नखत बिराज कौन निसि में प्रतन्द्रमा । प्रठेठी-वि० [देश॰ अ० आगम ठेठ] बिलकुल,
-पद्माकर निरी, विशुद्ध । उदा० जी की कठेठी अठेठी गॅवारीनि नेक नहीं
प्रतना--संज्ञा, पु० [सं० अतन] बिना तन वाला, कबहूँ हँसि हेरी ।
अनंग, कामदेव । -पजनेस
उदा० दै पतियां कहि यों बतियां अतना छतियां अठोट-संज्ञा, पु० [हिं० ठाट] आडम्बर, ठाट,
छतना करि डारी ।
-मुरलीधर पाखंड । उदा० लाज क अठोट के कै बैठती न पोट दै दै, |
भतरसों-क्रि० वि० [सं० इतर + श्वः] परसों चूंघट के काहे कौं कपट पट तानती।
के बाद पाने वाला दिन, आने वाला तीसरा
दिन, नरसों । -देव
उदा० खेलत में होरी रावरे के करबर सों जो अडारी-संज्ञा, पु. [हिं० अड़ार,] अड़ार
भीजी है अतरसों सो प्राइहै अतरसों । समूह २. अटारी, अट्टालिका ।
-रघुनाथ उदा० रैनि सरद्द सुधानिधि पर चढ़यो जग
अतित-क्रि० प्र० [सं० अतीत] बीतना, समाप्त कालिम छाँह अडारी।। --आलम
होना । अड़ार-संज्ञा, पु० [सं० अट्टाल] समूह, राशि, |
उदा० रघुनाथ फेरि पछितैबो रहैगो घेरि बूझिभण्डार।
बूझि हेरि पीछे औसर अतित के। उदा० दुखनि अडार लाय सुखनि बिड़ार जाय,
-रघुनाथ मारी मैंन डारि दीनी पीरी पीरी डार सी प्रतीत-संज्ञा, पु० [सं० अतिथि ] अतिथि,
-पालम मेहमान ।
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अथरप
अधसाँसी
उदा० निरमोही महा हौ पै मया हु बिचारि बारी, । उदा० मेरे ही अकेले गुन गुन बिचारे बिना, हाहा इन नैननि अतीत किन हजिये ।।
बदलि न जैहै ह्व बड़े अदल खाने । -घनानन्द
-दास अथरप-वि० [सं० अ+हि० थरप= स्थिर] प्रदाई-वि० [अ० अदा] १. चाल बाज, धूर्त, अस्थिर, चंचल ।
२. ढंगी, ढंग रचने वाला। उदा० ग्वाल कवि अधिक इंचाची समै में तहाँ उदा० आह न प्रहट अध अरी या अदाई की। हालत कुचन बीच बेनी अथरप है।
-गंग -ग्वाल अवाब-वि० [सं० अदभ्र, प्रा० अददिभ] अदभ्र, अथाई-संज्ञा, स्त्री [सं० स्थायि] बैठक, बहुत, अधिक अपार । चोबारा, २. वह स्थान जहाँ लोग एकत्रित उदा० सेबती-गुलाब में न, प्रतर अदाब में, होकर परामर्श करते हैं।
न जैसी है सुबामु, कान्ह मुख-महताब में । उदा० १. गोप प्रथाइन तें उठे गोरज छाई गैल ।
----ग्वाल -बिहारी अवाह-वि० [सं० प्रादग्ध] अच्छी तरह से, २. भोर लौं अखिल भौर प्रथाइन द्वार न दग्ध, पूरी तरह से जला हुआ। कोऊ किंवार भिरैया ।
-देव उदा० 'प्रालम' अनंग दाह कीनो है प्रदाह तन, अथूल-वि० [सं० अ+स्थूल] सूक्ष्म, स्थूल का
अंगना के अंग अंग तपनि अंगार सी। विलोम ।
-पालम उदा० एकै थिर अथिर, अथूल, थल, लघु गुरु, प्रदंद-वि० [सं० अद्वंद्व, प्रा० अदुद] १. अद्विदेखो दृग खोलि तो न देखो देव दूसरो। तीय, द्वंद्व रहित, बेजोड़, २. बाधा रहित, शांत।
-देव
उदा० १. यौवन बनक पै कनक वसुधाधर सुधामदन-वि० [सं० अदम्भ दम्भ रहित, पवित्र ।
धर बदन मधुराधर अदुद री। -देव उदा० त्यों पद्माकर मंत्र मनोहर जै जगदेब अदंब अए री।
प्रदेह-संज्ञा, पु० [सं०] १. कामदेव, २. विदेह, -पद्माकर
जनक जी । अवगु-वि० [सं० अ+ फा० दाग] बेदारा, शुद्ध, उदा० सेज करि ज्ञान की अदेह में न चपनो। साफ, पवित्र ।
-ग्वाल उदा० चितामनि कहै जु अोर बचन की दौर मैन
प्रद्धर-वि० [बु.] जिसका कोई आधार न हो, ऐसी कटू सुखमा को समूह प्रदगु है ।
निराधार । --चितामणि
उदा० अद्धर को है अधार हरी नर बंधक बंधन अवन-संज्ञा, पु० [अ] स्वर्ग का उपवन जहाँ
__माझ रस्यो है।
-ठाकुर ईश्वर ने आदम को बना कर रखा था। .
अषकर-संज्ञा, पु० [?] अंतरिक्ष, प्राकाश का उदा० मंद मुसकात छिति छूटत मयूखन के,
मध्य भाग । प्रागम अनूप तामें अदभुत अदन के ।
-पजनेस
उदा० अध, अधकर, ऊपर आकाश । चलत दीप देखियत प्रकाश ।
-केशव अदल-वि [देश॰] १. बढ़ कर, श्रेष्ठतर, २. न्याय, इंसाफ [अ०]
अधर-संज्ञा, पु० [सं०] १. अन्तरिक्ष, आकाश
२. प्रोष्ठ। उदा० १. कोकिल ते कल, कंज-दल ते प्रदल भाव.
उदा० १. धावत धधात धिग। धीर धम धूधाजीत्यो जिन काम की कटारी नोकबारी को ।
धु ध धाराधर अधर धुवान में।
-पजनेस -दूलह अदल-खाना-संज्ञा. पु० [फा०] न्यायालय, अषसांसी-वि० [सं०.अर्ध+श्वास] अधमरी, कचहरी ।
अर्धजीविता !
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अधिकारी उदा० जाति में होति सुजाति कुजातिन-काननि फोरि करौ अधसॉसी ।
-दास अधिकारी-वि० [सं० अधिक] अधिक, अत्यधिक,
बहुत ज्यादा। उदा० मुख पै कच के अधिकारी खुले अधचौकी जगम्मग जोति करै ।
-आलम अधिच्छ—वि० [सं० अदृश्] अदृश्य, लुप्त । उदा० कहै पदमाकर न तच्छन प्रतच्छ होत अच्छन के प्रागेहू अधिच्छ गाइयतु है ।
-पद्माकर अधिरथिक-वि० [सं० अधिरथ] १. रथारुढ़
२. सारथी उदा० १. केसव छवीलो छत्र सीस फल सारथी सो. केसरि को आड़ अधिरथिक रची बनाइ ।
-केशव अनंत-संज्ञा, पु० [सं०] शेष नाग २. जिसका |
अन्त न हो। उदा० सुनो के परम पद्, ऊनो के अनंत मद्, नूनो के नदीस नदु, इंदिरा मुरै परी।
--देव अनकना-क्रि० सं० [सं० प्राकान] १. सुनना,
श्रवण करना २. छिपकर सुनना । उदा० यदपि सबै गावं मधुर, ऊँचे सुरन लगाइ,
तदपि अनकि मोहन सुरन, मोहैं गरब गवाँइ।
-रघुराज अनखोलिन-वि० [हिं० अनख] नाराज होने
वाली, बुरा मानने वाली ।। उदा० कहै पद्माकर अगार अनखीलिन की भीरी भीर भारन को भाँज देरी भाँज दै।
-पद्माकर नेको अनखाति न अनख भरी प्राखिन, अनोखी अनखीली रोख पोखे से करति है।
-देव अनखुली-वि० [हिं० अनख-क्रोध] ऋद्ध, क्रोध करने वाली, नाराज होने वाली। उदा० लगे जानि नख अनखुली, कत बोलत अनखाय ।
--विहारी अनगच्छ-वि० [?] निश्चंत, बिना किसो
शंका के । उदा० उचित जु जानहु सो तुम अच्छ ।
अनहेत करौ बलिदान सु ह्व अनगच्छ ।
-सोमनाथ अनगब्ब-वि० [सं० अन + गर्व] अगर्व, अहंकार
रहित । उदा० यह सुनि ब्रह्मचर्ज ह्य पव्वै ।
मंडप तन पायौ अनगव्बै । -सोमनाथ अनगाना-क्रि ० अ० [ब्र०] १. जान बूझ कर देर
लगाना, टालमटोल करना . पागे न जाना । उदा० मुहुँ धोवति, एड़ी घसति, हसति, अनगवति तीर ।
-बिहारी अनपरवाहिन-संज्ञा, स्त्री [सं० अन+फा०
परवाह] बेपरवाही, बेफिक्री। उदा० रुचि न दुकूलनि की, केस मांग फूलनि की, सबहीं छकाए जाकी अनपरवाहिनँ ।
-सोमनाथ अनबनी-वि० [सं० अन्य+वर्ण] अद्भुत वर्ण
का, विचित्र रंग का। . उदा० सहज बनी है घनानंद नवेली नाक, अनबनी नथ सौ सुहाग की मरोर ते ।
-घनानंद अनभग्गहि-वि० [अन+मग्ग, हिं० प्रभागा]
अभागा, भाग्यहीन, बदकिस्मत ।। उदा० अब त्यों निरवारतु या अनभग्गहि खग्ग प्रहारनि छोह छयी।
-सोमनाथ अनभावरि-संज्ञा, स्त्री, [हिं० अनभाना पसन्द न होना] न पसन्दगी का भाव, किसी वस्तु को पसन्द न करना । उदा० भावरि अनभावरी भरे करौ कोरि बदवाद्
-बिहारी अनमिलती-वि० [हिं० अमिल] विषम, अमिल, खराब । उदा० कई पदमाकर सू जादा कहीं कौन अब जाती मरजादा व मही की अनमिलती
-पद्माकर थनवच्छ-वि० [सं० अनवच्छिन्न] अखण्ड, बेरोकटोक । उदा० उच्छलत सुजस बिलच्छ अनवच्छ दिच्छ दिच्छन हैं छीरधि लौ स्वच्छ छाइयतु
-पद्माकर अनहेत-संज्ञा, पु० [सं० अन+हेत=प्रेम] विराग, सन्यास ।
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अनाप
अपीच
उदा० न न अच्छर सब सों निरस, सुनि उपजत | अनेसा-वि० [सं० अनिष्ट] अप्रिय, बुरा। अनहेत ।
-गंग | उदा० कहि कहि निस दिन बोल अनसे जारत अनाप-वि० [सं० अनात्मन्] १. निर्बोध, जड़,
जीव जिठानी।
-बक्सी हंसराज मूर्ख २. प्रात्मा से परे।
अपंग--संज्ञा, पु० [सं० अपांग] कटाक्ष, चितउदा० १. अरु दुहनि चहन जो नाहिं प्राप
वन, ऑख का कोना। निलेप ब्रह्म सो उर अनाप ।
उदा० कसि तून वीर सजंग। अच्छरिय नैन -सोमनाथ अपंग।
-जोधराज अनासुक्रि० वि० [सं० अनायास] बिना प्रयास
अप-संज्ञा, पु० [सं० आप] १. जल, पानी, २. के, अचानक ।
आब, चमक, दीप्ति । उदा० वा दिन गई ती ब्रज देखन करील-बन उदा० लागे जोग जग में, न तप अनुरागे कभू, भूक मैं परी ती प्राइ बंसी के अनासुरी
लागे रूप अप में सु पैरन अपारे ई। . -द्विजदेव
-ग्वाल अनासी-क्रि० वि० [सं०अनायास] अचानक,
अपधन-संज्ञा, पु० [सं०] शरीर, शरीर का बिना प्रयास के ।
अंग। उदा० चितवन चोर की अनासी दुग कोर की
उदा० अपघन घाय न बिलोकियत धायलनि दें छोटी नथ मोर की मरोर मन ले गई ।
घनो सुख केशोदास, प्रगट प्रमान है। -ग्वाल
-केशव अनिती-वि० [सं० अ+निन्ध] अनिन्द्य, अनि
अपलोक-संज्ञा, पु० [सं०] पाप, बुरा कर्म । न्दनीय, अनवद्य ।
उदा० श्री रघुनाथ के आवत भागे। ज्यों अपउदा० भूपर कमल युग ऊपर कनक खंभ ब्रह्म की
लोक हुते अनुरागे ।
-केशव सी गति मध्य सूक्षम अनिदोबर। -देव अपसर-संज्ञा, स्त्री [सं० अप्सरा] १. अप्सरा, अनुबावन-संज्ञा, पु० [सं० प्रवाद अनु+
२. वाष्प करण [पू०ी।
| उदा० रहै अपसर ही की सोभा जो अनूप वाद 1.अफवाह, जनश्रुति । उदा० ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं।
धरि सुभग निकाई लीने चतुर सुनारी है ।
-सेनापति अनुवा–संज्ञा, पु० [हिं० आनना, ले आना] ले |
प्रपाइ-संज्ञा, पु० [सं० अपाय] अनरीति,
अन्यथाचार । आने वाले, फैलाने वाले, उड़ाने वाले । उदा० ताहि तू बताइ जोई बॉह दै उसीसै सोई,
उदा० तजि के अपाइ, तीर बसै सुख पाइ, गंगा । ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं।
कीजै सो उपाइ,तेरे पाइ ज्यौं न छूट ही। -गंग
-सेनापति अनून-वि॰ [सं० अन्यून] अधिक, बहुत बड़ा ।
अपांडि-संज्ञा, पु० [सं० आपाणि] मुट्ठी में, उदा०
हथेली में, पाणि में। आवत बढ़यो न जग, जातह घट्यो न कछु,
उदा० पूरन परम ग्राम बैकुंठ अकुंठ धाम लीने देव को विलास, देव ऐसोई अनून तो।।
बिसराम प्रभु संपति अपांडि कै। -देव
अपारथ--संज्ञा, पु० [हिं० आप-अपने+सं० देव दुहून के देखत ही, उपज्यो उर मैं अनु- अर्थ=प्रयोजन] स्वार्थ, अपना प्रयोजन । राग अनूनों।
-देव उदा० स्वारथ न सूझत, परारथ न बूझत, अनूह-वि० [?] अयोग्य, न्युन ।
अपारथ झूझत, मनोरथ मयो फिर । उदाहीरन के जूह मंजु मनि के समूह समताई
-देव में अनूह जानि भूतल तले गये।
अपीच-वि० [सं० अपीच्य] सुन्दर, रुचिर । —नंदराम उदा० फहर गई धौ कबै रंग के फुहारन में,
-गंग
-देव
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-सूदन
अपूर
अभिसंधिता कैधौं तराबोर भई अतर-अपीच में ।
| अबर-संज्ञा, पू० [अभ्रं] बादल ।
-पद्माकर उदा० प्रबर रंग की साल विच, हिस फेरयो ऐसी-मई धूंधरि धमारि की सी ताहि समय,
मुखचंद, अतनातस मैं रीझि के, पिय पावस के मोरे मोर सोर के उठे अपीच ।
मन भो रसकंद।
--नागरीदास -द्विजदेव | अबलख-संज्ञा, पु० [सं० प्रबलक्ष] १. सफेद अपूर-वि० ['अ' का आगम + हिं० पूर
और काले रंग का घोड़ा २. कबरा, दोरंगा पूर्ण] खूब, अत्यधिक बहुत ।।
(वि०) उदा० मजलिस लखि रीझो नपति दीन्हों दान उदा० प्रतिही अबीले अबलख लीले गति गरबीले अपूर।
-बोधा महि खूदै ।
-पद्माकर अपेलि-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] अनीति, अन्याय । अबस-वि० [अ०] ब्यर्थ, बेकार ।। उदा० हाल ठाकुराइस में बोलिबो अचंभो यह, उदा० खलक ना मानै एक भी अबस किये बकबाद ईश्वर के घर ते अपेलि चलि आई है।
खूब कमायें इस्क कौ, तब कुछ पार्दै स्वाद ।
-नागरीदास --अज्ञात
चंदन मैं नाग, मदभरो इन्द्र-नाग अफताबा-संज्ञा, पु० [फा० आफ़ताबा] हाथ
विषभरो सेसनाग कहै उपमा प्रबस को मुँह धुलाने का एक प्रकार का गडुपा, एक पात्र
-भूषण विशेष ।
प्रबाल-वि० [सं०] यौवन से पूर्ण, युवती। उदा० हुक्का, हुक्की कली सुराही अरु अफताबा।
उदा० मोहिय महल मॅह तिमिर तिरोहित के,
बसति अबाल विधुमुखी विधि बालिका । अफरना-क्रि० प्र० [सं० स्फार 1 भोजन से
-देव । तृप्त होना।
अबोल-संज्ञा, पु० [हिं० बोल] मौन, चुप, शान्त, उदा० १. देव सुधा दधि दूध न हू अफरी है कहूँ बिना बोले हुए। सफरी जस सूखें ।
-देव उदा० बोलन पाएँ अबोली भई अब केसव ऐसी २. प्रगट मिले बिन भावते, कैसे नैन अघात ।
हमैं न सुहाहीं ।
-केशव भूखे अफरत कहुँ सुने, सुरति मिठाई खात। अब्द-संज्ञा, पु० [सं०] बादल
-रसनिधि उदा० अब्द सब्द करि गजि तजि झकि झपि प्रबंझा-वि० [सं० अबन्ध्या] सफल, फलीभूत,
झपट्टहिं ।
-दास अब्यर्थ ।
अभिख्या-वि० [सं० अभिलाषा] अभिलाषिणी, उदा० संझा ते प्रबंझा प्रेम झंझानल झकी झीनी उदा० दारुन दुभीख सोभा भीख दीजै भीषमहि, झनकै रसन बल नूपुर समाधी सी ।
राखौ मुख प्राभा अभिमान की अभिख्या -देव - हौं।
-देव प्रबंधुर-वि० [सं०] कठोर, वीर, उत्साही, जो अभितई-वि० [अ का आगम+हिं० मीति] नम्र न हो,
डरी हुई, संत्रस्त, भयभीत उदा० गजदंतनि कंध धरे बिबि कंधु महागून
उदा० पुलकनि अंग रंग औरै भयो अांनन को. सिंधु प्रबंधुर से ।
-देव
जांनि परी दुरी पंचबान की अभितई, अवताली-संज्ञा, पु० [फा० अबदाली] अदल |
--सोमनाथ बदल कर देने वाला अधिकारी
अभिराम-वि० [सं०] १. शुभ, मंगल, २. उदा० आइ गये अबताली दोऊ कूच छाप लये
सुन्दर । सिर स्याय सुहाई ।
उदा० सुन्दर स्याम सुराम दुह, अभिराम सभ, -आलम मग मैं पग काढ़े।
-देव वाको अयान निकारन कौं उर पाए हैं जीवन अभिसंधिता-संज्ञा, स्त्री० [सं०] कलंहातरिता के अबिताली ।
-केशव ।
नायिका ।
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अभेव
अरगजा
उदा०
| अमीकला-संज्ञा, पु० [सं० अमृत+कला = स्वाधीनपतिका उत्कला, वासक शय्या नाम । किरण] चंद्रमा, शशि। . अभिसंधिता बखानिये, और खंडिता नाम ।। उदा० अभुत अमी कला आनंदघन सुजस जोन्ह
-केशव रस वृष्टि सुहाई।
-घनानन्द अभेव-संज्ञा, पु० [सं० अभेद] अभेदता, अभि- अमुद-वि० [सं० प्र+हिं० मुंदना]-खिला न्नता, एकत्व ।
हुमा, विकसित ।। उदा० मलय को खीरिभाल, उरमाल मालती को, उदा० हाँसी बेलि बैन धुनि, कोकिल कपोल चारु एहो रघुनाथ राज रंगनि प्रभेव को ।
चिबकु गुलाब नाक चम्पक अमुंदरी । -रघुनाथ
-सोमनाथ अम्भ-संज्ञा, पु० [सं० अम्बू] जल, अथु ।
अमेजना-क्रि० स० [फा० आमेजन] मिलना, उदा० मित्र अमित्रन की अँखियान प्रवाहु सौ,
मिलावट होना । प्रानन्द सोक के अम्म को। टूटि गयी
उदा० कधी अलि मालती सुमन पै समन दै कैइकबार, विदेह महीप को सोच, सरासन
रीझि रहयो थकित सुगंधन अमेजे मैं। संभु को। -देव
-रसकुसुमाकर अमनैक-वि० [? ] बदमाश, शरारती, ढीठ ।
मोतिन की माल, मलमलवारी सारी सजें उदा० बाल गोपाल सबै अमनैक हैं, फागुन में
झलमल जोति होति चाँदनी अमेजे मैं । बचिहौब कहाँ ते । -बेनी प्रवीन
–बेनी कवि दौरि दधि दान काज ऐसो अमनैक तहाँ,
प्रमोव-संज्ञा, पु०[सं०ग्रामोद] सुगंध, सुरभि । प्राली बनमाली आइ बहियाँ गहत है।
उदा० धागे मागे तरुन तरायले चलत चले,:। -पद्माकर
तिनके प्रमोद मंद मंद मोद सकस। ममनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० अवनि ] अवनि,
-भूषण पृथ्वी ।
प्ररंग-संज्ञा, पु० [देश॰] सुगन्ध का झोंका । उदा० जब पहुँची द्वार बरात प्रकास्यौ अमनी उदा० रुप के तरंगनि बरंगनि के अंगनि तेओर अकासौ ।
-सोमनाथ
सोधो के अरंग लै तरंग उठ पौन की । अमरन की-संज्ञा, स्त्री० [सं० अमर-देवता
-देव + हिं० को-कन्या] देव कन्या, देवता की अरकना-क्रि० प्र० [हिं० अटकना] अटकना, पुत्री।
फँसना, अड़ना २. परराकर गिरना, टकराना। उदा० अमर-मूरति कबि 'पालम' है मेरे जान, । उदा० १. सरक्यो मन मेरो मंजीरन मैं, कोऊ अमरावती तें पाई अमरन की।
मुरवा की जंजीरन मैं अरक्यो। -मालम
-ग्वाल अमान-वि० [सं०] १. अपरिमित, बहुत, २.
परकस-संज्ञा, पु० [हिं० अलकसाना]- आलस्य निरभिमान ।
सुस्ती, काहिली। उदा० १. मोहे महा महिमा वै कहैं, ये भरी रहै उदा० ग्वाल कवि कहै तै न पाप मैं बिलोक्यौ मान अमान अमोही।
बेनी प्रवीन
ब्रह्म, जुदो ह न जान भज्यो भ्रम्यो-भरकस अमायस-संज्ञा, पु० [? ] भोग-विलास, उपमोग।
परकसी-सज्ञा, पु० [सं० आलस्य पालस्य । उदा० अब यह गुसामाफ करि दीजै। चलिये उदा० बीती बरस सी आप पातीह कौंबहुरि अमायस कीजै ।
-बोधा
परकसी ऐसी चित बसी तो हमारी कहा अमारी-संज्ञा, स्त्री० [अ० ] हाथी के ऊपर
. बस है।
-सेनापति रहने वाला हौदा जिस पर एक छतरी रहती है। अरगजा--संज्ञा, पु० [हिं० अरग-+जा] एक सुगंउदा० ऊलर अमारी गं ग भारी बंब धौं धौं होत। धित पदार्थ, जो केशर, चंदन और कपूर आदि
-गंगा को मिला कर बनाया जाता है।
तें
।.
-ग्वाल
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रगट
अलंक
उदा० गाज अरगजा लागे चोवा लागे चहकन अरावा-संज्ञा, पु० [फा० अराबः] गाड़ी, शकट
-देव । वह गाड़ी जिस पर तोप लादी जाती है, २. तोप अरगट-संज्ञा, पु० [हिं० आड़+सं० गात्र] उदा० धौंसा धुनि छूटत, अराबे तरपति देव, विपरदा, चूंघट ।
कट कटक, देव घटा भट जुरिगे।। उदा० बाल छबीली तियन में बैठी पापु छिपाय,
-देव अरगट ही फानूस सी परगट परै लखाय अराना-क्रि० स० [हिं० अड़ाना] अड़ाना
-बिहारी रोकना, टिकाना, अटकाना । परगाई-वि० [बु०] चुप, अलग ।
उदा० भौंहै पराल अरेरति है उर कोर कटाक्षन उदा० ठाकुर गौर करै केहि कारण बैठि रहे मन
अोर अराये।
-देव में अरगाई।
–ठाकुर अरिनी-वि० [सं० अ+ऋणी] ऋण मुक्त परगाना-क्रि० अ० [हिं ० अलगाना] १. चुप्पी उदा० हौं अमरनि के आयु के, वृन्दनि हू हित साधना, मौन होना २. पृथक् होना
छाइ । तुम सौ अरिनी हौंउ नहि, सेवा उदा० बोधा किसू सों कहा कहिये सो विथा सुनि
करि बहुभाइ ।
-सोमनाथ पूरी रहै अरगाइ कै ।
-बोधा प्रहरना-क्रि० अ० [देश॰] लचकना, मुड़ना, झुकी रानि कहि रहु अरगाई ।
बलखाना । --तुलसीदास
उदा० तीखी दीठि तूख सी, पतुख सी अरुरि अंग, अरबीन-संज्ञा, पु० [फा० अरब] अरब देश के
सख सी मरुरि मुख लागत महख सी। घोड़े।
-देव उदा० नैकु थिर धाउ अभिराम गुन सुन्दर हौ नाहि घनस्याम यह काम अरबीन की।
अरूसा-संज्ञा, पु० [हिं० अड़सा] १. एक पौंधा, -सोमनाथ
जिसके फूल और पत्त यदमा, श्वास प्रादि रोग
के लिए अति उपयोगी हैं । २. बिना रूठे । परब्बीबारे संज्ञा, पु० [सं० अर्वन् अरबी
उदा० पीरे पान खाइ नीरै चूकि के न जाइ मान इन्द्र हिं० बारे=छोटे = उप] उपेन्द्र, श्री
खई मिटि जाइगी अरूसे ही के रस मैं । । कृष्ण २. अरब की संख्या ।
-सेनापति उदा० देखती करोरि बारी संगिनी हमारी है, अरबी वारे हम संग संका कत कीजिए।
परेरना-क्रि० अ० [अनु॰] रगड़ना । -दास
उदा० मदन सदन सुख सनमुख नूपुर निनाद रस अरविन्द ठाकुर-संज्ञा, पु० [सं० अरविन्द+
निदरि अनादर अरेरि मारु । -देव हिं० ठाकुर=स्वामी] कमल का स्वामी, सूर्य अरोच-संज्ञा, पु० [सं० अरुचि ] अरुचि, दिनकर ।
विरक्ति, घृणा, नफरत । उदा० देखि कै उजेरी रही ठगि सी गोविन्द उदा० मोच पंचबान को अरोच अभिमान को, . अरविन्द ठाकुरहि औनि आतप उतारे सों। । ये सोच पति प्राण को सकोच सखियन को।
-गोविन्द परस--संज्ञा, पु० [अ० अर्थ] १. अर्श, आकाश | अरोरना-क्रि० स० [बु.] चुन चुन कर लेना, २. स्व र्ग।
छॉट-छॉट कर लेना। उदा० १. सेनापति जीवन अधार निरधार तुम उदा० आनँद अरोरै जे सॅजोगी भोगी भाग भरे, जहाँ को ढरत तहाँ टूटत अरस ते
बिकल वियोगिन की छतियाँ सकाती हैं। -सेनापति
-चातुर परसीली-वि० [सं० अलस] रोषीली, क्रोध अलंक---संज्ञा, पु० [सं० अलक] केश, बाल ।
करने वाली, २. अलसीली, आलस्य से भारी। उदा० सोभा रूप सीउ सी अनप गून भरी ग्रीव उदा० अरसीली ढीली मिलनि मिली रसीली बाल
ऊपर अलंक, रतनावलि फनीन की। -दास
-देव
-देव
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अलंग
अलिक
पलंग-अव्य० [सं० प्रल । अंग] ओर तरफ। अलबेल-संज्ञा, पु० [हिं० अलबेला, सं अलभ्य] उदा० ऊपर अटारी सजि बैठी है पलंग पर,
मन मौज, अल्हड़पन, लापरवाही । जौन-सी अलंग फॅदफंदे की देवाल है।
उदा० क्यों न पाये कंत अलबेल में अलेल में ह्व', -बेनीप्रवीन
रहे रिस-रेल में, के बैठे भूप मेल में । लेन आयो कान्ह कोऊ मथुरा अलंग ते ।
-ग्वाल -दास अलस-वि० [सं० अ+हिं० लसना = शोभित अलकत-संज्ञा, पु० [सं० अलक्त] अलक्त, लाख होना] शोभाहीन, कांतिहीन, आकर्षगहीन । से निर्मित एक प्रकार का लाल रंग जिसे स्त्रियाँ
उदा० बने बह बनक के, घने मनि कनक के, पैर में लगाती हैं।
अलस रवि छवि करै कलस कलकै । उदा० केसर निकाई किसलय की रताई लिये
-देव झाही नाहीं जिनकी धरत अलकत है। अलहन-संज्ञा, पु० [सं० अ+लभन] दुर्भाग्य,
-हरिलाल बुरा कर्म । अलगार--वि० [फा० अलग़ारों] बहुत अधिक, उदा० आस धरें पाली कति आधी रात ह गई ज्यादा।
पै अजहूँ न पाए आली अपनो अलहनो । उदा० 'ग्वाल कवि' मंसा बिहार की अपार पार,
-सुन्दर ह्व रही सवार भौंर भीर अलगार पै । प्रलापना-क्रि० अ० [सं० पालापन] तान
-वाल लगाना, गाना । अलमारन-वि० [फा० अलगारों] १. बहुत उदा० कान ह्र तान को रूप दिखावति जान जब अधिक, अतिशय, २. तेजी के साथ, तीव्र गति
कछू लागे अलापन । से ।
-घनानन्द उदा० २. नरबर ढिग नौरंग खहँ मंडे ।
अलाम-वि० [अ० अल्लामा] झूठा, असत्यवादी, तहँ अलगारन धाइ पहूँचे ।
प्रलापी, बात बनाने वाला।
-लाल कवि उदा० अापके कलाम को सलाम है अलाम राज अलगु-संज्ञा, पु० [बु०] दोष, आरोप ।।
ऐसे दगाबाज ते मिजाज मैं मिलावी ना । उदा० जो कोऊ तुम्हरी कान्हर की ये बातें सुनि
-नंदराम पावें। तो या व्रज के लोग लुगाई सबरे प्रलार-संज्ञा, पु० [सं० अलात] अलाव, प्रांव, अलगु लगावें।
प्राग का ढेर, भट्ठी ।
-बक्सी हंसराज | उदा० तान पान परी कान वृषभान नंदनी केअलगोजा-संज्ञा, स्त्री [अ०] एक प्रकार की
तच्यो उर प्रान पच्यो बिरह अलार है। वंशी।
-रघुनाथ उदा० अलगोजे बज्जत छिति पर छज्जत सुनि
अलि-संज्ञा, पु० [सं०] १. वृश्चिक राशि, २. धुनि लज्जत कोइ रहैं। -पद्माकर
विच्छ ३. भ्रमर ४. सहेली ।
उदा०१. सिंह कटि मेखला स्यों कुभ कूच मिथन अलच्छी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्र + लचमी ] प्रलषमी, दरिद्रा, गरीबी।
त्यों मुखवास अलि गुंजै भौहैं धनु सीक है। उदा० पिपासाचा धा धा द्र बीना बजावं अलच्छी
-दास अलज्जी दुऔ गीत गावै ।
-केशव
अलिक-संज्ञा, पु० [सं०] ललाट, माथा ।
उदा० किलकत अलिक जु तिलक चिलक मिस, पलप-संज्ञा, स्त्री० [देश] बहुत बड़ा संकट,
भौंहनि में बिभ्रमनि भावभेद दीने हैं। दुर्घटना ।
--केशव उदा० पल पल पूंछत बिपल दुग मृग नैनी आये चिबुक उचाइ चारु पोंछति कपोलन अंगोछत, न कमल नैन, प्राई धौं अलपरी ।
अलिक दोहू अलक दुधाही के ।
-देव
-देव
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अलिख्या
अवरेख अलिखया-वि० [सं० अलेख] अलेख, अनगिनत | अलं-संज्ञा पु० [सं० प्रालय] प्रालय, घर २. अगणित ।
अलि, सखी। उदा० उत्तम गुन निधान, निगुन गुन-निधान, उदा० दूरि करौ मधु मालती चुरकै घेरे हैं जो गुननि तिहारे बँधी औगुन अलिख्या हौं
दिसि चारि अलंकी।
-रघुनाथ -देव
प्रलोक-संज्ञा, पु० [सं० अ + लोक = यश] अलीन-संज्ञा, पु० [सं० आलीन] द्वार के चौखट अपयश, कलंक, बदनामी। की खड़ी लकड़ी, दालान या बरामदे के किनारे उदा० कैसो परलोक, नरलोक बरलोकनि मैं, का खम्मा ।
लीनौं मैं अलोक, लोक लीकनि त न्यारी हौं । उदा० दौरत दरीन को अलीन की अलीन लगि
_ --देव कटि खीन होन लागी, चिन्ता चितभंग
देवजू कौन गनै परलोक में लोक मेंकी ।
आपु अलोक लिगारिये ।
-देव -वाल अलोलिक-वि० [सं०+लोल] स्थिर, अचंचल । अलूला-संज्ञा, पु० [हिं० बुलबुला] बुलबुला उदा० लोल अमोल कटाछ कलोल अलोलिक सों २. भभूका ३. लपट ४. उद्गगार
पट अोलि के फेरे ।
-केशव उदा० १. बानर बदन रुधिर लपटाने छवि के
प्रलोकनि-संज्ञा, स्त्री [सं० अवलोकन ] अवउठत अलूले ।
-हनुमान __ लोकनि, दृष्टि, आँख । अलेखन-क्रि० स० [सं० आलेखन] लिखना, उदा० प्रिया अलोकनि में निरखि, पीक अरुन बर चित्र बनाना ।
जोति, तन दीपति दिन दीप सब, सब उदा० मंदिर की दुति यों दरसी जनु रुप के पत्र
सौतिन ही होति ।
-मतिराम अलेखन लागी ।
अल्लाना-क्रि० प्र० [सं० अर=बोलना ] -सोमनाथ
चिल्लाना, बोलना ।। अनेखी-संज्ञा, स्त्री [सं०अ+लेखी देवाङ्गना] उदा० राम कहै चकित चुरैलै चहुँ अल्लै, त्यों राक्षसी, रजनीचरी, निशाचरी ।।
खबीस करि भल्लै चौहैं चकित मसान को। उदा० लेखी मैं अलेखी मैं नहीं है छबि ऐसी
-राम कवि औ, असमसरी समसरी दीबे कों पर लिये अवगरी-वि० [प्रा० अवगर, सं० अप+ कृ ]
-दास
अपकारी, अहित करने वाला। . अलेल-संज्ञा, स्त्री [देश] १. प्रचुरता, अधिकता उदा० आवन दै होरी धीरी रहि ।। २. अत्यधिक, अतिशय [वि॰] ।
कहा नचावति मोहन अवगरी लैहीं दाव उदा० लोहू के अलेल में गलेल देत भूतभिरै, रु'डन
भावतो गहि ।
-घनानन्द को प्रेत पी पिसाच सहचारी हैं।
अवधि-वि० [सं०] १. अत्यंत, बहुत ही २.
-चन्द्रशेखर लोह के अलेल गंग गिरजा गलेले देत,
सीमा, हद (संज्ञा)।
उदा० चोंथ चोथ खात गीध चर्ब मुख चोपरी ।
---गंग
तो तन अवधि अनूप रुपु लग्यौ सब जगत को। २. खेलिके रंग अलेल चढ़ी छबि, कैसी लगै
मो दूग लागे रूप, दृगन लगी अति अटपटी ।
-बिहारी गहि घूघट प्रावन ।
-नागरीदास कंचन की बेलि सी अलेल एक सुन्दरी ही
अवर-संज्ञा, पु० [सं० आमलक] १. ऑवला, अंग अलबेली गई गोकुल की गैले हैं।
२. निम्न, अधम ।
-ग्वाल । उदा० बेल मति कीजे सिरसाबित तिहारे चकअलेली-वि० [हिं० अलेल] अत्यधिक, अतिशय
बास मैन पैहै अवर रत बिहाल है। उदा० दीह दुति रेली अलबेली की प्रलेली अब,
-नंदराम फैली दीप दीपन लौं झलक झरोखा तें। अवरेख-संज्ञा, पु० [सं० अवलेख ] १.चित्र, २.
-बेनी प्रवीन । शोभा. सौन्दर्य ।
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प्रवरेखना ( १५ )
प्रसु उदा० को है वह देखि महा मोहनी को भेख धरै । उदा० है अधरा मैं मिठाई अवादन, पावै सवाद नखसिख देव-देवता को प्रवरेख सों।
सुधा सने कंद मैं ।
-ग्वाल -देव
प्रवेज-संज्ञा, पु० [अ० एवज] प्रतिकार, बदला। प्रवरेखना-क्रि० स० [सं० अवलेखन] १. अनु- उदा० मारग में गज में चढो जात चलो अँगरेज । मान करना, सोचना, कल्पना करना २. देखना
कालीदह बोर्यो सगज लिय कपि चना प्रवेज ३. लिखना, चित्रित करना, ४. मानना ।
-रघुराज उदा० १. पाच मिली न मिली सखिया मिलि प्रसंगत-वि० [सं० प्रशंक ] १. प्रशंकित बोई सु केशव क्यों प्रवरेख्यो। -केशव
निडर, निर्भय, २. अनुचित, ३. अयुक्त, बेठीक । अवरोहना-क्रि० स० [सं० अवरोधन] रोकना, उदा० मुरली सुनत बाम काम जुर लीन भई छेकना, घेरना, पकड़े रहना २. खींचना चित्रित
धाई धुर लीक तजि, बीधी विधुरनि सों, करना ।
__ पावस नदी सी गृह पावस न दीसी पर उदा० कौन जाने को ही उडि लागी डीठि मोही
उमड़ी असंगत तरंगित उरनि सों । उर रहै अवरोही कोई निधि ही निकाई की।
-देव | प्रसकंघ-संज्ञा, पु० [सं० स्कन्ध] स्कन्ध, काण्ड, पवलच्छ-वि० [सं० अपलक्ष] गायब, दिखाई । अध्याय । न पड़ना ।
उदा० सुर ज्ञान जु ध्यान मुनिन्दनि कै बरन्यो उदा० पच्छ बिन गच्छत प्रतच्छ अंतरिच्छन में,
असकंध दुादस ।
-पालम प्रच्छ अवलच्छ कला कच्छनन कच्छे हैं। .
असकना-क्रि० अ० [हिं० अ (प्र० का आगम) --पद्माकर
+ सकाना = भयभीत होना] भयभीत होना, अवलेप-संज्ञा, पु० [सं०] गर्व, अभिमान ।
डरना उदा० गुप्तादिक षट-भेद ये, तजि कुल गलि अवलेप, उदा० पैज करी, क्रुद्ध चल्यौ रामानुज सुद्ध सुनि, नाम समान बिचारिये, उदाहरे संछेप ।
जुद्ध को पयान मघवान असकत है। -देव
-समाधान अलोना-वि० [सं० अ+लावण्य ] लावण्य असमसरी-संज्ञा, स्त्री, [सं० असमशरी] काम
रहित, आकर्षणहीन, नीरस, फीका, बेमजा । देव की स्त्री, रति । उदा० की लगि प्रलोनो रूप प्याय प्याय राखौं
उदा० लेखी मैं प्रलेखी मैं नहीं है. छवि ऐसी नैन, नीर देखें मीन कैसे धीरज धरतु है ।
और असमसरी कोबे को परै लिये।
-केशव अवगाहना-क्रि० प्र० [सं० अवगाहन] सोचना, असरार-क्रि० वि० [हिं० सरसर] निरन्तर, विचारना ।
लगातार, धारा प्रवाह, बेरोक । उदा० मेढ़ी करी काजरी पियरि बौरी भूरी चारु उदा० अति सुन्दर अँखियन में अँसुवा उमंगि चले बलही मँजीठी बन बेला अवगाहिने ,
असरारा
-बक्सी हंसराज -आलम
असावरी-संज्ञा, पु० [१] एक प्रकार का रेशमी अवलोचना-क्रि० स० [सं० आलंचन] दूर
वस्त्र, २. रुपहली साड़ी। करना ।
उदा० १. सारी असावरी की झलक, छलकै छबि उदा० को चैत को इह चाँदनी तें अलि याहि
घाघरे घूम घूमारे ।
-देव निबाहि बिथा अवलोचै।
-पदमाकर
२. सुन्दरी क्यों पहिरति नग भूषन असावली अवाची-संज्ञा, स्त्री० [सं०] दक्षिण दिशा ।
-दास उदा० प्राची प्रतीची अवाची बिलोकि दसो दिसि
असावरी मानिक कुंभ सोभै असोकलग्ना बन होत ही कूच कुचैनी।
-गंग देवता सी।
-केशव अवाब-वि० [सं० प्र+वद्य] अनवद्य, निर्दोष, | असु-संज्ञा, पु० [सं०] प्राण, चित, अनिद्य, पवित्र ।
उदा० दरस देखाई रुप नैन में बसाइ हिय मूरति
-दास
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असुरंगा
अहोमनि लसाइ कै मिलाइ लीन्हों असु है।
अहटाना-क्रि० प्र० [हिं० पाहट] आहट मिलना -रघुनाथ
पता चलना।
उदा० और ठौर कहूँ टोहेहू न अहटाति है। असुरंगा–संज्ञा, पु० [सं० असुर], असुर राक्षस,
-आलम यमराज । उदा० ताही को सुजस लोक लोकनि के अोकनि में, अहिताई-संज्ञा, स्री, [सं० अहि] सर्प का गुण, सोकनि के थोकनि कौ देत असुरंगा है।
सर्पवत् ब्यवहार, कुटिलता। -सूरति मिश्र उदा० क्यों अहिताई गहो हमसे कवितोष रहै कहुँ मान मिताई ।
-तोष असली-वि० [सं० अ+ शैली] कुढंगी, अनुचित कुमार्गी ।
अहूं-संज्ञा, पु० [सं० अहंकार] अहंकार, गर्व उदा० हैली हिम रितुह में निरखि असैली रीति, घमंड। फैली अंग अंगनि में गरमी लवंग की ।
मानु तजौरी पुकारि पिकी कहै, जोबन -सोमनाथ की करिबे न अहूँ है ।
-देव असोस-वि० [सं० अशोष्य] न सूखने योग्य । अहूँवना-क्रि० स० [हिं० अहुटाना?] हटाना उदा० गोपिन के असु वनि भरी सदा असोस अपार भगाना, दूरकरना । डगर डगर ने ह रही बगर बगर के बार।
उदा० भौरनि अहूँ दें जग सुन्दरता रुदै मनौं, -बिहारी
मकरंद बूंदै अरबिन्द पै तें बरसैं । असौज-वि० [हिं० प्रसुझ] अंधेरा, अँधकारमय
-सोमनाथ २. कठिन, विकट ।
प्रह-संज्ञा, पु० [फा० पाह] मृग । उदा० सुनि उद्धव श्री व्रज राज बिना हमकी सू
उदा० अह हरिनन में मिलत अद्धद्धसत सु अद्ध । असौज असौजत है।
-पद्माकर -सूरति मिश्र
अहूख-वि० [?] अरुचिकर फीका, दुखद, पीड़ा असौजना-क्रि० स० [हिं० असूझना] आर-पार
उत्पन्न करने वाला । दिखाई न पड़ना, अँधकार मय प्रतीत होना । उदा० सुनि उद्धव श्री ब्रजराज बिना हमकौं सु
उदा० ऊख पियूख मयूखनि हूखनि, लाग अहूख असौज असौजत है।
-सूरति मिश्र
लखै सुर रुखै। असौंध-संज्ञा पु०[ हिं० सुगंध] दुर्गंध, बदबू ।
अहूत-वि० [सं० आहूत निमंत्रित, बुलाये गये,
आमंत्रित । उदा० अँह पागम पौनहि को सुनिये । नित हानि असौंधहि को गुनिये।
उदा० पाई मन भाई सो अकेली बन कुंजन में, -केशव प्राइ गये लाल मानौ मदन अहूत री।
-बेनी प्रवीन अस्फी-संज्ञा, पु० [फा० अस्प+ई] घुड़सवार, अश्वारोही।
अहल-वि० [सं० अ+ शूल] १ शूल रहित, उदा० सु प्रस्फी घने दुंदुभी हैं धुकारे।
पीड़ा रहित, आनन्दमय, सुखद २. अनिंद्य । -पद्माकर
उदा० १. कूल है नदी को प्रतिकूल है गुमान री, प्रहकना-क्रि० प्र० [हिं० प्रहक. सं० ईहा]
अहू लहै सु तौन जौन जीवन अहूल है । प्रबल कामना या इच्छा करना, लालायित होना, लालसा करना ।
अहोमनि—संज्ञा, पु० [सं० अहोमणि] सूर्य, दिनउदा० लीन्हीं सुधि नाहिं अजौं कोर करुना की
मणि । चितै, कितै रहें बितै दिन, गोपी गिन | उदा० केतिक और अहोमनि होति, जहाँ छवि अहकी। -हफीजुल्ला खां के हजरा से
कोटि अहोमनि की हत ।
-देव
-देव
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श्रक -संज्ञा, पु० [सं० अंक ], अंक, शरीर । उदा० गोरे आँक थोरे लाँक थोरी बैस भोरीमति, घरी घरी और छबि अंग अंग मैं जगे ।
आलम
प्रांकि - संज्ञा, स्त्री० [सं० अंक ] समता, बराबरी । उदा० तेरी सी आँकि तुही नहि आनत काम की कामिनि तो सिरदच्छी । -- गंग
कुर– संज्ञा, पु० [सं० अंकुश ] अंकुश । उदा० सौक सांकरनि नहि गुनत श्रांकुरनि को, मनहु मैनाक जल निधि हिलोरें । श्रीग -- संज्ञा, पु० [सं० श्रंग] छाती, स्तन, उरोज ।
- देव
उदा० कहै पद्माकर क्यों श्राँग न समात श्रांगी - पद्माकर
श्रांगना -- क्रि० स० [हिं० अँगवना, सं० अंग ] सहन करना, बर्दाश्त करना । उदा० कहि कबि गंग ऐसे पिय सों बियोग, मोसी सखी सों उदेग सब एक बेर आँगई ।
1
--गंग
श्री - - संज्ञा, स्त्री० [सं० अंगिका ] अँगिया, चोली, कंचुकी । उदा० कहै पद्माकर क्यों ग्राँग न समात प्राँगी ।
--पद्माकर
आँट - संज्ञा, स्त्री० [हिं० श्रंटी] दबाव, दाँव २. बैर, लाग-डाँट । लौं लगि -- बिहारी
उदा० आँटे परि प्रानन हरें कांटे
पाय ।
- संज्ञा, पु० [सं० दू] बाँधने की जंजीर, लोहे की बेड़ी ।
उदा० कुंजर से दृग तेरे भट्ट ! गुन के गुन माल जरेई रहैं ।
(क) खून करें सब 'आलम' को फिर लाज के श्रदू परेई रहें । (ख) अंजन दू सौं भरे, तैन ।
-श्रालम
जद्यपि तुव गज-- रसनिधि
अ
श्रॉन -संज्ञा, स्त्री० शोभा ।
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[फा० आन] छवि, छटा
उदा० जिरम आंनरस रंग बिन, तजि कुडोल छंद मंग । लीजै कविता रतन में, संग ढंग अरु रंग । --नागरीदास श्रबरी - संज्ञा, पु० [सं० श्रामलक] श्राँवला । उदा० प्राँब छाँडि आँबरी को काहे लागि छीर्यं कोऊ, छीर छांड़ि छाछ पीए खोई खाए खाइगे । गंग श्रवदनी -संज्ञा, स्त्री० [फा० आमद] श्रागमन, अवाई, आना ।
उदा० -- जानि के प्रवदनी बर की चित चाइनि सों तित ही करिकै रुख । ठाढ़ी भई मिलि के तिय गाँउ की नाथ बरात को देखन कों सुख ॥ -सोमनाथ
वदनी सुनि चंदमुखी बनि के निजु कों रति ते जितवैरी । --सोमनाथ श्राँवरे -- संज्ञा, पु० [सं० श्रामलक] आँवला, एक प्रकार का कसैला फल | उदा० कहै पद्माकर अंगूर ऐसे प्राँवरे से फूलत फुलौरी से फुलिंग के तमासा से ।
—पद्माकर
श्राँसलो - वि० [हिं० श्रांस, सं० काश] वेदनायुक्त, वेदना वाला, पीड़ा उत्पन्न करने वाला । उदा० पटक्योई पर यह अंकुर श्राँसलो ऐसी कछू रसरीति घुरी ।
-घनानन्द
श्राँसी - संज्ञा, स्त्री० [सं० अंश ] १. बैना, वह मिष्ठान्न जो इष्ट मित्रों में बाँटा जाता है । २. श्रंश हिस्सा ३. टुकड़ा
उदा० १. काम कलोलनि मैं मतिराम लगे मनौ बाँटन मोद की श्राँसी । - मतिराम २. नारि कुलीन कुलीननि ले रमै मैं उनमें चहों एक न झाँसी ।
-दास
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अटपट
आढ़ना ३. गॉसी ऐसी आँखिन सों आँसी आँसी कियो
बाल, सोचि रही ऊतर उचित कौन आखिय तन फाँसी ऐसी लटनि लपेटि मन ले गई ।
-सेनापति --गंग प्रागिया---संज्ञा, पु० [?] खद्योत्, जुगनू नामक अटपट-संज्ञा, पु० [अनु॰] कठिनाई, मुश्किल । __ कीड़ा ।
उदा० कहाँ भान भारौ कहाँ आगिया बिचारी उदा० सेनानी के सटपट चन्द्र चित चटपट, अति प्रति अटपट अंतक के प्रोक के। -केशव
कहाँ, पूनौ को उजारौ कहाँ मावस अँधेर
--भूधरदास पाई--संज्ञा, स्त्री० [सं० आर्यां] अइया, वृद्ध
प्रागौ-वि० [सं० अग्र] बढ़कर, प्रागे । दासी
उदा० जीव की बात जनाइये क्यौं करि जान कहाय उदा० धाइ नहीं घर, दासी परी जुर,
अजाननि प्रागौ ।
-घनानंद प्राई खिलाई की आँखि बहाऊँ । --केशव प्रागौनी-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] १. आतिशबाजी, प्राउड़े--वि० [सं० पाकुड] १. उमड़ता हुआ
२. अगवानी । २. गंभीर, गहरा।
उदा० १. अति उमेद बाढ़ी उर अन्तर प्रागौनी मनमानी।
-बक्सी हंसराज उदा० भरे गुण भार सूकूमार सरसिज सार शोभा रूप सागर अपार रस पाउड़े।
आजना-क्रि० अ० [?] बिछाना । -देव
उदा० पदकमय मंडल मनोहर मदुल आसन प्राजि प्राकना--क्रि० स० [हिं० आँकना]
रुपरासि किसोर दोऊ दिपत बैठि विराजि । बताना,
-घनानन्द आँकना ।
आजि-संज्ञा, पु० [सं०] लड़ाई, संग्राम, युद्ध उदा० चाह्यौ चल्यो कहि तोष सुप्रीतम ती उद० सून मैथिली नप एक को लव बाँधियो वर हिय के दुख जात न आके। --तोष
बाजि । चतुरंग सेन भगाइ कै सब जीतियो प्राकर-वि० [सं०] तलवार चलाने में चतुर,
वह प्राजि ।
-केशव प्रवीण।
प्राजिबिराजिन-संज्ञा, पु०[सं० प्राजि = युद्ध+ उदा० चौहान चौदह आकरे। धंधेर धीरज
विराजी = शोभित] शूर, वीर।
उदा० सुनिये कुल भूषन देव विदूषन । बह आजिधाकरे ।
-पद्माकर बिराजिन के तम पूषन ।
-केशव प्राकसपेचा-संज्ञा, पु० [फा० इश्केपेचाँ]
आठहं गांठक्रि० वि० [सं० अष्ट ग्रंथि] सब इश्कपेचा नामक पुष्प, एक बेल जो पेड़ों पर
प्रकार से, भली भांति, शरीर की पाठ गाँठे। लिपट जाती है।
उदा० मायी पिये इनकी मेरी माइ को हैं हरि उदा० आकसपेचा माल गुहि पहिराई मो ग्रीव ।।
पाठहुँ गाँठ अठाये ।
-केशव हूँ निहाल बलिमा करी दासी जानि क जीव । प्राडबंद-संज्ञा० पु० [हिं० आड़+ बंध] कमर
-मतिराम कसने का कपड़ा, पेटी, फैट, पटुका, कमर बंद । प्राकूत--संज्ञा, पु० [सं०] अभिप्राय, किसी वस्तु
उदा० कसि कसि कटि सों बाँध पाड़ बँद मूर का आशय जहाँ चेष्टा सहित समझाया जाय ।
खंजरी बजावै । ---बक्सी हंसराज उदा० जानि पराये चित की ईहा जो प्राकूत
आडिली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० अड़ या प्रार] हठ,
जिद्द, प्राग्रह । होय जहाँ सूच्छम तहाँ, कहत सुकवि पुरहूत उदा० फूलनि के भूषन सजत ब्रज भूषन, तजत
-मतिराम
प्यास भूषन, अनोखी उर पाडिली। माखना-क्रि० स० [सं० पाख्यान] १. कहना,
-देव २. चाहना।
प्राढ़ना-क्रि० स० [सं० अलू = वारण करना] उदा० बानी मुनि दूती की जिठानी त सकानी । प्राड़ना, रोकना, वेंकना, पकड़ना ।
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आतताई
उदा० झिझकत भूमत मुदित अंचल को छोर दोऊ
मुसुकात गहि, हाथन सो प्राढ़ों है ।
- पद्माकर
बतलाई, पृ० [सं०] आततायिन] १. आग लगाने वाला २. विष देने वाला । उदा० बरनि बताइ, छिति ब्योम की तताई जेठ आयौ श्रातताई पुटपाक सौ करत है । --सेनापति प्रातमभूत – संज्ञा, पु० [सं० प्रात्म भू] कामदेव, मदन, रतिपति, काम-वासना ।
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उदा० सुन्दर मूरति आतम भूत की जारि धरीक में छार कियो है । -केशव बहु भांतिन हारि सिखाय सबै सखि, श्रातम भूत के दूत घने । --द्विजदेव श्रासन मारे बैठ सब जारि प्रातमाभूत
·
प्रातस - संज्ञा स्त्री० [फा० श्रातिश] अग्नि, आग । उदा० ज्यों छिन एक हो में छुटि के लगे आतसबाजी ।
( १६ )
--
-जायसी पावक,
जाति है प्रातस
- पद्माकर
-
आदर्श]
-
श्रावरस - संज्ञा, पु० [सं० शीशा, दर्पण | उदा० दोइ सौते ठाढ़ी जहाँ तहाँ प्राणप्यारो प्रायो आपु आदरस एक लीन्हे बड़े प्रोज को । - रघुनाथ आनक --संज्ञा, पु० [सं०] नगाड़ा, दुंदुभी, डंका । उदा० श्रानक की झनक अचानक ही कान परी देव जू सुनत बसही के सुध काज सों
-देव
श्रामा - संज्ञा, पु०, [सं० अ ] जल, पानी । उदा० दशरथ के राम, श्रौ स्याम के समर जैसे, ईस के गनेस श्री कमल पत्र आना के ।— गंग आबरखोर संज्ञा, पुं० [फा० आवरखोरा ] गिलास, २ प्याला, कटोरा । उदा० आबरखोरे छोर के जमाये बर्फ चीर के, सु बंगले उसीर के, भिजे गुलाब नीर के ।
ग्वाल
आप
-संज्ञा, पु० [सं०] १. रस २. जल । उदा० १. अच्छर हैं विशद करति उ आप सम जातें जगत की जड़ताऊ बिनसति है ।
-सेनापति
-
-दास
श्राभासमनि -संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रभास = असत्य + मनि = मरिण रत्न ] नकली रत्न । उदा० जाकी सुभदायक रुचिर, करते मनि गिरि जाइ । क्यों पाए आमासमनि होइ तासु चित चाइ । आमिर संज्ञा, पु० [अ०] हुक्म चलाने वाला । उदा० नव नागरि तन- मुलुकु लहि जोबन आमिर जौर । - बिहारी आयसु — संज्ञा, पु० [सं० आयस] १. लोहे का कवच २. प्रदेश, आज्ञा ।
उदा० श्रायसु को जोहैं आगे लीन्हे गुरुजन गन, बस में करति जो सुदेस रजधानी -दास आर संज्ञा, स्त्री० [हिं० आड़,] तिलक, टीका उदा० केशर आर दिये सुकमारिय । मैन मई झलक नवनारिय । --बोधा श्रारबी संज्ञा, पु० [सं० प्रारव] भीषण शब्द, गर्जना ।
उदा० कोट गढ़ गिरि ढाहें जिनकों दुरंग ना हैं बलकी अधिक छवि आरवी सहित है । -सेनापति -संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रालि ] पंक्ति, समूह । उदा० रतिहू तें नीकी प्यारी प्यारे कान्ह जाके पाछे बेनी की बनक डोलें मानो अलि आलसी ।
श्राल
- आलम
――――
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बारे
श्रालमतोग - संज्ञा, पु० [फा० आलम = झंडा + तोग, पताका ] झंडा और पताका । उदा० श्रानि लियो उन मरंगो लोग । आरम्भ - संज्ञा, पु० उदा० रंभाऊ न भाव सोभित सरीर आरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० प्राला] ताक, ताखा, अरवा २. ओर, तरफ [सं० आर ] उदा० विछवाए पौरिलौ बिछौना जरीबाफन के बखाये दीपक सुगंध सब आरी में ।
आलम तोग भाजे लाज - केशव [सं०] प्रथमोत्थान, उठान । ऐसे रुप को प्रारम्भ देखि, मधि आभा आभरन की । - - आलम
-
—रघुनाथ
श्रारे-संज्ञा, पु० [हिं० श्राला] ताखे, आले । उदा० श्रारे मरिण खचित खरे, बासन बहु वास भरे, राखित गृह गृह श्रनेक, मनहु मैन साजै । -केशव
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पाह
आरौ
( २० प्रारौ-संज्ञा, पु० [सं० आरव] पारव, शब्द, | उदा० १.दीरघ मत सतकबिन के अर्थाशय लघुतर्ण आहट ।
कवि दुलह याते कियो कबि कुल कंठाभरणं उदा० दूरितें आय दुरै हो दिखाय अटा चढ़ि जाय
-दूलह गयौ तहाँ आरौ ।
-रसखानि
प्राशीविष-संज्ञा, पु० [सं०] सर्प, सांप । मालकस-संज्ञा, पु० [सं० आलस्य] सुस्ती, उदा० पाशीविष दोषन की दरी । गुरण सत पुरुषन पालस्य ।
कारण छरी ।
--केशव उदा० जम्माह को जानिये. सात्विक भावन माह होत पालकस आदिते, बरनत हैं कबि
आस--संज्ञा, पु० [सं० असु] असु, प्रारण, जीव नाह।
उदा० मनो कर जोर पाँचो तत्व एक ठीरह के -बेनी प्रवीन
पास लेने आपने को धाये चहुँ ओर तें माला--वि० [अ] १. उत्तम, बढ़िया, श्रेष्ठ २.
-रसलीन गौखा, ताखा । उदा० सोने की अँगीठिन में अगिन अधम होय.
प्रासा-संज्ञा, पु० [अ० असा] डंडा, सोने चाँदी
का डंडा जिसे बरात आदि में चोबदार शोभा होय धूम धार हू तो मृगमद पाला की ।
के लिए ले कर चलते है। -वाल
उदा० आप कहूँ आसा कहूँ तसबी कहूँ कितेब । आली-संज्ञा, स्त्री० [पहा०] क्यारी, चार विस्वा
-बिहारी के बराबर खेत ।
माँगत है भीख मौ कहावे भीख प्रभु हम उदा० प्राली चंदन की न क्यों पाली माली कूर ।
धरे याकी पासा याकों प्रासा धरे देखिये -दीनदयाल
-दास आले-वि० [सं० आर्द्र] १. गीला, पा, २.
प्रासार-संज्ञा, पु० [सं०] वृष्टि, वर्षा २. चिह्न उत्तम, अधिक [अ०] ।
लक्षण [अ०].. उदा० १. आड़े दै प्राले बसन जाड़ेह की रात,
उदा० पानँद पयोद सु बिनोद प्रासार बल मधुर साहस के के नेह बस सखी सबै ढिग जात
रसनिधि तरंगनि बिराजत उगचि । प्राबज--संज्ञा, पु० [हिं० आबझ] बाजा विशेष,
-घनानन्द ताशा । उदा० बहबंदी जन पढ़त बिरद बज्जत पावज
प्रासिलो-संज्ञा, पु० [अ० वसीला] जरिया, साज घन । तिहि समैं मुहूरत जानि के
बहाना । लग्यौ सिंहासन पै चढ़न । ---सोमनाथ
उदा० कहि धौं कछू पासिलो भयौं । कै काहू बन जीवन हयौ ।
-केशव प्रावरे-वि० [?] दीन, शिथिल । उदा० औसर न सोचें घनानंद बिमोचै जल लोचैं
पासना-संज्ञा, स्त्री० [फा० प्राशना] प्रेमिका,
नायिका । वही मूरति अरबरानि आवरे ।।
-घनानन्द
उदा० मध्य रस सिंधु मानौं सिंहल त पाई वह
तेरी पासनाउ गुन गहौ तीर पाई है। ऊषमा विषम विषमेखु स्वेद विदु चुवै अधर
-सेनापति न पावरे सुमन सर साधी सी । -देव
आहन-संज्ञा, पु० [फा०] लोहा।। प्रावस-संज्ञा, स्त्री० [हिं० औस] प्रौंस, माप । उदा० पाहिन जाति अहीर अहो तुम्हें कान्ह कहा उदा० अन्तर-पाँच उसास तचे प्रति, अंग उसीज
कहौ काहू की पीर न ।
-देव उदेग की आवस ।
-घनानन्द
पाहु-संज्ञा, पु० [सं० पाहव] साहस, हिम्मत । प्राशय-संज्ञा, पु० [सं०] १. कोष्ठागार, विभव उदा० रहयो राहु अति प्राहु करि मनु ससि सूर २. तात्पर्य ।
समेत ।
-बिहार
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इंगवं- - संज्ञा, पु० [ ? ] शूकर दन्त । उदा० बंक लगे कुच बीच नखच्छत देखि भई दृग दून लजारी । मानो वियोग बराह हन्यो युग शैल की संधिन इंगवं डारी । केशव इंडुरो— संज्ञा, स्त्री० [सं० कुंडली ] कपड़े की गोलाकार गद्दी जिसे पानी के घड़े या बोझ आदि के नीचे रख लिया जाता है । उदा० गागरि डारि मजे इंडुरी गहि काँकरि डारत प्रौसर ले हो ।
-श्रालम आई संग लिन के ननद पठाई नीठि, सोहति सुहाई सीस ईडुरी सुपट की ।
- पद्माकर
इंदरा मंदिर —संज्ञा, पु० [सं० इंदिरा-मंदिर ] लक्ष्मी का गृह, कमल । उदा० देवजू इंदिरा मंदिर की नव सुंदरि इंदरामंदिर नैनी । -देव इंदु उपल- -संज्ञा, स्त्री० [सं०] चन्द्रकांतमरिण, उदा०
इंदु उपल उर बाल कौ, कठिन देखे बिन कैसें द्रवै, तो मुख
मान में होत । इंदु उदोत । — मतिराम
इन्दुनंव-संज्ञा, पु० [सं० इन्दु = चंद्रमा + नंद = पुत्र = बुध ] बुध, एक ग्रह विशेष । उदा० भने रघुनाथ किधौं मेरुकंदरा में चंद, कंधों भानु गोद में बिराजो इन्दुनंद री ।
--रघुनाथ इंदुमनि -संज्ञा, स्त्री ० [सं० इन्दुमरिण ] चन्द्रकांतमरिण नामक एक मरिण जो चन्द्र प्रकाश में द्रवित होती है । उदा० इंदुमनि मंदिर महालय हिमालय ते ऊँची रुचि, करतु सुमेरु सानु भानु तर । —देव इकंक — कि० वि० [हिं० एक + आंक ] पूर्णरूपेण, निश्चय । उदा० घटती इकंक होन लागी लंक बासर की । केस तम बंस को मनोरथ फलीनमो ।
- दास
राम तिहारे सुजस जग, कीन्हों सेत इकंक ।
-दास
इ
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इकच्चक संज्ञा, पु० [सं० एक चक्र ] सूर्य, रवि । उदा० स्रवन मैं हाथ कुंडलाकृति धनुष बीच, सुंदर बदन इकचक लेखियत है ।
-सेनापति इकठां-संज्ञा, पु० [हिं० एक + ठाँव स्थान ] एक स्थान, एक जगह। उदा० भूलि सबै सुधि खेलन की,
न घरीक कहूँ एकठां ठहराति है ।
- सोमनाथ इकतो - वि० [सं० एक ] अद्वितीय, बेजोड़ एक ही ।
उदा० काछ नयौ इकतौ बर जेउर दीठि जसोमति रांज करी । —रसखानि इकलाई — संज्ञा, स्त्री० [हिं० + लाई या लोई = पत्त ] चादर, एक पाट का महीन दुपट्टा । उदा० पाय दियौ चलिब को उतें सिर ते इकलाई गिरी रँगसानी | - सोमनाथ इकलासवि० [सं० एकरस ] समान, एक ढंग कियो सबही - ठाकुर
का ।
उदा० कुबरी - कान्हर को इकलास विधि खूब है अल्ला । इकहाऊ— क्रि० वि० [सं० एक + हि० हाई, प्रत्य] एक बारगी, एक साथ, अचानक । उदा० त्यों पद्माकर भोरी झमाइ सु दौरों सबै हरि पै इकहाऊ । - पद्माकर
—घनानन्द
इकसे - वि० [सं० एक + आवास ] अकेले 1 उदा० सौतिन तें पिय पाय इकौंसे भरे भुज सोचसकोच निवारे । इचनि – संज्ञा, स्त्री० [ ? ] आकर्षण, खिंचाव 1 उदा० नीकी नासा पुट ही की उचनि अचंभे भरी, मुरि कै इचनि सों न क्यौंहू मन तें मुरं ।
—घनानंद इजाफा -संज्ञो, पु० [अ० इज़ाफ़ा ] वृद्धि, बढ़ती । उदा० ग्वाल कवि कहे प्याला, बाला ये दुहून ही
-ग्वाल
में, सबही ने जान्यौ ठीक आनंद इजाफा सौ । इजार संज्ञा, पु० [फा० इजार ] पायजामा, सूथना ।
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इंडियाना
( २२ उदा० घेरदार पांइचे, इजार कीमखापी ग्वाल इंडियाना – क्रि० प्र० [हिं० प्रड़ियाना ] हठ करना, अड़ना । उदा० रस के निधान बसकरन बिधान कहौ, आज इड़ियाने छिड़ियाने कैसे डोली हौ । —ठाकुर इतमाम -संज्ञा, पु० [अ० एहतमाम ] प्रबन्ध,
इन्तजाम 1
उदा० तिलक छरी गहि कनक की, त्योंरी तेज जसोल । करत श्रनख इतमाम कौं पिय नहि सकै सकोल । -नागरीदास इतिमान संज्ञा, पु० [अ० इहतिमाम ] इन्तजाम, प्रबन्ध, व्यवस्था । उदा० भारी दरबार भर्यो भौंरन की भीर बैठ्यी मदन दिवान इतिमाम काम काज को । -पंडित प्रवीन
ईचनि - संज्ञा, पु० [सं० ईक्षण] आँख, नेत्र । उदा० काल्हिहि नीठि कठोर उठे कुच ईचनि सों ठनि के निठुराई । - देव ईच्छा -- संज्ञा, स्त्री० [सं० इच्छा ] इच्छा, कामना उदा० भोर कठोर हियो करि के तिय सों पी बिदा भौ बिदेस के ईछे । - पजनेस
ईछी - संज्ञा, स्त्री० [सं० इच्छा ] इच्छा, कामना, अभिलाषा ।
उदा० भेष भयो विष भावे भोजन को कछु ईछी ।
न भूषरण, भूख न - देव
ईछु — संज्ञा, स्त्री० [सं० ईक्षु] ईख, गन्ना । उदा० दाखऊ माखनऊ मिसिरी मधु ईछु मिल किन आजु उबीठो । — देव ईठि- क्रि० वि० [सं० इष्टि] १. यत्न पूर्वक अच्छी तरह, चेष्टा पूर्वक २. मित्रता, दोस्ती ३. सखी (संज्ञा, स्त्री ० )
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;
इलबेस – संज्ञा, पु० [अ० इल्बास ] पहनावा, वेश ।
हा
उदा० रेसमी रखत इलबेस सी सुदेस किये, देखि देस देस के नरेस ललचात हैं ।
— गंग इलाम – संज्ञा, पु० [अ० ऐलान ] हुक्म, आज्ञा, इश्तिहार ।
उदा० ठान्यो न सलाम मान्यो साहि को इलाम धूम धाम के न मान्यो रामसिंहहू को बरजा । -- भूषरण इषुधी- संज्ञा, पु० [सं० इषु = वारण + धि - धारण करना ।] तूणीर, तरकश उदा० नेकु जहीं दुचितो चित कीन्हो । सूर तहीं इषुधो धनु दीन्हो ।
-केशव
उदा० १. सखियाँ कहैं सु साँच है लगत कान्ह की डीठि । कालि जु मो तन तकि रहयो उभरयो प्राजु सो ईठि ।
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- दास
३. याको अचंभो न ईठि गनो इहि दीठको बाँधिबो श्रावै घनेरो ।
- दास
ईनो - संज्ञा, स्त्री० [प्रा० ईड = स्तुति ] १. स्तुति, प्रशंसा २. प्रार्थी, अभिलाषी [प्रा० ईरा ] उदा० बैठी मृग छाला सी दुलीचिये विछाइ बाला
माला मुकुता को धरे ध्यान अब ईनो है । - तोष रति मांगी तुमते करी ईड़ा । —सबलसिंह ईहा - संज्ञा, स्त्री० [सं० इच्छा ] इच्छा, कामना, अभिलाषा ।
उदा० जानि पराये चित्त की, ईहा जो प्राकूत । - मतिराम
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उकढ़ना-क्रि० अ० [प्रा० उक्कडिढय, सं० । उकीरे- वि० [सं० उत्कीर्ण] खुदे हुए, उत्कीर्ण, उत्कर्षित] निकलना, आगे बढ़ना ।
छपा हुअा। उदा० यह कहि तुरंग कुदाइ आगे उकढ़ि अरि- । उदा० दाम ही के बीरे हैं कि विद्रम उकीरे हैं गन में गयौ।
-पद्माकर
कि किधी बरबंधु बर बंधुक प्रभा के हैं। उकताना-क्रि० अ० [सं० प्राकुल] १. जल्दी
- केशव
चित्र मैं चितेरी है कि सन्दर उकेरी हैं की • करना, जल्दीबाजी करना २. ऊबना ।
जंजीरनि जेरी है। ज्यो घरी लौ भरतु उदा० १.कह ठाकुर क्यों उकताव लला इतनी सुनि राखिय मों पहियां । -ठाकुर
-सुन्दर
उखटना- क्रि० उकर-संज्ञा, पु० [अ० उक्ल:] बॉध, बँद, मर्यादा |
प्र० [हिं० उखड़ना]
उखड़ना, पैरों का लड़खड़ाना । प्रतिष्ठा २. बड़ाई ।
उदा० नैन द्रवै जलधार, उखटत लेत उसांस उदा० १. ग्वाल कवि कहै एक घाटी तो जरुर रैन अँधेरी डोलि हौं, गावत जुगल उसास । मोमें गोबर न थाप्यो, भी न खोयी मैं
- नागरीदास उकर है ।
--ग्वाला
उखलना-क्रि० स० [देश॰] फैलना, बिखरना । २ भनै समाधान ऐसो पौन को कुमार गिरि
उदा० उखली सुबासु गृह अखिल खिलन लागीं. द्रोन को लियायौ ताकी कोन सी उकर
पलिका के आस पास कलिका गुलाब की को। -- समाधान
-देव उकराइन- वि० [बु01 हैरान, परेशान ।
अम्बर नील मिली तम तोम खिली उखली उदा० ठाकुर कहत उकराइन भई हौं सुनि,
मुख सोम उजेरी ।
-देव सुनि के उराहनोजी हो रहो अधरको
उखेलना-- क्रि० स० [सं० उल्लेखन] लिखना, -ठाकुर
खींचना, उरेहना । उकसनि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० उकसना] १.उभाड़, उदा० खेलत ही खेलत उखेलत ही प्रांखिन. स. - छाला उठने की क्रिया २. ददोरा।
खिन खिन खीन ह्व खरेई खिन खोइ गए। उदा० १. रहसि रहसि हँसि हँसि कै हिंडोरे चढ़ी लेति खरी पैगै छबि छाजै उकसनि में ।
उगति-संज्ञा, स्त्री० [सं० उक्ति] कथन, चमत्कार अज्ञात
पूर्णवाक्य, चतुरता पूर्वक वचन । २. दग लागे तिरछे चलन, पग मन्द लागे,
उदा० चातुरी सों राधिका सों सहेट की ठौर की उर मैं कछूक उकसनि सी कढ़ लगी।
यों सुन्दर सुनाइ कही सिगरी उगति है । -- रस कुसुमाकर से
उगार - संज्ञा, पु० [सं० उद्गार] उगली हुई उकास संज्ञा, स्त्री० [बु ०] फुरसत, छुट्टी ।।
वस्तु । उदा० बासर उसासनि सो औसरौ न पावै पलू,
उदा० एक पियति चरनोदकनि, एक-उगारनि निस अँसुवनि सों न नेकुहू उकासु है ।
खात ।
-केशव - पालम
उघुद्रनि-संज्ञा, पू० [सं० उत्कथन] उघटन, उकासना-क्रि० स० [हिं० उकसाना] ढीली ताल देने की क्रिया, संगीत में सम पर तान करना, खोलना ।
तोड़ने का कार्य । उदा० पहिरति हेरति उतारति धरति देव दोऊ उदा० वह लाल की चाल चुभी चित मैं रसखानि कर कंचुकी उकासति कसति है। -देव
संगीत उघुट्टनि की।
- रसखनि
-देव
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उचटना
उझलना
उचटना-क्रि० प्र० [हिं० उचट] फैलना, छिट-
नाहि कटै दिन कैसे ।
- देव कना २. पृथक होना, निकलना ।
२. कहि तोष छुये कर रंग पटै उछटै उदा० भूषन यो घमसान भो भूतल घेरत लोथिन
पलिका पटिया लपटै ।
-तोष मानो मसानी । ऊँचे सुछज्ज छटा उचटी उछीर-संज्ञा, पु० [ हिं० छीर =किनारा ] प्रगटी परभा परमात ही मानी ।
[प्रा० उच्छिल्ल] १. छिद्र, विवर २. जगह,
-भूषण स्थान, अवकाश ।। २. मनो काम चमू के चढ़े किरचे उचट । उदा० १. ग्वाल कवि सोभा ते सरीर मैं उछीर कलधौत के नालन की।
- गंग
हीन कढ़ी चंद चीर जाइ नहिं भाखे गुन उचाकु--संज्ञा, पु० [सं० उच्चाट] १. उचाट,
-- ग्वाल विरक्ति २. उच्चाटन, तंत्री के छः अभिचारों में
२. चनक मूंद, द्रुम कुंज उछीर । सोर करत। से एक ।
किकन मंजीर ।
- नागरीदास उदा० नींदौ जाइ, भूखो जाइ, जियह में जाइ उजगना-क्रि० प्र० [हिं० उझकना] उचकना,
जाइ, उरह में प्राइ आइ लागत उचाकु चौंकना। सा।
-गंग
उदा० सोवति, जगति, उजगति, अनुरागिनि, उचाना-क्रि० स० [सं० उच्च-करण]उठाना,
बिरागिनिह देव बड़भागिनी लजानी है। ऊपर करना ।
-देव उदा० जानति हौ भुज मूल उचाय दुकूल लचाय उजहना-क्रि० अ० [हिं० उजड़ना?] नष्ट होना, लला ललचंयत ।
-देव समाप्त होना, उजड़ जाना । रवाल कवि करन उचाय उलटाय पीछ, उदा० यौबन के प्रावत उजहि गई एक बार बालक कंध तें मिलाय तन तोरत सरस के ।
बयस की बसी ही जौन बौरई ।- रघुनाथ
-रवाल उझकना-क्रि० प्र० [हिं० उचकना] १. चौंकना, उचलना--क्रि० स० [हिं० उकेलना] उचाड़ना, २. झांक कर देखना, ३. उछलना । निकालना, किसी लिपटी हुई वस्तु की तह को उदा० १. जज्यों उझकि झाँपति बदन कति अलग करना ।
विहँसि सतरात ।
-बिहारी उदा० जीव रह्यौ तुव नेह की प्रास, उसासनि
२. मोहि भरोसो रीझि है उझकि झांकि सों हिय मास उचल्यो ।
-सोमनाथ इकबार ।
-बिहारी ग्वाल कवि बाहन की पेल में, पहेल में, कै
उझपना-क्रि० स० [अनु॰] खुलना, उन्मीलित बातन उचेल में, के इलम सफेल में ।
होना । -ग्वाल
उदा० पद्माकर झपि उझपि उझपि झपि रहत उछंग-संज्ञा, पु० [सं० उत्संग] गोद, अंक, क्रोड़
दूगंचल ।
- पद्माकर २. छाती।
उझरना-क्रि० अ० [सं० उत्सरण. प्रा० उदा० इतै बहु द्यौस में प्राइक धाइ नवेली कों
उच्छरण] ऊपर की ओर सरकना, ऊपर की बैठी लगाइ उछग ।
-दास और उठना। उछकना-क्रि० अ० [हिं० छकना] नशा उत- उदा० करु उठाइ चूंघटु करत उभरत पट रना, होश में आना।
गुझरौट। उदा० छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषम
सुख मोटै लूटी ललन लखि ललना की छवि छाकु । -बिहारी
लौट । उछटना-क्रि० अ० [सं० उच्चाटन, हिं० उच
-बिहारी टना] १. भड़कना, बिचकना २. उछलना, कूदना उझलना-क्रि० अ० [सं० उल्झरण] उमड़ [हिं० उछलना]।
पड़ना, ढलना, प्रवाहित होना । उदा० १. बीजु छुटे उछटै छबि देव घटै छिनु । उदा० झिल की न जाने हिल मिल की ननाज
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उझलि ( २५ )
उदोत बात, हिलकी मैं सोम झिलमिल की । उदा० पातकी पतित अति प्रातूर उतार तारे उझलि पर ।
-ग्वाल
पातुर पिसाच काम-कातर करन ये । उझलि-संज्ञा, स्त्री० [सं० उल्झरण, प्रा० प्रोज्झरो], निर्भर , उमड़ाव, बाढ़, प्रवाह, उतू--- संज्ञा, पु० [? ] कपड़े आदि में बेल-बूटे बहाव, एकत्र होना २. ऊपर की ओर उठना, बनाने का एक औजार । उदा० रूप की उझलि अछि प्रानन पै नई नई उदा० चोली चुनावट चीन्हें चुभे चपि होत उजातैसी तरुनई तेह-प्रोपी अरुनई है।
गर दाग उतू के।
--घनानन्द -घनानन्द उत्तपनि-संज्ञा, पु० [सं० उत्ताप ] १. उत्ताप, झेलो वियोग के ये उझिला निकसे जिनरे
ज्वाला, गर्मी, तपन । २. कष्ट । जिमरा जिरा ।
-ठाकुर
उदा० १. उत्तपनि-रत रितुपति में तपति अति, उझेल-संज्ञा, पु० [हिं० उझलना] ढालने की
निसिपति-कर उर ताप सी गहति है। क्रिया, उड़ेलने का कार्य ।
-आलम उदा० अमल अमेल में, कै प्यालिन उझेल में,
उथपना--क्रि० स० [सं० उत्थापन] नष्ट करना, के रहे कि झेल में, के झूलों की झमेल में।
उजाड़ना, उखाड़ना । --ग्वाल
उदा० माथे मोर पंखा धरे स्यामरो सों रघुनाथ उटकना-क्रि० स० [सं० उत्कलन] अटकल
बड़ी बड़ी आँखि करै कोल को उथपनो। लगाना, थाह लगाना, अनुमान करना ।
-- रघुनाथ उदा० छलबल दलबल बुद्धि बिधान ।
कवि आलम थान थपे उथपे की रहै बलू के उटक्यो प्रबदुल्लहखान । -केशव
के नर बैन रचें।
- पालम उटक्कर-वि० [? ] अंधाधुंध, बहुत अधिक । उदंगल-वि० [सं उद्दण्ड] उद्दण्ड, धूष्ट ।। उदा० सीसन की टक्कर लेत उटक्कर घालत उदा० जंगल के बल से उदंगल प्रबल लूटा महमद छक्कर लरि लपटें ।
-पद्माकर
अमी खां का कटक खजाना है। उटना-क्रि० प्र० [हिं० ओट ] प्रोट में हो
-भूषण जाना, छिप जाना ।
उदग्ग-वि० [सं० उदग्र] प्रचण्ड । उदा० भजि चले एकै देखि ऋद्धित कुँवर को इत उदा० तिनके सिरन पै अति उदग्ग सूखग्ग नप उत उटै ।
-पद्माकर घालत भये ।
-पदमाकर उठेल-संज्ञा, स्त्री० [ हि० ठेल ] ठेल, धक्का, उदबस-वि० [सं० उद्वासन] उजाड़, सूना । । चोट ।
उदा० मन न लगत उदबस लगै प्रान सो उदा० अरिबर सिलाही बहु गिराये सक्ति को जु
--- आलम उटेल मों।
-पद्माकर उदारिज-संज्ञा, स्री० [सं प्रौदार्य], औदार्य, उतमंग-संज्ञा, पु० [सं० उत्तमाङ्ग] सर, उदारता । मस्तक ।
उदा० चारि उदारिज आदि दै सोभादिक त्रय उदा० (क) बन्दक शिवा के चोली बन्द कसि वाके
जानि । ।
दास गुहे मोती उतमंग के उमा के उत मंग उदेत-वि० [सं० उदय] उदित, निकलना के ।
-देव उदा० नगर निकेत रेत खेत सब सेत-सेत. ससि (ख) सोहति उतंग उतमंग ससि संग गंग।
के उदेत कछु देत न दिखाई है। - देव
--सेनापति उदोत-- संज्ञा, पु० [सं० उद्योत] चाँदनी,ज्योत्स्ना उतल्ल-वि० [हिं० उतावला] उतावला ।
प्रकाश। उदा० संकरषन फुकरै, काल हुँकरै उतल्ल ।
उदा० इंदु के उदोत तें उकीरी ही सी काढ़ी, सब -- चन्द्रशेखर
सारस सरस, शोभा सार तें निकारी सी। उतार-वि० [देश॰] उपेक्षित, तुच्छ, निकृष्ट । .
केशव
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-गंग
उद्दित
उबठना उहित-वि० [सं० उद्यत] उद्यत, प्रस्तुत, तैयार
खाइये, सिंधु सोइ है जहाँ जल खाइये । उदा० रहयो द्यौस जब व घरी, साजि सकल
-रघुनाथ सिंगार । उद्दित व अभिसार को, बैठी
उपविक्रि० वि० [बुं०] पसन्गीस, अपनी मर्जी से परम उदार।
___- देव
। उपदि बरयो है यहि सोभा अभिरत हो । उनदोही--वि० सं० उन्निद्र] उनीदीं निद्रा ग्रस्त
-केशवदास उदा० पारयो सोरु सुहाग को इनु बिनु ही पिय उपधि-क्रि० वि० [बुं०] धोखे से, छल से । नेह । उनदौंही अँखियाँ ककै, के अलसौंहीं
उदा० किधौं यह राज पुत्री बरही बरी है किधौं देह ।
- बिहारी
उदधि बरयो है यह सोभा अभिरत है। उनमाथना- क्रि० स० [सं० उन्मथन] मथना,
-केशव विलोड़ना।
उपनये---वि० [देश॰] नंगा, बिना जुता के । उदा० जल तें सुथल पर थल तें सुजल पर उथल
उदा० जिन दौरियो उपनये पावन हरुबाइल के पुथल जल, थल उनमाथी को ।
पाछे । .
-बक्सी हसराज - बेनी
उपसीजना-क्रि० प्र० [सं० उपयेज] अधीन उनमानना - क्रि० अ० [सं० अनुमान] अनुमान
होना, वश में होना । करना, संभावना करना।
उदा० आज कहूँ उपसीजि न जाहुगी, जोन्ह तें उदा० (क) तनु कंबु कंठ त्रिरेख राजति रज्जु सी
जीति हौ मेरी गोसाइन । उनमानिये,
. -केशव
उपाना- क्रि० स० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न करना (ख) राजा राइ राने उमराइ उनमाने, उनमाने निज गुन के गरब गिरबीदे हैं ।
पैदा करना ।
उदा० ही मनते विधि पुत्र उपायो। जीव उधारन -देव मन्त्र बतायो।
- केशव उनरना-क्रि० प्र० [ सं० उन्नरग-ऊपर जाना] १. उठना, उमड़ना २. कूदना, उछलना,
उपावन-संज्ञा, पु० [सं० उपाय] रक्षण, रक्षा
उदा० जब एक समै प्रभु भावन बावन, सन्त । कूदते हुए चलना।
उपावन देह धरी। उदा० २. मेरो कहयो किन मानती मानिन,
-गंग प्रापुही तें उतको उनिरोगी।
उपाहन-संज्ञा, पु० [सं०] जूता, पदत्राण । -देव
उदा० धोती फटी सी टी दुपटी अरु पाय उपाहन उनाना-क्रि० स० [सं० उन्नमन] लगाना, प्रवृत
की नहिं सामा ।
-नरोत्तमदास करना २. भरना, रंजित करना ।
उपैजाना-क्रि० प्र० [देश॰] उड़जाना । उदा० एकनि भेटि दुहुँ भुज देव हियो ग अंजन
उदा० देखत बुरै कपूर ज्यौं उप जाइ जिन, बाल । रंग उनैक। ---देव
-बिहारी उनाव-संज्ञा, पु० [सं० उन्नमन] उत्तेजना,
उफाल-संज्ञा, पु० [देश॰] बड़ी लम्बी डग, जोश ।
छलांग मारते समय की डग । उदा० बनावै उनावै सुनावै कर रक्खे । रबाब उदा० जल जाल काल कराल-माल-उफाल पार बजावै सु गावै हरक्खे । -पद्माकर
धरा धरी ।
-केशव उपंगी-संज्ञा, पृ० [१] नसतरंग नामक वाद्य
उबटना-क्रि० अ० [हिं० उचटना] चित्त से उदा० पगि पगि पुनिपुनि खिन खिन सुनि सुनि
उतर जाना, अरुचि होना, उदासीन होना। मृद मृद ताल मृदंगी मृहचंगी झांझ
उदा० देखि कहाँ रहे धोखे परे उबटौगे ज देखौ उपंगी।
-दास ब देखहु प्रागे ।
- केशव उपखान-संज्ञा, पु० [सं० उपाख्यन] १. कहावत
उबठना-क्रि०अ० [सं० उद्व जन] अरुचि उत्पन्न २. पुरानी कथा।
होना, उदासीन होना । उदा० है जग में उपरवान प्रसिद्ध सुनो रघुनाथ, उदा० अलंकार सो सार है उबिठै सुनत न वर्ष । की सौंह सुनाइयो । वृक्ष सोई है जहाँ फल
-रघुनाथ
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उबरानो
काम की घात प्रघाति नहीं दिन राति नहीं रति रंग उबीठे ।
देव उबरानी - वि० [हिं० बना] ऊबी हुई, उचटी हुई । उदा० घेर घबरानी उबरानी ही रहति घन आनँद आरति राती साधनि मरति है ।
2
घनानन्द
उबारक- संज्ञा, पु० [हिं० उ = और + बारक = बार + एक ] एक बार और एक से अधिक बार दुबारा पुनः । उदा० त्यों न करें करतार उबारक ज्यों चितई वह बारब धूटी ।
रबोधना
--
केशव -क्रि० प्र० [सं० उद्विदध] १. उलझना, फँसना, २. धँसना, गड़ना । उदा० १. बीधी बात बातन, सगीधीगात गातन, उबीधी परजंक में निसंक अंक हितई ।
देव
-
आजु भिरंगी पिये मदमत्त, फिर,
उत्साह भरी उमदानी ।
-
--
बाचे प्रेम पद्धति उमाचे न उर आँच सहि शूल परि रही है ।
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बड़वानि
बिहारी
बेनी प्रवीन उमहना- क्रि० प्र० [हिं० उमंग ] उमंगित होना उल्लसित होना, प्रसन्न होना ।
उदा० माया रूप प्रोपी बुद्धि बिधि की बिलोपी जिन गोपी ते तिहारे गुन गाइ व्रज उमही । - देव उमाचना- क्रि० स० [सं० उन्मंचन] निकालना,
-
उभाड़ना, उत्पन्न करना, ऊपर उठाना । उदा० लाज बस बाम छाम छाती पे मानौं, नाभि त्रिबली तैं दूजी उमांची री ।
(
-
-
उमंगंत
-
उबरेना- -क्रि उरगना० स०: [बुं०] गाय चराना, गाय को चराने ले जाना । उदा० खोलि खोलि खरिकन के फरकन गायें श्रानि उबेरी । बक्सी हंसराज उभवाना- क्रि० प्र० [सं० उन्मद ] उन्मत्त जैसी चेष्टा करना, मतवाला होना । उदा० वे ठाढ़े उमदाहु उत, जल न बुझ
छली के नलिनि -द्विजदेव अनंग - देव
२७ J
मद
उमात्यो - वि० [सं० अन + मत्त ] निर्मंद, रहित, जिसका नशा उतर जाय । उदा० जाके मद मात्यौ सो उमात्यो ना कहूँ है कोई । - देव
--
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उमीदे - वि० [फा० उम्मीद] उम्मीदवार माशांवान्, आशान्वित ।
--
उदा० सुजस बजाज जाके सौदागर सुकवि चलेई - देव श्राव दसहूँ दिसान के उमीदे हैं । उरकना -- क्रि० प्र० [हिं० रुकना ] रुक जाना, ठहर जाना ।
उदा० लाडिले कन्हैया, बलि गई बलि मैया, बोलि ल्याऊँ बलभैया, भाई उर पे उरकि -देव
जाइ ।
उबाठना
उरग - संज्ञा, पु० [?] १. ऋण मोचन, कर्जा से मुक्ति या छुटकारा २. सर्प । उरगावत रजपूत उरग सोचि पचि ।
उदा० १.
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-क्रि० ० प्र० [हिं० उरग] १. पाना, मुक्त होना २. स्वीकार करना [सं० उरगी करण ] ।
उदा० १. उरग्यौ सुरग्यौ त्रिबली की गली गहि नाभि की सुन्दरता संधिगौ । ठाकुर २. जो दुख देइँ तो ले उरगी यह सीख सुनौ । केशव उरगाना - क्रि० स० [ ? ] ऋण मोचन करना, कर्ज से छुटकारा देना, कर्ज से मुक्त करना । उदा० उरगावत रजपूत उरग बिन जात सोचि पचि । केशव उरबसी- -संज्ञा, स्त्री [ ? ] १. गले का एक आभूषरण, धुकधुकी २. उर्वशी नामक अप्सरा । उदा० तो पर वारों उरबसी सुनि राधिके सुजान । तू मोहन के उरबसी ह्न उरबसी समान ॥ - बिहारी होत अरुनोत यहि कोत मति बसी आजु, कौन उरबसी उरबसी करि आए हो । - दूलह क्रि० सं० [सं० उद्बहून, प्रा० उब्बहन ] शस्त्र चलाना, फेंकना, हथियार खींचना । उदा० है न मुसक्किल एक रती नरसिंह के सीस पै सांग उबाहिबो । - बोधा उबीठनः— क्रि ० स० [सं० अव + इष्ट ] प्ररुचिकर होना, ऊब जाना, घबरा जाना ।
-
उबाहना
बिन जात केशव
—
छुटकारा ३. सहना
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उरबीमुर ( २८ )
उलद उदा० माथुर लोगन के सँग की यह बैठक तोहि । उदा० उमराव सिंह उराव करि अरि-झंड-मंडन अजौं न उबीठी ।
---केशव को हरै ।
--पद्माकर उरबीसुर--संज्ञा, पु० [सं० उर्बीसुर] ब्राह्मण,
अति उराव महराज मगन अति जान्यौ पृथ्वी के देवता।
जात न काला ।
-रघुराज उदा० श्री गुरु को उरबीसुर को कुल के सुर को उराह-संज्ञा, पु० [सं० उपालम्भ ] उलाहना, सुर और गनाऊँ।
- तोष शिकायत । उरबो- क्रि० स० [देश॰] निकलना, अंकुरित
उदा० सुख जीवन काज अकाज उराह । -देव होना।
उड-संज्ञा, स्त्री० [हिं० उरेड़ना, उड़ेरना - उदा० सोन सरोज कलीन के खोज उरोजन को गिराना] प्रवाह, धारा । उरबो जु निहारो ।
--देव उदा० मोद-घन झर लायौ केलि-सिंधु सरसायी उररना- क्रि० अ० [हिं० उलरना ] झपटना,
प्रेम की उरेड़ कुलकानि मैड़ तोरी है । बलात धंसना, कूदना ।
-घनानन्द उदा० मोहन महा ढरारे, सोहन मिठास मारे, उलंक-संज्ञा, पु० [ बुं०] १. बड़प्पन, मर्यादा जोहन उररि पैठि बैठि उर भोरी हौं।
२. नग्न, नंगा ।। -घनानन्द
उदा० १. कवि ठाकुर फाटी उलंक की चादर उरराना-क्रि० अ० [सं० उरु =विशाल ]
देउँ कहाँ कहँ लौं थिगरी । -ठाकुर उमड़ना, निकलना, एकत्रित होना ।
उलंघना-क्रि० स० [हिं० उलंग ] १. नग्न उदा० घहरत गज, फहरत पट बने ।
करना, वस्त्रहीन करना २. उल्लंघन करना, दरसन हित नर बहू उरराने ।
डाँकना, नाँघना।
-नागरीदास | उदा० १. कर जोर झकझोर उलछार जंधै । उरवायगी-संज्ञा, पु० [हिं० बाइगी] सर्प का
लगे बालके चार आंसू उलंघै।
-बोधा विष उतारने वाला, गारुडी। उदा० लोक-लोह रहै नाहिं लाज न लहरि लागै
उलछारना-क्रि० स० [सं० उत्+शालय प्रा० कुल उरवायगी बिलोकही नसत है। अप
उच्छार] उछालना, ऊँचा फेंकना । जस नींब प्राली नेक करुवाय नाहि काकी
उदा० करै जोर झकझोर उलछार जंधै । परवाहि प्रान लैबे की हसत है ।
लगे बाल के चार आँशू उलंघै । --केशव केशवराय
-बाधा उरसना--क्रि० अ० [हिं० उड़सना ] धंसना,
उलझारना—क्रि० स० [हिं० उलटना] उलटना, प्रवेश करना २. उथल-पुथल करना ।
हटाना । उदा० रूप गरबीलो अरबीलो नंद-लाड़िलो सु,
उदा० मृदु मुसकाइ गुढ़ाइ भ्रज घन घंघट उलदृग-मग उरस्यो परत प्राली उर मैं ।
झारि। को धन ऐसो जाहि तूं इकटक रही -घनानन्द निहारि ।
--पद्माकर उरा-संज्ञा, स्त्री० [सं० उर्वी] पृथ्वी, जमीन,
उलथना-क्रि० अ० [सं० उद्=नहीं+स्थल = भूमि ।
जमना] उलटना, ऊपर नीचे होना । उदा० हार उतार हिये पहिरै पुन । पाँव धरै उदा० नीबी के छुवत प्यारी उलथि-कलथि जात लहित्यौ न उराधन ।
-बोधा
जैसे पवन लगे लोट जात बेली ज्यों चमेली उरारा-वि० [सं० उरु] विशाल, विस्तृत ।
की।
-बोधा उदा० रूप भरे भारे अनूप अनियारे दृग कोरनि उलव-संज्ञा, स्त्री० [हिं० उलदना]झड़ी, वर्षण ।
उरारे कजरारे बूंद ढरकनि । -देव उदा० देख्यों गुजरेटी ऐसे प्रात ही गली में जात उराव-संज्ञा, पु० [सं० उरस् + आव (प्रत्य॰)]
स्वेद मर्यो गात भात घन की उलद से । चाव, चाह, उत्साह, उमंग, उल्लास, हौसला ।
-रघुनाथ
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उलदना
(
२६ )
-
उसारनी
उपदमा १० स. ह. उलटना] अला. २८ जबलि चुदाई की ।
उलवना-क्रि० स० [हिं० उलटना] उँडेलना,
उवनि लुनाई को लवनि की सी लहरी । उलटना, ढालना, बरसाना ।
-देव उदा० उलदत मद अनुमद ज्यों जलधि-जल, उवारे-संज्ञा, पु० [हिं० ओहार] पर्दा, पालकी बल हद भीम कद काहू के न प्राह के । या रथ पर ऊपर से लगाया जाने वाला वस्त्र ।
-भूषण उदा० चारि ढाक के थंम निवारे, लै तुम्बा सरजू जल पानी।
घर तें बांई ओर उवारे। -सोमनाथ उलदत मुहरै सब कोई जानी।
उवाहना-क्रि० स० [सं० उद्वाहु ] हथियार -रघुराज
उठाना, चलाना । उलरना-क्रि० अ० [सं० उद्+लव"=डोलना] उदा० झुक झुक उवात खग्ग मुंड बरषत वर्षा झपटना, टूटना ।।
इम ।
-बोधा उदा० कह गिरिधर कवि राय बाज पर उलरे
उसटाना-क्रि० स० [सं० उद् + सरण] उखाड़ना धुधकी । समय समय की बात बाज कहूँ
हटाना, भगाना । घिरवै फुदकी।
-गिरिधर
उदा० बह ढाल ढक्कन सों ढकेलि अरिंद उसटाए उलहना-क्रि० अ० [सं० उल्लंघन] हरा-भरा
भले ।
-पदमाकर होना, प्रफुल्लित होना, फूलना, प्रस्फुटित होना ।
उसरना-क्रि० अ० [सं० उद्+सरण] निकउदा० देवजू अनंग अंग होमि के भसम संग अंग
लना, उद्भूत होना २. हटना, दूर होना, अंग उलयौ अखैबर ज्यों कुंड मैं ।
स्थानान्तरित होना । -देव
उदा० उसरि उरोज गिरि हरिद्वार हिरदै तें उलाक-संज्ञा, पु० [? ] संदेश वाहक, हर
राख्यौं जिहिं सागर गहीर नाभि झपिकै। कारा, पत्र ले जाने वाला ।
-देव उदा० उरज उलाकनिहूँ आगम जनायो पानि, बसन सँभारिबे की तऊ न तलास सी ।
उसलता-क्रि० अ० [हिं० उसरना] हटना, स्थान
भ्रष्ट हो जाना, स्थानांतरित होना। -दास
उदा० ऐल-फैल खैल मैल खलक में गैल गैल उलाहित-क्रि० वि० [बुं०] शीघ्र, जल्दी । ।
गजन की ठेल पैल सैल उसलत हैं। उदा० १. देव दुहँ करि के सुख संग उलाहित ही
-भूषण उठि अंग अंगौछे ।
---देव २. देवरानी जिठानी सबै जगतीं
उसल फुसल-संज्ञा, पु० [हिं० उथल-पुथल ] खड़को सुनि हैं न गहौ बहियाँ ।
उथल-पुथल, उलट फेर । हमैं सोवन देउ उलाइत का
उदा० ऐरे दसकंध, बीस प्रांखिन सौं अंध देखि, हरि धीर धरी हिरदय महियाँ ।।
एक कपि लंका कीनी उसल-फुसल है । -ठाकुर
-सूरति मिश्र उलीचना--क्रि० स० [हिं० उल्लुंचन] फेंकना,
उससना-क्रि० स० [सं० उत् + सरण ] १.
खिसकना, टलना २ सांस लेना। डालना, छोड़ना, उलचना ।
उदा० १. वैसिये सु हिलिमिल, वैसी पिय संग उदा० रंग सौ मांचि रही रस फागु पूरी गलियाँ त्यों गुलाल उलीच में ।
-ठाकुर
अंग, मिलत न कहूँ मिस, पीछे उससति जाति ।
-रसकुसुमाकर उलेखना--क्रि० स० [हिं० उरेखना] उरेखना,
२. एक उसांस ही के उससे सिगरेई सुगंध खींचना, चित्र बनाना, अंकित करना ।
विदा करि दीन्हें ।
-केशव उदा० ताहि कहै बस आन बधू के, सु तू बिन मीतिहिं चित्र उलेखै। -कुमारमणि
उसारना-क्रि० स० [सं० उत्सारण] १. हटाना,
तोड़ना, दूर करना २. निमूल करना, उखाड़ना उवनि-संज्ञा, पु० [सं० उदय प्रा० ऊपन ]
३. निछावर करना, बरसाना [हिं० पौसाना] उदय, निकलना, प्रकट होना ।
उदा० १. आनंदघन सों उघरि घुसँगी उसरि उदा० चन्द से बदन भानु भई वृषभानु जाई, |
पैज की पाजै ।
-घनानंद
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उसारनि
(
३०
)
ऊखिल
२. द्विज गऊ पालहि, रिपु उसालहिं सस्त्र उसीती-वि० [प्रा० उस्सिय] १. उन्नत, ऊँची धावहि तन सहै ।
-पद्माकर २. गर्वित, उद्धत [प्रा० ऊसित्त]। ३. गोल ग्रीव की सोभा ऊपर कंबू अनेक उदा० १. सूती सी नाक उसीती सी भौंह सुधारे उसारे ।
-सोमनाथ
से नैन सुधारस पीजै । उसारनि--संज्ञा, पु० [हिं० उसारना ] उगला
-केसव केसवराय हुआ पदार्थ ।
उसीस-संज्ञा, पु० [सं० उत् + शीर्ष ] १. उदा० एक पियति चरणोदकनि, एक उसारनि सिरहाना २. तकिया । खाति ।
-केशवदास उदा० ताहि तू बताइ जोई बाँह दै उसीसैं सोई. उसालना-क्रि० स० [सं० उत् + सारण ]
ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं । -गंग उखाड़ना, हटाना ।।
उसुमासन-संज्ञा, पु० [सं० उद्बासन] खुचड़, उदा० दीनन कौ पालै गाढ़े गढनि उसाले तब - दु:ख, घर से निकालने का कष्ट, परेशानी । सज्जै करबालै ऐसो कौन बरबंड है।
उदा० देवर की त्रासनि कलेवर कॅपत है, न -सोमनाथ
सासु-उसुप्रासनि उसास लै सकति हौं । उसासना-क्रि० स० [हिं० उसास] उभाड़ना, - सांस को बढ़ाना ।
उहँडे-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] सेंध, नकब । उदा० फिरि सुधि दै, सुधि धाइ प्यो, इहिं । उदा० कब काहु की चोरी कीनी कब उहँडे मुंह निरदई निरास । नई नई बहरयौ, दई ।
पाये।
---बक्सी हंसराज दई उसासि उसास ।
-बिहारी उहारी लगना-क्रि० प्र० [ देश० ] वाणी की उसीजना-क्रि० अ० [हिं० उसनना], उबलना, अनुध्वनि करना । गरम होना ।
उदा० कोइल अलग डारि बोलति उहारी लगे, उदा० अन्तर-आँच उसास तचै अति, अंग उसीजै
डहडही जोन्ह जी में दाह सी लगति है। उदेग की आवस । --घनानन्द
--गंग
-दास
उदा० 'द्विजदेव' ज ऊक औ बीक हिये मैं, गुपाल के फंद भयोई चहैं ।
-द्विजदेव ऊकना-क्रि० स० [ हिं० ऊक ] जलाना, दुख
देना। उदा० कवि 'ग्वाल' डरा बछरा के छटै.
छरा टूट परो क्यों ऊकती हैं।
ऊँटकटारा-संज्ञा, पू० [सं० उष्ट्रकंट ] एक प्रकार की कंटीली झाड़ी जिसे ऊँट बड़े चाव से । खाते हैं। उदा० खारक-दाख रुवाइ मरौ कोउ ऊँटहि ऊँटकटारोई भावै ।
-केशव कक-संज्ञा, स्त्री० [सं०=उल्का ] लुगाठ,
जलता हुमा अंगारा । २. टूटता तारा । उदा० १. ऊक भई देह बरि चक है न खेह भई. हुक बढ़ी पैन बिबि टूक भई छतिया ।
–पालम २. तीनिहू लोक नचावति ऊक मैं मंत्र के सूत अभूत गती है।
-देव ऊकबीक-संज्ञा, पु० [सं० उद्विग्न] उद्विग्नता, बेचैनी, घबराहट ।
-ग्वाल
ऊखिल--संज्ञा, पु० [ब्रज०] किरकिरी २. पराया,
अपरिचित, अजनबी । उदा० १. ऊखिल ज्यौं खरके पुतरीन मैं, सूल की मूल सलाक भई है ।
--घनानन्द २. भोर लौं अखिल भीर अथाइन द्वार न कोक किंवार भिरैया ।
--देव
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ऊगना
(
३१
ऊगना
- क्रि० प्र० [सं० उदय ] प्रकाशित होना धूमिल वस्तु का प्रकाशित होना । उदा० पंच रंग- रँग बेंदी खरी ऊठे जोति ।
ऊगि मुख- बिहारी ऊजा - वि० [सं० ऊ ] १. शक्तिमान, बलशाली २. बेग |
उदा० एक लीन्हे सीस खाय, वेष ईस एकन को, एकन को उपमा निहारी मन ऊजा से । -दुलह कवि उजाड़, उजड़ा
ऊझड़ -- वि० [हिं० उजाड़ ] हुआ ।
उदा० नरकन के रखवारे भाखें । ऊझड़ नरक हम
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-
---
कहाँ राखें । — जसवन्तसिंह
-
०
ऊटना-क्रि अ० [हिं० प्रोटना] १. उमंगित होना, उल्लसित होना, जोश में आना २ कहना, किसी बात को बार-बार कहना या रटना । उदा० १. काज मही सिवराजबली हिंदुवान बढ़ाइबे को उर ऊटै । - भूषण २. रास में लेवाइ गयो मोंहि मनमोहन के मोहन के मोहिबे को ऐसे आप ऊट गयो । - रघुनाथ आवतो हमारी गैल सोई ब्रज छल फेरि, बैर घर बाहेर की ऊटती तो ऊटती । —बेनी प्रवीन
ऊठ--- -संज्ञा, पु० [देश०] बहाना, मिस । उदा० कवि देव सखी के सकोचन सों, करि ऊठ सुमीसर को बितवे । -देव बैठी हुती ढिग आई अली सुदई सब ऊठ महीसों उठाय के । -कृष्ण कवि -संज्ञा, पु० [हिं० [उठना] उठान, जोम, जोश, उमंग | उदा० चूसि हों जो निचुरो सो हटकावत श्रीदुकं ऊठा ।
ऊठा
पर रसु ज्यों —बेनी प्रवीन
ऊठी
-संज्ञा, स्त्री० [सं० उत्थान] १. उठाने की विधि, लेने का ढंग २. हौसला, उमंग, उत्साह उदा० १. चोरी मैं कि जोरी में कि रोरी मैं कमोरी मैं कि भूमि झकझोरी मैं कि भोरिन की ऊठी मैं । २. मुठी बाँधे पासे नैन ऊठी बँधी भावते की गरे बँधी स्वास श्री निरास देह तिय की । —रघुनाथ
ग्वाल
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)
] १. भूत,
प्रेत २.
ऊत - संज्ञा, पु० [ देश ० जंगली, बेवकूफ, मूढ़ । उदा० १. भूतनाथ भूतनाथ पूतना पुकारै उन्हें ऊतरो न देत ऊत रोन लगे संग के । - देव २. है जमदूत सो ऊत कपूत या भूत के संग सो राम छुड़ावै ।
-अज्ञात
—
ऊतरु
-संज्ञा, पु० [सं० उत्तर ] स्वीकृति । उदा० बिनती रति विपरीत की करी परसि पिय पाइ । हँसि अनबोले ही दियौ ऊतरु, दियो बताइ । - बिहारी
"
ऊमर
तलवार
ऊन संज्ञा, पु० [सं० ] एक छोटी जिसका व्यवहार प्रायः स्त्रियां करती हैं । उदा० सैफन सों, तोपन सों, तबल रु ऊनन सौ दक्खिनी दुरानिन के माचे झकझोर है ।
- कवीन्द्र ऊनरी - वि० [हिं० उनये ] घिरा हुआ, छाया हुआ, झुका हुआ ।
उदा० ऊनरी घटा मैं वह चूनरी सुरंग पैन्हि, दूनरी चढ़ाय रंग करि गई खून री ।
ग्वाल
7
ऊनो-वि० [सं० न्यून] १. कठिनं २. व्यर्थ । उदा० ऊनो भयौ जीबो अब सूनो सब जग दीस, दूनो दूनो दुख एक-एक छिन मैं सहौं ।
-घनानन्द
-
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ऊबट
-संज्ञा, पु० [सं० उद् ( बुरा ) + वर्त्य (मार्ग) कठिन मार्ग, खराब रास्ता २. ऊबड़खाबड़ वि०] ।
उदा० ऊबट लुटाऊ बटपारन बटाऊ लुटान नट कपट माखन चोर । ऊभना- - क्रि० प्र० [सं० उद्गवन] खड़ा होना, उठना २. ब्याकुल होना । उदा० अनि उभी जे खुभी श्रंखियान,
लुभी ललचानि, चुभी चितही में । -देव नेकु चले चिते छांह ऊभी ह्र' के ऊभी बाँह बार-बार अंगराय, पाँगुरीनु जोरि के ।
- आलम
पट. लंपट - देव
ऊमक
-संज्ञा, स्त्री० [सं० उमंग ] उठान, वेग । उदा० इक ऊमक अरु दमक सँहारे । लेहि साँस जब बीसक मारे । -लालकवि ऊमर — संज्ञा, पु० [सं० उदुम्बर ] गूलर, एक
फल ।
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ऊर ( ३२ )
एनमद उदा० अधिरात भई हरि आये नहीं हमें ऊमर | ले चले उचारि एक बार ही पहारन कौं, को सहिया करि गे ।
--ठाकुर
बीर रस फूलि ऊलि ऊपर गगन कौं । ऊर---वि० [ ? ] कुरस, नीरस, स्वादहीन २.
-सेनापति न्यून [प्रा० ऊरप] ।
ऊलर-वि० [ ? ] प्रकम्पित, हिलती-डुलती। उदा० सरस परस के बिलास जैड़ जाने कहा, नीरस निगोड़ो दिन भरै भखि ऊर सों।
उदा० ऊलर अमारी गंग भारी बंब धीं धौं होत,
धार के भिखारी के हजारी कोऊ जात है । -घनानन्द
-गंग ऊरी-अव्य० [सं० अवर] दूर, परे, उरे। उदा० नेक न नीचिये बैठति नागरी, जोबन हाथ
ऊसर- वि० [प्रा० ऊसल, सं० उत् + लस्] १. लिये फिरै ऊरी।
--गंग
उल्लसित, पुलकित, प्रसन्न २. क्षार-भूमि,
जिसमें बीज नहीं पैदा होता। ऊलना---क्रि० स० [सं० शूल, हि० हल]। । १. भाले आदि की नोक गड़ाना या चुभाना
उदा० ले हरमूसर ऊसर ह्र कहूँ पायो तहाँ बनि २. झूमना, प्रसन्न होना, उछलना, कूदना ।
कै बलदाऊ।
--पद्माकर उदा० जानो सुधा के भरे कलसा खड़े सूर से ये
ऊहर--संज्ञा, पु० [ प्रा० उहर ] उपगृह, छोटा उर ऊलि रहे हैं।
-गंग
घर । २. वृथारी कथा वाचिकै, नाचि ऊले । नहीं देव कोई, सबे झूठ झूले ॥
उदा० ऊहर सब कूहर भई बनितन लगी बलाय । -देव
-बोधा
ऍन-संज्ञा, पु० [सं० अयन] गृह, घर ।
। उदा० नख-पद-पदवी को पावै पदु द्रोपदी न, उदा० एँन ऍन ते हौं प्राजु गोरस के बेचिबे की ।
एको बिसौ उरबसी उर में न प्रानिबी। निकसी अकेली अति सुमति रली रली।
-केशव -सोमनाथ
एनमद संज्ञा, स्त्री० [सं० एण + मद] मृगमद, एकचक-संज्ञा, पु० [स] सूर्य, रवि ।। उदा० श्रुति ताटंक सहित देखियै । एकचक्र रथ
कस्तूरी। सो लेखिये ।
-केशव उदा० यों होत है जाहिरे तो-हिये स्याम । एकौबिसौ-क्रि० वि० [हिं० एक बिस्वा] थोड़ा
ज्यों स्वर्नसीसी भर्यो एनमद बाम ॥ भी, किंचित मात्र ।
--- दास
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ऍचना-क्रि० स० [ हि० खीचना ] खींचना,
तानना ।
उदा० दीन्हीं ऐंचि गाँसी पंचवान बखियान में ।
सोमनाथ ऐनमैन - वि० [फा० ऐन + सं० मैन ] ठीक मोम की भाँति, ठीक मोम जैसा ।
उदा० मैन की बरी सी, ऐन मैन सुपरी सी, अरी बेसुध परी सी, फैन बूंद मुख मरी सी ।
-ग्वाल
ऐनें संज्ञा, पु० [अ० ऐन] नेत्र, आँख । उदा० सरनि तें पैने मीन मृगनि ते ऐनें, हेरे हियौ हरि लेने हैं सुजान सुख देनें हैं। - सोमनाथ ऐरौ पॅरो - क्रि० प्र० [ ? ] डूबना, उतराना । उदा० घिरिंग बैताल ताल खेलत धिगानो मानो, लोहू की भभक भैरौ ऐरौ पैरो ह्र रह्यो ।
-गंग ।
प्रोखे - संज्ञा, पु० [सं०] बहाने, मिस, होला । उदा० प्रानंद ते गुरु की गुरुताऊ गनी गुन गौरि न काहुहु प्रोखे । -देव श्रोत्र – सं०, पु० [सं०] राशि, समूह, ढेर उदा० मेरे मिलाये मिली दिन द्वक, दुरे दुरे आनंद ओघ श्रघाती ।
ऐ
ऐल - संज्ञा, पु० [हिं० श्रहिला ] १. परेशानी, खलबली २. समूह, सेना ३. कोलाहल ४. भीड़ ५. प्रतीक्षा ६. धूल, मिट्टी ७. बाढ़, वूड़ा ८ अधिकता ।
-
२. ऐल फैल खैल भैल खलक
उदा० १. खलक में खेल भैल मनमथ मन ऐला । - केशव में गैल गेल । - भूषरण ३. छैल छल छोभक छपाकर चुरल आगे पीछे, गैल गेल ऐल पारत नकीब से । देव ४. कहै पद्माकर गवैयन को ऐल परी गैल गैल फैल फैल फागु परसत है ।
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श्रोध्यो- संज्ञा, पु० [देश०] आरम्भ, शुरू उदा० ऐसी भाँति मादों प्राली, मोर ही तें श्रोध्यो है । — गंग प्रोज - संज्ञा, पु० [सं० प्रोजस्] कांति, चमक,
प्रकाश ।
- पद्माकर
५. गोकुल के छैल ढूंढ़े गूढ़ बन सैल, हों अकेली यहि गैल तो सों ऐल करि-थाकी हीं । -देव ६. सखियान की प्रांखिन पारि के ऐलो । —केशव
ओ
उदा० दोहू सौतें ठाढ़ी जहाँ तहाँ प्राण प्यारो आयो, आपु श्रादरस एक लीन्हे बड़े प्रोज को । —रघुनाथ श्रोझिल -- संज्ञा, पु० [ अवरुधन ] श्राड़, प्रोट । उदा० अम्बर में श्राड़ी व दिगम्बर ह्र रहे, सो बरंबर की प्रोझिल ही, श्रोझिल उझकती । — देव प्रोट— संज्ञा स्त्री० [सं० उट]
शरण, रक्षा,
पनाह । उदा० हाथी सात बेध बचि हो राई ।
सो जाई ।
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कौन प्रोट कर बोधा
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प्रोड़ ( ३४ )
श्रोसना ओंड-सज्ञा, पु० [देश॰] बेलदार, मिट्टी । श्रोपी-वि० [हिं० प्रोपना] मौजी हुई, पालिश खोदने वाला।
__ की हुई, चमकाई हुई । उदा० चले जाह ह्याँ को करत हाथिन को ब्यौ- उदा० साँचे भरि काढ़ी तिहपुर की लुनाई लुटि, पार । नहिं जानत या पुर बसत धोबी प्रोड़
प्रोपी चारु चन्द की गुराई गहराति है। कुम्हार । --बिहारी
-सोमनाथ मोड़ना-क्रि० स० [हिं० ओट] रोकना, आड़
मोतिन की हार जैसे दामिनि की धार जैसे करना, ऊपर लेना।
ओपी तरवार जैसे तजत मियान है। उदा० नेकी बदी वोड़िहैं विपति बस गोड़िहैं
--शृंगार संग्रह जो कान्ह हमैं छोड़िहैं तो हम तो न ओरमना-क्रि० प्र० [बुं०] लटकना । छोड़िहैं।
-बोधा उदा० फूलन के बिबिध हार, घोरिलन अोरमत प्रोड़ो-वि० [स० प्राकुंड] गहरा, गम्भीर ।
उदार।
-केशव उदा० आदि बेद पाठक बिरंचि किधी रचि-रचि प्रोल-सज्ञा, पु० [स० क्रोड़ ] स्थानापन्न,, केलिकृत-काज ओड़ो कुंडु खोदि धर यौ है । समान, तुल्य ।
-- केशव उदा० मधुर अमोल बोल. टेढी है अलक लोल. मोना-सज्ञा, पु० [ स ० उदगमन ] निकास, मैनका न पोल जाकी देखें भाइ अंग के। तालाबों में पानी के बहिर्गत होने का मार्ग ।
-सेनापति उदा० गावति बजावति नाचत नाना रूप करि, | अोलना--क्रि० स० [हिं० श्रोल-अड़ 1 १. जहाँ तहाँ उमगत पानंद को प्रोनो सो। प्रोट करना, परदा करना २. रोकना,सहना
-केशव ३. चुभाना ।
उदा० १. लोल अमोल कटाक्ष कलोल अलौकिक गंग कहै सोइ देखिये ताहि हौं जाहि जु ए
सो पट मोलि कै फेरे ।
-केशव जिय लाग्यो है मोनो।
-गंग
२. केशव कौन बड़े रूप कूलकानि पै मोनाना-क्रि० स० [?] किसी बात को ध्यान
अनोखो एक तेरे ही अनख उर प्रोलिए। से सुनने की चेष्टा करना।
-केशव उदा० हेरत घात फिरै चहुधा ते ओनात है बातें
३. ऐसी हू है ईश पुनि अापने कटाक्ष मृगदेवाल तरी सों।
-दास
मद घनसार सम मेरे उर ओलिहै ।। प्रोपची-सशा, पु० [ स० अोप ] कवचधारी,
-केशव योद्धा ।
प्रोलिक- सज्ञा, पु० [हिं० प्रोट] प्रांड़, पर्दा, उदा० जिरही सिलाही अोपची उमड़े हथ्यारन कों प्रोट। लिये।
-पद्माकर
उदा० नील निचोल दुराइ कपोल विलोकतिहीं प्रोपनी-सज्ञा, स्त्री० [सं० आवपन] पालिश,
किये श्रोलिक तोही ।
- केशव चमक, जिला ।
प्रोले-सज्ञा, पु० [हिं० पोल] विरह, वियोग। उदा० जोवन की झांई लरिकाई में दिखाई दीनी,
उदा० दामिनि-प्यास भरी घन डोले । __ सुबरन-रूप अंग प्रोपनी चढ़ायेते। -देव
सदा मिलन मैं मानत ोल। ओपम-सज्ञा, पु० [हिं० ओप] प्रकाश, चमक,
-घनानन्द कांति ।
प्रोसना-क्रि० स० [स० पावर्षण] बरसना, उदा० पजन किसोर वर जगल समासन पै तेज फैलना । की मरीचिन ते प्रोपम परा करै ।
उदा० कै मिसि की सिसकी पति हेत पिया रति --पजनैस । मैं अति ही सुख प्रोसै ।
-तोष
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औ
--देव
मौकना-क्रि० अ० [देश॰] उदास होना, उचट पोदेर-सज्ञा, पु० [बुं०] बाधा, विघ्न, दिक्कत, जाना, विरक्त होना।
परेशानी। उदा० कापि उठी कमला मन सोचत मोसों कहा उदा० जो हम तुम बसबी इत लालन तो परहै हरि को मन प्रौंको । -नरोतमदास
पीढ़ेरो।
-बकसीहंसराज मोंछना-क्रि० स० [बं०] गूंथना, बनाना । प्रोपरी-वि० [हिं० उथला] उथला, कम गहरा, उदा० कब धौं तेल फुलेल चुपरि के लामी चुटिया छिछला। औंछों ।
-बकसीहंसराज उदा० अति अगाध, अति औथरो, नदी, कूप, भाँडना-क्रि० प्र० [हिं० औंड़ उमड़ना ।
सर वाय।
-बिहारी उदा० जाइ जड़ी जड़ सेस के सीस सिंची दिनदान प्रौवकना-क्रि० प्र० [हिं० उदकना=कूदना ] जलावलि श्रीडी ।
-केशव उछलना, कूदना, चौंकना। भोड़ी-वि० [स० कुंड] १. गहरी २. तिरछी,
उदा० चूसि हौं जो निचुरौ सो परै रसु ज्यों, वक्र।
हटकावत औदुकै ऊठा। -बेनीप्रवीन उदा० १. ऊधौ पूरे पारख हौ. परखे बनाय तुम.
श्रीद के साहि औरंग अति, राण सबल पारिही पै बोरो पैरवैया धार पौंडी को।
राजेस बर।
-मानकवि
प्रौनिवास- सज्ञा, पु० [सं० प्रवनि+बाल ] २. पौंड़ी चितौन कहँ उड़ि लागत बंदन | पृथ्वी का पुत्र, मंगल ।
प्राड़े जो आड़ न होती। -देव | उदा० जावक सुरंग मै न, इंगुर के रंग मैं न, बोचकना-क्रि० अ० [हिं० उचकना-कूदना ] |
इंद्रबधू अंग मैं न, रंग औनिबाल मैं। उछलना, कूदना ।
-गंग उदा० सटकारे बारनि के भार लंक लचकति, औनो-सज्ञा, पु० [?] गृह, घर । .औचकि परी है सुनि बोल धुनि भारी को ।
उदा० मंडप ही में फिरै मड़रात न जात कहूँ -सोमनाथ तजि नेह को औनो।
-पद्माकर मौछकी-वि० [हिं० औचक] चौंकी हुई, घबराई औम-सज्ञा, स्त्री० [अवम] वह तिथि जो पत्रा हुई, भ्रम में पड़ी हुई, भ्रमित ।
में लिखी जाती है, पर उसकी गणना नहीं उदा० छकी सी घुमति क पीछकी सी बात होती। करै, चकी सी चितौनि मनीमदन हथ्यायो
उदा० गनती गनिबे तें रहे छतह प्रछत समान । -गंग
अब अलि ये तिथि औम लौ परे रही तन भौजस-स ज्ञा, पु० [स० अपयश ] अपयश,
प्रान ।
-बिहारी निंदा, बदनामी, कलंक ।
औरना-क्रि० स० [बुं० 1 उपाय या युक्ति उदा० जहाँ जहाँ जाउँ गनै न कूठाउँ ठाउँ एक सूझना । भाँति को है गाउँ डरों औजसनि सों ।
उदा० सुधि बुधि भूलि गई तन मन की मोहि -सुन्दर ___ कछु नहिं औरै।
-बकसीहंसराज पौझकना-क्रि० अ० [हिं० उझकना ] १. श्रौलाष--सज्ञा, स्त्री० [स० अभिलाष] अभिचौकना २. उछलना, उचकना, कूदना ।
लाष, इच्छा, कामना । उदा० १. हो तो रही देखि भेष अनसुनें अनदेखें
उदा० जोई जोई औलाष सोई भाखि हारी सबै, नाउ लियें ऐस' कोऊ श्रीझकि परति
साख बैसाख हमरी न राखी। ----सुन्दर
-सूरति मिश्र
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औली
अमराना
औली-सज्ञा, स्त्री० [हिं० ओल ] अंचल, उदा० जब जानी कान्हैया इनकी प्रोसेरंगी माई । पल्ला २. गोद ।
करि मनुहार बारि भरि लोचन तब घर मु० औली अोड़ना=आँचल पसार कर याचना
को पठवाई ।
-बक्सीहंसराज करना ।
औहठी - वि० [स० अव+हठ] बुरे हठ वाले । उदा० जब क्योंहू करि ग्रीवा छोड़ी। तबै पाहुनी
उदा० औहठी हठीले हने बदर जहांन रिपु, औली ओड़ी।
---सोमनाथ
कौतुक कों बिबिध बिमान छिति छ वै रहे । मौसेरमा-क्रि० स० [ ? ] चिन्ता करना।
-गंग
अं
अंक-सज्ञा, पू० [स० अंग] १. शरीर, अंग, उदा० देखत मदंध दसकंध अंध धंध दल बन्धू सों देह २. चिह्न, निशान ३. लिखावट ४. गोद ।।
बल कि बोल्यो राजाराम बरिबंड। उदा० १. जैसे भूमि अंबर के बीच में न कोऊ
-दास खंभ, तैसे लोल लोचनी के अंक में न लंक
अंबर-सज्ञा, पु० [अ०] एक प्रसिद्ध बहुमूल्य -ग्वाल
सुगंधित पदार्थ ।
उदा० ग्वाल कवि' अंबर-अतर में. अगर में न अंकिनि--वि० [स० अंक=पाप] पापिनी, पाप
उमदा सबूर ह में, है न दीपमाला में । करने वाली। उदा० कूबरी कलंकिनी वा अंकिनी को अंक लाय अंस-सज्ञा, पु० [स० अंशु] १. अंशु, किरण कीन्ह भलो कुल को कलंक तै लगायो है।
२. अंश, भाग । -ग्वाल
उदा० सित कमल बंस सी सीतकर अंस सी, अंगी-वि० [स० अंग] अंगवाला, सगा, सच्चा।
बिमल बिधि हंस सी-हीरबर हार सी ।
-दास उदा० माय न बाप को अंगी भयो सो हमारो कहो कब संगी भयो ।
अंसुक--सज्ञा, पु० [स० अंशुक] बारीक रेशमी -ग्वाल
वस्त्र। मंझा--सज्ञा, स्त्री० [स० अनध्याय, प्रा० उदा० जी में धोखो लाइ किंधौ अंसुक हैं आँग अनज्झा] नागा, छुट्टी, गायब ।
के ।
--गंग उदा० १. सोवै सुख मोचै शुक सारिका लचाये
अंकोर--सज्ञा, पु० [ देश० ] घूस, रिशवत, चोंच, रो चैन रुचिर बानि मानि रहै।
उत्कोच । अंझा सी।
--देव | उदा० विचौ न फेरि मन मेरौ रिझवार आली, २. अंझा-सी दिन की भई संझा सी सकल
लाज दै प्रकोर चुभ्यो नैनन की कोर में । दिसि, गगन लगन रही गरद छवाय
-सोमनाथ -भूषण अँगराना-क्रि० अ० [हिं० अँगड़ाई ] अंगड़ाई अंधाधुष-वि० [हिं० अंधा+धुंध] १. बहुतलेना, उन्मत्तता का भाव प्रकट करना । बड़ा, विशाल २. घोर अंधकार (सज्ञा) ३. उदा० बैठि झरोखन मैं अँगरै उझकै दुरिके अन्याय ।
मुरिक मुसुकाते।
--सुन्दर
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कंक-संज्ञा, पु० [सं०] सफेद चील, कांक । कटियाना--क्रि० अ० [सं० कंटक+ हिं० अांना] उदा० काक कंक बालक कोलाहल करत है।
१.अंकूर निकलना, अंकुए फोड़ना। २. कंट
-अज्ञात । कित होना, काँटे निकलना, रोमांचित होना। कंकाली-संज्ञा, स्त्री० [सं० कंकाल] प्रेतिनी।। उदा० १. घूमैं घटा छटा छूटती हैं उलहे द्रुम उदा० कर गहि कपाल पीवै रुधिर. कंकाली
बेलिन पत्र नये सो हरी हरी भूमि मैं कौतुक करे।
-वन्द्रशेखर
इन्द्र बधू कॅटिमाइबे को जनु बीज बये । कंचन बान-संज्ञा, पु० [सं० कांचन-स्वणं,
. -ठाकुर पीला+वर्ण=रंग] स्वर्ण के रंग का, पीत
२. मनमोहन-छबि पर कटी, कहै कँट्यानी रंग वाला, गिरगिट, छिपकली की जाति का
देह ।
-बिहारी एक जंतु ।
ककुरना-क्रि० प्र० [देश॰] सिकुड़ना, संकुचित उदा० जो नूग दान विधान करै, सू परै वह कूप होना । में कंचन बानै ।
-सूरति मिश्र उदा. कोढ़िनि सी ककुरे कर कंजनि केसव सेत कंचनी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कंचन ] वेश्या,
सबै तन तातो ।
-केशव वाराङ्गना ।
ककोवर-संज्ञा, पु. [सं. काकोदर] सर्प, साँप । उदा० बंचनी विरागह की. प्रति परपंचनी सी.
उदा० प्राइ गये हरि ज हर पास कोपीन ककोदर कंचनी सी आज मेघमाला बनि पाई है।
को कर लीनी ।
-तोष -वाल | ककोरा-संज्ञा, पु० [देश॰] ककोड़ा, खेखसा, कंटकारि-संज्ञा, स्त्री० [सं० कंटकारी ] भट
परवल के प्राकार की एक तरकारी । कटैया नामक वृक्ष, जिसकी पत्तियों में दोनों
| उदा. जोरि जोरि जंघन उदर पर धरि धरि, तरफ काँटे होते हैं ।
सिकुरि सिकुरि नर होत हैं ककोरा से ।
-वाल उदा० हितै अहित किय हाकति, एकहि साट । कंटकारि की पतिया, दुहुँ दिसि काट ।
कक्षासिखा-संज्ञा, पु० [सं० काकपक्ष] काकपक्ष -बेनी प्रवीन
केशों की पाटी। कंद-संज्ञा, पु० [सं० कंदुक ] १. कंदुक, गेंद
उदा० गजरद, मुख चुकरैंड के, कक्षासिखा बखानि ।
-केशव २. बादल । उदा० १. औचक ही उचकौ कुच कंद सो।
कगायोकरमा-क्रि० प्र० [अनु॰].कांव-कांव करना।
उदा० देह करें करठा करे जो लीन्हों चाहति है, कला-संज्ञा, पु० [हिं० कंधा+एला] साड़ी
कागु मई कोइल कगायो करे हम सों। का वह भाग जो स्त्रियों के कंधे पर रहता है।
-यालम उदा० टूरतहार बारनहि बांधे। उधरो शीश
बचपच्ची-संज्ञा, पु० [हिं० कचपच] चमकदार कंदेला काँधे ।
- बोधा
बंदे या . तारे जो शृंगार करते समय कंपू--संज्ञा, पु० [अं. कैंप] पड़ाव, डेरा ।
कपोल-मण्डल आदि में लगाए जाते हैं। उदा० कंपू बन बाग के कदंब कपतान खड़े, । उदा. कंचन की कचपची चरिन की चमकनि सूबेदार साहब समीर सरसायो है।
छकनि की चाहनि चहक चित रही है। -पद्माकर ।
-गंग
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कचवाई
कत्ता
कचवाई-वि० [हिं• कच्चा] भयभीत, साहस- | कटा-संज्ञा, स्त्री० [हिं० काट] चोट, प्राघात, हीन ।
काट, घातकता । उदा० जाको मायाबस ब्रह्मादिक सकल रहैं कच-. उदा० रोक री रोक करैया कहा कजरारे कटाक्ष वाई। तिनको श्री वृषभानु लाड़िली छल
कटा से भरे री।
-ठाकुर कर छलि घर आई। -बकसी हंसराज
मेरै हियो कटिबे को कियो तिय तेरै कचोरा-संज्ञा, पु० [हिं० कांसा + पोरा=== - कटाक्ष कटा करिबे कौं। -पद्माकर कॅसोरा 1 प्याला, कटोरा ।
कटिजेब-संज्ञा, स्त्री० [सं० कटि+फा० जेब] उदा० मणि सांवरे चकरे कचोरनि माह चंदन । करधनी, कमर में पहनने का एक आभूषण । .. पंक।
-गुमान मिश्र
उदा० अंग को अंगराग गेंड्रा कि गलसुई कंधौं कच्च्छन-संज्ञा, पु० [सं० कक्ष] नटों का श्रृंगार, - कटिजेब ही को उर को कि हास है। बनाव, नटों का वेश ।
केशव उदा० पच्छ बिन गच्छत प्रतच्छ अंतरिच्छन में | कटरी-सज्ञा. स्त्री० [हिं० काँटा] भटकटैया, अच्छ अवलच्छ कला कच्छनन कच्छे हैं ।
जिसमें छोटे छोटे काँटे होते हैं ।
-पद्माकर | उदा. माया गर्व कोउ जनि करी कहि तेकी कच्छी-संज्ञा, पु० [हिं० कच्छ] कच्छ (गुर्जर)
| बात सुहात । कंत कटेरो फूल है पलक देश के घोड़े।
मांहिं फिर जात ।
-मतिराम उदा० कच्छी कछवाह के विपच्छन के बच्छ पर
कठ-वि० [स. निकृष्ट] निकृष्ट, खराब । पच्छिन हलत उच्च उच्छलत अच्छे हैं।
--पद्माकर
उदा० बंचक कठोर ठेलि कीजै बाँट आठ आठ,
झूठ पाठ कठ पाठ करी काठ मारिये । कच्छे-क्रि० स० [सं० कक्ष ] सँवारना, नटों
--केशव जैसा वेश बनाना, काछना । उदा० पच्छ बिन गच्छत प्रतच्छ अंतरिच्छन में,
कठिहार-सज्ञा, पु० [स० काष्ठ+हिं० हार
(प्रत्य॰)] लकड़िहारा, लकड़ी बेचने वाला। अच्छ अवलच्छ कला कच्छनन कच्छे हैं।
-पद्माकर
| उदा० कष्ट माहि छूटे जब प्रान । घोरा को तन कजरौटी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कज्जली] कज्जली
धरयौ निदान । कठिहार के पानै परयौ । रखने का पात्र, पारा और गंधक घोटने से
फिरत फिरत पुनि भूखां मर्यो । बनी हुई कज्जली के रखने का पात्र विशेष २.
-जसवंतसिंह काजल रखने की डिबिया।
कठठो-वि० [हिं० काठ] कठोर, निर्दय । उदा० भावते के रस रूपहि सोधि ले, नीके उदा० बैर कियो सिव चाहत हो तब लौं अरि भर्यो उर के कजरौटी।
--घनानन्द बाह्यो कटार कठैठों।
-भूषण कजाकी--संज्ञा, स्त्री० [फा० कज्जाक़ी] डाकूपना,
जी की कठेठी अठेठी गँवारिनि नेक नहीं डकैती।
कबहूँ हँसि हेरी।
-पजनेस उदा० ये कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन । कतारी-सज्ञा, स्त्री० [फा० कतार] १. पंक्ति,
-बिहारी समूह, राशि । कटना-क्रि० प्र० [सं. कत्त'न] आसक्त होना, उदा. पति की पतारी हती पातिक कतारी. रीझना ।
ताहि तारी तुम राम, तारी तुम सौं न उदा० मनमोहन छबि पर कटी कहै कॅटयानी : ीर है।
-ग्वाल -बिहारी
कत्ता-सज्ञा, स्त्री० [स. कत्तरी ] छोटी कटरा-संज्ञा, स्त्री० [सं० कट्टार कटारी ।
तलवार । उदा० मोगरा द्विविद तार कटरा कुमुद नेजा उदा० बीर रस मत्ता जाते काँपत चकत्ता यारो अंगद सिला गवाक्ष बिटप बिदारे हैं।
. . कत्ता ऐसा बाँधिये जो छत्ता बाधि जाना -केशव
-भूषण
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कदंब
(
३६
)
कपाट मुख
-दास
-देव
कब-संज्ञा, पु० [सं०] समूह, ढेर २. एक । कनसूया--वि० [हिं० कान-सुनना ] कान वृक्ष, कदम ।
लगाकर सुनने वाली, आहट लेने वाली, भेद उदा. होति क्यों दुखित ह्वाँ कदंब है कदंब,
लेने वाली । पाली, जहाँ पियाबासा है तहाँ ही पियबासा
उदा० ननद निगोड़ी कनसवा कौरै लागी रहैं -बेनी प्रवीन
सास सुनिहै तौ नाह नाहर सो करिहै । कद-संज्ञा, पु० [अ० कद] शरीर, तन ।
=केशव केशवराय उदा० अखियाँ मुखंबुज में भौर ह' समानीं, मई
कनहेर-संज्ञा, पु० [हिं० कन-कनखी+हेरबानी गदगद कद कदम सो फूलिगो।
देखना] दर्शन, कनखी से देखना, कनखी से
दर्शन करने का कार्य । कदमावम-वि० [अ० कद्दे आदम ] मानव उदा० तिखने चढ़ि ठाढ़ी रहूँ लेन करू कनहेर । शरीर के तुल्य ऊँचा ।
-रसखान उदा० कद आदम सीसा लखे पजनेस लगे नख
कने-क्रि० वि० [सं० करणे] १. पास, निकट छाती छिपावति है।
-पजनेस
२. तक, पर्यंत ३. ओर। कदर्थना-संज्ञा, स्त्री० [सं० कदर्थन ] दुर्गति, उदा० १. कारे लहकारे, कामछरी से छरारे, दुर्दशा । .
___ छरहरी छबि छोर छहराति पींडरीउदा० हरि-जस-रस की रसिकता, सकल रसाइन सार, जहाँ न करतु कदर्थना, यह न अर्थ
कन-अव्य० [सं. करणे] पास, निकट, समीप संसार ।
-देव
२. ओर ३. अधिकार में, कब्जे में । 'कधी-अव्य० [पंजा०] कमी, किसी समय ।। उदा० तैसी समसेर सेर काहू के कनै नहीं। उदा० कधी अलसाय तनतोरै। अंगूठी हाथ की
-पद्माकर फोरै।
-बोधा कनौड़ी-वि॰ [हिं० कान+ौड़ी] १. निंदित, कन-संज्ञा, पू० [सं० करण] भिक्षा ।
कलंकित २. कृतज्ञ, एहसानमंद । उदा० कन दैबो सौंप्यो ससूर बह थरहथी जानि। उदा. १. ह्र रही कनौड़ी मति, कौड़ी भई
-बिहारी
गोपी अति डौंडी फिरी लाड़ी कीन कनद-संज्ञा, पु० [सं० कण ] अन्न का छोटा
लाज धारियतु है। 'रसकुसुमाकर' से टुकड़ा, चावल का कना।
कनौती-संज्ञा, स्त्री० [सं० करण+हिं० पोती उदा० भनत प्रवीन बेनी धनद सुखानो जात,
प्रत्य०] १. कान का एक प्राभूषण, बाली २. कनद समेटत सकल सुख सामा के । .
कानों का किनारा, नोक ।
-बेनी प्रवीन उदा० अजौं करति उरझनि मनौ, लगी कनौंती कनवारी-संज्ञा, स्त्री० सं० कर्ण+बालिका]
कान।
-घनानन्द कान में पहनने का एक आभषण, बाली ।
२. कनौती खुसी सीखड़ी खूब छोटी, उदा० गुहे, गभुमारे, घुघुरारे बार. सोहै सिर,
नुकीली न सी कला कै जु कोटी। मोती बीच, बनक कनक कनवारी के ।
-पदमाकर -देव कपतपिलंग-[ सं० कपोत । पिलक ] पिलक कनसुना--संज्ञा, पु० [हिं० कान + सुनना ]
कपोत रंग (श्वेत और लाल ) रंग वाला पाहट, टोह मुहा० :- कनसुइयाँ लेना, छिपकर
घोड़ा। किसी की बात सुनना, किसी का भेद लेना। उदा तहँ कपतपिलंगन उमड़ि उमगन अंगन उदा० सुनी अनसुनी करि, काननि कनेख देखि. | अंगन दुति उमही।
-पद्माकर भीगी अँसुवनि कनसुवनि सुनत फिरै.. कपाट मुख-संज्ञा, पु० [स० कपाट+मुख्य
–देव । मुख्य कपाट ] मुख्य कपाट, सिंह द्वार ।
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कपिल
(
४०
)
करकस
उदा० कंचन रचित कोट, फटिक कपाट मुख, । गहीर छबि हीरन जटित तट पास-पास । सीतल सघन देव द्रुम वन को विकास ।
-देव
कमलाप्रजा-संज्ञा, स्त्री० [सं० कमल+अग्रजा] कपिल-संज्ञा, पु० [स०] १. चूहा २. अनि लचमी की बड़ी बहन, दरिद्रा । ३. शंकर ।
उदा० कमला ज्याँ थिर न रहति कहूँ एक छिन उदा० १. नाग जाके द्वादस विशेष कर जपनीय.
कमलाग्रजा ज्यां कमलनि तें डरति हैं। सुमुख और दंत एक, कपिल विराज है ।
-केशव -वाल
कमेरा-संज्ञा, पु० [हिं० काम+एरा] (प्रत्य॰) कपूर धरि--संज्ञा, पु० [हिं० कपूर धर 1 एक
| दास, सेवक, नौकर, मजदूर । प्रकार का बढ़िया वस्त्र जो तिब्बत में बूना
उदा० जिनको तू मानत है मेरे ए कमेरे तौ, . जाता है, अकबर ने इसका नाम कपूर नूर रखा
साथी नाहि तेरे जिन भ्रमै जग छल में। था ।
-सूरति मिश्र उदा० बानी की कपूर धूरि ओढ़नी सी फहराति बात-बस प्रावति कपूर-धूरि फैली सी।
करक-संज्ञा, पु० [स०] १. कचनार नाम का
पुष्प २. दाड़िम ।
-दास छबि रही भरपूरि, पहिरे कपूर धूरि,
| उदा० १ ब्रजतिय पूरित प्रेम अखंडित कुंडल नागरी अमर मूरि मदन दरद की।
श्रवण करक मनि मंडित । -सोमनाथ
-सेनापति करकना--क्रि० प्र० [हिं० कड़कना] १. कड़कपूर मनि-सं० स्त्री० [कपूरमणि] तृणमणि
कना, डाँटना, दपेटना, गरजना, तड़पना २. जो तृण को आकर्षित करती है।
सालना, कसक से भरे रहना । उदा०ह कपूर मनिमय रही मिलि तन-दुति | उदा. १. एक संग द्रोन द्रोनी भीषम प्रवीन बेनी. मुकतालि।
करन दुसासन कुलाहल के करके। कफनी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कफन] गुदड़ी, फटा
–बेनी प्रवीन पुराना वस्त्र २. साधुओं की मेखला ।
२. द्विजदेव लखें मन संतनहूँ के, अनंत कुढ़े उदा० मलय विभूति श्याम कंबूकी सो रघुनाथ
करकेई रहैं।
-द्विजदेव
करकर-संज्ञा, स्त्री० [अनु०] कड़क, हक । फटी कफनी के गजखाल गरे घाले हैं।
उदा० किरच कपूर कर कोरें बीरी भरि हरि, -रघुनाथ
कर बीरी देत करकर उठी रस ही। कवि-संज्ञा, पु० [सं० कवि ] शुक्राचार्य, शुक्र
-आलम नक्षत्र ।
करकानि-सज्ञा, पु० [स० करक] १. मौलश्रो उदा. जोति बढ़ावत दसा उतारि। मानो स्या
२. कचनार । मल सींक पसारि। कबि हित जनु रबि
उदा० कुमुद कलानिधि कपूर करकानि कुन्द, रथ तें छोरि । स्याम पाट की डारी
कास के बिलास हास सदर 'जुन्हाई है। डोरि ।
-हफीजुल्लाखाँ के हजारा से -केशव
करंज-सज्ञा, पु० [स० कलिंग, फा० कुलंग] कमण्डली--संज्ञा, पु० [स०] १. साधु, सन्यासी मुर्गा । २. पाखण्डी ।
उदा० पाढे पीलखाने प्रो करंजखाने कीस हैं । उदा० १. कुंडलीस, चंडीस, कमण्डली सहित मुनि
-भूषण मण्डली विमोही, रास मण्डली विलोकि
करकस-क्रि० वि० [सं० कर्कश] कठिनाई से, कै।
-देव
दुखों, से कठोरता से। कमलाकर-संज्ञा, पु० [ स ० ] १. सरोवर, | उदा० आयौ तू कहाँ ते उपजायौ कौन कौन तालाब २. कमलों का पाकर ।
बिधि, पालि के बढ़ायौ कहो, कौन करकस उदा० १. अन्तर सुधाजल विमल कमलाकर,
-वाल
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करखना
कराचोली करखना-क्रि० स० । सं० कर्षग खोंचना, | करवा-संज्ञा, पु० [सं० करक] मिद्रो या धातु प्राकषित करना, मोहित करना ।
का बना टोंटीदार लोटा । उदा० छेल हियो करखै निरखे जब । बौधा उदा० करवा की कहाँ गंग तरबा न तीते होहिं. हेम के तार लोनाई के जंत्र मनोज सोनार
सरवा न बूडै परवाह नदी नार के। किधौं करखे हैं। -नन्दराम
-गंग करच्छ-संज्ञा, पु० [प्रा० कलक्ख, सं० कटाक्ष] | करवारी- संज्ञा, पु० [हिं० करिहारी या करिकटाक्ष, तिरछी चितवन ।
यारी] एक पुष्प । उदा० लसै' बड़े लोचन लाल तिख्खे ।
उदा० झीने करवारी सों झमाइ झमझमे झमा सरावली रीति करच्छ सिख्खे।
झमकति झाई सी झमकि भूपरन की।
-सोमनाथ करछाल-संज्ञा, स्त्री० [ हि० कर+उछाल ] करवोटी-संज्ञा, पु० [देश॰] एक चिड़िया का छलांग, उछाल, कुदान ।
नाम । उदा० हाव भाव प्रति अंग लखि छबि की झलक | उदा० करवोटी बगबगी नाक बासा बेसर दै निसंक। झूलत ग्यान तरंग सब ज्यों
श्यामा बया कूर ना गरूर गहियतु है। करछाल कुरंग । -रसलीन
-रघुनाथ करटी-संज्ञा, पु० [सं०] हाथी, ग़यंद।। करस-संज्ञा, पु० [सं० कलश] घट, कलशा, उदा० हिं दास अहित मति सकल कटी कटि घड़ा । सिंह बिलोकित गति करटी। -दास
उदा० एरी वृषभानु की कुमारि तेरे कूच किधौं, करटीनि-संज्ञा, स्त्री० [सं० करेटी] हथिनियाँ।
रूप अनुरूप जातरूप के करस हैं । उदा० मधुकरकुल करटीनि के कपोलनि त उड़ि
-केशव उड़ि पियत अमृत उड़पति मैं ।
करसायल-संज्ञा, पु० [सं० कृष्णसार] काला --मतिराम |
मृग । करठा-वि० [देश॰] श्याम, अत्यन्त कालो।
उदा० घायल तराइल सी मानो करसाइच सी। उदा० देह करे करठा करेजो लीन्हों चाहति है।
-पालम -पालम
बालन की अवली गुण सो पुर अन्तरजाल करद-संज्ञा, स्त्री० [ ? ] छूरी।
मनोज पसारयो । पै नृप नैन दुग्री करसायल उदा० दरद हरे हैं तब सरद-निसा में स्याम,
फांसि सक्यो न किती कहि हार्यो। अब क्यों करद लै करेजा फारियाँ है ।
-गुमान मिश्र -'हजारा' से
घायल ह्र करसायल ज्यों मृग त्यौं उतहीं, करनाल-संज्ञा, पु० [अ० करनाय 1 नरसिंह,
अतुरायल घूमैं ।
करहरिया-संज्ञा, पु० [हिं॰ काल+हरा] काले भोंपू२. एक प्रकार का बड़ा ढोल ।
और हरे रंग के घोड़े। उदा० कहूँ सोभना दुंदुभी दीह बाजै । कहूँ भीम . झंकार कर्नाल साजै ।
-केशव
उदा० दीरघ दल दरसत आनँद बरसत सोमनि सरसत करहरिया।
-पद्माकर करबर-संज्ञा, पु० [सं० कर्वर] १. चीता २.
कराई-संज्ञा, स्त्री० [ हिं० काला ] कालापन, कलबल, छल ३. विपत्ति, प्राफत ।
श्यामता । उदा० १. डारी सारी नील की प्रोट प्रचक चकै
उदा० भनत कबिन्द कारे कान्हर के मिलिबे को. न । मो मन-मृग करबर गहैं अहे अहैरी
प्राज ही तो सिगरी कराई ही दिखाति है। नैन । -बिहारी
-कवीन्द्र करभोरु-संज्ञा, स्त्री० [सं० करभ+उरु] हाथी कराचोली-संज्ञा, पु० [? ] कवच ।। की सूड के समान जाँघ वाली नायिका।
उदा. कराचोली काम की, कि सोभा करै स्याम उदा० इन भांतिनि भोरु करै करभोरु सु, ओर न
की कि, जिय ही की बैरिनि बिराजमान छोर कहा दुख दीजै। -गंग | बेनी है।
-गंग
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कराबीन
कलकान कराबीन-संज्ञा, स्त्री० [तु.] छोटी बंदूक; एक करोरी-सज्ञा, पं० [हिं० करोड तहसीलदार। प्रकार की तोंड़ेदार बंदूक जो सौ वर्ष पूर्व प्रच- उदा० आयो है बसन्त ब्रज ल्यायो है लिखाइ लित थी।
ग्राली; जोन्ह के जलेबदार काम को करोरी उदा० कराबीन छुट्टै करैं बीर चट्टै करी, कंध
-आलम टुट्टै इत उत्त बुट्टै ।
-पद्माकर ! करौत-सज्ञा, पु० [सं० करपत्र] पारा, लकड़ी करिन्द-सज्ञा, पु० [सं० करीन्द्र] गजेन्द्र, श्रेष्ठ चीरने का प्रोजार २. काँच का बड़ा बर्तन हाथी ।
। [हिं० करबा] उदा० प्राकै बरबानी बुद्धि बदन करिन्द को। उदा० १. ज्यों ज्यों कर कॉगही लै बारन सँवा
--सोमनाथ
रति हौ, सौतिन की आँखिन करौत करि-सज्ञा, स्त्री० [सं० कांड ] कांड, हाल,
दीजियतु है।
-सुन्दर करनी।
करौलन-सज्ञा, पु० [हि • कर+ रौल-शोर] उदा० गहिये मुख मीन भई सो भई अपनी करि
हँकवा करने वाले, शिकारी। ___काहू सो का कहिये ।
-बोधा
उदा० भूषन भौ भ्रम औरँग के सिव भ्वैसिला करिया-सज्ञा, पु० [सं० कर्णनाव की पत
भूप की धाक धुकाये । धाय के सिंधु कहयो. वारी] पतवारी धारण करने वाला, मल्लाह,
समुझाय करौलन जाय अचेत उठाये। माँझी।
-भूषण उदा. यह बिरिया नहि ौर की, तू करिया वह कर्दम--सज्ञा, पू० [स] माँस, मास का चारा
सोधि । पाहन-नाव चढ़ाइ जिहिं कीने पार जो कॅटिया में लगाया जाता, मछलियों को पयोधि ।
-बिहारी फंसाने का चारा २. पंक, कीचड़ ।। करूर-सज्ञा, पु० [सं० कटु] १. कष्ट, पीड़ा ! उदा० बंक हियेन प्रभा सँरसी सी। कर्दम काम २. कटु, कडूमा ।
. कछू परसी सी।
-केशव उदा० १. राखिये गरूर मिटै लखन करूर रघुराज कर्म-सज्ञा, पु० [सं० करभ] ऊँट का बच्चा ।
रूर भेजिये जरूर द्रोनाचल की।- समाधान उदा० इक कभं 4 इक सर्भ पै खर अर्भ पै करूरा--सज्ञा, पु० [सं० कवल] कमला, कुल्ला;
सतुरंग पै ।
-समाधान गंडूष २. हाथ में पहनने का कड़ा।
कलंदर-सज्ञा, पु० [अ०] १. मदारी, बंदर उदा० भाखि तमोर विषयी मन हरै। मनहुँ कपूर भालू नचाने बाला । २. एक प्रकार का रेशमी ___ करूरा करै ।
--केशव वस्त्र । करेट-वि० [हिं० काला] श्याम, काला ।
उदा० १. तदपि नचावत सठ हठी नीच कलंदर उदा० गुंज छरा रसखानि बिसाल अनंग लजावत
लोभ ।
-बिहारी अंग करेटो ।
-रसखानि
२. ताफता कलंदर बाफत बंदर मुसजर करटो-सज्ञा, पु० [हिं० करैत] काला फरणदार
सुंदर गिलमिल है।
-सूदन सर्प जो अत्यन्त विषैला होता है।
कलकना-क्रि० प्र० [हिं० कलकल ] चिल्लाना, उदा० पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि शोर करना । गयो कहुँ काहु करैटो ।
-- रहीम उदा. कहूँ समुहै आइ सुनाइ सुबोलनि, कान्ह करोटी-सज्ञा, स्त्री० [हिं० काला+पोटी]
देखाइ गयो झलक। तबते वह बेनीप्रवीन कालापन, श्यामता ।।
कहै, नहि बोलत बोल कितो कलकै । उदा० दास बड़ी बड़ी बातें कहा करी आपने अंग
-बेनी प्रवीन की देखौ करोटी।
कलकान-वि० [अ० कलक = दुख ] दुखित, करोर-सज्ञा, पु० [हिं० खरोंच ] खरोंच, बेचैन । छिलना।
उदा० निसि कैसी कोको हौं कलपि कलकान भई उदा० खंजन कटारी नैन, अंग भरो काम भारी,
अब अति बिकस बिलोकी अलबेली मैं ।। भौंह के मरोर में करोर कहूँ के गई।
–बेनी प्रवीन -गंग। कीर की कलह कलमल्यो मनु कोकिलाहू,
-दास
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कलकी
कुहकि कुहकि कान कलकान करी है ।
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कलकी- -संज्ञा पुं० [सं०
तार ।
उदा० कलकी हु राखे रहें हिंदूपति पति देत, म्लेच्छ हति मोक्षगति 'दास' ताको दास है । -दास कलत्थना- -क्रि० प्र० [हिं० कलथना ] कलथना,
छटपटाना ।
3
( ४३
-श्रालम
कल्कि ] कल्कि श्रव
उदा० उलत्थै पलत्थ कलत्यें सोक सिंधून था । कलप - संज्ञा, स्त्री [सं० दुख । उदा० राखी न कलप तीनो काल विकलप मेटि, कीनो संकलप, पैनं दीनो जाचकनि जोखि । - देव कलपना- -क्रि० ० अ० [सं० कल्पन] १. गिनना, विचार करना २. कलपना, चीत्कार करना, दुखी होना, विलाप करना । उदा० पल कलपै कलप पिय प्यारो ।
सोभित घन बन लसत तिहारो ।
कराहैं न पावैं कहूँ
- पद्माकर
कल्पन] विलाप,
पदमाकर
निसि कैसी कोकी हों कलपि कलकान भई, अब प्रति विकल बिलोकी अलबेली मैं । - बेनी प्रवीन कलबंकी - संज्ञा, पु० [सं० कलविंक] गौरैया पक्षी, चटक । उदा० कलबंकी कों कैसे भाव जदपि मुकुत है जगत प्रसंसी । संसारं नीको लागे पै अनकन कव चुगति नहीं हंसी
दास
कलबसन- -संज्ञा, पु० [तु० कलाबतून ] कलाबत्त ू, सोने चाँदी श्रादि का तार जो रेशम पर चढ़ा कर बटा जाता है,
उदा० कबि 'ग्रालम' ये छबि ते न लहे जिन पुज लये कलबत्तन के ।
-प्रालम कबूतर २.
कलरव- -संज्ञा, पु० [सं०] १.
कोयल । उदा० १. ललित लता, तरुवर कुसुम, कोकिल कलरव मोर । बरनि बाग अनुराग स्यों, भँवर भँवत चहुँ ओर । - केशव कलंरौ– संज्ञा, पु० [सं० कलरब] कोकिल, मधुर ध्वनि बोलने वाले पक्षी । उदा० सखि चैत हैं फूलनि को
करता करने सु
)
श्रवेत अर्चन लग्यो । कहिये कल रोहि जु लग्यो ।
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कलिदे
कहि दास कहा बोलन बैकल बैन
-दास
कलाद
-संज्ञा, पु० [सं०] स्वर्णकार, सोनार । उदा० जा दिन तैं तजी तुम ता दिन तैं प्यारी पै कलाद कैसो पेसो लियो प्रधम अनंग हैं । -द्विजदेव कलाकन्त- -संज्ञा, पु० [सं०] कलाधर, कलापति,
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चन्द्रमा ।
उदा० जारि ले रे कुटिल कलंकी कलाकन्त ग्राजु मारि लै री सुरभि समीर मंद गति की । चन्द्र शेखर कलापात -संज्ञा, पु० [?] उपद्रव, बदमाशी । उदा० कूकि कूकि कोयल करेंगी कलापात त्योंही कोकिल कलाप के अलाप अनुसारि है । -चन्द्रशेखर कलाबर संज्ञा पुं० [सं० कला + बरः = = पतिः ] कलाधर, चन्द्रमा ।
दास
उदा० वर बागे लला अनुरागे अलौकिक लागे कलाबर ते बन मैं । -चन्द्र शेखर कलामुख संज्ञा, पु० [सं०] चन्द्रमा, कलाधर । उदा० चौहरी चौक सों देख्यो कलामुख पूरब तें कढ़यो श्रावत है री । कलामिनी - वि० [अ० कलाम] बोलने वाली भाषिणी उदा० कानन करन फूल, कोमल कपोल, कंठ कंबुक, कपोत कीर कोकिल कलामिनी । - बेनी प्रवीन कलाल - वि० [सं० कराल ] कराल, भयंकर । उदा० निर्मलता गुन मोती बिधाइ छिप्यौ कुटिलाल, कलाल फनिंद सों । कलालि संज्ञा, स्त्री० [हिं० कलाछ] बेचैनी से इधर उधर घूमना ।
-
- देव
उदा० पालिक तें भुव भूमि तें पालिक श्रालि, करोरि कलाल करें जूं । -केशव कलाव - संज्ञा, [सं० कलापक] हाथी के गले की रस्सी ।
ताव ।
उदा०पीत कांछ कंचुक तियन, बाला गहे कलाव, जाहि ताहि मारत फिर, अपने पियके -रहीम कलिंदे संज्ञा पु० [सं० कालिंदी] तरबूज । उदा० ताँसों बड़ाई करौ, कोई जान न, काल्हि के जोगी, कलिंदे के खप्पर । -देव
-
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कलुखी
कसूमी कलुखी-वि० स्त्री० [सं० कलुष] दोषी, कसबाती-वि० [अ०] कसबे के रहने वाले, कलुषित ।
शासक से मिल जाने वाले । उदा. बैरी इहि बंधु देव दीन बंधु जानि, हम उदा० सिमुता-अमल-तगीर सुनि भए और मिलि बंधन में डारे, तुम न्यारे कलुखी भये ।
मैंन । -देव
कहौ होत हैं कौन के ए कसबाती नैन, कलोरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० कल्या] वह गाय
-बिहारी जो बरदाई या व्याई न हो ।
ऐसी कसबाती तू तो नेक न डराती उदा० लाड़िली लीली कलोरी लूरी कहें लाल
काहू छाती ना दिखाउ कोऊ छाती मारि लुके कहे अंग लगाइ के।
-केशव मरिहै।
-द्विजनन्द कल्प-संज्ञा, पु० [सं०] तन, शरीर ।
कसबी - संज्ञा, स्त्री० [म. कसब -- वैश्यावृत्ति] उदा० कल्प कलहंस को, कि छीरनिधि छवि
वेश्या, रंडी, कुलटा । प्रच्छ हिम गिरि प्रभा, प्रभ्र प्रगट, पुनीत उदा० आप चढ़ो सीस यह कसबी सी दीन्ह प्रौ
- केशव
हजार सीस वारे की लगाई अटहर है। कल्हार-संज्ञा, पु० [सं कलार] श्वेत कमल ।
----पद्माकर उदा० कुल कल्हार सुगंधित भनौ । सुभ सुगंधता । कसाउ- संज्ञा, पु० [हिं० कसना] चोली का बंद, के मुख मनौ।
-केशव कंचकी की डोरी। कवनी-वि० [सं० कमनीय] कमनीय, सुन्दर ।
उदा० झीनी प्रांगी झलक उरोज को कसाउ उदा० कछनी कटि स्वछ कछे कवनी बरही बर कसे, जावक लगायें पाउँ पावक तें गोरी है। पुछ को गुछ बनो।
-मालम कवनी भुज स्याम के कंघ धरे
कसा-संज्ञा, स्त्री० [सं० कशा] चाबुक, सोंटा रवनी मनी प्रीति की रीति बढ़ी। -पालम कोड़ा। कहिये कहा महारुचि रवनी। कवनी निपट उदा० काम कसा किधी राजति हैं कल कीधौं नंद-ब्रज प्रवनी ।।
-घनानन्द शृगार की बेलि सुधारी।
-रधुराज कवि-संज्ञा, पु० [सं०]१. शुक्र २. काव्यकर्ता ।
कसाकी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कसक] कसक, उदा० कवि कुल विद्याधर, सकल कलाधर राज
पीड़ा, वेदना । राज वरवेश बने ।
- केशव उदा० कहै नंदराम बावरी सी ह बिहाल मई कवित्तःन-संज्ञा, पु० [हिं० कवि] कविगण, कवि
ऊची सी उसासन कसाकी उठी पासुरी । लोग ।
-नंदराम उदा० १. कैंधो रतिनायक के पाट पै सिंगार लीक
कसार--संज्ञा, पु० [सं० कासार] छोटा तालाब । देखि कवितान की सुमति भटकति है ।
उदा० काम के कसारन की कूलन की कूपिका की --श्रीपति
असित तिलक के सिगार के सदन हैं। २. देव कवितान पुण्य कीरति बितान तेरे
-बलभद्र सुमृति पुराण गुणगान श्रुति भरिये ।-देव कसीस-संज्ञा, स्त्री० [फा० कशिश] १. कृपा, दया कस-संज्ञा, पु० [फा०] १. बल, जोर, २. कष्ट, पीड़ा, वेदना ३. खिचाव ।। काबू २. खींचातानी ३. अँगिया कसने की डोरी उदा० १. तुम्हैं निसि द्योस मनभावन असीसै । रस्सी [हिं० कसन, स्त्री०]
सजीवन ही करौ हम पै कसीसैं । उदा० हौं कसु कै रिस के करौं ये निसुके हंसि
- घनानन्द देत ।
-बिहारी ।
२. सेखर इहाँ लौं सहै काम की कसीसे रहि न सक्यौ कस करि रहयो बस करि
हाय देखे को हिये की कठिनाई मौन लीन्ही मार ।
-बिहारी घर की।
-चन्द्रशेखर ३. अंगिया सित झीनी फुलेल मली तरकी कसूमी-वि० [हिं० कुसुमी] लाल, कुसुम के ठीर ठौर कसी कस री।
-आलम रंग का ।
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--देव
-पालम
कसौनी
कामपाल उदा० चाले की चूदरि चारु कसूमी सुगंधसनी । काबली-संज्ञा, पु० [हिं० केचुल] केंचुल, दमकै तन गोरें।
-ग्वाल निर्मोक । कसौनी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कसनि] कंचुकी, उदा० कुबरी ह्वकारो कान्ह द्वारिका निकारि गयो, चोली ।
देव ब्रज क्वारिका निकरि गयो काचली । उदा० एके लिये करमें बिरी तेह बनै नहिं खात
एक लिये कर में कसौनी सो कसी नहि कार--संज्ञा, पु० [सं० कक्ष] नृत्य करते समय जाय ।
-बोधा की वेशभूषा । कस्त-संज्ञा, पु० [अ० कस्द] इरादा, दृढ़, उदा० काछ नयो इकतौ बर जेउर दीठि जसोमति निश्चय ।
रांज करयोरी।
- रसखानि उदा० यह कस्त करि पाए यहाँ के रन हथ्यारन का, क्रि० वि० [सं० कक्ष] समीप, पास । भेटबी।
-पदमाकर उदा० कान्ह प्रिया बनिकै विलसै सखी साखि कहकहा - संज्ञा, स्त्री० [सं० काकली] काकली, सहेट बदी जिहि काछै ।
कोयल की ध्वनि। उदा० देव केलि कानन में कहकहा कोकिल की. काजरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० कजरी कजरी गाय सुने धूनि लहलहा महामोद माधुरी ।। उद० काजरि के हित सों कवि 'पालम' प्रावत
-देव
लै बछरू धरि कांधे । कहर- संज्ञा, पु० [अ०] आफत, संकट, आपत्ति,
-मालम उदा० देखत ही मुख बिष लहरि सी पावै काती-संज्ञा, स्त्री० [सं० की] १. छोटी -लगी जहर सौं नैन करै कहर कहार की। तलवार, कत्ती २. चाकू, छुरी ३. कैची ४.
- देव
सुनारों की कतरनी। कहलाना क्रि० अ० [हिं० कहल] १. गरमी से उदा० १. बिरह- कतल-काती किधौं पाती व्याकूल होना २. कसमसाना।
पानंद कंद । उदा० कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ ।
-दास -बिहारी कानीन-संज्ञा, पु० [सं०] कुमारी से उत्पन्न काँचरी-संज्ञा, पु० [हिं० केंचुल] साँप का जारज पुत्र । केंचुल, निर्मोक।
उदा० आप कुंड, गोलक पिता, पितृ-पिता कानीन । उदा० काँचरी सो चीर काच काँचन की प्रोप
लखो मु 'नागर' भक्ति, जस पांडव नित्य मांग, काच की चुरी की जेब जग मोहियत
नवीन ।
-नागरीदास काबिली--संज्ञा, स्त्री० [अं० काबिलीयत] चतु
- गंग राई, योग्यता, पांडित्य । काँधना--क्रि० स० [हिं० काँध] स्वीकार करना, उदा० चषमति सुमुखी जरद कासनी है सूख चीनी अंगीकार करना २. भार लेना।
स्याम लीला माह काविली जनाई है। उदा० १. पाग है आई अनेक इहाँ मन मैलो करौ
-बेनी प्रवीन कछु ना हम काँध।
काबिस---संज्ञा, पू० [सं० कपिश] काला और
- बेनी प्रवीन पीला मिश्रित रंग, एक रंग जिससे रंग कर कापा-संज्ञा, पु० [सं० कंपा] हाथी के दाँत । मिट्टी के बर्तन पकाए जाते हैं। उदा० मेह लौं गरजि मदधार बरसै, घनी | उदा० काबिस तिहारे अंग ठहरि गयो री बाल, काँति बहु भाँति काँपाति दाँते ।
___ काबिस को रंग तेरे तन में छहरि गो। --देव
-नन्दराम काकनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० कंकण] कंकण, कामपाल संज्ञा, पु० [?] बलराम, श्री कृष्ण कलाई में पहनने का एक भूषण, चूड़ी, बलय । के बड़े भाई । उदा० झाँकनी दे कर काकनी की सुने, उदा० ह है कामपाल की बरसगाँठि वही मिस काननि बैन, अनाकनी कीने ।
अब मैं गोपाल की सौं पालकी मैं ल्याइहौं । -देव ।
-दास
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कामिनी
किरना कामिनी-वि० [हिं० काम स्वार्थ ] स्वाथिनी,
सुख चीनी स्याम लीला माह काविली वह स्त्री जो बड़ी स्वार्थ रखने वाली हो।
जनाई है।
-बेनी प्रवीन उदा० बामा, भामा, कामिनी कहि बोली, प्रानेस । काहरवा-संज्ञा, पु० [फा० कहरुबा] तृणमणि,
-बिहारी
एक हलका पत्थर जो तृण को अपनी मोर कारकुन-संज्ञा, पु० [फा०] प्रबन्धकर्ता २. खींचता है। करिदा।
उदा० काहरवा को रवाहित बालको खैचे लगे उदा० करि कारकुन पिक बानी चीठी आई जमा
तन दूब लौं बीछे ।
-पजनेस बिरह बढ़ाई छबि रैयति मरोरी है,
काहल-संज्ञा, पु० [सं०] सेना की एक बड़ी
-मालम ढोल, वाद्य विशेष । कारचोबी-संज्ञा, पू० [फा०] जरदोजी, कसीदा | उदा० गुंजत ढोलक रुजक पंज, कारी
कुलाहल काहल नादति तामें । -देव उदा० कारचोबी कीमत के परदा बनाती चारु किमका-संज्ञा, पू० [सं० कणिक] अन्न का टूटा चमक चहंधा समादान जोत जाला में ।। हुआ अंश, करण ।
- ग्वाल । उदा० भोड़र के किनका ये लाल के बदन पर कार्मुक-संज्ञा, पु० [सं०] धनुष ।
निरखि जोन्हाई बीच ऐसे लसै जगि जगि । उदा० भ्रकुटी बिराजति स्वेत मानह मंत्र प्रदभूत
-रघुनाथ सामके। जिनके विलोकत ही विलात अशेष किनाने-वि० [हिं० किनना=खरीदना] खरीदे कार्मुक काम के।
-केशव हुए, मोल लिए हुए, वशीभूत । कालबूत-संज्ञा, पु० [फा० कालबुद] वह ढाँचा
उदा० कूबरी दूबरी जाति न ऊबरी, डूबरी बात जिस पर कोई वस्तु प्राकार शुद्ध करने के लिए । सुसाँची किनाने ।। चढ़ाई जाती है। २. मिट्टी अथवा ईट का वह
| किबला-संज्ञा, पु० [अ०] सम्मान, पादर, ढाँचा जो छत या द्वार का कड़ा जोड़ते समय
प्रतिष्ठा । सहारे के लिए दिया जाता है।
उदा० किबले के ठौर बाप बादशाह साहजहाँ
वाको कैद कियो मानो मक्के आगि लाई उदा० कालबुत दूती बिना जरैन और उपाइ ।
-भूषण फिरि ताकै टार बनै पाकै प्रेम लदाइ ।
किमाम--संज्ञा, पु० [अ० किवाम] शहद के -बिहारी
तुल्य गाढ़ा बनाया गया शरबत, खमीर। कावक-संज्ञा, स्त्री० [फा० काबुक] कबूतरों के
उदा० करि सकों कैसे गोपिकान की बराबरी मैं. रहने का दरबा २. चक्रवाक [सं०] ।
हौं न धारी सीस डाली दही के किमाम के। उदा० १. संग ही बोलि उठे तजि कावक
-वाल लाव कपोत कपोत के सावक । किरकिला-संज्ञा, स्त्री० [सं० कृकल, हिं० किल
--देव किला] मछली खाने वाली एक छोटी चिड़िया । २. चौकहि की चुनरी पहिरै सुनरी
उदा० मन मनभावन को मानो किरकिला, ग्रामन उनरी उई मनौ । पावन में
. सोभा-सिंधु मैं थिरकि चख-झख पै झपटि जावक जनु छबि कावक परगट पावक
परयो। सी जु घनीं ।
-पद्माकर । किरच---संज्ञा, स्त्री० [सं० कृति] काँच आदि कास--संज्ञा, पु० [हिं० आकाश] आकाश, नभ । ___ का छोटा टुकड़ा। उदा० केसर के रंग बहे छज्जन पै छातन पै उदा० कोमल कि कै क्वैलिया कूर करेजनि - नारे पै नदी पै प्रौनिकास में उछाल है।
की किरचें करती क्यों ।
-देव वाल किरना-क्रि० स० [सं० विकीर्ण] बिस्वरना कासनी-संशा, स्त्री० [फा०] एक प्रकार का | फैलना,।
नीला रंग जी कासनी के पुष्प जैसा होता है। उदा० जमुनातट कुंज कदम्ब के पुंज तरे तिनके उदा० चषमति सुमुखी अरद कासनी है । । नव नीर किरें।
-प्रतापसाहि
-देव
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पुत्र।
किरवना किरबान-संज्ञा, स्त्री० [सं० कृपारण तलवार । कंड-संशा, पु० [सं०] सधवा स्त्री का जारज उदा० तहाँ लच्छन सुजान झकि झार किरवान ।
-खुमानकवि उदा० अापकुंड, गोलक पिता, पितृ पिता काननि, किरवान सु धीर के अंग दई ।
लखो सु नागर भक्ति, जस पांडव नित्य कटि टोप कटू सिर मांझ भई ।
नवीन ।
-नागरीदास -जोधराज कुंडलीस-संज्ञा, पु० [सं० कुंडलीश] शेषनाग । किरवार--संज्ञा, पू० [सं० कृतमाला अमलतास, | उदा० कंडलीस, चंडीस, कमण्डली सहित मुनि एक वृक्ष जिसमें लम्बी और गोल फलियाँ लगती । मण्डली विमोही, रास मण्डली विलोकि कै। उदा० केसरि किसु कुसुम कुरौ किरवार करिन
कुंडी-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] पत्थर का प्याला,
पथरी। रंग रची है।
-देव
उदा० प्रेम की पाती प्रतीति कुंडी दृढ़ताई के किरवारो-संज्ञा, स्त्री० [हिं० किलवारो] किल
घोटन घोटि बनावै।
-बोधा _वारी, पतवार, २. तलवार । उदा० रन समुद्र-बोहित कों छियौ । करिया सो
कुकुज-संज्ञा, पु० [सं० कु-कुत्सित +-कु-पृथ्किरवारी लियौ।
-केशव
वी+-ज-उत्पन्न खराब वृक्ष । किलाएं-संज्ञा, पु० [फा० कलावा] हाथी के
उदा० चंदन ! बंदन जोग तुम धन्य मन में राय गले में पड़ा हमा रस्सा, जिसमें पैर फंसाकर
देत कुकुज कंकोल लो देवन सीस चढाय।
..दीनदयाल गिरि महावत हाथी को चलाता है। उदा० कहै पद्माकर महावत के गिरे कूदि
कुकुरा-संज्ञा, पु० [सं० कुक्कट] मुर्गा, ताम्र
चूड़। किलकि किलाएँ पायो गज मतवारे की। ।
उदा० कै बहिको कूकूरा बह कूर कि वाकी तिमा -पदमाकर । कहुं काहू हनी है।
...-देव किसान --- संज्ञा, स्त्री [सं० कृशानु] पाग । उदा० मदन किसान की लपट धम लपिटी कि
फुगंधि -- संज्ञा, स्त्री० [सं० पुगंधापातक, पाप । सान धरै नैन बाण बेधनि किसान की।
उदा० दरस परस ही ते थिरचर जीवन की कोटि .--देव
कोटि जन्म की कुगंधि मिटि जात है। कीकना-क्रि० प्र० [अनु०1 की की करके चिल्
--केशव लाना।
कुगोल-संज्ञा, स्त्री० [सं० कु-पृथ्वी-1- गोलउदा० खेल देवकी को देव कीको न डराइ सब ।
मंडल] भूमंडल, पृथ्वी। कीको व्रजमण्डल बकी को रूप देखि कै।
उदा० मच्छह के बेद काढ्यो कच्छह रतन -देव
गाढ्यो कोल ह कुगोल रद राख्यों कीमखाप-संज्ञा, पु० [फा० कीमख्वाब] एक
सविलास है।
-दास प्रकार का कपड़ा जिसमें जरी प्रादि का काम ! कुघा-अव्य० [सं० कोण] तरफ, प्रोर। .. बना रहता है।
उदा० चौहूँ कुघा तड़िता तड़पै डरपै उदा० घेरदार पाँइचे, इजार कीमखापी ताप पैन्हि
बनिता कहि केसव साचें। पीत कुरती रती को रूप लीपै है । कुचना-क्रि० स० [सं० संकुचन] शिथिल होना,
-ग्वाल संकुचित होना, सिकुड़ना । कीलना-क्रि० अ० [सं० कीलन] मंत्र द्वारा
। उदा० पै उर बानि डग बर डीठि-त्वचाऽति साँप को वशीभूत करना।
कुचै सकुवै मति बेली। उदा० कारे हो कान्ह निकारे हो कीलि रहे गुन
-केशव . लीलि पै औगुन थाहत ।
-देव
कुची-संज्ञा, स्त्री० [बु०] कंजी। कंचिका-संज्ञा, स्त्री० [सं०] बांस की टहनी। ज्ञान कपाट कुची जनु खोलत। -केशवदास उदा० अलक अलिक 5 कुंचिका, किंशुक शुक । कुज-संज्ञा, पु० [सं०] १. वृक्ष, पेड़ २. मंगल मुखलेखि ।
केशव ग्रह ।
-केशव
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कुतरी
( ४८
उदा० १. नदी कूल कुज मूल परसि विनसे रद करतें । - दीनदयाल गिरि कुत्ता, श्वान ]
|
!
[हिं०
कुतरी -संज्ञा, स्त्री० कुतिया, श्वानी । उदा० सोयो सब सहर पहर देकै पाहरू श्री जान्यो जब जागत न कहूँ कोऊ कुतरी । —रघुनाथ कुनित - वि० [सं० क्वरित ] बजता हुआ, मधुर ध्वनि करता हुआ । उदा० केसव कमल मूल अलिकुल कुनित कि मनु प्रतिधुनित सुमनित निचयके । —केशव कुन्नस - संज्ञा स्त्री० [फा०] प्रार्थना, विनती । उदा० इतने क्षरण जन एक तह कुन्नसकर कर जोर, अर्जवन्त ठाड़ो भयो नजर अग्र-भय छोर । -बोधा
उदा०
कुबंड – संज्ञा, पु० [सं० कोदण्ड ] धनुष । उदित प्रताप उदसाहि के प्रताप माहि रोस सुनि काहि रही कुबति कुबंड मैं ।
गंग
[सं० कु + वार्ता] खोटाई
कुबत – संज्ञा, स्त्री ० बदमाशो, बुरी बात । उदा० कति न देवर की कुबत कुल तिय कलह - बिहारी १. टेढ़िया, हो २. कंस
डरात ।
कुबरी – संज्ञा, स्त्री० [हि० कुबड़ा] वह छड़ी जिसका अग्र भाग भुका की दासी कुब्जा । उदा० १. पाठ करें सब जोग ही को जुपै काठहू की कुबरी कहूँ पावें ।
-दास
कुबल- संज्ञा, पु० [सं० कुबलय] १. कुबलय, कमल २. मोती, ३. जल । उदा० १. केसरि असोक केस कुबल कदम्ब कुल कुंज-कुंज मंजु अलि पुंज भनि रहे हैं ।
- देव
कुमक - संज्ञा, स्त्री० [तु० ] सहायता, मदद | उदा० केलि-रस साने दोऊ थकित बिकाने तऊ, हां की होत कुमक सुनों की धूम धाम पर -द्विजदेव कुमकुम - संज्ञा, पु० [तु० कुमकुम ] कुमकुम एक प्रकार का लाख से निर्मित पोला गोला या कुप्पी जिसमें अबीर और गुलाल भर कर होली के अवसर पर लोग एक दूसरे पर मारते हैं ।
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>
कुरेवा
उदा० मारत कुंकुम केसरि के, पिचकारिन में रंग को भरि के । - रसखानि
कुरंगसार संज्ञा, पु० [सं०] मृगमद, कस्तूरी । उदा० श्रांखिन मैं देखि तेरे कारी कजराई है कारोई कुरंगसार घसि के लगाउ अंग । - सुन्दर
कुरकुट - संज्ञा, पु० [सं० कुक्कट] मुर्गा | उदा० कुरकुट कोट-कोट कोठरी निवार राखो चुन दे चिरैयन को मूंदि राखों जलियो । — प्रबेनी राय कुरना- क्रि० स० [हिं० कुरा ढ़ेर ] राशीभूत होना, एकत्रित होना, डंटना ।
उदा० दाख दुरि जाइ मिसिरीयौ मुरि जाइ कंद कैसे कुरिजाइ सुधा सटक्यो सवारे को । कुरवा -- संज्ञा, स्त्री० [अ० कुरबानी ] बलि
दास
दान ।
काला
उदा० जुरवा जुलूस तौन उरवा परत काम कुरवा करत मंजु मुरवा तिहारे है । भौनकवि कुरहरे - वि० [बुं०] चितकबरा, श्राधा और आधा लाल । उदा० केसू कुरहरे प्रधजरे मानो क्वैला धरे क्वैल हाई कोयल करेजो भू जे खाति है । स्त्री० [सं० क्रूरता ] क्रूरता,
-श्रालम
कुराई -संज्ञा,
दुष्टता । उदा० कोक की कहानी कहै तासों कहाँ कहा कहीं ।
'आलम' जु कहि रहे जानि हौ कुराई के |
-प्रालम
कुरार - संज्ञा, पु० [हिं० कुलेल ] कुलेल, क्रीड़ा । उदा० नाक ते कीर कुरार करें कहि तोष छपाइ के मोहि छपावें । --तोष तेहि ऊपर फूलि सरोज रह्यो तेहि मैं एक कीर कुरारि करे । तोष कुरो -संज्ञा, पु० [सं० कुल ] कुल, परिवार
वंशज ।
--पद्माकर
उदा० संग लिये छत्रिन की कुरी कबहूँ न जे रन में मुरी । कुरेवा संज्ञा, पु० [ ? ] काले रंग का एक कीड़ा । उदा० कहै कवि गंग देखौ भँवर कुरेवा दोऊ, एक रंग डार बैठे जाति प्रमुमानिये । -गंग
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( ४६ )
कूहर. कुरौ-संज्ञा, पु० [सं० कुरज] एक जंगली पेड़, | राते नैन ।
--बिहारी जिसके पुष्प बहुत सुन्दर होते हैं।
कुही-संज्ञा, स्त्री० [सं० कुधि] बाज की तरह उदा. केसरि किसु कुसुभ कुरौ किरवार कनैरनि एक शिकारी चिड़िया । रंग रची है।
-देव ऊदा० लाज इतै, इत जी को इलाज, सुलाज भई कूलकना क्रि० प्र० [हिं० कुलकना] आनंदित
अब लाज कुही सी।
--देव होना, खुशी से उछलना।
कूचे--संज्ञा, पु० [अ० गुचा] महुवे के गुच्छे । उदा० लै लै सिर माही मांठ कुलकि कुलाहल के,
उदा० नाँघत-नाँघत घोर घने बन हारि परे यों स्याम पाये स्याम पाये धाईजाति बन मैं ।
कटे मनो कूचे।
- भूषण --बेनी प्रवीन
कूछित--वि० [सं० कुत्सित] कुत्सित, घृणाकुलफनि-संज्ञा, पु० [सं० फरिण + कुल] सपों का
स्पद । कुल, सर्प समूह ।
उदा० करै नीचता नीच कूर कूछित ज्यौं कूकर । उदा० उतरत सेज ते सखीन सुखदेनी थाँमी.
-ब्रजनिधि बेनी लांबी लखे लाज मरै कुलफनि के ।
कूजा-संज्ञा, पु० [फा० कूजा] लघु जलपात्र . --देव
कुल्हड़, मिट्टी का एक छोटा पात्र। कुलीर--संज्ञा, पु० [सं०] केकड़ा।
उदा० कूजा कंचन रतनयुत, सुचि सुगन्ध जल पूरि उदा०द्वीप रत्न जलजंतु पुनि, भ्रमर तरंग कुलीर।
-नरोत्तमदास -काव्य प्रभाकर से कूट-संज्ञा, पु० [सं०] १. समूह, २. पर्वत । कुल्ले--संज्ञा, पु० [? ] घोड़े की एक जाति । उदा० १. कठिन कूठाट काठ कुठित कुठार कूट उदा० कूदम कुल कुल्ले अमित अतुल्ले खूबनि
रूठि हठ कोठरी कपाट कपटन की ! खुल्ले फबि हेरै।
--पद्माकर कुल्हाट-संज्ञा, पु० [हिं० कुलांछ, कुलांट] कूटि-संज्ञा, स्त्री० [सं० कूट] १. ढेर, राशि, उछलने या छलांग मारने की क्रिया, पैर ऊपर समूह । २. हँसी, दिल्लगी, मजाक।
और सिर नीचे करके नटों की भाँति उलटना । उदा० १. गुन अंत्र टूटि । पुनि मुड कूटि । छिति उदा० मारत ही भट तें भूकै । भट नट मनौं
गिरत खद्र । हँसि अट्र पट्ट। -सोमनाथ . कुल्हा , चुकै।
--केशव कूब संज्ञा, स्त्री० [अ० कुव्वः] कुव्वत, बल, कुसुमेषु-संज्ञा, पु० [सं०] कामदेव, मनोज, शक्ति, जोर, सामर्थ्य । कुसुमशर।
उदा० सखी से कही गहि ल्याबो । जिसी अब कूब उदा० चित चायतें लै लै मिली है मनो कुसुम
सों पावो !
-बोधा स्तवके कुसुमेषु की सैन सबै ।। -दास कर--वि० [?] १. मूर्ख २. क्रूर, दुष्ट । कसेस-संज्ञा, पु० [सं० कुशेशय] कुशेशय, उदा० पूरन की रीति है जू डेल ऐसो डारि देत कमल ।
-मतिराम उदा० मोहनी कला सी मंजु कलिका कुसेस कैसी भये न केते जगत के चतुर चितेरै कूर । मुद्रित प्ररथ पर जैसे कोकछंद को।
-बिहारी --चन्द्रशेखर कूरा - संज्ञा, पु० [सं० कूट, प्रा० कूउ] समूह, ढेर कुसल--संज्ञा, पु० [हिं० कु+सैल] १, कुमार्ग, राशि । बुरा मार्ग ।
उदा० यहि विधि वृथ कैसादिक सूरो। उदा० संतन के पैंडे परै कुसल सदा ही चलै, पर दीरत भये सबै भट कूरा । --रघुराज धन हरिबे कौं साधन करत हैं।
कूट संज्ञा, स्त्री० [हिं० कूक] चीख चिल्लाहट ।
-सेनापति | उदा० घर-घर कूहर सी भई कूहरही पुरछाय । कुह--क्रि० प्र० [फा० कुश्तन] मारना, मर्दन
ऊहर सब कूहर भई बनितन लगी बलाय । करना ।
-बोधा उदा० बन-बाटनु पिक बटपरा लखि बिरहिनु मत कूहर - संज्ञा, स्त्री० [हिं० कुहराम] कुहराम,
मैंन । कुहौ-कुही कहि-कहि उठे, करि-करि
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निवास ।
कृपाउसे ( ५० )
कोपरा उदा० घर घर कूहर सी भई कूह रही पुर
केर-संज्ञा, पु० [हिं० करील] करील, काँटेदार छाय । ऊहर सब कूहर भई
एक वृच्च । बनितन लगी बलाय ।
उदा० सपत बड़े फूलन सकुचि सब सुख केलि
--वोधा कृपाउस-संज्ञा, स्त्री० [सं० कृपा] कृपा, दया ।
अपत कर फूलत बहुत मन में मानि हुलास । उदा० माई रितु पाउस कृपाउस न कीनी कंत् करव-संज्ञा, पु० [सं०] १. शत्रु, २. कुमुद, . छाइ रह्यो अंत् उर बिरह दहत है।
३. सफेद कमल ।
-सेनापति उदा० १. त्यों अलि कोकिल के कल करव क्यों केम-संज्ञा, पु० [सं० कदंब] कंदब नाम का
बचिहैं दुख सिधु अगाधे । --चन्द्रशेखर वृक्ष ।
को- संज्ञा, पु० [देश॰] पुत्र, लड़का । उदा० खेल न रहिबौ खेम सौं केम कुसुम को बास उदा० एरी मेरी बीर जैसे तैसे इन प्रॉखिन सों
--बिहारी
कढिगी अबीर पै अहीर को कढ़ नहीं। लग्यो तरु तावन सावन मास ।
-पद्माकर प्रजारति कम कुसुमिय बास ॥
राजा मिले अरु रंक मिले कवि बोधा --बोधा मिले निरंसक महा को।
-बोधा केल-कुंज-संज्ञा, पु० [सं० कदलीबन] कदली- कोठ-संज्ञा, पु० [सं०प्रकोष्ठ[ कलाई, प्रकोष्ठ । कुज, केला का बन ।
उदा० ठिले कोठ बांधे धरे तेग काँधे । उदा० माली तजि मौन करि गौन हित-भौन
तुरंगान साधे सबै जुध्ध ना। चलि, केल करि केल-कुज केलि के उपाइ
--पद्माकर करि।
-आलम कोत-अव्य० [देश॰] और, तरफ से । केवली-संज्ञा, पु० [सं० कैवल्य] मुमुच, मोक्ष । उदा. होत अरुनोत यहि कोत मति बसी पाजु, प्राप्त करने के इच्छुक २. वीतराग, विज्ञानी।
कौन उरबसी उरबसी करि पाए हो। -दूलह उदा० केवली समूढ़ लाज हूँढ़त ढिठाई पैये ।
सीताजू की खबरि दियो जो प्राइ ताकी चातुरी अगूढ़ गूढ़ मूढ़ता के खोज है।
कोत जो जो मांगी प्राजु हनुमान सो सो --देव लीजिये।
-रघुनाथ कैनि-संज्ञा, स्त्री० [फा० कोरनिश] प्रार्थना,
कोते - वि० [फा० कोताह] थोड़ा, कम। बिनती, कुन्नस ।
उदा० राग बिरागनि के परिभन हास विलासनि उदा० विधि विधि कनि करै टरै नहीं परेह पान
ते रति कोते ।
-केशव .. चित कितै ते लै धरो इतो इते तनु मानु ! कोंबर-संज्ञा, पु० [बुं०] खाँडर, वृक्ष का छिद्र ।
-बिहारी
। उदा० भूल बिसर जिन डारौ कबहूँ कोंदर खदरन कैफ--संज्ञा, पु० [अ० कैफ] नशा, नशीली
हाथू ।
-- बकसी हंसराज वस्तु।
कोद-अव्य० [सं० कोण] ओर, तरफ । उदा० बद्दल बिलंद बरसा के बिरुदैत कछु, कठिन उदा० केतकी रजनि अरगजनि मधुर मधु, राका कजाक कैफ खाये से फिरत हैं।
की रजनि राज रंजित चहूँ कोदनि ।-देव
---'चातुर कोधो-अव्य० [हिं० कोद] ओर, तरफ । ल्याई केलि मंदिर भोराय भोरी भामिनी
उदा० या जिय मैं पिय मूरति है पिय मूरति देव को फूल गंध कैफबस कीन्हों पौन साख त ।
सुमूरति कोधो।
-पजनेस कोपर--संज्ञा, पु० [बु.] थाल । केबर-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] तीर का फल, उदा० कोपर हीरन को प्रति कोमल । ता महँ गाँसी ।
कुकुम चन्दन को जाल । _ -केशव उदा० चमकै बरुनी बरछी ध्रुव खंजर कंबर तीछ! कोपरा-संज्ञा, पु० [हिं० कोंपर] भिक्षा-पात्र, कटाछ महै ।
-दास एक पात्र ।
-देव
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कोर
(
उदा० बरस प्रसीक को भयो है इन भाँतिन सों, माँगत फिरत भीख लीन्हे कर कोपरा । -अज्ञात कवि कोर - संज्ञा, स्त्री० [देश० ] १. पंक्ति, श्रेणी, कतार २ निकट [सं० क्रोड], समीप, ३. गोद । १. कोर बाँधि पाँचो भये ठाढ़ | प्रागे धरे जंजालन गाढ़े । -सूदन
चौंकत चकोर कोर बाँधत मराल मोर चहे ओर सोर करें मोर भरि भरि के । -देव २. कुजन के कोरे मन केलि रस बोरे लाल तालन के खोरे बाल प्रावति है नित को ।
-देव कोरना- क्रि० स० [देश०] छिद्र करना, काटना । उदा० ठाकुर प्राप सयाने बड़े मन मानिक पाय न कोरितु है । -ठाकु
कोरि वि० [सं० कोटि] करोड़, उदा० कोरि उपाय करे तेहि काल सों बोलत ही बन्यों ।
अत्यधिक । झाली गोपाल -द्विजदेव
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार । मो सम्पति जदुपति सदा, विपति विदारनहार ॥ - बिहारी कोरिक वि० [सं० कोटिक] करोड़ों, कोटिक । उदा० सुन्दर नन्द कुमार के ऊपर वारिये कोरिकु -देव मार कुमारन | कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार । मो सम्पति जदुपति सदा, बिपत विदारनहार ॥ - बिहारी कोलना- क्रि० प्र० [हिं० कहलना ] व्याकुल होना, संतप्त होना । उदा० धुनि सुनि और होति थिर चर गति, मोरी विचारिनि की मति कोलै ।
घनानन्द
कौंच - संज्ञा, स्त्री० [बु०] १. कलाई २. लम्वीली तलवार ३. कटार आदि का सामान्य
घाव ।
उदा० १. कौंचन में पौची अरु चूरा खएन बिजैठे बाँधे । - बकसी हंसराज । कंधन तें कंचुकी भुजान तें सु बाजूबंद, कौचन ते कंकन हरेई हरै सटके ।
२. कौंचनि उमेठत हरषि मरभ्रमर में । काँव —— संज्ञा, स्त्री० [हिं० कौंध ]
- पद्माकर
पैठत लोह की
—पष्माकर चमक, प्रकाश
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५१ >
उदा० आलम बयारि बर बिजना की छीजं तनु, बिजुरी की कौदंनि पसीज भीजि जाति है ।
---श्रालम
कौनप - संज्ञा, पु० [ कौणप ] राक्षण - रजनीचर । उदा० कौनप रावन देव सतावन को लहै भार धरे धरती को ।
पकव
-दास
कौरई — संज्ञा, स्त्री० [हिं० कोरा-नवीन ] नवीनता, अछूतापन, विचित्रता २. कोमलता । उदा० और कछू मति गति और कछू रति प्रति औरे कधू मन में मिली है श्राई कौरई । - रघुनाथ कहैं कविगंग तन निंदै नवनील घन । कलाऊ न पूजति कमल दल कौरई ।
-गंग
कौरे - संज्ञा, पु० [बुं०] दरवाजे का एक पक्खा, दीवाल । २. मुहा० कौरे लगना-दरवाजे की घोट में छिपकर देखना ।
उदा० कौरे श्रानि लागे पिछवारे सखी जागे सौति
-मालम
सोरे अंग सूत न, पौरे खोलि दौरे, राति भाषिक लौं राधिका के कौ रई लगे रहें ।
देव कौल - संज्ञा, पु० [सं०] १. उत्तम कुल में उत्पन्न, कुलीन । २. बच्चन, वादा । [श्र० कौल ] ३.
कमल ।
उदा० कौल कीहै पूरी जाकी दिन दिन बाढ़ छवि रंचक सरस नथ झलकति लोल है ।
-सेनापति कौहर -संज्ञा, पु० [ ? ] एक जंगली लाल रंग
का फल |
-देव
उदा० सुरुचि जीभ जौहर करत कौहर फल मुख चाखि । कौहर सी एड़ीन की लाली निरखि सुभाय । पाय महावर देइ को आप भई बे पाइ | - बिहारी कोंवरी है । आये हो । - पालम
कं रहेंगी रोस वै जु कौहर सी ऐसो कोरा छांड़ि कत भोराभोर
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बद-- संज्ञा, पु० [अ० कद्द ] हठ, जिद्द । उदा० जक्कि नकद अकबक्कि सुतविक नकरिकर —पद्माकर
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क्वन्द
खगासन
क्वान-संज्ञा, पु० [सं० क्वण] आभूषणों की क्वारिका--संज्ञा, स्त्री० [सं०कुमारिका] कुमारी, अावाज ।
। पुत्री । उदा० किंकिंन कंकन क्वान मिलै बर दादुर झींगुर | उदा० द्वारिका सन्देश नृप क्वांरिका पठायो। की झनकारहिं । --पालम ]
--देव
खंखर-संज्ञा,पु० [हिं० कंकड़] १. खेह, भस्म, खई-संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षयी] लड़ाई, युद्ध, तकराख, २. उजाड़, वीरान [सं० कंक]
रार, प्रपंच २. क्षय । उदा० औरहिं 'सूरति' दान की बानि सुनी रहै उदा० मेरिये जानि के सुधी सबै चप ह रहीं उन्नत ही मधि खंखर। -सुरति मिश्र
काहु करी न खई री।
- रसखानि खंगवारी- संज्ञा, स्त्री०[देश॰] गले में पहनने का खए-संज्ञा० पू० [सं० स्कन्ध] भूजदण्ड, खम । एक भूषण, हसुली।
उदा० कौंचन में पौंची अरु चूरा खएन बिजैठे उदा० सोहत चम्प कली अति सुन्दर सोने की
बांधे ।
-बकसी हंसराज खेंगवारी ।
-बकसी हंसराज खखेट-संज्ञा, पु० [देश॰] खटका, चिन्ता । त्रिविध बरन पर्यो इन्द्र को धनुष, लाल उदा० सोच भयो सुरनायक के कलपद्रुम के हिय पन्ना सौं जटित मानौं हेम खगवारौं है।
माझ खखेट्यौ
-नरोत्तमदास -सेनापति
खखेना-क्रि० स० [हिं० खसेटना] पीड़ित करना, खंतु - संज्ञा, स्त्री० [सं० खङ्ग हिं० खड़ग] खंता । घायल करना, चोट पहुंचाना । एक प्रकार की तलवार।
उदा० रोम रोम भिजवै पानॅदधन हियरा मदन उदा० लाजत कपोल देख राजड़ त्रिबलिरेखें मार
-घनानंद मल्ल खंतु खात रंग को रसालु है।
खग-संज्ञा, पु० [सं० ख = माकाश + ग = --केशव
गमन करना] १ सूर्य २. पक्षी। खंडपरशु-संज्ञा, पु० [सं०] महादेव २. विष्णु उदा० धनुष की पाइ खग तीर सौं चलत, मानौं ३. परशुराम
ह्व रही रजनि दिन पावत न पोत है। उदा० १. खंडुपरशु को शोभिजे, सभा मध्य को
-सेनापति -केशव खगना-क्रि० प्र० [हिं० खाग] १. मिलना, लिपखंडी-संज्ञा, स्त्री० [सं० खंडन] राजकर, माल- टना, २. चुमना ३. स्थिर होकर रह जाना, गुजारी की किस्त, राजा की ओर से लिये जाने अटक जाना। वाला कर।
उदा० १. लोभ पट प्रोढ़यो, सेज पौढ़यो काम उदा० दतिया सु प्रथम दबा दई ।
कामना की कामिनी कुमति कंठ खरोई खंडी सु मनमानी लई ।
खगत है।
-देव --पद्माकर
लोचन चकोरनिसों चोपनि खगत है । संवाखसी-संज्ञा, स्त्री [?] बहुत ज्यादा भीड़।
-घनानन्द उदा० प्रेम गली बिच रूप की, खेवाखसी व पूर | ३. करिक महाघमसान । खगि रहे खेत पठान । लोचन दुबल बापुरे, भये जात हैं चूर ।
-सूदन -नागरीदास । खगासन-संज्ञा, पु० [सं० खग-पच,-गरुड़ -
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-दास
आसन] गरुड़ का प्रासन बनाने वाले, विष्णु ।। उदा० पुनि बीणा साज माधव अडंग । उदा० हीय पर देव पर बदे जस रटै नाऊँ खगा
शिव शरण ध्याय गायो खड्ग । सन नगधर सीता नाथ कौलपानि ।
-बोधा --दास । खडग प"- संज्ञा, पु० [सं० खड्ग पत्र] यमपुरी खचना-क्रि० प्र० [सं० खचन] रुक जाना, अटका का एक कल्पित वृक्ष जिसकी पत्तियाँ खड्ा की जाना।
तरह धारदार मानी जाती हैं। उदा० घॉघरो झीन सों सारी मिहीन सों पीन | उदा० तची भूमि अति जोन्ह सों झरे कंज ते नितंबनि भार उठे खचि ।।
फूल । तुम बिन वाको बन भयो खड़ग पत्र खचर-संज्ञा, पु० [सं ख = भाकाश +घर
के तूल ।
-मतिराम । चारी,1 सूर्य, प्राकाश चारी।
खड्ग पत्र सों सौगुनी जाहिर यहै कलेस । उदा० हरिदल खुरनि खरी दलमली।
-बोधा ___ खचरहिं धूरि पूरि मनु चली ।।
खड़गी-संज्ञा, पु० [सं० खङ्ग] गैड़ा। -केशव
उदा० खड़गी खजाने खरगोस खिलवत खाने खत संज्ञा, पु० [सं० क्षत] १. क्षत, कलंक २.
खोसै खोले खसखाने खांसत खबीस हैं । सरखत, दिए और चुकाए हुए ऋण का ब्यौरा।
-भूषण उदा०१. मोहित तो हित है रसखानि छपाकर | खतरेटे-संज्ञा, पु० [हिं० खत्री + एटे (प्रत्य)] जाहिं जान अजानहिं ।
१. खत्री के बच्चे, २. क्षत्रिय पुत्र। सोउ चवाव चल्यौं चहाँ चलि री उदा० बिद्रम की झाँझरी विराजै बिबिराज कैधौं चलि री खत तोहि निदानहि ।
लाल जाल पाट बैठे खूब खतरेटे हैं । -रसखानि
-तोष दैहैं करि मौंज सोई लैहैं हम हरबर ता
खरक-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खटक] खटक, चिन्ता। छिन उमादो खत टीपन लिखाइहौ ।
-गंग
उदा० खरक दुहेली हो असूझ रेप रावरू की। खज-वि. [सं० खाद्य, खाद्य, खाने योग्य ।
-घनानन्द उदा. भ.ख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर कौं खरिक-संज्ञा पू० [सं० खड़क] गायों के ठहरने धारत । बिहरत पंख फुलाय नही खज
__का स्थान, गौशाला । अखज बिचारत ।
-दीनदयाल गिरि उदा० अब ही खरिक गई' गाइ के दुहाइबे कौं. खटाना-क्रि० प्र० [देश॰] टिकना, रुकना।
बाबरी ह्व' पाई डारि दोहनीयौ पानि उदा० कहै कवि गंग भट बिन न खटात खेत,
की ।
- रसखानि कहा करै निपट निसानो रन बाजनो ।
खरी-संज्ञा, स्त्री० [? ] एक प्रकार की ईख ।
-गंग उदा० खारिक खरी कों मधुहू की माधुरी को खटिका-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खरिया] खरिया।
मुभ, सारदसिरी कों मीसरी कों लूटिलाई एक प्रकार की सफेद मिट्टी जो पोतने के काम
सी।
-पद्माकर में आती है।
खरीक-संज्ञा, पु० [हिं० खर] खर, तृण, उदा० सीप, चून, भोडर, फटिक, खटिका, फेन, तिनका । प्रकास ।
उदा० भूषन मनत, तेरे दान जल जलधि मैं। खटोल-वि॰ [देश] कंटीला, झाड़ीदार २. नि
गुनिन को दारिद गयो बहि खरीक सो। बिड़, सघन ।
-भूषण उदा० नन्द जी को बाछा मोहि मारिबे को दौरो खलार-संज्ञा, स्त्री० [सं० खात] नीची, जमीन,
देवि भागी मैं खटोल बन जान्यौ प्रान खाल । ल गयो ।
-नंदराम | उदा० साकरी-गली की उतै कवि रघुनाथ घनी खड्ग-संज्ञा, पु० [स षाड़व] एक राग जिसमें ___ वह जो कदंब खड़ी गिरि के खलार है। द्रः स्वर लगते हैं।
-रघुनाथ
केशव
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खलित
(
५४
)
खासा
हलित-वि० [सं० स्खलित] रीते, अर्थशून्य, खाढ़-संज्ञा, पु० [हिं० खाड़] गड्ढा, गर्त । निरर्थक, अर्धस्पष्ट ।
उदा०ढरस हास के कूप किधौं पति प्रेम के उदा० खलित बचन, अध खुलित दृग,
पूजन को यह खाहै।
-रघुनाथ ललित स्वेद -कन- जोति ।
खाती-संज्ञा, स्त्री० [सं० खात] खुदी हुई भूमि, अरुन बदन छबि मदन की खरी छबीली ! खाने जहाँ सोना आदि प्राप्त होता है। २. होति ।
-बिहारी बढ़ई। खलीत--संज्ञा, स्त्री० [हिं० खरीता] थैली, जेब ।। उदा० सरना जड़ का सरसाती मिली, चित सूम, उदा० सीता कौं संताप, कि खलीता उतपात की,
को सोन की खाती मिली।
-तोष कि काल को पलीता प्रल काल के प्रनल खावर-संज्ञा, पु० [बुं०] गड्ढा, सूराख । की।
--सेनापति उदा १. भूल बिसर जिन डारौ कबहूँ कोंदर खलीता-संज्ञा, पु० [अ० ] लिफाफा, थैली ।
खदरन हाथू ।
-बकसीहंसराज उदा० खोल खलीतो लिख्यो यह बाँचत भाजियो
नाहीं तौ न हील होन देरी झील झाबरनि, राति न बीतन पावै ।
-चन्द्रशेखर
ग्रीष्महि राखु खाली भाखु खल खादरनि। खवास-संज्ञा, पु० [अ० खवास] १. गुरग, धर्म,
-देव विशेषता २. राजमहल की वह दासी जो राजा खाम--वि० [फा० खाम] १. अनुभवहीन, कच्चा, के पास प्राती जाती हो।
अपुष्ट, अविवेक २. चिट्ठी का लिफाफा, उदा० ऐसै जिय भास तें, जु लाज के खवास तें, लिफाफे में चिट्ठी का बंद रहना [संज्ञा, पु., कहै न खवास तें, कि उठि जाउ पास तें । हिं० खामना]
वाल | उदा० १. धाम की न धनि की, न धन की न खवासो-संज्ञा, स्त्री० [अ० खवास] नौकरी,
तन की, तपन की न पात, बात कीन्ही चाकरी, खिदमतगारी ।
सब खाम की।
-ग्वाल उदा० दासी सों कहत दासी, यामें कौन ताहिनी
२. बाँचति न कोऊ प्रब वैसिये रहति खाम है, उनकी खवासी तौ न कीनी जोरि कर
जुवती सकल जानि गई गति बाकी है। -रवाल
-द्विजदेव खसमाना--संज्ञा, पु० [भ० खसम] पति, प्रिय- | लारिक-संज्ञा, पु० [बुं०] छोहारा।
उदा० खारिक खात न दारिम दाखहु, माखनहू सह उदा. कहै कबि गंग हूल सागर के चहूँ कूल, । मेटी इठाई।
- केशवदास कियो न करें कबूल तिय खसमाना ज । खारिज-वि० [अ०] अलग की हुई, पृथक,
-गंग भिन्न । खहिनि-संज्ञा, पु० [हिं० खये-] भुजमूल, खम। उदा० पानी गये खारिज परबाल ज्यों पुरानी है। उदा० रोकि रहे द्वार नेग माँगन अनेग नेगी ।
-पदमाकर बोलत न ख्याल, व्याल खोलत खहिनि के। खाली-क्रि० वि० [अ०1सिर्फ, केवल ।
-देव | उदा० बेलिनि नवेलिनि के केलि-कुंज पुंज पाली ! सासरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खंखाड़] १. अस्थि । खाली बनमाली बिन काली से डसत है पंजर, कंकाल ०. खोखला, सुराखदार [वि.]।
- कुमारमणि उदा० १. स्वान मसान में खैचिहैं खाखरि
कहा कहों प्राली खाली देत सब ठाली. जंबुक खोहनि मैं खुपरी की।
पर मेरे बनमाली को न काली तें छरावहीं। -देव
-रसलानि २. मड़हो मलीन कुंज खांखरो खरोई खासवान--संज्ञा, पु० [अ० खास+फा० दान] खीम।
-पालम पान रखने का पात्र विशेष । खाड़ो-संज्ञा, पु० [सं० खात] गड्ढा, गर्त ।। उदा० खासान सौं लै दई, बिरी खवासिन चारु । उदा० कौने विधि कुबिजा 4 पीढ़िबे को बनि
-गुमान मिश्र पाव खाट काटि देत है कि खाडो खोदि 'खासा-संज्ञा, पु० [अ० खासा] १. एक प्रकार लेत हैं।
-देव का महीन श्वेत सूती वस्त्र २. राजभोग ३.
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खुभरानी
राजा की सवारी का घोडा या हाथी ।
सुगंगा गंज खाल की खिलत पहिरावेगी। उदा० खासा तनजेब के बसन वेस धारि धारि
- पचाकर भूषन सम्हारि कहा सोवे सेज पाटी में । खिलवत-संज्ञा, पु० [फा०] एकान्त, निर्जन ।
-पवाल उदा० खेल मैं खिलावत खिलारी से मिलाई खूब, २. ताजी रंग रंग के तुरंगन की छाजी
खुलिगे खजानै खिलिवत मैं खुसीन के । छटा राजी गजराजन की पालकी श्री
---ग्वाल खासा ये।।
--चन्द्रशेखर
खिलवतिन-संज्ञा, पु० [अ० खिलवत] अभिन्न बिग-संज्ञा, पू० [फा० खिगा सफेद रंग का भिन्न, दिली दोस्त । घोड़ा जिसके मुंह पर का पट्टा तथा टाप
उदा० निज खिलवतिन में हास है। भयरूप दुरजन गुलाबी लिए श्वेत रंग का होता हैं।
पास है।
-- पद्माकर उदा० तहँ खिग निहारे सुख दिलदारे अधिक खिलाई-वि० [हिं० खिलाना] केवल भोजन पर सुढारे तन चमक ।
-पद्माकर सेवा करने वाली । खित्त-संज्ञा, पु० सं० क्षेत्र, हिं० खेत] क्षेत्र, उदा० धाई नहीं घर दाई परी जुर, पाई खिलाई रणक्षेत्र ।
की आँखि बहाऊँ ।
-केशव उदा० कहिं केसव' मंडहि रार रन करि राखें खिवना- क्रि० अ० [राज.] चमकना, प्रदीप्त खित्तहिं भवन ।
-केशव
होना । खिन-संज्ञा, पु० [सं० क्षण] क्षण, पल, थोड़ा उदा० विरहा रबि सों घट-व्योम तच्यौ बिजुरी सी समय ।
खिवं इकलौ छतियाँ ।
... घनानन्द उदा० फेर सुन्यो प्रहलाद के साँकरे पावन को
बजे सुखोनि बाजि बेग, न खिनौ बितयो रे ।
-ठाकुर
विद्यु ज्यौं खिवै खुरी । खिरकन--संज्ञा, पु० [हिं० खरिक+न] खरिक,
-मानकवि वह स्थान जहाँ गाएँ बाँधी जाती हैं, गौशाला । खिसी-संज्ञा, स्त्री [हिं० खिसिवान।] १. लज्जा, उदा० ग्वालकवि कवह छिपी न खेत खिरकन में,
शर्म २. धृष्टता, ढिठाई। - खोरि में, न बन में, न बगिया अराम की।
उदा० १. हमहूँ को खोर देत, खरे हो सयाने -ग्वाल
कान्ह, खिसी बेचि खाई अब नख जोइखिरकी-संज्ञा, स्त्री० [?] पाग की पेंच,
यत है।
--गंग एक आभूषण जो पगड़ी पर बांधा जाता है।
खुटना---क्रि० प्र० [सं० खुड्] खुलना, उद्घाटित उदा० टूटि गयो मान लगी ग्रापुही सँवारन कौं, । होना। खिरकी सुकवि मतिराम पिय पाग की, उदा० तौ लगि या मन सदन में,
-मतिराम
हरि पावै केहि बाट । खिरना-क्रि० अ० [प्रा० खिर, सं० तर ]
निपट विकट जी लौं जुटे, गिरना, गिर पड़ना, धराशायी होना ।
__ खुटहिं न कपट कपाट । उदा० सोमनाथ कहै तब्बै पब्बय खिरत रेनु दब्बै
--बिहारो मारतंडहि तुरंग खुरतारे की।
खुटी-वि० [सं० खुड्] खुली हुई, नग्न ।
. सोमनाथ उदा० कहि तोष खुटी जुग जंघनि सो उर दै भुज खिरे-क्रि० अ० [सं० खर हिं० खलना] दुखित
स्यामै सलामै करै।
-तोष होना, कष्ट पाना ।
खुद- संज्ञा, स्त्री० [हिं० खुही] खुही, सिर पर उदा० कंपित करी पै साह साहब अलाउदीन दीन 1 अोढे जाने वाली पत्ते की घोषी। दिल बदन मलीन मन मैं खिरे ।
उदा० हात छरी पनही पग पात की सीस खुढ़ -चन्द्रशेखर करि कामरि काँधे ।
-पालम खिलत-संज्ञा, पु० [फा० खिलप्रत] पोशाक, | खुभराना--क्रि० प्र० [सं० क्षुब्ध] उमड़ना, उपसम्मान का चोंगा ।
द्रव या बदमाणी करने के लिए घूमना । उदा० मुंडन के माल की भुजंगन के जाल की Jउदा० ऐयाँ गैयाँ बैयां लै लुगैयाँ लैयाँ पैयाँ चलो,
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बुरी
-
वारों न अथैयाँ कहूँ जाट खुभराने हौ ।.
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( ५६
—
खुरी – संज्ञा, स्त्री [सं० तुर = उस्तरा ] छूरी, अस्तुरा |
ग्वाल
उदा० देवकों की सेवकी न सेवकी पिता की करी नाइनसुता की भली गाँठ सी खुरी लगी । खुसी - - संज्ञा, पु० [अ० खुस्या] अंडकोष, फोता । उदा० कनौती खुसी सीखड़ी खूब छोटी । नुकीली नचै सी कला के जु कोटी ।
खूट प्रव्य, [सं० खंड ] ओर, तरफ उदा० दौरि चढ़ि ऊँट फरियाद चहूँ खूट
।
-पद्माकर
कूटना - क्रि० सं० [सं० खंडन ] कम हो जाना, समाप्त होना २. टोकना । उदा० जाति भई सँग जाति लै कीरति, 'केसव' है कुल सहित लूट्यो । -केशव खू जो
-संज्ञा, पु० [सं० कुब्जक ] एक प्रकार का पुष्प, एक जंगली पौधा । उदा० आए बालम हे सखी लिए खुजे को फूल । - मतिराम
-
कियो । -भूषण
--
खुमरी -संज्ञा, पु० [ ? ] एक पक्षी । उदा० चक्रवाक खंजन पपीहा मैना चांडूल दहिये दरेवा खूब खूमरी बिकानी है । - बोधा खेट -संज्ञा, पु० [सं०] १. एक प्रकार का अस्त्र २. खेड़ा ३. घोड़ा ४. ढाल ५. शिकार ।
--
उदा
१. समर अमेठी के सरोस गुरुदत्त सिंह सादत की सेना पर बाहे खग्ग खेटे हैं -कबीन्द्र खेदान – संज्ञा, स्त्री [हिं खोदना ] खान, वह गड्ढा जो किसी वस्तु को निकालने के लिए खोदा जाता है ।
उदा० बनन में, बागन में, जमुना किनारन में, खेतन खदान में खराब होत डोली मैं ।
ग्वाल
खेरा संज्ञा, पु० [सं० बेट, हिं खेड़ा] छोटा - गाँव, खेड़ा । कहें देखिये को
उदा० गोगृह काज गुवालन के कहे दूरि को बेरो।
खेवा - संज्ञा, पु० [हिं० खेना ] नाव पार करने की क्रिया । उदा० तात-मात वाहन सुता श्रौ सुत
-पद्माकर
द्वारा नदी
बनिताहू
>
खोलना
भानजे भतीजे साथ चले हैं न खेवा पं । ग्वाल -संज्ञा, स्त्री [ देश० ] लाई, धान की खील ।
खोई
उदा० प्रॉब छाँड़ि प्रबरी को काहे लागि छोय कोक, खीर छापीए खोई खाए खाइगो । — गंग खोगरी - सज्ञा, पु० [फा० खुगीर ] वह ऊनी वस्त्र जो घोड़ों के चारजामे के नीचे लगाया जाता है । उदा० कारी औ पीरी कछूक है भूरी बुरी सो खोगीर सी दाढ़ी हलावे ।
--- -श्रज्ञात
-संज्ञा स्त्री० [हिं० [कों] भोली, कछ उदा० चातिक चित कृपा घन श्रानन्द चोंच की खोंच सु क्यौं करि धारौं | त्यौं रतनाकर दान-समै बुधि जीरन चीर कहा लं पसारों ।
-घनानन्द
-
अ०
खोझ संज्ञा स्त्री [हिं० खोज] चिह्न, निशान । उदा० यौवन अंकुर खोभु सुहाइ न धाय सो पांय -देव ध्रुवावन लागी । खोंट -संज्ञा, स्त्री० [हिं० खोंटना ] घाव पर पड़ी पपड़ी, खरोंट, चोट का दाग । उदा० सूखन देति न सरसई खोंटि-खोटि खत खोंट । - बिहारी खोपना -- क्रि० [देश० ] घुसना, प्रवेश करना । उदा० चहुँघा चकित चंचरीकनि की चारु चौंप देख 'सेख' राती कोंप छाती खोंप जाति है । खोभ संज्ञा, पु० [देश०] कांटा । उदा० मन मरकट के पग खुभ्यौ निपट निरादर खोभ । बिहारी खोम-संज्ञा, पु० [अ० कौम ] समूह, झुंड । उदा० खलन के खेरन खबीसन के खोम हैं ।
आलम
-
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खुड,
खोलना - क्रि० अ० [सं० दूर करना, मुक्त करना । उदा० प्रति श्रादर सों ते सभा
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-
-
- भूषण खोरि-संज्ञा स्त्री [हिं० खोट] दोष, क्रोट कोप, नाराजगी ।
7
उदा० सास व्रत ठानै नन्द बोलत सयाने धाइ, दौरि दौरि माने-जाने खोरि देवतान की । रसखानि खुल भेदन] महँ बोल्यी बहु
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खोना
गंधसार पूजन कै मग को श्रम खोल्यो। -केशव । उदा० १. दैया दौरि-दौरि खोरत मोहीं सों यौंखौन--संज्ञा, पु० [फा० ख्वान्चा] बड़ी परात
गिधये किहि बाल हो। -घनानन्द या थाल २. कौन (सर्व० ।।
मचि हैं जब फाग कहा करिहीं अबही उदा० पीन की ना गौन होय, भरक्यी सुभौन
करी कान्हर खीरई सी। --घनानन्द होय, मेबन को खौन होय, डिब्बियाँ
२. मोही सों जब तब खीरत हो सब मसाजा की।
-ग्वाल मिलि कर चबाव ।
-घनानन्द २. खासे खसबोजन सु खौन-खीन खाने
खौरोहों-वि० [हिं० खोलना] खोलता हुमा सा, खुले खस के खजाने खसखाने खूब खस
संतप्त । खास ।
--पद्माकर
उदा० स्याम सुरति करि राधिका, खोप---संज्ञा, पु० [हिं० खोंचा] खोंचा, फटा
तकति तरनिजा तीर । वस्त्र।
अँसुवन करति तरौंस को, उदा० जियत मिलि सियत फागुन-गुन अन्तर
___ खन खोरौंहों नीर ॥ खोपनि । -घनानन्द
—बिहारी खौरई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खोर, दोष] नटखटपन, |
ख्योर-संज्ञा, पु० [सं० खोल=आवरण] मोटा बदमाशी ।
चादर, आवरण । उदा० मचिहैं जब फाग कहा करिहीं अबही करी | उदा० ख्यौर कासमौरी चारु चम्पई बसन पर कान्हर खौरई सी।
-घनानन्द
वारो तनमन तेरी चाल मतवाली पै । खौरना--क्रि० सं० [हिं० खीर-नटखट] १. बद
-लछिराम माशी करना, नटखटपन दिखाना, २. छेड़ना, परेशान करना ।
गंगाजल--संज्ञा, पु० [सं०] एक प्रकार का सफेद
चमकीला रेशमी वस्त्र । उदा० गंगाजल की पाग सिर, सोहत श्रीरघुनाथ ।
सिवसिर गंगाजल किधौं चन्द्र चन्द्रिका साथ ।
--केशव गंज--संज्ञा, पु० [फा०] १. ढेर समूह, २.
नाश (सं०) । उदा० गब्बिन को गंजन गुसैल गुरु लोगन को, गंजन को गंज गोल गु बज गजब को।
--पद्माकर गंधबन्धु--संज्ञा, पु० [सं०] ग्राम का वृक्ष । उदा० न होम धूम देखिये । न गन्धबन्धु पेखिये ।
--केशव गंधरबगाम--संज्ञा, पु० [सं० गंधर्व नगर] रात में पथिकों को दिखाई पड़ने मीर गायब हो जाने ।
वाला ग्राम चिन्ह । २. मिथ्या ज्ञान भ्रम । उदा० तुरतहि गयो बिलाइ के, हुत्यौ परम अभिराम । नाह रावरे नेह यह,भए गंधरब गाम।
--मतिराम आज ली तो जियो बसि गंधरव गाउँ, खाइ भूत की मिठाई मृगतिसना को पानी पी ।
--देव गंधसार-संशा, पु०सं०] चन्दन, सन्दल । उदा० सेनापति जीवन अधार बिन घनसार, गंधसार हार बिरहानल की छवि हैं।
--सेनापति अमल अटारी चित्रसारी वारी रावटी में, बारह दुबारी में किवारी गंधसार की।
--श्रीपति
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गंसी
गजब
गंसी--संज्ञा, स्त्री० [हिं० गंस, सं० ग्रंथि] तीर गऊधूर-संज्ञा, स्त्री [सं० गोधूलि] गोधूली की या हथियार की नोक ।
1 बेला, सन्ध्या समय । उदा० ताहि सुनत गोपन के उर में लगी प्रीति उदा० आवैगे जरुर सूर दूर भये गऊधूर, आये की गंसी। -बकसी हंसराज
सूर पूर, माल बिना गुन जाप तें । गिदु - संज्ञा, स्त्री० [प्रा० गेंदुआ] १. कन्दुक,
-ग्वाल गेंद । २. तकिया [सं० गंडुक]
गच.-.-संज्ञा, पु० [अनु॰] फर्श, चूने सुरखी से उदा० १. ग्वाल कवि गिंदक गविंद ने दिखाई तहाँ । बनी जमीन । गोरी के रुमंच यों उठेरी प्रेम पासे के ।
उदा० चौकि चली बिचली गच पै लचकी करिहाँ -- ग्वाल - कुचभार छलासी ।।
--वेनी २. गोल गुल गादी गुल गिलमै गुलाब गुल,
गचकी--वि० [हिं० गचना-कसकर भरना] कसी गजक गुलाबी गुल गिदुक गुले गुलाब ।।
हुई, चुभी हुई। ---पदमाकर
उदा० लहलही लहरै लुनाई की उदित अंग. गुज निकेतन --संज्ञा, पु० [सं० गुज+निकेतन]
उचके कुचन कैसी कुचकी है गचकी ।
___-हजारा से भ्रमर, भौंरे।
गचना-क्रि० सं० [अनु० गच] किसी वस्तु को उदा० अति मंजुल बंजुल कंज विराजै । बहु गुज
कस कर भरना । निकेतन पुजनि साजै ।
- केशव
उदा० भनै दयानिधि पिय रहे गुन गचिकै । गडदार--संज्ञा, पु० [?] हाथी को सोंटे से मार
- दयानिधि मार कर ले जाने वाला, महावत ।।
गच्छा--क्रि० अ० [सं० गच्छ] चले जाना, नष्ट उदा० चली अली नवलाहि लै, पिय पै साजि
होना । सिंगार, ज्यी मतंग अंडैदार को, लिए जात
उदा० सोमनाथ सुकवि निकाई निरखत जाकी, गंडदार ।
- मतिराम
सुरनर किंनरनिहू को भद गच्छा है । ऐंडदार बड़े गड़ेदारन के हाके सुनि ।
---सोमनाथ अड़ ठौर ठौर महा रोस रस अकसै ।
गजक-संज्ञा, पु० [फा० कजक] शराब पीने के --भूषण
पश्चात् मुंह के स्वाद को बदलने के लिए खाई गूदना-क्रि० अ० [हिं० गोदना] १. धसना, जाने वाली चटपटी वस्तु । "२. चुभना, प्रविष्ट होना ३. पीसना, दाबना । उदा० कहे पदमाकर त्यों गजक गिजा हैं सजी उदा० १. खेलत गुपाल इत लीने ग्वाल बाल बनै
सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं अरु प्याला हैं। पै..... चोर पालक बिसाल बनू गदि कै।
-पद्माकर -देव गजगाह-संज्ञा, पु० [सं० गजन+ग्राह] हाथी
की भूल । २. विद्रम से अधरान धरे, मुख दाडिम
उदा० कलँगी सड़क सेत गजगाहैं। यालनि - बीज से दंतन गदै ।
-देव जटित मंजु मुकता है।
-चन्द्रशेखर गूदनि--संज्ञा, स्त्री० [हिं० गूंथना] गुत्थी,
गजनी-संज्ञा, स्त्री० [?] पैर में पहनने का एक गांठ।
आभूषण । उदा० घूघट के घटकी नटिकी सुछुटी लटकी
उदा० यों सजनी सजनी सजि के रजनी बजनी लटकी गुन गुदनि ।
-देव गजनी पहिरै ना।
-नन्दराम गँड्डुआ-संज्ञा, पु० [बु.] तकिया ।
गजब-संज्ञा, पु० [अ० गजब]१. अन्याय, जुल्म उदा० चंपक दल दुति के गेंडुए। मनहु रूपके २. आपत्ति, आफत ३. अत्यन्त [वि.] रूपक उए ।
-केशवदास
मुहा० गजब गुजारना, जुल्म करना, अन्याय गई करना-क्रि० अ० [हिं० मुहा०] टालजाना,
करना । भूल जाना।
उदा० पास सों आरत सम्हारत न सीस पट गजब उदा० देत कहा है दहे पर दाहु गई करि जाहु दई
गुजारत गरीबन की धार पर। के निहौरै। -दास
-पद्माकर
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-वाल
गजबेलि ( ५६ )
गदनाद ऐरै मेरे पाप जिय जारि लै कछ्रक ।
मद ही के प्राब गड़काब होत गिरि है । दिन गजब गुजारि ले चलाक चोपि चारा मैं
-भूषण ___ --नन्दराम गड़ारे---वि० [हिं० गड़ारी] मंडलाकार गोला, ३. बेदरद बेपरद गजब गुनाहिन के ।
- घेरा, वृत्त । गंगा को गरद कीन्हे गरद गुनाह सब पदमा- उदा० 'दास' रसीली की ठोढी छबीली की लीली कर ।
के बिंदु पै जाइये वारे । मित्त की डीठि गजबेलि-संज्ञा, स्त्री० [सं०] एक प्रकार का
गड़ी किधौं चित्त को चोर गिर्यो छबिताल लोहा जो फौलाद से कुछ मुलायम होता है ।
गड़ारे।
-दास उदा० पाउँ पेलि पोलाद सकेलि रसकेलि किधीं गण-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवता, २. शिव के नाग बेलि रसकेलि बस गजबेलि सी।
पारिषद, ३. दूत; सेवक । -देव
उदा० सेनापति बुधजन मंगल गुरु गण धर्मराज गजा-संज्ञा, पु० [फा०] नगाड़ा बजाने का
मन बुद्धि घनी।
-केशव
गतकारी-वि० [अनु० गद+कारी (प्रत्य)] उदा० सुर दु'दुभि सीस गजा, सर राम को रावन । मुलायम, कोमल । के सिर साथहि लाग्यो ।
-केशव उदा० गुरु नितम्ब उंगरी गतकारी पिंडरी गुल्फ गजाधिप-संज्ञा, पू० [सं०] ऐरावत, इन्द्र का
सुढारु ।
-बोधा एक हाथी जिसका रंग श्वेत माना गया है। गती वि० [देश॰] १. अधिक, अतिशय, २. उदा० ग्वाल कवि कहति गिरासी, गुनसत्व सी है, ठीक। - गंगा सी, गजाधिप सी, ज्ञान सी गहारीये । उदा० बाग गुन गती कौ, सुदाग रिपु रती की है,
भाग छत्रपती की, सुहाग बसुमती की। गजाना--क्रि० सं० [हिं० गाँजना, फा०, गंज]
-सोमनाथ इकट्ठा करना, संचित करना ।
गत्थ-संज्ञा, पु० [सं० ग्रंथ] १. समूह, झुड २. उदा० अवनि प्रकास भूरि कागद गजाइ लै, कलम . पूजी । कुस मेरु सिर बैठक बनावही ।
उदा० दंड तें प्रचंड होत नहँ खण्ड खण्ड घोर -दास
कसत कोदण्ड जोर दोर दण्ड गत्थ के। गज्जर--संज्ञा, पु० [हिं० गजर] सबेरे बजने
-चन्द्रशेखर वाला घंटा ।
गथी-वि० [सं० संग्रथन] संग्रथित, जुड़ी हुई, उदा० जौ लौ हिय बाल को लगायबो चहत ती परस्पर गुथी हुई। लौ गजब गँवार गैर गज्जर बजायो हाय । उदा० कहें अति तरजति गरजति मन्द कहें कहै
-लालजी
रघुनाथ कहूँ मधुरता गथी की। गटकीली-वि० [हिं० गटक] दबाने वाली, हड़प
-रघुनाथ लेने वाली।
गद-संज्ञा, पु० [सं०] रोग, रुज । उदा० चटकीली पटकीली गटकीली बतियन, हट- उदा० गोपी गोप धेनु कन, पायन की रेनु कन, कीली होरी कत पारति विपति है।
ओषधि विषम, जम त्रास, महागद को। –बेनी प्रवीन
-देव गटी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० गाँठ] १. गाँठ, ग्रंथि गदकारी-वि० [देश॰] मांसल, मुलायम पौर २. समूह ।
दब जाने वाला। उदा० पीत पहिराय पट बाँधि सिर सों पटी उदा० गोरी गदकारी पर हँसतं कपोलन गाड़। बोरि अनुराग अरु जोरि बहुधा गटी ।
-बिहारी -केशव गवना-क्रि० सं० [सं० गदन] कहना । गड़काव-वि० [फा० ग़र्क+पाब] : पानी में उदा० मदै उनमाद, गदै गदनाद, बदै रसबाद ददै डूबा हुआ।
मुख मंचल ।
-देव उदा० जिनकी गरज सुने दिग्गज बे-ाब होत, ! गवनाद-संज्ञा, पु० [सं० गद्गद+बाद] गद्गद्
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गदरताई
की आवाज, प्रसन्नता का शब्द | उदा० मदै उनमाद, गर्दै गदनाद, ददै मुख अंचल ।
बर्द रसबाद,
— देव १. बगा
-
गदरताई -संज्ञा, स्त्री० [अ० गदर ] वत पन, बलवा होना । उपद्रव होना । २. फल श्रादि का पकने की स्थिति में होना । उदा० चोरी एक चित की फलन में गदरताई, डांक रही कारन ख़बर दरबार के । - बेनी प्रवीन गवराना- क्रि० प्र० [अनु० गद], पक्वोन्मुखः पकने के करीब, यौवन में अंगों का उभरना । उदा० गदराने तन गोरठी ऐपन आड़ लिलार । - बिहारी रोगों का बर ।
गदशत्रु ]
गदशत्र ु -
-संज्ञा, पु० [सं० शत्रु, वैद्य । उदा० गदसत्रु त्रिदोष ज्यों दूरि करें त्रिसिरा सिर त्यों रघुनन्दन के सर ।
गनीम- संज्ञा, पु० [अ० गनीम ] उदा० कहें पद्माकर त्यों दुदुभि अकबक बोल यों गनीम श्री
--
-
गनी - वि० [अ० गनी] धनवान्, अमीर । उदा० कौन मुख लैक तोहि ऊधव पठायौ इहाँ कैसी कही वाने हाय लंक लौं गनी बने । ग्वाल
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(
गम के नसीब तें गनी है जैसे राज पाये, श्रासक गरीब को गुमान मनी माल क्या ।
- आलम
-
- केशव
क्रि० सं० [हिं० गपकना ] खाना,
शत्रु, दुश्मन । धुकार सुनें, गुनाही है ।
- पद्माकर गपक
-
६०
गपना जाना ।
उदा० कीनो कोप कराकरि होत तहाँ सरासरि, भराभरि बोती जहाँ पहिले गपन की ।
गंग
गबदुवा - संज्ञा, पु० [बुं] बालक । उदा० चारो दिसि ते धाय गबदुवन छेकि लई -बसी हंसराज गब्जना -क्रि० सं० [?] घुसेड़ना ।
ब्रज बाला ।
――
—पद्माकर
उदा० गहि गहि पिसकब्जे मरमनि गब्जै तकि तकि नब्जे काटत हैं । गब्बियान - वि० [सं० गर्व ] घमंडी, गर्वले | उाद० प्रदब्ब गब्बियान के सरब्ब गब्ब को हरे ।
- पद्माकर
>
गयन -- संज्ञा, पु० [सं० गगन] आकाश । उदा० जहँ स्तनसेन रण कहँ चलिब हल्लिव महि कंप्यो गयन । - केशवदास
गयारी- -संज्ञा, स्त्री० [अ० गियार] १. धर्म चिह्न जो हर समय पास रहे, यथा जनेऊ यादि । २. सलीब या यहूदियों का पीला वस्त्र जिसे वे लोग कन्धे के पास कपड़ा में सिला रखते हैं । उदा० न्यारी करौ सारी के गयारी सी प्रवीन बेनी, बचन न देहों तन बसन में गोपरी । - बेनी प्रवीन गरई - वि० [सं० गुरु ] १. भारी २. धृष्ट,
बदमाश ।
-
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१. समधी समधी मिलनि, गोप गरई सभा, प्रभा प्रानन्द कछु और आजै । नागरी दास उदा० २. ज्यों उनको तू बकावत मोंहि सों आई बकावन ह्र' गरई । -केशव गरज — संज्ञा, पु० [सं० गर्व] घमंड, गर्व, अभि
मान ।
उदा० निरखि सौति जन हृदयनि रहे गरउ को ढंगना ।
-दास
गरगना
-संज्ञा, पु० [?] कीड़े । उदा० भरत सीस तैं राधि रुधिर डोलत । छुधा छीन प्रति दीन कलोलत
-
गरबत
कृमि डारत गरगना कंठ व्रजनिधि
१. समूह, भुंड
गरट- -संज्ञा, पु० [सं० ग्रथ ] २. गरिष्ट भारी । उदा० जानिये न कौन हेतु मोहन सखा सों कहयो तुम सब रहो जाय गोधन गरट में ।
—रघुनाथ
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२. हैबर हरट्ट साजि गैबर गरट्ट सबै पैद के ठट्ट फौज जुरी तुरकाने की । भूषण गरद- -संज्ञा, पु० [ ? ] एक प्रकार का रेशमी
कपड़ा ।
--
उदा० सेमर फूल तूल के रये । गरद गात मखमल मढ़ि लए । - केशव गरपरा - संज्ञा, पु० सेवक ।
[देश० ] दास, नौकर,
उदा • हों तो सदा गरपरा तेरो परा भरो दधि पाऊँ —बक्सी हंसराज -संज्ञा, पु० [सं० गर्व ] गर्व, अहंकार । उदा० सील के सुभाइनि सो महा सुखदायनि सो कहूँ काहू कबहूँ करत गरबत की ।
गरबत
-
देव
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गरावनि
गलीत गरावनि-संज्ञा, पू० [हिं० गला-पावनि । गलगली-वि० [सं० गलन] गीला, अश्रपूर्ण । (प्रत्य॰) गले में पड़ने वाला फंदा, गला फंसाने उदा० ललन चलन सुनि चुप रही बोली पापु न वाला बंधन ।
ईठि । राख्यो गहि गाढ़ गरे मनो गलगली उदा० चोर हो हमारो प्रेम चौतरा मैं हारयौ
डीठि ।
.. बिहारी गरावनि तें निकसि भाज्यौ है करि लजौहों गलगुज-संज्ञा, पु० [हिं० गाल+गाजना] सो।
-रसखानि कोलाहल, शोर गुल । गरव-वि० [सं० गर] तीक्ष्ण, तीता, तेज। उदा० तनु तिन कुजनि मैं दुग मग पुजनि मैं, उदा० सोंठ लगी गरवै तबहीं भरि नैनन में
मनु गलगु जनि मैं प्रान प्राननाथ मैं । सुवा मुख मौरै। एरी लखो एहि रूप
.... बेनीप्रवीन सुहावन नारिन को मन को यह चोरै। गलसुई-संज्ञा, स्त्री० [बु.] गाल के नीचे रखने
-रसलीन की तकिया। गरवाना क्रि० अ० [सं० गर्व] गर्वित होना, कुसुम गुलाबन की गलसुई। बरणि न जाँय घमंड़ी होना ।
न नैनन छुई ।
-केशवदास उदा० पियहि अनन्द बढ़ाइ तिय चली मंद गरु
भरि रहयो श्वेत कर तूलतूल । वाइ ।
-रसलीन
गोलसोई रूप विधु भयो कूल ॥ गरेनी-वि० [हिं० गलना] गलाने वाली, नष्ट
-गुमान मिश्र करने वाली ।
गलीमन संज्ञा, पु० [फा० गलिम] तीव्रकाम, उदा० चैनी जमराज की अचैनी जी जरेनी जोर. तीव्र काम वासना । बोर देनी कागद गुपित्र के गरेनी है।
उदा. गंज गलीमन के गिलमैं गुलदार गलीचन
की छवि छावत । चारु चिराकन को
-ग्वाल गरेरना-क्रि० सं० [हिं० घेरना] घेरना, छेकना
अवली करि चरिउ द्वार केवार लगावत । उदा० जोरे दृग सो दृग निहोरे मृगनैनी नेक औरे
... चन्द्रशेखर करी गजरी गँवारिनि गरेरिक।
गल्म-संज्ञा, स्त्री० [पंजा०] बात । -देव
उदा० क्या झल्ल टुक गल्ल सृनि भल्लर भल्लर भाइ ।
-दास गरेरी-वि० [हिं० घेरना] घिरी हुई।
गवड़ी - संज्ञा, स्त्री०[सं०गौरी] गौरी, गौरांगी, उदा० बोले ते न बोलै अंग नेकह न डोल ग्रौ न ।
गौरवर्ण की नायिका । . खोल नाहि नैन मैन गजब गरेरी है।
उदा० बोधा बखानत माधवा यों तरुनी घरनी
---नन्दराम गरेठी-वि० [सं० गरिष्ट] टेढ़ी, वक्र ।
गवड़ी सुखदैनी। उदा० सूधे न चाहै कहूँ घनानन्द सोहै सुजान
गलबल-संज्ञा, पु० [अनु०, हिं०] कोलाहल, शोर।
कलबल गुमान गरठी।
-घनानन्द
उदा० कंकन उभेर मुठभ-रहू के गलबल, वाजिद गारना - क्रि० अ० [?] चक्कर काटना ।
को दल सनमुख पल द्व' रह्यो। उदा० राचे महावर पायनि त्यौं तकि चायनि आय गर्यारेई डोल।
-केशव --घनानन्द
गलारना-क्रि ० अ० [हिं० गिलारना] कूजना, गलका-संज्ञा, पु० [हिं० गलना] १. एक प्रकार
गाना । का फोड़ा जो प्रायः हाथ की उँगलियों में होता | उदा० पाये न नन्दकिशोर सखी। अब मोर है। २. एक प्रकार का कोड़ा, चाबुक ।
मलार गलारन लागे। उदा० २. बड़ी बहुमोल गलगली गिलमै बिछी
-'रसिक रसाल' से गड़ति गुलफनि लगे पाइ गलक। -देव | गलीत-वि० [अ० गलीज] दुर्दशग्रस्त, मैला गलगज्ज-संज्ञा, पु० [हिं० गाल + गाजना]
१. आनन्द, हर्ष, विनोद, २. कोलाहल, शोर । | उदा० मीत न नीति गलीतु ह्र जौ धरिय धनु उदा० रुहिरय रुहिर अपार पाइ भैरव गलगज्जिय
जोरि । खायें खर, जौ जुरै, तौ जौरिय -मुरलीधर करोरि।
-बिहारी
-बोधा
कुचला।
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-देव
गलीम
गहरना गलीम-संज्ञा, पु० [अ० गनीम] शत्रु, बैरी,
गहयो काजर चखन चटकायो है। दुश्मन । उदा० दिग-बिजय काज महूम की। अरि देस- गहगहाना--क्रि० अ० [हिं० गहगहा] सोल्लास
देसन धूम की। गूजर गलीम लगाइक सु - फूलना, विकसित होना । बुन्देलखंडहि प्राइकै ।
- पद्माकर उदा० महमही मंद मंद मारूत मिलन तैसी, गहगलेले-संज्ञा, पु० [अनु॰] क्रीड़ा, किलकारी,
गही खिलनि गुलाब की कलीन की । हर्ष की ध्वनि ।
-रसखानि मु० गलेले देना, किलकारी मारना, क्रीड़ा
गहन-संज्ञा, पु० [देश॰] उच्च स्वर । करना, हर्षोल्लास प्रकट करना ।
उदा० गहन गहन लागे गावन मयूर माला । उदा० लोह के अलेल मैं गलेल देतं भूत भिर,
झहन झहन लागे रोम रोम छन में । रु डन कों प्रेत औ पिसाच सहचारी है।
-श्रीपति -चन्द्र शेखर गहब-वि० [सं० गह्व?] १. मोटा, सघन, २. लोहू के अलेले गंग गिरजा गलेले देत ।
भरा हुमा ३ प्रफुल्लित । चोथ चोथ खात गीध चर्ब मुख चोपरी ॥
उदा० १. बिछे गहब गलीचा अरु गुलगुली गिलमैं । -गंग
-पद्माकर गलौ-संज्ञा, पु० [सं० ग्लौ] चन्द्रमा, शशि ।। २. गोल गोल गहब गरूर गुन गेंदा एक मँजुल उदा० गंगा गाइ गोमती गलौ ग्रहपति अरु सूर
मुकुर कोमलाई कंज केरे हैं। -पजनेस गिर ।
-सूदन ३. गुल पर गालिब कमल है कमलन पै सु गवेले- [हिं० गँवार, सं० ग्रामीण] ग्रामीरण,
गुलाब, गालिब गहब गुलाब पै मो गाँव के रहने वाले लोग।
मुरभि सुभाव ।
-पद्माकर उदा० नीचे खरे सुनत प्रवीन लोग बीन जानि
दस गुनी दीपति सों गहब गछे गुलाब । कहत गबेले इहाँ कोकिल बसति है।
-द्विजदेव --कालिदास
पहभर-वि० [सं० गद्गद्] आवेग, अवरोध, गस-संज्ञा, स्त्री० [हिं० गाँस] गाँस, गाँठ।
रुकावट, रुधना ।। उदा० अरु जी निलजे ह मिलै तौ मिलौं, मन
उदा० गहभरे कंठनि आप । ब्रज-सुन्दरी भरि तें गस-गूज न खोलिय री।
ताप ।
-सोमनाथ --घनानन्द
गहमह-संज्ञा, स्त्री० [हिं० गहगह] चहल-पहल गसना--क्रि० अ० [सं० ग्रसन] फँसना ।
रौनक, धूम । उदा० बिधु कैसी कला बधू गैलन में गसी ठाढ़ो उदा० गो रंभन गहमह खरिक, साँझ दुहारी गोपाल जहां जुरिगो।
- पजनेस
बेर । गसीले-वि० [हिं० गाँस] गाँस भरे हुए, कपटी,
पलकनि पौंछत रज तहाँ प्रिया पीय मुख छली।
-नागरीदास उदा० कहाँ लौं तिहारे गुन गुनियै गसीले स्याम,
गहर-संज्ञा, पु० [सं० गह्वर] प्रबल, शक्तिसुखिया सुतंतरही अन्तर पिराय कै।
शाली। -घनानन्द
नदा० गीषम गहर गनीम को, गारब गरब गहकना-क्रि० प्र० [सं० गद्गद्] ललकना,
भुकारि ।
-चन्द्रशेखर उमंग से भरना, लपकना ।
गहरत-क्रि० वि० [हिं॰ गहर] मंद-मंद ।। उदा० माच्यो घमासान तहां तोप तीर बान चले, ] उदा० 'सेवक' त्यों गहरत पावै ज्यों-ज्यों बांसूरी मंडि बलवान किरवान कोपिं गहकी गंग
सों कहरत पावै मन मेरो मानि दूर को । गहकि, गाँसु और गहे रहे अधकहे बैन ।
-सेवक -बिहारी | गहरना-क्रि० प्र० [सं० गह्वर] १. उलझना, गहगहा-वि० [सं० गम्भीर] गाढ़ा, गहरा ।
टकराना, फँसना २. झगड़ना ३. बिलम्ब उदा० लहलहयौ योबन हँसत डहडहयो मुख गह-J करना । - [हिं० गहर=देर]
हेर ।
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गहीली
उदा० १. लागि पिय हिय सों सुहाग सनमान भरी पागि तन मन अनुराग में गहरि गई ।
- सोमनाथ ककुभि कुभि संकुलहि गरि हिमगिरि हिय फट्यो । गंग गहीली-संज्ञा स्त्री० [सं० गर्वीली ] गवली । उदा० गुननि गहीली गति लेति गरबीली अंगअंग दरसावति उलटि पट प्रोट तैं । --चन्द्रशेखर
गहिली गरब न कीजिये समय सुहागहि पाइ । - बिहारी ग्रहेस - संशा, पु० [सं० ग्रह + ईश ] १. सूर्य २. शनि | उदा० १. तीछन ग्रहेस 'देव' द्योस क्यों सहे री रैनि, मधुप मदंध को सुगंध गुन गींजि मारु — देव गाँस --- संज्ञा, स्त्री० [सं० ग्रास] वैर, द्वेष, रोक, पकड़ । अधक है बैन । - बिहारी गाँसी —— संज्ञा, स्त्री० [सं० ग्रास] तीर या बछ आदि का फल, हथियार की नोक । उदा० १. दीन्हीं ऐचि गाँसी पंचबान बखियान में --सोमनाथ गाड़िली -- वि० [सं० गाढ़] १. अत्यधिक, बहुत, ज्यादा २. डुबाना [फा० गर्क ] उदा० अतरनि तर करि चोवन चुपरि देव, उबटि हबाये है गुलाबनि में गाड़िली ।
उदा० गहकि, गाँसु, श्रौरे गहे, रहे
- देव गाढ़ति -संज्ञा स्त्री० [सं० गाढ़ ] संकट, कठिनाई ।
उदा० देवजू दे चुकी कंचन सो तन ले चुकी की गुरु गाढ़ति ।
पंचन - देव भाँति
गाढ़ा - क्रि० वि० [सं० गंभीर ] भली अच्छी तरह, खूब । उदा० लाडली के कर की मेंहदी छबि जात कही नहि शम्भुहज पर भूलिहू जाहि बिलोकत ही गड़ि गाढ़ रहे प्रति ही दृग दू पर
६३ )
गाती- -संज्ञा, स्त्री० [सं० गात्री ] के टुकड़ से सिर बाँधने या विशेष प्रक्रिया | उदा० ग्वालनि के संग नन्दनन्दन राती गुन्जमाल गाती बाँध
- शम्भू
गाढ़े क्रि० वि० [सं० गाढ़] भली भाँति सर्वथा ।
उदा० राख्यौ गहि गाढ़ गरे मनो गलगली डीठि । —बिहारी
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गाला
अंगौछा या वस्त्र लपेटने की एक
कलिंदी तट, पीतपट की । —सोमनाथ गाथना - क्रि० सं० [सं० ग्रंथन] संग्रथन करना, एक में एक जोड़ना, संयोजित करना । उदा० ‘आलम कूल के मूल कुदारि हौं मेटि कुमन्त सुमन्त को गाथी । गावर - वि० [सं० कदर्य, प्रा० कादर ] कायर, डरपोक, अक्षम, असमर्थ, शक्तिहीन ।
-श्रालम
उदा० मेरे दोष देखौ तौ परेखो हैं अलेख एजू, मोन ढोले निधि कैसे बूझियत गादरौ ।
घनानन्द
गाध - वि० [सं०] छोटी, सीमित । उदा० तो गति अगाध सिन्धु, गाध मति मेरी, या असाधुता को, राधे अपराध छिमा करिये । देव गाम - संज्ञा, स्त्री० [?] १. घोड़ े की एक चाल २. ग्राम । उदा० १. चहें गाम चल्लें चहैं तो दुगामा | चहैं ये बिया चाल चल्ले भिरामा । —पद्माकर
गारना- क्रि० सं० [सं० गलित] १. नष्ट करना, गलाना, २. निचोड़ना ।
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उदा० यह प्रासा धरि अपने जिय में तप करि गारो गाता । —बक्सी हंसराज गारब - संज्ञा, पु० [सं० गौरव ] गौरव, मर्यादा, प्रतिष्ठा । उदा० गोषम गहर गनीम को, गारब गरब झुकारि । - चन्द्रशेखर गारि संज्ञा, पु० [सं० गर्त ] गड्ढा, गाड़ । उदा० टारि दै वारी गुलाब को गारि मैं क्यों हठ छार जरे पर पारि दे । - तोप गारौ -संज्ञा, पु० [प्रा० गार, सं० आगार] १. गृह, मकान, घर २. गर्व, घमन्ड | उदा० गोबर को गारी सु तो मोहि
लगे प्यारौ, कहा भयो भौन सोने के जटित मरकत हैं । -- रसखानि गाला - संज्ञा, पु० [हिं० गाल ] धुनी हुई रुई का गोला ।
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गालिब ( ६४ )
गिलन उदा० गाले अति मल भराले तोसकों मैं फेर, गिरवान ... संशा, पु० [फा० गरेबान] गर्दन, ऊपर गलीचे बिछवाले जाल वाले अब । गला, ग्रीव ।
-वाल उदा० तहें इकन की गिरवान गहिं पटके हयन तें गालिब-वि० [अ० गालिब] जीतने वाला,
समर में।
-पद्माकर विजयी, श्रेष्ठ ।
गिरबी--वि० [फा० गिरवी] गिरो रखा हुमा, उदा० गुल पर गालिब कमल है कमलन पैयु रेहन । गुलाब !
--पद्माकर उदा० राजा राइराने उमराइ उनमाने, उनमाने गालिम-वि० [अ० गालिब] बलवान, विजयी ।
निज गुन के गरब गिरबीदे हैं। उदा० गैरिक ग्रस्यो है गजराज गोड़ गोट्यो ग्राह गालिम गंभीर नीर चाहयो सो गिरायो है गिरवान- संज्ञा, पु० [सं० गीर्वाण] गीर्वाण,
-रघुराज देवता। गाल्यो-क्रि० सं० [हिं० गला ] गले में कोई
उदा० कहै कवि गंग यह देखिबे को प्राज काल, पदार्थ जबरदस्ती डालना।
• काबली की मुद्दति गिरीस गिरबान की। उदा० घास चरै पगु आपसों, गुड़ गाल्यो ही खाय
-गंग -'दोहासार संग्रह' से
सीख लीन्हो मेर औ कुबेर गिरानो है। गाह -- संज्ञा, स्त्री [सं० ग्राह] १. घात पकड़ २.
-----ठाकुर गाथा ।
गिरह-संज्ञा, स्त्री० [फा०] कुलाँच, कलैया, उदा० १. कहै पद्माकर त्यों रोगन की राह परी उलटी, कलाबाजी । दाह परी दुख्खन में गाह अति गाज की।
उदा० ऊँचे चितै सराहियत गिरह कबूतर लेत । --पद्माकर
-बिहारी २. युद्ध खन्ड पुनि गाह रुचिर शृंगार बखाने ।
गिरापूर-संज्ञा, पु० [सं० गिरा = सरस्वती+
पूर=जल समूह] सरस्वती का जल समुह । गाहना--क्रि० अ० [सं० अबगाहन] '. घूमना,
उदा० गिरापूर में है पयोदेवता सी। किधौं कंज विचरण करना, थाह लेना, २. बन्धक, गिरवी,
की मंजु सोभा प्रकासी ।
-केशव रेहन । [संज्ञा, पु.]
गुहचरी--वि० [सं० गृहचर] घरेलू, घर में रहने उदा० ब्रज-वन गैल गरयारनि गाहत । लहत
वाली, पालतू ।। फिरत ज्यौं ज्यौं सुख चाहत ।
उदा० गूढ़ गृहचरी चिरी चुरी चहचरी करें,
कुथत कपौंत, भट काम के कटक के। -घनानन्द
-देव २. गति मेरी यही निस बासर है चित तेरी गलीन के गाहने है।
-ठाकुर
गिलगिली- संज्ञा, स्त्री० [देश॰] १. गुदगुदी २. गिनौरी-- संज्ञा, स्त्री० [फा० गुनग= मजदूर]
सिरोही नामक एक चिड़िया ३. घोड़े की एक
जाति । मजदूरनी, नौकरानी।
उदा० १. लाल लगावत अतर तर, राधे तन सुकुउदा० सजि गाजै बजाज अवाज मदंग लौं, बाकिय तान गिनौरी लरै।
मार । चलत गिल गिली कुचन पर, लखत -गंग
झिझक रिझवार । गिरद--संज्ञा, स्त्री० [फा० गिर्द ?] १. तकिया,
- ब्रजनिधि उपधान २. पास-पास ।
गिलना--क्रि० सं० [सं० निगर] निगलना, उदा० १. विपरीति मंडित जघन खम्भ नींव किधों
खाना, लीलजाना २. पकड़ना । लाह की गिरद गोदी मैन महिपाल की। उदा० उगिलत आगि सी गुलाब मुख लागे बिष
-केशव
गोली सी गिलति सिख बेली न सुहाति है । २ गहगहे गिरद गुलाबन के बट्टा बने
-देव किसूख ग्रंगार मुख माँहि परवत हैं। । २. वै छिगुनी पहुँचो गिलत अति दीनता
-ग्वाल दिखाय ।
--बिहारी
--बोधा
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गिलम
गुंदरना गिलम--संज्ञा, पु० [फा० गिलीम मुलायम गद्दा, उदा० ऐपन पिंडी सी मोड़ी पिंडुरी उमड़ि, मेड़ बिछौना।
बेड़न लगावै, पेड़ पाइन गुझकती। (क) उदा० झालरनदार अकि झूमत बितान बिछे
-देव गहब गलीचा अरु गुलगुली गिलमै ।। गुझनोट-संज्ञा, पु० [सं० गुह्य+हिंः प्रोट].
--पद्माकर कंडील, फानूस । (ख) गिलम गलीचन पं अतर सु पुष्पन के, उदा० दीपति देह मनोज कियो गुझनौट को दीप चन्दन कपूर पै फुहार पिचकारी को।
ज्यौं राजत प्राछ ।
--तोष -पजनेस गुझाना-क्रि० सं० [सं० गुह्य] १. लुप्त करना, गिलान-संज्ञा, स्त्री० [फा० गिल] मिट्टी, २. छिपाना २. नष्ट करना । गारा, गिलावा ।
उदा० देव दीनबन्धु दयासिन्धु सिन्धुरादि के । उदा० मीन मुग-खन्जन सिखान भरे मैन-बान.
सहाय ह्व प्रबन्धु की मदन्धता गुझाई है । अधिक गिलान भरे, कंज कल ताल के ।
-देव -ग्वाल
२. मोह महामद के उनमाद मदान्यो नहीं गिल्ला-संज्ञा, पु० [फा० गिला] शिकायत,
मदनागिनि गूझ्यो ।
-देव गिला, बुराई । उदा० मूरख अतिहि रिसाय माधवनल से गुनी
गझोर--संज्ञा, पु० [सं० गुह्य+पावत] शिकन,
कपड़े की सिकुड़न । पर । ढिग आवत उठ जाय फिर पीछू
उदा. गात में गझौर परि अँगिया उमंग उर गिल्ला करै।
-बोधा गीता-संज्ञा, स्त्री० [सं०] वृतान्त, हाल, समा
ताय तनि पोहीपोत पोति है तिफेरी की।
-देव चार । उदा० राम चले सुनि शुद्र की गीता। पंकजयोनि
गुधना--क्रि० अ० [हिं०गोदना] धंसना, घिरना,
चुभना। गये जहें सीता ।
-केशव गीधना क्रि० प्रा० [बु.] परचना, लहटना ।
उदा० जात बनै न तिते कँपै गात, इतै पर नैननि लाज रही गुधि ।
--बेनी प्रवीन उदा० बीधे मो सों पान के, गीधे गीहि तारि ।
गुटौं- संज्ञा, स्त्री० [हिं० गुड़ी] ग्रन्थि, गाँठ ।
- बिहारी गीर-संज्ञा, स्त्री० [सं० गी:०] वाणी, आवाज,
उदा० पंचतत्व प्रगट ते कपट गुटौ सी खुली, ह्र ध्वनि ।
हैं और रंग बर संगिहि लगाइ लै । उदा० कुज तजि गुजत गम्भीर गीर तीर, तीर,
-सोमनाथ रह्यो रँगभौन भरि भौंरन की भीर सों। गुड़ी-संज्ञा, स्त्री [बु.] १. गाँठ, दुराव २.
-देव
पतंग । गीरपति-संज्ञा, पु० [सं० गी०=वाणो+ | उदा० १. हिलमिल हहिं करत चतुराई दिल की पति]
गुड़ी न खोलौ।। -बक्सी हंसराज १. विद्वान्, गीति, वृहस्पति ।
२. गुड़ी उड़ी लखि लाल की अंगना अँगना उदा० कवि सेनापति कुसल कलानिधि गुनी गीर
माह ।
-बिहारी पति ।
-केशव
गुढ़ना--क्रि० अ० [सं० गुह्या छिपना, लूकना । गुजरान-संज्ञा, स्त्री० [फा० गुजरान] १. गुजर
उदा० बरुनी बन दुग गढ़नि में रही गूढी करि २. प्रवेश, पहुँच, आगमन ।
लाज ।
--बिहारी उदा० १. बोधा कवि धन गुण रूप की कहाँ लौ गढ़ाना--क्रि. सं० [सं० गुढ़] १. छिपाना, . कहीं दान औ पुरान गुजरान द्योस रैन की।। दुराना २. क्रि० प्र० गुढ़ना छिपना ।
-बोधा उदा० १. मृदु मुसकाइ गुढ़ाइ भुज घन चूंघट उल २. सो कजरा गुजरान जहाँ कनि बोधा
झारि ।
-पदमाकर जहाँ उजरान तहाँ को ।
-बोधा
२. बरुनी बन दृग गढ़नि में रही गुढ़ौ करि गुझकना-क्रि० प्र० [सं० गुह्य] छिपना, दुरना
लाज ।
-बिहारी आड़ में होना।
गुवरमा-क्रि० सं० [फा० गुजर+हिं० ना
गुनी गीत गुदा बरुनी
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गुदरैन
(
(प्रत्य)] प्रार्थना करना, दैन्य प्रदर्शित करना, चाटुकारिता करना ।
उदा० मीत न है जान तू, यह खोजा दरबार जो निसि दिन गुदरत रहै, ताही को पैठार
- दास
गुदरेन - संज्ञा, स्त्री० [हिं० गुदरना] परीक्षा, जांच । उदा०सारो शुक सुभ मराल, केकी कोकिल रसाल बोलत कल पारावत भूरि भेद गुनिये । मनहु मदन पंडित रिषि शिष्य गुरणन मंडित करि अपनी गुदरैन देन पठ्यँ प्रभु सुनिये । गुदी - संज्ञा, पु० [हिं० गुद्दी ] सिर का पिछला
भाग ।
उदा० लांबी गुदी लमकाइ के काइ लियो हरि लीलि, गरो गहि पीर्यो ।
--देव
गुन -- संज्ञा, पु० [सं० गुरपनिका ] . माला, हार २. सूत, डोरा ।
उदा० १. प्रालिन प्रोट करें नियरे ह्व, हरे हँसि रामगरे गुन डायो । - देव गुनगोरि-संज्ञा, स्त्री० [सं० गुणगौरि] पतिव्रता स्त्री, २. स्त्रियों का एक व्रत । उदा० गुनगोरि कियो गुरुमान, सु मैनु लला के हिये लहराइ उठ्यो । —देव
गुनी - संज्ञा, पु० [सं० गुणी] १. झाँड़ फूंक करने वाला ओझा, जादूगर, इन्द्रजाली । उदा० चाम के दाम गुनीन के आम यों विस्वा को प्रीति पलीत को मेवा । - बोधा गुनौती - वि० [सं० गुरणन + प्रती (प्रत्य० ) ] गुणवती, गुण की राशि | उदा० धरि सगुनौती तू गुनौती है री ब्रज बीच राखों के मनीती ऐसो कब दिन पाइहौ । - रघुनाथ गुपचुप - संज्ञा, पु० [देश० ! प्रकार की मिठाई २. चुपचाप, छिपकर [ क्रि० वि० सं० गुप्त + हिं॰ चुप ] उदा० कहि कवि तोष गुपचुप श्रब लोज चलि अब पेरो जिनि मोती दहि बरन बताई है । - तोष गँवार,
एक
६६ )
गुराब
बाजा ।
गुमक संज्ञा, पु० [?] एक प्रकार का वाद्य, उदा० ढोलकी गुमक वीरगा बाँसुरी सितार बार कंदला तिया की ऐसी प्रति मृदु बानी है । -- बोधा गुमर - संज्ञा, पु० [फा० गुमान ] घमन्ड, गर्व, कानाफूसी |
उदा० मेरे नैन अंजन तिहारे अधरन पर शोभा देखि, गुमर बढ़ायो सब सखियाँ |
- हरिजन
गुर-संज्ञा, पु० [फा० गुल] गुल, फूल । केशव
उदा० केसव सरिता सरनि कूल फूल सुगन्ध गुर । -केशव गरकना -- क्रि० प्र० [फा० ग] डूबना, तन्मय हनो ।
उदा० गरकि गरकि प्रेम पारी परजंक पर धरकि धरकि हिय होल सो भमरि जात ।
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गुवारे वि० [हिं० गोबर + हार] मैले कुचैले । उदा० सँग मजूर फिर गुबऱ्यारे ए 'खैबे को सूर बड़े, सटकइया । - नागरीदास |
--ग्वाल
गुरझनि--संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्य ] ग्रन्थि, गाँठ | उदा० जहाँ प्रान प्यारी-रूप-गुन को न दीप लहै, तहाँ मेरे ज्यौ पर विषाद गुरभनि है ।
—घनानन्द
गुरदा -- संज्ञा, स्त्री० [सं० गोर्द ] एक प्रकार की छोटी तोप ।
उदा० गज्जत गज दुरदा सहित गुरदा देखि परे । गुरनि-संज्ञा, पु० [हिं० गुलेल ] कमान जिससे मिट्टी या कंकड़ चलाई जाती हैं । २. गुरण । उदा० १. मारे हैं गुरनि उन्हें लाजी ना लगति कुर, कूबरी के के होन चाहत हमारे हैं । - हफीजुल्ला खाँ के हजारा से गुरा – संज्ञा, पु० [हिं० गुल्ला] मिट्टी की बनी हुई गोली जो गुलेल से चलाया जाता है । मिट्टी का ढेला ।
उदा० लगन वहै थल एक लगि दुजे ठौर बढ़न, कीच बीच जैसे गुरा खचकै फिरि उचटैन । बोधा गुराब - संज्ञा, पु० [देश०] तोप लादने वाली गाड़ी ।
उदा० तिमि घरनाल और करनाल सुतरवाल जंजालें । गुर गुराब रहँकले भले तह लागे बिपुल बयाले । - रघुराज
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बगुरदा गालिब पद्माकर
१. गुलेल, वह की गोलियाँ
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गुलचाना
गैनी
गुलचाना- क्रि० सं० [हिं० गुलचा=गाल] धीरे पहनने का एक भूषरग, २. ग्वाला जाति की से प्रेम पूर्वक गाल पर मारना ।
स्त्री, ग्वालिन । उदा० १. जोरि अंग अंग सों लचाइ गुलचाइ उदा० १. रचित महावर सों कंज से चरन मंजु,
भाल, दीनी लाल बंदी बोरि खैचि कै गूजरीमति अजौं काननि जगी रहै। अबीर की। _ -देव
---देव गुलदार-वि० [फा० गुल ।-दार (प्रत्य)] फूल- २. गूजरी ऊजरे जोबन को कछु मोल कही दधि दार, वेलबूटे वाला।
को तब देहीं।
--देव उदा० गंज गलीमन के गिलमैं गुलदार गलीचन | गढ़गेह- संज्ञा; पु० [सं० गूढ़+ हिं० गेह] गुप्त की छवि छावत ।
- चन्द्रशेखर
स्थान । यज्ञगृह, यज्ञशाला । गुल -संज्ञा, पु० [देश॰] एक प्रकार का मिष्ठान्
उदा० प्रौढ़ रूढ़ि को समूढ़ गढ़ गेह में गयो । न, गुलकंद
शुक्र मंत्र शोधि शोधि होम को जहीं भयो। उदा० तकते सब सेब सुमुकुता को गुलसंकरिया
--केशव -- चतुराई की।
-- बोधा गेरगेर---अव्य० [हिं० गैल] चारों तरफ । गुलिक - संज्ञा, स्त्री० [हिं० गुरिया] गोला उदा० राधे राधे टेर टेर पीरो पट फेर फेर । रत्न ।
हेर हेर हरि डोले गेर गेर बन में। उदा० भेद न विचारयो गुजमाल औ गुलीक मालै
" ठाकूर नीली एकेपटी अरु मीली एकलाई में । गेरना-क्रि० सं० [अ०] १. गिराना, डालना.
-दास २. रोकना, घेरना, छेकना । गुलुक-संज्ञा, पु० [सं० गुल्फ] ऍड़ी के ऊपर की उदा० १. गोरी गुलाब के फूलन को गजरा लै गोठ ।
गुपाल की गैल में गेरो।। उदा० कीरति दुलारी सुकुमारी प्रान प्यारी भारी
-पद्माकर जैसे लसै सुन्दर गुलुफ पग तेरे हैं ।
२. तुम हौ लाल ग्वाल ब्रज केरे गेरत वहतक -पजनेस गायें ।
-बक्सी हंसराज गलेला-संज्ञा, पु० [फा० गुलूला] मिट्टी का
| गेह साखी-संज्ञा, पु० [सं० गृह शाखी] छोटा सा गोला जो गुलेल में फेंका जाता है। गृह का पेड़, गृहपति)। उदा० सोहत गुलेला से बलूला सुरसरि जू के, उदा० रानी बन लता गेह सारवी सों भिरति है। लोल हैं कलोल ते गिलोल से लसत हैं।
-दूलह -सेनापति | गन - संज्ञा, स्त्री० [सं० गमन] १. गमन, चाल, गुवार संज्ञा, पु० [अ० गुबार] १. धूल, गर्द, । गति, २. गैल, मार्ग, ३. दिन, ४. गगन । २. मन में दबाया हुआ क्रोध ।
उदा० १. माथै किरीट, छरी कर लाल है, सालस उदा० १. जैसे मँझधार नाव अॉधी कौ गवार
पायौ गयन्द की गैननि । पाएँ, बार प्राय सकत न पार जाय सके
-कुमारमणि -ग्वाल
सोभा सुख दैनी पॉव धारि गजगैनी। गुसुलखाना - संज्ञा, पु० [फा०] १. वह स्थान इत देखि मृगनैनी मीत लाय उर राखियो । जहाँ बादशाह का खास दरबार लगता है। २.
- कुलपति मिश्र स्नानागार ।
२. ऐसे रिझवार को गिराइ गई गैन ही। उदा. अरे तें गुसुलखाने बीच ऐसे उमराय लै
- पालम चले मनाय महाराज सिवराज को।
३. तारायनि ससि रैन प्रति, सूर होंहि ससि
- भूषण गैन । तदपि अँधेरो है सखी। पीऊ न देखै गूज संज्ञा, स्त्री० [देश॰] लपेट ।
गैन ।
-रहीम उदा० अरु जौ निलजे ह्व मिलैं तो मिलौ मन तें गैनी संज्ञा, स्त्री० [सं० गमन] मार्ग, रास्ता।
गस-गूज न खोलियरी। - -घनानन्द उदा० गोपिन के दुग तारनि की यह रासि किंधौं गूजरी संज्ञा, स्त्री० [सं० गुजरी] १. पॉव में
हरि हेरनि गैनी ।
--घनानन्द
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गैबर
गोसा गैबर-संज्ञा, पु० [सं० गजबर] श्रेष्ठ हाथी। जिसमें बैलों की पीठ पर सामान लादते हैं । उदा० नदी-नद मद गैबरन के रलत हैं।
बोरा।
-भूषण । उदा० नोंन की न गोन लीहै आदी हूँ न लादी गैर-वि० [म० गैर] अनुचित व्यवहार,
-रसखानि अन्याय ।
दाम खरो दै खरीद खरो गुरु मोह की उदा. मेरे कहे मैल कर सिवाजी सों बैर करि
गोनी न फेरि बिकैहैं ।
-देव गैर करि नैर निज नाहक उजारे ते ।
गोफ--संज्ञा, पु० [स० गुंफ] नया निकला पत्ता, -भूषण
अंकुर। गरमिसिल-संज्ञा, पु० [फा०] अनुचित स्थान ।
उदा० काटि किधी कदली दल गोफ को दीन्हों उदा० भूषण कुमिस गैरमिसिल खरे किये कों,
....जमाइ निहारि अगीठि है। --दास किये म्लेच्छ मुरक्षित करिके गराज को।
गोम-संज्ञा, पू० [सं० गोमायु] सियार, श्रृंगाल
- भूषण जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
उदा० गेहन मैं गोहन गरूर भरे गोम हैं ।
--भूषण कीनो न सलाम न बचन बोले सियरे ।
गोय-संज्ञा, स्त्री [फा०] गेंद, कंदुक २. गोपन, -भूषण
छिपाना (क्रि०) । गोख-. संज्ञा, पु० [अ० गौख] दरवाजे के ऊपर
उदा० १. गोय निबाहे जीतिये प्रेम खेल चौगान । का कमरा । उदा० बैठि ग्यान के गोरब सुमति पटरानी सजिरे
--बिहारी -ब्रजनिधि
२. रहिमन निज मन की विथा मनही गोंछ-संज्ञा, स्त्री० [हिं० गुच्छा] गलगुच्छ, गल
राखिय गोय ।
रहीम मोछ, श्मश्रु, गाल तक फैली हुई मूछे ।
गोल-संज्ञा, पू० [तुर्की] १. मुख्य सेना २. झंड उवा० गंग गोंछ मोछा जमुन, गिरी अधर मन- ! समूह ३. सेना का मुख्य भाग जिसमें सेनानायक राग। खान खानखानान के कामद बदम
रहता है। प्रयाग।
उदा० हलकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर -गंग
मीर । गोठ-संज्ञा, पु० [सं० गोष्ठ] समूह, मंडली,
बिहारी गोष्ठी २. गौशाला ।
गोलक- संज्ञा, पु० [सं०] विधवा का जारज उवा० १. रघुनाथ की दोहाई तबहो मैं जानि लयो भावती को मन भयो काह भ्रम गोठ । उदा० माप कुंड, गोलक पिता,
-रघुनाथ
पितृ-पिता
कानीन । गोठनि-क्रि० सं० [सं० गुठन] छिपाना, बन्द
लखो सु नागर भक्ति, करना, ढंकना, काढ़ना ।
जस पांडव नित्य-नवीन । उदा० रूप प्रघाति न छातनि देव, सु बासनि
-नागरीदास बातनि घूघट गोठनि ।
-देव गोला-संज्ञा, पु० [हिं० गोल] लटाई, जिसमें गोडमा-क्रि० सं० [हिं० गोडना] पददलित पतग का डार लपटी जाती है। करना
| उदा० जैसें जिती डोर की सुगोला तें कढ़न होत उदा० नेकी-बदी बोडिहैं विपति बरु गोटिहैं. जो
तेती होत जात ऊच चढ़नि पतंग की। कान्ह हमैं छोड़िहैं तो हम तो न छोड़िहैं।
-ग्वाल
गोसा-संज्ञा, पु० [फा० गोशा] एकान्त, अकेले .. धिन-संज्ञा, पु० [सं०] १. ग्वालों का एक । २. धनुष की कोटि, कमान् की दोनों नोकें। गान, २. गायों का समूह ।
उदा० १. देव कहा भयो जो कबहू भुजडारी कहूँ सवा० १. जितही तितही धुनि गोधन की सब ही
उनके गल गोसे ।। व्रज व रह्यो रागमई। --रसखानि
२. प्रथम करी टंकार, फेरि गोसा सँवारि गोम--संज्ञा, स्त्री [सं० गोली] वह बोरिया |
तहि।
-चन्द्रशेखर
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गोसे
घटी
गोसे-संज्ञा, पु० [फा० गोश] कान, श्रवण ।।
घन गीरमदाइन दीसतयं । -जोधराज उदा० द लिखि बाहन में ब्रजराज सूगोल-कपोलन गौंह-संज्ञा, स्त्री [सं० गम प्रा० गवं] मौका,
कुंज बिहारी । त्यौं पद्माकर या हिय में अवसर, दाँव, सुयोग । हरि गोसे गोविन्द गरे गिरधारी।
उदा० देव जू सुगहि गहि गहिबे की गौहें अब - पद्माकर
सौंहे क्यों न राखो, कोई भौहें क्यों न गोह --संज्ञा, पु० [सं० गोधा] बिसखोपरा ।
राखो तानि । उदा० गेहन मैं गोहन गरूर गहे गोम हैं ।
ग्रामसिब---संज्ञा, पू० [सं० ग्रामसिंह] कुत्ता, -भूषण
श्वान । गोहन-अव्य [सं० गोधन] साथ, पीछे २. संग उदा० सोधि सोधि रिपुसिंध कीने बन सिंघ नर लगे रहने वाला साथी।
सिंघ ग्राम गहि-गहि ग्रामसिंघ कीने है। उदा० कीन्ह्यो बहतेरो कहँ फिरत न फेरो मन.
-केशव मेरो मनमोहन के गोहन फिरतु हैं ।
ग्यारसि-संज्ञा. स्त्री [सं० एकादशी] एकादशी।
-दास उदा० ग्यारसि निन्दत हैं मठधारी । गोहरा-- संज्ञा, पुलिग [सं० गो+गृह] गौशाला,
भावति है हरिभक्त न भारी । गायों के रहने का स्थान ।
-केशव उदा० गोहरे माझ गई मिलि साँझ कछु क्षिति में ग्यासि-संज्ञा, स्त्री [बुं०] एकादशी तिथि । कछू छैल के कोछ ।
-देव उदा० ग्यासि तिथिहि छोड़ि करत भोजन मनचेत । डारे ते लुटाय पै न राखी गाइ गोहरे ।
-केशव --देव ग्वासली-संज्ञा, स्त्री [बुं०] गायों की सेवा । गौच-- स्त्री० पु. [सं गोचंदना] एक प्रकार
उदा० करत ग्वासली ग्वाल घनेरे गायें नन्द उदा० की जहरीली जोंक, गौंच अहि केंचुआ कान
दुहावें।
-बकसीहंसराज खजूरे भेख विच्छिन कोल पतंग उस भगदर
ग्वैडा-संज्ञा, पु० [देश॰] गांव के पास की बढ़हि अलेख ।
-बोधा
जमीन, पार्श्ववर्ती भूमि, समीप, नजदीक । गौरमवाइन - संज्ञा, पु० [बुं०] इन्द्र धनुष । बदा० (क) देखादेखी भई ग्वैडहि गाँव के बोलिबे उदा०-धनु है यह गीरमदाइन नहीं ।
की पै न दाउँ रही है। -दास सरजाल बहै जलधार वृथाहीं ।
(ख) तउ ग्वैड़ो घर को भयो पेंड़ो कोस -केशव । हजार ।
-बिहारी
घोवना-क्रि० स० [हि० धन+घोलना] १. उदा० नथ मुकता भूमैं घधुरे धूमैं गड़बड़ भू मैं पानी को हिलाकर मैला करना, किसी वस्तु
उभटि परै ।
--पदमाकर को पानी में हिलाकर घोलना, २. किसी बात घटकी--संज्ञा, स्त्री० [सं० घटक] बीच में पड़ने को चारों तरफ फैला देना, प्रचारित करना
वाली, मध्यस्थ । उदा० देखते ही सब घोष घघोषत देखत ही उदा० घंघट के घटकी न टिकी सुछुरी लटकी हरि देख्योई भावै। -पालम लटकी गुन गंदनि ।
-देव पधुरा-संज्ञा, पु० [हिं० घाँघरा लॅहगा, घाँघरा । घडी-संज्ञा, स्त्री० [सं.० घट] छोटा शरीर ।
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अनबेलो
घावरिया
-देव
उदा० कोकिल की किलवार सुने बिरही बपुरे । चोट, टक्कर २. प्रेक्षण, फेंकना, छिरकाव । विष घुट घटी मैं ।
-देव | उदा० नैनन ही की घलाघल के घने घाइन की घनबेली -वि.rहिं घनबेला बेल बटे वाला
__ कछू तेल नहीं फिर, ।
.. पद्माकर एक प्रकार का रेशमी वस्त्र, बेल बूटेदार रेशमी
लाल गुलाल घलाघल में दग ठोकर दै कपड़ा।
गई रूप अगाधा।
-पद्माकर उदा० कंकि कसी ललित घनबेली मंडित घाँकी--अव्य. [हिं० घां] तरफ, ओर। सुलफ किनारी ।
-वकसहंसराज उदा० कान्ह कढ़े वृषभानु के द्वार ह्वखेलन खौरि घनु-संज्ञा, पू० [सं० घनसार] १. घनसार,
पिछावर घाँकी। कपूर २. बादल ३. लोहारों का बड़ा हथोड़ा । घाइ-अव्य० [हिं० घा० घाई] और, तरफ । उदा० न जक धरत हरि हिय धरै, नाजुक उदा० गाइ चराइ हिये ही हिये लखि सांझ समै कमला बाल, भजत, भार भय भीत ह्र',
घरघाइ को घेरति ।
-दास घनु, चंदनु, बनमाल ।
-बिहारी
घाई-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] धोखा, प्रवंचना घबरना-क्रि० अ० [हिं० घबड़ाना] घबड़ाना,
चालाकी । मुहा० घाई पोढ़ी-धोखाधड़ी, बेईव्याकुल होना।
मानी। उदा. चूंघट कहाँ लों पाठो जाम में बनाये रहीं | उदा० लीजियो चकाइ दधिदान मेरी पोरह के, राम की दुहाई रोम रोम घबरत है।
बाबा की दोहाई घाई पोढ़ी के कै थापने । -ग्वाल
-बेनो प्रवीन घरवाल -संज्ञा, पु० [हिं० घड़ी+वाला घडी गिनने वाला, समय की गणना करने वाला,
घान--संज्ञा, स्त्री० [हिं० घन = बड़ा हथौड़ा]
चोट, प्रहार, प्राघात। घरियारी ।
उदा० कहै पद्माकर प्रपंची पंच बान, केस उदा० भावती के अंगन पै जितही परति डीठि,
बानन की मान पै परी त्यों घोर घाने सी। तितही घरवाल की घरी लौं ठहराति है।
- पद्माकर -सोमनाथ
घामरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० घामड़-मूर्ख] घरहाइन--संज्ञा, स्त्री० [देश॰] घर फोड़ने
मूर्खता, अज्ञानता, नासमझी।। वाली।
उदा० स्यामहि चाहि चलै तिरछी, मन खोलौं उदा० घर सहो घरहाइन को अरु बानी सही खिलारि न घूघट खोल । प्राली सों पानंद कछु तीर ते तीछी ।
बातनि लागि मचावति घातनि घामरि घाटी-वि० [हिं० घाती-घातक] मायावी
घोल ।
-घनानन्द वंचक, धोखा देने वाला, छली, कपटी, झूठा ।
घालन-संज्ञा, स्त्री० [सं घटन] फेंकने या उदा० चोवा सार चंदन कपूर चूर चारु लै लै,
चलाने की क्रिया। अतर गुलाब का लगावै तन घाटी मैं । उदा० १ग्वाल कविकुंकुम की घालन रसालन पै.
---ग्वाल
नारे पै, नदी पै पो निकास पै उछाल है। घरेर-संज्ञा, स्त्री० [सं० घर्षण] रगड़, कष्ट
- ग्वाल प्रद होने का भाव ।
घालना-क्रि० स० [सं० घटन] १. डालना, उदा० ठाकुर कहत कोऊ जानत न भेद यह रखना २ छोड़ना ३. मार डालना।। घाम की घरेर रहै दोऊ घर घिरकै।
उदा० १.लाज भरी गुरु लोगन में मुख पंपट पालि -ठाकुर सदा बतराती ।
-प्रतापशाहि घरोवा-वि० [हि० घर+पंजा० दा षष्ठी,
वंचक विबनि चंच चमावत कंज के पिंजर विभक्ति] घर का, घर से संबंधित ।
में गहि घाल्यो , उदा० होदा मन मुदिव घरोदा सुख देत भटू
ही सुकहूँ नहिं राखि सकी सो कहूँ सुनि निबिड़ निकुंज जे जसोदा के नगर मैं ।
तेहो परोसिनि पाल्यो ।
-चन्द्रशेखर | घावरिया-संज्ञा, पु० [हिं० घाव + वरिया] घलापल-संज्ञा, स्त्री० [हिं० घलना] प्रहार, घावों की दवा करने वाला।
--ठाकुर
-देव
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घावरी
उदा० तब चाल्यो ले लाठी कर में । पहुँच्या घावरिया के घर में ताहि कह यो फोहा अस दीजै । घाव पाँव को तुरत भरीजे ।
( ७१)
-अज्ञात
घावरी - -संज्ञा, स्त्री० [सं० घात ] क्षत, जख्म । उदा० बासर विभावरी गनत बावरीये सुनि, प्राये घनस्याम, भई घावरी घरीक लोँ । -देव
घावरे - वि० [हिं० घामड़] मूर्ख, श्रज्ञानी । उदा० दास जुग संभु रूप श्री फल अनूप मन घावरे करन घावरेन किल कामनी
--दास
घावरेनि घर दानि, बावरेनि बरदानि, साँवरे, सुघरदान रावरे चरन ये 1
- देव घोर घनी घनघोर सुने घनस्याम घरीक मैं घावरे ह्र' हो । - देव
घींच - संज्ञा, स्त्री० [देश०] गला, गर्दन | उदा० नित धींच पे मीच न नीचहिं सूझत मोह के कीच के बीच फँस्यो हैं । -ठाकुर जानु भुजान में जानु भुजा दिये खींचत घींचन मींचत श्रखें । देव घुघुरून—संज्ञा, पु० [देश०] मंजीर उदा० बैर परी पुरवासिनी ये सबै जाम करें घुघुरून घना को । बीच परी टटिया तिनकी झकझोरत जोर धरे जोंबना को । -बोधा घुचना - क्रि० प्र० [हिं० घुसना ] घुसना, प्रवेश करमा, फँसना ।
उदा० मैं तौ घुच्यौ कीच के बीच | ऊपर तै मोंहि मारं नीच । -जसवंतसिंह घुटना- क्रि० प्र० [सं० घुटक] गाँठ या बंधन का कसना, उलझकर कड़ा पड़ जाना | उदा० हठु न हठीली करि सकैं यह पावस ऋतु पाइ । श्रान गाँठ घुटि जाइ, त्यों मान गाँठि छुटि जाइ । -- बिहारी घुरना क्रि० प्र० [हिं० घुटना] १. बँधना, २. घुलना, पिघलना फँसना । उदा० १. घुरि आस की पास उसास गरें जु परी सुमहू कहा छुटिहै । -घनानन्द घूंघुरी — संज्ञा, स्त्री० [हिं० घूंघुर ] पायजेब, पैजनिया, नृपुर ।
उदा० पिय बियोग ते तरुनि की पियरानी मुख |
घोरिला
जोति । मृदु मुरवा की किंकिन होति । पद पद्म की सुभ घूंघरी सों जरी । घूँडि - संज्ञा, स्त्री० [सं० घुटक] घुटन, सांस का भीतर ही भीतर दब जाना और बाहर न निकलना, दम की घुटन ।
घूंघुरी कटि में - सोमनाथ । मनि नील हाटक केशव
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उदा० लखि मोहनें मोहि मिलाय के सोच घने घने घायल घूँड़ि गई -नंदराम धूवरि-संज्ञा, पु० [सं० घर्घर] लँहगा, घाघरा । उदा० घूघरी की धरि डोरी कसी अँगियाहु के बंद कसे गहि गाढ़े - सुन्दर फँदा पुनि
-तोष
पहिले फँदि घूंघरिया के रोभावली मन भाइ गयो । बूवरी - संज्ञा, स्त्री० [देश०] नीवी, लहँगा की गाँठ बाँधने वाली डोरी, फुंफदी, कटिवस्त्रबंध उदा० ठाढ़ी बाल आलो सों कहत बात हँसि हँसि तके मैं तमासे जैसे घूघरी करति है । —सुन्दर
घुघरी की धरि डोरीं कसो रलके लहँगाउ को बूँट सुधारो । वि० [हिं० घूमाव ] घिराव, उदा० घूंघट की घूम के सु झुमके झिलमिल झालर की भूमि
घूमक
-सुन्दर घेर । जवाहिर के लौं झुलत
जात ।
- पद्माकर
सामान ।
घूरो-- संज्ञा, पु० [सं० कूट] अंगड खंगड़ उदा० मेरो चेरो, मेरो घोरो, मेरो घूरो, मेरो घरू मेरो मेरो कहत न रसना रसाति है । — गंग घेरू -- संज्ञा, स्त्री० [देश०] बदनामी, निंदा । उदा० काहू की बेटी बहून की घेरू किते घर जाय कमंध से पारौं । --ठाकुर घोर - वि० [सं०] बुरा, खराब २. विकराल । उदा० कहत निसंक सिर मैले मति हुजो मिलि
भयंकर
धर्यो मैं कलंक, अरु मोसौ महाघोर सीं ।
-देव वोरना- क्रि० प्र० [सं० पुर] गर्जना, ध्वनि करना, कठोर आवाज करना ।
उदा० ठाकुर बोलि उठे मोखा घन जितही तित गाढ़े |
घोरिला - संज्ञा, स्त्री० [बुं०] खूँटी ।
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घोरि उठे -ठाकुर
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घौंचा
चकन
उदा० फूलन के बिबिध हार, घोरिलिन अोरमत में लगाया जाता है। उदार ।
-केशव । उदा० पायन तें घींचा गिरि गये। भूषन तें धौंचा-संज्ञा, पु, देश-] झम्बा, तारों का
फिरि दूषन भाए।
-केशव गुच्छा जो सुन्दरता के लिये कपड़ों या प्राभूषणों
चंग-संज्ञा, पु० [?] १. गंजीफे के पाठ रंगों में । २. चहचही पहल चहूँघा चारु चंदन की एक रंग २. पतंग ३. डफ के आकार का एक
चन्द्रक चुनीन चौक चौकनि चढ़ी है बाजा [फा० संज्ञा, स्त्री०]।
प्राब ।
-पष्माकर उदा० १. उठी गँजीका खेलते,
चंद्रातप-संज्ञा, पु० [सं०] चंद्रि का, चाँदनी २. लखि प्रीतम को रंग ।
चॅदोवा, वितान । चली अली कहि नहि,
|-उदा० हिमगिरिबर दव सौ परसियो । हमै प्रावति वासा चंग। -तोष |
__ चंद्रातप तन सौ दरसियौ ।। चंदन-संज्ञा, पु० [सं० चंद्रिकाएँ] मोर पंख की
---केशव चंद्रिकाएँ।
चंगेरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० चगोरिक] फूल रखने उदा० मोर के चंदन मौर बन्यौ दिन दूलह है- की डलिया २. बाँस की छिछली डलिया। अली नंद को नंदन ।
- रसखानि उदा० चौसर चमेली के चगेरिन में चनियत हीरन चंदपलान- संज्ञा, पू० [सं० चन्द्र + पाषाण
के कंडल जड़ाऊ करें धकि-धकि ।-ग्वाल चन्द्रमणि, चंद्र प्रकाश से द्रवित होने वाली एक
चक-संज्ञा, पु० [सं० चक्षु] चक्षु, नेत्र २. चक्रमणि, चन्द्रकान्तमरिण ।
वाक पक्षी । उदा० चंद-उदौ लखि लोचन त्वै चले चंदपखान । उदा० चक-चकवान को चुकाए चक चोटन सों. से चंदेमुखी के ।
-कुमारमणि चकित चकोर चकचौंधी सों चकै गई ।
-देव चन्दबधू-संज्ञा, स्त्री० [सं० चन्द्रबधु| बीरबधटी,
चकचक--वि० [अनु॰] दीप्त, कांतिमान । एक प्रकार का लाल कीड़ा जो बरसात में दिखाई
उदा० बकबक सुनि-मुनि प्रकबक भूलि गयो चकपड़ता है।
चक सौतिन की छाती मई धकधक । उदा० चन्दबधू जावक लिलार कहि पाए हौ ।
--तोष - सोमनाथ
चकचकाना-क्रि० प्र० अनु०] भीग जाना. चन्दुक-संज्ञा, पु० [सं० चन्द्रक] १. कर्पूर, २. 1
आर्द्र होना । चाँदनी।
उदा० चख चकित चित्त चरबीन चुभि चकचकाइ उदा. १. शशिनाथ तरंगनि करनि सो,
चंडिय रहत ।
-पद्माकर कालिंदी चित भाइकै ।
चकचौहट-संज्ञा, पु. [हिं० चकचौंह] चकाचौंध । सित चन्दुक चूर समान दिय,
उदा० बेनी प्रवीन लग्यो चकचौहट, चोहट मांझ तट- बालुका बिछाइके।
बिलोकि सकै क्यों।
--बेनीप्रवीन -सोमनाथ ।
चकन--संज्ञा, पु० [सं० चक्र] गुल चाँदनी नामक चंद्रक-संज्ञा, पु० [सं०] १. मोर पंख की आँख | पुष्प । २. चंद्रमा ३. चाँदनी ४. कपूर ।
| उदा० कमल गुलाब चकन की सैना । उदा० १. सिर सुभ चंद्रक धर, परम दिगंबर
होत प्रफुल्लित नव तिय नैना । मानो हर अहिराज धरे। -केशव ।
-पद्माकर
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चकरा
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चकरा वि० [हिं० चकला ] चौड़ा । उदा० मरिण साँवरे चकरे कचोरनि माँह चंदन पंक । - गुमान मिश्र चकला- -संज्ञा पुं० [सं० चक्र, हि० तक + ला पत्थर या काठ का गोल पाटा, (प्रत्य०] होरसा, जिस पर रोटी बेली जाती । उदा० दुकरा ओर परात डिबा पीतर के चकला 1 -सूदन
चकुलाशा, पु० [] चिड़िया का बच्चा, चेंटुवा | उदा० मन पजनेस कंधों चकवा के चकुला में सोहत बिसाल धरे उलटि नगारे हैं । --पजनेस चक्क संज्ञा, पु० [सं० चक्र ] १. दिशा २. श्रोर,
तरफ ।
उदा० १. भूषन भनत बाल लीला गढ़-कोट जीत्यो, साहि के सिवाजी करि चहूँ चक्क चाह् को । भूषण २. सुचक चार दियं चिलक चिल्लान की । चक्करा - संज्ञा, पु० [बुं ] बरा, से निर्मित एक भोज्य पदार्थ । उदा चक्करा रैदास जूं चमारहू के
(
-
-पद्माकर
उर्द की दाल
खाये हैं । -- ठाकुर चक्करो- -संज्ञा, स्त्री० [ सं . चकी] चकई नामक खिलौना । उदा० फिर चक्करी से गली सक्करी में । लिये अक्करी ऐंड ज्यों हिक्करी में । --पद्माकर
चक्क --वि [सं० चक्रवर्ती], जो समस्त विश्व का राजा हो ।
उदा० दीन होत चक्कवै चलत छत्र छाया के । -देव
चक्रन -संज्ञा, पू० [सं० चक्र ] चक्रवाक पक्षी, चकवा, २. समूह, मंडली ।
-
उदा० चक्रन के चक्रन पसारे पाणि चक्रपाणि पीतिबर तानि तानि मिलत ललान को । - देव चक्रवाल - संज्ञा, पु० [सं०] लोकालोक पर्वत वह पहाड़ जो प्रकाश को रोकता है । उदा० चहूँ गिरि राहें परी समुद्र प्रथाहें अब, कहें.. कवि गंग चक्रवाल ओर जू ।
७२ )
चत्रोचो- संज्ञा, पु० [सं०] सर्प, २. विष्णु, २.
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?
कुम्भकार ।
उदा० १. उर चतुर चारु चक्री बसतु संग कुमार हर मार मति ।
केशव
चर्चेड़ना- क्रि० प्र० [देश०] चिढ़ना, खीझना । उदा० एक दिना मारग में देखी धारे सीस दहेंड़ी तनक छांछ मांगी मै वासों सुनतन बात चवेंड़ी | बक्सी हंसराज चट - संज्ञा स्त्री० [हिं० बाट ] १. वाट, लालसा २. शीघ्र ।
उदा० मोहन के मन भाइ गयी इक भाइ सों ग्वालिने गोधन गायो । ताकों लग्यो चट् चौहट सों दुरि औचक गात सों गात वायी। रसखानि चटक-संज्ञा, स्त्री० [सं० चटुल सुन्दर] १. कांति, चमक-दमक २. गौरैया पक्षी । उदा० : चंचल चलाक चारु चौंपन चटक भरे, चोकत चमके चलें सजल सरोकदार ।
ग्वाल
--
२. काम गिरि कुंड ते उठति धूम सिखा, कै चटक चरनाली सारदा में पीत पंक की । - देव नभ लाली चाली निसा चटकाली धुनिकीन । बिहारी गाढ़ा ] रंगना,
पदमर
उदा
चटमट
MARE
चटकाना - क्रि० सं० [हिं० चटक
लगाना ।
उदा० लहलह्यो योजन हँसत डहारे गुरु ग्रहगह्यो काजर चखन चटकायो है । देव
चटपटी -संज्ञा स्त्री० [हिं० चटपट ] १. श्रातुरता, उतावली २. घबराहट, व्यग्रता । उदा० १. उलट पलट लोटि लटकि लपट जाति चटपटी लागे खटपाटिये गति है ।
- - श्रालम
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-
२. चित्त चटपटी श्रटपटी सब बात घात बनत न एकौ जात बनत न लात के ।
- चन्द्रशेखर
वि० [ ? ] चंचल, चपल । चंचल समेत भुव अम्बर मैं खेलत हैं देखत बाँधे डीठि रहें बटमट से ।
-सेनापति
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चडैती
(
७४
)
चरनायुध
- की, अलोक संजा, स्त्री० [हि काम + प्रोटीकोका
चईती--संज्ञा स्त्री० [सं० चंड] १. बढ़ा-चढ़ी, चमोटी-संज्ञा, स्त्री० [हिं । चामऔटी] कोड़ा, २. उग्रता, उदण्डता, बदमाशी।
| चाबुक । उदा० क्यों न बराबरी बेनी प्रवीन की जामैं कछु
उदा. उन्द्ररि उद्धरि चोटी पीठ पै परत मोटी बढ़िहौ न चड़ती।
- बेनी प्रवीन
खोटी के परे ते ज्यों चमोटी काम गुरु की। चदरा - संज्ञा, पु० [फा० चादर] नदी के बहाव
- घनानन्द का समतल जल ।
चरख--संज्ञा, पु० [फा० चखं] आकाश, नभ, उदा० वान सी बुदन के चदरा बदरा बिरहीन पै
गगन । बाहत पावै ।
-पद्माकर उदा. चमचम चाँदनी की चमक चमक रही, चनक - संज्ञा, स्त्री० [ ? ] अाँख की पुतली।
राखी है उतारि कर चंद्रमा चरख तें। उदा० १. चनक मूद खग मग सब चकै । मदन
- ग्वाल गुपाल केलि रस छकै ।
घनानन्द चरकी-संज्ञा, स्त्री० [फा०] एक प्रकार की २. कूदत न मगज चनक मू दे साखामृग असि
आतिशबाजी जो मस्त हाथियों को भयभीय - दुग बूद बरसत रोझ रहचर । -देव
करने को छुड़ाई जाती हैं। ३. चनक मुद, द्रुम कुज उछीर। सोर करत | उदा० सेनापति धायौ मत्त काम की गयन्द जानि. किकिन मंजीर ।
--नागरीदास
चोपकरि चपै मानौं चरखी छुटाई है। चपके-क्रि० वि० [हिं० चुपचाप] गुप्त रीति से,
-सेनापति चुपचाप ।
चरखी तड़ित अरु चमकि गरज मंजु बरमत उदा० सूजा बिचलाय कैद करिकै मुराद मारे नीर मिस मद के पनारे हैं। ऐसे ही अनेक हने गोत्र निज चपके ।
- सोमनाथ - भूषण चरचना-क्रि० सं० [सं० चर्चन] १. भांपना चपना-क्रि० अ० [सं० चपन- कूटना] दबना,
अनुमान करना २.चंदन प्रादि लेपना । कुचल जाना ।
उदा० चैनन चरचिलई सैनन थकित भई नैनन में उदा० सेज करि ज्ञान की अदेह में न चपनो।
चाह करै बैनन में नहियां । -ग्वाल
- मतिराम चपरि-क्रि० वि० [सं० चपल] शीघ्रता से, चरजना- क्रि० अ० [सं० चर्चन] बहकाना, जल्दी से ।
भुलावा देना । उदा० राधा मोहन के हिय हिलगनि रचतिहुती उदा० चंचला चलोक चहं पोरन तें चाह भरी, बहुरंगनि भाव । सो सब सहज उघरि
चरजि गई ती फेरि चरजन लागी री । प्राई अब दबे चहूँघा चपरि चबाव ।
~-पदमाकर - घनानन्द चरजै-- संज्ञा, पु० [सं० चर= खन्जन नामक चपर्यो-संज्ञा, स्त्री० [सं० चपल] शीघ्रता,
पक्षी + चय=समूह ? ] खंजन पक्षियों का जल्दी ।
समूह । उदा० चौकस चपल चिकनिया चपर्यो चहत ।
उदा. भूषण जौ होइ पातसाही पाइमाल ग्री बचावन ।
- घनानन्द
उजीर बेहवाल जैसे बाज त्रास नरजै । चपाना-क्रि० सं० [हिं० चाप, दबाव] दबाना,
- भूषण कान्तहीन करना।
चरन-संक्षा, स्त्री० [सं०चर + हिं० न] उदा० चित जाके चाय चढ़ि चंपक चपायो कोन. १. कौड़ियाँ, कर्णद्दका २. कविता की पंक्ति । मोचि सुख सोच है सकुचि चुप चली व ।। उदा० १. सुनु महाजन चोरी होति चारि चरन
-देव
की तात रोनापति कहै तजि करि ब्याज चमरी संज्ञा, स्त्री० [सं० चमर] सुरागाय ।
कौं।
- सेनापति उदा० चौर करें चमरी चय मोर चकोर, मृगी चरनायुध-[सं० चरणायुध] मुर्गा, ताम्रशिखा । मृग चाकर भारी ।
-देव उदा० कियौ कंत चित चलन कों तिय हिय भयौ
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चिरुवी
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विषाद । बोल्यो चरनायुध सु तौ भयो नखायुध नाद । - मतिराम नीबी परसत श्रुति परी चरनायुधधुनि श्राइ । - जसव त सिंह चरुवा – संज्ञा, पु० [फा० चखः ] प्रतिमूर्ति,
खाका ।
उदा० बसतो सदा तासु के हिरदै हिलिमिलि -- बक्सी हंसराज चल - संज्ञा, पु० [सं०] १. अनिश्चय,
चरुवा चारू ।
२ फर्क
अन्तर ।
उरा० बिथा जो बिनै सों कहै उतरु यही तौ लहै, सेवाफल ह्र ही रहे यामें नहि चल है ।
-दास
७५)
चहल
उदा० मीन औौर खंजन से अनसे अनोखे देखे कंजदल हूँ तैं ये विशेष वहियत है । --ठाकुर खसक - संज्ञा स्त्री० [देश ] १. मंद पीड़ा, हलका दर्द २. मद्य पात्र । (सं० चषक )
उदा० बदन सुधाकर सुधाकर बतायो प्राजु सेखर चकोरन की उसक बुझाइ दे । - चंद्रशेखर खसीली - वि० [हिं० चसना ] सटी हुई, चिपकी हुई ।
उदा० पलकें बिथोरी गोरी गोरी भुज मूलनि पै, कंचुकी असीली बढ़ी कढ़ी कुचकोर की । बेनी प्रवीन चहक - संज्ञा, स्त्री० [ ? ] १. चिन्ह, निशान, २. पक्षियों की आवाज ३. नशे में अधिक बोलना ।
उदा० चहचही चहकै चुभी है चोक चुम्बन की ।
२. चहकि चकोर उठे भौंर करि
- पद्माकर सोर उठे । - द्विजदेव ३. छकनि की चाहनि चहक चित रही है ।
- गंग
लूकी लगना,
चलप - वि० [सं० चपल ] चपल, चंचल । उदा० जीभ में जलप देव देखिबे की तलप, पैभूतल परी है, त्यों सुहात न तलप से रसकल सकल कलानिधि मिले न तोलौ कलानिधि मुखी चित चाइ की चलपरी ।
- देव
चलाका - संज्ञा, स्त्री० [सं० चला] बिजली, विद्यत ।
उदा० चंचला चलाकेँ बहूँ ओरन तें चाह भरी चरजि गई ती फेरि चरजन जागी सी । - पद्माकर
चलना ] भगदड़,
चलाचली -- संज्ञा स्त्री० [हिं० चलने के समय की तैयारी । उदा० हय चले हाथी चले संग छोड़ि साथी चले ऐसी चलाचली में अचल हाड़ा हूँ रहयो । भूषण चवना --क्रि० स० [प्रा० भव] कहना, बोलना, हटा छांड़ि - गंग निन्दा की
बताना ।
उदा० हँसि अँगुलि दे मुख मांहि खवं, दै कान्ह बिहान भयो । चवाव - संज्ञा स्त्री० [हिं० चौवाई ] चर्चा, चुगली, बदनामी । उदा० कीजै कहा जुपै लोग चवाव सदा करिबौ करिहैं बजमारी । - रसखानि चषमना-क्रि० स० [फा० चश्म-नेत्र का क्रिया रूप ] दृष्टिगत होना, दिखाई पड़ना । उदा० चषमति सुमुखी जरद कासनी है सुख, चीनी स्याम लीला माह काविली जनाई हे । - बेनी प्रवीन चहियत - श्रव्य० [हिं० चाहि] बढ़कर, अपेक्षाकृत ।
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चहकना - क्रि० प्र० [हिं चहक] जलन पैदा होना । उदा० फाँसी से फुलेल लागे गाँसी से गुलाब अरु गाज अरगजा लागे, चोवा लागे चहकन । -देव
चहकि चहकि डार चपला चखनि चाहें । चहचही वि० [हिं० चहचह ] बहुत सुन्दर, मनो
-- घनानन्द
हर ।
उदा० चहचही चहकेँ खुभी है चौक चुम्बन की ।
- पद्माकर
चहचही सेज चहूँ चहक चमेलिन सों बेलिन सों मंजु मंजु गु ंजत मलिन्द जाल ।
-द्विजदेव चहरना- क्रि० प्र० [हिं० चहल ] प्रसन्न होना, आनन्दित होना ।
उदा० बेनी प्रवीन विषं बहिरे, कबहूँ नहि रे गुन गोविंद गाये । - बेनी प्रवीन चहल - संज्ञा, पु० [हिं० चहला] कीचड़, पंक | उदा० सुख की टहल मुकुताहल महलवीच केसरि कपूर कीच चंदन चहल सी । --देव
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चहूँकन
चालना
धोवन की चहल, गुलाबन की गागरे । चानक संज्ञा, पु० [हिं० चनक] १. दृष्टि, आँख
-गंग की पुतली २. अचानक । चहूँ कन-संज्ञा, पुल बु] १. बदनामी की उदा० १. मूरति अनूप एक आय के अचानक में चर्चा, अफवाह २. निन्दक, बदनामी की चर्चा
चानक लगाय अजौं हिय को हरति है । करने वाले ।
- दीनदयाल उदा० १. देखि उन्हें न दिखाइ कळू ब्रज पूरि
२. हरिनी जनु चानक जेल परी । रहयो चहु ओर चहूँकन । --- ठाकुर
जनु सोनचिरी अवहीं पकरी ॥ २. ऐसेई चाहि चवाई. चहूँ कहैं एक की बात
-गुमान मिश्र हजार बखानती ।
---- द्विजदेव
चाभुको -- संज्ञा, स्त्री० [?] घोड़े की चाल चहोरना-क्रि. ० देिश..] १. संभालना, सहे
विशेष । जना २. पौधा रोपना, बैठाना ।
उदा० चौधर चालि चाभुको चारु, चतुर चित उदा० १. पौगुनी चोपनि तै सोई चाप वहौरि दै
कसो अवतारु ।
-केशव हाथ सज्यौ भटनायक ।
चायल-वि० [सं० चपल] चपल, चंचल । ---घनानन्द
उदा० चित चापल पायल घोर करै । मदनद्दल चाँचरि-संज्ञा, पु० [?] १. एक प्रकार का वस्त्र
घायल से चिहरै। २. चर्चरी राग ।
--बोधा
चार--संज्ञा, पु० [सं०] १. गुप्त दूत, जासूस २. गदा० १. पाँवरी पैन्हि लै प्यारी जराइ को प्रोढ़ि
सेवक, दास ३. भ्रमण, अटन गमन, गति । _ लै चाँचरि चारु असावरी ।
---दास
उदा० १. चोर ही कि चार जो रहो जु निशिचार चांडी--वि० [सं० प्रचण्ड] प्रचण्ड, वेगवती । उदा० सरिता सुधा की मुख सुधाकर मन्डल तै
कहूँ, सोच न विचार हार हीरन हिरैबे की उरध कों उठी मिली धाराधर चाँडी है।
- देव --केशव
३. जनी सहेली धाइ घर, सूने घर निसिचार चाक-वि० [तु.] चुस्त, चालाक, फुर्तीला ।
अति भय उत्सव व्याधिमिस न्यौते सुबन उदा० चंचल जुटीले चिक्क चाक चटकीले सक्ति
बिहार।
-केशव संगर तजे न लोप लंगर लराई के।
चारना-- क्रि० प्र० [हिं० चालना] छिद्र होना,
-- पद्माकर फटना, नष्ट होना । चाक चक--वि० [तु० चाक+अनु चक] चारों उठा० लीजै दधि पीजै जान दीजै और काज ओर से बाकी हुई, सुरक्षित, दृढ़, मजबूत ।
कोज, खीझे ते पसीजे तनु भीजे पट चारि उदा० चाक चक चमू के अचाक चक चहें और
-आलम चाक सी फिरति चाक चंपति के लाल की।
चारी-संज्ञा, स्त्री० [हिं - चाटी] चुगली, निंदा --भूषण
शिकायत । चाकरी- वि० [हिं० चकली] १. चौड़ी २.
उदा० चुप करिये चारी करत, सारी परी सरोट । नीकरी ।
-बिहारी उदा १. कन्ध तें चाकरी पातरी लंक लौं
चारी तामस संज्ञा, पु० [सं० तामस चारी] सोभित कैधौं सलोनी की पीठि है।
तामसी स्वभाव वाले, खल, दुष्ट, राक्षस ।
---- दास चाटक - संज्ञा, पु० [सं० चेटक] चेटक, जादु ।
उदा० सेवक सचेत गहिलै गये प्रचेत पुर, जानिके उदा० देन सुन्यो सब नाटक चाटक चाट उचाटन
अचेत, चारी तामस तरुन को। मंत्र अतंक को । -देव
-देव चाड़िली--वि० [हिं० चाड़] उमंगवती, उल्लास चालना--क्रि० स० [हिं०] छिद्रमय करना, चाल रखने वाली, प्रबल अभिलाषिणी ।
डालना, नष्ट करना । उदा० मोती नग हीरन गहीरन बुनतहार, चीरन । उदा० नभ लाली चाली निसा, चट काली धूनि चुनत, चित चोप चित चाड़िली ।
कीन । रति पाली, पाली, अनत, प्राए बन -देव माली न ।
-- बिहारी
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चाला
(
चाला
उदा०
संज्ञा, पु० [हिं० चाल ] गोना, नववधू का पहले पहल ससुराल या मायके जाना । चाले की चूदरि चारु कसूभी सुगन्ध सनी दमकें तन गोरें । चावक संज्ञा पु० [फा० चायुक] भावुक, कोड़ा सोंटा ।
- ग्वाल,
·
-
-
उदा० देव मनोज मनो जू चलायो सोन सरोज को चावक ।
चावक चोट कटाक्षन की तन जाके लगी मन जानत सोई । -- बोधा चावरी संज्ञा स्त्री० [हिं० चावड़ी] पड़ाव, ठहरने का स्थान । उदा० किधौं चंद बदनी को चिबुक बिराजमान, किधौं चारु चावरी बदन चंद्रभूप !
- श्रालम
---
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चितौनि मैं - देव
-
-
-केशव
चाह- -संज्ञा० स्त्री० [०] खबर, समाचार । उदा० हरि प्रागम की अँगना सुनि चाह सँवारत अंग हुलास हो ।
- आलम
श्रावत
-
-पद्माकर
7
ननद चाह सुनि वलन की बरजति क्यों न सु कंत । बन बिरहीन को बैरी बधिक बसन्त । चाहनसंज्ञा स्त्री० [देश०] चितवन, दृष्टि । उदा० एरी चलि 'नागरी' तू सींचि सुधा चाहनि सौं, खिनि के घायन की आँखें ही उपाय हैं । -नागरीदास चाहना- क्रि० प्र० [बु०] देखना | उदा० चाहे चकचीं त्रितु रबि की सी कांति है ।
-श्रालम
--
-
चाहने वि० [हिं० चाहिए] उचित, ठीक उदा० चित कोन्हों कठोर कहा इतनो अरी तोहि नहीं यह चाहने हैं । -ठाकुर चाहि- -अव्य० [सं० चैव] बढ़कर, अपेक्षाकृत, अधिक ।
उदा० ऐसेई चाहि चवाई चहूँक हैं एक की बात --द्विजदेव हजार बखानती । चिडार संज्ञा, पु० [सं० पान्हाल] चाण्डाल, नीच व्यक्ति ।
उदा० कहन सुनन कों द्विज निरधारै । करम करें जैसे चिडारे । -जसवन्त सिंह चिततूट - संज्ञा, पु० [सं० चित्त + त्रुटित = भंग ] चित्तभंग, उचाट, मतिभ्रम, ध्यान न लगाना । उदा० सोक भरे रोवत, रिसात, धीर धर लेत, घनी घिन मानत, चकित चिततूट सों ।
--देव
---
७७
)
चिल्लह
मंडित ]
चितारना -- क्रि० सं० [प्रा० चित्तल मंडित करना, भूषित करना, लगाना । उदा० धौरी ढार ढौरी लै बुलाय बोलि सौंपि देत, काजर कुरंग नैनी चोपनि चितारई ।
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- -घनानन्द
चित्रभानु संज्ञा, पु० [सं०] १. अग्नि, पावक २. सूर्य ।
उदा० उदित पदुमराग रूचिर विचित्र रच्यो, चित्र गृह करतु विचित्र चित्रभानु तर । चिरना- क्रि० श्रा० [हिं० चिढ़ना ] चिढ़ना, नाराज होना ।
—देव
उदा० जानि न परत धौं कियो है कहा रघुनाथ कीन्हे हूँ जतन घरघेरी न घिरति है । लोगन के मुख जऊ सुनति है निन्दा तऊ मन बच कर्म के केहूँ न चिरति है ।
-
—रघुनाथ चिरम- -संज्ञा० स्त्री० [देश०] घुघुची, गु ंजा । उदा० पाय तरुनि कुच उच्च पद चिरम ठग्यो सब गाँव । - बिहारी चिरवादारनि-संज्ञा, स्त्री० [?] साइसिन, घोड़े की सेवा करने वाली ।
―――
उदा० चौली मांहि चुरावई, चिरवादारनि चित्त । फेरत वाके गात पर, काम खरहरा नित्त । - रहीम चिलक - संज्ञा, स्त्री० [हिं० चिलकन] चमक, पीड़ा । उदा० चिलक चिकनई चटक स्यौं लफति सटक लौं आय । - बिहारी चिलता --संज्ञा, पु० [चिलतः ] एक प्रकार का
कवच ।
उदा० काटत चिलता हैं इमि प्रसि बाहि सराहें बीर बड़े । -संज्ञा, पु० [फा० चिलता ] एक प्रकार
-पद्माकर
-
काटत चिलता हैं इमि श्रसि सराहैं बीर बड़े ।
चिलतह
का कवच ।
--
उदा० आयुध और अनेक और चिलतह बहु श्रंगा -सूदन बाह्रै तिनहि
- पद्माकर
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--
चिल्लह-संज्ञा पु० [हिं० चिल्ला] १. पगड़ी का छोर जिसमें कलाबत्तू आदि का काम बना रहता है ।
२. धनुष की डोर [देश०] प्रत्यंचां ।
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चिसको
(
उदा० १. सु चक्क चारहूँ दिप चिलक्क चिल्लहान की ।
२. धरै चिल्लहे हैं भले ऊमहे हैं ।
ف
-पद्माकर
—देव
विसको संज्ञा स्त्री० [हिं० चसका ] चाट, आदत, लत । उदा० रति अन्त रही न कछू सुधि है, बुधि वैसी रही परिहैं चिसकी । लगी अंक मनो परजंक में लाल के वैसही बाल भरे सिसकी । —बेनी प्रवीन चिटना- क्रि० प्र० [हिं० चिपटना-लपटना ] चिपट जाना, [ क्रि० सं०चिकोटी काटना ] लिपट जाना, चिपकना । उदा० बाल के लाल लई चिटी रिस के मिस लाल सौं बाल चिहूँटी । नहि श्रन्हाय, नहिं जाइ घर, चितु चिहुँट्यौ तकि तीर । - बिहारी चोतना-क्रि० सं० [सं० चित्रित] चित्रित करना, रँगना, लगाना । उदा० मुख चीतैं चन्दन, परम अमंदनि, पूरि अनन्दनि हास करें । - सोमनाथ चीन सारंग-संज्ञा, पु० [हिं० चीन + सं० सारंग = वस्त्र ] चीनाशुक, चीन से आने वाला एक प्रकार का रेशमी वस्त्र । उदा० दुति चीन सारंग ज्यों कटि ज्यौं, लटरी निसा रँग ज्यों करत
शौक,
छीन सारंग प्रत है । रसलीन चोर - संज्ञा स्त्री० [हिं० चिड़िया ] चिड़िया, पक्षी ।
उदा० ग्वाल कवि सोभा तैं सरीर मैं उछोर हीन कढ़ी चंदचीर जाइ नहि भाखे गुन ।
-ग्वाल
चुंग-संज्ञा स्त्री० [हिं० चुगना ] चुगने की वस्तु, पक्षियों का खाद्य पदार्थ, चुग्गा २. बंदनामी की चर्चा ।
उदा० १. चकचकी चारु मुख चंद चांदनी को चितं चुरंग चहूँ श्रोरन चकोरन की च्वं रहे ।
- पद्माकर
- पद्माकर
२. त्यों पद्माकर दीजै मिलाइ क्यों चुरंग घबाइन की उमही है । चुकरंड - संज्ञा, पु० [?] दुमुहाँ सांप | उदा० गजरद् मुख चुकरैंड के, कक्षासिखा बखानि ।
-केशव
>
चुलक
चुटकना - क्रि० प्र० [हिं० चुटक] कोड़ा अथवा चाबुक से घोड़ा आदि पशुओं को मारना । उदा कर चाह सौं चुटकि के खरें उड़ोंहें मैन । - बिहारी चुटार- वि० [हिं० चोट] चोट करने वाले, घायल करने वाले, प्राक्रमरण करने वाले । उदा० बदन के बेभे पे मदन कमनैती के खुटार सर चोटन चटा से चमकत हैं ।
देव
[हिं० चुन्नी] सितारा । चौसर चमेली के चंगेरन मैं, चीर बादला बिसद मैं ।
चुनमा - संज्ञा, पु० उदा० ग्वाल कवि - चुनमा चमके
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ग्वाल
चुनिंदा, चुना हुआ,
चुनीदे- वि० [हिं० चुनिंदा] छँटा हुआ, बढ़िया, श्रेष्ठ । उदा० रीझि रही हूरि बेनी प्रवीन जु है रसिया रस रंग चुनीदे | —बेनी प्रवीन चुनौटी - वि० [हिं० चुनौती ] चुनौती, उत्पीड़क, दुख देने वाली ।
उदा लाल मन बूड़िबे कों देवसरि सोती भई, सोतिन चुनीटी भई वाकी सेत सारी री । चुबटना- क्रि० सं० [हिं० चुपड़ना ] चुपड़ना, लेप करना, पोतना ।
--दास
उदा० पौंछति कपोलनि अंगौछति उरोजनि तिलोछति सुदेस केस चोवा चुबटत ही । - देव
चुभकी— संज्ञा, स्त्री [अनु०] डुबकी, गोता । उदा० ले चुमकी चलि जाति जित जित जलकेलि अधीर । - बिहारी चुर—संज्ञा, पु० [देश० ] माँद, बाघ आदि के रहने का स्थान | उदा० जहाँ होहि चुर सिंह बाघ की तहाँ न कीजो फेरी । -बक्सी हंसराज चुरना- क्रि० प्र० [हिं० चुराना ] छिपना, दिखाई
न पड़ना ।
उदा० घूंघट के
घटकी नटिकी सुछुटी लटकी लटकी गुन गेंदनि, केहू कहूँ न छुरे बिछुरं बिचरे न चुरं निचुरं जल बूंदेनि ।
- देव
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चुलक - संज्ञा, पु० [सं०] चुल्लू, अंजलि । उदा० तहँ चुलक निर्मल में झलक नभलोक प्रतिविवित भयो । गुमान मिश्र
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चुवा ( ७६ )
चोखोजाना चुवा० वि० [देश॰] कोमल, मुलायम ।
| चूहरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० चूहड़ी] मंगी की स्त्री, उदा० अपने हाथन खूब चुवा सी लै लै दूब चराऊँ मंगिन, सफाई करने वाली ।
-बक्सी हंसराज | उदा० फल से भरत रंग भर लागे झारू देत चुंहटी-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] चुटकी ।
चूहरी चतुर चित चोरति चमकनी । उदा० गुलचि बनाय नचाय चहटियन छांडि देहि
-देव करि अधिकाई।
-घनानन्द ज्यों कर त्यों चुहँटी चलै ज्यौं चुहँटी त्यों
चेटका-संज्ञा, स्त्री० [?] चिता ।। नारि ।
-बिहारी
उदा० जरे जूहनारो चढ़ी चित्रसारी, मनो चेटका चुहुटिनी-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] घु घची, गुजा ।
में सती सत्यधारी।
-केशव उदा० राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहुटिनी माल । चेटकी-संज्ञा, पु० [हिं० चेटक] जादू करने वाला,
-बिहारी
जादूगर, कौतुकी। चूंटना-क्रि० सं० [सं० चयन] चुनना, तोड़ना। उदा० चेटकी चबाइन के पेट की न पाई मैं । उदा० मन लुटिगो लोटनि चढ़त चूंटत ऊँचे फूल ।
-ठाकुर -बिहारी चंप--संज्ञा, पु० [अनु॰] चिड़ियों के फँसाने का चक-संज्ञा, पु० [सं०] १. अत्यन्त खट्टी वस्तु लासा। २. गलती, भूल [फा०]
उदा० दृग खंजन गहि लै चल्यो चितवनि चेपु उदा० तेरे मुख की मधुरई, जो चाखी चख
लगाय ।
-बिहारी चाहि । लगत जलज जंबीर सों, चंद चूक सो ताहि ।
- मतिराम
लासा है सनेह को न छूटै चंप चपकन । चून - संज्ञा, पु० [सं० चूर्ण] १. माणिक्य या
-ग्वाल रत्न का छोटा टुकड़ा, २. सितारा।
चेपना-क्रि० प्र० [हिं० चिपचिप] समझना, उदा० दूनरी लंक लखे मखतून री चूनरी चारु चुई विचार करना । परै चूनरी।
-रामकवि उदा० भेद फुरै मीलित बिष उन्मीलित चित चेप। चुनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० चूर्ण] मानिक या
-पदमाकर रत्न का छोटा टुकड़ा।
चै-संज्ञा, पु० [सं० चय] समूह, झुड । उदा० चूनरी सुरंग अंग ई गुर के रंग देव, बैठी
उदा० ठाकुर कुंजन पुजन गुजन भौरन को चै परचूनी की दूकान पर चूनीसी ।
चुपैबो चहैना ।
-ठाकुर -देव चूब-संज्ञा, स्त्री० [फा० चोब] शामियाना खड़ा |
चैतुवा-वि० [बु.] स्वार्थी, मतलबी ।
उदा० कवि ठाकुर चूक या नैनन की हमसों उनसों करने का डंडा । उदा० दिशा बारहों द्वारिया चूब खोलै । हरीलाल
नव नेह बढ़े जू । हम जानती ती हरि मीत पीरी उरी भर्प डोले ।
ह्व हैं न कढ़े हरी चैतुवा मीत कढ़े जू ।
-बोधा चूरन-संज्ञा, पु० [सं० चूर्ण] मंत्रित भभूत,
-ठाकुर पवित्र राख ।
चोई—वि० [प्रा० चोइन, सं० चोदित] प्रेरित,
डूबी हई उदा० चखरुचि चूरन डारि कै ठग लगाय निज
उदा० ठाढ़ी ही बाग में भाग भरी मानो काम
साथ । रह्यो राखि हठ, लै गयो हथाहथी मन
भुजंगम के विष चोई।।
-देव हाथ ॥
चोखरे-वि- [देश] चालाक, धूर्त । -बिहारी
उदा० नीके धर्यो दधि दूधु सीके ते उतारि चूचना-क्रि० सं० [सं० चुम्बन] चूमना, चुम्बन
खायो, ऊँचे को न गौन जहाँ चोखरे बिलैया करना।
-देव उदा० रूप के लालच, लाल चितौत चित मुख | चोखीजाना--क्रि० सं० [देश॰] बछड़े से दूध चीकन, चूवन चाहों।
-देव पिलाया जाना।
की।
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चोज
चौकी
उदा० च.खी जाति गैया कोऊ और न दुहैया । चोये-संज्ञा, पु० [प्रा. चोय] छिलका, त्वचा, देव देवर कन्हैया कहा सोवत सबारेई ।
अन्न की भूसी, छाल
-देव उदा० प्रथम दरे दरि फटकि, टकि-दलमलितन चोज-संज्ञा, स्त्री, [१] .. सौन्दर्य, रंग, दीप्ति धोए । उज्जल पानि पखारि किये दूरन पुनि २. सुभाषित ३. व्यंग्य, ताना ४, पानंद, विनोद
चोये।
-गंग ५. चमत्कार पूर्ण उक्ति
चोराबोर करन - वि० सं० [देश॰] अच्छी तरह उदा० १. कंचन में नहीं चोज इती कि जु वाकी
से किसी वस्तु को दुबाना ।। गुराई समान कहावै । -कुलपति मिश्र
उदा० चोर चोराबोर के गुलाब छिरकाइ लै ।। ३. किहिं के बल उत्तर दीजै उन्हें सो सूने
---पद्माकर बनै चोज चवाइन कै। -प्रतापसिंह
चोल-संज्ञा पु० [ [ मंजीठ ।। ४. चोज के चंदन खोज खुले जहूँ ओछे
उदा० चटक न छांड़त घटतह सज्जन नेह उरोज रहे उर में घिसि । -देव
गंभीर। फीको परै न बरु फटै रँग्यो चौथना-क्रि० सं० [अनु॰] नोचना, किसी वस्तु
चोल ₹ग चीर । - - बिहारी
चोला-संज्ञा, पु० [सं० चोल] कुर्ता, खोल । को बुरी तरह से नोचना।
उदा० छोड़ हरिनाम नहीं पैहे बिसराम अरे निपट उदा० चौथते चकोरन सों भले भये भौंरन सों चारों
. निकाम तन चाम ही को चोला है। प्रोर चम्पन पै चौगनी चढ़ो है पाब।
-पद्माकर -द्विजदेव चोली-संज्ञा, स्त्री, [बु.].. पान रखने की चोटमा-क्रि० स० [सं० चुट: काटना] तोड़ना, | पिटारी.. अँगिया । नोचना ।
१. फिरि फिरि फरणनि फणीश उलटतू ऐसे उदा० मन लुटिगो लोटनु चढ़त, चैटत ऊँचे फूल ।
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके -गिहारी पान की।
--गुमान मिश्र चोटही-वि० [सं. चुट] प्राघात करने वाला, २. चोली जैसी पान तोको करत सँवारि स्पर्धा करने वाला
---- केशव दास उदा० उज्जल अखंड खंड सातएँ महा, मंडल
3. धर दीन्हीं यादर कर प्रागे भर पानन सँवारो चंद-मंडल की चोटहो । - देव
की चोली।
-बक्सी हंसराज चोढ़-संज्ञा, पु० [हिं० चोप या चाव] उमंग,
चोव-संज्ञा, पु० [फा० चोव] शामियाना खडा उत्साह
करने की बड़ा खंभा २. सोने या चाँदी का मढ़ा उदा. गंज गरे सिर मोर-पखा 'मतिराम हो गाय
हुप्रा डंडा । चरावत चोढ़े।
-मतिराम उदा. चाँदनी है चौवन पै, परदे दरीपन पै, हरे चोप-संज्ञा, स्त्रो० [देश॰] उमंग, उल्लास
दुलीचे हैं, गलीचे गोल गट्टी में । -ग्वाल उदा० चोप सी चटक पीतपट की निहारि छबि
चैत को रुचिर चंद चाँदनी सी चांदनी में मैटि बनमाल मिल्यो मुरली की धोर में ।
चाँदी सो चॅदोबा चामीकर चोब चारि -सोमनाथ को।
-देव घोपी-वि॰ [हिं० चोप] १. मोहित, मुग्ध २. | चोवा - संज्ञा, पु० [हिं० चुमाना] चंदनादि कई इच्छा रखने वाला, उत्साही।
सुगंधित पदार्थो से निर्मित एक सुगंधित द्रव उदा० चोपी अति तुम सों प्रवीन बेनी गोपी रहै, पदार्थ । उर प्रोपी तरुनी ते नजरि हमारी हैं। उदा० कंचुकी में चुपर्यो करि चोवा लगाय लियो
-बेनी प्रवीन
उर सो अभिलाख्यो । चोंब-संज्ञा, पु० [हिं० चोप] उमंग, उत्कट ___ कहै पद्माकर चुभी सी चारु चोवन में । अभिलाषा ।
----- पद्माकर उदा० दुगन चकोरन को चोंब यह कहुँ देखो, चंद चौकी-संज्ञा, स्त्री [सं० चतुष्की] १. गले में सो बदन दुख कदन को चहिए।
पहनने का एक भूषण २. पहरा, रखवाली, -रसलीन खबरदारी
बोई।
-देव
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चौखटा
(
उदा० १. मनि सोभित स्याम जराइ जरी अति चौकी चल चल चारु हियें । केशव २. चौकी बँधी भीतर लोगाइन की जाम जाम बाहिर प्रथाइन उठति अधरात है ।
-दास
चौखटा--संज्ञा, पु० [?]
१. दरवाजा, ड्योढ़ी २. कोठा, श्रट्टालिका, ची मंजिला मकान
उदा० २. चढ़ी चौखटा नार नवेली । निशिदिन जे प्रीतम सँग केली । —बोधा चौखड़ा - संज्ञा, पु० [हिं० चौ + सं० खण्ड ] चारों ओर की सैर, चारों तरफ । उदा० चलिकै घरिक चौखड़ा देखौ जहँ फूली फुलवारी । —बक्सी हंसराज चौखाने - संज्ञा, पु० [फा० चारखाना] चारखाना, एक प्रकार का कपड़ा जिसमें रंगीन धारियों से चोखूंटे घर बने रहते हैं । उदा० श्री सकर बिलंदी दूरि घरन्दी मानिकचंदी चौखाने । -सूदन चौगान - संज्ञा, पु० [फा०] गेंद का वह खेल जो मध्यकाल में घोड़ों पर सवार हो कर खेला
जाता था ।
उदा० गोय निबाहे जीतिये प्रेम खेल चौगान । —बिहारी चौधर - संज्ञा, पु० [देश०] १. लाल रंग के घोड़ों में लक्षित होनेवाला सफेद रंग २. घोड़े की चाल, चौपाल ।
उदा० चौघर बर सज्जत छवि निज छज्जत बचत न भज्जत हरिन हरें । —पद्माकर चौचंद -संज्ञा, पु० [हिं० चौथ + चंद] बदनामी की चर्चा, कलंक, निन्दा | उदा० आइगे तहाँ ही पद्माकर पियारे कान्ह श्रानि जुरे चौचंद चबाइन के वृन्द वृन्द ।
—पद्माकर
चौंडेल --संज्ञा, स्त्री० [हिं० चंडोल = सं०= चन्द्र + दोल] एक प्रकार की पालकी २. हाथी के हौदे के आकार की पालकी ।
८ १
)
चौहरी
उदा० चित चौंडेल चढ़ाय लड़िहरी तनपुर राछ फिराई । — बक्सी हंसराज २. उरजात चँडोलनि गोल कपोलनि जी लौ मिलाप सलाहकरी ।
- दास
चौधर संज्ञा, पु० [१] घोड़े की चाल विशेष । उदा० चौधर चालि चाभु की चारू । चतुर चित कैसो अवतारु । - केशव
चौबिसमहीना - [हिं० चौबिसमहीना: == दो साल ]
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दुशाला ।
उदा० कंज घर घेरा पर्यो चन्द पर डेरा पर्यो ऊपर बसेरा पर्यो चौबिस महीना को । - देवकीनंदन चौरासी - संज्ञा, पु० [सं० चतुर शीति] १. आभूषण विशेष जो हाथी की कमर में पहनाया जाता है ।
२. नाचते समय पैर में पहने जाने वाला घुंघरू उदा० १. चौरासी समान, कटि किंकिनी बिराजति है, साँकर ज्यौं पंग-जुग घुंघरू बनाई है । — सेनापति चौरे वि० [हिं० चौड़ा ] विशद, विस्तृत, व्यापक उदा० चौरे चक्रपानि के चरित्रन को चाहिये । - पद्माकर
चौसर — संज्ञा, स्त्री० [ चतुः + सृक] चार लड़ियों की माला, चार लड़ी ।
उदा० चाँदनी के चौसर चहूँघा चौक चाँदनी में चाँदनी सी आई चंद चाँदनी चितै चितै । —पद्माकर
चौहट संज्ञा, पु० [हिं० चतुर + हाट] नगर, चौक ।
उदा० चौहट कौ मिलिबौ तो रह्यो मिलिबौ रहयो प्रौचक साँझ सबेरो । -ठाकुर चौहरी - वि० [हिं० चौहर] चार घेरे वाला । उदा० चौहरी चौक सो देख्यो कलामुख कढ़यो आवत है री ।
पूरब ते
--दास
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छछु-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छोट] छींटे, बद । | उदा० छार भरे छरहरे छग ज्यों छरकवारे छाए उदा० कान्ह बली तन श्रोन की छंछु लसै अति
हैं छबिन छायघन छाइयत है। -गंग जग्योपवीत सों मेलि ज्यों। -- आलम छगुनना-क्रि० स० [देश॰] विचार करना, छंद-संज्ञा, पु० [सं० छंदस्] १. कपट, छल २. सोचना ।
मण्डल, घेरा ३. समूह ४. चेष्टा, खेल, क्रीडा । उदा० अाँगन ही खरी हों मगन भई छगुनत, उदा० १. जब ते छबीले जू के ईछन तीछन देखे,
स्याम अंग नीको बाके संग ही न गोनी ताछिन त छींद कैसे छंदनि करति है।
मैं ।
-आलम -सुन्दर छगोड़ी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छः+गोड़ पाँव] २. जोए पदमन को हरष उपजावति है, १. मकरी २. भ्रमरी [सं० षट्पदी] । तजै को कनरसै जो छंद सरसति है। उदा० १. टूटे ठाट घुनघुने धूम धूरि सों जु सने,
-सेनापति
झींगुर छगोड़ी सांप बीछिन की घात जू । ४. बाम कर बार हार अंचल सम्हारै. करै
-केशव कैयो बंद कंदुक उछार कर दाहिने । छछारे-संज्ञा, स्त्री० [] छींटें, बूंदें।
-देव उदा० अंबर अडंबर सी उमड़ि घुमड़ि छिन छंदना-क्रि० सं० [सं० छंदस्] छंद रचना, छिछकै छछारे छिति अधिक उछार के । काव्य खंदबद्ध करना, रचना करना।
-सेनापति उदा० गणेश गुण गावत सुरेश शेष छंदत ।
छछिया-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छांछ] छाछ पीने -देव
का एक छोटा पात्र, दिअलिया। छकना-क्रिया अ० [पंजा०] पीना, नशे में चूर । उदा० ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि होना, २. खा पीकर तृप्त होना।
छाछ पै नाच नचावत।
-रसखानि उदा० छिनकु छाकि उछक न फिरि, खरोविषम
छटा-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छांटना] १. लोहे की छवि छाक ।
-बिहारी
बड़ी कलछी जिससे भड़भूजे दाना मूंजते है २. छकरा-संज्ञा, पु० [हिं० छकड़ा] लढ़ी, बोझ | बिजली ३, लड़ी [हिं० छरा, सं० शर] ढोने वाली बैलगाड़ी।
उदा० १. बिज्जु छटा सी छटालिये हाथ कटाक्षण उदा० तुलहि मिठाई गजल गावै । छकरा भर
छांटति है छबि छोहनि । -देव जनवासे पावें।।
-बोधा
२. गरज ना मेघ तोम तरजे ना छूटि छटा छकाना-क्रि० स० [हिं० छकना] १. परेशान
लरजें ना लौंग लला दारि दरारे ना करना, दुख देना २. नशा आदि से उन्मत्त
-नंदराम करना ।
३. मोतिन की विथुरी शुभ छटै । हैं उदा० परम सुजान भोरी बातनि छकाए प्रान
उरझी उरजातन लट। -केशव भावति न प्रान वेई हियरा अरें अरी।
छटि-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा] बिजली २. शोभा,
-घनानन्द कांति । छक्कर-संज्ञा, पु० [हिं० छक्का] दांव-पेंच। उदा० १. होन लागी कटि अब छटि की छलासी, उदा० सीसन की टक्कर लेत डटक्कर घालत
द्वज चन्द की कला सी तन दीपति बढ़ छक्कर लरि लपटै ।
---पदमाकर लगी।
-रस कुसुमाकर से छग-संज्ञा, पु० [सं० छाग] बकरा ।
छत-वि० [सं० छत] क्षय हुए, नष्ट ।
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छतना
उदा० गनती गनिबे तैं रहे, छत हूँ अछत समान । - बिहारी [हिं० छत्ता ] १. मधुमक्खियों घाव ३ पत्तों का बना
छतना - संज्ञा, पु० के रहने का घर २. हुआ छाता ।
उदा० १. दै पतियां कहियों बतियां श्रतना छतियां छतना करि डारी ।
— मुरलीधर २. सोहन सचाई बात करत रचाई दोऊ छबि सों, बचाई छीटें प्रोट छतनान की । छतौ वि० [सं० चत, अलक्षित ] अलक्षित, छिपा हुआ ।
-अज्ञात
उदा० छतौ नेहु कागर हिये, भई लखाइ न टाँकु, बिरह त उघय सु अब सेंहुड़ कैसो आंकु । —बिहारी छब - संज्ञा पु० [सं०] १. पत्ता २. पक्ष, चिड़ियों
का पंख ।
उदा० १. बिन हरिभजन जगत सोहै जन कौन नोन बिनु भोजन बिटप बिना छद के । --हजारा से छदन - संज्ञा, पु० [सं० छदि जीवित रहना ] भोजन, खाद्य पदार्थ ।
उदा० पट चाहे तन, पेट चाहत छदन, मन चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी । रहीम छनदे मंज्ञा, स्त्री० [सं० क्षणदा] १. रात्रि, रात २. बिजली ।
उदा० १. कंचुकी कसन देन, छाती उकसन देन, छन्दै गमाउ पिय हिय मैं हियोछन दे ।
-देव
छनभा--- संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षरणप्रभा ] बिजली, दामिनि ।
उदा० अम्बर
प्रोट कियें मुख चंदहि छुट छपै छनभा न छपाई । -केशव छनभा छहारी सुघन घहारी घटा, तामें छबि सारी हिमकारी उजियारी है ।
- भुवनेस छनरुचि -- संज्ञा स्त्री० [सं० क्षरण छवि ] बिजली, विद्युत् ।
उदा० छनरुचि सरि चमकति निसिमुख में ।
-दास
छनी - वि० [सं० श्राच्छादन] हॅकी हुई, अच्छादित, छिपी हुई ।
८३
)
छरना
उदा० मनी धनी के नेह की बनी छनी पट लाज । - बिहारी छपावन - संज्ञा, पु० [सं० षट्पद] भ्रमर, भौंरा । उदा० पिजर मंजरिका छहराइ रजच्छति छाइ —देव छपाइ छपावन । छबिछोरन - संज्ञा, स्त्री० [सं० छवि = हिं० छोर सीमा ] बहुत बड़ी सुन्दरता, असीम सौन्दर्य । उदा० ग्वाल कवि भाखे छबि छोरन छवैया बेस सुख में सनैया दुख हिय के हरैया तू ।
- ग्वाल
छमा - संज्ञा स्त्री० [सं० क्षमा ] क्षमा, पृथ्वी । उदा० सायक एक सहाय कर जीवन पति पर्यंत तुम नपाल । पालत छमा जीति दुअन बवंत 1 - कुमारमरिण छमाना — क्रि० सं० [सं० क्षमा ] सहन कराना । उदा० को लगि जीव छमावै छपा मैं छपाकर की -देव छबि छाई रहे री । छमी - वि० [सं० क्षम] क्षमतावान, शक्तिशाली । उदा० मदन बदन लेत लाज को सदन देखि,. यदपि जगत जीव मोहिबे को छमी है । - केशव छरकना - क्रि० अ० [हिं० छटकना ] अलग होना, निकलना, हटना, अलग-अलग फिरना । उदा० पातहू के खरके छरके घरकै उर लाय रहे सुकुमारी । - बोधा
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छरकवारे वि० [हिं० छड़] फुरतीले, तेज । उदा० छार भरे छरहरे छग ज्यों छरक वारे, छाए हैं छबिन, छायघन छाइयत हैं ।
गंग छरकी - वि० [सं० छल ] मोहित, प्रवंचित, धोखा खाया हुआ, छला गया । उदा० प्रीति पगी नटनागर की छरकी छरकी फिर चाक चढ़ी सी । - नंदराम खरबी-संज्ञा, स्त्री० [सं० छर्दि] वमन, के, उलटी उदा० छरदी करिकै मर्यो सो नीच । तातें पाई जसवंत सिंह
महा कुमीच । छरना- क्रि० प्र० [हिं० उछलना ] २. छलना ३. चूना, टपकना [सं० उदा० परे परंजक पर परत न पीके छुवत बिछौना पै छरति है । ३. दरि दरि चंदन कपूर चूर छरि छरि भरि भरि हिम मही महल लिखाइयत ।
- देव
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१. उछलना चरण] कर थरहरे -देव
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छरहरे
छाँह छरहरे-वि० [हिं० छड़] तेज, शक्तिशाली, २. छरे-क्रि० वि. [१] अकेले, एकाकी । क्षीणानी।
उदा० दास खबास प्रवास अटा, घन जोर करोरन उदा० छार भरे छरहरे छग ज्यों छरकवारे छाए। कोश भरे ही। ऐसे बढ़े तो कहा भयौ हे हैं छविन छायघन छाइयत हैं। -गंग
नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। छरहरी-वि० [हिं० छड़+हरा] क्षीणाङ्गी,
- भूधरदास तेज ।
छरौ-वि० [हिं० छली] छली, छलिया उदा० कारे लहकारे काम छरी से छरारे छरहरी
धोखेबाज। छवि छोर छहराति पीडुरीनने । -देव
उदा० भाजि चल्यौ छैल छरौ छोर पै छबीलिन छरहू-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा+हिं० हूँ] छटा,
ने छरी को उठाय धाय मारी उर-माल बिजली, विद्युत् ।
पै ।
-ग्वाल उदा० मघामेघ मुगदर सम लागति । छरह बर दवागि नर दागति ।
-बोधा
छलाले--संज्ञा, पु० [हिं० छलावा] भूत-प्रेत आदि
की वह छाया जो दिखाई पड़कर गायब हो दरा-संज्ञा, पु० [सं० शर] १. इजारवंद, नारा, नीबी २. छर्रा, गंडा, गले में पहनने का
जाती है ? उल्कामुख प्रेतं, अगिया बैताल । डोरा ३. माला की लड़ी ४. अप्सरा, परी
उदा० छांह न छुवत जा छबीली को छलाले कहि
छैल छलि ले गयो अटारी बनी विधि की । [संज्ञा स्त्री० सं० अप्सरा] उदा० १.बै गयो सनेह फिर ह गयो छरा को
-ग्वाल छोर फगुवा न दै गयो हमारो मन ले गयो,
छवा-संज्ञा, पु० [सं० शाव] १. पुत्र बच्चा, -पद्माकर
__ लड़का २. एंडी दिश]
उदा० १.ब्रज के बबा हैं कैछवा हैं छवि ही के रन २. रेसभ के गुन छीनि छरा करि, छोरत
रोस के रेवाह के लवा हैं श्री सवाई के । ऐचि सनेह रचावे। -देव
-पदमाकर ३. काह को चीर लै रूख चढ़ यो अरु काह
२. कारे चीकने ह्व कळू काहै केस प्रापही को गुंज छरा छहरायो। -रसखानि
तें। बढ़ि बढि बिथुरि छवा ली लागे ४. कहै कवि तोष करै केतिकौ कला को
छलकन। तऊ नंद के लला को छरा छरने न
-रसकुसुमाकर
छवान की छुई न जाति, शुभ्र साधु माधुरी। पावती। -तोष
----केशव छराए-संज्ञा, पु० [हिं० छलावा] जादू, माया दृश्य ।
छहरना-क्रि० अ० [सं० शरण] फैल जाना, उदा० लियौ दाँव हरि चखनि चौंध भरि, पाई बिखर जाना । अलग छराए लौं छरि ।
-घनानंद
उदा० छोहभरी छरी सी छबीली चिति माह फल बराक-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा बिजली+हिं०
छरीके छुवत फूल छरी सी छहरि परी । +क (प्रत्य॰)] विद्य त्, बिजली।
-देव उदा० छावै न छराक छिति छोर लौं छबीली,
नीरज तें कढ़ि नीर नदी छबि छीजत छीरज . छटा, छन्दन छपा में पौन डारना डहारैना
पै छहरानी।
-पद्माकर --नंदराम
छहरारी-वि० [सं० क्षरण] फैलने वाली छरिया-संज्ञा, पु० [हिं० छड़ी+इया (प्रत्य)]
बिखरने वाली। छड़ीबरदार, द्वारपाल ।
उदा० छनभा छहरारी-सुघन घहरारी घटा, तामें उदा० द्वार खरे प्रभु के छरिया तहें भूपति जान
छबि सारी हिमकारी उजियारी है। _ न पावत नेरे। -नरोत्तमदास
- -भुवनेस छरी-वि० [सं० क्षरण] विनष्ट, मुक्त छूटा हुमा । छाँह-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] कपटमय शिक्षा। २. प्रपंचित,छला गया।
मुहा० छांह छूना-पास जाना, पास फटकना । उदा० रोवत है कबहूँ हँसि गावत नाचत लाज की यथा-मुंह माहीं लगी जक माहीं मुबारक छाहीं छांह छरी सी।
- केशव छुए छरकै उद्यल।
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छाउड़े ( ८५ )
छिनछवि उदा० आलम अकेली तू मैं आजु कछु और देखी । छाली-वि० [?] निर्मल, स्वच्छ ।
औरै सुनी ओरै चालि औरनि की छाँह | उदा० अधरा मुसकान तरंग लसै रसखानि सुहाइ सों।
-पालम महाछवि छाली।
-रसखानि छाउड़े-संज्ञा, पु० [हिं० छौना] पशुओं का छावर-संज्ञा, पु० [सं० शाव] हाथी का जवान बच्चा, शावक ।
बच्चा । उदा० धरिये न पाउँ बलि जाउँ राधे चन्दमुखी उदा० गुज्जरत गुंज सिंह गज्जन के कुंभ बैठे छोटे वारों मन्दगति पै गयंद पति छाउड़े।
छौना छेके फिरै छरहरे छावरनि । -देव
-गंग छाक-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छकना] नशा, मस्ती
छावा-संज्ञा, पु० [सं० शावक] गज शावक, उदा० छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषम
। छोटा हाथी, हाथी का बच्चा। छवि-छाक ।
-बिहारी
उदा० दीनी मुहीम को भार बहादुर छाबो गहै छाटी-वि० [प्रा० छंटि] सिंचित ।
क्यों गयंद को टप्पर ।
-भूषण उदा० फहरै फुहारे नीर नहरै नदी सी बहै छहरै छिकरा-संज्ञा, पु० [बुं०] हरिण ।। छबीन छाक छीटिन की छाटी है।
छरकत छैल पात के खरके छिकरा लौं भगि -पद्माकर जाई ।
--बक्सी हंसराज छात-संज्ञा, पु० [सं० क्षत] चोट, घाव, जख्म ।
छिछि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छींटा] १. छींटा, बूंद उदा० रूप अघाति न छातनि देव, सुबातनि बातनि
२. फुहार,धारा। घूघट गोठनि।
--देव
उदा० १. प्रति उच्छलि छिछि त्रिकूट छयो। पुर छाद-वि० [सं० छादन] छाई हुई, फैली हुई
रावन के जल जोर भयो। -केशव २. पाच्छादित, छिपी हुई।
२. उड़ि स्रोनित छिछि प्रयास तट, पय कों उदा० नाभि की गंभीरता विलोकि मन भूलि जात,
कम ज्यौं पिचकारि छुट । सुरसरि सलिल के भ्रम छबि छाद री ।
-मानकवि -सिवनाथ
छिक-संज्ञा, पु० [?] चैन, पाराम, । छान-संज्ञा, स्त्री० [सं० छादन] छप्पर, छानी।
उदा० छाक छके छलहाइन में छिक पावै न छैल उदा० श्री वृषभान की छान धुजा अटकी लरकान
छिनौ छबि बाढ़ । .
-पद्माकर ते पान लई री।
-रसखनि छिड़ियाना-क्रि० अ० [देश॰] मचलना। छानमा-क्रि० सं० [सं० क्षरण] १. भेदना, छेद उदा० रस के निधान बसकरन बिधान कहौ प्राज करना, भेद करके पार करना २. बांधना।
इडियाने छिड़ियाने कैसे डोलौ हौ। उदा० प्रान प्यारे कंत, कित बसं हो इकंत, इत
-ठाकुर अंतक बसंत, तुम बिन डाई छाती छानि ।
-देव
छिद्र--संज्ञा, पु० [सं०] अवसर, मौका, अवकाश। छामता-संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षाम] क्षीणता,
उदा० तब तिहि समै छिद्र यह पाइ । रामपूत दुर्बलता, कृशता ।
यह बिनयो जाइ ।
-केशव उदा० छामता पाइ रमा ह्व नई परंजक कहा
छिनकना-क्रि० [अनु० छनछना] जलना, छनकरै राधिका रानी।
-दास
छना कर जलना। छाय-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छार] छार, मिट्टी रज
उदा० मैं लै दयी, लयौ सु, कर छवत छिनकि गौ २. व्रण, घाव [हिं० छात] ३. छाया।
नीरु। लाल तिहारौ अरगजा उर ह्व उदा० ब्रह्मादिक इंद्रादिक बंदना करत तिन, चरन
लग्यो अबीर ।
- बिहारी की छाय ब्रज छायी ही रहत हैं ।
छिनछवि-संज्ञा, स्त्री० [क्षण-छबि] बिजली,
-ब्रजनिधि विद्युत्। २. लाल पाग बाँधे, धरे ललित लकुट कांधे अवा० घूघट घटान छिनछवि की छटा सी छिति मैन सर साँधे सो करन चित छाय को।
ऊपर बिलोकिबै को मुकुंर मँजाइ ल । -घनानंद ।
-पद्माकर
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-देव
-देव
छिपन
छुहावनी छिपन--संज्ञा, पु० [हिं० छिपाना] गोपन, दुराव | उदा० १. प्रेम मतवारी, छवि छीते की खुमारी, २. कपट ।
छिति मुरछित डारी, नारी नारी में न उदा० जो पीय ब्याहि लायौ. तासों रोपी है छिपन
लहिये । सब लोक लाज लोपी, दुरनीति करी है। छीतना-क्रि० सं० [सं० क्षति] निदित करना
-ग्वाल कलंकित करना, बुराई करना। छिपिया-संज्ञा, पु० [देश॰] दरजी, कपड़े सीने उदा० कहै परताप पाये मोहन रंगीले स्याम नख वाला।
सिख देखि करि आनन छित रही। उदा० छिपिया को दूधभात खीचरी है करमा की
--प्रतापसाहि चक्करा रैदास जू चमार के खाये हैं।
छींद - संज्ञा, स्त्री० [हिं० छिनार] छिनार स्त्री, -ठाकुर
-चरित्र भ्रष्टा नारी, व्यभिचारिणी।। छियरा-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छोर] खूट, छोर .
उदा. जब तें छबीले ज के ईछन तीछन देखे, किनारा ।
ताछिन तैं छींद कैसे छंदनि करति है । उदा० जोतिष देख ले ऐसी कहै गठियाय ले अांचर
-सुन्दर के छियरा सों।
-ठाकुर छोबर संज्ञा, स्त्री० [देश॰] एक प्रकार का छिरद-संज्ञा, स्त्री० [?] हठ जिद।
कपड़ा मोटी छीट, वह कपड़ा जिसमें बेल बूटे उदा० छाल कों उढ़ाइ जल छोटै छिरकाइ नेक, छपे हों। नाग को छुवाइ याकी छिरद मिटाइदै । उदा० हा हा हमारी सौं साँची कही वह को हुती
-पद्माकर छोहरी छीबरवारी । छिरहरे-वि० [हिं० छरहरा] हलका, थोड़ा, छोर-संज्ञा, पु० [सं० छीर] पानी। कम ।
उदा० नल छोर छींट बहाइयो ।
-केशव उदा० छिरहरे जल जैसे दरी कमदकली. ऐसे छीव -वि. [?] उन्मत्त, मस्त । उरोजनि दीनी सुरुचि दिखाई सी।
उदा , छपद छबीले छीव पीवत सदीव रस, लंपट -गंग
निपट प्रीति कपट ढरे परत । ---देव छिहरना-क्रि० अ० [सं० क्षरण] छिछकारना
छुटना-क्रि० प्र० [हिं छूटना] चमकना, दीप्त छितराना, सींचना, पानी की छीटें देना।
होना, दिखाई पड़ना । उदा० मोहिलगी गरमी प्रति ही अति सीत उपाइ
उदा.-बीजु छुटै उछटै छबि देव छटै छिनु नाहि थकी करिकै हौ । को जल कोठरी मै
कटै दिन कैसे। छिहरै कवि तोष तही महि सीतल पैहौं । हरना--क्रि० अ० [हिं छुटना] छूटना,।
-तोष उदा. घूघट के घटकी नटिकी सुघुटी लटकी लटकी छीक--संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षय] नाश, क्षय ।
गुन गूंदनि । केहूँ कहूँ न घुरै बिळूरे बिचरै न 'सेख' व्यारे श्राजु कालि पाल चाल देखो आइ,छिन जुरै निचुरै जल बूंदनि ।
-देव छिन जैसी तन-छीजन की छीक है। -पालम
सुथरे छुरि केस छवानि लगें । छीजन। --क्रि, अ० [सं० क्षयरण] घटना, कमजोर
भृकुटी जुग चाप विसाल जगें। होना, दुर्बल होना ।
-सोमनाथ उदा० सखि जा दिन तें परदेस गये पिय ता दिन
छुइना-क्रि० सं० [हिं० छुवना] रँगना, रंजित ते तन छीजत है। -सुन्दरीसर्वस्व होना, छू जाना। छोड़ना-क्रि० सं० [सं० क्षीण] १. नष्ट करना उदा. कहि देव कहौ किन कोई कछू तबते उनके हटाना २. छीनना ३. छूना, स्पर्श करना ।
अनुराग छुही ।
-देव उदा० खेलि हैं ना हम फागुअली पै छली बली है छुहावनी- वि० [हिं० छोह =प्रेम, स्नेह] प्रिय, सिर के पट छीडै ।
--बेनी प्रवीन __ अच्छी, प्यारी। छीत--वि० [प्रा० छित्त] १. स्पृष्ट, स्पर्श किया उदा. यह लात चलावनी हाय दैया, हर एक कों हुमा, छुपा हुमा, २. प्रभावित ।
नाहिं छुहावनी है । सुनी तेरी तरीफ मिला
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वाल
छुहो
छोटै वनी की, हित तेरे सुमाल पुहावनी है।
द्रवित आनंदघन निरंतर परति नाहिन छति ।
- घनानन्द छुही- वि० [हिं० छुवना] १. सिंचित २. रंगी छरथा-संज्ञा, पु० [प्रा० छेड़ी] १. छेड़ी, गली, हुई रंजित।
छैला, सजीला, बाँका, शोकोन । उदा० त्यौं त्यौं छुही गुलाब सी छतिया प्रतिसिय- उदा० .. माजु बधावन, सून्दर बन घनस्याम राति ।
-- बिहारी
पियरवा अइली मोरे छेरवा । -घनानन्द कवि देव कहौ किन कोई कछू, तब ते उनके छेव-संशा, पु० [सं० छेद, प्रा० छेव] १. वार, अनुराग छही ।
-देव चोट, २. घाव ३. नाश, छेद ४ भावी कष्ट टूटा--- संज्ञा, पु. प्रा० छाडिया] पोत की कंठी ।
। या दुख । उदा० तिनके बीच बिचौली चमक अरु छूटा छवि
| उदा. तहीं मेव करि छेव तुरंगम ते गहि ारी। छाई। -बक्सी हंसराज
-सूदन दून-वि० [प्रा० छुन्न, सं. क्षुण्ण] शक्ति हीन, २. अरिन के उर माहिं कीन्ह यो इमि छेव शून्य, बेसुध २. क्लीब, नपुंसक ।
-भूषण उदा० ऊजरी सी छतिया की तिया बतिया करिक ३. कोसहीन जाको कुलभेव । ताको होय वेगि करि डारति छून री।
-तोष कुलछेव ।
केशव छूम-संज्ञा, पु. [हिं० छोम खोम] १. टोटका,
४. सूरति कहत गनती न मेरे औगन की. टोना, छोम, २. चिकना, कोमल [वि० सं०
बिनती यहै है सनं राखी इहि छेव जू । क्षोमा
-सूरति मिथ उदा० द्रोपदी की लाज काज द्वारिका तें दौरि छेहना-क्रि० अ० [सं० क्षय] क्षय होना, नष्ट पाए, छूम छल छाइ रहयो अचंभो अघाइय होना, समाप्त होना ।
-गंग
उदा० छहै कलेस सबै तनके मनके चहे हहै छूरि- संज्ञा, स्त्री० [प्रा० छुरिया] मृत्तिका, मनोरथ पूरे ।
- बेनी प्रवीन मिट्टी। .
छेहरा- संज्ञा, पु[प्रा० छा=अन्त-+-हिं० रा. उदा० डारि दै दूरि कपूर को रि में ढारि दै
प्रत्य 1 अन्त । बीजनो पीर को वार दै।।
-तोष
उदा० ब्रजमोहन नवरंग छबीले तिहारी बातनि छेक-संज्ञा, पु० [हिं० छेद ] '. कटाव, खंड,
घातनि कौन छेहरा।
- घनानन्द २. नोक ३. छेद सुराख ।
छैया - संज्ञा, पु० [हिं० छवना] १. पुत्र २. पशुओं उदा० पायो ना सहेट मैं छबीली वा छबीलो छैल
का बच्चा । छोलि गई छाती मैं छुरी को छेक ह्न गयो। उदा. १. बलि को बलैया, बलभद्र जू को भैया,
- नंदराम
ऐसो देवकी को छैया, छाड़ि और कौन छेटी-संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षिप्त, हिं० छेटा] बाधा
ध्याइये।
-गंग परेशानी।
२. हाथी कैसो छैया भई डोलति है दैया, इह उदा० चाल अटपेटी जात सखि लखि लेटी जात
कहा भयो मया या सयान कब प्राइहै। सकुचि सुझेटी जात छेटी जात सान की।
-सुन्दर -'हजारा, से छोई-संशा, स्त्री० [प्रा. छोइया]". छिलका, छेडी-संज्ञा, स्त्री० [देश.] १. छोटी गली २. ईख आदि की छाल २. दास, नौकर । बकरी [सं० छेलिका]
उदा० १. धोई ऐसी सूरत बिसूरत सी सेज बीच उदा० छेड़ी में घुसौ कि घर ईधन के घनस्याम पर
पड़ी वह बाल देखी छोई सी निचोई सी। घरनीनि पहँ जात न घिनात जू। -केशव
-बोधा छेत-संज्ञा, पु० [सं० विच्छेद] विच्छेद, वियोग । | छोटे-संशा, स्त्री० [हिं० चोट] घाव, व्रण, उदा. हिंडोरे भूलनि को रस पायी अंग-संग | चोट, आघात ।
सुख लेत । गौर स्याम जोबन माते सहि न । उदा. कह खींचि कम्मान को बान मारें, मृगा सकत छिन छेत ।
-घनानन्द । जात भागे लगीं पूर छोट। -चन्द्र शेखर
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छोनी ( ८८ )
जगार छोनी- संज्ञा, स्त्री० [सं० क्षोणी] १.समूह, श्रेणी, उदा० त्यों रसखानि गयौ मनमोहन लेकर चीन पंक्ति । २. पृथ्वी
कदंब की छोरी ।।
--रसखानि उदा० १.रस सिंगार को बीज मनोहर कै अलि छोनि छीन-संज्ञा, पु० [सं० शावक हिं० छौना बच्चा सुखारी।
-सोमनाथ लड़का। छोभक-संज्ञा, पु० [सं० क्षोभ] दुख देने वाले, । उदा० मानु करिबे की तुम सीख सिखवति--प्रानि राक्षस ।
कासौं करें मानु कहु मान है री काकी छौन उदा० छोभक छिज करि, विज करि वा बाम सों
-सोमनाथ विलास अद्भुत हास साहस जनाये हैं। छैल छौहैं-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छोह सं० क्षाभ छल छोभक छपाचर चुरैल आगे पीछे गैल चपलता, चंचलता तेजी गेल ऐल पारत नकीब से ।
-देव उदा० छाजति छीहैं अंगनि माहिं। छवा छबीले छोरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छोर = किनारा]
छुवे न जाहि ।
--केशव शिखर, चोटी।
जई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० जौ] १. अंकुर २. जौ । उदा० १. गरब गुरज पै चढ़ाई तोप कोप करि की जाति का छोटा अंकुर।
सौतिन जखीरा कियो जोबन जमा को १. निरखें परखें करखें उपजी अभिलाषनि लाख
-- कवीन्द्र जई।
-घनानन्द जगजाल-संज्ञा, पु० [हिं० जंजाल ] जंजाल जाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० जाती] चमेली की जाति बखेड़ा, झंझट, प्रपंच। का एक पुष्प, जाही।
उदा तृष्णाहू तिनूंका जगजाल जाल पूरयो जहां, उदा० जाई की सी माल मु लजाइ रही काहे तें
लगी लोभ लौंनी कौंनी भांति सुख पाय हैं। सु, जाइ जाइ हरि जू के हिये में खंगति है।
-सूरति मिश्र -आलम जगन्नाथ- संज्ञा, पु० [सं०] १. लगँड़ा-लूला पैर जकंदना-क्रि० अ० [हिं० जकंद ] कूदना, हाथ विहीन २.ईश्वर। उछलना ।
उदा० १.एक सूरदास दासी एक जगन्नाथ दासी एक उदा० सजोम जकंदत जात तुरंग । चढ़े रन सूरन
भृगुदास दासी ताकी एक प्राई है। रंग उमंग। -चन्द्रशेखर
-देवकी नंदन जकना- क्रि० अ० [हिं० जक] ठिठकना, भौचक्का जगभरा-संज्ञा, स्त्री० [सं०] विश्वम्भरा, पृथ्वी। होना, चकित होना, चकपकाना।
उदा० तब लगि रही जगंभरा, राह निबिड़ तम उदा. एकहि बार रही जकि ज्यों कि त्यों भौंहनि
-दास तानिक मानि महादुख ।
-देव जगा-संज्ञा, पु० [सं० यज्ञ] यज्ञ । जकित थकित व तकि रहे तकत तिलौंछे। उदा० जट्ट का जानहि भट्ट को भेद कुंभार का नैन ।
-बिहारी जानहि भेद जगा को ।।
-गंग खीरा-संज्ञा,पु० [अ० जखीरा] १.कोष, खजाना जगात-संज्ञा, पु० [जकात] दान, महसल, कर. २. संग्रह, ढेर, समूह ।
चुंगी।
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जज्जला
जमेजाम
उदा. हीरा मनि मानिक की काँच और पोतिन २. यमराज । को मोतिन की गात की जगात हौं लगायो
| उदा० १. कम न गोबिंद तें, जु जम ना त्रिलोक - रसखानि जाकी, न्हात जमुना में, ते न लेत जम नामै
--- ग्वाल जज्जला-वि० [सं० जाज्वल] ज्वलित, जलती
जमकातर-संज्ञा, स्त्री० [सं० यमनकर्तरी]
यम का छुरा या खांड़ा। उदा० कैबा भेख भिक्षुक की ड्योढ़ी बीच प्राइ पाइ
उदा. ज्याइ लई पिय प्याइ पियूष, गई जिय की सबद सुनाया दुपहर जज्जला मैं हैं ।।
जमकातर टूट सी।
-देव -दास जटना-क्रि० अ [हिं० जुटना] जुड़ना ।
जमविसा संशा, स्त्री० [सं० यमदिशा] यमराज उदा० करौ सु ज्यौं चित चरन जटै।।
__ की दिशा, दक्षिण दिशा । - घनानन्द
उदा. मलय समीर परलै कों जो करत अति जम
की दिसा तें पायो जम ही को गोतु है । जवुभूभुज-संशा, पु० [सं० यदु-भूभुज = राज
-भूषण यदुराज] यदुराज, श्रीकृष्ण ।
जमल-वि० [सं० यमल] युग्म, दो, जोड़ा । उदा. दूभुज पकरि जदूभृभूज सों जोरे, मुख
उदा० पात से उदर पर तेरी रोमराजी कैधौं जमल पीयुख निचोरे, चित चोरे स्रम सीकरें।
उरोजन को ठई मृदु बास है। -.देव
-बलभद्र
जमान-संशा, स्त्री० [अ० जमा] पूजी, मूलधन जपटना-क्रि० प्र० [हिं० झपटना ] झपटना,
२. धन, रुपया पैसा । टूटना ।
उदा० महाबीर सत्रसाल नंदराव भावसिंह हाथ मैं उदा. भूषन भनत काली हुलसी असीसन की सीसन
तिहारे खग्ग जीति का जमान है ! कौं ईस की जमाति जोर जपटैं।
-मतिराम -भूषण जमजाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० यम- जाया] यम
जमींदोज-संशा, पु० [फा०] १. एक प्रकार का राज की स्त्री, मृत्यु ।।
खेमा २. धराशायी होना, गिरना, नीचे की ओर
प्राना (क्रि०) । उदा० जमजाई जामिनी जुगत सम जाती क्यों।
-देव उदा० १. रगमगे मखमल जगमगे जमींदौज और
सब जे वे देस सूप सकलात हैं। ---गंग जफरी --- संज्ञा, स्त्री० [अ० जफर] विजय प्राप्त
२. अजब अनठे बिधि किलेद्व बनाये हैं सो करने वाली, विजयिनी।
ऊँचे होत मावत न होत जिमीदोज हैं। उदा० नैननि निहारि जानी रंभा रति मनजानी, उर जानी पाई अति प्रानन्द की जफरी ।
-ग्वाल -बेनी प्रवीन
जमुरंद- संज्ञा, पु० [फा० जमुर्रद] एक कीमती जफा-संज्ञा, स्त्री० [फा० ] अत्याचार, जुल्म,
रत्न, पन्ना ।
उदा. बिलौर की बारादरी जगै जोति जमुर्रद की सख्ती । उदा० बात उजागर सोच कहा जो घटेगी जफा
कुरसी बजै बीन ।
-पजनेस सो कढ़ तखरी में ।
-ठाकुर
जमूरे-संज्ञा, स्त्री० [फा० जमूरक] एक प्रकार जबत-संशा, पु० [अ० जाब्ता] कानून, कायदा,
की छोटी तोप । व्यवस्था, नियम ।
उदा० लिए तुपक जरजार जमूरे। -चन्द्र शेखर उदा० दारासाह बजत रन छाज्यौ । जबत पात जमेजाम-संशा, पु० [फा० जामजाम] एक विशेष साही को मांज्यी।
-लालकवि प्याला जिसे ईरान के शासक जमशेद ने संसार जबराना-क्रि० स० [फा० ज़बर] जोर दिखाना, का हाल जानने के लिये बनाया था। ऐसा बल प्रदर्शित करना ।
अनुमान है कि उस प्याला में कोई मादक वस्तू उदा० सोच बड़ो मन में उपज्यो तन मैं बड़ी पिलायी जाती रही, जिसे पीकर पीने वाला बिह्वलता जबरायो।
___ -रघुनाथ वास्तविक बातें बता देता था। जम--संज्ञा, पु० [अ० ज़म] १. निन्दा, बुराई उदा या जमेजाम या सीसा सिकन्दरी या दुरवीन
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जमेस
जलूस लै देखिबो कीजै ।
-पजनेस
स्तम्भन] जल के प्रभाव का स्तंभन या रुकावट, जमेस - संज्ञा, पु० [सं० यम+ईश] यमराज ठहराव । मृत्यु का एक देवता।
उदा० बिरह बिथा जल परस बिन बसियतू मो उदा० तारक जमेस की, विदारक कलेस की है,
मन ताल । कछु जानत जल थंभ बिधि तारक हमेस की है, तनया दिनेस की।
दुर्बोधन लौं, लाल ।
-बिहारी -ग्वाल जलप-संज्ञा, स्त्री० [सं० जल्प] कथन उक्ति, जर-संज्ञा, पू० [सं० ज्वर| ज्वर, बुखार, ताप २. प्रलाप बकवाद । उदा० बिछुरै ते बलबीर धरि न सकति धीर, उपजी उदा० काल की कुमारी सी सहेली हितकारी लगे । बिरह पीर ज्यौं जरनि जर की।
गात रसबारी मानो गारी की जलप है। -आलम
-दास जरजार--संज्ञा, स्त्री० [सं. ज्वाल जाल] एक
२. जल्पति जकाति कहरत कठिनाति माति, प्रकार की तोप ।
मोहति मरति बिललाति बिलखाति है। उदा० लिए तुपक जरजार जमूरे। --चन्द्रशेखर
- दास जरब-संशा, स्त्री० [फा. जरब] चोट, पाघात ।
जलपना-क्रि० अ० [सं० जल्पन] डींग मारना, उदा० जोबन जरब महा रूप के गरब गति, मदन
प्रलाप करना, व्यर्थ की बात करना । के मद मद मोकल मतंग की।
उदा० कबि आलम आलस ही जलपै किलक कुच -मतिराम खीन भई कलता।
- आलम जरवाफ- संशा, पु० [फा० ज़रबफ़त] जरी का | जलाक
। जलाक-संज्ञा, स्त्री० [?] लू, भीषण गरमी । काम किया हुआ रेशमी वस्त्र ।
उदा० कहै पद्माकर त्यों जेठ की जलाकै तहाँ उदा० भूमत झुलमुलात भूलें जरबाफन की जकरे
पावै क्यों प्रबेस बेस बेलिन की बाटी है। जंजीरें जोर करत जिकिरिहै। -भूषण
-पद्माकर अरबीला-वि० [फा० जरब+ईला (प्रत्य॰)] जलाजले--संज्ञा, स्त्री० [हिं, झलाझल] झालर । चमकीला, भड़कीला ।।
उदा० सोने की सिंदूख साजि सोने की जलाजले जु उदा० नीले जरबीले छुटे, केस सिवार समाज । के
सोने ही की घाँट घन मानहु बिभात के। लपट्यो बृजराज रंग, कै लपट्यो रसराज ।
-केशव -भूपति कवि
जलाहल- संज्ञा, पु० [देश॰] दूर तक प्रसरित जरा-संज्ञा, पु० [सं० जाल] जाल, सूत का वह जल, अत्यधिक जल । फंदा जिसमें मछलियां फँसाई जाती हैं।
उदा० 'द्विजदेव' संपा की कुलाहल चहूँघा नभ, सैल उदा. दीन ज्यों मीन जरा की भई, सुफिरै फरक
ते जलाहल कौ जोगु उमहतु है। -द्विजदेव पिंजरा की चिरी ज्यों ।
-देव
वे नद चाहतु सिंधु भये अब सिंधु ते ह्व हैं जरूल्यो-वि० [सं० जटिल] गभुमारे बाल वाले।
जलाहल भारे ।
-तोष कवि उदा० आनंदघन चिरजीवौ महरि को जीवन-प्रान
जलूलत-वि० [अ० जलालत] तेज । __जरूल्यौ हो।
-घनानंद
उदा० फैलत अनु फूलत भरै जलूलत चित नहि जरैलुन--वि० [हिं० जलना] जलने वाले, ईर्ष्यालु
भूलत रँग रँग के।
-पद्माकर उदा० बोधा जरैलुन के उपहास अंगेजु कै कुँजनि
जलस-वि० [फा०]१. तड़क-भड़क २. ज्योति, जाइबे ही है।
-बोधा
प्रकाश, चमक ३. सिंहासनारोहण, धूमधाम की जरौट-वि० [हिं० जड़ना] जड़ाऊ ।
सवारी । उदा० कोउ कजरौट जरोट लिये कर कोउ मुरछल
उदा० १. भूषन जवाहिर जलूस जरबाफ जाल, कोउ छाता ।
-रघुराज
देखि देखि सरजा की सुकवि समाज के । जलजाल-संज्ञा, पु० [सं०] समुद्र, सागर ।
..- भूषण उदा० जलजाल काल कराल माल उफाल पार
आपुही सुनार घर जाइ के जड़ाऊदार धरा धरी।
-केशव
जेवर जलूस के बनावने बतावती । जलथंभ - संज्ञा, पु० [सं० जलथंभ-रुकावट-1
-नंदराम
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जलेबदार
(
३. भूपति भगीरथ के जस की जलूस, कंधौ प्रगटी तपस्या पूरी कँधो जन्हुजन की
- पद्माकर
जलेबवार संशा, पु० [फा०] मुसाहब उदा० प्रायो है बसन्त ब्रज ल्यायो है लिखाइ आली, जोन्ह के जलेबदार काम को करोरी है ।
-श्रालम
-
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जव संज्ञा, स्त्री० [सं०] तीव्रता, तेजस्विता, स्फूर्ति, शक्ति ।
उदा० देखिये जवन सोभा घनी जुगलीन माँझ नाम हूँ सौं नाती कृष्ण केसी को जहाँ न है । -सेनापति हाथ का एक अनेक आकृतियाँ गुथी
जवा - संज्ञा, पु० [सं० यव] आभूषण जिसमें नौ की रहती हैं । उदा हाथन लेत बिरी लटकें मखतूल के फूँदनि जोर जवाके । गंग जवारे संशा, पु० [० जवाल] निकट, पास २, जंजाल प्राफत ३. जौ के हरे अंकुर । उदा० देखे मतवारें गजराज न जवारें आवै, दई के सँवारे हो सवारे क्यों न भागहू गंग जबाल संज्ञा, पु. [अ० जवाल] प्राफ़त, बला, जंजाल ।
उदा० ज्वाल सों कला निधि जवाल सी जोन्हाई जोति सीसा को प्रवास यहाँ दावा सो दगत है । - चन्द्र शेखर जवोले- वि० [सं० जव = स्फूर्ति, शक्ति + हिं० ईला प्रत्यय ] शक्तिशाली, तेजस्वी, स्फूर्ति,
-
-
सम्पन्न ।
उदा० नागरि नबेली नट नागर जवीले छैल कीन्ही चतुराई कोटि काटन कलेस की ।
-
—नंदराम जसन – संज्ञा, पु० [फा० जशन] १. हर्ष, आनन्द
२. उत्सव ।
उदा० १. विष से बसन लागे श्राणि से प्रसन जारें जोन्ह को जसन कला मनहु कलप है ।
-दास श्रयश,
६ १
जसना संज्ञा, अपयश |
पु० [सं० न + यश ]
उदा० सुभ माल प्रसून फनी इक सौं रिपु मित्र समान जसौ जसना । — सूरति मिश्र जहना- क्रि० प्र० [सं० जहन ] त्यागना, छोड़ना
२. नाश करना ।
)
जामक
उदा० कहै पद्माकर परेहू परभात प्रेम पागत परात परमातमा न जहिये । पद्माकर जाँगरे - संज्ञा, पु० [देश० जाँगड़े] कीर्ति गायक, भाट, चारण ।
--
उदा० जहँ जाँगरे करखा कहें अति उमँगि आनँद को लहैं । -- पद्माकर
जाग
१. जागृति,
-संज्ञा स्त्री० [सं० जागृति] जगना, उत्पन्न होना - यज्ञ । उदा० १. रघुनाथ मोहन विदेस गये जादिन सों तादिन सौ गुजरेटी बिरह की जाग में । - रघुनाथ चमकना,
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,
-
जागना - क्रि० सं० [सं० जागरण ] प्रकाशित होना ।
उदा० तहाँ जाइ सखियन के सँग पवि सोभा निरखन लागी । चन्द्रक चूर समान बालुका भानु किरनि सौं जागी । - सोमनाथ
-
―
जाजर वि० [सं० जर्जरित] छेददार | उदा० काजर की रेख उर जाजर करति है ।
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- श्रालम
जाति-संज्ञा स्त्री० [सं०] पंक्ति, समूह, वर्ग । उदा० आँखै कुमोदिनि सी हुलसी मनि दीपनि दीपक दान की जाति सी । —रघुनाथ जादमा -संज्ञा, पु० [सं० यादव ] यादव, अहीर । उदा० भारी विषधर भोगी द्व जीभन बोल डोलै मी ह्रममा की जादपा की पाँच प्रा चली । - देव जान - संज्ञा, पु० [सं० यान] रथ, यान । उदा० अजित अजान भुज भुजग भोजन जान, दुभुज सम्हारो, जदु भूभुज भुलिख्या हों । — देव जापता-संज्ञा, पु० [अ० जाब्ता ] राजदरबार का कायदा, नियम ।
उदा
-
श्राये दरबार बिललाने छरीदार देखि, जापता करनहार नेकहू न मनके ।
―
जाबुक संज्ञा, पु० [हिं० जावक ] महावर । उदा० सखियानि सो देव छिपे न छिपाये लग्यौ अँखियानि मैं जाबुक सो । — देव जामक- -संज्ञा, पु० [सं० यामिक] १. रक्षक २. प्रहरी ।
-
उदा० १. कवि तो वर करि भारती भाय
- भूषण जावक,
--
जस जामक कौ करुणा भरें । - कुलपति मिश्र
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जामा ( ६२ )
जिल्लो जामा-संज्ञा, पु० [फा० जाम = वस्त्र] १. शरीर । जावक-संज्ञा, पु० [यावक] महावर, पैरों में २. वस्त्र ।
लगाया गया लाल रंग। उदा० १. जीरन जामा की पीर हकीम जी जानत उदा० कंचुकी सेत में जावक बिंदू बिलोकि मरै है मन की मनभावत ।
-बोधा ___ मधवानि की सूलन ।। -रसखानि जामिक - संज्ञा, पु० [सं० यामिक] प्रहरी, पहरा । जाहिवो-क्रि० प्र० [हिं० जाना] जाना, पहुँचना देने वाला।
प्रकट होना। उदा० नपुर रक्षाजंत्र मन लोचन गुनगन हार।
उदा० कोऊ कहै जाहिवो कठिन मृगराज सों ही जाचक जस पाठक मधुप जामिक बंदनमार।
कोऊ कहै ढाहिबो कठिन सत्रु गेह को । .. केशव
- ग्वाल जामिकी-संज्ञा, स्त्री० [फा० जामगी] पलीता,
जिजाना-संज्ञा, पु० [सं० ययाति] ययाति की वह बत्ती जिससे तोप के रंजक में आग लगाई
स्त्री, देवयानी, शुक्राचार्य की कन्या जो ययाति जाती है।
के साथ ब्याही गई थी। उदा० रंजक दै छाती धरी, जलद जामिकी बारि।।
उदा० कस्यप के तरनि, तरनि के करन जैसे, उदधि - चन्द्रशेखर
के इंदु जैसे भए यों जिजप्तता के । -गंग जामिनी रमन - संज्ञा, पु० [सं० यामिनीरमण] |
जिटिना-क्रि० अ० [हिं० जड़ना] जड़ना । चन्द्रमा ।
उदा. कन कन भरयो, सोई कन कन भरयो देव, उदा० तरनि मैं तेज बरनत 'मतिराम' जोति
जनु जगमगत जवाहिर जिटि रह.यो । जगमग जामिनो रमन मैं बिचारिये ।
- देव -मतिराम जितवना-क्रि० सं० [हिं० जताना] बताना, जाय-संशा, स्त्री॰ [सं० जाती] १. चमेली की
जताना । जाति का एक पुष्प, जाही २. मालती।
उदा चितवत, जितवत हित हिये, किय तिरीछे उदा० १. कर सिंगार बैठी हती जाय फल लिये
नैन । भीजै तन दोऊ कॅ4 क्यौ हूँ जप हाथ । पर बर मन ही मैं रहै कब घर
निबरैन ।
-बिहारी पावै नाथ ।
- मतिराम
जिरह-संज्ञा, स्त्री॰ [अ० जुरह] हुज्जत, पेंच जायन-संज्ञा, स्त्री॰ [सं जाया+-हिं० न]
खुचुर । विवाहिता स्त्री, पत्नी।
उदा० और प्रबलनि को बखान कहा कीजै यह बात उदा० जोइ जोइ जायन को भायन भयेई रहे. लोयन लगालग में वपुष बिसारेई ।
सुनि लीजै न कहति हौं जिरह की।
-रघुनाथ - ग्वाल
जिरी-संज्ञा, स्त्री० [अ० जिल्लत] १. दुर्गति, जारि-संज्ञा, पु० [हिं० जाल] जाल, पाश ।
दुर्दशा, कठिनाई २. अपमान, तिरस्कार । उदा० तहँ धीवर हो ब्रजराज गयो । मुरली स्वर
उदा० १. जानि कहावत है जग में जन जाने नहीं पूजन जारि छ ।
-बोधा जारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० जार] १. व्यभिचार,
जम फॉसि जिरी को।
-देव पर स्त्री गमन २.जाल [संज्ञा, पु.]।
जिलाहे-संज्ञा, पु० [अ०जल्लाद] अत्याचारी, उदा० १.पाप कर जारी हमैं जोग जरतारी भेजी. जुल्मी । देई कहा गारी भलौ चीकनो घड़ा भयो। उदा० ज्वाला की जलूसन जलाक जंग जालिम की
-ग्वाल
जोर की जमा है जोम जुलम जिलाहे की। २. कंज कितै अंजन ये खंजन हैं जारी के ।
-पद्माकर -दुलह ! जिल्ली-सश
जिल्ली-संज्ञा, स्त्री० [सं० झिल्लि] १. चमक, जालदार-वि० [फा० जालदार] चमकदार, चिलक २. पीड़ा, टीस, चिलकन । चमकीला, प्रकाशमय ।।
। उदा० १ चक्रह तें चिल्लिन तें प्रल की बिजुल्लिन उदा. नीलम के हार जालदार की बहारकर सारी
तें, अम-तुल्य जिल्लिन तें जगत उजेरो सनी सोसिनी सँभारि कै करार पै।
-पद्माकर --ग्वाल २. कैसे ब्रजनाथ बिनु पावस बितैये जहाँ,
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जींगन
जुरो
केशव
जिल्ली सौं चहूँघा गन झिल्ली के झन- । पति-स्वामी] समुद्र, वारिधि । झनात।
-सोमनाथ उदा० सायक एक सहाय कर जीवनपति पयंत । जींगन-संज्ञा, पु० [हिं० जुगुन] जुगुन, बरसात
तुम नृपाल ! पालत छमा जीति दुमन के समय दिखाई पड़ने वाला एक कीड़ा, जिसके
बवंत ।
-कुमार मणि - पृष्ठ भाग में चमक होती है।
जुबाव-संज्ञा, पु० [अ० जबाद] एक सुगंधित उदा० दसहूँ दिसि जोति जगामग होति, अनूपम
पदार्थ, जिसे मुश्क बिलाव कहते हैं। जींगन जालन की ।
-गंग
उदा० कवि केसव मेद जुबाद सों मांजि इते पर बिरहजरी लखि जीगननि कहयो न उहिक
प्रांजे मैं अंजन दै। बार ।
-बिहारी जुमकना-क्रि० अ० [हिं० जुमकना] डटना, सटना, जीतब--संज्ञा, पु० [हिं० जीना] जीवन, जिदंगी। पास-पास होना। उदा० रूप की निकाई देखि हौं तो भाई धाई उदा० थिरकत थिरकि चलत अँग-अँगनि । जीतत कान्ह, ऐसी जुवती के पाएँ जीतब को फलु
जुमकि पौन-मग संगनि । -- पद्माकर
-आलम जुयती-संज्ञा, स्त्री० [सं० ज्योति] ज्योति जीरन-वि० [सं० जीर्ण] दुर्बल, क्षीण ।
प्रकाश, उजाला । उदा० जीरन सी जो अहीर की छोहरी, पीर अधीर
उदा० एक समै तिय साहि की सेज चली जयती परी रहै ठाढ़ी । दोहरी हगई बेनी प्रवीन
करि थारन कौं। मुकुताहल कंठ तें टूटि मनौ, हरी दीपति देह में काढ़ी ।
परयो सु लगी तिय नेकु निहारन कौं। -बेनी प्रवीन
-गंग जील-संज्ञा, स्त्री० [हिं० जिला] राग विशेष । | जुर-संज्ञा, पु० [सं० ज्वाल] लपट, लौं, प्रांच उदा. जील की गीति सो सील की रीति सी. पील
२. ज्व र । की चाल सी नील की चूनरी। -तोष उदा. देव जो पान कछू मुने कान तौ, जारौ कुबो प्राखर सो समुझो न परै मिलि ग्राम रहे
लनि के जुर सों।
-देव तजि जील परे की।
-रघुनाथ जुरझना-क्रि० अ० [सं० ज्वल्] ज्वाला मैं, झांइ झांइ झिकरत झिल्ली धरि जील अरु
जलना । को गनै अनंत बन जीव के रवन कै। उदा० अब या ही परेखें उदेग-
भर्यो दुख-ज्वाल -सोमनाथ पर्यो जुर# मुरझे।
-घनानन्द जीलना-क्रि० सं० [अ० जिल्लत] अनादर जुरना-क्रि० अ० [देश॰] १. अँगड़ाई लेना, करना, बेइज्जती करना, तिरस्कार करना, इर्ष्या आलस्य में अंग तोड़ना । .. मिलना, भेंट होना, करना ।
प्राप्त होना, [हिं० जुड़ना] । उदा० यहि बाँसुरी मैं हरि मेरोइ नाउँ, सुनै सब
उदा० १. झुकि झुकि झपकौंहैं पलनि फिरि फिरि गाउँ क्यों जीलतु हैं। -बेनी प्रवीन
जुरि जमुहाय ।
-बिहारी जीली--वि० [सं० भिल्ली] १. स्वर, राग विशेष
२. बिधु की कला बध गैलन में गसी ठाढ़ो २. प्रकाश [हिं० उजेला]
गुपाल जहाँ जुरिगो। -पजनेस १. झिल्ली ते रसीली जीली, रांटींहू की रट जुराफा-संज्ञा,पु० [अ० जुर्राफा] अफरीका का लीली ।
-केशवदास एक पशु जो अपने जोड़े से अलग होने पर मर २. प्यारी पिया की तियानि में राजित जैसे जाता है। अंधेरे मैं जाहिर जीली।
! उदा० नूतन बिधि हेंमत रितु जगत जुराफा कीन । जीवक - संज्ञा, पु० [सं०] १. सेवक २. सँपेरा
-- बिहारी ३. प्राण धारण करने वाला।
आयौ अब जाडौ जग करत जुराफा सौ । उदा० १. सेनापति जासौं जूवजन सब जीवक हैं
-ग्वाल कवि अति मंद गति चलति रसाल है। जुरी-वि० [सं० ज्वर] ज्वर ग्रस्त, बुखार से
-सेनापति - पीड़ित । जीवनपति-संज्ञा, पु० [सं० जीवन= पानी+ उदा० कबहूँ चुटकि देति चटकि खुजावौ कान,
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जुरी
जेहरि मटकि ऐंडात जुरी ज्यों अँभात तैसे हो ।
__ मनि कुडल जेटी।
-देव -केशव
जेठाई -संज्ञा, स्त्री० [हिं० जेठ] बड़ाई, जेठापन, जुर्रा-संज्ञा, पु० [फा०] नरबाज, एक पक्षी जो
गुरुता, मर्यादा । चिड़ियों पर आक्रमण करता है।
उदा० तोरी न जाइ जेठाइ सखीन को, देव ढिठाई उदा० जुल्फ बावरिन को लखि जुर्रा। -बोधा
कर नहिं थोरी।
-देव जुलकर्न-संज्ञा, पु, [?] सिकन्दर नाम का जेब -संज्ञा, स्त्री० [फा० जेब] सुन्दरता, प्रसिद्ध युनानी बादशाह ।
सौन्दर्य । उदा० जो न लई जुलकर्न जुधिष्ठिर, जो रबि के उदा० जोबन जेब जकी सो कलारि छकी मद सौं रथ चक्र न थापो। बामन के पग तें जू
झुकि भूमति डोल ।
-देव बची महि, सो महि मान महीपति मापी। जेर-वि० [फा॰] परास्त, पराजित ।
-गंग | उदा० टेर की जो ताकी बिपता को गहि जेर की जलहाल-संज्ञा, पु० [सं० छल । फा० हाल]
है, बेर सी लुटावै वीर सम्पति कुबेर की । धोखे की दशा, धोखाधड़ी, प्रवंचना ।
-बलदेव उदा० जाल की अोढ़नी लाल, बटोही बिहाल करै, जेरी–वि० [फा० जेर] १. परास्त परेशान २. जुलहाल जुलाहिनि ।
-देव
जकड़ा हुआ, बँधा हुआ ३. जेवर, रस्सी [संज्ञा, जन-वि० [सं० जीर्ण] पुराना, जीर्ण ।
स्त्री०, हिं० जेवर] । उदा० तरुबर जून ज्वान अरु नये । मखमल जर- उदा० २. चित्र में चितेरी है कि सुन्दर उकेरी है बाफनि मढ़ि लए।
-केशव
कि जंजिरन जेरी है ज्यौ घरी लौं भरतु जप-संज्ञा, पु० [सं० द्यूत] जुमा, द्यूत ।
-सुन्दर उदा० सुन्दरताई कौं जीतत जप मैं, हारत हैं मन
३. कैसे करिय भरिय को लौं कुल को कानि से धन भारे।
-नागरीदास जैजर जेरी सों।
-घनानन्द जूमना-क्रि० प्र० [अ० जमा] जमा होना, इकठ्ठा जेल-संज्ञा, पु० [फा० जेर] जंजाल, परेशानी होना, एकत्रित होना ।
का काम, बंधन । उदा० काहु पाय आहट न पायो कहा कहौ भटू उदा० जिय गल डारि जेलनि । अजहँ समुझि रघुनाथ की दोहाई चेटकसो जूमिगो ।
तजि मूरख पेलनि । - रघुनाथ
रूप साँवरो साँचु है सुधा सिंधु में खेल लखि जूरी-संज्ञा, पु० [?] समूह ।
न सके अंखियाँ सखी परी लाज की जेल । उदा० धन अरु बिद्या सब सुख पूरी । सेबै सदा
-मतिराम भक्त को जूरी ।
-जसवंत सिंह जेलि-संशा, स्त्री० [फा० जेर] जंजाल, बन्धन, जेउर--संज्ञा, पु० [फा० जेवर] आभूषण, हैरानी, परेशानी । गहना ।
उदा० लोक प्रौ वेद दूहुनि की जेलि सो पेलि के उदा० काछ नयौ इकती बर जेउर दीठि जसोमति
प्रेमहि में मिलिजैहै ।
-तोष रांज करयो री ।।
- रसखानि जेवन - संज्ञा, पु० [फा० जेब- सौन्दर्य] सौन्दर्य जेट-संज्ञा, पु० [देश॰] दोनों भुजाओं में भरने राशि, शोभाराशि । की क्रिया । मुहा० जेटभरन किसी व्यक्ति या वस्तु उदा० सेवन उचित नर देवन अनोखी यह जेवन को दोनों भ्रजात्रों के बीच में समा या भर लेना,
की मूल प्यारी मेवन की बेल है अँकवार लेना, भेंटना ।
-ग्वाल उदा० भूलत नहि भटू कैसेहूँ भरनि सुपलकनि | जेहरि संज्ञा, स्त्री० [देश॰] पायजेब पैर में जेट की ।
-घनानन्द पहनने का एक भूषण । यारी मोरी चोट भरें। बिनु संके मेंटे, उदा० जेहरि को खटको जबही भयो सुन्दर देहरी भरि मरि जेटैं।
-सोमनाथ प्रानि अटा की, ।
--सुन्दर जेटी--वि० [सं० जटिल] जटित, जड़ा हश्रा ।
जेहरि मेरी धरै नित जेहरि, तेहरि चेरी के उदा० नापिका में झमकै मुकुता, श्रुतिह झुमकी
रंग रचे री।
- देव
-दास
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जैतिवार
ज्या
ज तिवार-संज्ञा, पु० [हिं० जैत + वार] विजयी, | जोयसी-संज्ञा, पु० [सं० ज्योतिषी] ज्योतिषी । जीतने वाला।
| उदा० फिरि हुलस्यो जिय जोयसी समुझयो जारज उदा० इन्दु बार-बार देति बकसीस जैतिवारन को
जोग।
__-बिहारी बारन को बाँधे जे पिछारी दुरे बचिकै । जोर--संज्ञा, पु० [?] डोर बाँधने का बंद जो
-देव
जेवर में लगा रहता है। जैनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० विजयिन्] विजयी
उदा० हाथन लेत बिरी लटकै मखतल के फंदनि (जयिनी)।
जोर जवा के।
-गंग उदा०
जोलना-क्रि० अ० [सं० ज्वल] जलना, संतप्त इन्दु रविचन्द्र न फणीन्द्र न मुनीन्द्र न नरिन्द्र न
होना । नगोन्द्र गति जानै जग जैनी को।
-देव
उदा० फागु के प्रावत जैसी दसा भई सो रधुनाथ बान सों मैन कटाक्ष सों नैन सोये जग जैन
सुनौ मन जौल। बिख्यात हैं दोऊ । -- रघुनाथ
--रघुनाथ
जोला-वि० [हिं० जोड़] जोड़ा हुप्रा । जैयद--वि० [अ० जैयिद] प्रचण्ड, धुरंधर, बहुत
उदा० करम करोरा पंच तत्वन बटोरा फेरि ठौर बड़ा।
ठोर जोला फेरि ठीर ठौर पोसा है । उदा० जम को जहर, मानो जैयद कहर भयो, हहर हहर चित्रगुप्त के करेजें होत । -ग्वाल
-पद्माकर जैरज--संज्ञा, पु० [!] पिंडज, गर्भ से जीवित
जोल-संज्ञा, स्त्री० [सं० ज्वाला] ज्वाला, आग, उत्पन्न होने वाला जीव ।
अग्नि । उदा० जैरज, अंडज, स्वेदज प्रौ उभिझझ चहुँ
उदा० फागु के प्रावत जैसी दसा भई सो रघुनाथ जुग देव बनाई। ..
-देव सुनौ मन जोलै ।
--रघुनाथ जोगमाया-संज्ञा, स्त्री० [सं०] लदमी ।
जोशन-संज्ञा, पु० [फार.1 जिरह, कवच । उदा० जोगीस ईस तुम ही यह जोग माया । उदा० चलत भई चकचौंध बाँधि बखतर बर
-केशव जोशन ।
-केशव जोगीस-संज्ञा, पु० [सं० योगीश] शंकर, जोह--संज्ञा, स्त्री० [हिं० जोहना-देखना] दृष्टि महादेव ।
आँख । उदा० जोगीस ईस तुम हौ यह जोगमाया । उदा० श्रीपति सुकवि महावेग बिन तुरीफीको,
-केशव
जानत जहान सदा जोह फीको धूम को । जोट-संज्ञा, स्त्री० [सं० योटक हिं० जोड़ा]
-श्रीपति नायिका, सहचर ।
जोगरी-संज्ञा, पु० [?] घोड़े का एक दोष । उदा० चंदन प्रोट करै पिय जोट, पै अंचल प्रोट दृगंचल मूदै ।
-देव
उदा० राते प्रोठ जौगरीहीन । राती जीभ सुगंधनि जोते-संज्ञा, पु० [सं० ज्योति] तेज समूह, तेज
लीन ।
-केशव स्विता की राशि ।
जौर-क्रि० वि० [फा० जौर] १. आवेश में, वेग उदा० ए ही सुनि धाई, सूखदाई तें मिलन हेतू, पूर्वक २. जुल्म, अत्याचार [संज्ञा, पु०1। प्राइगे तहाँई, कन्हाई अंग जोतें ही ।
उदा० १. चौंरे कलगी धरै, दौर बारिधि तर, -ग्वाल
जोर चढ़ि लरै को इतहि भावै । जोम--संज्ञा, पु० [अ० जोम] गर्व, अहंकार-उमंग
-देव उत्साह, जोश ।
२. नव नागरि तन मुलक लहि जोबन उदा० सखि, नैनन को जनि जोम करो, इनके सम
आमिर जौर। -
-बिहारी सोहत कंज बनो।
-दूलह ज्या--संज्ञा, स्त्री० [सं०] प्रत्यंचा, धनुष की जोयत--संज्ञा, पु० [?] एक सुगंधित पुष्प ।
डोरी । उदा० माधवी न मालती में जूही में न जोयत में, [ उदा० औरे भयो रुख तातै कैसे सखी ज्यारी. केतकी न केबड़ा में, सरस सिताब में । होति, बिफल भए हैं बंद कटून वसाति है । -ग्वाल
--सेनापति
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ज्यान
झबिया
ज्यान-संज्ञा, पू० [अ० जियान] हानि, नुकसान | उदा० १. औरै भयो रुख तातै कैसे सखी ज्यारी क्षति, घाटा ।
होति, बिफल भये हैं बंद कळून बसाति उदा० उनको बहुरत प्रान हैं तुम्हें न तनको ज्यान
-सेनापति -दास २. प्रान प्यारी ज्यारी घनानंद गुननिकथा ज्यारी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० जियारी] १. हृदय
रसनी रसीली निसि बासर करत गान । की दृढ़ता, साहस, जीवट, जिगरा २. जिलाने
-घनानन्द वाली।
अपना-क्रि० अ० [सं० भाप] १. उछलना, २. । उदा० कहै पद्माकर सु चंचल चितीनहूँ तें औझक छिपना ३. लज्जित होना, झेपना ४. बंद करना,
उझकि झझकीन में फसत है। ढकना [क्रि० सं०] ।
-पद्माकर उदा० १.चरइ सलिल, उच्छलइ भान्, जलनिधि झपक-संज्ञा, स्त्री० [सं० झंप] शीघ्रता, जल्दी। जल झंपिय ।
--सेनापति उदा० इभ से भिरत, चहुँघाई सों घिरत घन ३. ता दिन ते वृजनायिका सुन्दरि, रंपति,
पाबत झिरत झीने झरसों झपकि झपकि। झंपति कंपति प्यारी । -गंग
- देव ४. भयो सपेद बदन दृग झंपै। डोलत दंत झपना-क्रि० प्र० [सं० झंप] टूटना, एकबारगी गात सब कंपै।
-चन्द्रशेखर
गिरना। झाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० छाया] १. प्रतिध्वनि
उदा० ठौर ठौर झूमत झपत भौंर झौंर मधु अंध । गूज २. परछाई, प्रतिबिम्ब ।
-बिहारी उदा० १. दीनी न दिखाई, छांह छोरध्यौ न छवाई झपने-संज्ञा, पु० [अनु० झप] पाने की क्रिया,
परयौ बोल की सी भाई जाइ लंका के | झपटना, प्राक्रमण करना। महल मैं।
-सेनापति उदा० कहे पद्माकर सु जैसे हैं रसीले अंग तैसी झांकना--क्रि० अ० [हिं० झंकना] १. रोना,
ही सुगंध की झकोरन के झपने । पछताना, व्याकुल होना २. खीझना, कुढ़ना ।
---पद्माकर उदा० १. देहौं दिखाई तौ पैहौं घनो दुख, झाँको झपाक--क्रि० वि० [सं० झंप, हिं० झप] जल्दी
बिना जल की झखियानि मैं । -देव से, शीघ्र । झखराज-संज्ञा, पु० [सं० झषराज] घड़ियाल, उदा० उझकि झपाक मुख फेर प्यारो-रुख और नक्र, मगर ।
हेरि हेरि हरषि हिमंचल पै अरिगो । उदा० कहैं नंदराम भारी भीतिन के भौंरन मैं भलि
--पजनेस भूलि भ्रम झखराजन भिरा करै ।।
देखि दुगद्व ही सों न नेकह प्रवैये इन -नदराम
ऐसे झुकाइक में झपाक झखियाँ दई । झझकाना---क्रि० सं० [हिं० झझक] डराना, भय
-पदमाकर उत्पन्न कराना ।
झपेटना-क्रि० प्र० [सं. झंप] दबाना अाक्रमण उदा० जज्यौ उझकि झाँपति बदन कति बिहँसि करना।
सतराय । तत्यौं गुलाब मुठी झठी झझका- उदा० किय बनबिहार इहिविधि स्यामघन त्रिभुवन वत पिय जाय ।
-बिहारी रूप झपेटैं।
-सोमनाथ झझकीन-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झिझक] झिझक, झबिया--- संज्ञा, स्त्री० [हिं० झब्बा] कपड़ों और संकोच, हिचक ।
। गहनों में लगा हुया तारों का गुच्छा।
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भर्मक
झला
चमक ।
उदा० भजि गई लाज गाजि उठ्यो रतिराज जब । उदा० बँध्यो मन गंधी की सुगंध झरपन सो। चुरियाँ सु बिछियाँ औ झबियाँ बजी
-देव झकझक ।
-तोष
२. झरपै झ4 कौंधे कढ़ तड़िता तड़पै मनो झमंक-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] प्रकाश, उजेला ।
लाल घटा में घिरी ।।
-पजनेस उदा० झूमे झलाबोर भूकभूना पै झमंक झूम झपक | झरहरी- वि० [हिं० झरहरा झंझरा वाला, झपाक झप झा कन मैं भूलभूले ।
छोटे छोटे छिद्र वाला ।
-पजनेस | उदा० झुकि झुकि झूमि भूमि झिलि झिलि झेलि झमक--संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] प्रकाश, ज्योति,
झेलि झरहरी झापन पै झमकि झमकि उठे ।
-पद्माकर उदा० दीप की दमक, जीगनान की झमक छांडि झर्प-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झरप] परदा, चिक, चपला चमक पीर सौं न अटकत हैं।
चिलमन ।
--सेनापति उदा० दिशा बारहों द्वारिया चूब खोल । हरी लाल झमकाना--क्रि० स० [हिं० झमक] पहनना,
पीरी डरी झर्प डोल ।।
-बोधा धारण करना २. चमकना ।
झरी--क्रि० स० [हिं० झर होना] खोना, चोरी उदा० पीतम पठई बेंदुली सो लिलार झमकाइ चला जाना, समाप्त होना । सौतिन मैं बैठी तिया कछु ऐठी सी जाइ । उदा० जकी ह थकी हौं जड़ताई पागि जागि पीर.
--रसलीन
धीर कैसें धरौं मन सो धन झरी गयौ।। झमा-संज्ञा, पु० [हिं० झाम] १. छल, धोखा
-घनानन्द २. झांवा, पत्थर या ईंट का टुकड़ा जिससे पैर झाना-क्रि० स० [हिं० झांवा मावे से पैर रगड़ा जाता है।
रगड़ना, या रगड़वाना २. काला पड़ जाना । उदा० १. कंदलै ध्याय के झमा खाय के शर लागे उदा० २. झझकत हियै गुलाब के फंवा झंवैयत मृग जैसे ।
- बोधा पाइ।
-बिहारी २. झीने करवारी सों झमाइ झमझमे झमा
२ झीने करवारी सों झमाइ झमझमे झमा झमकति झांई सी झमकि भूपरन की।
झमकति झांई सी झमकि भूपरनि की । --देव
-देव झमाकदार-वि० [हिं० झमाका+फा वार झल-संज्ञा, पु० [सं० ज्वल] ज्वाला, प्राग, (प्रत्य)] नखरे वाले, ठसक वाले ।
___आँच, दाह । उदा० चतुर चमाक सो झमाकदार झकि झाँके, उदा, मेरु के हलत महि हलत महीघ्र हालै महाचंचल चलाक, कोस कोक की कला के हैं।
नागहालाहल झल उगिलत हैं। -गंग
-ग्वाल झलकना-क्रि० अ० [हिं० झलक] चमकना, झमार-संज्ञा, पु. [?] वर्षा का जल ।
दील होना। उदा० भूमि झमार हि दै घनानंद राखत हाय उदा. नैन छलकौंहै बर बैन बलकीहै औ कपोल बिसासनि सूखे ।
-घनानन्द
फलकौंहै झलकौंहैं भये अंग है। -दास झरके-संज्ञा, पु० [हिं । झटका] झटका, चोट झलना-क्रि० अ० [हिं० झल्ल] बोलना, बकवाद धक्का ।
करना। उदा० अदले बदले भई बारहिबार, परे तरवारिन उदा० बीस बिसे बिष झिल्ली झलै तड़ितौ तनु के झरके।
-गंग ताड़ित कै तरपै री।
-दास झरनि-संज्ञा, स्त्री० [सं० झर झड़ियाँ, लगातार झला--संज्ञा, पु० [हिं झड़] हलकी वर्षा, दववृष्टि, पानी की झड़ी।
गरा २. समूह । उदा० पजनेस झंझा झांझ झोकत झपाक झप उदा० . चंडित मनोज कैसे झला भूमि भूमि अराभूर झरनि झिरै गे झरवान में ।
प्रावै।
ठाकुर - पजनेस
हेम के हिंडोरनि झलानि के भकोरे मैं । झरप--संज्ञा, स्त्री० [हिं० झपट] लपट, झपट,
. पद्माकर प्रवाह, झकोर २. तेजी से [क्रि. वि.] ।
२. झमकत पावै अँड झलनि झलान झप्यो १३
.
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मलाझल
झारना
तमकत पावै तेगबाही और सिलाही है। [हिं० झनकार] कांति, चमक ।
-पद्माकर उदा० निझुकनि रैनि झुकी बादरऊ झुकि प्राए हौं हैं गई जान तित पाइगो कहँ ते कान्ह आन
देख्यौ कहौं झिल्लिनि की झांई झहनाति है। बनितान हूँ को झपकि झलो गयो ।
-मालम --पद्माकर झांकनी. संज्ञा, स्त्री० [सं० झंकार] झनकार, झलाभल- वि. [अनु॰] चमकदार, चमकने वाले ध्वनि, आवाज । चमाचम ।
उदा० झांकनी दै कर काकनी की सुन, काननि बैन उदा, कंचन के कलस भराइ भरि पत्रन के ताने _ अनाकनी कीने ।
-देव तुग तोरन तहाँ ही झलाझल के ।
झंख-संज्ञा, पू०[देश॰] एक प्रकार का हिरन ।
--पद्माकर उदा० ठाढ़े ढिग बाघ बन चीते चितवत दुग झांख बातन बीच बड़ी है झलाभल पात्र करै धर
मृग-साखा मृग रोझ रीझि रहे हैं। -देव घूट के कल्ला ।
--अज्ञात झांझरिया-संज्ञा, स्त्री० [अनु०] पैजनी, पायल । अम्बर अमल मुख मंजूल सरद ससि, रूप की
उदा. झांझरियाँ झनकैगी खरी खनकैगी चुरीझलाभली बरफ हिम रितु की । --ग्वाल
तनको तन तोरे ।
-दास झलान-संज्ञा, पु० [?] भूला, दोला।
झाँझि-संज्ञा, पु० [हिं० झंझ, झंझट] झंझट, उदा० ज्यों ज्यों तुम गाइ गहि-गुननि बिकासौ अड़ियलपन, अड़न, झैझ ।
बन, ह ह अध ऊरध झलान के झकोरे । उदा० रुक्यो साँकरै कूज-मग, करत झांझि. झकमैं ।
-द्विजदेव
रात । मंद-मंद मारुत तुरंग खूदत प्रावतु झलाबोर-संज्ञा, पु० [हिं० झलमल] कलाबत्तू
जातु ।
-बिहारी प्रादि से बुना हा साड़ी आदि का चौड़ा अंचल ।
पजनेस झंझा झांझ झोकत झपाक झप २ जरदोजी या कसीदे का काम ।
झुराझूर झिरनि झिरँगै झखान में। उदा० १. झूमे झलाबोर झुकझूना पै झमंक झूम
-पजनेस __ झपक झपाक झप झाकिन मैं झुझुले । झवा-संज्ञा, पु० [सं० झामक] पत्थर का
-पजनेस
टुकड़ा या जली हई इंट, जिससे स्त्रियां अपने झहनाना-क्रि. अ. [अनु॰] १. रोएँ का खड़ा पैर की मैल छुड़ाती हैं । होना २. झनझन शब्द होना ।
उदा० छाले परिबे के डरनु सकन हाथ छुवाइ, उदा० १. गहन गहन लागे गावन मयूर माला
झझकत हिये गुलाब के झंवा झंवैयत पाइ । झहन झहन लागे रोम रोम छन में ।
-बिहारी - रस कुसुमाकर झाई-संज्ञा, स्त्री० [?] प्रतिध्वनि, गूज । २. निकनि रैनि झुकी बादरऊ झुकि उदा० कुज-कुज सुखपुज मधुप-गुज कोकिला सुर आए, देख्यौ कहौं झिल्लिनि की झाँई
की भाई।
--घनानन्द झहनाति है।
-आलम झाप-संज्ञा, पु० [हिं० झड़प] पर्दा, चिक, झहरना-क्रि० अ० [अनु०] १. शिथिल पड़ना 'चलमन । ढीला पड़ना २. झरझर शब्द करना।
उदा झुकि झुकि भूमि भूमि झिलि झिलि झेलि उदा० १. झहर झहर परै पासुरी लखाइ देह बिरह
झेलि, झरहरी झापन पैं झमकि झमकि बसाइ हाइ कैसे दूबरे भये । - रघुनाथ
-पद्माकर २. झहरि झहरि झीनी बूद है परति मानो , झाबर--संज्ञा, पु० [देश॰] दलदल ।। घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में। उदा० नाही तौ न हील होन देरी झील झाबरनि । -देव
देव झहराना-क्रि० अ० [अनु॰] झल्लाना, खिज- झारना-क्रि० स० अनु. झर] तलवार लाना।
चलाना। उदा० ए ससिनाथ सुजान सुनो, सखियान सों पूछि उदा० रायखेत जब झारन लागे । झुके निसान गये चितै झहराति है । - सोमनाथ । बढ़ि आगे।
-चन्द्रशेखर झाई -- संज्ञा, स्त्री० [सं० छाया] झनकार,
तहाँ लच्छन सुजान झुकि झारै किरवान
- खुमानकवि
उठ ।
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भारि
यह गैल है बिन मैन जस की हॅाँस हथ्यारन झारिये ।
(
पदमाकर
भारि -- संज्ञा, पु० [०] अमचुर १. जीरा, नमक आदि से निर्मित एक पेय २. एकदम ३ झुंड, समूह पदार्थ । उदा० १. पुनि भारि सो
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اء
बिधि स्वाद घने । केशव
कढ़ी भोर भोरी परसत बरजोरी मरे भाग झकझोरी भोरी झालि झबरे फिरें । देव २. दीबो दधिदान को सु कैसे ताहि भावत है । जाहि मन भायो भारि भगरो गुपाल को । ३. हीरन के हार जरतार आज ही बियोग की विपति है ।
-पद्माकर
झारि झमकत बिधि नासी - बेनी प्रवीन
-
भाल - संज्ञा, स्त्री० [ सं झाला ] तरंग, लहर | उदा० तन स्याम के ऊपर सोभित यों लगि फूल रहे सतपत्तन के । जल झाल सरोवर मध्य मनो झलकै प्रतिबिम्ब न छत्तन के ।
६६
- आलम
-
झालरी - वि० [हिं० झालर ] हरी मरी, प्रफुल्लित । उदा० आलबाल उर झालरी खरी प्रेम तरु डार । - बिहारी कावर वि० [सं० श्यामल ] काला, श्याम, मलिन । उना रम्भा को रमा को को उमा को रमा भावरो । किकाना-क्रि
स
इन्दुमा को श्री तिलोत्तमा को की सभा को हठो
[हिं० धिकाना ] संतप्त करना
जलाना ।
उदा० मोर को चंद चितौत चकोर ह्न', पौन झकोर ज्यों भारु भिकान्यो । - देव भिकुराना क्रि० स [हिं० कोर] झकोरना, २. झलमलाना, हिलना ।
उदा० कलि-काल पवन झकोर जोर झिकुरात, इह मन- दीपक की लोभ थिर क्यों रहे । नागरीदास २. सेज सुख सिंधु के झकोरनि तैं झिकुरात कमल कली सी रस बिलसी अलिंद की । -नागरीदास झिक्का- -संज्ञा, स्त्री० [हिं० खीजना] प्रबल युद्ध, जोरों की लड़ाई ।
)
झिलना
- पद्माकर
उदा० रन इक्का-इक्की भिक्का झिक्की फिक्का फिक्की जोर लगी । झिझिया-संज्ञा स्त्री [अनु.] छिद्रों वाला मिट्टी का वह घट जिसे दीपक जलाकर क्वार मास में लड़कियाँ घुमाती हैं।
जालरंध्र मग ह्व कढ़ तियतनु दीपति पुरंज । उदा झिझिया कैसो घट भयो दिनही मैं
बन कुंज ।
- मतिराम भिरना- क्रि० प्र० [क्षररण] झरना, पानी आदि का गिरना ।
उदा० पजनेस झा झांझ झोंकत झपाक झप झुराझर झरनि झिरेंगे कुरवान में ।
3
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-पजनेस इभ से भिरत, चहुँचाई से घिरत, घन प्रावत भिरत, भीने भरसों झपक झपकि ।
—देव
झिरवांना- -क्रि० ० स० [हिं० झड़ी] वर्षा कराना, पानी की झड़ी लगवाना । उदा० बोधा सुभान हितू सों कहै झिरवाइ के भारि कै फेरि भिरेना । —बोधा झिराव -संज्ञा, पु० [हिं० भरना ] झड़ी, वृष्टि ! उदा० बोधा सुभान हित सों कहीवे झिराव के झारि तें फेरि भिरेना । - बोधा झिरीता, स्त्री० [हिं०] झिड़की, फटकार,
--
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"
डाँट
भाषनि - देव
उदा० पातरे अंग उड़े बिनु पांखनु कोमल प्रेम झिरी की । भिलको संज्ञा, स्त्री [हिं० झिड़की] डाँट, फटउदा० झिलकी न जाने हिलमिल की न जाने बात हिलकी मैं सोम झिलमिल की उझलि परं ।
कार ।
-ग्वाल
झिलना -- क्रि० प्र० [?] अधाना, तृप्त होना २. घुसना, प्रवेश करना ३. मग्न होना । उदा० भुकि कि भूमि भूमि झिलिमिलि लि झेलि झरहरी झापन पै झमकि झमक उठे। पद्माकर
-
व्रज सब प्रति श्रानंदनि झिल्यो । --नागरी दास २. करि प्रेम वही की बटा करबी पतवारी प्रतीति के ले झिलि हैं । - बोधा घन ऐसे तन माँझ बिज्जुल बसन माँझ बग मोती माल माँझ चाह झिल्यो झिलजा । -ठाकुर
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झिलम ( १०० )
मुलमुली झिलम-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] कवच, लोहे का । झुकारना - क्रि० [हिं० झोंका देना] झोंका देकर
बना एक झाँझरीदार पहनावा जो युद्ध में रक्षा के ढकेलना, हटाना। लिए पहना जाता था।
उदा० गीषम गहर गनीम को, गारब गरब उदा० धरे टोप कुंडी कसे कौच अंग झिलिम्मैं
झुकारि। घटाटोप पेटी अभंग । --चन्द्रशेखर
चढ़यो प्रबल पावस नृपति, झिलमिल-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] एक प्रकार का
दल बद्दल-बल धारि । बढ़िया बारीक और मुलायम वस्त्र ।
--..चन्द्रशेखर उदा० उचके उचोहैं कुच झचे झलकत झीनी । झुकाझुक-संज्ञा, पु० [अनु ] दिव्य सौन्दर्य, झिलमिली ओढ़नी किनारीदार चीर की । अनुपम सुन्दरता ।
-- देव उदा० देखि दृग द्वै ही सों न नेकह अपैये, झिली-संज्ञा पु० [सं० झिल्ली+न] झींगुर
इन ऐसे झुकाझुक में झपाक झखियाँ दई । नामक कीड़ा ।
-पद्माकर उदा० मननात गोलिन की भनक जन धूनि धुकार
झुकामुकी-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] बहुत सुबह जब झिलीन की।
--पद्माकर काफी अँधेरा रहता है, तड़के । झिल्यो--वि० [हिं० झिलना] तन्मय, मोहित, उदा० जानि झुकाझुकी भेख छिपाय के गागरि लै मग्न ।
घर से निकरी ती।
-ठाकुर उदा० घन ऐसे तन माँझ बिज्जुल बसन माँझ, बग झुखान--संज्ञा, पु० [हिं० भूरा] सूखी वस्तुएँ । मोतीमाल माँझ चाह झिल्यो झिल जा। उदा० पजनेस झंझा झांझ झाँकत झपाक झप
--ठाकुर
झुराभूर झरनि फिरंगे झुखान में । झोंकने--वि० [देश॰] चिकने, कोमल, २.
- पजनेस बारीक । चीकने कपोल केस झीकने कुटिल कण्ठ झुरहुरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झुरझुरी] कॅपकंपी, मोतिन की माल मिले चम्पक चमेली के ।
कंपन । -देव
उदा० हार बार बसन निहारन न पावै, झीनी--वि० [सं० क्षीण] थोड़ा, कम २. बारीक मोर भौंरन चकोरन झगरिझरहरी लेति । महीन ३. पतली ।
-देव उदा० जी तौ इतो दुख पावति हौ तलफै दुग मीन झराझर-क्रि० वि० [अनु॰] झरझर शब्द मनो जल झीने ।
-केशव युक्त, २. लगातार, बराबर ३. वेग सहित । झीली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झड़ी] पानी की उदा० पजनेस झंझा झांझ झोकत झपाक झप झड़ी, झिल्ली, जल की बूदें।
झुराझूर झरनि झिरंगे झुरवान में । उदा० देखो तो झरोखन झकोरन झकोरै पौन
-पजनेस झापन मैं झालरि मैं झीली झहराति है।
झुरी--वि० [हिं० भूर] १ बेकार, निकम्मी, वक्र -नंदराम
कुटिल [प्रा० झूर] २. निष्प्रयोजन .. संतप्त । झुकना-क्रि० अ० [देश॰] क्रोध करना, नाराज उदा० १. कौन चतुराई करी जायक कन्हाई वहाँ, होना।
कूबरी लोगाई करी और तो मुरी लगी। उदा० पालम झुकति थोरी हँसे ते हँसति पुनि ।
-ग्वाल -आलम
२. झारै कर झुरी उर काम जुर झरी झुकति कृपान मैदान ज्यों उदोत मान ।
लेत लाज फुरहरी ।
-देव -गंग झुलझुला-वि० [हिं० झोल] ढीला, शिथिल, झुकराना-क्रि० अ० [हिं० झकोर] झकोर श्लथ । लेना, झूमना, २. घोड़ा का प्रागे के दोनों पैरों उदा० झूमे झलाबोर झुक भूना पै झमक भूम को उठाना।
झपक झपाक झप झाकिन मैं झलझले । उदा० रुक्यौ साँकरै कुंग-मग करतु झांझि झुक
-पजनेस रातु । मंद मंद मारुत-तुरंग खूदत प्रावतु | झुलमुली-संशा, स्त्री० [हिं० झाला] एक प्रकार जातु ।
-बिहारी का भूषण जो कानों में पहना जाता है, झाला,
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-देव
मुलामुल
झोर . पीपल पत्ता ।
झेरी--संज्ञा, स्त्री० [हिं० झेल] १. व्याकुलता उदा० झीन पट मैं झूलमूली झलकति प्रोप उद्विग्नता २. बखेड़ा, झगड़ा, झंझट । अपार ।
-- बिहारी उदा० १. पानंदधन रसपियन जियन की प्रान झुला झुल-वि० [हि० झलझलना] झलझलाती
पपीहा तरफरात है उर-झरी सौं । हुई, चमकती हुई।
--घनानंद उदा० अलाअल्ल झूमैं सु झूल लदाऊ । मनो। झेल--संज्ञा, स्त्री० [फा० देर] १. बिलंब. देर चंचला चौंधि कूर्दै सदाऊ। --- पद्माकर !
२. झगड़ा । झूमना-क्रि० अ० [हिं० जूझना] जूझना, उदा० १. व्यभिचारिन को केलि में झेल न रंचक मरना।
होय लाज तजै उर उर भर्ज हरबरात उदा० स्वारथ न सूझत, परारथ न बूझत,
है दोय ।
--बोधा अपारथ ही झूझत, मनोरथ मयो फिरै ।
ताते नाथ झेल नहिं कीजै ।
मेरो एकरार सुनि लीज। भूनरिया--संज्ञा, पु. [हिं० भूना] लहँगा ।
--बोधा उदा० अंग अंग अनंग तरंग मई, लखिये अंगिया ।
झेलना--क्रि० स० [हिं० झेल] १. फेंकना, यह भूनरिया ।
- बेनी प्रवीन
छोड़ना, डालना २. हटाना, रोकना। भूना- संज्ञा, पु० [देश॰] घाघरा, लँहगा २. उदा०१ पै इक या छवि देखिबे के लिए मो झीना, महीन, पतला ।
बिनती के न झझोरन झेलौ । उदा० भूना की झकोरन चहँघा खोरि खोरिन में
-पद्माकर खूब खुसबोइ के खजाने से खुलत जात ।
२. पर्वत पुंज जिते उन मेले । -पद्माकर
फूल के तूल लै बानन झेले । भूमे झलाबोर झुक भूना पै झमंक झूम
--केशव झपक झपाक झप झाकिन मैं झुलझूले ।
भेलाल-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झेल] किसी वस्तु
-पजनेस __ को जल्दी जल्दी फेंकना २. ग्रहण, लेना ३. झूमरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भूमर] घेराव, घेरा, ठेला ठेल, धक्की धक्का। भीड़, समूह ।
उदा० झेलाझेल झोरिन की मूठिन को मेलामेल उदा० सखिनि के संग में अनंग मद भीनी जाप,
रेलारेल रंग की उमंग सरसत है। भूमरि सी परति अनंत उपमानि की ।।
-- पद्माकर --सोमनाथ मैं-वि० [हिं० झावा श्याम, काला । झरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झूर] १. शुष्कता, उदा० को सकै बरनि बारि-रासि की बरनि, नभ रुखाई, न्यूनता, कमी।
मैं गयौ झरनि, गयौ तरनि समाइ के। उदा० ते अब मेरी कही नहिं मानत राखति है
-सेनापति उर जोम कछू री । सो सब की छुटि जात झोप-संज्ञा, स्त्री० [हिं० झोपा] झब्बा, गुच्छा, भटू जब दूसरो मारि निकारत झूरी ।
तारों का गुच्छा शोभा के लिए आभूषणों और बोधा
कपड़ों में लटकाया जाता है। भेटना-क्रि० अ० [हिं० झेपना] भैपना, शर
उदा० नंदराम कामिनी अतर तर कीन्हें बास माना, लजाना।
केस पास गुंफित मुफित झोप झलकी । उदा० चाल अटपेटी जात सखि लखि लेटी जात
- नंदराम सकुचि सुभेटी जात छेटी जात सान की। भोपना-क्रि० अ० [सं० झंप] उछलना, कूदना
--हजारा से
मस्ती के साथ झूमना । भैर-दे० "झेल" ।
उदा० गोपन के झुंड झोपै -करै चौपै चाँचरि मैं, उदा० लाजनि रचति भैर भली अभिसार-बेर, । तोपे देत अबिरन बन बाम गैल भौन । हेरत वे भग, जाकी प्रीति सों पगति है।
- बेनी प्रवीन -कुमारमणि झोर-संशा, पु० [हिं० झालि] तरकारी का
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मोल
(
१०२ )
टटोहना
- रस, शोरवा ।
का भाव । २. तकरार, विवाद, डाँट फटकार उदा० कढ़ी झोर झोरी परसत बरजोरी।
[हिं० झांव] ।
...देव । उदा. रघुनाथ बूझति हौं बुझत सकोच लागै बिन झोल--संज्ञा, पु० [सं० ज्वाल] भस्म, राख २. । बूझे चैन जात छेक्यो सोच झौर सों। २, दाह, जलन ।
-रघुनाथ उदा० पापी कलापी के ये कढ़त बोल श्रति खोल झोरना -क्रि० प्र० [अनु०] १. हिलना २. कीन्हे मन झोल डोल पुरवाई अरि है। गूजना ।
-रघुनाथ उदा० १. आम मौर झोरै मौर झौरन पै झूमैं झोंक-संज्ञा, पु० [हिं० मुट्टी] फंका, मुठ्ठी ।।
अली बिकल वियोगिन की तापन तवाई मैं । उदा० सोच भयो सुरनायक के जब दूसरि बार
-ठाकुर लियौ हरि झौंको।
- नरोत्तमदास झौल-संज्ञा, पु० [हिं० झिल्ली] झिल्ली जिसमें झोड़ना-क्रि० स० [हिं० झौंर] फैलना, छाना । बच्चे या अंडे रहते हैं, गर्भ, अंडा । उदा० बीर नरप्पति के भुजदंड अखंड पराक्रम उदा. कहै कवि गंग उड़े झिल्ली झोल झांसिन मंडप झौंडी।
में बासन अरुझि लील गोय भटकत है, -केशव
-गंग झोर-संज्ञा, पु० [हिं० झपट] १. झपट, दबाने
टंक-संज्ञा, पु० [सं०] १. एक तौल जो चार | टटकार-संज्ञा, पु० [हिं० टोटका] १. टोटका, माशे की होती है। किंचित, थोड़ा [वि.]।
टोना २. तत्काल, शीघ्र, तत्क्षण। उदा० १. छीरधि मैं पंक, कलानिधि मैं कलंक, | उदा० १. लाल रहौ चुप लागिहै डीठि सु जाके यात रूप एकटक ये लहैं न तव जसके।
कहूँ उर बात न भेटी । टोकत ही टटकार
-- भूषण लगी रसखानि भई मनी कारिख पेटी । टंच-संज्ञा, स्त्री० [हिं० टांकना] सिलाई ।
रसखानि उदा० नैन मुदै पै न फेर फितूर को टंच न टोम टटकी-वि० [देश॰] तुरन्त की. ताजी।। ___कछू छियना हे ।
- पद्माकर उदा० टटकी धोई धोवती चटकीली मूख जोति । टकोर-संज्ञा, स्त्री [सं. टंकार] साधारण चोट, फिरति रसोई के बगर जगर मगर दुति सामान्य प्राघात, ठेठा
होति ॥ उदा० टप्पे की टकोर टक्करन की तड़ातड़ित
-- बिहारी माचे जब कूरम करिदों की लड़ालड़ी। | टटल बटल-- वि० [अनु॰] ऊटपटांग अंडबंड,
-पद्माकर निरर्थक टगर-संज्ञा, पु० [हिं० टुकुर] किसी वस्तु को उदा० टटल बटल बोल पाटल कपोल देव दीपति गौर से देखना, टकटकी बाँधने की क्रिया ।
पटल मैं अटल ह्व के अटक्यो । उदा० सोभा सदन बदन मोहन को देखि जीजिये टगर टगर।
-घनानंद | टटोहना-क्रि० स० [हिं० टटोलना] जांच टट-अव्य० [सं० तट] तट, निकट, समीप ।
करना, परखना, देखना । उदा० पटकावे मनु सु नटावै तनु टट प्रावै, | उदा० जोहति कंचुको पोहति माल, टटोहति है हटक्यों न रहै हारी निपट हटकि कै। -पालम
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टप्पर
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(
१०३
रसना रद के छत । बेनी प्रवीन टप्पर-संज्ञा, पु० [हिं० छप्पर ] भार, बोझ । उदा० दीनौ मुहीम को भार बहादुर छावो गहै क्यों गयंद को टप्पर । भूषण टहल - संज्ञा, पु० [सं० तत् चलन] १. गृह कार्य, घर का काम २. सेवा ।
बाल ।
उदा० १. झमकि झमकि टहल करें लगी रहँचटे बिहारी महल टहल की चहल पहल है । जमुना लहरानि भरी लहलहै । - घनानंद
टॉक - संज्ञा स्त्री० [हिं० टाँका ] सूई | उदा० टाँक सी लॉक भई रसखानि सुदामिनि तें दुति दूनी हिया की । रसखानि टांड़ संज्ञा स्त्री० [देश० ] हाथ का भूषरण,
अनन्ता ।
उदा० (क) कहूँ हार कंकन हमेल टाँड़ टीक है
-- श्रालम
(ख) लूटती लोक लटें सफूलेल, हमेल हिये भुज टाँड़ न होती ।
-देव
टामक - संज्ञा, पु० [अ०] डुगडुगी नामक बाजा, डिमडमी ।
>
सीस टिपारो ।
नागरीदास
टीप - संज्ञा, स्त्री० [हिं० टीपना] गाने में जोर की तान २. टंकार, घोर शब्द |
उदा० १. जात कहूँ ते कहूँ को चल्यो सुर टीप न लागति तान धरे की । रघुनाथ टीपना- क्रि स० [सं० टिप्पनी ] लिखना, अंकित करना, टाँकना ।
उदा० लीपी अबरख तें के टीपी पुंज पारद तें कंधों दुति दीपी चारु चाँदी के बरख तें ।
ग्वाल
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टैम
-
टीम- संज्ञा, स्त्री० [देश०] टीप, जोड़ बंद करने की क्रिया ।
उदा० वाको मन फाट्यो हुतौ हों दे लाई टीम, बोलत ही जिहि विष बयौ निपट पातरीजीभ । बिहारी टोटका ] टोना,
उदा० दुंदुभि पटह मृदंग ढोलकी उफला टामक । मंदरा तबल सुमेरू खंजरी तबला धामक । - सूदन टिप्पना- क्रि० अ० [?] चोट पहुँचाना, घाव
करना ।
- पद्माकर
उदा० छुटे सब्ब सिप्पे करें दिग्घ टिप्पै सबै सत्रु छिप्पे कहूँ हैं न दिप्पे । टप्पे - संज्ञा, पु० [हिं० टाप] धीरे-धीरे भिड़ना, उछाल, कूद, फलांग । उदा० टप्पे को टकोर टक्करन की तड़ातड़ित मार्च जब कूरम करिदों की लड़ालड़ी । - पद्माकर
टिकासरो- संज्ञा पु० [हिं० टेक + सं० श्राश्रय ] ठहरने का स्थान, शरण । उदा० मल, मल्ली, मालती, कदम्ब, कचनार चम्पा, चपेहून चाहे चित, चरन टिकासरो । - देव टिपरना -संज्ञा, स्त्री० [बुं~ ] पिटारी । उदार अपने अपने खोलि टिपरना पुतरी सब विस्तारी । —बकसीहंसराज टिपारो - संज्ञा, पु० [हिं० टिप्पा ] टीका, तिलक, टिप्पा |
उदा० मोतिन की मुथरी दुलरी गर सोहत, सुन्दर । शिखा, दिए की लौ ।
टुक्का संज्ञा, पु० [हिं० टोटका, जादू, नजर उदा० बाँके समसेर से सुमेर से उतंग सूम, स्यारन पैसेर टुनहाइन के टुक्का से ।
- पद्माकर
नवा -- संज्ञा, पु० [?] दाना, फल । उदा० कंचुकी लाल उरोजन श्रौं मुकुता - नथुनी मै बड़े टुनवा के । तोष टुकना- क्रि स० [हि टुकड़ा ] टुकड़े-टुकड़े करना, विदीर्ण करना । उदा० घन की चमूकें संग दामिनी हरू के टुकें, गरज चहूँ, दूके नाहर सी पारतीं ।
ग्वाल
टूट- संज्ञा, स्त्री० [सं० झुट ] घाटा, टूटा, नुक
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सान ।
उदा० घटै कीमत बोधा जो माल फिर वंजिकैबेवपार में टूट ठई । - बोधा
टूटना- क्रि० स० [सं० भुट ] वेग के साथ प्रवा'हित होना, बह्ना । उदा० काटे हय, गय, नरकंधर कबंधनि तें रुधिर की धारें अध ऊरध टुटति है ।
- कुमारमरिण ऐंड, मरोड़,
टेटी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० टेंट ] घमंड । उदा० जाके सुख पेटी जात चंन्द्र छबि मेटी जात छबिहू धुरेटी जात टेटी जात भानु की ! - 'हजारा' से टेम—– संज्ञा, स्त्री० [हिं० टिमटिमाना] दीप
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( १०४ )
ठयना उदा० दुबरी भई है देह इति न गई है बाल तब | उदा० बैरिनि जीभहि टोभ दै री मन बैरीको ही मसाल अब दिया की सी टेम है। । भुजि के मौन धरौंगी।
-देव -रघुनाथ टोया -संज्ञा, पु० [हिं टोना] टोटका, टोना, टैठी-वि, [प्रा. टेटा] चंचल, अस्थिर ।
नज़र । उदा. पैठत प्रान खरी अनखोली सुनाक चढ़ाएई- उदा भूषन वे मनि मोतिन के लखि, सौतिन के डोलत टैठो ।
-घनानन्द उर लागत टोया ।
-देव टोडिस-वि . [?] शरारतो, बदमाश ।
टोह-संज्ञा, स्त्री० [देश ?] खोज, खबर । उदा० टोडिस नयी भयौ डोलत आनंद घन तिन उदा० और ठौर कहूँ टोहे ह न अहटाति है । ही सों पगि खगि जिनसों पूजी जियमास ।
-मालम -घनानंद टोहना-क्रि० स० [हिं० टोह खोजना, टटोटोड़िक-वि० [सं० तुंदिक] पेटू, पेटवाला । लना, २. छूना । उदा, टोड़िक व घनानंद डाँटत काटत क्यौं । उदा० . बृन्दा सी वृन्द अनेक छली तहँ गूजरीनहीं दीनता सों दिन ।
-घनानन्द नेह सों को अंग टोहै।
-ठाकुर टोम--संज्ञा, पु० [हिं० डोम] टोंका ।
टौर-संज्ञा, पु० [हिं० टेर ?] दाँव, घात, उदा नैन मुदै पै न फेर फितूर को टंच न टोभ । अवसर २. जाँच, थाह, परीक्षण।। कछू छियना है ।
-पद्माकर | उदा. यह ग्रोसर फाग को नीको फब्यौ गिरिटोभ देना-क्रि० स० [देश॰] किसी फटी वस्तु । धारी हिले कहूँ टौरनि सों। -घनानन्द को जोड़ना, बन्द करना, सी देना ।
ठटना-क्रि० अ० [हिं० ठाठ] सज्जित होना, । उदा. ठहरै नहिं डीठि फिरै ठठकी इन गोरे कपोशोभा पाना, सजना।
. लन गोलन पै ।
-ठाकुर उदा० दमकि दमकि जाति दामिनी चहँघा चारु ठठुकना-क्रि० अ० [हिं० ठिठुकना] ठहरना चमकि चमकि चूनरी में अंग ठठि उठे। चलते-चलते सहमा रुक जाना।
-ऋषिनाथ | उदा० प्यारे सुजान समीप कों बाल चलै ठट्रक संगति कै फनि की, मनि सीस ते चाहत, मुरिक मुसिकाति है।
-सोमनाथ देव सुकैसे ठटैगी।
-देव ठभरना-क्रि० स० [बुं०] धोखा देना, छलना । ठट्ठ-संज्ञा, पु० [हिं० ठट] १. समुह, झुंड
उदा० काहे को तुम हम को लालन दबरत ठभरत २. बनाव, सजावट, रचना।
ठाढ़े।
-बकसी हंसराज उदा० १. ठट्ठ मरहट्टा के निघट्टि डारे बानन सौं,
ठयना-क्रि०अ० [अनुष्ठान] १. स्थित होना, खड़ा पेस कसि लेत हैं प्रचंड तिलगाने की।
होना, ठहरना लगना, जमना २. करना, ठानना।
उदा० १. इतनी सुनि दीन मलीन भई, मुख मोहनी -सोमनाथ ही की चितौत ठई ।
-देव २. उतै पात साहज के गजन के ठट्ठ छूटे,
चित दै चितऊँ जित अोर सखी तितनंद उमड़ि घुमड़ि मतवारे घन कारे हैं।
किसोर की ओर ठाई।
-देव -सोमनाथ
२. पालम कहत अाली अजहूँ न आये पिय ठठकना-क्रि० प्र० [सं० श्रेष्ठ] स्तंभित होना, फैधौं उत रीत बिपरीत बिधि ने ठई । डरजाना, एक बारगी रुक जाना ।
-आलम
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ठयो
(
ठयो - वि० [सं० अनुष्ठान] स्थित, बैठा हुआ ।
ठहरा हुआ,
उदा० कंचन के कलसा कुच ऊँचे महीप ठयो है ।
समीपहि मैन —देव
ठरना- क्रि० अ० [सं० स्तब्ध ] ठहर जाना, रुकना, खड़ा हो जाता, २. स्तब्ध होना । उदा० राति के बुलाई प्यारी अनंदी अकेली आई देखि के कन्हाई आपु लेन श्रागे ठरिगो । -रघुनाथ
ठरी - वि० [हिं० ठरना] प्रत्यन्त शीतल । उदा० श्ररी सीश्ररी होन को ठरी कोठरी नाहि । जरी गूजरी जाति है, घरी दूघरी माहि ।
-दास
ठलवारी—संज्ञा, स्त्री० [?] हँसी-मजाक, ठट्ठा बाजी । उदा० तोहि ठलवारि घरबसै न जानत बात बिरानो ।
-घनान्द
ठयोजना — क्रि० सं० [हिं० ठानना = रखना ] रखना, स्थापित करना । उदा० द्वै कोठा दोहरो लिखि लीजै । तातर दोहरो तीन ठवीजै । -दास
उदा० पूरब पौन के गौन गुमानिनि
ठहकना-क्रि० अ० [हिं० ठहरना ] ठहरना, रुकना, स्थिर होना । उदा० तुंड काटि मुंड काटि जोसन जिरह काटि, नीमा, जामा जीन काटि जिमी प्रानि ठहकी । - गंग ठहकाना - क्रि० स० [सं० स्थ्ग, प्रा० ठय ] बन्द करना, रोक रखना । नंद के मंदिर में ठहकाई | गावती काम के मंत्र मनो गन जंत्रन सो गहकाई । -देव ठाँठ-वि० [अ०] वह गाय या भैंस जो दूध न देती हो २. नीरस, जो सूख गया हो । उदा० भूपति मँगेया होत, ठाँठ कामधेनु होत, गैयर भरत मद, चेरो होत चाँटी को । — गंग ठाई -संज्ञा, पु० [हिं० ठय, सं० अनुष्ठान] १. सत्य २. अनुष्ठान, संकल्प, ३. स्थान ४. समीप । उदा० १. पान भाखे मुख नैन रची रुचि, आरसी देखि, कहीं यह ठाई । - केशव
ठार -संज्ञा, पु० [हिं० ठाँव ] स्थान, जगह । उदा० सो आधेई पग छिति मँझार । उघरे हैं देखो ठार ठार । - सोमनाथ ठाली - संज्ञा, स्त्री० [हिं० निठल्ला] बैठकी, टाल
फा० १४
१०५ )
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मटोल, आना कानी ।
मु० ठाली देना-बैठकी देना, तमाशा देखना, आना कानी करना, किसी कार्य में टाल मटोल करना । उदा० कहा कहौं आली खाली देत सब ठाली पर मेरे बनमाली को न काली तें छुड़ावहीं। रसखानि ठिकु—वि० [हिं० ठीक] स्थिर, ठहरा हुआ । उदा० राति द्यौस हौंसे रहे, मानु न ठिकु ठहराइ । - बिहारी ठिगारी - संज्ञा, पु० [देश० ] एक बरसाती कीड़ा पांखी ।
उदा० राती पूरी बरषे ठिगारी उड़े धुवाँधार, ऐसी भाँति भादौं आली भोर ही तें मोध्यो -गंग है । ठिर—संज्ञा, स्त्री० [सं० स्थिर ] गहरी सरदी, अत्यधिक ठंडक ।
ठेवा
उदा० 'ग्वालकवि' बरफ बिछायत कुहर दल, ठिरनि प्रबल, नीकी नौबत बजाई है । ठिब्व-संज्ञा, पु० [हिं० ठाँव ] स्थान, ठाँव । उदा पिक्कत इक्कन इक्क ठिव्व तजि लिक्कन - पद्माकर
तक्कत ।
ठोहैं— संज्ञा, स्त्री० [अ०] हिनहिनाहटें, घोड़ा की आवाज । उदा० छँडो हैं तुरंगान ने तेज ठीहैं । मनौ सत्रु पै हंक मीचें उठी हैं ।
- पद्माकर
ठुमकी - वि० [?] नाटी, छोटे कद वाली । उदा० जाति चली बृज ठाकुर पैं ठमकाँ ठमकाँ ठुमकी ठकुराइन । - पद्माकर
ठरहरी - संज्ञा स्त्री० [हिं०
ठरन] कँपकँपी,
कम्पन ।
उदा० लूटि सी करति कलहंस युग देव कहै टूटि मुति सरी छिति छूटि ठुरहुरी लेति ।
- देव
ठेगा - संज्ञा, स्त्री० [देश० ] छोटी लाठीं ।
उदा
बंदीसुत तेही समय आयौ केसव एक ठेगा कर कौपीन कटि उर प्रति अमित बिबेक । -केशव
ठेठी -- संज्ञा स्त्री० [देश ] गाँठ, ग्रंथि । उदा० गाँठि से कठोर कुच जोबन की ठेंठी है ।
-श्रालम
ठेवा — सज्ञा, स्त्री० [हिं० ठेस, ठेहा] ठेस, ठोकर, ठेहा, धक्का |
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उदा० हाथी हथियार हय गय ग्राम धाम घोरे भूषन बसन छुटि जैहैं नैक ठेवा पौ । ग्वाल
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-- ठोठ
डांग
ठोठ-वि० [हिं०ठूठ-सूखा वृक्ष] जड़, निःसार । बातें, बोली ठोल हाँसी के कन्हाई दिन उदा० पुनि लगे फरकन होठ । रहि गई फिर
- आगे हैं।
-आलम जिम ठोठ।
-सोमनाथ | ठौका-संज्ञा, स्त्री० [हिं० ठोकरा] चोट, प्रहार । ठोढे-संज्ञा, पु० [हिं० ठौर] स्थान, जगह ।। उदा० यथा चोर को चेत भूल जात पनहीं मिले । उदा० कौंधत दामिनि कूकत मोर रहैं मिलि भेकी भरि आये दोउ नैन गहे आइ ठौका लग्यौ । भयानक ठोढ़े। -रघुनाथ
-बोधा ठोली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० ठठोली] हँसी, दिल्ल- ठौन-पंज्ञा, स्त्री० [हिं० ठवनि] मुद्रा, ढंग। गी।
उदा० बैन खुले मुकुले उरजात जकी विथकी उदा० अजों मसि भीजी नहीं ऐसी मन बसी गति ठीन ठई है।
-दास
उंबर-संज्ञा, पु० [सं०] सजावट, पाडंबर ।।
इकली डरी हौं घन देख के डरी है, खायर उदा० तापर संवारयो सेत अंबर को डंबर
विष की डरी हौं घनस्याम म जाइहीं। सिधोरी स्याम संनिधि निहारी काहू न
-सेनापति जनी ।
--- दास डरौल-वि० [हिं डर] डरपोक, कायर । डकना-क्रि० प्र० [हिं० डाँकना-पार करना] उदा० अमल कठोरे गोरे चीकने उतंग भौरे बरपार होना, व्यतीत होना।
बस मोरे मन नेक ना डरोल ये। उदा० सुनि उद्धव मद्धि वसंत वसंत सु मास न
-सिवनाथ कोउ डकै तन में ।
--सूरति मिश्र डहकना-क्रि० अ० [हिं० दहाड़] दहाड़ मारना, डगल-संज्ञा, पू० प्रा०, हिं० डेल] ढेला, रोड़ा जोर से चिल्लाना । इंट या पाषाण का टुकड़ा।
उदा० ताल देत भैरव पिसाच, मिलि प्रेत डहउदा. चिरी, चुगत कोइ डगल उठावै । जिव तब
क्कै।
-चन्द्रशेखर चिरिया को उडि जावै । -- जसवंतसिंह
उहारना-क्रि० स० [हिं० डाहना] डाहना, डगेना-संज्ञा, पु० [बँ.] बांस की लम्बी छड़ी जलाना तंग करना । जिसमें लासा लगा कर बहेलिया लोग पक्षी पकड़ उदा० छावै ना छराक छिति छोर लौं छन्वीली लेते हैं।
छटा छंदन छया मैं पौन डारन डहारै ना। उदा० मोर मुकुट की टटिया लीन्हें कीन्हें नैन
-नन्दराम डगना। चितवनि चेंपु लगाय पलक में डाउरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० डिब] लड़की।
बिधवत खंजन नैना। - बकसीहंसराज उदा० बाहिर पौरि न दीजिये पाउँरी बाउरी डडा-संज्ञा, पु० [?] हाथ का एक प्राभूषण,
होय सु डाउरी डोलै।
-- देव कंगन ।
डांग--संज्ञा, पु० [?] १. पहाड़, पर्वत, २. पहाड़ी उदा० गोरे डडा पहुँचानि बिलोकत रीझि रंग्यौ । जंगल । लपटाय गयौ है ।
---घनानन्द उदा० दान साहि जू के बैर बैरिन की बरनारि, डरना-क्रि० अ० [हिं० डालना] पड़े रहना,
भजि भजि सुंग चढ़ी एते ऊँचे डाँग के । २. डर जाना।
डाँग चौकिया पहुँचे सेख । गंगा-- उदा० अांखन के मारे कैयो लाखन डरे रहैं ।
बीर सिंघ देख्यौ सुभबेख । ---केशव -ठाकुर
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डाटना
डौल
-ग्वाल
डाटना-क्रि० स० [हिं० डाट] संतुष्ट करना,
कहा।
-देव बुझाना, २. कसकर भरना, खूब पेट भर
डुंड-संज्ञा, पु० [सं० दण्ड] ढूंठ, वह पेड़ जो खाना।
सूख गया हो। उदा० ग्वाल कवि सुन्दर सुराही फेर, सोरा मांहिं. उदा० देव जू अनंग अंग होमि के भसम संग, अंग पोरा को बनाय रस प्यास डाटियत है ।
अंग उलह यो प्रखैबर ज्यों डुंड मैं ।
-देव डाढ़-सं० पु० [सं० दंष्ट्र] दाँत, चौभड़। Jइंडि-संज्ञा, पु० [सं० द्वंद्व] झगड़ा, लड़ाई । उदा०-धंसिक धरा के गाढ़े कोल की कड़ाके | उदा० चंडि नचत गन मंडि रचत धुनि इंडि डाढ़े पावत तरारे दिगपालन तमारे से
मचत जहँ ।।
-भूषण -भूषण डेल-संज्ञा, पु० [हिं० ढेला] ढेला, कंकड़ । . डाढे-वि० [सं० दग्ध०] जले हए, संतप्त ।
उदा० डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच उदा० गोरस लै सब गोप चले सिगरे बृज लोग
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है । बियोग के डाढ़े। -देव
-ठाकुर डाबर--संज्ञा, पू० [सं० दभ्र] तलैया, गड़ही २.
डोंगर-संज्ञा, पु० [सं० तुंग] पहाड़ी, पर्वत २. गंदा पानी ।
टीला। उदा० अग्नि होत जल रूप सिंधु डाबर पद ! उदा० कोपि कुंवर मधुसाह हनिय हथ्थी मतवापावत । होत सुमेरह सेर स्यंघ ह स्यार
रिहु । कटिय दंत जुर बांह डील डोंगर से कहावत।
-ब्रजनिधि डारिह।
-केशव डावरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० डिंब] लड़की, डोडा-संज्ञा, पु० [सं० तुंड] बड़ी इलायची के नवोढ़ा ।
प्राकार का फल । उदा० तरुनी की डग कहाँ मुनही डुलावै सुर, | उदा० कामरी फटी-सी हुती डोंडन की माला, मुरली के सुनत डुलावै डावरी। आलम
ताक, गोमती की माटी की न सुद्ध कहूँ डासन--संज्ञा, पु० [सं० दंशन] . दंशन,
माटकी।
-नरोत्तमदास काटने की क्रिया २. बिछौना ।
डोरै- संज्ञा, स्त्री० [बुं०] बूंदें।। उदा० बासन बास भये विष केसव डासन डासन
उदा० डोरै जलधरन की सरन हिलोरें आजु, की गति लीने ।
- केशव
घनन की घोरै धरा फोरें कढ़ी जाती हैं। डिढ--वि० सं० दृढ़] दृढ़, अटल ।
- चातुर कवि उदा० कैयो देस परिबढ़ कैयौ कोट-गढ़ी-गढ़ कीन्हे डौर --संज्ञा, पु० [हिं० डील] १. रचना, बनाअढ़ अढ़ डिढ़ काहू में न गति है।
वट, ढंग २. प्रयत्न, मार्ग, ढब ।।
-भूषण | उदा० १. केसर की खौरि करि कुंडल मकरडिढ़ाना-क्रि० स० [सं० दृढ़] स्थिर करना, डौर कान मैं पहिरि कान्ह बंशी अधरा धरो । दृढ़ करना, जमाना।
-तोष उदा० अरु इक भूकुटी कुटिल डिढ़ायें । मन २. उतर हेत इहि प्रस्न के, रचो पताका डौर । मन्मथ को चाप चढ़ायें। -सोमनाथ
-दास डिलारे-वि० [हिं० डील+वार] डीलडौल डौल-संज्ञा, पु० [हिं० डोल] बरावरी, युक्ति, वाले, बड़े कद वाले।
उपाय । उदा० बलक्क झलक्क ललक्कै उमंडै । बुखारेह मुहा० डौल बाँधना, युक्ति बैठाना; बराबरी के हैं डिलारे घुमंडै ।
-पद्माकर करना, उपाय करना । डीबी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० डिब्बा] भिक्षा-पत्र, उदा० पवन को तोल कर, गगन को मोल कर. एक छोटा ढक्कनदार बर्तन ।।
कवि सों बाँधहि डोल ऐसो नर भाट है। उदा० जोगही गरीबी, तौ गुमान करि लीबी
-गंग कहा, हाथ गही डीवी, तब बादी अरु बीबी |
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को ।
ढपना-क्रि० स० [हिं० ढाँपना] ढाँपना, ढकना, । ढार–क्रि० वि० [हिं० ढाल] ढाल से, सुंदर चाल छिपाना।
ढाल से । उदा० केहू चली छुटि के लुटि सी, अंग कंपत उदा० ढरकि ढार दुरि ढिग भई ढीठि-ढिठाई _ ढंपत सीस किये नत। -बेनी प्रवीन
प्राइ ।
-बिहारी बई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० ढहना - गिरना] धरना | ढारना-क्रि० स० [हिं० ढालना] १. झुकाना देना, आग्रह।
२. ढालना । उदा० सुख मूल गये दुख मूल लये पुनि पापरु उदा० १. ढारै निज कंधनि, नवल सुगंधनि अरु पुण्य छड़ाइ दई । कबौं काम ना क्रोध भी
मनि-बंधन-कनक करें।
-सोमनाथ लोभ गहे समुझे सपने की बदी की ढई । ढिग-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] १. गोटा, संजाफ २.
-बोधा पास, निकट ।। ढगरना-क्रि० अ० [हिं० ढाल] ढलना, बहना, | उदा० १. लांक की लचक लसै लहँगा की ढिग नष्ट होना।
दुरै चूरी ही में चाहि चूर भयो वाही घरी उदा० औरन सौं बतराइ सकै न, छुधा अरु-नींद
-मालम तृषा ढगरी है।
-सोमनाथ ढिरना-क्रि० अ० [हिं० ढरना] १. गिरना, हरारा-वि० [हिं० ढार] चंचल, लोल, हिलने चू पड़ना २. ढलना। वाला ।
उदा० १. भने समाधान अभिमानी हनुमान मैं मैं, उदा० केसरिया पट, केसरि खीर, बनी गर गुंज
पीन-चक्र फेरा लगि ढेरा सो ढिरत भो । ___ को हार ढरारो। -रसखानि
-समाधान हरारे-वि० [हि० ढलना] ढलने वाले, किसी
ढीलना-क्रि० स० [हिं० ढीला] बंधन मुक्त को ओर शीघ्र ही द्रवीभूत या आकर्षित होने
- करना, छोड़ना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाने वाले।
के लिए मौका देना । उदा० नीके, अनियारे, अति चपल, ढरारे, प्यारे,
उदा० बिसवासिनि सासु निगोड़ी ननंद न गेह सो ज्यों-ज्यों मैं निहारे त्यौं त्यौं खरी ललचात
नेकऊ ढीलतु है।
- बेनी प्रवीन -सेनापति | ढुकना-क्रि. अ. [देश॰] किसी बात को सुनने हलत-संज्ञा, पु० [हिं० ढाल+ऐत(प्रत्य॰)] ढाल के लिए पाड़ में छिपना, २. प्रवेश करना । मु० लेने वाले, सेना, रक्षक ।
ढंका देना-छिपकर सुनना । उदा० चोर सों छिपि हौं चल्यो यह जानि चित्त- उदा० दुखहाइनि चरचा नहीं पानन प्रानन आन । लजाइ । देखि द्वार ढलैत गण तब रहे मोह
लगी फिरति ढूंका दिये कानन कानन कान । चढ़ाइ। -गुमान मिश्र
-~-बिहारी ढांगन-संज्ञा, पू० [हिं० डंग] छहारा, खजुर ।
२. देव मधुकर ढक ढकत मधूक धोखे, उदा० ढाँगन के रस के चसके रति फूलनि की
माधवी मधुर मधु लालच लरे परत । रसखानि लुटाऊँ। -रसखानि
-देव ढानी-क्रि० स० [हिं० ढाहना] प्रवाहित करना, हुरकी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० ढरकी] जुलाहों का बहाना, करना।
एक मौजार, जिससे बाने का सूत फेंका जाता उदा० जानै न बात तिन दै मन बांछित श्री जिन सों हित ढायौ।
----सोमनाथ उदा० देव कर जोरि कर मंचर को छोर गहि,
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कुरना
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(
छाती मूठि छूटति न नीठि ठनि हुरकी ।
- देव
दुरना- क्रि० प्र० [हिं० ढलना] अनुरक्त होना, प्रसन्न होना, आसक्त होना ।
उदा० लांक की लचक लसै लहँगा की ढिग कुरै चुरी ही में चाहि चूर भयो वाही घर
को ।
आलम
ढरकि ढार दुरि ढिग भई
श्राइ |
ढीठ ढिठाई —बिहारी दुराना क्रि० स० [हिं० ढाल ] १. चलाना, फिराना, मटकाना, २. झलना, हाँकना, [हिं०, डुलाना ] ।
उदा
. लोचन दुराय, कछू मृदु मुसक्याय, नेह भीनी बतियानि लड़काय बतराय हो ।
दूक – संज्ञा, पु० [प्रा० ढुक्क] दाँव, घात,
अवसर ।
घनानन्द
२. बीजनौं दुरावती सखीजन त्यों सीतहूँ मैं ।
— देव ताक,
१०६
उदा० देव मधुकर ढूक ढूकत मधूक धोखे, माधवी मधुर मधु लालच लरे परत |
— देव छैल भये छतियाँ छिरकी फिरौ कामरी प्रोढ़े गुलाल कों दूके । - पद्माकर
प्रवृत्त होना,
ठूकना - क्रि० प्र० [प्रा० ढुक्क ] "तन्मय होना, लगे रहना । उदा० देव मधुकर ढूक ढूकत मधूक धोखे माधवी — देव मधुर मधु लालच लरे परत | दूरी - संज्ञा, स्त्री [हिं० ढोरी] धुन, उदा० निकस जु सबै लरिका हठ सों, आइ के लाइहै दूरी 1 हेरा - संज्ञा, पु० [हिं० ढेला] ढेला, टुकड़ा, कंकड़ । उदा० मेघन को राखे ढेरा, तख्त का लुटावै मन का सँभारे झेरा, ऐसो नर भाट है
डेरा
। - गंग ठोक—– संज्ञा, पु० [हिं० झुकना ] नमन, नमस्कार,
दण्डवत ।
रट । इन नैननि -गंग मिट्टी का
उदा० दया सबन पै राखि गुरन के चरन ठाकत । - ब्रजनिधि ढोर अव्य० [हिं० तुरना] १. साथ, पीछे २. पीटने की क्रिया [सं० ढोल ] । उदा० १. निसि द्योस खरी उर माँझ अरी, छबि
रंग मरी मुरि चाहन की । तकि मोरनि
)
डौरी
त्यों चख ढोर रहे, ढरिगौ हिय ढोरनि बाहनि की । -घनानन्द २. कहै जगमनि माथौ ढोरि, यह सब रामसाहि का खोरि । - केशव ढोरना- क्रि० स० [प्रा० ढोयरण] १. भेंट करना, देना, गिरना, डालना २. प्रवाहित करना, बहाना ३. हिलाना, चलाना । उदा० १. रीझनि प्रान आनंदघन ख्याल | कोऊ बाल गुलाल ले लाले भरे, कोऊ कुंकम सीस तैं ढोरत है । सूरति मिश्र किती उपमानि —घनानन्द
अरगजा ढोरि करेंगी घनानंद
२. अंगनि रंग-तरंग बढ़ी सु के पानिप ढोरति है ।
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३. कारन कौन सीस इन ढोर्यो । मोहि देखि अपनी मुख मोर्यो । – जसवंत सिंह ढोरनि – संज्ञा, स्त्री० [हिं० ढाल ] १. ढर्रे, ढंग २. ढलने की क्रिया, बहना, मुड़ना । उदा० १. तकि मोरनि त्यों चख ढोर रहे, ढरिगौ हिय ढोरनि बाहनि की ।
घनानन्द
ढोलिया - संज्ञा, पु० [हिं० ढोल] ढोल बजाने
वाला, नट का सहायक । उदा० ढोलिया यों कहै हौं न बदौं इत प्रापु दिवयन के कन फोरत । बोषा ढोल - संज्ञा, पु० १. पास निकट, २. किनारा । उदा० मेरे दोष देखौ तौ परेखो है श्रलेखो एजू मीन ढोले निधि कैसें बूझियत गादरौ ।
[हिं० घोर]
- घनानन्द
ढोवा - संज्ञा, पु० [?] आक्रमण, चढ़ाई | उदा० मनहु पर्वतन प्रति बल भयौ । इन्द्रपुरी को ढोवा ठयो । -केशव ढौका - संज्ञा, पु० [देश०] हिचकी घिघ्घी २. प्यास । उदा मरिश्राए दोउ नैन गरे आइ ढोका लग्यो । - बोधा
ठौर- संज्ञा, पु० [बु ं०] ढंग, तरीका । उदा० चाल न वा चरचान वा चातुरी वा रसरीति न प्रीति को ढौर है ।
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- ठाकुर
ढौरी - संज्ञा, स्त्री० [देश०] प्रादत, रट, धुनि । उदा० ठौरी कौन लागी दुरि जैबे की सिगरोदिन छिनु न रहत घर कहीं का कन्हैया को ।
-ग्रासम
ठोरी लाई सुनन की कहि गोरी
मुसुकात । - बिहारी
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संक्ति, संक्ति [सं० प्रातचित] प्राप्तंकित, भय- .. मौन है ।
-बोधा
तंकित-वि० [सं० मातंकित पातंकित, भय
मौन है।
-देव मीत, संत्रस्त ।
तंत्री–वि० [सं० तंत्र] १. खानदानी, परिवार उदा० साजि चल्यो विक्रम समर्थ दलदीह दिग्गज तिनके दंतन दरे से दीजियतु हैं।
__ वाले २. वीणा। पारवार वार के फुहारे से बढ़त देखि.
| उदा० १. बूझि बूझि हम देखिय मंत्री । पुत्र तंकित दिगीसन के हिय सीजियतु है। । मित्रजन सोदर तंत्री।
-केशव -बोधा
तंसी-वि० [सं० त्रस- डर त्रस्त, मयमीत । तंड...संज्ञा, पु० [सं० तांडव] तांडव, नत्य ।
उदा० अनगन मन-मीन बेध डारे छिनक मै, उदा० बहत गुलाब के सुगंध के समीर सने परत
किये बड़े काम भटू देखत में तंसी है। - कुही है जल यंत्रन के तंड की।
-सूरतिमिश्र -'शृंगार संग्रह' से तक-संज्ञा, पु० [?] बिचार, बात । तंत-संज्ञा, पु० [सं० तंत्र] १. उपाय, प्राधार
उदा० छांडि सबै तक तोहि लगी बक पाठहु सहारा २. घात, दाँव ३. निश्चयी,
जाम यहै जक ठानी। - नरोत्तमदास उदा० १. पिय विदेश हिय बिरह युत किहि जीवै
तकब्बरी-संज्ञा, स्त्री० [?] एक प्रकार की को तंत।
तलवार। कछु तंत नहीं बिनु कंत भटू अबकी धौं ।
उदा० रिपु झलनि झकोरै मुख नहिं मोरै बखतर बसंत कहा करि है।
-बोधा तोरै तकब्बरी।
-पद्माकर २. त्यों पद्माकर प्राइ गो कंत इकंत जब
तका–संज्ञा, पु० [अ० तकीप्र-निंदा करना] निज तंत में जानी।
निन्दा, कलंक ।
-- पद्माकर उदा० या घर ते कबहूँ न कढ़ी कवि बोधा धरौ ३. नोन उबारन सीसते कियो लरन को तंत।
घर भीत तका की ।
-बोधा -केशव | तक्कर-वि० [?] बलशाली । तंबर--संज्ञा, पु० [फा० तंबूरः] एक तार वाला
उदा० करि करि इमि टक्कर हटत न थक्कर बाजा, जिसमें नीचे की ओर तुंबी होती है।
तन तकि तक्कर तोरत हैं। - पद्माकर उदा० काम के कंगूरे छबिदार हैं तंबूरे ऐसे कैधों | तखरी-संज्ञा, स्त्री॰ [बुं०] . व्यापार, वाणिमनभावती नितंब ये तिहारे हैं।
ज्य २. तराजू, कांटा वह साधन जिससे तौलने
-पजनेस का काम लिया जाय। तंभम-संज्ञा, पु० [सं० स्तंभ शृंगाररसान्त- उदा० १. बात उजागर सोच कहा जो घटैगी र्गत स्तंभ नामक भाव ।
जफा सो कढ़ तखरी में ।
-ठाकुर उदा०--प्रारंभन तंभन संदभ परिरंभ रन कच । तखियान क्रि० वि० [सं० तत्क्षण] तत्क्षण, ...... ग्रह सरंभन चुंबन घनेरेई ।
उस समय । तंभित-वि० [सं० स्तंभिस] निश्चल, सुन, उदा. तीर पर तरनि तनूजा के तमाल तर तीज नि:स्तब्ध, अवरुख।
की तयारी ताकि आई तखियान में। स्वा. जगमातक सुनि बात तंमित गात है रही।
-पद्माकर
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तगोर
(
तगीर — संज्ञा, पु० [अ० तगय्युर] परिवर्तन | उदा० सिसुता अमल तगीर सुनि भए और मिलि मैन । बिहारी तगीरी -संज्ञा, स्त्री० [हिं० तगीर ] अवनति, पदावनति । उदा० मनसब घटे तगीरी होई ।
-लाल कवि तथलं - संज्ञा, पु० [हिं० तचना ] श्राग, तपन, गर्मी २. जलना, [ क्रि० प्र०] । उदा० येरी गरवोली भूलि जैहै जो विरह, विष खै को बचैहै मैन महीपति तचलै । बेनी प्रवीन तड़ - संज्ञा, स्त्री० [सं० नड़ित् ] तड़िता, बिजली, दामिनी ।
- श्रालम
उदा० सुरचाप गड़ी तड़ तेग तये कवि आलम उत्तर दच्छिन री । ततच्छ-क्रि० वि० [सं० तत्क्षण] शीघ्र, तुरन्त । उदा० नैन ते निकरि मन मन ते तमाम तन तन ते ततच्छ रोम रोम छवि छै गई ।
-पजनेस ततबितत -संज्ञा, पु० [?] नृत्य के भेद । उदा० सहचरि चुहल चोप हो चहुँ ओर आनँद घन तत बितत । तती — संज्ञा, स्त्री० [सं० तांता २. समूह | उदा० इंदु उर अंबर ह्र
-घनानन्द
तति ] श्रेणी, पंक्ति,
निकसी तिमिर तती, सुधाधर केलि करें बेलि ज्यों सिवालिनी, - देव सूक्ष्म उदर में उदार निरं नाभी कूप, निकसति ताते तती पातक अतंक की । — देव महा उच्च माथै सिरी सोहती हैं । मनों सिद्ध को सुद्ध सोभा तती है ।
—पद्माकर
तत्ती - वि० [सं० तप्त ] दाहक, तप्त । उदा० कर करी सुकत्ती तीखन तत्ती हनि रिपु छत्ती नहि बिनसी । तताई - संज्ञा, स्त्री० [हिं० तात] ताप, ज्वाला, गर्मी ।
-पद्माकर
उदा० धोखो बढ़यौ जिय जानि कुमार हें परसे यह श्रंभ तताई ।
कुमारमरिण बरनि बताई, छिति व्योम की तताई, जेठ आयो प्रातताई पुट पाक सौ करत है ।
१११ >
संक
— सेनापति सनगना- क्रि० प्र० [हिं० तिनगना ] नाराज होना, क्रुद्ध होना, झल्लाना, चिढ़ना । उदा० होनजल मोन सो नवोन तिय अंकहूँ मैं, डीठि करि पैनी ह्र तनैनो तनगति है । -सोमनाथ तानना ] विस्तार,
तननि – संज्ञा, स्त्री० [हिं० खिंचाव ।
उदा० किंकिनो रटनि ताल नाचत गुविंद फन फननि
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तनाखना- क्रि स० [हिं० तनाना] तनाना,
टाँगना ।
उदा ग्वाल कवि उरज उतंग तंग तोफन पै, कर्मनें कछूक केस कुंडल तनाखे है ।
ग्वाल
ताननि तननि देव, फर्निंदु के ।
- देव
तनाय -- संज्ञा, पु० [फा० तनाब ] रस्सो, डोरी । उदा० जहँ तहाँ ऊरध उठे होरा किरन घन समुदाय हैं। मानो गगन तंबू तन्यो ताके सपेत तनाय हैं । - भूषरण तनी - संज्ञा स्त्री० [हिं० तनाव ] बंद, चोली को डोर, बंधन २. चोलो, तनिया । उदा० बसन लपेटि तन गाढ़ो के तनीनि तनि सोन चिरिया सो बनि सोई पियसंग में ।
]
तपन – संज्ञा, पु० [ सं उदा० सहिहों तपन ताप को बिरह बीर
—दास
तपकना --क्रि स० [सं० ताप] जलना, संतप्त होना । उदा. टपकत असू तपकत हियरा है सियरा, है प्रति कहति बिसारी दसा तन दी । - बेनी प्रवीन
सूर्य, रवि । पर को प्रताप, रघुवीर मोपै न सहयौ परी । - केशव तपनीय संज्ञा, पु० [सं०] स्वर्ण, सोना । उदा० कोटिक लपटें उठी अंबर दपेटे लेति, तथ्यौ तपनीय पयपूर ज्यौं बहुत है । -सेनापति तपु संज्ञा, पु० [सं० तपुस्] अग्नि, आग | उदा० तपन तेज, तपु-ताप तपि, अतुल तुलाई माँह । - बिहारी तबक -- संज्ञा, पु० [फा०] चाँदी अथवा सोने का बर्क ।
उदा० किधी कमनीय गोल कामिनी कपोल तल
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( ११२ )
तरराना किधौं कलधौत के तबक ताई काढ़े है।
सूबो तुरगन की तमाम करियतू है। -देव
-- केशव तमामी-संज्ञा, स्त्री० [फा०] एक प्रकार का कवि पजनेस कंज मंजुलमुखी के गात । देशी रेशमी वस्त्र । उपमाधिकात कल कुन्दन तबक सी । उदा सोने के पलंग मखमल के बिछावने हैं.
--पजनेस
तकिया तमामी के तमाम तरकीप के । तबल-संज्ञा, पू० [फा० तबर] कुल्हाड़, कुल
-बेनी प्रवीन हाड़ी की भांति एक हथियार २. नगाड़ा, बड़ा
तमिल-वि० [सं० तम, तमिस्र] क्रुद्ध, नाराज । ढोल ।
उदा० तमीपति तामस तें तमिल व उयो पाली, उदा० तोमर तबल तुफङ्ग, दाव लुट्रियो तिही
तियनि बधनि कहँ दूनोई दवतु है। छन । -सूदन
-पालम सैफन सों, तोपन सों, तबल रु ऊनन सों तमोतखारे-संज्ञा, पु० [सं० तम्बाकू हिं० वार] दक्खिनी दुरानिन के माचे झकझोर हैं। पान या ताम्बूल देने वाले ।
-कवीन्द्र उदा० खौखरे बरुन तमोखारे तारापति चौंखारे तबेला-संज्ञा, पु० [?] १. पशुशाला, २, जन्तु
चारु चतुरानन चतुर हैं। -पद्माकर शाला ३. अश्वशाला ।
तरकीप--संज्ञा, स्त्री० [अ० तरकीब] तरकीब, उदा० फुकरत मूषक को दूषक भुजंग, तासों जंग ढंग, रचना, बनावट ।
करिबे को झकयो मोर हद हेला मैं । उदा० सोने के पलंग मखमल के बिछावने हैं । पापुस मैं पारषद कहत पुकारि कछु रारिसी
तकिया तमामी के तमाम तरकीप के। मची है त्रिपुरारि के तबेला मैं ।
--बेनी प्रवीन --भूधर तरच्छ-संज्ञा, पु० [सं० तथु, हिं० तरक्ष] लकड़तबेली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० तलाबेली] तलाबेली, बग्घा नामक पशु । व्याकुलता, छटपटाहट ।
उदा० पुग्छन के स्वच्छजे तरच्छन को तुच्छ उदा० कहा करौं कैसे मन समझाऊँ व्याकुल
करें । कैयो लच्छ लच्छ सुम लच्छन न लच्छे जियरा धीर न धरत लागिये रहति तबेली।
-पद्माकर -घनानन्द तरछना-क्रि० अ० [हिं० तिलछना] छटपटाना, तमंका-- संज्ञा, पु० [हिं० तमकना] जोश, ___ बेचैन रहना । आवेश २. क्रोध, तेजी।
उदा० भारी सो भुजंग भागीरथो के सूतोर परयौ. उदा० आगें रघुबीर के समीर के तने के संग,
ताहि लखि खाइबे को तरछत पार भो। तारी दै तड़ाक तड़ातड़ के तमंका में।
-पद्माकर - पद्माकर तरजना--क्रि० अ० [सं० तर्जन] डाँटना, डपटना तमई- संज्ञा, स्त्री० [सं० तमी] तमी, रात्रि, । संत्रस्त करना । उदा० है तम सों तमई बितई अब द्योस चढ़ यो उदा० ग्वाल कवि चातकी परम पातकी सों मिल, सु चढ़ी कुल गारी ।
-आलम
मोरहू करत सोर तरजि-तरजि कै। तमचोर-संज्ञा, पु० [सं० ताम्र चूड़] ताम्र चूड़ मुर्गा ।
तरना-क्रि० स० [हिं० तलना] १. तलना उदा० सारस चकोर खंजन अछोर।
संतप्त करना । प्राग में किसी पदार्थ को घी या तमचोर लाल बुलबुल सु मोर ॥ - सूदन तेल में पकाना, २. पार होना । तमा- संज्ञा, स्त्री० [अ० तम] लोभ, लालच। उदा० दारुन तरनि तरै नदी सुख पावै सब सीरी उदा० खाने को हमारे है न काहू की तमा रहै,
घन छांह च हिबौई चित धर्यो है । सू गाँठ में जमा रहे तो खातिर जमा रहै ।
. --सेनापति - ग्वाल तरराना- क्रि० अ० [हिं० तरारा] तेजी से तमाम-वि० [] १. खत्म, समाप्त २. सब बहना, निरन्तर प्रवाहित होना। पूरा ।
उदा० भाग भले तिनके सु कबिंद जु रावरे की उदा० १. डूबी न बीथिन चकोर चतुराई मन
रस रीति निहार ।यों कहि कै तिय नैननि ते
-ग्वाल
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-दास
सवाई तरराइ चलीं अँसुवान की धारै ।।
बात देवाल तरी सों।
-कवीन्द्र तरेरी–वि० [हिं० तरेरना] तिरछी। तरह-संज्ञा, स्त्री० [अ०] ढंग, रीति, ढब । उदा० रावरी हाँसी बिलोकन सों, अरु बांसुरी की उदा० संगति में बानी की कितेक जुग बीते देखि
सुनि तान तरेरी ।
---सोमनाथ गंगा पै न सौदा की तरह तोहि प्रावती । तरौटा-संज्ञा, पु० [सं० अंतरपट] अँतरौटा,
___ -- दास साड़ी के नीचे पहनने का कपड़ा, साया । तरहदार वि० [फा०] सुन्दर प्राकृति वाले, उदा० सुरंग तरौटा सोहै सारी सार सेत की। अच्छी बनावट के।
-आलम उदा० तावगीर तरुतोर तरुन तरहदार, तरायल तरींस-वि० [सं० तल+ीस (प्रत्य॰)7 निचली सहित मैगल धाइयत हैं।
--गंग
तह का, नीचे की सतह का तराग-संज्ञा, पु० [सं० तड़ाग] तड़ाग, तालाब। उदा० स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा उदा. जोबन की बनक कनक मनि मोतिन सों तीर असुवन करति तरौंग को खिन खौरौंहो तनक तनक पूरी पानिपतराग सी।
नीर।
-बिहारी --देव | तर्ण-संज्ञा, स्त्री० [सं० तरणी] तरणी, नाव, तराइल-- वि० [सं० तरल] चंचल, अस्थिर।। नौका । उदा० घायल तराइल सी मानो करसाइल सी, उदा० दीरघ मत सत कबिन के अर्थाशय लधुतर्ण, बार-बार बाइल सी घुमति घरिक ते ।
__ कबि दूलह याते कियो कवि-कुल-कंठा भणं । -पालम
-दूलह तराना-क्रि० स० [हिं० तरियाना] किसी वस्तु तलप-संज्ञा, स्त्री० [सं० तल्प].. शय्या, सेज,
का पानी आदि के नीचे जाना, नीचे पड़ना, पलंग २ अटारी । कम होना, दब जाना।
उदा० १. आवा सी अजिर औनि तावा सी तलप उदा० उतराती सी बैन तराती भई इतराती बधू
--दास इतराती जगी।।
-देव
२. तलप सुहाती पीकी तलप सुहाती जी तरायल-क्रि० वि० [सं० स्वरा] त्वरा से, की तलप अलप जाती प्राण सुख पावते ।
जल्दी से, शीव्रता से उदा। प्रागें प्रागें तरुन तरायले चलत चले. तला-संज्ञा, पु० [हिं० तालाब] तालाब, सरोवर। जिनके प्रमोद मंद मंद मोद सकस ।
उदा० तला तोयमाना भए सुख्खमाना । -भूषण
-केशव तरारे---वि० [अ० तरीरीचंचल, मुखर ।
तलाबेली--संज्ञा, स्त्री० [हिं० तलबेली] पातुरता, उदा० धंसिक धरा के गाढ़े कोल की कड़ाके बेचैनी, छटपटाहट । डाढ़े पावत तरारे दिगपालन तमारे से । उदा. जौलौं हौं न चली तो लौं कैसी करी
-भूषण तलाबेली।
-सुंदर तरासना-क्रि० स० [फा० तराशना] काटना, तलीम--संज्ञा, स्त्री० [अ० तालीम] तालीम, कुतरना।
शिक्षा, उपदेश । उदा० तिनही तिनही लखि लोभ डस ।
उदा० सब सुखदायक सुसील बड़े कीमति की. पट तंतुन उंदुर ज्यों तरसै । -केशव
भई है तलीम तलबेलियो मनोज की तरिता-संज्ञा, स्त्री० [सं० तड़ित्] बिजली,
-तोष विद्युत् ।
तवना-क्रि० अ० [सं० तपन] जलना, संतप्त उदा० तारिका बलय बीच तारापति के नगीच होना। तरनि तिमिर तरे तरिता तरप सी।
उदा० सत्व के समत्व सौं असत्व सत्व सुझि -देव
परयो, तत्व के महत्व सौं ममत्व मात त्वै तरी अव्य [सं० तटी] १. निकट, पास २.
गई।
-देव नाव [संज्ञा, स्त्री.]
तवाई---संज्ञा, स्त्री० [सं० ताप] विपत्ति, कष्ट । उदा० १. हेरत घात फिरै चहुधा ते प्रोनात है। मुहा० तवाई पड़ना-कष्ट पड़ना ।
फा० १५
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तहतही ( ११४ )
तारक उदा० सखि ! कौंमल चित्त चकोरन पं, यह नाँहक । चाबुक । हायं तवाई परी।
-द्विजदेव | उदा० तुरत तुरंग करि तातौ ताहि ताजन दै, तहतही-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] शीघ्रता, जल्दी । फफकि फॅदाइ दियौ बाहर कनात को। उदा० तहतही करि रसखानि के मिलन हेतु बह
-चन्द्र शेखर बही बानि तजि मानस-मलीन की।
ताते-वि० [?] चंचल, तेज ।
-- रसखानि उदा० ठिले अत्ति हैं मह मातंग माते । उमंगत्त तहना क्रि० अ० [?] जलना, तप्त होना, खट
तैयार तूरंग ताते ।
-पद्माकर कना ।
तातो-वि० [?] तीव्र, तेज । उदा० जमुना तट बीर गई जब तें तबतें जग के
उदा० तुरत तुरंग करि तातो ताहि ताजन दै, मन माँझ तहौं ।
--- रसखानि
फफकि फॅदाय दियो बाहिर कनात के । तहराना-क्रि० स० [हिं० तेहा] क्रोध करना,
-चन्द्रशेखर झगड़ा करना।
ताब-संज्ञा, स्त्री० [फा०] दीप्ति, चमक, आब उदा० तहराती गोविंद सो गोप सुता, सिर प्रोढ़
२. ताप ३. शक्ति । नियाँ फहराती फुही। -बेनी प्रवीन उदा० पारिजात-जातह न, नरगिस छातह न तांकना क्रि० स० [सं० तर्क] तर्क करना,
चम्पक फुलात है न, सरसिज ताब में । विचार करना ।
-ग्वाल उदा० नावक सर से लाइ के, तिलक तरुनि इत
ताबुक-संज्ञा, पु० [सं० तापक, हिं० ताबा] तॉकि । पावक झर सी झमकि कै, गई
१. तावा, लोहे का चक्राकर वह पात्र जिसमें झरोखा झॉकि ।
-बिहारी
रोटियां सेंकी जाती हैं। २. तापक ३. ज्वर । तांदुर - संज्ञा, पु० [सं० तंदुल] तंदुल, अक्षत,
उदा० खिन एक ते खोइ गयो कछु है तरुनी को चावल ।
तप्यौ तनु ताबुक सो।
-देव उदा० तांदुर बिसर गई बधु तें कहयों ले प्राव तब ते पसीनों छूट्यो मन तन को तयो ।
तामरा-वि० [सं० ताम्र] लाल, ताँबे जैसे रंग
का । तांसी-संज्ञा, पु० [सं० त्रास] १. दुख २. धम
उदा० तामरा बदन क्यों करित मोती चूर आँखें, की, डॉट ।
सुरुख सुपेद हयाँ सिराइ जी में पाई है। उदा० १. राधिका के मिलिबे को गोविंद,
-बेनी प्रवीन कितेक दिनान लौं देत हों ताँसी।
तायफा-संज्ञा, स्त्री० [फा०तायफ़ा] १. वेश्याएँ
-. ग्वाल और उनके साथ रहने वाली मंडली २. वेश्या । ताई -संज्ञा, स्त्री० [हिं० तवा, तई (स्त्री०)]
उदा० १. तनन तरंग तान तोमद कलश तैसी एक प्रकार की छिछली कढ़ाई।
तायफा तड़ित गति भरत नई नई । उदा० बिरह रूप विपरीत, न बाढ़ी । हिये मनो
-घनश्याम ताई के काढ़ी।
-बोधा | तायल–वि. [हिं० तरायल] तेज, चंचल २. ताछन - संज्ञा, पु० [सं० तक्षण-कटाब. कावा । उतावले, शीन गामी जल्दबाज । उदा० उड़त अमित गति करि करि ताछन । उदा० चली छार से करत खुर-थारनि पहार, जीतत जनु कुलटान-कटाछन ।
अति तायल तुरंगम उड़त जनुबाज । - पद्माकर
-चन्द्रशेखर ताछना-क्रि० सं० [प्रा० तासन, सं० त्रासन] तार - संज्ञा, पु० [सं० तल] तल, सतह । त्रस्त करना, संतप्त करना ।
उदा० गौतम की नारी सिला भारी ह्व परी ही उदा० कान्ह प्रिया बनिकै बिलसै सखी साखि
नाथ, ताही पै पधारे, त्यागि महामद सहेट बदी जिहि काछे। कवि 'पालम'
तार है।
-ग्वाल मोद विनोदनि सों तन स्वेद समै मदनज्जल तारक-वि० [सं० ताड़ना] १. दण्डक, ताड़ना - ताछे।
-आलम देने वाला, सजा देने वाला २. तारने वाला ताजन-संज्ञा, पु० [फा. ताजियाना] कोड़ा, I पापों से उद्धार करने वाला।
- ग्वाल
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तारायन
तिलक.
-देव
उदा० तारक जमेस की, विदारक कलेस की है, । तिनाना--क्रि, अ० [हि तन्नाना] कड़े पड़ना, तारक हमेस की है, तनया दिनेस की। नाराज होना ।
-ग्वाल | उदा० पालि लएँ दधि दूध महो, जिन ऊधमही तारायन--संज्ञा, पु० [सं० तारा पुष्प] एक प्रकार
तिनहूँ सौं तिनाने । का पुष्प ।
तमारो-संज्ञा, पु० [सं० ताप] मूच्र्छा, ताप, उदा० फल मेवा बिधना रच्यो फल गुठली दोउ चक्कर २ ज्वर, बुखार,
काम । तारायन के फूल की लाए मेरे | उदा० अंचर अरुण फबि रबि छबि छूटी दुति धाम ।
--मतिराम
देखि दबि पाये तम जोम को तमारो सो। तारिछ-संज्ञा, पु० [सं० तायं] गरुड़ पक्षी । उदा० गंग कहै तारिछ के त्रास ते मुकुत कियो, | तिमिर संज्ञा, पु० [सं० तिमिगिल या तिमि] कालीनाग कहाँ ते तिलक मुद्रा दिये तो।। १.समुद्र में रहने वाला मत्स्य के प्राकार
- गंग | का एक भारी जंतु २. अंधकर ३. रतौधीं। तारे-संज्ञा, पु० [हिं० ताड़] १. ताटंक - उदा. १. दीरध उसास लेत अहि रहै भारी जहाँ नामक कर्णभूषण २. अाँख की पुतली [सं० तारा]|| तिमिर है बिकट बतायौ पंथ जोग कौं । उदा० बाट मैं मिलाइ तारे तौल्यौं बहु विधि
-सेनापति प्यारे दीनी है सजीउ आप तापर परत हो।
३. मैलन घटावै महा तिमिर मिटावै सभ -सेनापति
डीठि को बढ़ावै चारिवेदन बतायो है। ताले-संज्ञा, पु० [अ०] भाग्य, किस्मत,
-सेनापति प्रारब्ध ।
तिरनी-संज्ञा, स्त्री० [?] नीबी, घांघरा बांधने उदा० बनक बिलोकि वाकी बरण कहाँ लों
की डोरी। पर एतिक कहत सेवै ताके बड़े-ताले हैं। उदा० चौंकहिं जिमि हिरनी सिथिलित तिरनीं
-- रघुनाथ
रबि की किरनी तन न सहैं । इमि चली तावगीर-वि० [फा० तावगीर] घमंडी, अभि
झपटक नेक न लटकै कहँ पट फटकै अटकि मानी, २. शक्तिशाली।।
-पद्माकर उदा० तावगीर तरुतोर तरुन तरहदार तरायल तिरप-संज्ञा, पु० [सं० त्री.] नृत्य की एक सहित मैगल धाइयत हैं।
-गंग गति, त्रिसम । . तास - संज्ञा, पु० [अ ताश] एक प्रकार का उदा० उर पै तिरप लाग डाट बीर परत अमीर ज़रदोजी कपड़ा, जरबफत ।
भीर अंग कोई अंग न मुरत हैं।—देव उदा० तासन की गिलमैं गलीचा मखतूलन के तिरह--- वि० [सं० त्रय] तीन प्रकार,-त्रिगुणाझरफै झुमाऊ रही भूमि द्वार द्वारी मैं ।
त्मक। -पद्माकर उदा० हरिहर इनको लिखे हैं बेद बड़े करि सब ताहिनौं- संज्ञा, स्त्री० [फा० तौहीन]-अपमान, मैं जो बनी यह सृष्टि तिरह की । -- रघुनाथ अनादर, अप्रतिष्ठा ।
तिलंग-संज्ञा, पु० [सं० तैलंग] अंग्रेजी फौज में उदा० दासी सों कहत दासी, यामें कौन-ताहिनौ । रहने वाले देशी सिपाही । है, उनकी खवासी, तौ न कीनी जोरि कर | उदा० तरल तिलंगन के तुंग तेह तेजदार कानन
--ग्वाल
कदंब को कदंब सरसायो है। -ग्वाल तिखने-वि० [सं० त्रय+खण्ड] तिखंड, तिमं- तिलक-संज्ञा, पु० [सं०] १. एक वृक्ष जो वसंत जला,
में प्रफुल्लित होता है २. टीका ३. ढीला ढाला उदा० देवर डग धरिबो गनै (मेरो) बोलत नाह लम्बा कुर्ता ४. थोड़ा।
रिसाय । तिखने चडि ठाढ़ी-रहूँ लैन करूँ उदा० १. मोहन-मधुप क्यों न लटूब लुभाय कनहेर।
--रसखानि
भटू ! प्रीति को तिलक माल धरे भगवंत है। तिल्ल-वि० [सं० तीक्ष्ण] तीक्ष्ण, तेज।
-घनानन्द उदा०कर मैं बरख्खिय तिख्ख है। चमकै तडित्त
३. तनियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनिया न । सरिस्ख है। -सोमनाथ
-भूषण
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तिलकु
८. तरुनी-तिलक नन्दलाल त्यों तिलक | संग्रहणी नामक एक रोग। ताकि, तोपर हौं वारों तिलतिल के तिलो- उदा० कहै पद्माकर चतुर्भुज को रूप मयो, बड़ेत्तमै ।
--गंग
बड़े पापनिहूँ ताप को तिसार भों। तिलकु-वि० [सं० तिल+एक] तिलमात्र, क्षण
-पद्माकर मात्र।
तीखन-वि० [सं० तीदरण] तीक्ष्ण, तेज । उदा० न वक-सर से लाइ के, तिलकु तरुनि इत उदा० सीखति सिंगार मति तीखति प्रवीन बेनी, ताँकि पावक-झर सी झमकि कै, गई
सौतिन की मीखति गई है सुखसारे को।। झरोखा झाँकि । -~~-बिहारी
-बेनी प्रवीन तिलाम संज्ञा, पु. [?] गुलाम का गुलाम, तीतुरी-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] कान का एक आभूदासानुदास ।
षण जो खटले के साथ लटकता रहता है उदा० राम को कोऊ गुलाम कहै ता गुलाम को
और जिसकी आकृति पत्ते के समान होती मोहिं तिलाम लिखीजौ। पद्माकर
है। २. एक उड़ने वाला सुन्दर कीड़ा, तिलोरो-संज्ञा, स्त्री० [हिं० तिलौरी] तेलिया,
तितली। मैना ।
उदा० १. तनक-तनक तन तीतरी तरल गति उदा० लाल तो चकोरै मोर मानत कहो न कछू,
मानहुँ पताका पीत पीड़ित-पवन है। कैसी कर बानक तिलौरी तै' तकत है।
-केशव -द्विज बलदेव तीते-वि० [सं० तीमित, प्रा. तित] प्रार्द्र, तिलौंछ-वि० [सं० तैल+हि० प्रौछ] जिसमें गीला,भीगा हुप्रा । तेल न हो, रूखा, स्नेहहीन।
उदा० सो सुनि पियारी पियगमन बराइबे कों, उदा० हँसि हँसाय उर लाय उठि, कहि न रुखौहैं
प्रसूनि अन्हाइ बोली आसन म तीते पर । बैन । जकित थकित से ह्र रहे, तकत
-पद्माकर तिलौंछे नैन ।
-बिहारी करवा की कहाँ गंग तरबा न तीते होंहि, तिलौछना --क्रि० अं+ [हि० तिल+औंछना]
सरवा न बूड़ परवाह नदी नारि के । तेल से पोंछना, सुरमा आदि का चिह्न तेल से
-~-गंग भीगे कपड़े से छुड़ाना, तेल लगाकर चिकना तुंगतनी-वि० [सं० तुंग+ तनी= स्तनी] तुंगकरना।
स्तनी, उन्नतपयोधरा । उदा० हँसि, हँसाइ, उर लाइ उठि, कहिन रखौं उदा०-अपनी तनु छांह सों तुंगतनी तनु छैल हैं बैन । जकित थकित ह तकि रहे तकत छबीले सों छुवै चलती।
-दास तिलौंछे नैन ।
-बिहारी तुड-संज्ञा, पु० [सं०] १. मुख २. सूंड, सुण्ड । तिलौनी-वि [हिं तेल+ौनी] सुगंधित, तेल उदा० १. त्रिबली त्रिवेणीतट रोमावलि धूम लट फुलेल से युक्त।
यौवन पटल ज्योति बेंदी छबि तुंड मैं । उदा पाछी तिलौनी लसैं अंगिया गसि-चोवा की
-देव - बेलि बिराजति लोइन ।
-घनानन्द
२. ग्वाल कवि जैसौ कुंभ कान दंत तुंड तिष्य-वि० [सं० तीक्ष्ण] तीदरण, तेज धार
तैसो तैसी फुतकार औ चिधार अति मोटी वाली।
- ग्वाल उदा० बुगदा गुपती गुरज डाँढ़ जमकील बतारी। तुद-वि० [फा०] १. तेज, प्रचण्ड २. पेट, सूल अंकुसा छुरी सुधारी तिष्य कुठारी।
उदर [सं०]।
-सूदन उदा १. होते अरविंद से तो आयके मलिदे बंद, तिसरी संज्ञा स्त्री० [हिं० तीन + सरी= लड़ी] लेते मधुबंद कंद तंद के तरारे से । -वाल तीन लड़ियों का एक प्राभूषण, टीका।।
और अमरन अब काहै को सजैगी बीर, एक ही उदा० तिसरी कंटी भ्र व डॅडी द्रिग दोउ पला
में बाढ़ी अंग-अंग छबि तुंद है। बनाइ । तोलत प्रीति दुहून की घटि-बढ़ि
–बेनी प्रवीन करी न जाइ ।
-जसवंत सिंह । देह लता नैन अरविंद मौंह भौर पांति, तिसार-संज्ञा, स्त्री [सं० अतिसार] अतिसार, अधर ललाई नव पल्लवनि तुंदरी ।
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तुका
(
११७ )
-सोमनाथ ।
-बोधा बुंद तुंद दंदि के प्रवीन बेनी बरसत सरसत तुरी-संज्ञा, पु० [अ०] कलगी, पगड़ी में लगाये
मदन बदन मुंदि रहै को। -बेनी प्रवीन | जाने वाला पखं । तुका-संज्ञा, पु० [फा०] बिना फल का तीर, उदा० सोहे पाग जरकसी तुर्रा।
-बोधा वह तीर जिसमें गाँसी की जगह पुंडी होती है।
मान दैक तोरा तुर्रा सिर पै सपूती को। उदा० गाड़े ह रहे ही सहे सन्मुख तुकानि लीक ।
-पद्माकर -दास तुरुराना-क्रि० अ० [सं० तुर] घबराना, पातुर काम के तुका से फूल डोलि डोलिडार, | होना । मन औरे किये डार ये कदंबन की डारै री। । उदा० अनमनी बानि पहिचानि पति सौमनाथ,
-कवीन्द्र
बिनती करत जब जीभ तुरुरानी री । तुझाना-क्रि० स० [?] छोड़ाना, दूर करना
- सोमनाथ उदा. नित बोलि प्रमी रस पान करै यह कान के तुलही- संज्ञा, स्त्री० [सं० तुला] तुला, तराजू । __ बान तुझावैरों को।
-रघुनाथ उदा० कपोल ज्यों प्रेम पला तुलही के। - देव तुठी-संज्ञा, स्त्री० [सं तुष्टि] तुष्टि, प्रसन्नता । तुलाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० तूल] रजाई, सौड़ । उदा० पूछत या हित सों तुम सों चित सों हहा उदा० तपन तेज, तपु-ताप तपि अतुल तुलाई दीजै बताय तुठी मैं ।
--वाल माह।
-बिहारी तुति-संज्ञा, स्त्री० [सं० स्तुति] स्तुति ।। तुख-संज्ञा, पु० [सं० तुष सींक, तिनके का उदा. यह सुनि विरंचि ने सुख सु पाइ । तुति टुकड़ा। करी ईस की हित बढ़ाइ।
उदा० तीखी दीठि तूख सी, पतूख सी अरुरि अंग, -सोमनाथ
ऊख सी मरूरि मुख, लागत महूख सी। तुन--संज्ञा, पु० [सं० तुन] एक विशाल वृक्ष
-देव जिसके फूलों से बसंती रंग निकलता है। तूचह-संज्ञा, पु० [सं० त्वचा] त्वचा, चर्म । उदा. पोऊ रहे हेरि मोहि मैह उन्है हेरि रही उदा० तूचह मन तजि जमपुरी बसै सो स्वप्न ह्व रहे चकित दोउ ठाढ़े तरे तुन के ।
बखानि ।
-रसलीन -रघुनाथ तूटना-क्रि० प्र० [सं० तोट] टूटना, नष्ट होना, तुपक-संज्ञा, स्त्री० [तु० तोप] एक प्रकार की
छूटना । छोटी तोप ।
उदा० अरु तुम कमलजोनि से छूटी । श्राप ताप उदा० लिए तुपक जरजार जमूरे ।
कौ सासौ तंटौ।
---जसवंतसिंह -चन्द्र शेखर तूती संज्ञा, स्त्री० [फा०] १. छोटी जाति का तुफंग-संज्ञा, स्त्री० [तु.] हवाई बंदूक ।
तोता २. मटमैले रंग की एक छोटी तथा सुन्दर उदा० तोमर तबल तुफङ्ग दाव लुट्टियो तिही चिड़िया ।
-सूदन | उदा० काम की दूती पढ़ावत तूती चढ़ी पग जूती तुर-क्रि० वि० [सं० आतुर] जल्दी, शीघ्र।
बनात लपेटा ।
-देव उदा० हरष सों पागे महालगन की सिद्धि पाइ
भारथ अकर कर तूतिन निहारि लही, प्रागे राह रोकी जाइ अति गति तुरसों।
यातें घनस्याम लाल तोते बाज पाए री। -रघुनाथ
- दास तुरमती-संज्ञा, स्त्री० [तु० तुरमता] बाज की तूदा-संज्ञा, पु० [फा०] राशि, ढेर, समूह । माँति एक शिकारी चिड़िया ।
उदा० ज्यों ज्यों मोरन को कहति मोर पक्षधर उदा० तुरमती तहखाने तीतर गुसुलखाने सूकर
लाल । काम खाक तूदा करत त्यों त्यों हनि सिलहखाने कूकत करीस हैं
-भूषण शर जाल ।
-नंदराम तुराय-क्रि० वि० [सं० स्वरा] तेजी से, स्वरा तून-संज्ञा, पु० [सं० तूरण] . तूण, तरकश, वेग से, झोंके से।
वाण रखने का चोंगा २. तृण। उदा० बिरह बारि बाढ़ी नदिया चली तुराय।। उदा. जाहिर जोर प्रमा दरस सरस तिनतें छवि मोरो नबो जीवन बिरवा उखरि न जाय ।। काम के तून की।
-प्रतापसाहि
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तूमना
तोरा
तो।
तूमना-क्रि० सं० [सं० स्तोम] हाथ से भी- । उदा. हिलि-मिलि फूलन-फुलेल-बास फैली देव जना, मसलना ।
तेल की तिलाई महकाए महकत नाहि । उदा० करि परतीति वाकी सावधान रही साथ
--देव सखिन के नैन चैन नींदन को तूमिगो।। तेली-संज्ञा, पु० [बुं०] तुरन्त की ब्यानी गाय
___---रघुनाथ __का दूध, पेवस। तर-संज्ञा, पु० [सं०] १. नगाड़ा २. तुरही। उदा० ब्यानी गाय तुरत जो तेहिकी तेली भूल न उदा० बेनी जू प्रबीन कहै मंजरी सँगीन पौन.
पीजो।
- बकसी हंसराज बाजत तँबूर भौंर तूर तासु संगी है।
तो-सहा०, क्रि० [हि. हतो] था, बुंदेलखंडी
-बेनी प्रवीन और ब्रज की भूतकालिक सहायक क्रिया। तूरन क्रि० वि० [सं० तूर्ण] शीघ्र, जल्दी, उदा० पढ्यो गुन्यो करी न कुलीन हुतो हंस-कुल,
भट।
छुयो गीध छुतिहा न छाती छाप कियो उदा० सैन में पेखि चुरीन को चूरन तूरन-तेह गई
-गंग गहि गाढ़ी।
-दास | तोत-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] १. खेल, क्रीड़ा लागे उरोजन अंकुर तूरन त्यों लगी तू २. अतिशयता, अधिकता ३. थोथा, असत्य । लखि सौति विसूरन ।
-तोष उदा०१. दिन भूलनि संकेत मिस मिलत मीत करि तुलना-- क्रि० अ० [हिं० तूल-विस्तार] बढ़ना, तोत, फिर पावस कारी निसा, अति सुख"बड़ा होना, विस्तृत होना
कारी होत ।
-नागरीदास उदा. गंग कहै यहै अंग के जोर में कंचुकी पैन्हि
२. तैसें जाकै जाने बिन जग्त सति जानियत, कैतूलि रहे हैं।
-गंग
जाकै जानै जानियत बिस्व सबै तोत है। तूसना-क्रि० प्र० [सं० तुष्ट] तुष्ट होना, प्रसन्न
-जसवंत सिंह होना ।
तोद- संज्ञा, पु० [सं० तोदन] व्यथा, पीड़ा, उदा० और तो आगे कहां लौ कहीं पर एति कहै । । २. चाबुक, क्रीड़ा प्रादि । पल तू नहिं तूसै ।
-रघुनाथ
| उदा० आनँद घन रस बरसि बहायौ जनम तेखी-वि० [हिं० तेहा] क्रुद्ध, नाराज, रुष्ट ।
जनम को तोद । उदा० कालिंदी कूल कदम्ब की छांह में ठाढ़ी ही
-घनानन्द पापु सखीन सों तेखो ।
तोफन-संज्ञा पु० [अ० तोहफा] सौग़ात, मेंट तेज-संज्ञा, पु० [सं०] १. अग्नि, पावक ०.
उपहार। तेजस्विता ।
उदा० ग्वाल कवि उरज उतंग तंग तोफन पै, उदा० १. थल सो अचल सील, अनिल सो चल
कर्मनै कटूक केस कुंडल तनाखे हैं। चित्त, जल सो अमल, तेज तेज को सो
-ग्वाल गायो है।
-- केशव तोम-संज्ञा, पु [सं॰ स्तोम] समूह, ढेर । तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु | उदा० सूरज के उदै तूरज की धुनि सूर जित की तनुता करि । -- देव सुनि के चले तोमनि ।
-देव तेबन-संज्ञा, पु० [सं० अतेवन] प्रामोद-प्रमोद तोर-संज्ञा, पु० [अ० तौर] व्यवहार, चाल, का स्थान, या बन २. नजर बाग . क्रीडा । ।
चलन । उदा० तेबन की लौज में, न हौज में हिमामह के, उदा० संपति सों जो प्रवेश नहीं तो वृथा क्यों मृगमद मौज में, न जाफरान जाला मैं,
दरिद्र सों तोर नसावे ।
-बोधा -ग्वाल तोरा--संज्ञा, [हिं- टोटा सं० त्रुटि] टोटा, कमी, तेल फनूना-संज्ञा, पु [बुं०] नमक और तेल घाटा २. तोड़ेदार बंदूक ३ तोड़ा, सोने चाँदी चुपड़ी रोटी।
की वह साँकर जो पाग के चारों तरफ बाँधी उदा० मचलि मचलि फिरि कहत मातु सों लैहों जाती है। तेल फनूना ।
-बकसी हंसराज उदा० जर बलै चलै रती प्रागरी अनूप बानी, तेलाई-संज्ञा, स्त्री॰ [सं० तिल] तेल निकाला ' तोरा है अधिक जहाँ बात नहि करसी । हुभा अंश, खली।
-सेनापति
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तोसना
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११६
२. तुपक तमंचे तीर तोरा तरवारन तें, काटि काटि सेना करी सो चित सितारे की । -- पद्माकर ३. मान दे कै तोरा तुर्रा सिर पै सपूती को
-- पद्माकर
तोसना - क्रि० स० [ संतोष ] संतुष्ट करना । उदा० बेद मरजाद लोक लीक लाज लोगन की कुल को धरम सो छोड़ायो कैसे तोसों जी । - रघुनाथ
तोसे खाने- संज्ञा, पु० [तु० तोशक + फा खाना ] वस्त्रों तथा श्राभूषणों का भंडार ।
उदा० तोसेखाने, फीलखाने, खजाने, हुरमखाने, खाने खाने खबर नवाब खानखाना की । गंग तौ-संज्ञा, स्त्री० [फा० ताब] १. ताब, गरमी, ताप, क्रोध, आवेश . शक्ति, धैर्य । खदा० 'आलम' बिलोकि मोंहि मुख मोर्यो तो में आइ, मैं हूँ मन में कहयो, सुबीती रैनि श्राजु ही । तौरा - संज्ञा, पु० [अ० प्रतिष्ठा । उदा० लग्यो होन तुरुकन को जौरा । को राखे हिंदुन को तीरा ॥ - लाल कवि त्यायो - क्रि० सं० [सं० तप्त ] तप्त करान, गर्म करना । उदा० भूतल तें तलप, तलहू तें भूतल में, तलप दति जब भूतलहि त्यायो है |
गंग
-- श्रालम
तुर्रा ] शिखा, चोटी,
त्यों - अव्य० [देश० ] तरफ, और 1 उदा० सौतिन त्यों सतराइ चितौति, जिठानिन त्यों जिय ठानति प्रीतिहि । - देव त्यौनार-संज्ञा, पु० [हिं० तेवर ] ढंग, तर्ज, तरीका ।
बनत—संज्ञा, पु० [हिं० थान सं० स्थान] गाँव का मुखिया ।
उदा० फौजदार के फिरत ज्यों थाने रहत थनैत ।
थ
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थपना
उदा० रही गुही बेनी लख्यौ गुहिबे को त्यौनार । - बिहारी त्यौर — संज्ञा, पु० [सं० त्रिकुटी] १. क्रुद्ध दृष्टि दृष्टि, चितवन ।
उदा० अधर मधुरता, कठिनता कुच, तीचनता त्यौर । रस कवित्त परिपक्वता जाने रसिक न और ॥ सोभा सहज सुभाय की नवता सील सनेह । ये तिय के माधुर्ज हैं जानत त्यौरन तेह ||
दास
—दास
त्रसना - क्रि० स० [सं० त्रास ] चौंकना, चकित होना ।
उदा० सुतनु अनूप रूप रुतनि निहारि तनु, अतनु तुला में तनु तोलति त्रसति है । — देव त्रसरैनि—संज्ञा, स्त्री० [सं० त्रसरेणु] पुराणों में उल्लिखित सूर्य की पत्नी, धूलिकरण । उदा० त्यों त्रसरैनि के ऐन बसै रबि, मीन पै दीन ह्र सागर धावै । त्रिदश - संज्ञा, पु० [सं०] देवता, सुर । उदा० त्रिदशाांजन फूलन वृष्टि करें ।
--- घनानन्द
-बोधा त्रिदेवता - वि० [सं०] एक स्त्रीव्रत, जो केवल अपनी स्त्री से ही प्रेम करता है । उदा० तेही त्रियदेवता पै पायों पति केसोदास पतिनी बहुत पतिदेवता बखानी है । -केशव त्रिसोत] गंगा,
त्रिसोता -संज्ञा० स्त्री० [सं० देव नदी । उदा० भस्म त्रिपुण्डक शोभिजैं, बररणत बुद्धि उदार । मनो त्रिसोता सोत दुति, बंदति लगी लिलार । --केशव
—बोधा
थपना- क्रि० अ० [सं० स्थापन ] ठहरना, जमना, स्थापित होना ।
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थपा
(
१२०
)
ध्यापक्ष
उदा० थपनो न मोकों जग-जाल के जंजालन में,
मोमें, गोबर न थाप्यो औं न खोयौ में याते अब नाम जमुना को रोज जपनो।।
उकर है।
-ग्वाल वाल थायी-वि० [सं० स्थायिन] स्थिर, स्थायी २. थपा--संज्ञा, पु० [अनु० थप] घड़ा पीटने की रहने वाला। मुंगरी, घड़ा थपथपाने की मोटी लकड़ी या उदा० बिसवासिन वह बैरिनि निदिया इकछन पिटना ।
रही न थाई।
--बकसी हंसराज उदा० लसै गोल चौंरे मथं सुंम ऐसे । घड़े थोपवे थार-संज्ञा, स्त्री० [?] चोट आघात । के थपा होत जैसे ।
-पद्माकर उदा० बाजी खुर-थारनि पहार करै छार, गढ़ थरचरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० स्थल+हिं. चरा]
गरद मिलावै जोर जंगन जकत है । मैदान, पशुओं के चरने का मैदान ।
-चन्द्रशेखर उदा० कहै कबि गंग महागढ़ बढ़ अढ़ कीने मीडि थिगरी-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] प्यौंदा, चकती।
डारे चटपट चढ़ि थरचरी सी। -गंग उदा० बादर फटै धरनि पर बैठे थिगरी कौन थरहरे, वि० [प्रा० थरहरिन] कंपित काँपता
लगावै।
-बकसी हंसराज हुआ, हिलता हुप्रा ।
कवि ठाकुर फाटी उलंक की चादर देउँ कहाँ उदा० परे परजंक पर परत न पीके कर थरहरे
कहें लौं थिगरी।
---ठाकुर छुवत बिछौना पै छरति है।
-देव
अरे हानि नही थिगरी पहिरे सिगरी बिगरी थलज-संज्ञा, पु० [सं०] गुलाब, एक पुष्प ।
जुन राम भजे ।
-सूरति मिश्र उदा० थलज को फूल कोन दारिम की कली कहा थित्त-वि० [सं० स्थित स्थित ।। बोलत ही चुयो परै सुधा से अधर तें। उदा० चरच्चि के ईसहिं थित्त आगें। बिनै करी -सुन्दर _ चित्तहिं हित्त पागें ।
-सोमनाथ मणिमय पालबाल थलज जलज रवि मंडल थीता-संज्ञा, पु० [सं० स्थित] स्थिरता, शांति, में जैसे मति मोहै कवितान की। -केशव
चैन । थसरि-वि० [प्रा० थसल] विस्तीर्ण, शिथिल । उदा० थीतो परै नहि चीतो चवाइन, देखति पीठि उदा० पिचका लियेई रहे रहयौ रंग तोहि देखें, दे दीठि के पैनी।
-देव रूप की धसक लागे थके हैं थसरि के। थुरहथी-वि० [हिं० थोड़ा+हाथ] छोटे हाथ
-घनानंद वाली, जिसके हाथ में कोई वस्तु थोड़ी पावै। थांवरो-संज्ञा, पु० [हिं० थांवला थाला, पाल उदा० कन देबो सौंप्यौ ससुर बहू थुरहथी जानि । बाल, मिट्टी का घेरा जिसमें पौधा लगाया जाता थूहर-संज्ञा, पु० [सं० स्थूण] सेंहुड़ का वृक्ष ।
। उदा० बेद होत फूहर, थूहर कलपतरु, परमहंस उदा० कामना कलपतरु जानि कै सुजान प्यारो
चूहर की होत परिपाटी को।
-गंग सीचे घनानंद सँवारि हिय थावरों। थौंद-संज्ञा, स्त्री० [हिं० तोंद] पेट का अग्र
-घनानंद भाग जो फुला रहता, पेट का फुलाव । थानुसुत-संज्ञा, पु० [सं० स्थाणुसुत] गणेश, उदा० मदजल श्रवत कपोल गुजरत चंचरीक गजानन ।
गन । चंचल श्रवण अनुप थौंद थरकति उदा० थोरे-थोरे मदनि कपोल फूले थूले-थूले डोलें
मोहति मन ।
-सोमनाथ जल थल बल थानुसुत नाखे हैं। -केशव थ्यावस-संज्ञा, पु० [सं० स्थिर] स्थैर्य, शांति थापना-क्रि० सं० [सं० स्थापन] १. धाक धैर्य । जमाना, प्रतिष्ठा बढ़ाना २. पाथना, गोबर की उदा० बिन पावस तो इन थ्वास हो न, सु क्यों उपली बनाना ३. स्थापित करना ।
करिये अब सो परसैं ।
-घनानन्द उदा० १. लीजियो चुकाइ दधिदान मेरी ओर ह्व
पावस परे हैं पूखी का वस पराये देस पावस कै, बाबा की दोहाई घाई पोढ़ी के कै मैं थ्यावस रहयो न विरहीन मैं । -पूखी थापने।
बेनी प्रवीन २. ग्वाल कवि कहै एक घाटी तो जरूर
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दण्ड-संज्ञा, पु० [सं०] १. समूह, २. शाखा । करना, झपटना । उदा० दावा द्र म-दण्ड पर चीता मृग-झुंड पर, उदा. मृगाधीस जैसे करी ज़ह दट्ट । भूषन बितुंड पर जैसे मृगराज है ।
षगाधीस ज्यों व्याल जाल झपट्ट ।। -भषण
-सूदन दंतपत्र-संज्ञा, पु० [सं०] कर्ण का एक प्राभू- दढ़ना-क्रि० पु० [हिं० डढ़ना] जलना, संतप्त षण ।
होना। उदा० सिद्धि सुन्दरी को जनु धर्यो । दंतपत्र उदा० भतल तें तलप, तलपह तें भूतल में तलप सुभ सोभा भर्यो ।
--केशव
दढ़ति जब भूतलहि त्यायो है। - गंग दंभोलि - संज्ञा पु० [सं०] वज, इन्द्र का दतना-क्रि पु० [हिं० डटना] डटना, भिड़ना, हथियार।
जमना, सामना करना । उदा० अंभोनिधि की सी सुता सौति पर दंभोलि- उदा० नौह खंड सात दीप भूतल के दीप प्राजु प्रदंमोदित दुति है सरीर की। -देव
समै के दिलीप ते दिलीप जीत्यौ दति है। दगदगी संज्ञा, स्त्री० [हिं.. दगना] चमचमा
---- भूषण हट, ज्योति, प्रकाश ।
तबकरि लीबी तैसो मतौ । अब ही तें उन उदा बेनी सों सोहागिनि चलायो मृदु नागिनि
सों जनि दतौ।।
--केशव __ को देव द्य तिदेव मदनागिनि दगदगी।
अध बीच पर्यो दुख-ज्वाल जरै सठ । को -देव
सुख कों हठि द्वार दत। -घनानन्द दगर--संज्ञा, पु० [हिं० डगरा] डगरा, मार्ग दतिया-संज्ञा, पु० [हिं० दाँव] बैर, शत्रुता । २. बिलम्ब, देर ।
उदा. बडरी रतियाँ हम सौं दतियाँ, कहि को उदा० हौं सखि मावत ही दगरे पग पैड़ तजी
छतियाँ जिन तोषत् है। -सूरतिमिश्र रिझई बनवारी ।
-रसखानि दपेट संज्ञा, स्त्री० [हिं० दपट] दबाव, दगल्ल-संज्ञा, पु० [हिं० दगला] भारी लबादा, भय, चपेट .डॉट, फटकार । कवच ।
उदा १ लोभ की लपेट, काम क्रोध की दपेट उदा० सु पन्हे दगल्ले महाबीर भल्ले।
बीच, पेट को चपेट लागे, चेटकी भयों . उमाहौं उछल्ले करे हांकि हल्ले ।
फिर।
-देव -पद्माकर
बहु दाबि डारे सुभट अरि निज तुरंग दोह वगा-संज्ञा, पु० [?] अग्नि, प्राग, दाह, दपेट सों।
-पद्माकर ज्वाला।
वक -सज्ञा, पु० [प्र.] १. प्रकार, किस्म, ढंग उदा० आगहूँ ते अधिक अगाध बिरहाग ही तें, [हिं० ढब] डफला, चमड़े से मढ़ा हुमा बाग ही के बाग ये दगा सों दहि जायेंगे । एक बाजा जो होली में बजाया जाता है। २.
-पद्माकर चग, लावनी गाने वालों का बाजा। वच्छना-क्रि० स० [सं० दक्षिणा] मेंट करना, उदा. . धाइ धरि लीन्ही लाइ उर में प्रवीन दान में किसी वस्तु को देना।
बेनी, कहाँ लौं गनाऊँ अब कौतुक के उदा० कहै पद्माकर प्रताप नुप-रच्छ, ऐसे तुरग
दफरी।
-बेनी प्रवीन ततच्छ कबि-दच्छन कों दच्छे हैं।
दफेर संज्ञा पु [फा-दफ] बड़ी डफली, एक
-पद्माकर गोलाकार खाल मढ़ा बाजा । वट्टना--क्रि . [हिं० इँटना] डॅटना, सामना ।उदा कारी घटा काम रूप काम को दमामो
फा० १६
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दबरना
( १२२ ) बाज्यो, गाज्यो कवि ग्वाल देखि दामिनि । दरपेस-क्रि० वि० [फा० दरपेश] आगे, दफेर सी।
-ग्वाल कवि | सामने । दबरना-क्रि० अ० [हिंदी दौड़ना] १. दौड़ना। उदा. फरस दुरुस्त दरपेस खसखानन में झालरन २. धमकाना [बुं 11
मुकुता मुकेस झरिबो करे। उदा० १. पौढ़े जगनायक अँगठनि को चूसत
-पजनेस दसूठनि की जुठनि कौ देव दबरे फिरें. दरब-संज्ञा, पु० [सं० द्रव्य ] धन, द्रव्य,
-देव संपति। २. काहे को तुम हम को लालन दबरत उदा० दरबर दौरि-करि-नगर उजारि डारे कटक ठभरत ठाढ़े।
-बकसीहंसराज ___ कटायो कोटि दुजन दरब की। -भूषण दम--संज्ञा, पु० [?] १. एक प्रकार का हथियार वरबर-क्रि० वि० [?] शीघ्र, जल्दी, २. सेना २. तलवार या छुरी प्रादि की धार ।।
का बल [संज्ञा, सं० दल+बल] उदा०-गुरदा बगुरदा छुरी जमधर दम तमंचे। उदा० दरबर दासनि को दोष दुख दूरि करै भाल कटि कसे ।
-पद्माकर
पर रेखा बाल दोषाकर रेखिये। -दास दमल-संज्ञा,पु० [फा० दमामा] नगाड़ा, डंका ।
अहोहरि आये महा दरबर मैं, कहा बनि उदा० रघुनाथ मन में मनोरथ की सिद्धि तानि
प्रावै टहल दरबर में ।
- घनानन्द नूपुर बजन लागे पाइ में दमल सो।
२. दरबर दौरि करि नगर उजारि डारे -रघुनाथ
कटक कटायो कोटि दुजन दरब की। दमानक-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] १. तीरों की
-मषन बौछार, तीर चलाना २. तोपों की बाढ़ । दरराने- क्रि० वि० [हिं० दरारा] तेजी से, उदा० जाति मई फिरि कै चितई तब भाव रहीम धक्का देते हुए, बिना किसी रोक के ।
'यहै डर आनो । ज्यों कमनैत दमानक में उदा० भाई न गेह में प्रावन पावत, आवत सारे फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो।।
घरै दरराने । -- रहीम
-सूरति मिश्र वमामा-संज्ञा, पु० [फा०] छोटा नगाड़ा ।
वरव-संज्ञा, पु० [सं० दर्प] दर्प, अभिमान । उदा० दादुर दमामें झांझ झिल्ली गरजनि घौंसा. उदा० बारिध बिरह बड़ी बेदन की बाडवागि, दामिनि मसालै देखि दुरै जग जीव से ।
बूड़े बड़े-बड़े, पार परे प्रेम पुलते । गहनों -देव
दरव देव-जोवन गरब गिरि पर्यो गुन टूटि, दमारि-संज्ञा, स्त्री० [सं० दावानल, हिं०
बुद्धि ना डुले अडुलते ।
-देव दवारि] दावाग्नि, दावानल ।
दर- संज्ञा, स्त्री॰ [देश॰] १. प्रतिष्ठा, कदर । उदा० अरि-तोम-तम-तिमरारि है । अरि-नगर- २. डर, भय ३. ईख [सं० दारु] ४. द्वार, दग्ध-दमारि है।
-पद्माकर दरवाजा (फा०) ५. दल [सं०] । दरगाह-संज्ञा, पु० [फा०] १. दरबार, कच- उदा० १. घर-घर द्वार-द्वार गली-गली फिरहरी २. मकबरा ।
वैया, भोर तें धंसत साँझ, जिनकी कहा उदा० १. जाय दिली दरगाह सुसाहिको, भूषन
दर है।
-ग्वाल बैरि-बनाय ही लीनो।
-भषण
बरस-संज्ञा, पु० [सं० दर्श०] १. अमावस्या. दरवामन-संज्ञा, पु० [?] एक प्रकार का अमावस्या का अन्धकार 1२. सुन्दरता, छवि । गोटा।
३. दीदार, दर्शन । उदा० बादले की सारी दरदामन किनारी. जग- उदा० १. दरस को अन्त्य ज्यों उजेरौ ना अँधेरो मगी-जरतारी, झीनी झालरि के साज पर ।
पाख ।
-सोमनाथ
२. प्राज घाम-घाम पूरइन है कहायो नाम वरपक-संज्ञा, पु० [सं० दर्पक] कामदेव ।
जाके बिहँसत मैलौ चन्द को दरस है । उदा० तोहि पाइ कान्ह, प्यारी होइगी-विराज
-सेनापति मान, ऐसे जैसे लीने संग दरपक रत्ति है। दराज-वि० [फा०] बड़ा, विशाल, २. दरार,
-सेनापति । दरज, ३. ऊँचा ।
-देव
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दरारना
(
१२३ )
दहिये
- दास
उदा० सूरत के साह कहै कोऊ नरनाह कहै कोऊ
पंच दसानि को दीपक सो कर कामिनि को कहै मालिक ये मुलुक दराज के ।
लखि दास प्रबीने ।
-दास - पद्माकर
२. दामिनी दमकनि' दिसान में दसा की २. कीन्हीं करजनि की दरज दरजी की
-पद्माकर बहू बरजे नहिं माने।
-देव
वसई वसा-संज्ञा, स्त्री० [सं० दशवी दशा] दरारना-क्रि० सं० [हिं० दरार +ना
वियोग की दसवीं अवस्था, मृत्यु । (प्रत्य॰)] विदीर्ण करना, नष्ट करना ।
उदा० खरी है निसाँसी तैतो कीन्ही है बिसासो उदा० गरज ना मेघ तोम तरजै ना-छुटि छटा
मारि, दसई दसा सी लाख भांति लखि लरज न लौंग लता दादुरि दरारें ना।
लेखिहों ।
-आलम -नंदराम दसना-संज्ञा, पु० [हिं० डासना] बिछौना, दरीचिका-संज्ञा, स्त्री॰ [फा० दरीचा ] बिस्तर। खिड़की, झरोखा ।
उदा० छोरि धरी रसना दसना पर पायन मैं उदा०-धरि मौर ही की जनु देह धरीक दरी
बिछियान करै ना।
-नन्दराम चिका में मुरझाइ रही। --- द्विजदेव दसोंधिय-संज्ञा, पु० [सं० दास + बंदी= माट] दरेवा-संज्ञा, पु० [?] एक पक्षी।
दसौंधी, चारण, भाट, यश-गायक । उदा० चक्रवाक खंजन पपीहा मैना चाँडल दहिये | उदा० बहु बंदी मागध सूत गुनि गुनी दसौंधिय दरेवा खूब खूमरी बिकानी है। -बोधा
सोधि नित । रैयत राउत राजहित चारी वलगीर-वि० [फा दिलगीर]१. उदास, दुखित,
बरन बिचारि चित ।
-केशव रंजीदा २. पत्तों का गिरना ।
वह-संज्ञा, पु० [सं० हृद] हृद, गहरा जल, उदा. क्यों है दिलगीर रहि गए कहँ पीरे पीरे, नदी में वह स्थान जहाँ अथाह जल हो। एते-मान मान यह जानै बागवान जू । उदा० कंज सकोचि गड़े रहैं कीच में मीनन बोरि
-दास
दियो दह-नीरनि । वलदार संज्ञा, पु० [सं० दल=सेना+फा० वहन दुति-संज्ञा, स्त्री० [सं० दहन+द्य ति] दार प्र०] सेनापति ।
भग्नि प्रकाश । उदा० बारह हजार असवार जोरि दलदार ऐसे- उदा० जल देविन कैसो श्रमवारि किंधौं-दहनअफजलखान आयो सुर-साल है।।
दुति सी सुखकारि ।
-केशव -भूषण बहपटना-क्रि० स० [हिं० दहपट] ध्वस्त करना, वलेल-संज्ञा, स्त्री० [मं० गिल] कष्ट, सजा । नष्ट करना, चौपट करना । उदा० दौरि दावदारन पै द्वादसी दिवाकर की । उदा० देस दहपट्टि पायो मागरे दिली के मेंडे दामिनी दमकनि दलेल दुग दाहे की।
बरगी-बहरि मानौ दल जिमि देवा को । -पद्माकर
-भूषण दवन-संज्ञा, पु० [सं० दमनक] दौना, दौना दिल्ली दहपट्टि, पटनाहू को झपट्टि करि नामक एक पौधा २. एक छंद ।
कबहुक लत्ता कलकत्ता को उड़ावै गो । उदा० केतकि गुलाब चंपक दवन, मरुभनेवारी
-पद्माकर छाजहीं।
- दास बहल-संज्ञा, पु० [हिं० दह, सं० हृद] १ कुंड, दवना-क्रि० अ० [सं० दव] जलना, प्रज्वलित होज। होना ।
उदा० गोधन खरिक खेत मह क्यार । गोरस दहल उदा० तमीपति तामस ते तमिल ह उयो पाली, नाज अरु न्यार।
-घनानंद तियनि बधनि कहूँ दूनोई दवतु है।
दहलीज-संज्ञा, पु० [फा०] बैठक।
-मालम उदा० बेई हेम हिरन दिसान दहलीज मैं, वेई गजवशा-संज्ञा, स्त्री० [सं०] वर्तिका दीपक की
राज हय गरज पिलन कों। बत्ती, २. दीपक की जलती बत्ती ।
-नरोत्तमदास उदा० भीजि सनेह सो देह दशा विरहागिन लागि- ! दहिये-संज्ञा स्त्री० [हिं० दहिगंल ?] एक पक्षी खरी पजरी जू ।
-देव। जिसे महरि या ग्वालिन कहा जाता है,
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दहुचाल
(
१२४ )
दायल
दहिंगल ।
वति या भाव, दानशीलता । उदा० चक्रवाक खंजन पपीहा मैना चांडूलदहिये उदा० हरिह के जेतिक सुभाव हम हेरि लहे, दरेवा खूब खूमरी बिकानी है। -बोधा
दानी बड़े पै न मांगे बिन ढरै दातुरी। वहुचाल-संज्ञा, स्त्री०, [बु.] शरारत, उपद्रव
--घनानन्द बदमाशी ।
दावनी-संज्ञा, स्त्री० [फा०] १. किसी को दी उदा० हाल चवाइन कौ दहुचाल सु लाल तुम्हें या जाने वाली रकम २. पेशगी। दिखात की नाहीं ।
--ठाकुर उदा० दादनी की बेर जब देनी होत सौ की ठौर वहेली-वि० [सं० दिग्ध] ठिठुरी हुई, ठंड से | बड़े हैं निदान तब दोसै एक देत हैं। संकुचित।
-सेनापति उदा० गाहत सिंधु सयाननि के जिनकी मति की दादि-संज्ञा, स्त्री० [फा० दाद] न्याय, इंसाफ अति देह दहेली।
-केशव मु. दाद देना - न्याय करना । दाइ-संज्ञा, स्त्री० [हिं० देवरी] देवरी, अनाज | उदा. करी-साहि सों जाय फिरादि । अधिक के सूखे दाने को बैलों द्वारा रौंदवाने का कार्य ।
अनाथन दीजै दादि ।
-केशव उदा० ज्यों दाँइ देत में वृषम पांति, चहुँ ओर दाना-वि० [फा०] बुद्धिमान, अक्लमन्द ।
फिरति है चपल भौति । -सोमनाथ | उदा. प्यारी तेरे दंतन अनारी दाना कहि कहि दाउन- संज्ञा, पु० [सं० दाम ] रस्सियां, दाना ह्व के कवि क्यों अनारी कहवाइहै। डोरियाँ ।
-दास उदा० जीनन के दाउन अति मनमाउन लगत | दाप-संज्ञा, स्त्री० [सं० दपं] घटा, शोभा, सुहाउन सबहीं कौं।
-पद्माकर कांति २. धाक ३. गर्व । दाऊदी-संज्ञा, स्त्री० [फा०गुलदाउदी] गुल- उदा० १. राती भई भूमि सो तो यावक की छाप दाउदी नामक सुन्दर गुच्छेदार पुष्प ।
चुनरी की दाप रंग ऐसो बरसैं अशेष घन। उदा० सेवत हजार मखमल में कमल पद, रस
-द्विजदेव लीन पछतानी दाऊदी सुहाई है।
नील घन धूम पै तड़ित दुति धूम-धूम - रसलीन
धू धरि सी घाई दाप पावक लपटि सी। वाग-संज्ञा, स्त्री० [सं० दग्ध] . जलन दाह,
-देव २. प्राग ।
२ चंड चक्र चाप लौं उदंड दंड दाप ली उदा० उर मानिक की उरबसी डटत घटतु दृग
सुमारतंड-ताप लौं प्रताप के छरा परे । दाग । -बिहारी
-पद्माकर ग्वालकवि गोरी को गरौ यों भरि आयो दापन- संज्ञा, पु० [सं० दर्प] ताप, ज्वालासुनि जिगर जगर जरन लाग्यौ विरहाग जलन । दागे दहि ।
-ग्वाल उदा चातक यातें करौं बिनती कवि काम क्षमौ बाघ- संज्ञा० पु० [स] दाह, ज्वाला, गरमी।
अपनी जा अलापन । तें अपने पिय को उदा० कहलाने एकत बसत अहि मयर मग बाघ
सुमिरै मरै हम तेरी जुबान के दापन । जगत तपोवन सों कियो दीरघ दाघ निदाघ।
-बोधा -बिहारी दामा-संज्ञा, स्त्री० [सं० दावा] दावानल । दाटना-क्रि० सं० [हिं० डाँट, सं. दांति ] उदा० नन्द के किसोर ऐसो प्राजु प्रभु को हैदबाना, संत्रस्त करना, आतंकित करना ।
कही पान करि लीन्हो वृज दीन लखि उदा० जा दिन चढ़त दल साजि अवधतसिंह ता
दामा को ।
-रघुनाथ दिन दिगंत लौं दुवन दाटियतु है।
दायबी-संज्ञा, पु. [हिं० दांव] दाँव या अवसर
-भूषण ] की ताक में रहने वाला। दात-वि० [सं० दाँत] दमित, दबाया हुआ। उदा. छूटी छबि-रसमैं चटक चोखे बसमैं, बिलो उदा० गजेति तर्जति पाप कॅपात । बात करत
के मन बस मैं न रोकें रहै दायबी। जनु पातक दात । -केशव
-घनानन्द दातुरी- संज्ञा, स्त्री० [स० दातृत्व] दान की बायल-संज्ञा, पु० [हिं० दाँव] दांव लेने वाले ।
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दायो
( १२५ )
दिवान
उदा० दायल दगा के देत हाय जिन्हें गाइये।
-ठाकुर J उदा. जटाजूट सोहत सिरहिं त्रिदसन पावत दायो-संज्ञा, पु० [हिं० दांव] बैर, दुश्मनी ।
भेव । सदा बसत कैलास पर दिग-दरिआई उदा० सूरति कहत सब जग ही कों ऐसो यह,
देव ।
-कुमार मणि किंधौं याकी हम ही सों पूरबलौ दायो है। दिति-संज्ञा, स्त्री॰ [सं० अदिति] अदिति, देव
-सूरतिमिश्र ताओं की माता । वारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० दारिका] १. वैश्या, उदा० मोहति मूढ अमूढ, देव संग दिति सों रंडी २. दासी, लौंडी।
सोहै।
-केशव उदा० जूठन की खानहारी कुबिजा नकारी दारी, दिनरी संज्ञा, पु० [देश॰] राग विशेष ।। करी घरवारी तऊ ब्रह्म तू कहत है।
उदा० कोऊ दैना देन परस्पर कोऊ दिनरी गावै। -पवाल
-बकसी हंसराज दारू-संज्ञा, स्त्री० [फा०?] बारूद ।
दिनाई-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] बिष प्रयोग की वस्तु, उदा० गढ़ मैं सोधि-सुरंग लगाई । सत सहस्त्र मन बाघ की मूंछों के बाल जो विषाक्त होते हैं। . दारू पाई।
-चन्द्रशेखर उदा० लगी मिम को अतुल दिनाई । तुरतहि दारो-संज्ञा, पु० [सं० दाडिम ] दाडिम,
मीच समै बिन पाई।
-लालकवि अनार ।
सो तौ देत ब्याधै बिष दुख्खन दिनाई देत उदा० चुम्बन की हौसै उपजावति हसत-मुख
पापन के पुंज के पहारन को ठीक ठाक । सारो सी पढ़ति बैन दारो दुति दन्त की।
-पद्माकर -देव विप्प-क्रि० प्र० [सं० दीप्ति] झलकना, दिखाई दार्यो-संज्ञा, पु० [सं० दाडिम ] दाडिम, पड़ना।
अनार नामक एक फल जो खाने में कसैला होता है। उदा० छुटे सब्ब सिप्पे कर दिग्ध टिप्पे-सबै सत्र उदा. दाड़िन के फूलन मैं दास दार्यो दानो
छिप्पे कहूँ हैं न दिप्पे ।
-पद्माकर भरि चूमि मधु रसनि लपेटत फिरत है। । विब-संज्ञा, पु० [सं० दिव्य] प्रमाण, सौगंध,
- दास
कसम । वाव-संज्ञा, पु० [सं०] बन, जङ्गल ।
उदा. जैसे अब चाहो तुम तैसे बावन दिब मैं उदा०-नील घन धम पै तड़ित दुति घुमि-घूमि,
देहों।
-बकसी हंसराज धू धरि सों धाई दाव पावक लपटि सी। दिमाकदार-वि० [अं० दिमाग+दार फा०]
- देव | १. बुद्धि वधंक, मस्तिष्क को शीतल रखने वाला, बावन - संज्ञा, पु० [फा० दामन] कुरते या दिमाग बढ़ाने वाला, २. अमिमानी। अगरखे का वह भाग जो नीचे लटकता रहता उदा० १. आई मैं अकेली, या कलिदंजा के कूलन है, अंचल ।
पै, न्हाई लाय केसन दिमाकदार सोंधे ये । उदा० दावन खचिकै भावन सो कहती तिय मो
-ग्वाल __ मन यौं प्रनकै पर्यो ।
-तोष दिलगीरी-संज्ञा, स्त्री० [फा० दिलगीर] दुख, बावनगीर-वि॰ [फा० दामनगीर] दामनगीर, - पीड़ा, संताप । दामन पकड़ने वाला।
उदा० यह दिल में दिल गीरी लखतु न आन । के उदा० सदा सुखदायक जे लखिबीर, भये इहि
दिल जाने मापनो के दिलजान । श्रावन दावनगीर। -बोधा
-बोधा विगति-संज्ञा, स्त्री० [सं. दिग्गति (दुग-गति)] । विषक-संज्ञा, पु० [सं० दिव्यक] एक प्रकार जहाँ तक नेत्रों की गति है सुदूर।
का सपं, शेषनाग । उदा० धीर धुनि बोले डोलैं दिगति-दिगंतनि लौं, | उदा चिक्करि दिक्करि उठहि दिवक भुवमार न ओज भरे अमित मनोज-फरमार ए।
थंहिं ।
-पद्माकर -द्विजदेव [विवान-संज्ञा, पु० [अ० दीवान] दरबार, राजदिग-दरिन ई-संज्ञा, पु० [सं० दिग् । फा. समा, कचहरी। दाराई -एक प्रकार का रेशमी-वस्त्र] दिन्वसन। । उदा० केसव कंस दिवान पितान बराबर ही
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दीद
दुनाना पहिरावनि पाई।
-केशव | दुचंद-वि० [फा० दो चंद] दुगना २. उत्तम, दीद-संज्ञा, पु० [फा०] दीदार, दर्शन ।
बढ़िया । उदा० तिहारा दीद हम पावें । दिलदार दर्द बिस- उदा. गुल गुलकंद को सुमंद करि दाखन कों, रावें
-बोध
देखहु दुचंद कला कंद की कमाई सी । दीपवृक्ष--संज्ञा, पु० [सं०] वृक्ष के प्राकार की
मन्द दुचंद भये बुध नहिं -पद्माकर बड़ी दीवट, जिस पर दीपक रखे जाते हैं।
भाषि सकै कबहू कबितान न । -द्विजदेव उदा० राजमौन आस पास, दीपवृक्ष के विलास, दुचिताई-संज्ञा, स्त्री॰ [हिं० दुचित्त] चिन्ता, जगत ज्योति यौवन जनु ज्योतिबंत पाये । अस्थिरता, खटका, आशंका ।
-केशव | उदा० और की और कहै सुनै देव महा दुचिताई दंदुज-संज्ञा, पु० [सं० द्वंद्वज] द्वंद्व से उत्पन्न
सखीन के बाढ़ति ।
-देव दशा, राग द्वेष से उत्पन्न-स्थिति ।
हित न हितैये मति मौसर बितैये दुचितैये उदा० दुंदुज असेष सहि लेइ सब बिपदादि संपदादि
बल सौतिन चितये बन चैत को। -देव अभिमान जी के मन मानिये । केशव गई-संज्ञा, स्त्री० [.] दालान प्रोसारा । दं वव-संज्ञा, पु० [सं० दुंदुभि] दुंदुभि, नगाड़ा। उदा० अति प्रभुत थमन की गई। गजदंत उदा० कहै पद्माकर त्यों करत कुलाहल न
सुकंचन चित्रमई ।
-केशव किंकिन कतार काम दुंदव सी दे रही ।
गामा-संज्ञा, स्त्री० [१] घोडे की एक चाल ।
-पद्माकर उदा० चहैं गाम चल्लै चहैं तौ दुगामा चहैं ये बिया दुबर-वि० [सं० दुर्बल] दुबल, कमजोर ।
चाल चल्लै भिरामा।
-पद्माकर उदा० अंबर एक न दुंबर हाथ, फिरै हर रातो- सुचोवं-संज्ञा, पु० [फा० दुचोबः] दो बाँसों वाला अडम्बर बाँधे ।
--बेनीप्रवीन खेमा । दुआनल-संज्ञा, पु० [सं० दावानल] दावाग्नि- उदा. विविध बनातें कीमखाप की कनातें तामें आग।
दीरघ दुचोवै हैं, सिचोवे हक्क हद्दी में । उदा० त्यों जम आवत आज कै नीठिह पाऊ के ओर दुभानल टूटे ।
--मालम दुजाति-संज्ञा, पु० [सं०] द्विज, , ब्राह्मण । दुकति-संज्ञा, स्त्री० [सं० द्विरुक्ति] दो बार उदा० गंग को नीर कियो प्रसनान दियो बहुदान कथन, द्विरुक्ति ।
दुजातिन ही को।
-चन्द्रशेखर उदा० जाने जे न जानं ते यों गोपनि तें कही बात बुजान-संज्ञा, पु० [सं० द्वि+जानु] दो जंघाएँ । जानत जे जान जानै तिनकी दुकति है। उदा० नासा लखे सुकत्तुंड नामी पै सुरस कुंड, रद
--सुन्दर है दुरद-संड देखत दुजान के ।
-दास दुकाना-क्रि० स० [देश॰] लुकाना, छिपाना । बुधा-वि० [सं० द्वि०] दोनों मोर वाली, दोनों उदा०-बन बन के तुम होहु फिरौ हथियार तरफ की २. दो प्रकार से [सं० विधा] । दुकावत ।
-बोधा उदा० डोलति है जहँ काम लता सु लची कुच दुकौंहीं-वि० [सं० द्वि] दूसरे।
गुच्छ दुरूह दुधा की।
--देव उदा० तिहि पैंडे कहा चलिये कबहूँ जिहि काँटो
२. एकहि देव दुदेह दुदेहरे देव दुधा यक लगै पग पोर दुकौंहीं।
-केशव देह दुहू मैं ।
-देब दुखहाइन-संज्ञा, स्त्री० [सं० दुख+हती= दुनाली-संज्ञा, स्वी० हिं० दो.+नाल] दो मारी हुई] दुख से हती हुई, दई मारी, निन्दा मलों वाली वह बंदूक जिसमें दो गोलियां एक करने वाली।
साथ मरी जाय । उदा० दुखहाइन चरचा नहीं पानन भानन पान ।। उदा० दमके दसौ दिसा दुनाली ड्योढ़ दामिनि के लगी फिर ढका दिए कानन कानन कान ।।
घन के नजारे मारे उर उलझन के। --बिहारी
-'हपीजुल्ला खां के हजारा से' सुगैंची--वि० [सं० द्विगुणित] दुहरी, दुगुनी। । दुनौना-क्रि० प्र० [सं० द्विनमन] झुकना, उदा० ह्व रस रीति सरीति जनावत नेह की गेह लचना । की देह दुगैची।
-पद्माकर | उदा० लंक नवला की कुचमारन दुनौने लगी, होन
-ग्वाल
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-दास
दुपंच-स्यंदन ( १२७ )
दुहुप लगी तन की चटक चारु सोने सी। —दास | दुरुह--वि० [सं० दुरुह] प्रगाढ़, दुरुह, अतयं दुपंच-स्यं वन-संज्ञा, पु० [सं० द्विपंचदश+ । २. सघन, मोटा। स्यंदन=रथा दशरथ 1
उदा० १. बढ़े बियोग दशा दुरुह मान बिरह सो उदा० है दुपंचस्यंदन सपथ, सौ हजार मन तोहि ।
जान ।
-दास
२. डोलति है जहँ काम लता सु लची कुच दुबाले--संज्ञा, पु० [हिं० दुमाला] फंदा, पाँश ।
गुच्छ दुरुह दुधा की।
-देव उदा० इक मीन बिचारो बिध्यो बनसी फिरि जाल के जाइ दुबाले पर्यो ।
दुरेषा-वि० [हिं० दूर] दूर का, दूरी से सम्ब -पद्माकर
न्धित । दुभीख-संज्ञा, पु० [सं० दुभिक्ष] अकाल, दुर्मिक्ष उदा० प्यो चरचानि परै नहिं चैन भरै नहि भीख
उदा० पाली दुरेधे को चोटनि नैम कहौ अब कौन दुमीख की भूखै।
उपाय बचैगो ।
-रसखानि -देव दुमची-संज्ञा, स्त्री० [देश॰], झूला झूलते समय
दुरोवर-संज्ञा, पु [सं० दुरोदर] १. जुआ, पेंग बढ़ाकर झोंका देने की क्रिया ।
२. जुआ का दॉव । उदा. टूटत कटि दुमची मचक, लचकि लचकि ! उदा. बाहनि के जोर काय कंचन के कोट गयो बचि जाइ ।
-बिहारी
पोट ह दमोदरु दुरोदरु को दाम् सो । दुमात-संज्ञा, स्त्री० [सं० द्वि+मातृ] दूसरी
-देव माता, सौतेली मा ।
सह-वि० [स० द्विदश+फा० हजार] बारह उदा० मात को मोह न द्रोह दुमात को, सोच न हजारी सेना। तात के गात दहे को।
-श्रीपति उदा० नौरंगसाह कृपाकर भारी मनसब दीन्हो दुमाला-संज्ञा, पु० [फा० दुमंजिल:] दुमंजिला
दुसह हजारी।
-लालकवि घर, दो मालावाला घर। उदा. ऐसी तो न गरमी गलीचन के फरसों में है
दुसार-वि० [सं० द्वि.+शल्य दोनों भोर छिद्र न बेसकीमती बनात के दुमाला में ।
वाला, पारपार, दो टुकड़े, जिसके दोनों ओर
छेद हो ।
-ग्वाल दुरंत-वि० [सं०] १. भारी, बहत बड़ा... उदा० रहि न सक्यौ कस करि रहयौ बस करि कठिन ।
लीन्हो मारि, भेदि दुसार कियौ हियो तन उदा० पाइये कैसिक सांझ तुरन्तहि देखुरी द्यौस दुति भेदै सार।
-बिहारी दुरन्त भयो है।
-देव
उदा० बेधि कौं होय दुसार कियो तउ ताही की दुर-संज्ञा, पु० [फा॰] मोती मुक्ता ।
मोचित चाह भरी है।
-ग्वाल उदा० दीन्हो दुर लुरुक में गुलाब को प्रसून गौस । साखा-संज्ञा, पु० [हिं० दो+शाखा] शमाभूलत झुकत झुलि झांकति परी सी है । दान, मोमबत्ती रखने का प्राधार ।
पजनेस उदा० ले चल्यो दुसाखा सुनि दीपक जगाइबे को दुरजो-वि० [सं० दुर्जय] अजेय, दुर्जेय, जिस
जोबन महीपति के आगे अनंग है। पर जल्दी विजय न प्राप्त की जा सके।
-कालिदास उदा०हैं उमगे उरज्यों उरज्यों दुरजो दुरजोग
बुहाग-संज्ञा, पु० [सं० दुर्भाग्य] अभाग्य, बुरा दुहूँ सर काढ़यो।
-देव
भाग्य । दुरजोग-संज्ञा, पु० [सं० दुर्योग] गाढ़े समय, संकट का समय।
उदा० प्रब ही की घरी ऐहै घरी कि पहर ऐहै. उदा० हैं उमगे उरज्यो उर, ज्यों दुरजो दुरजोग
कत पीरी जाति तेरो केतक दुहागू है। दुहूँ सर काढ़यो। - देव
-बालम दुरवा-वि० [सं० द्वि+रद] १. दो दाँतों वाला | दुहुप-वि० [सं द्वि०] दोनों, दो, द्वि । २. हाथी, [सं० द्विरद] ।
उदा० मोहे मुनि मानव बिलोकि मधु-मधुबन उदा. गज्जत गज दुरदा सहित बगुरदा गालिब
पान बुधि होत देव दानव दुहुप की। गुरदा देखि परे।
-पद्माकर |
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दुहेली ( १२८ )
दोन दहेली--वि० सं० दुहेल] कठिन, मुश्किल ।
की छबि छोटी।
-बोधा उदा० धरी ही में देहली दुहेली भई घर तें। देवाल कहकह-संज्ञा, स्त्री० [फा० दीवारे
-आलम क़ह कहः] चीन की एक दीवार, जिसके संबंध वृंदना - क्रि० स० [हिं० दौंदना] सं० द्वंद्व, दुख । में कहा जाता है कि जो इसमें से झाँकता है देना, परेशान करना ।
वह अनायास खूब हँसता है। उदा. ग्वाल कवि बूंदें ढूँदें रूँदें बिरहीन हीन, उदा० बार बार बरजौं बिलोकै जनि जाइ कोई नेह की नमूद ये न मूंदें है गमाके सों, कारो दईमारो हाइ है देवाल कहकह । -ग्वाल
--तोष दूकनि वि० [सं० द्वि ] दो-दो ।
| वैना-संज्ञा, पु० [हि० दहिनावतं] परिक्रमा, कवि देव घटा उनई जु नई बन भूमि दल दूकनि किसी वस्तु के चारों तरफ चक्कर लगाना । सों।
-देव उदा० कोऊ दना देत परस्पर कोऊ दिनरी गावै । दूखना-क्रि० स० [सं० दूषण] दोष निकालना,
- बकसी हंसराज दोष देना, आलोचना करना निन्दा करना। दोचन-संज्ञा, स्त्री० [हिं० दबोचन] दबाव, २. उदा. का कहिये इन सों सजनी मकरन्दहि-लेत दुवधा ३. कष्ट, पीड़ा, दुख । मलिन्दहि दुखतीं ।
-प्रतापसाहि उदा० १. बरजोरी पिया यह गोरी सबै, गहिदूनर - वि० [सं० द्विगुणित, हिं० दूना] दुगुनी, ल्याई गोबिन्दहि दोचन सों।। दुहरी।
-बेनी प्रवीन उदा० दंतनि अधर दाबि दूनर भई सी चापि,
३. परि पीरी गई कहि बेनी प्रवीन रहै चौपर पचौमर के चूनर निचोर है।
निसि बासर दोचति सी। -बेनी प्रवीन
-पद्माकर दोत - संज्ञा, स्त्री० [हिं० दवात, अ० दावात] दूनरिया-संज्ञा, पु. [ हिं• दुनौना ] नमन, मसि-पात्र, दावात, स्याही रखने का पात्र । झुकाव ।
उदा० कहै 'पद्माकर सुनौ तौ हाल हामी भरी उदा० लखि ते हरि काहे संभारि उठी न मई कच लिखौ कही लैक कहूँ कागद कलम दोत । भारन दूनरिया । - बेनीप्रवीन
पदमाकर दूभर- वि० [सं० दुर्भर] कठिन, मुश्किल । दोष-- संज्ञा, पु० [सं०] १. अंधकार, अँधेरा उदा० डीठि-विष डासी ह विसासी विषधर २. त्रुटि । स्याम सेवत सुधा ही देव दूभर दुधा भरे । । उदा० १. राखति न दोष पोष पिंगल के लच्छन
-देव
कौं बुध कवि के जो उपकंठ ही बसति है । दूषक-संज्ञा, पु० [सं०] १ शत्रु, दुश्मन २.
-सेनापति दोष लगाने वाला।
उघरहिं विमल विलोचन ही के । मिटहिं उदा० १. फुकरत मूषक को दूषक भुजंग, तासो
दोष-दुख भव रजनी के।
-तुलसी जंग करिबे को झकयो मोर हद हला मैं। दोहन-संज्ञा, पु० [सं०] १. दुहना, निकालना,
-भूधर २. समाप्त करना। देव-संज्ञा, पु० [फा०] १. राक्षस, एक नरभक्षी | उदा---ढिग बैठे हू पैठि रहै उर मैं घर के दुख प्राणी २. देवता [सं.]।
__ को सुख दोहत है।
' घनानन्द १.देस दहपट्टि आयो मागरे दिली के मेंडे बरगी वौंबना क्रि० स [अव ] १. रति क्रीड़ा में बहरि मानौ दल जिमि देवा को। -भूषण ऊधम करना, दबाना २. कुचलना, नष्ट देवता-संज्ञा, स्त्री० [सं०] देवी, देवाङ्गना।
करना । उदा० तहँ एक फूलन के विभूषन एक मोतिन के उदा० . गाय उठी अति रूठी बाला । ज्यौंकिये, जनु छोर सागर देवता तन छीर
माधोनल दौंदि खुसाला ।
- बोधा छीटनि को छिये ।।
-केशव | बौन-संज्ञा, पु० [सं० दमन] १. दमन, दबाने देव दुआर-संज्ञा, पु० [सं० देव+द्वार] मंदिर, की क्रिया . दोनों [वि.] । देव स्थान ।
उदा० अंगना अनंग की सी पहिर सुरंग सारी, उदा० देव दुआरे निहारि खड़ी मृग नैनी कर रबि । तरल तुरंग मग चाल दुग दौन की। -देव
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दौर ( १२६ )
धधकी वौर-संज्ञा, पु० [अ०] चक्कर, फंदा २. । वौहें-संज्ञा, स्त्री० [सं० दव =ाग] ताप, आक्रमण, चढ़ाई ।
ज्वाला, भाग की लपट । उदा० १. जोबन जोर अनंग मरोर उठे कुच फोरि | उदा० बिछुरत वे दृग लाल के भरौंहैं भये-लाल के दौर तनी के।
-गंग हिय दौहें लगी क्योहूँ नसिरात है। २. दारा की न दौरि यह खजुए की रारि
वाल नाहि, बांधिबो न होय या मुरादसाह-बाल को। धोहर-संज्ञा, पु० [हिं० देव घर] मंदिर, देवा
-भूषण लय। दौरई-संज्ञा, स्त्री० [सं० दव] दौरहा आग, उदा० कौन दसा बूझत हौ एहो रघुनाथ मनोरथ दावाग्नि ।
सिद्धि करिबे को नेक न थिरत है। देवी उदा० दौरई सी बन, दौरई फूलनि, झौरई झारि, ! देव द्योहरन केते पुर ग्रामन मे राखे मानि बयारि की झोके ।
--देव जेते तेते पूजत फिरत है।
-रघुनाथ संज्ञा. १० [हिं० दादा] १. दादा, २. | द्वारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० द्वार+ ई प्रत्या पिता, ३. बड़ा भाई।
छोटा दरवाजा, द्वार । उहा० काली कैसे छौवा काल जौनकैसे दौवा उदा० द्वारी निहारि पछीति की मीति में टेरि महानीच कैसे भैया चेति हौवा परदेस के ।
सखी मुख बात सुनाई । -प्रताप साहि -केशव
धंका--संज्ञा, स्त्री० [हिं० धाक] १. धाक, रोब । धका--संज्ञा, पु० [हिं० धक्का] १. आपत्ति, आतंक २. प्रसिद्धि ।
संताप २. हानि, नुकसान । उदा० १. एक यह कहा ऐसे मारिकै अनेक बीर उदा० हा हम सों बलि कौल करौ कहती हमै पालने बिरद मोहि दसरथ धंका को ।
नाहिनै संक धका की।
-बोधा -रघुनाथ धच्छना--क्रि० अ० [अनु० ] धक्का देना, धंध-संज्ञा, स्त्री० [हिं० धंधार ] ज्वाला, मारना । लपट ।
उदा० सुद्ध सहसच्छ के बिपच्छिन के धच्छिबे कों उदा० तूलन तोपिक ह्र मतिअंध हुतासन-धंध मच्छ कच्छ आदि कलाकच्छिबो करत हैं। प्रहारन चाहैं। -दास
-पदमाकर धुंधर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० धुंध] हवा में उड़ती घजा-संज्ञा, पु० [सं० ध्वजा] १. मस्तक, सिर हुई धूल २. अँधेरा।
२. ध्वजा । उदा० धूर धुंध धुंधर धुवात धूम धुंधरित । उदा० १. कहें देत बाह के प्रवाह ऊदावत राम.
-पजनेस
कहूँ कुँजर धजानि धूरि धूसर। - गंग धुंधरित-वि० [हिं० धुंधूर] धूमिल, धुंधला घधकी-संज्ञा, स्त्री॰ [देश॰] १. ढोलक नामक किया गया।
एक बाजा , २. डफली, जिसे होली के अवसर उदा० धूर धुंध धुंधर धुवात धूम धुंधरित धुंधर पर लोग बजाते हैं।
सुधुंधरित धुनि धुरवान में। -पजनेस उदा० धूम धधकोअन की धषकी बजत तामे ऐसो षक-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] चोप, उमंग ।
अति ऊधुम अनोखो दरसत है। उदा० रहत अछक पै मिटै न धक पीवन की
-पद्माकर निपट जू नाँगी डर काहू के डर नहीं।
धधकी है गुलाल की बूंधर में धरी गोरी -भूषण लला मुख माड़ि सिरी।
-पजनेस
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-ठाकुर
धधकौन
धार धधकौमन--संज्ञा, पु० [हिं० धधकना] होलिका | धांधना-क्रि० स० [देश॰] बन्द करना, कैद में आग जलाने वाले, होली खेलने वाले, । करना । होरिहार ।
। उदा, जान न देहुँ कहूँ घर बाहर नैन कोठरियन उदा० धूम धधकौन की धधकी बजत तामे ऐसो
धाँधौं।
- बकसी हंसराज अति ऊधुम अनोखो दरसत है ।
और मैं कहाँ लौं कहौं नाम नर नारिन के, - पद्माकर
दुःख ते निकासि सुख मौन धाँधियतु है। घधाना-क्रि० सं० [हिं० धधकाना] प्राग-दहकाना, प्रज्वलित करना ।।
उरझो सुरझो त्रिबली की बली पुनि नाभि उदा० धावत धधात धिग धीर धम धुंधाधुंध
की सुन्दरता-धधिगो ।
-ठाकुर धाराधर अधर धराधर धुवान में ।
धंधाना- क्रि प्रा० [हि० धूमा] जलन
-पजनेस होना । धनंजय-संज्ञा, पु० [सं० ] अग्नि, पावक, २. उदा० आग सी धंधाती ताती लपटै सिराय गई अजुन ।
पौन पुरवाई लागी सीतल सुहान री। उदा० प्रफुलित निरखि पलासबन परिहरि
-ठाकूर मानिनि मान । तेरे हेत मनोज खलु-लियो धाधना-क्रि० स० [हिं० धाधि-ज्वाला ] धनंजय-बान ।
-दास जलाना, प्रज्वलित करना। धमंकना-क्रि० प्र० [हिं० धमक ] प्रकंपित उदा० चित लाग्यो जित जैये तितही 'रहीम' होना, हिलना, विचलित होना ।
नित, धाधवे के हेत इत एक बार आइये । उदा० चंड सोर चहुँ ओर सुनत धुवधाम धर्मक
--रहीम -चन्द्रशेखर धानी-संज्ञा, स्त्री० [सं०] स्थान, जगह । धमारि-संज्ञा, स्त्री० [अनु० धम] धम धम की उदा० संका ते सकानी, लंका रावन की रजआवाज, बजने की क्रिया २. एक राग ।
धानी, पजरत पानी धूरि-धानी भयो जात उदा. ऐसी भई धुंधरि धमारि की सी ताहि
-सेनापति समय पावस के भोरै मोर शोर कै उठे धाप-संज्ञा, पु० [हिं० टप्पा] दोड़ने का लंबा अपीच ।
-द्विजदेव मैदान। धरनी धरैया-संज्ञा, पु० [सं० धरणीधर ] / उदा० छेकी छिति छीरनिधि छाँड़ि धाप छत्रतर शेषनाग, शेषावतार लक्ष्मण ।।
कुंडलीकरत लोल चाकै मोल लेत हैं। उदा० मनै 'समाधान' गाज्यौ धरनी धरैया सुनि,
-केशव दास ससकि ससंक लंक पतिहू लुठत भो ।
धाम-संज्ञा, पु० [सं०] १. ज्योति, किरण २.
-समाधान गृह । घराधरी-संज्ञा, स्त्री०[सं० धराधर] पहाड़ी। उदा०धाम की है निधि जाके आगे चंद मंद दुति, उदा० उमड़ि अमित दल हय गय पयदल, भूधर
रूप है अनूप मध्य अंबर लसत है। बिदरि दरी भई धराधरी सी। -गंग
-सेनापति धरिहरि-संज्ञा, पु. [हिं० धुर+ह] धैर्य । धामरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० धुमरी] बेहोशी, उदा० अरी हरी अरहरि अजौं धर धरहरि हिय मूच्छी , गश। नारि ।
..- बिहारी उदा० प्राली सों आनँद बातनि लागि मचावति धरू-वि० [हिं० धरुना] कर्जदार, ऋणी।
घातनि घामरि घोल ।
-घनानन्द उदा० रति तो धरू के है, रमासी एक टूक, सो धार-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. सेना २. तलवार
मरू के हो सराहों, हौंस राधे के सुहाग ३. युद्ध, आक्रमण ४. समूह झुंड । की।
उदा० नीके निज ब्रज गिरिधर जिमि महाराज घलकना-क्रि० अ० [हिं० धड़कना] भयभीत
राख्यौ है मुसलमान धार तै बचाइ के । होना, दहल जाना, धड़कना ।
-सेनापति उदा० दास कहै बलकत बल महाबीरन्ह के, धल
दूग लाल दोऊ मुख विसाल कराल करि कत डर में महीप देस देस को। -दास
रिपू धारि में ।
-पद्माकर
.
-देव
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धारि
( १३१ )
धुरकी ३. सूर-सिरोमनि राम इतै, उत रावन धीर
२. ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम । धुरन्धर धार मैं । -देव
-वाल धारि-संज्ञा, पु० [सं० धार] धार, समूह ।
३. धौरे ही तें धाय धकि आलम अधीन उदा० हिमगिरि, हेमगिरि, गिरत गिरीस गिरि.
करि ।
-आलम और गिरि गिरत गिराए गजधारि के।
४. गंध धकानि धुकी हर सिद्धि, कबंध के -गंग धक्कन सो धर धूके।
-गंग पास सों प्रारत सम्हारत न सीस पट गजब
धुकार-संज्ञा, स्त्री० [अनु० धु] ध्वनि, आवाज, गुजारत गरीबन की धार पै। -पद्माकर ।
नगाड़े की ध्वनि २. बादल की गर्जना ।। धावन-संज्ञा, पु० [सं०] दूत, संदेशवाहक ।
उदा० १. धौसा धुकारन धसमसै घर के धरैया उवा० पाती लिखी अपने कर सों दई हे रघुनाथ
कसमसैं ।
-पद्माकर बुलाइ कै धावन ।।
-रघुनाथ
२. लहकि लहकि सीरी डोलति बयारि और धिगानो-संज्ञा, पू० [सं० डिंगर-शठ] ऊधम
बोलत मयूर माते सबनि लतान में । बाजी वाला खेल ।
धुरवा धुकारे पिक दादुर पुकार बक उदा० धिरिग बैताल ताल खेलत धिगानो मानो
बाँधि के कतारै उडै कारे बदरान में । लोहू की भभक भैरो ऐरो पैरो ह्व रहयो ।
-षटऋतु
काव्य सग्रह। --गंग
धुजाना-क्रि० सं० [सं० घ्वज] हिलाना, प्रकंपित घिराना-क्रि० अ० [सं० धीर] १. कम होना
करना। मंद पड़ना २. डराना धमकाना ३. धैर्य रखना
उदा० पगन धरत मग धरनि धुजावै, धूरि लावै (क्रि० सं०)।
निज ऊपर अतोल बलधारे तो। उदो० जबते बिछुरे कवि बोधा हितू तब ते उर
-चन्द्रशेखर दाह धिरातो नहीं ।
-बोधा
धावत प्रबल दल धूजत धरनि फन फुकरत ३. रितु पावस स्याम घटा उनई लखि के
फूरत फनीस लरजत है। -चन्द्रशेखर मन धीर धिरातो नहीं।
-बोधा धीजना-क्रि, सं० [सं० धैर्य] ठहरना, स्थिर
धुतरी-वि० [सं० धूर्त] दगाबाजिन, धुर्ता, छलहोना २. अंगीकार करना ३. धैर्य रखना ४.
करने वाली, धोखा देने वाली, छद्मवेशी । प्रसन्न होना, संतुष्ट होना।
उदा० कुंज के प्रवास पास भावते के जाइबे को उदा० चाह बढ़यो चित चाक-चढ़यौ सो फिरै तित
देखिके अंधेरी राति ऐसी बनी धुतरी। ही इत नेकु न धीजै। -घनानन्द
-रघुनाथ धीड़ा--संज्ञा, पु० [?] छोटा बच्चा ।।
धुर-संज्ञा, पु० [सं० धुर] प्रारम्म, २. अतिशय उदा० कहा चिड़ी की लात, कहा गाडर का
३. ध्र व अटल ४. प्रधान ५. बोझ भार। धोड़ा।
-गंग
उदा० १. धुरते मधुर मधु रसहू विरस करे मधुरस धुंध-संज्ञा, स्त्री० [सं. धूम्र+अंध] हवा में
बेधि उर गुरु रस फूली है। -देव मिली हुई धूल के कारण उत्पन्न अंधकार २.
२. हैं हम ही धुरकी दुखहाई विरंचि हवा में उड़ती हुई धूल ।।
विचारि के जाति रची ती। -घनानन्द उदा० धूर धुंध धू'घर धुवात धूम धुंधरित धुंधर
३. हाथ गह.यो ब्रजनाथ सुमाव ही छूटि गई सुधंधरित धुनि धुखान में।
धुर धीरजताई।
-देव -पजनेस | धुरकी-वि० [हिं० धुर-सीमा] १. अत्यधिक, धुकना-क्रि० प्र० [बुं०] जलना, प्रज्वलित होना | बहुत अधिक, चरम सीमा की २. धुकधुकी, २. झुकना, टूट पड़ना गिर पड़ना, ३. दौड़ना, जुगनू नामक गले का एक भूषण [संज्ञा, स्त्री झपटना। ४. हट जाना, नशे आदि का उदा० कोऊ एक रजक सु धोवत हो वस्त्रनि की. उखड़ जाना।
तहाँ गंग वासी पायो लीन धूर धुरकी। उदा० कीनो कहा मोसों कहौ स्याम हौं बलाइ
--सूरति मिश्र लेउँ, जात धकधकी उर अनल धुकति है।
धुरकी लगन लगी अति गाढ़ी बाढ़ी चोप -पालम
चटक जो प्यारी । नवल नेह रस झर
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देव
धुरन्धर ( १३२ )
धौसा आनंद घन लाग्यौइ रहत सदा री ।
ग्रीष्म ऋतु, गर्मी का समय ।
-घनानन्द उदा० धूपकाल चंदन सी बरषा में बुंदन सी २. इंदिरा के उरकी धुरकी, अरु साधुन के
सीत काल सीतरच्छा कासमीरी साल सी । मुख की सुख की सज।
-गंग धुरन्धर--संज्ञा, पु० [सं०] बैल, वृषभ, भार- धूमधुज-संज्ञा, पु० [सं० धूमध्वज] आग, पावक । वाहक ।
उदा० काढ़े तेग सोह यों सेख । जनु तनु धरे धूमउदा. एक बिना न चल रथ जैसे धुरन्धर सूत कि
धुज देख ।
- केशव चक्र निपातै ।
-दास धैसो~संज्ञा, पु० [सं० दंश हि० धौंसा] त्रास, धुरलीक-संज्ञा, स्त्री० [सं० धुर+हिं० लीक] भय । आर्य मर्यादा, श्रेष्ठ रीति, उत्तमरीति ।
उदा० एक दिन ऐसो जामें दुस्मन को धसो है । उदा० मुरली सुनत बाम, कामजुरलीन उठि धाई
-गंग धुरलीक तजि, बीधी विधुरनि सौं।
धोकना- क्रि० प्र० [हिं० धुकना झपटना, टूट
-देव पड़ना। धुरवा-संज्ञा, पु० [?] घटा।
उदा० बीच बीच बाम, बीच बीच स्याम, सुन्दर १. धुरवा होंहि न अलि इहै धुंपा धरनि
ज्यों बीजु दाम स्याम घन देव धरि धोकि चहुँ कोद । जारत आवत जगत को पावस
के ।
-देव प्रथम पयोद।
--बिहारी धोप-संज्ञा, स्त्री० [सं० धूर्वा] तलवार, खङ्ग । कारे कारे धुरवा चिकूर चारु चमकत उदा० करि करि चित चौ4 रन पग रोपै धरि चंचला बरंगना सुप्रति अलबेली है।
धरि धोएँ धूम करें।
-पद्माकर -शिवदास
भीरन के अवसान गये मिलि धोपनि सों धुरीन-संज्ञा, पु० [धुरीण] बैल, वृषभ ।
चपला चमकें ते ।
-भूषण उदा० भार चलाइहि आये धुरीन भलेन के अंग धौनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० धमनी] नाड़ी। सुभावै मलाई ।
उदा० हिये धकधकी है न धीरजु है धोनी मैं । धुरेटी-वि० [हिं० धूर+एटी (प्रत्य०] धूल
--पालम युक्त, मिट्टी में सनी हुई।
धौरा--संज्ञा, पु० [सं० धौरेय] भारवाहक, उदा० जाके सुख पेटी जात चन्द्र छबि मेटी जात बैल । छबिहू धुरेटी जात टेटी जात मान की। | उदा० कष्ट मांहि छूटे जब प्रान । धौरा को तन
-'हजारा' से धरयो निदान ।
-जसवंत सिंह धंधरि-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] ढोलक ।
धोरे-अव्य० [देश॰] निकट, पास । उदा० ऐसी भई धूंधरि धमारि की सी-ताहि समय उदा० धौरे ही तें धाय धुकि आलम अधीन करि। पावस के भोरे मोर शोर के उठे अपीच ।
-आलम -द्विजदेव | धौवा-संज्ञा, पु० [हिं० धाई] धाई के वंशज । धूकन-संज्ञा, स्त्री० [हिं० अनु.] गड़गड़ाहट उदा० तजि सबै नात मात तात की न बात कहै की आवाज, गर्जना, घोर शब्द ।
धौवा धाइये कहाय केहूँ विधि जीजिये। उदा० कूकन मयूरन की धुखा के धूकन की भूकन
-आलम समीरन की खसन प्रसून की। -नाथ धौसा-संज्ञा, पु० [हिं० धौंसना] बड़ा नगाड़ा धूकना-क्रि० अ० [अनु० धुकधुक] काँपना, डका, सामथ्यं । हिलना।
उदा० दादुर दमामें झांझ झिल्ली, गरजनि उदा० गंग धकानि धुकी हरसिद्धि कबंध के
धौंसा, दामिनि मसालै देखि दुरै जग जीव धक्कन सों धर धूके। -गंग
-देव धूपकाल-संज्ञा, पु० [हिं० धूप+सं० काल] |
-दास
से।
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नन्द-संज्ञा, पु० [सं०] हर्ष, प्रानन्द [नंदित० | उदा० जाके बिलोकत बेनी प्रवीन, कहै दुति वि . 1
मैनका ह की नखी है। -बेनी प्रवीन उदा० (क) जुहारे जिन्हें इन्द्रानी सुयश बरणे बानी नग-संज्ञा, पु० [सं०] १. वृक्ष २. रत्न, मणि कहानी जिनकी कहि कहो सु को न नन्दत, । ३. पहाड़।
-देव
उदा० १. लाह सौं लसति नग सोहत सिंगार .(ख) जानति हौं नंदित करी यहि दिसि
हार छाया सोन जरद जुही की अति प्यारी नंद किसोर। -बिहारी
-सेनापति नकना-क्रि० स० [हिं० नाखना] लाँघना, पार
मोहे महा पन्नग अनेक नग खग कान दै दै करना, डौंकना।
कोल भील केते रीझि रहे हैं। -देव उदा० पेटनि पेटनि हो भटक्यौ बहु पेटनि की नगी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नग+ई (प्रत्य॰)] १. पदवी न नक्यो जू ।
--केशव
। पहाड़ी स्त्री० २. पार्वती। पावनि अटकि मोही तोही सौंह सांवरे की
। उदा० आसुरी सुरी के कहा पन्नगी-नगी के कहा, छोड़ी कुलकानि लोक लोकनि नकन दै।
ऐसे ना परी के हैं सो-जैसे कूबरी के हैं। -ठाकुर
-राम रसिक नकारी-वि० [फा० नाकारा, स्त्रीः नाकारी]
नचैन-संज्ञा, पु० [हिं० न + चैन] अचैन निकम्मी, खराब ।
व्याकुलता । उदा० जूठन की खानहारी कुबिजा नकारी दारी
उदा० मिलत ही जाके बढ़ि जात घर मैंन चैन, करी घरवारी तक ब्रह्म तू कहत है।
तनकौं बसन डारियत बगराइ कै। -ग्वाल
-सेनापति नकीव-संज्ञा, पु० [अ०] चारण, भाट, प्रशस्ति
नछीछ-वि० [सं० अक्षुण्ण? न+छीछे- क्षीण] गायक २. कड़खा गाने वाला व्यक्ति।
अक्षुण्ण, जो क्षय न हो। उदा० छल छल छोभक छपाचर चुरैल आगेपीछे गैल गैल ऐल पारत नकीब से ।।
उदा० लाज की आँचनि या चित राचन नाच
__ नचाई हौं नेह नछीछ । नख-संज्ञा, स्त्री० [फा०] रेशम की डोर।
नजलन-वि० [हिं० न+सं० जल] जल उदा० लोटन लोटत गुली बंद तीरा रेखता की,
रहित, बिना पानी के, सूखा। नख तंग घाघरा न सुतरी बनाई है।
उदा. नज्जलन देखियत सज्जल जलद कारे-बेनी प्रवीन
कज्जल गिरीश कारे उपमा न पावहीं । मखना-क्रि० स० [हि० नाखना ] उल्लंघन
-नंदराम करना, नष्ट करना ।
नजीली-संज्ञा, स्त्री० [अ० नजील, पु०] १. उदा० दीह दुख खानी ते अयानी जे अठान ठानै | अतिथि, मेहमान २. संत्रस्त, भयभीत, [५० __ पति रति रीति की प्रनाली प्रेम नखि के। नजोर, वि.]।
-चन्द्रशेखर | उदा०५. होति न नजीली आँखि सखिन लजीली नखायुध-संज्ञा, पु० [सं०] सिंह, शेर ।
करै ढीली उर आँगी ढीली ढीली उदा० बोल्यो चरनायुध सु तौ, भयो नखायुध
पलकनि सो।
-देव नाद।
-मतिराम नजूम-संज्ञा, पु० [अ०] ज्योतिष विद्या । नखी-वि० [सं० नष्ट] नष्ट हुई, समाप्त । उदा० बैदक पढ़े हो की नजूम को निसारत हो,
-देव
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-पालम
नजूमि ( १३४ )
नमूद कविता करत हौ कि समुद्रिक संचारी जू । | ननकारना क्रि० अ० [हिं० न+करना इनकार
-नंदराम करना, अस्वीकार करना । नजमि-संज्ञा, पु० [अ० नजमी] ज्योतिषी। । उदा० अधखुले नैननि निहारै रूप भावते को बिहसै उदा० नेकु सुनो बतियां न छतियां चलये हाथ
बिहारै 'ननकारै टारै मुख सों। आधी रतियां मैं रति कहत नजूमि है।
-रघुनाथ -- तोष ननसार-संज्ञा, पु० [हिं० ननिहाल] ननिहाल, नटसाल-संज्ञा, स्त्री० [सं० नष्ट शल्य] कसक, नाना का गृह । पीड़ा, बाण, काँटे आदि का वह अंश जो टूट उदा० मोहू कों चातुरता बहरावति मौसिन सों कर शरीर के अन्दर रह जाता है।
ननसार की बातें।
-गंग उदा० सालत करेजें नटसाल नित नये हैं।
ननु-संज्ञा, पु० [सं० नवनीत, हिं. नैन] नव
_ नीत, मक्खन । सालत है नटसाल सी क्योंहूँ निकसति उदा० रति सदन अकेली काम केली भ्रलानी, ननु नाहिं।
--बिहारी ___ मय बरबानी मालिनी की सुहानी । -देव मटा-संज्ञा, स्त्री० [हिं० नटना] इन्कार, अस्वी- निबद्द-संज्ञा, पु० [सं० निबंध] हठ, प्राग्रह । कृति ।
उदा० नच्चै निबद्द । करि के बिहद्द --सोमनाथ उदा० भूलि ही जाइगो बेनी प्रवीन, कहो बतियाँ नबरना-क्रि० स० [हिं० नबेड़ना] १. निप
जे सदा की नटा पर। -बेनी प्रवीन टाना झगड़ा तै करना २. चुनना। नठाना-क्रि० स० [सं० नष्ट] नष्ट करना, उदा० चलो नबरिये परघर आई । नाहक मरसमाप्त करना ।
जादा पुनि जाई।
-बोधा उदा. पूतना आदि बड़े बड़े केसी लौं दानव के नबेरना-क्रि० स० [बं०] छाँटना, चुनना । कुल मारि नठाये ।
-देव उदा० खेत कुटुंब ते लीन्ही उखारि नबेर नबेर के नतनारु-संज्ञा, पु० - [देश॰] मटकी का मुंह स्वाद नबीनी ।
-ठाकुर हॅकने वाला कपड़ा।
नबोटी--वि० [सं० नव+हिं० औटी प्रत्यय] उदा० सखि बात सुनौ इक मोहन की निकसी- नवीन, नई, नूतन ।
मटकी सिर री हलकै। पुनि बाँधि लई उदा० खरसल स्यन्दन बहल बहुत गाड़ी सु _ सूनिये नतनारु कहूँ कहूँ बूंद करी छलकै
नबौटी।
-सूदन -केशव नभजया-संज्ञा, स्त्री० [सं०] आकाश को नथ-संज्ञा, स्त्री० [हिं० नाथना] १. नाक का विजित करने वाली, रेण । एक आभूषण २. तलवार की मूठ पर लगा उदा० रेनु रेल गहिहै रथुद्धतो। नमजयाहि हुमा छल्ला।
द्रुतपाउ सुद्धतो।
--दास उदा० कौल की है पूरी जाकी दिन दिन बाटै नभजरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नम + फा० छबि, रंचक सरस नथ झलकति लोल है। | जरी= बेल] आकाश बेलि, आकाशलता।
-सेनापति उदा० निज जरि पावत मालति सदा । नमजरीहि नद-संज्ञा, पु० [सं० नाद] १. अावाज, ध्वनि, पठवै प्रियंबदा ।
-दास शब्द २. बड़ी नदी।
नभश्री-संज्ञा, पु० [सं०] सूर्य, आकाश की उदा० १. सूनो के परम पद, ऊनो के अनंत मद शोभा। नूनो के नदीस नद, इंदिरा मुरै परी। उदा० नमश्री कैसो सुभ ताटक । मुकता मनिमय
-देव सोभत अंक।
-केशव नदीपतिकुमारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नदी पतिः नमूंद-वि० [हिं० न+मूंद=बंद होना] खुले सागर+कुमारी=पुत्री ] सागर की पुत्री, हुए, उन्मीलित। लक्ष्मी ।
उदा० नूर भरे नमित न मूंदन नमूद नैन, नागर उदा. ऐसीपति देव, मोहिं ऐसी पति दीन्ही,
नवेली के मसीले नैन नोकदार । -ग्वाल प्राजु मेरी सो न दीपति, नदीपति कुमारी
कीन्हे बदन निमूद, दुग मलंग डारे रहत । की।
-बिहारी
-देव
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नयना
(
जाना,
नयना - क्रि० प्र० [हिं० नवना] १. ढल समाप्त हो जाना, २. झुकना, नम्र होना । उदा० नीर के कारन थाई प्रकेलियै भीर परे संग कौन कौं लीजै । ह्याऊँ, न कोऊ नयो दिवसोऊ अकेले उठाए घरो पट भीजै ।
- दास
नरजा - संज्ञा, पु० [?] तराजू की डाँड़ी । उदा० नरजा मैं मिल पलरा मैं देखि दूनों सोई सेनापति समुझि विचारि के बतायौ है । — सेनापति नरजी -संज्ञा, पु० [?] नाप-तौल करने वाला । उदा० नैन किये नरजी दिन रैन रती बल कंचन रूपहि तोलें ।
-- घनानन्द
जा दिन तें तुम प्रीति करी ही घटति न बढ़ति तल लेहु नरजी । -सूर नरियाना – क्रि० प्र० [देश०] जोर-जोर से चिल्लाना, श्रावाज करना । उदा० पट धोबी धरै, अरु नाई नरें, सु तमोलिन बोलिन बोल धरै । -गंग नरी – संज्ञा, स्त्री० [हिं० नली] नली, पैर की पिंडली ।
उदा० महा सुद्द्छ पुछ्छे रही हैं उन सी । नरी - पाँतरी आतुरी हिन कँसी ।
—पद्माकर
नरोन - संज्ञा स्त्री० [सं० नर] नारियाँ, स्त्रियाँ | उदा० भजत प्रवीन बेनी छूटे सुखपाल रथ, छूटी सुखसेज सुख साहिबी नरीन मैं ।
- बेनी प्रवीन नरीसुर - संज्ञा, पु० [हिं० नली + सं० स्वर] नली से निकलने वाले स्वरों से बजने वाले
बाजे ।
उदा० भेरी घनेरी नरीसुर नारि नरीसुर नारि अलापी सभा में । - देव
नल — संज्ञा, स्त्री० [हिं० नलिका ] नलिका, नाल, एक प्रकार का प्रस्त्र उदा० अनल सी अनिल नलिनमाला अनिल न लाउ री न लाउ मलया
नावक की २. तरकश नल मयी, श्रली ।
- श्रालम
नव श्रवस्त - संज्ञा, स्त्री० [सं० नव प्रवस्था ] नवबय, युवावस्था ।
उदा० नव श्रवस्त बिरही तन जबही ।
अतन-सतन बरगत कवि तबही ॥ - बोधा नवढ़ी — संज्ञा, स्त्री० [सं० नवोढ़ा ] नवोढ़ा, नव विवाहिता स्त्री । उदा० गवढ़ी नवढ़ी द्विजराज मुखी ।
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१३५ >
नाकंद
परबीन प्रिया बनिता सुमुखी ॥ बोधा नवाजसि -संज्ञा, स्त्री० [फा० नवाजिश ] कृपा, मेहरबानी ।
उदा० रामदास सों कह्यो बुलाय । करो नवाजसि बाकी जाय ॥ केशव नवारे- संज्ञा, पु० [हिं० नाव] बड़ी नावें । उदा० इंदीवर सुन्दर कलिंदी तीरवारे कहा, मारे अँसुवान के नवारे बहि जायँगे ।
पद्माकर
नैन अनियारे मैं न तेरे से निहारे प्यारी, लाज धन वारे नेह नृप के नवारे हैं । -सोमनाथ नवासनी —संज्ञा, स्त्री० [हिं० सुश्रासिनी] सौभाग्यवती स्त्री, सधवा ।
उदा० नन्द के प्रवास व्रजवासिनु को भाग खुल्यो खुलत सम्हारि पैन्हि वासन नवासनी देव नहना- क्रि० अ० [हिं० नधना] १. नधना, हल में बैल आदि का जुतना, फँसना २. बँधना; आबद्ध होना ।
उदा चक्र तना, जुवा भृकुटी, मृगनैन नहे, ससि को रथ संभवि । - देव
२. मोंहि काहे गहि-गहि राखती हो गेह ही में, नेह ही में नख ते सिखा लौं नही तन मैं । —बेनीप्रवीन नहियाँ—संज्ञा स्त्री० [सं० नाथ हिं० नाह] नायिका, प्रियतमा, स्त्री ।
उदा० भोर भये भौन के सुकोन लगि गई सोय,
सखिन जगाइबे को जाय गही बहियाँ । चौंकि परी चकि परी श्रौचक उचकि परी, सकि परी जकि परी बकि परो नहियाँ बेनीप्रवीन नविना- क्रि० प्र० [सं० नन्दन] दीपक का बुझने के पहले भभक उठना, चेतना आना । २. श्रानन्दित होना ।
नाम ।
उदा० उठति दिया लौं नाँदि हरि लिये तिहारो - बिहारी नाँदनी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० नाँदना ] बुझने के पूर्व दीपक की भभक ।
उदा० सूरति सुकवि दीप दीपति कहा है जो पै, भई इकबार क्यौंहू नेह बिन नाँदनी । —सूरति मिश्र नाकंद — वि० [फा० ना + कंदः ] अल्हड़, अप्रशिक्षित, न निकाला गया घोड़ा आदि पशु । उदा० बछेरे करें कूदि श्राछी कलोलें ।
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नाका
नाल
लखे नीक नाकंद जे हैं अमोलें ॥
खंडि के तारिका नाथी ।
-मालम -पद्माकर नादर-वि० [अ० नादिर] १. श्रेष्ठ, उत्तम २. नाका-संज्ञा, पु० [हिं० नाकना] प्रवेश-द्वार, अद्भुत, अजीव । अन्दर जाने का रास्ता, फाटक ।
उदा० आदर कै राखौं प्रान कैसे हक्म नादर लै उदा० ऐसो राज रसा महँ करै।
जम के बिरादर ये बादर उनै रहै। भुमिया के नाके भुव धरै ॥ -केशव
-नन्दराम नाकाधीस-संज्ञा, पु० [सं० नाक=स्वर्ग+ | नादौट-संज्ञा, स्त्री० [?] विशेष प्रकार की आधीश=स्वामी] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र।
तलवार । उदा० सोने की सलाका सी सुनीं है हम साका । उदा. असिबर नादौ घलत न लौट मुंडनि मोट ऊधो, काम की पताका किधी नाकाधीस
काटि करें।
-पद्माकर परी है। -'हफीजुल्लाखाँ के हजारा' से
जाफा--संज्ञा, पु० [फा० नाफा] कस्तूरी की माखना-क्रि० सं० [सं० नष्ट, प्रा० नंख]
थैली, यह थैली कस्तूरी वाले मृगों की नाभि में छोड़ना, डालना २. रखना, पहनना ३. नष्ट
मिलती है। करना ।
उदा० ग्यानिन को ध्यान, अरु ध्यानिन को ध्यान, उदा० भई हौ सयानी तरुनाई सरसानी प्रीति
मान मानिन को मान, फार्थी मृगमद प्रीतम पत्यानी दूरि लाज उर नाखियों।
नाफा सौ।
-ग्वाल -मतिराम
नायक-संज्ञा, पु० [सं०] पदिक, माला के मध्य २. गैयन की भीर हूँ जै संगबलवीर मेरे,
का भूषण, हार के मध्य का रत्न । देखी तहाँ वीर चीर चंपक से नाखे
उदा० नन्द-मन्दिर कान्त कौतुक बनि रह्यौ भरि चुन । -ग्वाल
माव। मागबेलि-संज्ञा, स्त्री० [सं०] एक प्रकार का
मनहु मधिनायक विराजत अति प्रभूत लोहा ।
जराव ॥ उदा० पाउँ पेलि पोलाद सकेलि रसकेलि किधौं
-घनानन्द नागबेलि रसकेलि बस गजबेलि सी ।
नाय -संज्ञा, स्त्री० [सं० नायिका] स्वामिनी,
-देव नागा-वि० [सं० नग्न] १. दूषित, बुरा २.
लक्ष्मी, भगवान की पत्नी । अंझा,
उदा० एक होत इन्दु, एक सूरज औ चन्द, एक उदा० नागा करमन कौं करत दुरि छिपि पीछे,
होत है कुबेर, कछु बेर देत नाया के।
-देव हरि मैं परत कै वे सूली मैं परत हैं।
-सेनापति
| नारि-संज्ञा, स्त्री० [सं० नाल] १. गर्दन, नाजिर-संज्ञा, पु० [अ० नाजिर], देख-भाल
ग्रीवा, गला २. एक प्रकार की तोप ३. समूह,
खानि । करने वाला, सरदार २. अन्तःपुर का प्रबन्ध
उदा० सोचतें हिये में लाल लागी नारि है नई । करने वाली मुख्य परिचारिका [संज्ञा स्त्री०] उदा० १. नाजिर आनि दियो कर कागद भाजू
आलम
२. नारि कमान तीर असरार । कही उठि देर न लावै। - चन्द्रशेखर २. हाजिर पास खवास जे, जे नाजिर सब
चहुँ दिसि गोला चले अपार ॥
-केशव धाम । सब मिलि देति, ममारषी, झुकि-झुकि
३. अति उच्च अगारनि बनी पगारनि जनु करें सलाम ॥ चिन्तामणि नारि ।
-केशव -चन्द्रशेखर नाल-संज्ञा, पु० [अ०] १. तलवार आदि के नाथना-क्रि० सं० [सं० नाश], नष्ट करना, भ्यान की साम जो नोक पर मढी रहती है २. समाप्त करना २. नत्थी करना ३. बैल आदि पास, निकट (पं०) की नाक छेद कर रस्सी डालना ।
उदा० दसहूँ दिसि जोति जगामग होति, अनूपम उदा० १. राघवराइ को दूत बली जिहि दूखन | जीगन जालन की। मनोकाम चूम के चढ़े
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निजर
नालकी
( १३७ ) किरचें उचट कलधौत के नालन की।
२. साँझ समैं बीथिन मैं ठानी दुगमीचनी -गंग
भोराई तिन राधे को जुगुति के निखोटि २. माने क्यों कनौड़ी बाल कीन्हों तुम ऐसो
खोटि। ख्याल भोड़िन के नाल लाल भटकि निगार-संज्ञा, पु० [फा०] १. चित्र, प्रतिमा, मटकि जू।
-तोष बुत, २. प्रेमपात्र, प्रेमिका। नालकी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नाल-डंडा] खुली उदा० आनंद होय तबै सजनी, दर सोहबते यार हुई पालकी जिस पर मेहराबदार छाजन होती
निगार नशीनम् ।
-गंग
निग्रह- संज्ञा, पु० [सं०] त्याग, मुक्ति, छोड़ना, उदा० कंचन रंजित सुभग टुटीं अरु लुटी नालकी। उदा० अघ निग्रह संग्रह धर्म कथान, परिग्रह
-सूदन साधुन को गनु है।
-केशव पालकी मैं चढ़ि मति भूल मूढ़ नालकी निघट्टना-क्रि० सं० [हिं० निघट] समाप्त करना, मैं ।
-ग्वाल नष्ट करना। नासर-संज्ञा, पु० [सं० नाश नाश, ध्वंस ।। उदा० ठठ्ठ मरहट्टा के निघट्टि डारे बानन सौं, उदा० लोक चतुर्दश को करता कर तेरे रहै
पेसकसि लेत हैं प्रचंड तिल गाने की। उतपात औ नासर । -बोधा
-सोमनाथ नावक-संज्ञा, पु० [फा०] १. शिकारी २. एक निघरा-वि० [हिं० नि+घर] वह व्यक्ति प्रकार का छोटा बाण।
जिसके घर-बार न हो, खाना बदोश, निगोड़ा, उदा० सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर । २. निर्लज्ज ।
-अज्ञात उदा० देव तहाँ निघरे नट की बिगरी मति को नासी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नाश] दुःख, विषाद ।
सगरी निसि नाच्यो ।
-देव उदा० जा मुख हाँसी लसी घनानंद, कैसें सुहाति निचल-वि० [सं० निः+चल] स्थिर, अटल । बसी तहाँ नासी ।
-घनानंद उदा० यह जीव नाच नाना करत निचली रहत नि कासि-संज्ञा, पु० [हिं० निकसना] मैदान,
न एकदम ।
-ब्रजनिधि रणक्षेत्र ।
निचली-वि० [सं० नि+चल] स्थिर, अचल । उदा० देखत न पीछे की निकासि कैयौ कोसन से, उदा० खिचली भुजा सों लाल पिचली हिये सों लैक करवाल बाग लेत बिलसत हैं।
लाय निचली रहे न डोले विचली पलंग पर। --सेनापति
-ग्वाल निकुंभिला-संज्ञा, स्त्री०[सं०] लंका की पश्चिम निचोर-संज्ञा, पु० [हिं० निचोल] स्त्रियों की दिशा की एक गुफा जिसमें मेघनाद देवी के ओढ़नी या चादर। समक्ष यज्ञादि क्रियाएँ करके रणस्थल के लिए | उदा० ग्वाल कवि कहै ऊन अंबर निचोरै जहाँ, प्रयाण करता था।
सूती बसनन तें तो बहे सात घोरा से । उदा० साधे करबालिका चढ़ाई मुंडमालिका,
-ग्वाल निकुंभिला में कलिका की मालिका जपतभो। | निछर–वि० [हिं० निछल, सं० निश्छल] निश्छल,
-समाधान
निष्कपट। निखसमी-वि० [सं० नि=बिना+अ० खस्म = उदा० रोगनि में सोगनि में, विपति में, कैसे लहै, पति] बिना पति के, रांड़, विधवा ।
ऐसे निछरे में मन राधा कृष्ण कहिरे । उदा० दीपमाला साधुन प्रसाधुन अमावस सु.
-सूरति मिश्र मानति संराध बैरी बधु ह्व निखसमी ।
। निछौरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० निछावर निछावर,
-देव बलिहारी। निखोट-क्रि० वि० [हिं० नि+खोट]-१. उदा० माता बरदायनि हौ दीन सुख दायनि हौ बेधड़क, निस्संकोच २. निर्दोष ।
गिरिजा गोसायनि हौ पग पै निछौरी मैं । उदा० निपट निखोट करें चोट पर चोट, लौटि
-
-नंदराम जानत न, जुद्ध जुरै उध्धत प्रवाई के निजर-संज्ञा, स्त्री० [नजर] दृष्टि, निगाह ।
-पद्माकर । उदा० हाथी निजर संत मैं दीनी । सूड पसारि फा०-१८
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निजु ( १३८ )
निबरना चरण रज लीनी।
-जसवंतसिंह । निधरे-वि० [हिं० निधड़क] निधड़क, निर्भीक, निजु-अव्य० [?] निश्चय ही।।
निडर । उदा० निजु पाई हमको सीख देन ।
उदा० देव तहाँ निधरे नट की बिगरी मति को -केशव सिगरी निसि नाच्यो ।
-देव निझनक-वि० [?] १. अवधि, २, नीरव, निनद-संज्ञा, पु० [सं० निनाद] आवाज, ध्वनि । निर्जन ।
उदा० कहै पद्माकर त्यों निनद नदीन नित नागर उदा० अंजन दै री राधे न करि गहर हे हा हा।
नवेलिन की नजर निसा की है । निझनक बार टरी जाति मनभावन ब्रज
--पदमाकर मोहन मिलन-उमाहा ।
-घनानन्द निनवारना-क्रि० स० [सं. निवाररंग] सुलनिझकनि- वि० [प्रा० णिज्झरो=क्षया क्षय- झाना। __ कारी, दुखद, पीड़ित करने वाला।
उदा० मकराकृत कंडल में उरझी जूलफ सूलफ उदा० निझुकनि रैनि झुकी बादरऊ झुकि आये,
घुघुरारी । कोमल गोल कपोल परस कर देख्यौ कहाँ झिल्लिनि की झांई झहनाति है,
सो राधा निनवारी। -बकसीहंसराज
-आलम निनारा-वि० [सं० निन्+निकट] बिल्कुल, एक अबुध बुधनि में पढ़त ही निझुकत लक्षन- एकदम २. न्यारा, विलक्षण । हीन । भृकुटी अग्र खरग्ग सिर कटतु तथापि । उदा० १. ऐसोई जी हिरदै के निरदै निनारे हो अदीन।
-केशव
तो काहे कों सिधारे उत प्यारे परबीन निभूटी-वि० [प्रा० णिच्छूढ -निक्षिप्त] निर्गत
-दास निष्कासित, निकाली गई ।
निपच्छ-वि० [सं० निः+पक्ष] जिसका कोई उदा० बंधन ते छूटी प्रेम बंधन बघटी, बित हित पक्ष करने वाला न हो, अनाथ, असहाय । चित लुटी सी, निभूटी सी झगरि कै। उदा० कहै पद्माकर निपच्छन के पच्छ हित पच्छि
-देव
तजि लच्छि तजि गच्छिबो करत हैं। निझझल-संज्ञा, पु० [निझोल] हाथी, गज ।
-पद्माकर उदा० निझझल कज्जल संजुत मिड्डि कै भालुक | निपजना-क्रि० अ० [सं० निष्पद्यते] उत्पन्न पिड्डि के भूमि गिराये।
-दास होना, पैदा होना २. बढ़ना । निथंभ-संज्ञा, पु० [सं० स्तम्म] खम्भा, स्तम्भ ।। उदा० पेट परै को लखै फल ज्यौं निपजे हौ सपूत उदा० रची बिरंचि बास सी निथंभराजिका भली
सु भागनि जागे ।
--घनानन्द जहाँ तहाँ बिछावने बने घने थली थली । । निपेटी- वि० [हिं० नि+पेटी=पेटू] भुक्खड़,
-केशव अतिशय भूखा, पेटू । निथोरी–वि० [सं० निहिं० थोड़ा] अत्यधिक उदा. देखिये दसा असाध अँखियाँ निपेटिनि की, बहुत ज्यादा ।
भसमी विथा पै नित लंघन करति है। उदा० आई हो निथोरी बेस सेखर किसोरी बैस
-घनानन्द थोरी रस बातन सनेह भीजियतु है। निबटे-वि० [सं० निपट] निपट, अत्यंत ।
-चन्द्रशेखर उदा० नये छैल निबटे आनंदघन करत फिरत निदंभ-वि० [सं० निर्दभ] घमंड,रहित, गर्वहीन
प्रति ही बरजोरी।
-घनानन्द उदा. प्रारंभित जोबन निदंभ करै रंभा रुचि निबरना-क्रि० अ० [सं० निवृत्त] छूटना, मुक्त रंभोरू सुगंभीर गुराई गुन भीर की।
होना, छुटकारा पाना, निकलना, गुजरना २.
-देव समाप्त होना, ३. दूर होना। निदाह-संज्ञा, पु० [सं० निदाघ] ग्रीष्म ऋतु, उदा० १. आस-पास पूरन प्रकास के पगार समै षट् ऋतुमों में एक ऋतु जो बसन्त के बाद पाती
बनन अगार, डीठि गली ह्व निबरते । है, गरमी की ऋतु ।
-देव उदा० दास आस पास पुर नगर के बासी उत,
२. बीति सब रैनि नभ निबरी तरैयां और माह हू को जानति निदाहै रहयो लागि ।
चहकी चिरैयाँ चारु बिधि लै प्रनंद -दास । की।
-सोमनाथ
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निबाधि
भीजे तन दोऊ कँपैं
न ।
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क्योंहूँ जप निबरै - बिहारी बाध] सुखद, सुख किसी को कष्ट न
१३६)
निबाधि-सं० पु० [सं० नि + पहुँचाने वाला, निर्दोष, जो दे | उदा० नाधि - उपाधि
को नित दुःख दियो तै । निवारन - संज्ञा, पु० अवरोध, ठहराव । उदा० कारन कौन निवारन न बालम प्रायौ । निबाल-संज्ञा, पु० [हिं०
का पुष्प । उदा० बकस्यौ फूल निबाल कौ मोहि भई परतीत हाथनि ही ते जानिये उर अन्तर की प्रीति । — मतिराम निबीत - वि० [निवृत्त ] मुक्त, राग रहित । उदा० गुननि अतीत, परिबीत बीतरागनि मैं, बाहरहू, भीतर निबीत रूप रावरो । --देव
निबाधिहि तू गन सौतिन -देव [सं० निवारण] रुकावट,
कौं कवि भूषन बेगि - भूषण निबाला ] एक प्रकार
मिबुकना - क्रि० अ० [सं० निर्मुक्त] छुटकारा पाना, छूटना, बंधन मुक्त होना । उदा० पीछे जसोमति श्रावति है कहि तोष तबै हरि जू डरि ऊठो । ऐसे उपाइ गई निबुकाइ चितै मुसकाइ दिखाइ अँगूठो । -तोष निबेरना- क्रि० स० [सं० निवृत्त] १. सुलझाना समझना २ छाँटना चुनना । ३. विचारना [बुं०] ।
उदा० १. कहीं कहा तोसों में सजनी अद्भुत गुन इन केरे । सिव बिरंचि सनकादिकहू सों नाहिन जात निबेरे । —बकसी हंसराज ३. ब्रज में यह रीति कुरीति चली, यह न्याउ न कोऊ निबेरत है । -ठाकुर निबेरा -- संज्ञा, पु० [बुं०] निर्णय, फैसला । उदा० बोधा नीति को निबेरो याही भाँति अहै आप को सराहै ताको आपहू सराहिये । - बोधा निबेस - - संज्ञा, पु० [सं० निवेश] १. घर २. डेरा खेमा । उदा० १. ब्रजसि व्रजेस के निबेस 'भुवनेस' बेस, चक्षुकृत चकृत विबकृत भृकुटि बँक
- भुवनेस कान्ह ही की कृपा धन धरम निबेस है ।
—दुलह
निरंभ
निबोधना- क्रि० स० [सं० नि + बोधन] अच्छी तरह जानना, विशेष जानकारी होना । उदा० जीव सौं जीवन, जीवन सों धन, सोधन — देव जीवत नाथ निबोधो । निबोनें -संज्ञा, पु० [हिं० नीबू ] नीबू | उदा० राखी रोकि भवन के कोने । एक भामिनी सोमनाथ उरज निबोन | निभालना-क्रि० स० [सं० निम प्रकाश, प्रभा ] प्रकाशित करना, उद्घाटित करना, खोलना । उदा० शंभु बसी करिबे को सुरेसहि काम पठायो है काम महा कौ, भाल के नैन निभालत ही, जरि पावक पावन भौ तनु ताकौ । - कुमारमरिण निभीची - वि० [देश०] निडर, निर्भय । उदा० आली दरीची की नीची उदीची की बोची निमीची ह्र ल्याउरी लालहि । निम्र ] नम्र, सुशीला,
--दास
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निमानी - वि० विनीता ।
[सं०
उदा० सुबरन तनवारी नारिनवारी बिछुरी प्रिया निमानी । -बोधा निमिखा -- संज्ञा, पु० [सं० निमिष] निमि नामक ऋषि जिनका वास पलकों में बताया गया है । २. निमेष, पल, क्षरण ।
उदा० खंजन मीन मृगीन की छोनी दुगंचल चंचलता निमिखा की । - देव नियेता - संज्ञा, पु० [सं० नेता ] नेता, नायक । उदा० देव सदा नरलोक के जेता । देवनि के नर —केशव नाहि नियेता । निरंग -- संज्ञा, पु० [सं०] एक प्रकार का बढ़िया लोहा । प्राचीनकाल में दो प्रकार का लोहा शस्त्र बनाने के कार्य में आता था, साँग और निरंग २. अंग रहित, कामदेव । उदा० अंग ही अंग अनंग के बान, निरंग ही रंग -देव रची रुचि रोचिनि । निरंध - वि० [सं० निर् + अंध ] १. अत्यधिक अंधकार से युक्त, २. अज्ञानी ।
उदा० अंध ज्यों अंधनि साथ निरंध कुर्वी परि - केशव न हिये पछितानौ । निरंभ - वि० [सं० निः + हिःमवा ] बिना रोस, बिना किसी प्रकार की आवाज किए, नीरव,
शान्त ।
उदा० प्रात अरंभ की खंभ लगी निरदंभ निरंभ
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-गंग
निरजासं ( १४० )
निषेवी सम्हारै न सासुनि ।
-देव । उदा० यौबन ज्योति अनूप जगी ब्रज ऊपर रूप निरजोस-संज्ञा, पु० [सं० निर्यास] निचोड़,
की राशि निरी तू ।।
-देव सार २. वृक्षों से प्राप से आप निकलने वाला निरै-संज्ञा, पू० [सं० निरय] नरक । रस ।
उदा० छिति छोड़ि के राजसिरी बस पाय निरैउदा० कृस्न परम रस को निरजास । कृस्न-कृपा
पद राज बिराजत जैसे ।
-केशव तें यह बिसवास।
-घनानन्द
सूक्षम उदर में उदार निरै नाभी कूप, निक२. बोलत न पिक, सोई मौंन ह रही है,
सति ताते ततो पातक अतंक की। -देव पास पास निरजास नैननीर नीर बरसितु निरठी-वि० [देश॰] मस्त, मुग्ध ।
-सेनापति उदा० रूप-गुन-ऐंठी सूअमैठो उर पैठी बैठी निरजोस-संज्ञा, पु० [सं० निर्यास] निर्णय, __ लाड़नि निरैठी, मति बोलति हरै, हरी । २. निचोड़।
-घनानन्द उदा० बुझि समौ ब्रज लाडिली सों, हरि बोझ | निलत्तल-संज्ञा, पु० [सं० नीलोत्पल] नीलकी बात कहो निरजोसे ।
-देव कमल । निरवंग-वि० [सं० निः+दंभ] दम्भ रहित, उदा० लीले दुकूल दवाइ तहीं ललना ललना स्वाभाविक, शान्त, बिना किसी प्रदर्शन के।
कहि आज भले थर । मानो निलत्तल के उदा० प्रात प्रारंभ की खंभ लगी निरदंभ निरंभ दल को कन लै उड्यो भौंर बधू बिधु के सम्हारै न सासुनि ।
-देव
पर। निरवकी-वि० [सं० निः+ रद] बिना रद का, निलय-संज्ञा, पु० [सं०] मकान, गृह २. बिना दाँत का, अबोध ।
स्थान । उदा० पाप करिबे मैं सक्ति तरुनी ज्यौं राखी उदा० गतिनि के हार की बिहार के पहरू रूप अरु, पुन्य करिबे मैं जैसे बालक निर
किधौं प्रतिहार रतिपति के निलय के। दकी। -सूरतिमिश्र
-केशव निरसंचय-वि० [सं० निर् + संचय ] सारा
निवान-संज्ञा, पु० [राज० निमाण, हिं० निम्मन] संचय, सर्वस्व ।
तड़ाग, जलाशय । उदा० निरसंचय दाता सब रस ज्ञाता सदा साधु
उदा० रूप रति आनन ते चातरी सुजानन तें संगति प्यारी ।
-दास
नीर लै निवानन तें कौतुक निबेरो है। निरोट-वि० [हिं० निराल] १. निपट, सर्वथा,
-ठाकुर निरा, बिलकुल २. निराश।
निवेद-संज्ञा, स्त्री० [सं० निः+वेदना] वेदना उदा० १. पुनि निराट कलियुग जब आवै । तब
मुक्त, शांति, आराम, चैन । को पीर कौन की पावै ।
-बोधा
उदा० नारि गहो किन कान्हर नैक, कहौ किन २. मैं कीन्ही तोसों हँसी तू कत करी
औषद, व्याधि बताऊँ । बेदन प्राइ, निवेनिराट ।
-बोधा
द न देव, रहै दिन रैनि सु बैद न पाऊँ। निराटक-वि० [सं० निर्+हिं० अंटक] बिना
-देव किसी रोक या बाधा के निर्भय, निधड़क । उदा० साधति देह सनेह निराटक है मति कोऊ
निशंक अंक-संज्ञा, पु० [सं० निशंक-निर्भय+ । कहूँ अटकी सी।
-देव
अंक=हृदय] निर्भय हृदय, अत्यंत निर्भीक । निरास-संज्ञा, पु० [सं० नीर+अशनभोजन]
उदा० वायु पुत्र बालि पुत्र जामवंत धाइयो लंक १. नीर ही जिसका भोजन है अर्थात् पपीहा ।
में निशंक अंक लंकनाथ पाइयो। २. निराश ।
-केशव उदा० फिरि सुधि दै, सुधि द्याइ प्यो, इहिं निर- निषेवी-वि० [सं० निषेवक,] १. अनुसारिणी,
दई निरास । नई नई बहुर्यो दई ! दई २. निवासिनी, रहने वाली। उसासि उसास ।
-बिहारी | उदा० रलि गई रलकि झलक जलकन नीकी निरी-वि० [सं० निराश्रय] विलकुल, सर्वथा, अलक अराल छूटी नागिनि निषेवी सी। एकदम ।
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निसंत निसंत-संज्ञा, पु० [सं० निशांत] गृह, रहने । पाचोप, निहनहु बिधु अथवा प्रहै इत का स्थान ।
चंदन को लेप ।
-पद्माकर उदा० बन म कूलन पै मौर झौर झूलन पै | निहायत-संज्ञा, स्त्री० [अ०] १. अवस्था, भूग रस फूलन पै पजन निसंत की।
दशा २. अंत, ३. अत्यन्त, बहुत [वि.] ।
-पजनेस | उदा० १. याते बिधि की भूल अनैसी। जोपै निसा संज्ञा, स्त्री० [फा० निशा] इच्छा, २. करत निहायत ऐसी।।
-बोधा संतोष, प्रबोध, मुहा०-निसाभर-जीभर नीजन-वि० [सं० निर्जन] सूनसान, एकान्त, तृप्ति ।
निर्जन । उदा० १. प्राजु निसा भरि प्यारे ! निसाभरि उदा० घोर तरुनी जन बिपिन तरुनी जन ह' कीजिए कान्हर केलि खुसी मैं ।
निकसी निसंक निसि आतुर अतंक मैं । -ठाकुर
-देव २. दास निसा लौं निसा करिये दिन- नीठि-क्रि० वि० [ब्र०] मुश्किल से, कठिनाई बूड़त ब्यौंत हजार करोंगी।
-दास के साथ। निसासिनि-वि० सं० निःश्वास] निर्दय, उदा० बैंची खयून खरी खरके नहि नीठि खुले कठोर।
खुभि पीठि धसी क्यों।
-देव उदा० किये काम-कमनैत दृढ़ रहत निसानो, नीधन-संज्ञा, पु० [सं० निः+धन्या] १. बिना
मोहि । अहे निसा तोहूँ नहीं निसा __ स्त्री के, योगी, साधु, सन्यासी, २. निर्धन, निसासिनि तोहि ।
-दास गरीब । निसिमुख-संज्ञा, स्त्री० [सं० निशा+मुख] | उदा० १. सेनापति सदा जामैं रूपौ है अधिक गोधूलि बेला, सन्ध्या।
गुनौ, जाहि देखि नीधन की छतियाँ हैं उदा० छनरुचि सरि चमकति निसि मुख में ।
तरसी।
-सेनापति -दास | नीबी-संज्ञा, स्त्री० [सं० नीवि] स्त्रियों के निसके-वि० सं० निरवक = निजसंपत्ति | अधोवस्त्र बंधन, फफंदी। विहीन] दरिद्र, रंक, निर्धन, संपति विहीन, उदा० तापर पकरि नीबी जंघन जकरि बड़े जिन्हे अच्छे बुरे की चिन्ता न हो।
ढाढ़सनि करि दास श्रावति उद्धंग में । उदा० हौ कसु कै रिस के करौं, ये निसुके हँसि
-दास देत ।
-बिहारी निसोती-वि० [सं० निः संयुक्त ] विशुद्ध,
नीमा- संज्ञा, पु० [फा०] नीचे पहनने की कुर्ती
२. एक पहनावा जो जामा के नीचे पहना पवित्र, जिसमें किसी भी प्रकार की मिलावट
जाता है। न हो। उदा० स्वांस चंड आगे मारतंड की भभकै कहा
उदा० दारिम-कुसुम के बरन झीने नीमा मधि. तन-ताप जैसी तैसी अनल निसोती ना।
दीपति दिपति सु ललित लोने अंग की -नंदराम
-घनानन्द नि हंग-वि० [निःसंग] १. एकाकी, अकेला,
नीरो-अव्य० [हिं० निर] नजदीक, समीप,
न एकमात्र २.अनासक्त ३.नंगा ४. बेशर्म।
निकट । उदा० १. स्वांग सो नाग निहंग जटी लपटी,
उदा० जीवन को जीवन-सलिल समसीरो सदा प्रवली अहि भांगहि खाइके।
कहूँ नीरो दूरि निरमल धूरि धूसरो । -बेनी प्रवीन
-देव २. अंग बोरि गंग में निहंग ह्रकै बेगि नुकरा-वि० [अ०] १. सफेद रंग का २. घोड़ों चलि पागे पाउ मैल धोइ बैल गैल लाइ का सफेद रंग [संज्ञा, पु.] ३. चांदी। लै।
-आलम
उदा० हरे नीले नुकरा सुरंग फुलवारी बोज, निहनना-क्रि० स० [सं० निहनन] मार डालना,
रंगे रंग, जंग जितवैया बित्त बेस के। मारना ।
-सोमनाथ उदा० करब निषेध सु उक्ति को यहै प्रथम | नूत-संज्ञा, पु० [?] प्राम, आम्र ।
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-गंग
नेल ( १४२ )
नोमु उदा० १. घोर लगै घर बाहिरहू डर नूतन नूत। उदा० १. हुक्का बाँध्यो फेट में नै गहि लीन्हो दवागि जरे से ।
हाथ । चले राह में जात हैं लिए तमाकू २. प्राजु गोपाल जु बर-बध सँग नतन नत । साथ ।
-गिरधर कविराय। निकुंज बसे निसि ।
देव
२. किते न औगुन जग करत, नै बै चढ़ती नृत निसान दिसान मनौखर, सान कुसुम्म
बार ।
-बिहारी धरे सर पैना।
-बेनी प्रवीन नैची-अव्य० [हिं० नीचे] नीची, नीचे की नूल-वि० [सं० नवल] नवल, नवीन ।
ओर। उदा० भुवभार उतारन जाँचे विधि ने, तुम जग | उदा० त्यों पद्माकर पाट पै पाय दै नीर निहारक्षा काजै । तब उदित भये जदुकुल में
रत, नार के नेची । सूरज नूल तेज को साजे । - सोमनाथ नैठन-संज्ञा, पु० [हिं० नाटना] भगोड़े, कायर, नेग-संज्ञा, पु० [सं० नैयमिक] बाँट, हिस्सा । | डरपोक । उदा० मन तौ मनमोहन के सँग गौ, तन-लाज ! उदा० राजन की राजरानी डोली फिर बनबन मनोज के नेग परौ।
--द्विजदेव
नैठन की बैठे बैठे भरें बेटी-बहू जू । नेज-संज्ञा, स्त्री० [?] लग्गी, बाँस की वह
लग्गी जिससे पतंग आदि छुड़ायी जाती है। नैत-संज्ञा, स्त्री० [सं० नेत्र] एक प्रकार का उदा० जीवन मूरि सी नेज लिए इनहूँ चितयो महीन रेशमी वस्त्र ।। उनहूँ चितई री।
रसखानि | उदा० दिन होरी खेल की हराहर भरों हो नेठ-संज्ञा, पु० [सं० नष्ट, हिं० नाठ] १.
सुतौ, भाग जागें सोयौ निधरक नैत ढापि नष्ट, ध्वंस, नाश, २. अमाव ।
कै।
-घनानन्द उदा० १. मानत हे प्यास ग्रौ न जानत हे भूख
ओबरि जुड़ि तहाँ सोवनारा । अगर पोति मटू मानत हे संका धाम की न काम नेठ
सुख नेत अोहारा ।
--जायसी की।
-रघुनाथ नैर-संज्ञा, पु० [हिं० नगर] नगर, शहर । नेत-वि० [सं० नियत] स्थिर, अचंचल ।
उदा. मेरे कहे मेरे करु सिवाजी सों बैरि करि, उदा० दोष मैं निहारि गुन दोष कामना करत, गैर करि नैर निज नाहक उजारे तै । या विधि अनुज्ञा बरनत मति नेत हैं।
-भूषण
भहराय भगै धर लोक महामय सून भय नेर -अव्य० [सं० निकट, हिं० निर] निकट, अरि नैर सहू।
-मानकवि पास, नजदीक ।
नैऋत्य-संज्ञा, पु० [सं० नैऋत्य] राक्षस । उदा० कैसे री सुपानन पै नैन किये डेरे जैसे उदा० जार्यो शर पंजर छार करो । नैऋत्यन नॅदनंदन निहारे प्राय नेरे हैं। -पजनेस
को अति चित्त डरो।
--केशव नेव--संज्ञा, पु० [फा० नायब] सहायक, नायब । | नैस-वि० [देश॰ नैसुक नैस] थोड़ा, लेशमात्र। उदा० जहाँगीर को पंजा लेव । राजा कों मिल- उदा० मालम बिहात छिन जानो जात कोटि वी करि नेव ।
--केशव
दिन, कौन रैन की समाई सुरति न नैस नेवर-संज्ञा, पु० [सं० नूपुर] पैर में पहने जाने
-मालम वाला एक भूषण, पैजनिया ।
मोवन-संज्ञा पु० [सं०] चाबुक, बैलों के हाँकने उदा० सुनि के नेवर की धुनि सजनी देवर रिस का कोड़ा। कर धाये।
-बकसीहंसराज उदा० रतिजय लेखिबे की लेखनी सुलेख किंधौं, नेवाती-संज्ञा,पु० [निवात-कवच] कवच धारी,
मीनरथ सारथी के नोदन नकीने हैं। लड़ाई के लिए प्रस्तुत योद्धा ।
-केशव उदा० चाहतें सलाह करि नेवाती-नितंबं प्रव, नोमु-संज्ञा, स्त्री० [सं० नव] एकतिथि, नवलूट्यो लंक पुर चढ़ि बढ़ि तजि त्रास सी । रात्र वाली नवमी,।
दास | उदा० बलिपसु मोद भयो बिलपनि मंत्र ठयो, मै--संज्ञा, स्त्री [फा०] १. हुक्के की निगाली
अवधि की पास गनि लयो दिन नोम हैं। २. नदी [प्रा० नय] ३. नीति ।
--दास
-दूलह
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नौनि
नौनि -संज्ञा, पु० [सं० नमन ] झुकने का भाव, झुकाव ।
उदा० तुव चितौनि लखि ठौनि लखि, भृकुटि नौनि लखि रौनि ।
- दास
नौनी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० लोनी० सं० लावण्यवती सलोनी सुन्दरी ।
उदा० गजगौनी नौनी धरै, नौन की ढरैया सीस, नीरज से नैन नारि, निरखी नुनेरा की । -देव न्याति -संज्ञा स्त्री० [सं० ज्ञाति ] ज्ञाति, जाति । उदा० नागर न्याति नाम पिपलास । जानसुरति राजा सौ तास । -- जसवंतसिंह न्यान - अव्य० [सं० निदान ] १. निदान, अन्त में २. सुध, चेतना (संज्ञा, पु० ) । उदा० १. निज मुख चतुराई करें सठता ठहरै न्यान, व्यभिचारी कपटी महा नायक सठ पहचान ।
-- दास
हियो बज्र भयो न्यान बिरह घाव बिहरत
पंक- जनम – संज्ञा, पु० [सं० पंकज ] पंकज, कमल । उदा० पंक-जनम की नीद-संग भाजि गई निसि छांह | —कुमारमरिण पंकरुह श्राला - संज्ञा, स्त्री० [सं० पंकरुह + आलया] कमलालया, लक्ष्मी । उदा० पंकरुह झाला याके श्रंकेसय श्रावत, सु संके सुर सोभा सुने संकेत सदन की । - देव पंगु - संज्ञा, पु० [सं०] शनैश्चर नामक एक ग्रह । उदा० ऐसे सखी मुकतागन में तिल तेरे तरौना के तीर बिराजै । श्राये हैं न्यौते तरयन के जनु संग पतंग श्री पंगु जु राजै ।
- रसखानि [हिं० पचाना ] पचाना,
पंचबन - - क्रि० सं० हजम करना ।
उदा० गंगा जी तिहारे तीर कौतुक निहारो एक आयो पक्षिराज भूख प्यास बित वन को ।
१४३
>
पड़
नहीं । - बोधा २. त्यों न कछू न्यान जीकी ज्यान कौन गनै देव ज्ञान करि ध्यान धरि धीर धरिय तु री । —देव न्यार - संज्ञा, पु० [हिं० नियार] भूसा, भुस, जौहरी या सुनारों की दूकान का कूड़ा, कर
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कट । उदा० गोधन खरिक खेत अरु दहल नाज श्ररु न्यार ।
क्यार । गोरस-घनानन्द
न्यासी- क्रि० स० [सं० न्यस्त] धरोहर के रूप में रखना, थाती करना, अर्पण करना, रखना । उदा० देव जू नैननि बैननि में पिय के हियरे निसि बासर न्यासी ॥ --देव न्वैनी - - संज्ञा, स्त्री० [हिं० नोय] दुहते समय गाय बाँधने की रस्सी, नोय । उदा० नैनन के वैनी नैन नेह के निके ।
- केशव
ख्याल मैं उताल हाल ब्याल को परो है तट कीन्ही है विचार जहीं कंठ पंचबन को । —नंदराम पंचालिका -संज्ञा, स्त्री० [सं०] पुतली, गुड़िया २. नटो, नर्त्तकी ।
उदा० पल सोनित पंचालिका मल-संकलित बिसेष | जोबन में तासों रमत अमरलता उर लेखि । केशव पंस - संज्ञा, पु० [सं० पांशु० हिं पांस ] मिट्टी, धूल, सड़ी गली वस्तु, निकृष्ट पदार्थ, कूड़ा
करकट ।
उदा० येरी इन्दुमुखी सुखी तो बिनु न एक छिन, दुखी कलुषी ह्न क्यों अवध गैल गहि है । गाइ गाइ लोगन कहयौ तो बंस अवतंस, हाइ हाइ अब कुल पंस मोसो कहि है ।
पड़ती -संज्ञा, स्त्री० [सं०
- बेनीप्रवीन पण्डिता] पण्डिता,
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पक्षी ( १४४ )
पटवारी विदुषी।
पच्छिपाल-संज्ञा, पु० [सं० पक्षी+हिं० पालतू] उदा० वै पढ़े पण्डित हैं छल मैं तुम, भौंह चढ़ा- पालतू पक्षी, गृह के पले हुए पक्षी।। वन माह पड़ती।
-बेनीप्रवीन । उदा० मोरन के सोर पच्छिपाल और पाये धायेपक्षी-संज्ञा, पु० [सं० पक्ष ] १. हिमायती, लावक चकोर दौरि हंसनि की दारिका । सहेली।
-देव उदा० गली द्वार दहलीज आँगन लों प्रागमन पछले-संज्ञा, पु० [हिं० पछेली] हाथ में पहनने पक्षी के कहत लस्यो पक्षिन के सोर सो। का स्त्रियों का कड़ा ।
-रघुनाथ उदा० लटकन लेरी फिर बांकी पहुँची न कस पखरामनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रक्षालन ] पैर
बाला बैसवारी जानि मुंदरी पछेले हैं। प्रचालन की क्रिया, पाँव पूजना, पैर धोने का
-बलदेव कार्य ।
पछयावरि-संज्ञा, पु० [बुं०] दही से निर्मित उदा० यह करी विधि सों लगुन, तब मुरगुन ने एक पेय पदार्थ जो भोजनोपरान्त दिया जाता
फेरि। करौ पांइ पखरामनी, सब कुटंब | है। ___ कों टेरि।
-सोमनाथ २. पीछे से परोसा जाने वाला मीठा, पकवान पखाल-संज्ञा, स्त्री० [सं० पय+हिं० खाल 1 | उदा० १. मोद सों तारकनंद को मेद पछ्यावरि मशक, चमड़े की वह बड़ी थैली जिसमें पानी
पान सिरायो हियोई।
-केशव भरा जाता है।
२. जोरी पछिौरी सकल, प्रथम कहे नहि उदा. जौही लगि पानौ तौ लौं देह सी दिखानी.
पार।
--नरोत्तमदास फेरि पानी गये खारिज पखाल ज्यों पुरानी पजरा-अब्य० [सं० पंजर] पाश्वं, निकट, पास ।
-पद्माकर उदा० नाम तिहारो पुकारै पखेरुवौ, पाहरु पंथ पखिया-संज्ञा, स्त्री० [सं० पक्ष] पंख, पर ।
परे पजरा के।
-देव उदा० १. रूप गुण सागर अनूप गुण आगर में पटकना-क्रि० अ० [हिं० पटक] किसी वस्तु का जाइ मिल्यौ हंस उड़ि प्रेम पखियान ते । सहसा फट या दरक जाना, निकल पडना ।
-देव उदा० पटक्योई पर यह अंकुर प्राँसलो ऐसी कछू २. बेगहि बूड़ि गई पखियां मधु की
रसरीति-धुरी।
-घनानन्द मखियां अखियां भई मेरी। -देव पटकीली-वि० [हिं० पटपटाना] सन्तप्त, जली पखियान-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पक्खा, पाख ] हुई, मुंजी हुई, पटपटाई हुई । २. दबाने वाली ' पक्खा, दीवाल, भित्ति ।
वशीभूत करने वाली। उदा० डोलति न डीठि तें निकाई वह सोमनाथ उदा० १. लटकीली लंक त लूटाइलटे लेत लोग. देखी निसि जागि मैं जू लागि पखियान
सिर पटकीली भई सौतिन की छति है। सों। -सोमनाथ
–बेनी प्रवीन पगबदलो-संज्ञा, पु० [हिं० पाग+बदलना ] २. चटकीली पटकीली गटकीली बतियन, पगड़ी बदलने की रीति ।
हटकीली हेरी कत पारति विपति है। उदा० सुनो हतो अब लो पगबदलो मनबदलो इन
बेनी प्रवीन कीन्हो ।
-बक्सीहंसराज पटबीजन-संज्ञा, पु० [?] जुगुनू, खद्योत । पचतोरिया-संज्ञा, पु० [सं० पंच+हि० तोला] उदा०-मिलि के कच पुंजनि लाल चुनी चमकै एक प्रकार का महीन बस्त्र ।
घन मैं पटबीजन सो।
-आलम उदा० सेत जरतारी की उज्यारी कंचुकी की पटम-संज्ञा, पु० [?] छल-कपट ।
कसि अनियारी डीठि प्यारी उठि पैन्हों उदा. काहै की एतौ पटम रचत हो मन रूखे-मुंह पचतोरिया ।
-देव । चिकने बैन । आनंदघन भोर ही उनएपचौरी-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] धोखेबाजी, चुगली।
उघरि उघरि दुख दैन।
-घनानंद उदा० कब काहू सोंकरी पचौरी कब हम कान्ह पटवारो-वि० [सं० पटु: खुशामद+हिं०वार
बुलाये। तुम्हरी प्रेम फांस के बाँधे प्रापुन (प्रत्यय)] खुशामदी, चाटुकार, चटुल । तें ये आये।
-बकसी हंसराज Jउदा० चोप-पटवारो-चित्त-चंचल-चकोर मेरी,
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कैती कार बावरी परिव विन पश्चिमा
परि मामा से प्रातका ।
केशव
पटवैदूर्य ( १४५ )
पन कैसी करै बावरी परिद विन पखियां । पतीठि-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा ] सम्मान,
- द्विजदेव । प्रादर, मान, प्रतिष्ठा । पटवैदूर्य-संज्ञा, पु० [सं० पट =अम्बर+वैदूर्य J उदा० इन बातन की करी पतीठि । पाए कुंवरहि =मणि] अम्बर मरिण, सूर्य ।
छोड़ि बसीठि।
-केशव उदा० तब लगि रहौ जगंभरा, राह निबिड तम पतुको--संज्ञा, स्त्री० [सं० पातिली ] हांड़ी,
छाइ । जौ लौं पटवैदूर्य नहिं हाथ बगारत मटकी, दधि भांड । प्राइ।
-दास । उदा० पतुकी धरी स्याम खिसाइ रहे उत ग्वारि पटा-संज्ञा, पू० [हिं० पटाव] १. पटाव, सौदा
हँसी मुख आँचल दै। २. पीढ़ा, पटरा [सं० पट्ट]
पतेना-संज्ञा, पु. [?] एक प्रकार का पक्षी । उदा० १. कहै पद्माकर मनोज मन, मौजन ही. | उदा० कहै नंदराम मैन बकत पतेना रहैं अब लौ नेम के पटा तें पुनि प्रेम को पटा भयो ।
कुही है बाज प्राई ना लखात है । -पद्माकर
-नंदराम २. पहिलें एक पटा पै दच्छिन, बैठारी है पतैबो-संज्ञा, पु० [हिं० पतियाना ] विश्वास, गौरि विचच्छन ।
-सोमनाथ प्रतीति । पटी-संज्ञा, पु० [सं० पट] पगड़ी, साफा ।
उदा० सुख पावत ज्यों तुम त्यों हमहूँ कबहूँक तौ उदा० पीत पहराय पट बाँघि सिर सों पटी।
भूलि पतैबो करै।
-सोमनाथ -केशव पत्री-संज्ञा, पु० [सं०] बाण । पटीर-संज्ञा, पू० [सं०] एक प्रकार का चंदन । उदा० लब के उर में उरझयो वह पत्री मुरझाय उदा. केसरिया चक चौधत चीरु, ज्यों केसरनीर
गिरौ धरणी महँ छत्री।
-केशव पटीर पसीज्यो ।
पथारु-संज्ञा, [सं० प्रस्तार] प्रस्तार, छन्दशास्त्र पटेला--संज्ञा, पु० [?] एक आभूपरण ।
में नौ प्रत्ययों में प्रथम, जिससे छंदों के भेद की उदा० कंठी कंठमाला भूषधी बरा बाजूबंद ककना संख्याओं और रूपों का बोध होता है। पटेला चुरी रतन चीक जारी सी।
उदा० पाछे गुरूहि सो पूरन बर्न कै सर्व लह -बोधा
लगि यों ही मचै । ऐसें पथारू कै दोइ सों पटैत-- संज्ञा, स्त्री० [देश॰] पटा चलाने वाली,
दूनोई दूनी के बर्न की संख्या सचे। पटेबाज ।
-दास उदा० बांकी बनत पटैत दिवानिन है कमनैत बड़ी पदार-संज्ञा, पु० [सं०] पैरों की धूल, मिट्टी, सुघरै री।
--ठाकुर
रज । पट्टिस-संज्ञा, पु० [सं. पट्ट] एक अस्त्र जो भाले । उदा० प्रारद होत पहारद पार सपारद पुण्यजैसा होता है।
पदारनह में ।
-देव उदा० सूरज मुसल नील पट्टिस परिघ नल जाम- पदारथ-संज्ञा, [सं० पदार्थ] १. रत्न २. पद
वंत असि हनू तोमर प्रहारे हैं। -केशव का अर्थ । पठंगा - संज्ञा, पु० [सं० पाठ] पाठ, रट, जप । उदा० उरभौन मैं मौन को धूघट के दुरि बैठी उदा० ताही के सढंगा सदा पानंद है संगा अरु,
बिराजत बात बनी। मृदु मंजू पदारथ सोई जग चंगा जाकै गंगा को पठंगा है।
भूषन सों सु लसै हुलसै रस-रूप-मनी । -सूरति मिश्र
-घनानंद पतारी-वि० [सं. प्रतारणा] प्रतारित, दण्डित पद्मी-संज्ञा, पु० [सं०] हाथी।। दण्ड पाया हुआ।
उदा० देखे जासु रसाल चाल पद की, पदमी रहै उदा० पति की पतारी हुती पातिक कतारी, ताहि
ब्रीड़ित ।
-दास तारी तुम राम ! तारी तुम सौ न और है। पन-संज्ञा, पु० [सं० पण] मोल, कीमत, २.
-ग्वाल __ सौदा [सं० पण्य] ३. प्रण । रतिदेवत--वि० [सं. पतिदेवता] पातिव्रत ।
उदा० बेटी काहू गोप की बिलोकी प्यारे नन्द उदा० तेही जनो पतिदेवत के गुन गौरि सबै गुन
लाल ? नाही लोल लोचनी बड़वा बड़े गौरि पढ़ाई।
- मतिराम पन की।
-केशव
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पनबट्टा
(
१४६
पनबट्टा- -संज्ञा पु० [हिं० पान + बट्टा ] पान
रखने का छोटा गोला डिब्बा | उदा० साहुल से गोल से सिंधौंरा बटमार ऐसे श्रति ही कठिन पीन सीन पनबट्टा से । - दिवाकर पनरस—संज्ञा, पु० [ बुं०] वह लाल कपड़ा जिससे विवाह में गंठ बंधन होता है । उदा० सुन्दर इश्क रंग में रंगिकै पनरस चारु बनाई । - बकसी हंसराज पत्ता नामक
पनवां- संज्ञा, पु० [सं० पत्र ] करण में पहनने का एक भूषण ।
२. हमेल नामक भूषण का सुमे। उदा० जाइ मिली पनवां पहिरे अनवा तिय खेत खरी मनवा के 1 तोष पनवारे- संज्ञा, पु० [सं० पूर्ण + हिं० वार प्रत्य० ] पत्तल, पतरी ।
उदा० जेंवत छाक कतूहल सौं हरि लेत हँस-कर को पनवारो । -- नागरीदास पनहा – संज्ञा, पु० [सं० परण + हार] चोरी का पता लगाने वाला ।
उदा० १. लोल छुटी लट सों मुकुतालर अग्र जुटी श्रम के कन संगति । लूटि सुधानिधि राज को राहु चल्यो पनहासु चली उड़ि पंगति
- श्रालम
२. सीस चढ़े पनहा प्रगट कहैं पुकारे नैन । - बिहारी पनारना -- क्रि० प्र० [बुं०] पधारना । उदा० बन लौं पनारत पनारे से ह्र रहत हैं, निसि न्यारे नीर नये नारे ज्यों निदान हैं ।
आलम
पनीत - वि० [सं० प्रणीत ] प्ररणीत, निर्मित । उदा० नयन, नासिका, रसन स्रुति तुच पाँचौ मन मीत, प्रभु मिलि प्रभुता देत है मनमति प्रकृति पनीत । -देव पप्पाल - संज्ञा, पु० [?] न मरने वाला गड्ढा । उदा० बुरो पेट पप्पाल है, बुरो जुद्ध ते भागनो । गंग कहै अकबर सुनी, सबतें बुरो है माँगनो ।
- गंग
प्रबाल,
पमारी – संज्ञा, पु० [सं० प्रबाल ] मूँगा । उदा० न्हात पमारी से प्यारी के प्रोठते झूठीमजीठ निहारि नजीक सो। तीकी रंगी अँखियाँ अनुराग सों, पी की वहै पिक बैनी की पीक सो ।
- देव
>
पबई - संज्ञा, स्त्री० चिड़िया । उदा० मैं एक पबई पढे सो तबै ।
पब्ब – संज्ञा, पु० [सं०
वज्र ।
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परकना
[?] मैना जाति की एक
पाली तबै । अमृत बचन — जसवंत सिंह पवि प्रा० पब्ब] पवि,
उदा - पंचगुनी पब्ब तैं पचीस गुनी पावक तें प्रगट पचास गुनी प्रलय प्रनाली तैं ।
पब्बी - वि० [सं० पवि प्रबल ]
१.
२. वज्र ।
उदा० कहूँ बज्जं को घोर पब्बी चिहारें ।
पद्माकर प्रबल
बोधा
पयपूर - संज्ञा, पु० [?] समुद्र, सागर । उदा० पब्बय परत पयपूर उछरत, भयौ सिंधु के समान आसमान सिद्ध-गन कौं ।
-सेनापति
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।
पयोज - संज्ञा, पु० [सं०] कमल । उदा० पेखति प्यारी पयोज के पातनि घातन बातन में चित दीने । — देव पयोदेवता - संज्ञा, स्त्री० [सं० पय = जल + देवता - देवी] जलदेवी । उदा० गिरापूर में है पयोदेवता सी कंज की मंजु सोमा प्रकासी । पयोधर —— संज्ञा, पु० [सं०] १. तालाब, २. स्तन, कुच । उदा० तिन नगरी तिन नागरी प्रतिपद हंसकहीन जलज हार शोभित न जहाँ प्रगट पयोधर पीन । - केशव पर - संज्ञा, पु० [सं०] १. शत्रु, दुश्मन २. से [ बुंदेली में कारण कारक का चिन्ह ] ३ प्रतिद्वन्दी, जोड़ ४. दूर, परे ।
किधौं -- केशव जलाशय,
उदा० १. सहिहीं तपन ताप पर को प्रताप रघुबीर को विरह बीर मोपै न सहयो परं । - केशव पच्छी परछीने ऐसे परे परछीने बीर - भूषरण २. राधिका कुवरि पर गोरस बेचाइये । - केशव अलख लखी बिहारी जाइबो लाल
३. सूछम कटि पर ब्रह्म की नहि जाय ।
४. अपने गृह माखन खाइबो नहीं कबहूँ पर ने रे । परकना - क्रि० प्र०
[हिं०
-श्रालम
परचना ] परचना,
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परिंगहु
परकीति
( १४७ ) हिलना, गीधना, चसका लगना ।।
उदा० ले परबी परवी न गनै कर बीन लिये उदा० 'द्विजदेव' जु सारद चंद्रिका जानि, चकोर
परबीन बजावै ।
-देव चहँ परकेई रहैं।
-द्विजदेव | परमोधना-क्रि०अ० [स० प्रमोद] प्रसन्न करना, परकीति-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रकृति] प्रकृति, फुसलाना, वश में कर लेना। _ स्वभाव, आदत।
उदा० चहूँ और कौंधा चकचौधा लागै सूनी उदा० प्रतिमतवारे जहाँ दुरदै निहारियत तुरगन
सेज स्याम सुखदाई दारी दासी परमोध्यो ही में चंचलाई परकीति है। -भूषण
-गंग परचाना-क्रि० स० [सं० प्रज्वलन] १. जलाना परमोधु-संज्ञा, पु० [सं० प्रमुग्ध] बेहोश, २. क्रि० अ० [परचना] जलना ।
मूच्छित । उदा. आधे अन सुलगि, सुलगि रहे प्राधे, मानौं उदा० शत्रु चमू वर्णन समर लक्ष्मण को परमोधु बिरही दहन काम क्वैला परचाए हैं।
-केशव -सेनापति परविष-संज्ञा, पु० [सं० पर= श्रेष्ठ+विष] २. किसुक अँगार मुख माँहि परचत है। तीव्र विष, उत्कट विष ।
-ग्वाल उदा. हाड़ से हाटक परविष से विषयरस परझाना-क्रि० स० प्रा० परज्झ] परचाना
केसौदास ऐसैं सब संतोष बखानिय परतंत्र करना, पराधीन करना, वशीभूत
-केशव करना ।
परा--संज्ञा, पु० [हिं० परिया, सं० पारि] १. उदा० द्वार उठि जात घुमि देहरी पै बैठि-जात प्याला, परई, दोये के आकार का मिट्टी का नैन अकुलात परझाये परझत नहीं।
वर्तन २. पंक्ति, कतार ।।
-नन्दराम | उदा० १. हौं तो सदा गरपरा तेरो परा भरो परतीत-संज्ञा, स्त्री० [बु०] १. कठिन प्रभाव
दधि पाऊँ।
-बक्सी हंसराज २. प्रतीति [सं० विश्वास ।
२. जोबन की जोति जाकी जीति की उदा० जानती जो इतनी परतीत तौ प्रीति की
जगति कला, और कहा आइ परा बाँधि रीति को नाम न लेती ।
-ठाकूर कौन लरैगो।
--गंग परदे- संज्ञा, पु० [फा० परिन्दः] पक्षी २. पर पराइछे--अन्य [सं० पराची] दूसरो और। या पंख देना।
उदा. पाये सेख मीच के लिए। पुर पराइछे उदा० ईस हमैं परदे परदे सों मिलौं उड़ि ता
डेरा किये।
-केशव हरि सों परदेसों।।
--दास
परारष-संज्ञा, पु० [सं० पराद्धं] १. एक शंख परन-संज्ञा, पु० [सं० प्रण] टेव, पादत ।
की संख्या २. ब्रह्मा की प्राय का पाषा काल । उदा० कहै कबि गंग बन बीथिन परन परे, सुने । उदा० एक तें अनेक के, परारध लीं पूरो करि, के के छाँड़े दूने जंगली-जनावरनि ।
लेखो करि देखो, एक सांचो और सून है।
गंग परनि-संज्ञा, स्त्री० [?] बोल, अावाज ।
परावन-संज्ञा, पु० [सं० पर्वन्] पर्व, उत्सव । उदा० १. मन की हरनि तैसी बरनी न पावै
उदा० रति मन में उठावै जैसी परनि मृदंग की।
भजे अँध्यारी रैनि मैं, भयोमनोरथ काज ।
-तोष . पूरे पूरब पुन्य ते; पर्यो परावन आज ।। सुखिर घन पाछी पाछी ठान सों बाँकी
-मतिराम परन उठान सों।
-घनानन्द परि-अव्य [सं० परं] निश्चय, पै। परबन-संज्ञा, पु० [सं० पर्व] १. कथानक । उदा० साँझ ही तौ सखिन समेटि करि बैठी कहा. २. ईख में दो गाँठों के बीच का स्थान ।
भेट करि पी सों परि पैठ सी भैजाइ लै । उदा० तजत न गाठि जे अनेक परबन भरे, आगे
-पदमाकर पीछे और और रस सरसात हैं। --सेनापति
ठाढ़ी गई ह तहाँ कर ठोढ़ी दै, पोढ़ि गई परबी-संज्ञा, पु० [सं० पर्व] १. वीणा के पर्दे
परि लाल गढ़ी सी।
-बेनी प्रवीन २. पर्व-त्योहार।
परिगह-वि० [सं० परिग्रह] कुटुम्बी, परिवार
-देव
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कारण पनि समाज पास भी किया क्या काम करना नाम का नाम गायन
- केशव
परिग्रह ( १४८ )
पलावक वाले।
वाहक, संदेश पहुँचाने वाला २. कबूतर नाम उदा० जन परिगह उमराउ सब बेटा भैया बंध ।। का एक पक्षी ।
-केशव उदा० पावन बसन्त मन भावन घने जतन पवन परिग्रह-संज्ञा, पु० [सं०] परिजन, निकट- परेवा मानो पाती लीने जातु है । वासी।
- मालम उदा० अघ निग्रह संग्रह धर्म कथान, परिग्रह साधुन २. सुखी परवा पुहुमि में एक तुही बिहंग । को गनु है।
- बिहारी परिपारि-संज्ञा, पु० [सं० परि+पालि] १. । परोढ़नि-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रौढ़ा] प्रौढ़ाएँ, किनारा, घेरा २. मर्यादा ।
। प्रौढ़ानायिकाएँ। उदा० किहिनर, किहिंसर राखियै खरै बढ़ परि- उदा० लाज सकाम सु मध्यम बाम, विष मति पारि ।
-बिहारी
सों, पति सों सतराती। नौल सनेह निहारि परिबीत-वि० [सं० परिवृत्त] वेष्ठित, आवृत्त, नवोढ़, बिहारि परोढ़नि लौं ललचाती । घिरा हुआ।
-- देव उदा० गुननि अतीत, परबीत बीत रागनि मैं, | परोना-क्रि० सं० [सं० प्रोत] मानना, स्वीकार बाहिर हु भीतर निबीत रूप रावरो। __ करना २. पिरोना, गूंथना।
-देव
उदा० पेम को परोय लीज बिरह न बोरि दीजै. परिलाल-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लालपरी] लाल
नेह को निहोर कीजै छीजै बिनु पाँवरी । परी, इन्द्र की एक अप्सरा ।
-आलम उदा० ठाढ़ी गई ह्र तहाँ कर ठोढ़ी दै, पौढ़ि गई [ परोरना-क्रि० स० [?] मंत्र पढ़ कर फंकना। परिलाल गढ़ी सी।
–बेनी प्रवीन | उदा० खेलायो हमैं कहि तोष तुम्है मनुहारि के परिषद -संज्ञा, स्त्री० [सं० परिषद्] समूह, | मंत्र परोरि परोरि ।
-तोष भीड़, राशि ।
पर्ब-संज्ञा, पु० [सं० पर्व] १. ग्रहण २. उदा० पैजनी जराऊ बजे गोरे गुलफनि कर कोरे त्योहार ३. पूरिंगमा ।
मणि कंकण कनक परिषद के । -देव उदा० १. रैन भए दिन तेज छिपै अरु सूर्य छिपै परुखाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० परुषता] परुषता,
अति-पर्ब के छाये।
-गंग कठोरता।
पर्वतप्रभा-संज्ञा, पु० [सं०] राक्षस, दैत्य उदा० मुख की रुखाई सनमुख सरुखाई परुखाई यों उदा० पन्नग प्रचण्डपति प्रभ्र की पनच पीन पर्वन पाई सुरुखाई सुरुखाई सी। -देव
तारि पर्वतप्रभा न मान पावई ।। परिहस-संज्ञा, पु० [देश॰] दुख, कष्ट ।
-केशव उदा० पीर पर बूझत न इहै परिहसु है।
पल-संज्ञा, पु० [सं०] १. आमिष, मांस २.
-पालम क्षण। परेखो-संज्ञा, पु० [सं० परीक्षा] १. फल २. उदा० पल सोनित पंचालिका मल-संकलित पश्चाताप ३.जाँच परीक्षा ४. विश्वास,
विशेष ।
-केशव प्रतीति ।
चरबी को चंदन पूहप पल ट्रकन के अच्छत उदा० १. कहिबे की कोउ किन देखौ न परेखौ. प्रखण्ड गोला गोलिनु की चालिका। वै तौ चाँदनी के चोर मोर पच्छ-अच्छ सब
-सूदन -घनानंद पलक-संज्ञा, पु० [सं० पर्यंक] पर्यक, पलंग। २. चूर भयौ चित पूरि परेखनि एहो कठोर उदा० अबहूँ हलक पर हिलकी हिलोरति, पलक अजी दुख पीसत ।।
-घनानंद
पर प्यारी की पलक पल लागी है। -देव परेग-संज्ञा, स्त्री० [अं० पेग] लोहे के छोटे पलक्का-क्रि० वि० [हिं० परलंका - पलंका] काँटे ।
बहुत दूर। उदा० कसके 'द्विजदेव जू ऐसी बढ़ी, उर अन्तर उदा० कहै पद्माकर सुपुट्ठन पनारी परी, कमर मानौं परेग परौ ।
-द्विजदेव के कोता पिट्ठ पिट्ठत पलक्का से। परेवा-संज्ञा, पु० [सं० पारावत] १. संदेश
-पद्माकर
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पलंकाचार ( १४६ )
पसे पलकाचार-संज्ञा, स्त्री० [सं० पर्यक+आचार] | उदा० पचरंग पाट बिचित्र पवित्रा पहिरें मोहन बरात की एक रीति जिसमें बरातियों के
मदन गुपाल ।
-घनानंद सुलाने की व्यवस्था की जाती है।
पशुपति-संज्ञा, पु० [सं०] १. शंकर २. अश्वउदा० सब बरात रघुदत्त ने बुलवाई तिहिबार शाला. गजशाला आदि के स्वामी।
सजि सजि क मंडफ गये करिबे पलका उदा० गणपति सुखदायक, पशुपति लायक, सूर चार ।
-बोधा सहायक कौंन गनै ।
-केशव पलपंगत-संज्ञा, पु० [सं० पल+पंक्ति] मांस | पषवारे-संज्ञा, पु० [सं० पक्ष+हिं० वाले का ढ़ेर, समूह।
(प्रत्य॰)] पक्षधर, पक्षी, चिड़िया। उदा० हरबरात हरषात प्रमथ परसत पलपंगत । उदा०-भज्जे घरवारे ज्यौ पषवारे ।
-पद्माकर बहु वारे भौ भारे ।।
-सूदन पलल-संज्ञा, पु० [?] कमल, सरोज ।
पषा-संज्ञा, पु० [सं० पञ्च] दाढ़ी, श्मश्रु । उदा० लसत इंदू तें अधिक मुख परम अमल वह उदा० रघुराज सुनत सखा सो पषा पोंछि पाणि,
बाल । लखो सुताल लहयो तरल लजित त्रिसरवा त्रिशूल लिये चख अरुणारे हैं। पलल छबि लाल । -काशिराज
-रघुराज पलास-संज्ञा, पु० [सं० पलाश] १. माँसाहारी पसगैयत-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] अनुपस्थिति में, २. ढाक, टेसू ।
पीठ पीछे । उदा० फूलेना पलास ये पलास कै बसन्त बाज उदा० श्री वृषभानु राय ब्रज मंडल और बसत काढ़ि के करेजा डार डारन पै डारिगो।।
सब रैयत । तुमहें सुनी होयगी लालन ये -. नंदराम बातें पसगैयत ॥
-बकसी हंसराज पलासी--संज्ञा, पु० [सं० पलाश] राक्षस, प्रेत, पसनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राशन ] प्रथम बार २. मांसाहारी।
बच्चों को अन्न खिलाये जाने वाला अन्न प्राशन उदा० खोपरा लों खोपरिन फोरै गलकत गद् नामक एक संस्कार । पोरी लों पलासी खाल खैचि-बैचि खात उदा० भै पसनी पुनि छठय मासा । बालक बढ़ यो ___ -मुरलीधर भानु सम भासा ।
-रघुराज पलीत-संज्ञा, पु० [फा० फलीद] १. भूत, प्रेत पसमीनन--संज्ञा, पु० [फा० पश्म ] बढ़िया
२. दुष्ट, नीच ३. गंदा, अपवित्र [वि.] मुलायम ऊन के द्वारा बने वस्त्र, दुशाले । उदा० चाम के दाम गुनीन के आम यों विस्वा उदा० फेर पसमीनन के चौहरे गलीचन पै सेज को प्रीति पलीत को मेवा । -बोधा
मखमली सोरि सोऊ सरदीसी जाय । पवर-वि० [सं० प्रवर] श्रेष्ट, उत्तम ।
--ग्वाल उदा० नख गाँसी, सर-आँगुरी, कर पग चारु । पसर-संज्ञा,पु० [सं० प्रसर] १. धावा, आक्र
तुनीर ।। मरण, प्रसार, फैलाब । दसौं दिसनि जिन बरजिते, पवर पंचसर बीर ॥ उदा० कैसे ग्वार बाल कैसो ठहरै पसर कीने
-मतिराम
सावधान भये चाव चलत न चोरी को। पवारी-संज्ञा, पु० [सं० प्रबाल] मूंगा। उदा० रंगपाल भूषण विभूषित अरुण जीते पदुम पसरना-क्रि० अ० [सं० प्रसरण ] घेरना,
पवारी बीरनारी के बरण हैं।-रंगपाल छेकना, बढ़ना ।। पवि-संज्ञा, पु० [प्रा० पब्बय, सं० पर्वत] १. उदा० मानन को कंज जानि दिन में भँवर घेरें पर्वत, पहाड़ २. वत्र ।
चंद जानि रैन मैं चकोर पसरत हैं। उदा० १. तहाँ जाइ सखियन के सँग पवि सोभा
-ग्वाल निरखन लागी । चन्द्रक चूर समान-बालुका पसे-संला, पु० [हिं० पसर ] पसर, प्राधी
भानु किरनि सौं जागी।" -सोमनाथ अंजली । पवित्रा - संज्ञा, स्त्री० [सं०] रेशमी दानों की उदा० कहि कबि गंग तीन लोक की तिहारी माला जो कुछ धार्मिक अवसरों पर पहनी जाती
संपै, इनके तौ तंदुलऊ तेऊ तीन पसे हैं।
--गंग
-ठाकुर
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पहाऊँ ( १५० )
पाइमाल पहाऊँ--संज्ञा, स्त्री० [देश॰] सुबह, प्रभात । पाँइचे संज्ञा, पु० [फा० पायचा] पायजामे की उदा० जा लगि लाँच लुगाइनि दै दिन नाच नचा- मोहरी । वत सांझ पहाऊँ ।
--केशव उदा० घेरदार पांइचे, इजार कीमखापी ताप, पहासरे-संज्ञा, पु० [हिं० पह, पौ] पौ, चांदनी
पैन्हि पीत कुरती रती को रूप लीपे हैं । उदा० चन्द के पहासरे में माँगन मैं ठाढ़ी मई,
-ग्वाल पाली तेरी-जोति किधी चाँदनी बिछाई है। पांउरी-संज्ञा, पु० [हिं० पाँव+री] १. जूता
-गंग २. बैठक, दालान (हिं० पौरि)। पहरावनि--संज्ञा, स्त्री० [हिं० पहनना] सिरो- उदा० सीरक अधिक चारि ओर अवनी रहै न पाव, खिलअत ।
पाँउरीन बिना क्यौंहूँ बनत घनीन कौं । उदा० के सब कंस दिवान पितान बराबर ही
--सेनापति । पहिरावनि पाई।
--केशव पांवड़ी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पाँव+री (प्रत्य॰) पहीति-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रहित ] पकी हुई । जुता, पदत्राण । दाल ।
उदा० लकुट रंगीन पीतपट धोती । पगन पांवड़ीउदा० १. मूंग माष अरहर की पहिती चनक
कानन मोती।
-बोधा कनक समदारी जी।
-रघुराज पांवर-वि० [सं० पामर] मूढ़, २ दुष्ट । २. षट भाति पहीति बनाय सची। पुनि उदा० अकुल कुलीन होंत पांवर प्रवीन होत, दीन पांच सो व्यंजन रीति रची। --केशव
होत चक्कवै, चलत छत्र छाया के। -देव पहु-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद, हिं० पौ] ज्योति, पांवरी--वि० [सं० पामर] तुच्छ, नगण्य, अधम प्रकाश । २. [पौ फटना-सुबह होना, प्रातः उदा० पाँवरी पेवरी ता छिन त दुतिकंचन की मन काल ।
रंच न लैहै।
--द्विजदेव उदा० १. आज सखी हम इम सुन्यो, पहुफाटत पाँह-अव्य० [सं० पाव], पाश्र्व बगल । पिय गौन ।
-समा विलास उदा० बाँह दै सीस, उँमाह दे नैनन, पाँह दै प्रोट, २. पहिलैं तो भयो पह को सो उदो कह
पनाह दै नाहै।
-द्विजदेव सुंदर मंदिर के चहुँ ओरनि। -सुंदर पाइ-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद] १. किरण २. पहुरनी--संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राहुण ] पाहुनी, पैर। अतिथि।
उदा० कब दिन दुलह के अरुन-बरन पाइ, पाइ हौं उदा० साँझ ही तें सोई कहा, काहू की पहुरनी
सुभग, जिन पाइ पीर जाति है। है, सोवनी जु कीनी करता सों कहा
-सेनापति करिये।
-पंग पाइते-संज्ञा, पु० [सं० पाद+हि. तम] पैर की पहुला--संज्ञा, पु० [सं० प्रफुला ] कुमुद पुष्प, __ ओर, गोड़िहाने, पइताने । कोंई।
उदा० जो पल मैंपल खोलि कै देखों तो पाइते बैठ्यो उदा० पहला हार हिये लसै सनकी बेंदी माल ।
पलोटत पाइन ।
-सुन्दर -बिहारी पाइपोस-संज्ञा, पु० [फा० पापोश] जूता, पदपहेल-संज्ञा, पु० [हिं० पहला] १. किसी काम घाण का प्रारम्म, शुरुवात । २. हटाने या दूर करने उदा० सेनापति निरधार, पाइपोस-बरदार, हौं की क्रिया [सं० प्रखेट] ।
तो राजा रामचन्द जू के दरबार को। उदा० ग्वाल कवि बाहन की पेल में, पहेल में, के
--सेनापति बातन उचेल में, के इलम सफेल में ।
पाइमाल-वि० [फा० पामाल, पा=पैर+
-ग्वाल माल-कुचलना] पददलित, पैरों से रौंदा हुप्रा । पहेलना-क्रि० स० [सं० प्रखेट] भगाना, हटाना [पामाली-संज्ञा] दूर करना।
उदा. भूषण जौ होइ पातसाही पाइमाल औ उदा० केसर सुरंगह के रंग में रंगौगी आजु और
उजीर बेहवाल जैसे बाज त्रास चरजें। गुरलोगन की लाज को पहेलिबो ।
-भूषण -किशोर । छाती छाज नखलीक प्रकट कपोल पीक,
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पाखक
पारा पातिसाही पाइमाली पाली क्यों झुकति है ।। पै चली साँवरी हके। -पद्माकर
-गंग
२. पामरिनु पाँउरे परे हैं पुर पौरि लगि। पाखक-संज्ञा, पु० [सं० पक्ष+एक] एक पक्ष, ।
-देव पन्द्रह दिन ।
३. पाट, पायरी, जीभ, पद, प्रेम, सुपुन्य उदा० पाखक ते पोखति हौं पांखुरी सी राखी है
बिचार ।
--केशव मै, प्यारे फिरि लागे पल राख पानि देखि पायज-संज्ञा, पु० [?] मूत्र, पेशाब । हो।
-प्रालम उदा० कर्म अकर्मनि लीन नहीं निज पायज ज्यों पाच--संज्ञा, पु० [सं०] जलना, संतप्त होना ।
जल अंक लगावै।
केशव उदा० पाचि फट उचट बहधा मनि रानि र पायस-संज्ञा, पू० [सं०] खीर ।
पानी पानी दुखी ह्र ।। -केशव उदा० १. सुनि मुनि नारि, उठि धाई मनहारिपाछी-संज्ञा, पु० [सं० पक्षी] पक्षी, चिड़िया।
करि, सिता दधि पायस परसि ल्याई थार उदा०- रसना तू अनुरागनि पाछी।
में ।
-देव गोविंद-गुन गन गरिमा साछी। --घनानंद पायसे-संज्ञा. पु० [सं०पाव पडोस । पाज-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाजस्य] बाँध, सीमा, उदा० आई श्रान गाँव तें नवेली पास पायसे । मर्यादा, २. पाँजर।
--घनानन्द उदा० आनंदघन सों उघरि घुरौंगी उसरि पैज द्योरानी जेठानी सासु ननद सहेली दासी की पाजै ।
-घनानंद
पायसे की बासी तिय तिनके हो गोल में। लाज-पाज सब तोरि कै, अब खेलौंगी फाग
-रघुनाथ -ब्रजनिधि
प्रापु बाको देखिबे को पतिवाके पाइसे में पाढ़ा - संज्ञा, पु० [३०] एक प्रकार का हिरण,
बासर में बीस बार ह्वह्र ये पावत है । चित्रमृग ।
- रघुनाथ उदा० पाढ़े पीलखाने मौ करंज खाने कीस हैं। पारना-क्र० स० [पड़ना] १. डालना, फेंकना,
-भूषण २. सेलाना लिटाना, 2. बिताना । पानस-संज्ञा, पू० [फा० फीनस] एक प्रकार ! उदा० १. काहू की बेटी बहून की धैरू किते घर का कंडील जिसमें बत्तियाँ जलाई जाती हैं।
जाय कमंध से पाएँ ।
-ठाकुर उदा० घेरो घट आय, अन्तराय-पटनि-पट पै.
२. इत पारिगो को मैया मेरी सेज पै तामधि उजारे प्यारे पानस के दीप है।
कन्हैया को।
-पद्माकर -घनानन्द
संसारिक जोहोत प्रकट पति सात भाँवरें पानिप-संज्ञा, पु० [हिं० पानी+प] १.सरोवर,
पारे ।
-बकसीहंसराज तड़ाग २. पाब, चमक कांति ।।
३. औधि-पास प्रोसनि सहारे हाय कसैं उदा०१.पिय आगम सरदागमन, बिमल बाल मुख
करि जिनको दुसह दीसै पारिबो पलन इंदु । अंग अमल पानिप भयो, फूले दृग
को।
-घनानन्द अरबिंदु।
-मतिराम | पारस-अन्य [सं० पाव] १. निकट, समीप, पानु-संज्ञा, पु० [हिं० पाँव] पैर, चरण।
पास २. एक पत्थर जिसके स्पर्श से लोहाउदा० विधि-विधि कैनि करै टरै नहीं परेहूपानु । कंचन रूप में परिणत हो जाता है।
-बिहारी
उदा० रंध्रनि ह निरखें सजनी भनि आलम यों पाप-संज्ञा, पु० [सं०] कष्ट, दुःख ।
उपमा मन पाई। रैनि-बरै सरि पारस यों उदा० बसिबे को ग्रीषम दिनन परयो परोसिन
झलकै जल मैं जनु पावक झाँई । -बिहारी
-आलम लूटिबे के नाते पाप पट्टनै तो लूटियत । पारा-संज्ञा, पु० [सं० पारि=प्याला] दीये के
-केशव प्राकार का एक बड़ा मिट्टी का पात्र पामरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रावार] १. दुपट्टा परई। २. रेशमी वस्त्र ३. मखमल ।
उदा० मृगमद-बिंद के लसत प्रतिबिंब किधों उदा० १. साँवरी पामरी को दै खुदी बलि साँवरे । दीपक-दुगनि पर काजर के पारे हैं। -केशव
पाप।
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पारि ( १५२ )
पिसकब्ज पारि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पार] सीमा, जलाशय | पिक--संज्ञा, पु० [सं० पिकाङ्ग, ] पपीहा, का किनारा २. अोर, तरफ ।
चातक । उदा० केहि नर केहि सर राखिये खरे बढ़े पर | उदा० कोकिल, चाख, चकोर, पिक, पारावत पारि।
-बिहारी
नख नैन । चंचु चरण कलहंस के पकी बारनि सुखावति उघारे सीस गावति भुला
कुंदरू ऐन ।
-केशव वति सी लोगन फिरत चहुँ पारि मैं । -देव । पिक्कना-क्रि० स० [सं० प्रेक्षण] देखना । पाल-संज्ञा, पु० [सं० पाट] पर्दा, ओहारी । | उदा० पिक्कत इक्कन इक्क ठिब्व तजि लिक्कन उदा० 'दास' मनमथ-साहि कंचन सुराही मुख
तक्कत ।
-पद्माकर बंसजुत पालकी कि पाल सुभ रंग है। पिच-संज्ञा, पु. सं० पिच्य] दबाव, किसी वस्तु
-दोस ___ को दबाना । पालक-संज्ञा, पु० [सं०] १. पाला हा लड़का, | उदा० खिचली भुजा सों लाल पिचली हिये दत्तक पुत्र २. पलंग ३. पालन करने वाला
सों लाय निचली रहे न डोले विचली पलंग ४. अश्व रक्षक ५. पलना, छोटे बच्चों का
पर ।
-वाल झूला।
पिछौड़ी-वि० [हिं० पीछे+ औंड़ी (प्रत्य॰)] उदा० १. त्यों कबि ग्वाल बिरंचि बिचारि के
जोरी जोराइ दई अति खासी । जैसोइ | उदा० कान्ह सों पिछौड़ी है कि कान्ह की कनौड़ी नन्द को पालक कान्ह सो तैसई कूबरी कंस है कि, मौड़ी है जु उरपी के छल अति की दासी।
-वाल छाई है।
-आलम ५. पालक के बालक की पांडे गति पाई पिद्दी-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] बया पक्षी की जाति जिहि गोरस के भांडे भटकाइ मुख छांड़े
की एक चिड़िया ।
-देव उदा० चकई हरील पिद्दी अपार । पाली-संज्ञा, पु. [सं० पालि=पंक्ति] समुह, खुमरी सु परेवा बहु प्रकार । पंक्ति ।
-सूदन उदा० भोरन के सोर पछिपाली और आये, धाये पिधान-संज्ञा. पु० [सं०] तकिया, गिलाफ या लावक चकोर, दौरी हंसन की दारिका । प्रावरण, पर्दा ।
-देव उदा० संपति-निधान, रति पति के विधान, देव पाहर-संज्ञा, पु० [हिं० पत्थर] पत्थर, पाषाण लाज के पिधान, परिधान में छिपि रहे। कंकड़ ।
-देव उदा० इंदुमुखी अरबिन्द से पाइन, कंटक पाहर | पिराका- संज्ञा, स्त्री० [सं० पिष्टक] कली, माह परानी।
-गंग
गोफिया । पासनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राशन] अन्न प्राशन, उदा, चंपे की पिराका है कि सोने की सिराका बच्चों को पहले-पहले अनाज चटाने की एक
-नरोत्तमदास रीति ।
पिरारे-वि० [हिं० पीड़ा+वारे-वाले] कष्ट उदा० गाये ते मँगाये गाये गाये दानियौ जगाये । दायक, पीड़ा देने वाले ।
पौरि पूरन पला की है लला की आजु उदा० रूप रस रास पास पथिक पिरारे ऐन नैन पासनी।
- देव
ये तिहारे ठग ठाकुर मदन के। पिंगला - संज्ञा, पु०[सं०] एक प्रकार का उल्लू,
-रघुनाथ उलूक ।
पिलना-क्रि० अ० [हिं० पेलना] घुसना, प्रवेश उदा० पारावत, पिंगला, पपीहा, पिक, कूकि करना, मिलना। होत, केकी अौ कपोत, कुंज पुंजनि घिरत उदा० ज्यों की त्यों तुरत उठि धाई वा सरति
-देव
हीसौं मुरति न पास प्रेम पास में पिलि पिंड-संज्ञा, पु० [सं०] व्यक्ति, प्राणी ।
गई।
-देव उदा० हटपटाय के लगत हे पोछे पिंडैभूत । पिसकब्ज-संज्ञा, स्त्री० [फा० पेशकब्ज ]
-बोधा | कटारी, भुजाली।
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पिसवाज ( १५३ )
पुरवार उदा० गहि गहि पिसकब्जे मरमनि गब्ज तकि
आगे गोला छूटि लाग्यौं तातें पुछपौरि तकि नब्ज काटत हैं।
-पद्माकर
फूटि है। पिसवाज-संज्ञा, पु० [फा० पिशवाज] नृत्य में पुटकाकरना-क्रि० स० [हिं० पटपटाना] भाड़ में पहना जाने वाला लहँगा ।
दाना भूजना, दाने का भाड़ में फूट जाना । उदा० प्यार सो पहिर पिसवाज पौन पुरवाई उदा० भरभूजिन कन भूजहि बैठि दुकान, पुटका ओढ़नी सुरंग सुर चाप चमकाई है।
करति विहँसि कै बिरही प्रान । -ग्वाल
-समा विलास से पिसानी-संज्ञा, पु० [फा० पेशानी] माथा, पुठेठो-वि० [सं० पुष्ट] पोषित, पुष्ट, पोषण मस्तक।
किया गया। उदा० भूषन कहत सब हिन्दुन को भाग फिरै, उदा० चहुँ ओर ज्वालनि के प्रगटे समूह, जामैं चढ़े ते कुमति चकताहू की पिसानी मैं ।
लुवै छुवै जरै यह अगिनि पुठेठो है। -भूषण
-सूरति मिश्र पिसेमान-वि० [फा० पशेमान] लज्जित, पुनेठा---वि० [बुं०] प्रवीण, चतुर । शरमाए हुए ।
उदा० मोहिं कछू लागत यह लरिका बातन उदा० घिn आसमान, पिसे जात पिसेमान
अधिक पुनेठो।
-बकसी हंसराज सुर, लीजै नैंक दया, मने कीजै बानरन कौं। पुनिंदु-संज्ञा, पु० [सं० पूर्ण + इंदु] पूर्णिमा
-सेनापति का चन्द्र । पीकी--संज्ञा, स्त्री० [हिं० पीका] वृक्ष में उदा० कातिक पून्यो कि रात ससी दिसि पूरब निकले हुए नव पल्लव, कोमल ।
अंबर मैं जिय जान्यो । चित्त भ्रम्यौ पुमउदा० कोमल पंकज के पद-पंकज प्रान पियारे निन्दु मनिन्दु फनिन्दु उठ्यो भ्रम ही सों कि मूरति पीकी ।
-केशव भुलान्यो ।
-देव पीख-प्रव्य [सं. पीठ =स्थान] युक्त, सहित । पुरकना-क्रि० अ० [सं० पुलक] पुलकना, उदा० चढ़ी बेगमैं साह सुल्तान साथै, सबै बैस प्रसन्न होना । थोरी बड़े रूप पीखे ।
-चन्द्रशेखर उदा० मरकत रंजन मरक मेरे दृग-मृग, पुरकत पीठी-संज्ञा, स्त्री० [सं० पिष्टक] भिगोई हुई
खंजन गरब गंदि गदि कै। पीसी दाल ।
पुरट-संज्ञा, पु० [सं०] स्वर्ण, सोना। उदा० कांच से कचरि जात सेष के असेष फन उदा, ता घरी ते का भयो बिसूरति है तेरी यह कमठ की पीठी पै पीठी सी बाटियतु है।
मूरति निहारि भई मूरति पुरट की। -भूषण
-नंदराम पोतमुख-संज्ञा, पु० [सं०] पीले मुख वाला, पुरना-क्रि० अ० [ हिं० पूरना ] मिल जाना, मौंरा।
एक हो जाना, पूरा होना । उदा० प्रगट भयो लखि बिषमय, विष्नु धाम उदा० मुरकी रुकी बंक बिलोकत लाल गुलाल सानन्दि । सहसपान निद्रा तज्यो खुलो
में बेंदा सबै पुरिगो ।
-पजनेस -दास पुरनारि संज्ञा, स्त्री० [सं०] वैश्या, बारपोम-वि० [सं० प्रिय] प्रिय, प्यारा ।।
बनिता । उदा० करि हारा भोगहि कर्ना पोमहि मागो संभू उदा० पीतमु चले विदेस कौं यों बोली पुरनारि । को अंसी।
-दास
जपिहौं तुहि तेरे विरह माला देहु उतारि । पीरना-क्रि० स० [हिं० पीड़ा] पीड़ित करना,
-सुंदर कष्ट देना।
पुरन्दरी संज्ञा, स्त्री० [सं० पुरन्दर-इन्द्र ] उदा० लांबी गुदी लमकाइ के, काइ लियो हरि इन्द्राणी, इन्द्र की पत्नी, शची। लीलि, गरो गहि पीरयो।
-देव उदा. कंचन लै बिमल बिरंचि ने बनाई किधौं पुछपौरि-संज्ञा, पु० [हिं० पीछे-+-पौरि] पीछे
रुचिर अनूप देखि लाजत पुरन्दरी । का दरवाजा, पिछला फाटक ।
-रघुनाथ उदा० दौरि दिन लाग्यो नारि मेरु भरि सूर पुरवार-संज्ञा, पु० [सं० पुर-पाल ] नगर
२०
-देव
उदा सानन्दि 'बंदि 14] प्रिय
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पेल
-देव
चंद घर।
पुरिया
( १५४ ) रक्षक, राजा ।
अपरस पूति सों न छाँडै अजौ छूति कौं। उदा० काम चोर ईठ हाथ मूठी के न ढीठ, देव
-घनानन्द ठाढ़े एक ठौर ए कठोर पुरवार से । -देव
पूर-संज्ञा, पु० [देश॰] बाढ़ २. प्रवाह । पुरिया-वि० [सं० परिपूर्ण ] परिपूरित, सनी
उदा० १. देव घनस्याम-रस बरस्यौ अखंडधार,
पूरन अपार प्रेम पूर नहिं सहि पर्यो उदा० सीरी लगै मुकतावलि तेऊ कपूर की धूरिन सों पुरिया है।
२. प्रांसुन के जल पूर में पैरति सांसन सों
-दास पुलिन - संज्ञा, पु० [सं०] १. बालू, रेती २.
सनि लाज लुरी है।
-देव नदी का किनारा ।
पर अँसुवान को रहयो जो पुरि प्रांखिन उदा० १. पुलिन कलिन्दी कूल की, तहँ बैठी ब्रज बाल । भई ध्यान में मगन सब,
मैं, चाहत बह यो पै बढ़ि बाहिरै बहै नहीं। आगम चहत गुपाल। -सोमनाथ
-पद्माकर
गोरे गरे मुकतालर, पूर ज्यों सारद ऊपर पुलोमजा - संज्ञा, स्त्री० [सं०] शची, इन्द्राणी ।
देवधुनी को।
-----देव उदा० पावस प्रदोष मेघ मिल्यो ज्यों सरद ससि,
नैनहि ह्व जल पूर बढ़यौ मृगलोचनी श्री ब्रज पुलोमजा न पाजु अरसाने की ।
दुक्ख समुद्र समानी ।
-चिन्तामणि -देव
पूष-संज्ञा, पु० [सं० पुष्प] १. सार, तत्व २. पुष - वि० [सं. पुष्ट] पुष्ट, दृढ़, बली।
पुष्टि, पोषण । उदा० पुष सेष-सायक ललाट लग्यो छत परयौ.
उदा० १. कंधों रसखानि रस कोस दग प्यास छिति मुरछित दरसाइ दन्त पीसनै ।
जानि, पानि के पियूष पूष कीनो विधि - समाधान
-रसखानि पुष्कर-संज्ञा, पु० [सं०] १. दिग्गज, हाथी २.
पंचा-संज्ञा, पु० [फा० पेंच] सिरपंच, पगड़ी कमल ३. जलाशय ।
पर लगाये जाने वाला एक आभूषण । उदा० कदन अनेकन बिघन को. एकरदन गन
उदा० केस कसि पगरी मैं बबरी बनाय बाल, राउ । बंदन जुत बंदन करौं, पुष्कर पुष्कर
मुगल बचे लौं एक पेंचा सजे जात है। पुष्कर पाउ । -दास
-बेनी प्रवीन पुहना - क्रि० स० [सं० प्रोत] १. गूंथना, पिरोना पेंधना-क्रि० स० [हिं० पहनना ] पहनना, २. छेदना ।
धारण करना । उदा. वेदनहू गने गुनगने अनग़ने भेद भेद बिनु
उदा. मोहन लाल के मोहन को यह, पेंधति जाको गुन निरगुनह पुहै।
- देव मोहन माल अकेली।
- देव पुही-वि० [हि० पोहना] गुंथी हुई, संग्रथित, पे-संज्ञा, [हिं० पै०] दोष, ऐब, अवगुण । जड़ी हुई, पिरोई हई, संयुक्त।
उदा० दाम परै गोहर को पे व गुन खुलें जैसें उदा० घहराती कछूक घटा घन की, थहराती तैसें काम पर नर जौहर खुलत है। पुहूपन बेलि पुही ।। –बेनीप्रवीन
-वाल पूखो - वि० [सं० पोषित] पोषित, पाला गया। पेचक- संज्ञा, पु० [सं०] १. बादल २. उल्लू उदा० तेरो तनु धनिक बनिक रूप रासि पुखो, पक्षी। मेरो मन भूखो दूखो बाँभन सो मचलै। उदा० पेचक मो दिस दिस पेचक मुदित मन
-बेनी प्रवीन
मेचक मेचक भरपूर निसि परी सी। पूठि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पीठ] पृष्ठ, पीठ ।
-गंग उदा० ऊँचे पाँजर जठर उदार । मोटी बर्तुल | पेल-संज्ञा, स्त्री॰ [हिं० पेलना] १. भीड़-भाड़ पूठि अपार ।
--केशव | २. अधिकता भरमार । पूति-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. दुर्गध, बदबू २. उदा० १. ग्वाल कवि बाहन की पेल में, पहेल "पवित्रता, शुद्धता ।
में, कै बातन उचेल में, के इलम सफेल उदा० १. जनम जनम तें अपावन असाधु महा,
-ग्वाल
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पेलना ( १५५ )
पोटना २. लोचन बदाम हैं सुदाम जाके हरित | वारी] व्रतधारिणी, प्रतिज्ञा करने वाली।
रतन बंदी पिसता की पेल हे । -ग्वाल उदा० जरो उह अखि जिन देख्यो भावै और पेलना-क्रि० स० [सं० पीड़न] १. दबाना,
पुनि कीजै क्यों नजीकी जिय जग पैंजिवारी जबरदस्ती करना २. आगे बढ़ाना ।
-सुन्दर उदा० तो मिलिबे के विचारनि मैं अरु, मैं मन पैंडा--संज्ञा, पु० [हिं० पैंड] रास्ता, मार्ग । मुहा० ___ बार हजारन पेल्यौ।
-सोमनाथ 4ड़े परना=पीछे पड़ना, बार-बार परेशान पेलनि-संज्ञा, पु० [हिं० पेलना] झगड़ा, झमेला करना। २. कसूर, दोष ।
उदा० पेड़े परे पापी ये कलापी। -घनानन्द उदा० जिय गल डारि जेलनि। अजहुँ समुझि पंधना-क्रि० स० [हिं० पहननाा पहनना। तजि पेलनि ।
-दास । उदा० पँधे मैल बसन असन बिन रही मानौ पेवरी-संज्ञा, पु० [हिं० पेवड़ी, पिवरैया पीला भूषन विरल तिय कीन्हैं चित चैन को । रंग, एक प्रकार का रंग जो गोमूत्र से निर्मित
-बेनो प्रवीन होता है ।
पैरकारी-संज्ञा, स्त्री० [?] सीढ़ी, सोपान । उदा० पाँवरी पेवरी ता छिन तें, दुति कंचन की उदा० सौतिसुख उतरै को पियप्रेम चढ़िबे को, मन रंच न लैहै।
-द्विजदेव
कुंदन की प्यारी पैरकारी सी सँवारी है । पेसकस-संज्ञा, स्त्री० [फा० पेशकश] १. पुर
-'हजारा' से स्कार, भेट, नजर २, जुरमाना ।
पैरिनगत - वि० [देश॰] प्राचीन, पीढ़ियों का । उदा० १. पेसकसे भेजत इरान फिरंगान पति उदा० कहा नाउँ केहि गाँउँ बसत ही कौन ठांउ उनहू के उर याकी धाक धरकतु है।
घर तेरो।
---भूषण कही तुम्हारो कौन कहावत पैरिनगत को २. ठद्र मरहवा के निघट्रि डारे बाननि सौं.
खेरो।
-बकसीहंसराज पेसकसि लेत हैं प्रचंड तिलगाने की। पैसना - क्रि० प्र० [सं० प्रवेश] प्रवेश करना,
-सोमनाथ घुसना । पै-संज्ञा, पु० [फा०] १. पट्टे के रेशे जो
उदा० और कह्यौ चाह्यौ त्यौं न कछु कहौ। धनुष आदि पर चपकाये जाते हैं २. करण रघुनाथ इतनी कहति याते जिय में जो पैसे हो । कारक का चिन्ह, से, द्वारा।
-रघुनाथ उदा० १.१ बिन पनिच बिन कर की कसीस बिन चलत इसारे यह जनको प्रमान है।
पोइस-संज्ञा, स्त्री० [फा० पोयः] दौड़, सरपट -दास
दौड़ ५. हटो, बचो [अव्य.]। २. रघुबीर को बिरह बीर मोपै न कह्यौ
उदा० जाचक लाभ लह्यो यहै क्रूर कटक में परै।
-केशव
जाइ । पोइस धक्का धूलि तें पायो प्रान बैठी सजि संदरि सहेलिनि समाज बीच
बचाइ।
-पद्माकर बदन पै चारुता चिराक की बित रही।
पोच-वि० [फा० पूच] १. अशक्त, क्षीण, हीन -प्रताप साहि ।
२. निकृष्ट, क्षुद्र, तुच्छ । पैक-संज्ञा, पु० [फा० पैकानी] पद्मराग, लाल।। उ
उदा० १. बढ़ि के सकोच त्योंही मदनै दबाये देत उदा० लाल में, गुलाल में, गहर गुललालन में,
परत मदन के सहाय सब पोच हैं। लालो गुन पैक सो न तूल है सुछंद के।
-बेनी प्रवीन -ग्वाल | पोटना-क्रि अ० [हिं० पुटियाना] फुसलाना, पंच-संज्ञा, पु० [हिं० पेच] १. पगड़ी की लपेट । बहकाना, बातों में फंसाना २. समेटना, बटोरना
२. घुमाव ३. चालाकी ४. पगड़ी का भूषण, [क्रि. स०]। सिरपंच ।
उदा० ललिता के लोचन मिचाइ चन्द्र उदा० १. आनँद लाज लपेटी तहाँ लखि पैच में
भागा सों । जावक-दाग छिपावै । --कुमारमणि
दुराइबे कों ल्याई वै तहाँई दास पोटि 4जिवारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा+हिं० पोटि।
-दास
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१५६
(ख) पोटि भटू तट प्रोट बटो केलपेटि पटी सों कटी पटु छोरत । — देव पोत - संज्ञा, पु० [सं० प्रवृत्ति ] ढंग, ढब, रीति २. दाँव, बारी ।
उदा० १. नीचे हिये हुलसो पोल ।
रहै गहें गेंद को - बिहारी सौं चलत, पावत न पोत -सेनापति माला या
तीर
२. धनुष क पाइ खग मानौ ह्र रही रजनि दिन है | पोति—संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रोता ] गुरिया का छोटा दाना २. कांच की गुरिया । उदा० गात में गुझौर परि अँगिया उमंग उरताय तनि पोही पीत पोति है तिफेरी की । —देव पोया-संज्ञा, पु० [सं० पोत] १. नया पौधा २. सांप का बच्चा ३ बच्चा, लड़का | उदा० १. देव दुकूल नये पहिरे, हिय प्रिय प्रेम के पोया ।
फूलि उठे
- देव पर
पौनछक संज्ञा, पु० [बुं०] बरात लगने सबसे प्रथम जलपान के लिए दी जाने वाली वस्तु ।
उदा० आदर अरु सनमान प्रीति सों प्रेम पौनछक श्रानी । —बकसी हंसराज पौनी-संज्ञा० स्त्री० [देश०] पुत्र जन्म और विवाह आदि में पुरस्कार लेने वाली धोबी; नाई आदि की स्त्रियाँ ।
उदा० रति लागे बौनी जाकी रंभा रुचि पौनी, लोचननि ललचौनी मुख जोति अवदात की । —देव प्रच्छ - वि० [सं० ] विवाद करने वाला, विवादी । उदा० कल्प कलहंस को, कि छोर निधि छबि प्रच्छ, हिम गिरि-प्रभा प्रभु प्रगट पुनीत है । - केशव
प्रतिभट - संज्ञा, पु० [सं०] शत्रु, दुश्मन । उदा० प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि कालिका सी किलकि कलेऊ देत काल को ।
फ
फँदवार - संज्ञा, पु० [हिं० फंदा + वार = वाला ] फंदा लगाने वाला. बहेलिया ।
प्यौसाल
- भूषरण दीन को दयाल प्रतिभटन को शाल करे । - केशव
प्रबाल -- संज्ञा, पु० [सं० प्रबाल ] १. नवीन पत्ते, कोंपल २. मूंगा ।
उदा० तरुन तमाल तरु, मंजुल प्रबाल मीजि मंजरी रसाल बाल मंजी साल मंजी सी । -देव प्रलोक - संज्ञा, पु० [सं० पर् + लोक] दूसरा लोक, स्वर्गं ।
उदा० लोक की लाज को सोच प्रलोक को वारिये प्रीति के ऊपर दोई । —बोधा प्रवीन - वि० [सं० प्रवीण] १. चतुरा २. श्रेष्ठ वीणा । उदा० शिवसिंह सोहं सर्वदा, शिवा कि राय प्रवीन । —केशव प्रान-संज्ञा, पु० [सं० प्रारण] वायु, हवा 1 उदा० गुपित गुफान जोगी, भोगी लौ भखत प्रान, फँसे नहि फंद, जम फासी सी फनिंदी के । - देव घृष्ठता,
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प्रौढ़ि - संज्ञा, स्त्री० [सं०] ढिठाई निर्लज्जता ।
उदा० और गूढ़ कहा कहीं जाहु, प्रौढ़ि रूढ़ जाने हौ । प्रेयस्वत्-- संज्ञा, पु० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक भाव किसी दूसरे भाव या स्थायी भाव का अंग होता ।
मूढ़ हो जू, जानि केसीदास नीके करि - केशव
उदा० जहाँ भाव में होय अंग और को और तहँ प्रेयस्वत कहि सोय गुनीभूत की व्यंग्य जह 'व्यंग्यार्थं कौमुदी' प्यौसाल - संज्ञा, पु० [सं० पितृ शाल ] मायका, पीहर, नहर |
उदा० पिय बिछुरन को दुसह दुख हरष जात प्यौसाल । - बिहारी
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उदा० देवजू दौरि मिले ढिग ज्यों मृग जे न दे फँदवार के फंदनि । - देव
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फदैती
फरमार फैदेती-संज्ञा, पू० [हि० फंदा = जाल+ऐती
फर फरं के फतहन फबै रहैं ।। (प्रस०)] फंदा डालने वाला, जाल में फंसाने बाला,
-- पद्माकर ब्याध, शिकारी।
फते-संज्ञा, पू० [फा० फतहबाज] १. फतह उदा० मनमोहन ऐसो मिलावत हैं जो फंदे तो बाज, एक प्रकार का बड़ा बाज २. विजय कुरंग फंदैती करें।
-बोधा [फा० फतह] । फटक-संज्ञा, पु. [सं० स्फटिक] १. स्फटिक, उदा० २. बाहुबली जयसाहिजू फते तिहारै हाथ बिलौर २. तत्क्षण, झट (क्रि. वि.)।
-बिहारी उदा० १.रेनि पाई चादनी फटक सी चटक रूख फनाह-संज्ञा, पु० [फा० फना] नाश, मरण । सुख पाये पीतम प्रबेनी बेनी धनि है।
उबा भयो थो दिली को पति देखत फनाह प्राज
-बेनी प्रवीन __दाह मिटि गयो थो हमीर नरनाह को।। फटकना-क्रि० अ० [अनु॰] उड़ना, उड्डयन
-चन्द्रशेखर क्रिया।
फफकि-क्रि० वि० [अनु॰] फर्राटे से, वेग से, उदा० भटकि मटकि उठै मोहन में मनाली, तेजी। निहच मिलेंगे काक फटकि फटकि उठे। उदा. तुरत तुरंग करि तातो ताहि ताजन दै,
-काशिराज
फफकि फंदाय दियो बाहिर कनात के। फटकार-संज्ञा, पु० [हि० फटकन] अन्न की
-चन्द्रशेखर भूसी, अनाज का छिलका ।
फर-संज्ञा, पु० [हि० फड़] युद्ध, लड़ाई २. उदा . भाल में लिखत भुलाने मेरी बेर कहूँ । जुए का दांव ३. बिछौना, बिछावन ।। माखन के बीच फटकार चहियतु है।
उदा० १. करत हींसत फबत फुकरत, -बोधा
फरमंडल मॅझार दल दीरघ दलत हैं । फटकारना-क्रि० स० [अनु॰] शस्त्र आदि
चन्द्रशेखर . मारना, चलाना ।
साजि चतुरंग चमू जंग जीतिबे के लिए, उदा. एक एक क्षत्री रण धीरा । योजन भर हिम्मत बहादुर चढ़ो जो फर फेल पै।। फटकारत तीरा। -बोधा
-पद्माकर फटकि --संज्ञा, पु० [सं० स्फटिक] स्फटिक,
३. सूल से फूलन के फर पै तिय फूलछरी बिल्लौर पत्थर ।
सी परी मुरझानी।
-पद्माकर उदा० चूना की चटक चंद्रभानु के चरन लागे, फरकाना-क्रि स० [हि० फरकना] फड़फड़ाना,
चहूचोर चमकत चौहटे चटक के । राज __ बार-बार हिलाना । बाट पाटित सुपट पाट हाट हाट हाटक उदा० आगम भो तरुनापन को बिसराम भई जटित लागे फाटक फटिक के। -देव
कछु चंचल आखै । खंजन के युग सावक फटा-संज्ञा, पु० [सं० फरण] साँप का फण ।।
ज्यों उड़ि पावत ना फरकावत पाखें । उदा० चंद की छटान जुत पन्नग फटान जुत मुकुट
-बिसराम . बिराजै जटाजूटन के जूरे को ।।
फरजी-संज्ञा, पु० [फा, फर्जी] शतरंज का
-पद्माकर खेल, शतरंज का एक मोहरा जिसे वजीर कहा फटिका-संज्ञा, पु० [देश॰] गुलेल की डोरी के जाता है। बीचो बीच रस्सी से बुन्कर बनाया हुआ वह उदा० पहले हम जाइ दियो कर मैं तिय खेलति चौकोर हिस्सा जिसमें मिट्टी की गोली रख कर
ती घर में फरजी।
-तोष चलाई जाती है।
फरद-वि० [अ० फर्द] १. बेजोड़, अनुपम उदा० लहुरी लहरि दूजी तांति सी लसति, जाके २. रजाई का ऊपरी पल्ला । बीच परे मौरे फटिका से सुधरत हैं।
उदा० १. मोरन के सोरन की नैकों न मरोर रही -सेनापति
घोरहू रही न, घन घने या फरद की। फतूह-संज्ञा, स्त्री [अ० फतेह का बहुवचन] |
वाल विजय, फतेह ।
फरमार-वि० [फा० फर्माबरदार] आज्ञाकारी, उदा० तेते तुंग तीतुर तयार नृप कूरम के लै लै । आज्ञापालक, ताबेदार।
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फरस ( १५८ )
फाब उदा० धोर धुनि बौलैं, डोलैं दिगति-दिगंतान लौं,
- बिहारी प्रोज-भरे अमित मनोज फरमार ए। फलंका-संज्ञा, पु० [फा० फलक] आकाश, नम ।
-द्विजदेव उदा. कहै पद्माकर त्यों करत फंकरत, फैलत फरस-संज्ञा, पु० [अ फर्श] बिछौना, बैठने
फलात फाल बांधत फलंका में । के लिए बिछाने का वस्त्र ।
-पद्माकर उदा० फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । फलंगना -क्रि० प्र० [हिं० फलाँगना] कूदना,
- पद्माकर फाँदना, एक जगह से उछल कर दूसरी जगह फरस गलीचन के बीच मसनंद ताप
जाना। मखमली गोल गोल गुलगुली गाला में । उदा० पैठि परयो पल मॅाहि फलंगि गो, कौन
-ग्बाल
कहो पकरै परछाहीं। - बेनी प्रवीन फरसबंद-संज्ञा, पु० [प्र. फर्श+फा० बंद] फलक-संज्ञा, पु० [सं०] पट्टी, पटल, स्थान बिछौना बैठने के लिए बिछानेका वस्त्र ।
आकाश [प्र. फलक] । उदा० (क) दूध कैसो फेन फैल्यौ आँगन परसबंद। उदा० मन मिलें मिले नैन केसोदास सविलास,
-देव - छवि-पास भूलि रहे कपोल-फलक में। (ख) कहै पदमाकर फरागत फरसबंद,
-केशब फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । फलकना-क्रि० प्र० [हिं० फड़कना] फड़कना,
-पद्माकर उमड़ना २ विकासोन्मुख होना । फरस्सों--संज्ञा, पु० [हि० फर] प्रतिद्वंदिता, उदा० १. नैन छलकौंहै बर बैन बलकोंहै औ मुकाबला, सामना ।
कपोल फलकों है झलकौ हैं मए अंग है। उदा, फरस्सों फिर फूल फंदै फरक्क । लगे
-दास हाथ ही के इसारें मुरक्क। -पद्माकर फलके-संज्ञा, पु० [सं० स्फोटक हिं० झलका] फरागत-वि० [फा० फराख] विस्तृत, लम्बा फफोला, झलका, छाला । चौड़ा ।
उदा० पाइन में फलके परि परि झलके दौरत उदा० कहै पद्माकर फरागत फरसबंद, फहर
थल के बिथित भई ।
-पद्माकर फुहारन की फरस फबी है फाब ।
फलातना-क्रि० प्रा० [हिं० फलाँग+न (प्रत्य॰)]
-पद्माकर कूदना, फांदना, उछलना । फरास-संज्ञा, पु० [अ० फर्राश] दीपक आदि उदा० कहै पद्माकर त्यों करत फंकरत, जलाने वाला नौकर, सेवक, खिदमतगार ।
फैलत फलात फाल बांधत फलंका से । उदा० व्याज करि चांदनी को मैन मजलिस काज
-पद्माकर चन्द ह फरास चारु चाँदनी बिछाई है। फसूकर-संज्ञा, पु० [?] फेन के करण ।
-शिवकवि उदा० ऐसा फैलि परत फसूकर मही में मानो •फरिका-संज्ञा, पु. [हिं० फाटक] फाटक, दरवाजा।
तारन को बृद फूतकारन गिरत है। उदा० खोलि खोलि खरिकन के फरिकन गायें
-पद्माकर पानि उबेरी।
-बकसीहंसराज फस्त-संज्ञा, स्त्री० [अ० फस्द] नस को छेद कर फरिया -- संज्ञा, स्त्री [ब्र] प्रकार का लंहगा, शरीर का गंदा खून निकालना ।। साड़ी, धोती।
मु० फस्द खुलवाना--शरीर का दूषित रक्त उदा० सिर ओढ़े उढ़ोनी कसे छतिया फरिया निकलवाना। पहिरे फहराती फिरै।
उदा० मूड़ घुटाय प्रौ मूछ मुड़ाय त्यों फस्त फरी-संज्ञा, स्त्री [सं० फल] चमड़े की छोटी
खुलाय तुला पर बैठ्यो। -माधव कवि गोल ढाल ।
फाब-संज्ञा, स्त्री० [हिं० फबन] शोभा, छटा उदा० बाँधे बखतरी काँधे परी समसेरी फरी, | उदा० फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । लखि न परी है काहू सखिन सकात है ।
--पद्माकर -बेनी प्रवीन | औरे औरे फूलन पै दुगुन फबी है फाब । फूले फरकत लै फरी पल कटाच्छ करबार ।।
-द्विजदेव
-टाकुर
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फिटकना
फेरू फिटकना--क्रि० स० [अनु० फट] फेंकना, । देना, कहना। डालना, चलाना, मारना।
उदा० आइ सखिन सों फरमाइ एड़ी उजराइबे उदा० फिटकत लाल गुलाल लखि लली अली
को।
- सुन्दर डरपाइ । बरज्यो ललचौं हैं चखनि रसना फुरहरी- संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] कम्पन, कॅपकॅपी दसन दबाइ ।
-दास उदा० परसि फुरुहरी लै फिरति बिहँसतिफिटु-अव्य [अनु॰] धिक, छी।
धेसति न नीर ।।
--बिहारी उदा० तिनको सँग छूटत ही फिटु रे फटि कोटिक फुनिंग-संज्ञा, स्त्री० [सं० स्फुलिंग] स्फुलिङ्ग टूक भयो न हिए।
चिनगारी।
–केशव उदा० "पालम' अंग अनंग की ज्वाल तें प्रांगनु फितूर-संज्ञा, पु० [अ० फुतूर] १. विकार
मौन फुर्निग से चालै । खराबी २. गड़ा, बखेड़ा।
-आलम उदा० १. नैन मुदे पै न फेर फितूर को टंच न फुवाग - संज्ञा, स्त्री [हिं० फुहार] फुहार, झड़ी, टोभ कछू छियना है।
पानी का महीन छींटा । -पद्माकर
उदा० चोवा चंदन और अरगजा रंग की परत फिरक- संज्ञा, स्त्री० [?] एकप्रकार की घुमाव
फुवाग ।
-घनानंद दार छोटी गाड़ी ।
फूली साँझ-संज्ञा,स्त्री० [हिं० फूली+सं०सांध्य] उदा० सुखद सुखासन बह पालकी। फिरक सन्ध्या समय, मु० साँझ सी फूलना-लाल हो जाना। बाहिनी सुखचाल की।
-केशव उदा० फूली साँझ के सिगार सूही सारी जुहीहार फिकाना—क्रि० अ० [हिं० फिचकुर] फिचकुर सोनो सों लपेटे गोरी गौने की सी आई है। प्राना, मच्र्छा पाने पर महसे फेन निकलना ।
-आलम उदा० सौति संतापिनि सांपिनि ज्यों, मुख है
सूर उदै आये रही दृगन साँझ सी फूलि । विष फेंकन ही सों फिकान्यो ।
-बिहारी -देव | फेकरना -क्रि० अ० [हिं० फेंफें] चिल्लाना, फिलत्ता-संज्ञा, पु० [?] संतरी, रक्षक।
चिल्ला चिल्ला कर रोना। उदा० भूषन भनत तहाँ फिलत्ते कों मारि करि- | उदा० फेकरि फेकरि फेरू फारि फारि पेट, खात, अमीरन पर मरहट्ठ प्रावने लने ।
काक कंक बालक कोलाहल करत हैं। -भूषण
- 'हजारा से फोहा-संज्ञा, पु० [?] टुकड़ा, किसी वस्तु का | फेकारना क्रि० स० [देश॰] सिर खोलना, नग्न छोटा अंश ।
होना । उदा० पाऊँ जो पकरि काह जाल सों जकरि तन उदा० इतने क्षण में बिप्र इक बय किशोर बुधिफीहा करौं या पपीहा दई मारे को।
मान शिरफकार असनान करि चढ़ यो चिता - निधान कवि पर प्रान ।
-बोधा फुटका-संज्ञा, पु० [देश॰] एक प्रकार की फेर-संज्ञा, पु० [देश॰] टोना, जादू ।। मिठाई।
उदा० फेरू कछुक करि पौरि तें फिरि चितईउदा० फुटका अरु फेनी जलेबी दई बरफीन को
मुसकाय ।
-बिहारी स्वादऊ जानत ना ।
-बोधा | फेरू-संज्ञा, पु० [हिं फेख] १. स्यार,श्रृंगाल फुरना-क्रि० अ० [सं. स्फुरण] १ स्फुरित । २. बहाना, मिस । होना, निकलना २. निकालना [स० क्रि॰] । उदा. १. फेकरि फेकरि फेरु फारि-फारि पेट उदा० १. हाइभाइ नैन चाइ जान्यो ज्यो लियो
खात काक कङ्क बालक कोलाहल करत जिवाइ मिलिबे के दाइ घात भॉति-भांति के
-अज्ञात -सुन्दर
हूकत डलूक बन कूकत फिरत फेरू भूकत २. फारौं जु चूंघट प्रोट अटै सोई दीठि
जु भैरो भूत गावें अलिगुज लौं। फुरौं अध कों जु फँसाई । -केशव
-देव फुरमाना-क्रि० स० [फा० फरमाना] प्राज्ञा । २. फेरु कछुक करि पौंरि तें फिरि चितई
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फैल
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(
मुसुक्याय आई जामन लेन तिय
नेहै गई
जमाय ।
- बिहारी
फैल - संज्ञा, पु० [फा० फेल] कार्य, काम । उदा० सॅल तजि बैल तजि फैल तजि गैलन में, हेरत उमा कों यों उमापति हितै रहें । - पद्माकर
नग थरहरान । लाइयो निदान । मनु नचत शैल । लखि ईसफैल |
१६०
- सोमनाथ फेंक - संज्ञा, पु० [सं० पुंख] तीर के पीछे की नोक, जिसके पास पंख लगाये जाते हैं । तीर का दूसरा किनारा । उदा० बिरहा हनी फोक फबी उत हृ प्रगटी
-श्रलम
बटक ] १. गेंद
)
- आलम
इत ह्र' मानो बान अनी । रोदे फोंक जमाय, चाप संजित करि सोई । - चन्द्रशेखर फौंकनी - संज्ञा, स्त्री० [देश ] छोटी लाठी, लकुटी ।
उदा बाँस की फौंकनी हाथ में धारे जू, के गारे, कहावें कन्हइया । फौरी - क्रि० वि० [फा० फौरन ] फौरन ।
उदा० दुज फौरी ले अँगुछा फेरत । कृष्ण कृष्ण प्रेमातुर टेरत ॥
बंध - संज्ञा, पु० [?] बराबरी, समता । उदा गहि कोमलता सरसता, सोनो होइ सुगंध तबहूँ कबहूँ होइ सीख तेरे तनु को बंध ।
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बई
-मतिराम
बेरिन बंगे
बंगे - वि० [सं० वक्र] वक्र, टेढ़ा उदा० रन करत अड़ गे सुभट उमंगे करि झपट । बंज - संज्ञा, पु
- पद्माकर
बन्धु- संज्ञा, पु० [हि० बंधुआ ] कैदी, दास गुलाम । [ सं वणिज् ] व्यापार, उदा० बंधु किए मधुप मदंध किए बंधु जन बँध्यो मन गंधी की सुगंध भरपन सों कीजियौ देव
वाणिज्य । उदा० रूप बजार में प्रीति को बंज न
---पद्माकर
कोऊ कियें अकुलै हौ । बंछना क्रि श्र० [सं० वंचन] वंचित करना, ठगना, धोखा देना । उदा बनितादिक मुद्दित उद्दित रूप तें बंछति आनन्द चन्द सुधा को । बंटन -संज्ञा, पु. [ सं २. गोला । उदा० डीठि डीठि क़ी बरत को झेलें । इनको मन दोऊ नट से खेलें । - बकसी हंसराज बंदनी -संज्ञा, स्त्री [हि० बंदी] बंदी, एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ सिर पर पहनती हैं । उदा० मोतिन के छरे परे कानन में सानदार हीरन के हार बेना बंदनी सुरुच की 1
बाँधि के दृग बंटन उनको मन बीचहि
ग्वाल
बंधुर - वि० [ सं ] सुन्दर, रचिर । उदा० भूषित गजगाहन उठत बाहन लसत भले । बंबी – संज्ञा, स्त्री, [अ० उदा आगे चलि नृप बंबी तहाँ इक पेखी । बंसकार - संज्ञा, पु० [सं० बंशफोर । उदा श्रौरो एक राम | वहाँ
धाम ।
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रूप
-नागरीदास शीघ्र,
-नागरीदास
उमाहन बंधुर
—पद्माकर
मंबा ] सोता, स्रोत । देखी । परबत गुफा
- जसवंत सिंह वंश + कार ] डोम, कथा कहीं, विकल भूप की प्रयोध्या वसत है बंसकार के - केशव बदरी — संज्ञा, स्त्री० [बुं०] गाय विशेष । उदा० बँदरी को है बच्छरा दुबरो चोखन श्राछे दीजो | बकसी हंसराज बई - वि० [हिं० बाय ] पृथक्, अलग-अलग । उदा० १ चौंकि चौंकि चकि चकि, उचकि उचकि देव जकि जकि, बकि बकि परत बई बई । —देव
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बका
बजोर बका-संज्ञा स्त्री० [अ० बका] नित्यता, अन
छकि छुटटहिं बगछुट्ट कुट्ट दिग्गजन श्वरता ।
उलट्टहिं ।
-पद्माकर उदा० खेलौ तौ खेलौ खुसी सों लली जो न बगना-क्रि० अ० [सं० वक] घूमना, फिरना। खेलौ तो छोडौ ये रीति बका की।
उदा. 'चंपे के कोमल दल एक ही सों दबि रहे-बोधा
काम की यों छीन तनु त्रिबली बगतु है । बकी-वि. [सं. बक] बकुले के रंग के समान
-केशव उज्ज्वलवर्ण वाला २. पतना नामक राक्षसी । बगमेल-संज्ञा, पु० [हिं० बाग+मेल] बराबर उदा० १. अधर निरंग बकी बसन बदल्यो हेत प्रतीत बराबर चलना, मुठभेड़ ।
-दास उदा० चले सल सर सेल दल पेल बगमेल परे बकुचना-क्रि० अ० [सं० विकुचन] संकुचित
गोलन पै गोल बोल बचन प्रमान । होना, सिमटना ।
-चन्द्रशेखर उदा० १. प्रालीरी अनूप रूप रावरो रचत रूप बगराना-क्रि० स० [हिं० बगरना, सं० रचना विरंचि की सु बकुचन लागी री। विकिरण] फैलाना, बिखेरना, छिटकाना।
-पद्माकर | उदा० डीठी की डसया, दैया दूनी में अनोखी २. लाज के भार लची तरुनी बकुची यह, दौरे बिना, दूर ही तें विष बगरावती। बरुनी सकुची सतरानी देव
-ग्वाल बकुट- संज्ञा, पु० [हि०बकोट] चंगुल, मूठी, बगार-संज्ञा, स्त्री० [फा० बलगार] १. घाटी २. पंजा।
गायों के बाँधे जाने का स्थान । उदा० छीर मुख लपटाए छार बकुटनि भरें उदा० १. बैयर बगारनि की अरिके अगारनि की छीया ? नेक छवि देखो छगन मँगन की
नांघती पगरानि नगारन की धमकै। - आलम
-भूषण बखिया-संज्ञा, स्त्री०, [सं. वक्ष] छाती, वक्षस्थल बगाहना क्रि० स०[सं० अवगाहन] खोज करना उदा. (क ) सोमनाथ बानिक बिलोकि छबि छानबीन करना, २. प्रवेश करना ।
छाकी छकी दीन्ही ऐचि गांसी पंचबान उदा० पूतना को पय पान करो मनु पूत-नाते बखियान में।
-सोमनाथ
बिसबास बगाहत । (ख) चढ़ी जाति दीरघ उसासन सौं बघरू-वि॰ [हिं. बाघ+फा० रू=मुंह] बखियां ।
बाघ के समान मुंह वाले, बाघ के समान (ग) रीझि रही लखि हो रघुनाथ न भूलति । वीर । केहूँ खुभी बखियान में ।
- रघुनाथ उदा० बघरू बघेले करचुली जिनकी न बात कहूँ बखील-वि० [अ० बखील] कंजूस, कृपण ।
डुली।
-पद्माकर उदा० पति प्रम नेम जैसे गहत बखील हेम, बचरा-संज्ञा, पु० [हिं० बच्चा] बच्चा । गुरुजन सेवा सो प्रवीन बेनी मेवा कंदु।। उदा० झझकी हँकि हकनि लेत परे, कच ऊपर
-बेनी प्रबीन ब्यालिनि को बचरा।
-बेनी प्रवीन बखोड़ना-क्रि० स० [हि० बखोरना] छेड़ना, बच्छी-संज्ञा, पु० [सं० वत्स] घोड़ा का बच्चा, तंग करना ।
बछेड़ा। उदा० जिन पै सयानी वारी लाज गृह काज उदा०कछे से फिरै कछछ के दछछे बछछी । त्रास सास को न मान्यो और कोऊ का
बिना पछ्छ जीतें सु पछी बिपछी । बखोड़िहैं। --बोधा।
-पद्माकर बखोरना-क्रि० स० [देश॰] छेड़ना, तंग करना । बजनी--संज्ञा, स्त्री० [हिं० बजना] नूपुर। उदा० सांकरी खोरि बखोरि हमैं किन खोरि उदा० सिख-नख फूलनि के भूषन बिभूषित के, लगाय खिसैबों करो कोई।
-देव
बाँधि लीनी बलया बिगत कीनी बजनी । बगछुट्ट--क्रि० वि० [हिं० बाग+छुटना]-बड़े
--दास वेग से, बेतहाशा, सरपट ।
बजोर-क्रि० वि० [फा०ब+ जोर जोर सहित, उदा० कूरम नृप मातग जग जगन जुटि जुट्टहिं । तेजी से ।
२१
-देव
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बझरी
बनीन उदा० मनौ घुमड़ि घुमड़ि नम घेरत उमड़ि घन, । कार्य । गाजत दराज तोप बाजत बजोर।। उदा०- तृप्ति न लहैं ध्यान में लै लै, मन तें धोइ
-चन्द्र शेखर विषय बद फैलें।
-सोमनाथ बझरी-वि० [सं० बन्ध्या] बन्ध्या, सन्तान बदराह-संज्ञा, पु० [फा०] डाकू, बदमाश हीन ।
२. कुमार्गगामी। उदा० अरी जाको लगी तन सो सुभवै कहा जानै उदा० बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह । प्रसूत बिथा बझरी । -तोष निधि
-बिहारी बटक-संज्ञा, पु०सि० वट] बरा, बड़ा नाम का बन-संज्ञा, पु० [हिं० बिनौला] १. कपास का एक भोज्य पदार्थ ।
पौधा २. पानी। उदा० अनगन बटक दही में बोरै, रासि ते उदा० सन सूख्यो बीत्यो बनौ ऊखौ लई उखारि अधिक गोल मरु गोरे । - सोमनाथ
हरी हरी अरहर अजों धरि धरिहरिबटना-क्रि० अ० [हिं० बूटना ] हटना, जियनारि ।
-बिहारी - बहकना।
बनक-संज्ञा, पु० [हिं० बनना] १. साटन नाम उदा० करौ सु ज्यौं चित चरन जटै । हित- का कपड़ा २. वेश ३. शोभा ।
मकरंद पान करि कबहूँ कहूँ न काहू भांति उदा० १. उतै तौ सघन घन घिरि कै गगन, बटै।
-घनानन्द
इत बन उपबन बन बनक बनाये हैं। बटा-संज्ञा, पु० [सं० वटक] गोल ।
-देव उदा० कंदुक कलस बटे संपुट सरस मुकुलित, बनपाल-संज्ञा, पु० [सं०] माली, बन का तामरस हैं उरोज तेरे भामिनी।
रक्षक।
-दास उदा० भूषण जे जल मध्यहि रहे। ते बनपाल बटावनी-संज्ञा, पु० [हिं० बटाऊ] रास्ता चलने
बधूटिन लहे।
-केशव वाली, राहचलतू, अपरिचिता ।
बनात-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बाना] एक प्रकार उदा० काटो जीभि जेहि जीभि ऐसे कहि आवत | का बढ़िया ऊनी कपड़ा। हैं, कान्ह हैं बटाऊ अरु हम हैं बटावनी।। उदा० ऐसी तौ न गरमी गलीचन के फरसों में.
--गंगा
है न बेस कीमती बनात के दुमाला में । बटुआ-संज्ञा, पु० [सं० बटक] ढेला, रोड़ा।
-ग्वाल उदा० ताकी सुराधि सुनै कहि तोष लगै पिक को बनासपाती-संज्ञा, स्त्री० [सं० वनस्पति ] स्वरबा बटुमा से।
-तोष वनस्पति, घास-पात । बटुरारा-वि० [सं० वत्त ल] गोलाकार, गोला। उदा ऐसी परी नरम हरम बादसाहन की उदा० लांबी लटै बटुरारो बदन्न, घनी बरुनी
नासपाती खाती ते बनासपाती खाती हैं । अरु आँखि अन्यारी। -गंग
--भूषण सुन्दर सलोम सुकुमार जोनि सजे तासु, बनिजना-क्रि० स० [सं० वाणिज्य] व्यापार जैसे फूल बटुरारो जामैं भर्यो पानी है। करना ।
-सुन्दर कवि उदा० गात नही दिखराइ बटोहिन बातन ही बदन करिन्द संज्ञा, पु० [सं० करीन्द्र+बदन]
बनिजै बनिजारी ।
-देव गजानन, गणेश ।
बनितासुत-[सं० विनतासुत] विनता के पुत्र उदा० सोमनाथ बरण विरंचि प्रति चाइन सौं गरुड़ । आक बरबानी बूद्धि बदन करिन्द की। उदा० पाइ पयादे चले भले धाइ तहाँ बनिता
-सोमनाथ सुतऊ तजि दीन्हौं ।
-बेनी प्रवीन बदना-क्रि० प्र० [सं० वद्] निश्चित करना, बनी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बनना] १. दुलहिन, निर्दिष्ट करना ।
बधु २. स्त्री०, नायिका ३. बाटिका । उदा० आपनी ठौर सहेट बदौ तहँ हो ही भले-- उदा० ईठ सों पीठि दै नीठि कहें भरि दीठि नित भेट के ऐहीं।
-दास निहारतहू न बनी है।
-देव बदफैलें-संज्ञा, पु० [फा० बद+फेल] बुरे- । बनीन--वि० [हिं० बनना] सुशोभित ।
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सवाल
बनौटी
बरदार उदा० मोती को हार हवेल बनीन पै सारी सोहा- उदा० गैल गहु बैल यहि बारी ते बरिक आयो, वनी कंचुकी नीली ।
-दास
बारी को रखैया जो रहयो रे रिस भरि बनौटी--वि० [हिं० बन=कपास] कपासी,
-दुलह कपास जैसा रंग।
बरकस वि०, [हिं० कस बिल] शक्ति शाली, उदा० दुति-लपटनु पट सेत हूँ करति बनौटी रंग बली, दुर्धर्ष २. धृष्ट, ढीठ, बदमाश ।
-बिहारी 'उदा. कौन सों करार कौन कौन करि पायो फेर. बबरी--वि० [हिं० बाबर] बाबर बादशाह की
प्राय के भुलायो छक्यो काम बरकसते । भांति, बाबर कालीन ।
-ग्वाल उदा० केस कसि पगरी मैं बबरी बनाय बाल | बरकसी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बरकस] ढिठाई, मुगुल बचे लौं एक पेंचा सजे जात है।
बदमाशी ।
-बेनीप्रवीन उदा० बातें सरकसी रसह में कवि भषन तो बिछुरी पिया तें, सोछुरी सी बबरी सी हिय,
बालम सो बौरी बरकसी कीजियतु है। ममरी सी एरी बिरहागिन में बरी सी ।
-भूषण
बरकाना-क्रि० अ० [सं० वारण] फुसलाना, बया-संज्ञा, स्त्री० [?] घोड़े को एक चाल ।
बहलाना । उदा० चहैं गाम चल्लैं चहैं तौ दुगामा चहैं ये उदा० खेलत खुशी भए रघुबं शिन कोशल पति बिया चाल चल्लै भिरामा। -पद्माकर
सुख छाये । दै नवीन भूषन पट सुंदर जस बयान-संज्ञा, पु० [अ० बै+फा आना
तस कै बरकाये ।
-रघुराज (प्रत्यय)] पेशगी, अग्रिमधन, किसी वस्तु के बरख्खिय-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बरछी] बरछी, खरीदने के पूर्व दी जाने वाली रकम ।
एक हथियार। उदा० त्यों पद्माकर बीर बयान में दै मन-मानिक उदा० कर मैं बरख्खिय तिख्ख है। चमकै तडित्त फेरि न पैहो ।
-पद्माकर सरिख्ख है।
-सोमनाथ बरॅगा-संज्ञा, पु० [बुं०] धरन पर की कड़ी।। बरगी-संज्ञा, पू० [फा० बारगी-घोड़ा] बारउदा० बरँगा अति लाल सुचन्दन के । उपजे बन- गीर, अश्वपाल साईस २. वे सिपाही जो सुन्दर नन्दन के।
-केशव सरकारी घोडे पर राजकार्य करते थे । बर-संज्ञा, पु० [सं० वट] १. वट वृक्ष, बरगद उदा० १. देस दहपट्टि आयो प्रागरे दिली के का पेड़ २. वर, पति ।
मेंडे बरगी बहरि मानौ दल जिमि देवा । उदा. यह कौन खरौ इतरात गहें बल की बहियाँ
को ।
-भूषण छहियां बर की।
-रसखानि
२. सत्रसाल नंद के प्रताप की लपट सब, बरकत-संज्ञा, स्त्री० [अ०] प्रचुरता, अधिकता। - गरबी गनीम बरगीन कौं दहति है। उदा० बरकत धूरि गई असमान । परै लखि नाहिं
- मतिराम दुर्यो कतमान ।
-बोधा बरछत-संज्ञा, पु. [हिं० बरछा+ऐत] बरछा बरकति-संज्ञा, स्त्री० [अ० बरकत] बढ़ती, चलाने वाले। अधिकता, वृद्धि, लाभ ।
उदा० सहस दोय बरछेत जे न कबहूँ मुख उदा. भूषन मनै यौं कुलभूषन स्वैसिला सिवराज
मोरत ।
-सूदन तोहि दीनी सिवराज बरकति है।
बरत-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बर] वह रस्सी जिस -भूषण
पर चढ़कर नट क्रीड़ा करता है। बरकनवाज- संज्ञा, पु० [फा० बर्कदाज] १. उदा० दुहूँ कर लीन्हे दोऊ बैस बिसबास बांस, सिपाही, बंदूकची, तोपची।
डीठि की बरत चढ़ी नाचे भौंह नटिनी । उदा० दिशिचार को मुहरा लग्यो घने बर्कदाज ।
-देव पुनिचार पंगत अश्व को सजि बीच में बरदार-वि० [फा० बलदार] १. बटी हुई, महराज ।
-बोधा . २. ऐंठन वाली ३. वाहक, ढोने वाला। बरकना-क्रि० अ० [हिं० बरकाना ] बचना, | उदा० १.पूरी गज गति बरदार है सरस प्रति हटना, दूर रहना ।
उपमा सुमति सेनापति बनि पाई है।
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बरनों
(
१६४
— सेनापति / ३. सेनापति निरधार, पाइपोस बरदार, हौं तो राजा राम चंद जू के दरबार को । -सेनापति बरना क्रि० स० [हिं० बटना] बटना, रस्सी
बनाना ।
उदा० त्यों इत आइ हरे दुरि के दरसायो भुवंगम बारन को बरि । - चन्द्रशेखर बरबट - क्रि० वि० [सं० बल + वश] बलपूर्वक, बरबस, हठात् जबरदस्ती ।
उदा, नैन मीन ए नागरनि, बरबट बाँधत आइ । मतिराम बरष – संज्ञा, पु० [फा० बर्ख] अंश, भाग, टुकड़ा, हिस्सा । उदा० कंधौं विधि विधिकर पूरन ससी को, चीर करि द्वे बरष राखे अनुप अतोल है ।
-ग्वाल
खेतों में
२. मयूर
बरहा - संज्ञा, पु० [हिं० बहा] १. सिंचाई के लिए बनाई गई नाली [सं० वर्हि ] ।
।
उदा० १. र्ते मत ऐसी धरै चित में विवेकी गनै बरहा सर ।
बरहे सघन सदा सुखदायक । हरि गोधन लायक ।
बरही - क्रि० वि० [सं० बलात्[ जबरदस्ती ॥२. मोर [सं० वहि ] ।
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जग तोहि
- बोधा हरे सजल घनानंद बलपूर्वक,
उदा० बर बीर यज्ञ बराह बरही लई छीनि सहसों । - केशव बराक- वि० [सं० वराक ] विचारा, दीन, बापुरा । उदा० बारि के बिहार बरं बारिज बराक बोल बात बात भावे न कपोती सुक पिक सों ।
- देव बराटि — संज्ञा, पु० [हिं० बरट] भिड़, बरं । उदा० गंग कहै कटि केहरि कौन बराटिहु सों कटि खीन खरी सी ।
बरार—वि० [सं० बल + आलय ]
गंग बली,
बरियार ।
उदा० बानर बरार बाघ बैहर बिलार बिग, बगरे बराह जानवरन के जोम हैं ।
- भूषण
बरारसो- संज्ञा, स्त्री० [अ० बर्उस्सान: ] १. वह दवा जो एक चरण के अन्दर रोग से मुक्त कर
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)
दे । २. वाराणसी, काशी । उदा० चोर को सनेही को है राड़ को सँघाती कहूँ निर्गुणी को दायक सरोगी को बरारसी । -बोधा बरिन्दी – संज्ञा, पु० [सं० इन्दोबर ] इन्दीवर,
कमल ।
उदा० गई कूल कलिन्दी बरिन्दी विलोचन, बैठी बिथोरि बड़ी अलकें । —बेनी प्रवीन बरियानी - वि० [सं० बल, हिं० बरियार ] बलवती, शक्तिशालिनी ।
बत
उदा धरा डारै खूंदे प्रेम फास कैसी फूँदै श्राजु, लेती द्वार मूंदे ऐसी बूंदें बरियानी है । — ठाकुर बरोठा,
बठी — संज्ञा, पु० [हिं० बार + कोठा] बैठक २. ड्योढ़ी, द्वार ।
उदा० बालम मेरो न माने कहयो, करें जंत्र घने बरुठी मैं ।
बरैती – संज्ञा, स्त्री० [सं० बलात्] अतिचार ।
मंत्र श्र
.- ग्वाल
ज्यादती,
-दास
उदा० कहि दास बरैती न एती भली सम्झौ वृषभानु लली वह है । बरैतें- -संज्ञा, स्त्री० [हिं० बढ़ तिन बढ़ता] ज्येष्ठ स्त्रियाँ, बड़ी बूढ़ी स्त्रियाँ
उदा० मोहि न देखौ अकेलियै दासजू, घाटह बाटहू लोग भरैसो । बोलि उठेगी बरतें लै नाउ तौ लागिहै अपनी दाउ अनैसो ।
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-दास
बरोठा - संज्ञा, पु० [हिं० बार + कोठा ] ड्योढ़ी, द्वार, पौरी । उदा० देव दिखैयन बरोठेई लूटे । बरोह-- संज्ञा, स्त्री० [सं० वट + रोह] बरगद की जटा । उदा० रेसम श्याम समूह किध किधौं काम बटे के वरोह अपार हैं । -रघुराज बर्याइ - क्रि० वि० [सं० बलात् ] बड़ी कठिनाई से, मुश्किल से, जैसे तैसे । उदा० ओर तें याने चराई पैहें अब ब्यानी बरयाइ मो भागिन श्रासौं । पद्माकर हे रघुनाथ भये रघुनाथ के आनन्द में इतनो धन दीन्हे । श्राजु सभा बिच श्री दसरत्थ के भिक्षुक भूप बर्याइ के चीन्है ।
दाग बने रहे, बाग बने ते - देव
- रघुनाथ
बबत - वि० [सं० बलवन्त] बलवन्त, शक्ति
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बलंद
बसीति शाली।
बलूला-संज्ञा, पु० [हिं० बबूला] पानी का उदा० सायक एक सहाय कर जीवनपति पर्यंत।
बुल्ला, बबूला, बुदबुदा । तुम नृपाल १. पालत छमा जीति दुमन उदा० कारे काल ब्याल. महाबली बलभद्र ऐसे. बर्वत ।
-कुमारमणि
बाली ऐसे, बलि से, बबूला से बिलायंगे । बलंद-वि० [फा०] उच्च, ऊँचा ।।
-देव उदा० छूटे बादबानन बलन्द जे जहाज मानो बलै-संज्ञा, पु। [सं० वलय] १. मण्डल पावत ढिलत नित नेह नदवारे से ।
२. कंकड़, ३. चूड़ी।
-पजनेस उदा० १. गोल कपोल लसै मुख ऊपर, रूप बलवार वि० [फा०] शिकनदार, टेढ़े, धुंघराले
अनूप, बलै बसुधा के।
--देव उदा० ग्वाल कवि विमल बिछात पै बिसुधि सोई बलो-संज्ञा, पु० [सं० वलय] चूड़ी, हाथ का बिछुरे सुबार, बलदार चित्त चोरे से । __ कंकड़ २. मंडल ।
-ग्वाल उदा० आपु तौ आये हौ रुसि लला उनके तौ बलया-संज्ञा, स्त्री० [सं० त्रिबली] त्रिबली,
छला को बलो भयो सोहै। -रघुनाथ पेट में पड़ने वाले तीन बल ।
२. बधिर धयो भुव वलय, प्रलय जलधर उदा० ये पै मेरो कर तेरी बलया बिची में धसि
जनु गर्जत । -- 'रसकुसुमाकर' से पूजि कुच शंभु पास पुजई घनेरी है। बलत्र--संज्ञा, पु० [सं० वरत्रा] रस्सी।
- ग्वाल उदा० जनु प्रकास बन बलित बलत्र । तरलित बलि-संज्ञा, स्त्री० [सं० बला] १. सखी
तुंग ताल के पत्र ।
-केशव २. पितृ श्राद्ध के समय कौवे को दिया बल्लभ-संज्ञा, पु० [सं० बलभी] १. अटारी, जाने वाला भोजन, ३. श्राद्ध पक्ष ।
छत २. बरामदा । उदा० १. देवजू बालम बाल को बादु बिलोकि उदा० प्रगटित होति बल्लभनि प्रभा। मोहति भई बलि, हौं बलिहारी ।
-देव देखि देव बल्लमा ।
-केशव ये अलि या बलि के अधरान में प्रानि
ताके पर बलभी बिचित्र अति ऊँची जासौं चढ़ी कछु माधुरई सी। -पद्माकर
निपटै नजीक सुरपति को अगार है। ३. आदरु दै दे बोलियत ब'इसु बलि की
-दास बेर ।
-बिहारी बसन रदन-संज्ञा, पु [सं० रद पट] रदपट, बली-संज्ञा, पु० [सं०बलराम] १. कृष्ण के प्रोष्ठ। बड़े भाई बलराम २. बलि निछावर (संज्ञा, उदा० कनक वरण कोकनद के बरण और झलस्त्री०)।
कत झांई तामैं बसनरदन की । -बलभद्र उदा० १. कान्ह बली तन श्रोन की छंछु लसै, बसात--संज्ञा, पु० [सं० वश| बश, अधिकार। अति जग्योपवीत सों मेलि ज्यों ।।
उदा० लियौ घेरि औचक अकेलो के विचारो - आलम
जीव, कछु न बसाति यो उपाय बल-हारे २. गगन की गैल लै चढ़ाई शैल नन्दिनि
की।
-घनानन्द सुछल दुलहा के बूढ़े बैल की बली गई। बसाना क्रि० स० [सं० वास] सुगंधित करना,
-देव सुवासित करना । बल्लक - क्रि० वि० [हिं० बलक] उमंगों के उदा० देव मैं सीस बसायौ सनेह के, भाल मृगंमद साथ, बलक के साथ।
विन्दु के भाख्यो ।
-देव उदा० खुले खेत की बल्लकै खूब कूदै । मनो | बसीठी-संज्ञा,स्त्री० [सं० अवसृष्ट, हिं० बसीठ]
खंजरीटान के गब्ब गूंदें। -पद्माकर दूत कर्म, दूतत्व, संदेश देने का काम । बल्लवी-संज्ञा, स्त्री० [सं० बल्लव] गोपी, | उदा० चूक कहौ किमि चूकत सो जिन्हैं लागी रहै प्रहीरिनी, ग्वालिन ।
उपदेश बसीठी।
--दास उदा० लगी रहै हरि हिय इहै, करि ईरखा | बसीति-संज्ञा, पु० [सं० वस्] वास, रहना ।
बिसाल, परिरंभन में बल्लवी, भलीदली । उदा० कथा मैं न, कंथा मैं न. तीरथ के पंथा मैं, बनमाल ।
-मतिराम
न, पोथी मैं, न पाथ मैं, न साथ की बसीति
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बसोले
बहिका -देब सीखि गाढ़े गहे ।।
-घनानन्द युद्ध जुरे दुरजोधन सों कहि को न करे
२. निज प्रान छूटे पर समर में लरे वैसे यमलोक बसीत्यो ।
-केशव बहबहे ।
-पदमाकर बसीले-वि० [सं वास] १. वासित, सुगंधित, बहरना-क्रि० अ० [हिं० बाहर] बाहर होना, २. बासी, जो ताजा न हो।
बहना, निकलना, फूट पड़ना २. मनोरंजन उदा० १. जागे ते आलस पागे लस किये बाम की
होना, चित्त प्रसन्न होना । बास सों बागे बसीले । -रघुनाथ उदा. बहरै रसखानि नदी रस की घहरै बनिता २. ढीले से पेच वसीले से वास रसीले से
कुलहू महरै।
-रसखानि नैन है आवत मीचे ।
बहराना--क्रि० स० [हिं० बहलाना ] १.
-'रसिक रसाल' से | बिताना, काटना. गुजारना २. भुलावा देना, बसु-संज्ञा, पु० [सं• वसु] १. कुबेर २. रत्न । ३. मनोरंजन किया जाना । उदा० १. देखें बारिदीन, दारिदी न होत सपने उदा० नागरि नवेली अलवेली चलु नागर 4 कैसे हू, पावै राज बसु, ताके बस बसुधा रहै ।
कै अकेली तोसें राति बहराति है। -सेनापति
-नंदराम बसुधा-संज्ञा, पु० [सं० वसु= रत्न+धा- बहरि--संज्ञा, पु० [फा० बह्न] समुद्र, सागर धारण करने वाला] रत्न धारण करने वाला,
२. समूह। रत्नों से निर्मित महल ।
उदा० देस देह पहि पायो आगरे दिली के उदा०-द्वार खरौ द्विज दुर्बल एक रहयो चकि ___मेंडे, बरगी बहरि मानो दाल जिमि देवा सो बसुधा अभिरामा । -नरोत्तमदास
को।
- भूषण बसेंड़ा-संज्ञा, पु० [हिं० बांस] बाँस का डंडा, बहल-संजा, पु० [सं० वहन; स्त्रीलिंग बहली] मोटी लाटी।
छावनीदार बैलगाड़ी । उदा० हो तुम प्रति समरथ साकुंडल कीजी मार। उदा० साजे सब साजबाज बाजि गज राजत हैं, बसेंड़ा। -बक्सी हंसराज
विविध रुचिर रथ पालकी बहल हैं । बहतोल-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बहता+ल] बरहा.
--नरोत्तमदास जल बहाने की नाली।
छूटत फुहारे खगे सुमन सुगंधवारे, उदा० ग्रीषम निदाघ समै बैठे अनुराग भरे बाग
बीजन बहल राखी ललित बना के है । मैं बहत बहतौल है रहट की।
-ठाकुर -'रसकुसुमाकर' से बहल्ला संज्ञा, पु० [फा० बहाल] १. आनन्द, बहना--क्रि० अ० [सं० वहन] १. भटकना, प्रमोद २. उद्दण्ड, अनुशासनहीन । इधर-उधर घूमना २. नष्ट होना । ३. देखना, उदा. चलाचला छायो ख ब गयौ बहल्ला प्रतीक्षा करना ।
हमै लल्ला देत ईस प्राज अवधभुवार को । उदा० १.तू तिनके हित क्यों नंदराम बहै दिन
-रघुराज रैनि सहै धन धाम है।
-नन्दराम बहाली-संज्ञा, स्त्री [हिं० बहाना] १. बहाना, ३. 'पालम' कहै हो कुलकानि गई जाति मिस २. प्रसन्नता, खुशी ।।
हई, बिरह बिकल भई कौलों बाट उदा० १. ग्वाल कवि कहै तु विचारै बर्ष बढे बहियो ।
-आलम
मेरे, एरे घटें छिन छिन आयु की बहाली बहनि-संज्ञा, स्त्री० [सं० बहन] गति, चाल,
-ग्वाल गमन, सवारी ।
२. छलकी परै हैं नील छवि की तरंग अंग उदा० मानों घनानंद सिंगार-रस सों सँवारी, रंगदार ऊधम धमारि की बहाली पै । चिक मैं बिलोकति बहनि रजनीस की।
-लछिराम -घनानंद बहिको-वि॰ [हिं० बहकना] भटका हुआ, बहबहे-संज्ञा, पु० [?] १. शरारत, नटखट पागल, उन्मत्त । पन २. लड़ाई के हाथ।
उदा० कै बहिको कुकरा बहु कूर कि वाकी तिया उदा० १. इन माँतिनि किये बहबहे के घर ढंग कहुँ काहु हती है।
-देव
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बहिक्रम ( १६७ )
बागर बहिक्रम-संज्ञा,. पु० [सं० वयः संधि] वयः । बांक-संज्ञा, स्त्री० [सं० बंक] १. हाथों में पहनने
संधि बाल्यावस्था और युवावस्था का मिलन : | का एक आभूषण २. पैरों का एक प्राभूषण उदा० बाल बहिक्रम ख्याल हुत्तो, नँदलान प्रसंग जो चाँदी का बना होता है। ३. हाथ की न जानिय तौ।
गंग चौड़ी चूड़ी। बहीर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भीड़]१. भीड़, जन- उहा० १. सेज गिरी जेहरी अंगूठी देहरी के द्वार समूह २. सेना की सामग्री ३. फौज का लवाज मारग में बाजूबंद बाँक फुलवारी में । मु० बहीर का शशा होना-भटकना,
-नंदराम परेशान होना।
बांधनी पौरि-संज्ञा, स्त्री० [व] वह स्थान उदा० १. मोतीराम सँवारों सनेही सो संभारों जहाँ गाएँ बांधी जाती हैं।
ना तो मन मेरो माई री बहीर को शशा उदा० कवि ग्वाल चराइ लै आवनी ह्यां, फिर भयो ।
-मोतीराम
बांधनी पौरि सुहावनी है, -ग्वाल कवि २.कब प्रायही औसर जानि सूजान बहीर बांधनू-संज्ञा, पु० [हिं० बांधना] कपड़े की लौं बैस तो जाति लदी। -घनानन्द रँगाई में डोरों का वह बँधन जिसे रँगरेज ३. ऐसे रघुबीर छीर नीर के विवेक कवि चुनरी आदि वस्त्रों के रंगने में बीच बीच में भीर की बहीर को समय के निकारि हौं । । बाँधते हैं।
-हनुमान । उदा० आतुर हजिये ना बलि जाउँ, तिहारे लिये बह्नि-जंत्र-संज्ञा, पु० सं०वह्नि ह्नयंत्र] प्रातश
हरि बाँधन बाँध ।
-बेनी प्रवीन बाजी, पटाका ।
कहै पद्माकर त्यों बांधन बसनवारी उदा० मनो मोहनी के मंत्र छूटै बह वह्नि जंत्र,
वा व्रज बसनवारी ह्यौ हरनहारो है। देखि री दिखाऊँ तोहि दूलह किसोरी को।
-पदमाकर --ब्रजनिधि बाहक--संज्ञा, पु० [प्रा० बाप] ? पुत्र, लड़का बहुधा-संज्ञा, स्त्री० [सं० बहुधा] १. वसुधा, उदा० नाउँ न गांउ सुन्यौ कबहूँ वह को है कहां पृथ्वी २. अनेक प्रकार से [सं० बहु+धा
को है कीन को बांहक।
-तोष प्रकार] ।
बाइगी-संज्ञा, पु० [?] गारुड़ी, विष को उदा. १. देव यही मन पावत है सविलास वधू उतारने वाला। बिधि है बहुधा की ।
-देव
उदा० कहै कवि गंग बोर बिरही न बचै कोऊ, २. आनंद भो गहिरो समूदै कूमदावलि
ब्याधि व्यथा बैद हरै बिस हरै बाइगी। तारन को बहुधा को । -~-भूषण
- गंग बहुत पच्छि-संज्ञा, पु० [सं० बहुल पक्ष] अँधेरा बाइल संज्ञा, पु० [सं० वातुल] वह व्यक्ति पाख ।
जिसे बाई चढ़ी हो, पागल, मतवाला । उदा० तप सिद्धि मास अरु बहुत पच्छि ।
उदा० बार बार बाइल सी धूमति घरिकते । ऋतु शिशिर द्वादशी तिथि सुरच्छि ।।
--आलम -जोधराज | बाग-संज्ञा, पु० [अ] १. कागज की फुलवारी बहेवा वि) [देश॰] बदमाश, चपल, उद्दण्ड । २. उद्यान बगीचा, ३. लगाम ४. वस्त्र । उदा० १. जरी ऊजरी बाल बहेवा सों मेवा उदा० १. देव दिखैयन दाग बने रहे, बाग बने के मोल बढ़ावति भूठे।
--देव ते बरोठेई लूटे ।
-देव २. बारे के बहेवा कान्ह कारे अतिरंग के
बागना-क्रि० प्र० [सं० बका घूमना फिरना । कारी-कारी बातें सुनि होत है अजूब री। उदा० आलम विकल बागी मैन की ठगोरी लागी
--गोपीनाथ
नैननि की ढौरी लागी ताते तन छीनो है। बहोटिन-संज्ञा, स्त्री. [सं० वधूटी] बीरवधूटी,
प्रालय लाल रंग का एक कीड़ा जो बरसात में दिखाई बागर-संज्ञा, पु० [देश॰] जाल । पड़ता है।
उदा० एक बार उमग्यो सुहाग अनुराग राग, उदा०-तैसेई उलहि आये अंकुर हरित पीत
भाग ब्रज वासिन को जैसे मृग बागरे । देव कहै विविध बहोटिन सुहाये हैं। -देव ।
-देव
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-देव
-भूषण
बाछेइ
बाब बाछेइ-वि० [सं० वांछित] चाहा हुआ, मुहा० बाढ़ धराना-शाण पर तलवार आदि अमीष्ट ।
के धार को तेज करना । उदा. कहै पद्माकर विमोह बस बिप्र तो, | उदा० ठाढ़े उरोजनि बाढ़ई की दृग, काम लोम बस लुब्धक तरयो सो बान बाछई।
कुठारिन बाढ़ धराये। -पद्माकर
बाथ-संज्ञा, पु० [राजस्था०] अंकमाल, गोद, बाजी-संज्ञा, स्त्री [फा० दगाबाजी] दगाबाजी, अंक। धोखा ।
उदा दृग मींचत मृगलोचनी धर्यो उलटि भुज उदा० चाहत हे तुमसों हम बाजी कियो उचित बाथ।
-बिहारी जो दियो हमै बाजी ।
- रघुनाथ बादला-संज्ञा, पु० [?] सोने चाँदी का तार, बाजीनदार-वि० [फा० बाजिदः] धूर्त, चालाक, कामदानीतार। वंचक ।
उदा. सेत सेत तोसक चेंदोवा चहँ ओर तने, उदा० मन बाजीनदार अनहद धुनि बाजे उलटि
सेत बादला ते सुखमा सी चारु च्वे रही । ___ बजावै । -बकसी हंसराज
-ग्वाल बा -अव्य० [सं० वर्जन] बिना. बगैर।
बादवान--संज्ञा, पु० [फा०] पाल । उदा० आलम ए अलि नैन अली मुख बारिज उदा। छूटे बादबानन बलंद जे जहाज मानो बाझ रहै नहिं तैसें ।
-आलम
मावत ढिलत नित नेह नदवारे से । बाटना-क्रि० सं० [हिं० बाट या बट्टा] सिल
-पजनेस आदि पर किसी चीज को पीसना ।
बान-संज्ञा, पु० [सं० वर्ण] वर्ण, रंग । उदा० काँच से कचरि जात सेष के असेष फन | उदा० केलि को कलपतरू सोभा ही को रतिपति, कमठ की पीठी पै पीठी सी बाटियतु है।
काम को पियूष ऐन काम ही के बान है ।
-आलम बाटन वारे को लगै ज्यों मेंहदी को रंग। बानक-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बनाना] रूप, शोभा,
-रहीम छटा २. वेश । बाट पारना क्रि० स० [सं० बाट+हिं० उदा० १. कैसो मनोहर बानक मोहन सोहन पारना] लूट लेना, मार्ग में डाका डालना।
सुन्दर काम ते प्राली।
- रसखानि उदा० घाट पर ठाढ़ी बाट पारति बटोहिन की,
२. यहि बानिक मों मन बसौ सदा बिहारी चेटकी सी डीठि मन काको न हरति है।
लाल ।
-बिहारी -देव बाना-संज्ञा, पु० [सं० बाण] भाले के आकार बाठी-संज्ञा, पु० [बुं०] १. शरारती २. पथिक का हथियार, जिसमें झंडा भी बाँध देते हैं। उदा० १. अति बलबन्त गुनीले गरुवे गायें गेरत उदा० बाने फहराने घहराने घंटा गजन के नाहीं बाठी।
-बकसी हंसराज ठहराने राव राने देस देस के। -भूषण २. कह गिरधर कविराय सुनहु हो दूर के बाना बाँधना-क्रि० स० [बु० मुहावरा] जिम्मेबाठी ।
-गिरधर कविराय दारी लेना, किसी काम का बीड़ा लेना। बाडि-संज्ञा, स्त्री० [सं वाट, हिं० बाढि] उदा० ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात शाण, तलवार आदि की धार ।
याको नही भूलि कहूँ बाँधियत बानो है। उदा० हरि बिन फेरत आइ व्रज गरजि गरजि
–ठाकुर ललकार । ये असाढ़ घन तड़ित की बाडि बानो-संज्ञा, स्त्री० [सं० वर्ण] १. चमक, धरी तलवार ।
--रसलीन
प्रामा २. वाणी, सरस्वती ३. वणिक । बाड़क-वि० [हिं० बार-किनारा, छोर] उदा० १. सेनापति बानी सौं न जाति है बखानी. किनारेदार ।
देह कुंदन ते अधिकानी बानी सरसति है। उदा० घूम घुमारिय घांघरिया सजि बाड़क
-सेनापति ओढ़नि प्रोढ़ चलै लजि ।
-बोधा बाब संज्ञा, पु० [फा०] १. सम्बन्ध २. योग्यबाढ़-संज्ञा, स्त्री० [सं० वाट] शाण, तलवार । लायक ३. द्वार, दरवाजा ४. परिच्छेद । आदि शस्त्रो की धार ।
उदा० १. तासों मिलबे को एहो कबि रघुनाथ
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बाबस
आजु भावतो करत सौज बाबकी ।
"
उदा० १. बोर्यो बंस बिरद मैं जत मेरे बार बार बार जानि ।
-
बाबस- - क्रि० वि० [सं० बल + वश, बाबस] बलात्, बलपूर्वक, जबरदस्ती । उदा० दे गए चित्त मैं सोच-विचार, सु लै गयेनींद छुधा बल बाबस । —देव बार - संज्ञा, पु० [सं० द्वार] १. २. कंघी ।
द्वार, दरवाजा
२. बार न कीन्ही पली ग्राह ते बारन बारन कीन्हीं । बारबधुटी - संज्ञा, स्त्री० [सं० ङ्गना, वैश्या ।
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( १६९
Į
बालक
ऐसो काम
- रघुनाथ
प्रा०
बौरी भइ बरबीर कोई पैठो - देव २. बारन बार सँवारि सिंगारत, मोतिन हार धरै तन गोरें । - मतिराम
-
बारकसी — संज्ञा, स्त्री० [फा० बारकसी] घोड़े का एक साज, २. भारवाहन; बोझ ढोना । उदा० सबही पर माहिर जटित जवाहिर होती जाहिर बारकसी । बारगाह- -संज्ञा, स्त्री० [फा०] २. ड्योढ़ी । उदा० किंकिनी की धुनि तैसी
पद्माकर
डेरा, खेमा, तंबू,
नूपुर निनाद सुनि सौतिन के बाढ़त विषाद बार गाह की ।
-उदयनाथ
बरना क्रि० स० [सं० बारण] १. मना करना, २ छुड़ाना, मुक्त करना, रोकना 1 उदा० १. वह सुनि हे ऐहै देहे गारि चारि नैकु नूपुरनि बारि नारि नंद के बगर मैं ।
-संज्ञा, पु० [सं०] हाथी का २२
-
श्रालम
भरि की हरि, बेनी प्रवीन बारवधू] बारा
-
-
उदा० त्यों न करे करतार उबारक ज्यों चितई वह बारबधूटी । - केशव बारलाक- - वि० [अ० बर्राक] उज्ज्वल, शुभ्र धवल, चमकीला, जगमगाता हुआ । उदा० ताग सो तपासो बारलाक सो लुकंजन सो छिद्र कैसो छन्द कहिबे को छलियतु है । बलभद्र मिश्र बाल - संज्ञा, पु० [सं० बालक] पोच वर्ष का हाथी का बच्चा । उदा० उरभि उरभि गिरि भाँख रहे भाखरनि, बेलिन में बाँधे सृग बाल बिड़ बावरनि । गंग बच्चा २.
-
)
बाहनि
मोथा वा जल पौधे ।
उदा० बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारे सब काल कठिन कराल त्यों अकाल दीह दुख को । - केशव
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२. लौंग फूल दल सेवट लेखौ । एल फूल दल बालक देखो | -केशव बाला - वि० [फा०] १. जो ऊपर की ओर हो, ऊँचा २ एक वर्णवृत्त ३. मार्या, पत्नी ४. हाथ में पहनने का कड़ा ५ देवी ६. स्त्री । उदा० १. संग सखी परबीन प्रति प्रेम सों लीन मनि ग्रामरन जोति छबि होति बालाहि ।
५. कोटिक पाप कटे बिकट,
आजु सुफल मानो जनमु लखि
-
वासवगीय संज्ञा [स०]धूटी नामक एक बरसाती कोड़ा |
7
-दास
सटके दुख अकुलाइ । बाला के
पाइ । - सोमनाथ
उदा० गोपसुता बन बासव गोप ज्यों, कारी घटानि फिरें भटभेरं । -देव
बाह - संज्ञा, पु० [सं०] अश्व, घोड़ा । उदा० कहूँ देत बाह के प्रवाह उदावत राम, कहूँ देत कुंजर धजानि धूरि धूसरे । -गंग बाहकी संज्ञा स्त्री० [सं० वाहक + ई (प्रत्य०)] कहारिन, पालकी ले जाने वाली स्त्री ।
3
उदा सजो बाहकी सखी सुहाई । लीन्ही शिविका कंध उठाई | रघुनाज बीसबिसे–क्रि० वि० [देश० ] बीसोविस्वा २. निश्चयपूर्वक उदा खेलिबोई हँसिबोई कहा सुख सों बसिबो बिसेबीस बिसारो । - देव बासा - संज्ञा, पु० [?] एक पक्षी । उदा० बासा को गर्ने न कछु जंग जुरै जुर्रन सों, बाजो-बाजी बेर बाजी बाजहू सौं ले रहे ।
-
-पद्माकर
बाहनि संज्ञा, पु० [सं० प्रवाह + हिं०
प्रवाह, धारा ।
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बाहना क्रि० स० [सं० वहन] फेंकना, चलाना, डालना छोड़ना, ढोना, लादना । उदा० बान सी बुंदन के चदरा बदरा बिरहीन पै बाहत श्रावें ।
-
- पद्माकर
न प्रत्य० ]
उदा० तकि मोरनि त्यों चख ढोर रहे, ढरि गौ हिय ढोरनि बाहनि की ।
-घनानन्द
-
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बाहिबो
(.
बाहिबो - क्रि० स० [सं० वहन ] चलाना । उदा० 'ग्वाल कवि' कठिन बिसाहिवी दुसह दुःख कोऊ कहै बाहिबौ कठिन श्रसि-मेह कौ ।
--ग्वाल
छिद्र, विल
बिउर - संज्ञा, पु० [सं० विवर] कुंड, कन्दरा |
१७०
उदा० उर सम शिला उदर कटि बिउर सम गाई ।
बिगचना- क्रि० प्र० [?] पछाड़ खाना । उदा० मोहन लखि यह सबनि ते है उदास दिन रात उमहत हँसति बकति डरति बिगचति बिलखि रिसाति । - रसलीन बिगूँचना - क्रि० स० [सं० विकुंचन ] दबोच लेना, धर दबाना | उदा० ले परनालो सिवा सरजा करनाटक लौं सब देस बिगूंचे । - भूषण बिगोना- क्रि०स [सं० विगोपन ] भ्रम में डालना, नष्ट करना, छिपाना ।
उदा० ताहि बिगोय सिवा सरजा भनि भूषन अल्लिफ तैं यों पछायो । -भूषण बिचरना क्रि० प्र० [सं० विचरण ] - श्राना, उत्पन्न होना । उदा० ग्वाल कवि कहैं इक और है अनोखों दुख ताहि कैसे भोग न विचार-विचारत हैं ! बिचौली -संज्ञा, स्त्री० [देश०] गले का एक
-ग्वाल
आभूषण ।
केहरि नाभि - बोधा
उदा० तिनके बीच बिचौली चमकै अरु छूटा छबि छाई । हरे पोत की गरे मटुकली चटकन बरनी जाई । —बकसी हंसराज बिजना— संज्ञा, पु० [सं० व्यजन] पंखा । उदा० बीजनों दुरावती सखीजन त्यों सीतहूँ मैं । देव पठयो लगे वा बिजना - बिहारी बिच] दूसरा,
भजे
हितकरि तुम की बाय । बिजा - वि० [सं० द्वि० हिं० दो ।
उदा० एक कों छोड़ि बिजा कौं कटौ उस लब्बर की । बिझाना - क्रि० स० [हिं० बेझना ] निशाना लगाना । उदा० श्याम सरोरुह सुन्दर गात बिलोकनि बान निसंग बिभावे । -चन्द्रशेखर बिझुकना - क्रि० प्र० [हिं० झाँका ] भयभीत
रसना सु गंग बेधना,
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>
होना, भड़काना, डरना ।
उदा० विष सों बिभूकि भूकि प्राय प्रान भूकि मूकि, व्याल मुख थूकि, कढ़े बाल कूकिकि के 1 - देव बिझुकी - नि० [हिं० विचकना ] तनी हुई, वक्र, टेढ़ी | उदा० नेह उर से नैन देखिबे को बिरुभे से बिझुकी सी भौंहें उनके से उरजात हैं । केशव बिठाना - वि० [सं० वेष्टित ] — वेष्टित, युक्त । उदा० तला तोयमाना भए सुख्ख माना । कलंगी बिठाना तिलंगी नठाना । -केशव बिड़ -- संज्ञा, पु० [सं० विट] चूहा मूस । उदा० उरभि उरभि गिरि भाँख रहे भाखरनि, बेलिन में बाँधे सृग बाल बिड़ बावरनि । गंग बितानना- क्रि० स० [सं० वितान] फैलाना, विस्तार करना ।
उदा० हियराहि में दुराइ गृह काजनि बितानती ।
बिदरैया
-दास
बिताना- क्रि० स० [सं० व्यतीत] समाप्त
करना, नष्ट करना २. घटना, पड़ना । उदा० १. दै जा दिखाई री के जा निहाल बितै जा बियोग चितंजा चितेजा । —ठाकुर बैठी सजि सुंदरि सहेलिनि समाज बीच बदन पे चारुता चिराक की बिते प्रतापसाहि रही ।
धनि धनि कहत दिगंतन के इस नेक, जाकी बकसीस दुख दारिद बितौत है । — ठाकुर विस्तार ] प्रसार,
बितार -संज्ञा, पु० [सं० फैलाव, विस्तार । उदा० तारन को अवतारन जाने हौ जू में । बितौना-क्रि० स० [सं० बढ़ाना, विस्तार करना । उदा० तिरछे चितौने सो लगी होने लगी तन की सी । बिदरैया - वि० [सं० विदीर्णं ! हि० अइया ( प्रत्य० ) ] विदीर्ण करने वाली, नष्ट करने वाली, विदारक ।
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लेत बितारन सेतुनि
- देव
वितान ] फैलाना,
बिनोदनि बितौने चटक चारु सोने - दास
उदा० दुरित दरैया बिदरैया बदराहन की जुलुम जरैया टेक जम की टरेया तू
-ग्वाल
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बिदु
बिदुश्रा - वि० [सं० विद्] चतुर, विद्वान उदा० बिंदुप्रा प्रवीन विद्या प्रकास । सो रहहि सदा अवनीस पास ।
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१७१
— बोधा बिदेह– संज्ञा, पु० [सं० बिदेह ] कामदेव, मन्मथ । उदा० देवजू बिदेह दाह देह दहकति आवै, आँचल-पटनि ओट आँच लपटन की । - देव स० [सं० वेधन] फँसाना,
बिधाना- क्रि० विधाना । उदा० बाहन बिधाये बांह जघन जघन मांह, कहै छोड़ो नाह नाहि गयो चाहे मुचिकै । —देव बिधूप - संज्ञा, पु० [सं० बधूक] बंधूक कुसुम, गुलदुपहरिया का पुष्प जो अत्यंत लाल होता है । उदा० सब गोपिन लाइक जो धूप | है अधरामृत निदरन बिंधूप ॥
- सोमनाथ विनष्ट
बिनठाना- -क्रि० स० [सं० विनष्ट ] करना, दूर करना । उदा० नागरि नारिनु की मनुहारि निहारिबो ग्वारिनु को बिनठायो ।
- देव
भर
बिनाना - क्रि० अ० [सं० विज्ञान] गर्व से जाना, अनजान होना । उदा० साथी महाहय, हाथी, भुजंग, बछा, वृष, मातुल मारि बिनाने। ... देव बिपच्छ-संज्ञा, पु० [सं० विपक्ष ] शत्रु, दुश्मन | उदा० कच्छी कछवाह के विपच्छ के बच्छ पर पच्छिन छलत उच्च उच्छलत अच्छे हैं ।
—पद्माकर
बिपट - वि० [हिं० बे+सं० पट ] बिना वस्त्र के, लज्जाहीन, मर्यादा रहित । उदा० पटकत मटुकी झटकि झटकत पट, बिपट छटकि छूटो लट सुलटकि कै
बिपोहना- क्रि० प्र० [ ? ] नष्ट
डालना ।
उदा० ज्योति जगे यमुना सी लगे लालित पाप बिपोहै ।
श्रालम
[सं० प्रपल-पलक ] निर्निमेष, उदा० पल पल पूंछत बिपल दृग मृगनैनी आये न कमल नैन लाई धौं अलपरी ।
बिपल - वि० एकटक ।
—देव करना, छेद
जग लोचन —केशव
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बिरकत
विप्लवन] विद्रोह
बिफरना - क्रि० अ० [सं० करना, उपद्रव करना २. नाराज होना, बिगड़ जाना ।
उदा० सम्हरि उठत घनप्राँनद मनोज-ओज, बिफरत बावरें न लाजनि घिरत हैं ।
-घनानन्द
बिबगति – संज्ञा, स्त्री० [देश०] दशा, हाल । उदा० ती लगि एक सखी उठि बोली सुनु री कुँवरि किसोरी । कहत न बनत सुनत काहू सों अपगति बिबगति मोरी ।
- बकसी हंसराज बिबसन - वि० [सं० वि + वस्त्र] बिवस्त्र, बिना वस्त्र के नग्न ।
उदा० बिबसन बृज बनितान की मृदु काय । चीर चोरि सु रहे मुसक्याय ।
लखि मोहन कदंब पै कछुक
—पद्माकर
बिबि वि० [सं० द्वि०] दो, द्वि उदा० सुफल मनोरथ ह्ल सुफल सुत रथ हाँक मथुरा के पथ साथ बिबि वीर लँ । —देव बिबूचन संज्ञा, पु० [सं० विवेचन ? हिं० बिगूचन] संकट, कठिनाई, दिक्कत । उदा० ना बित्तहि तूं तृनवर गर्ने । बहुत बिबूचे तोंसे घने । -केशव बिभात संज्ञा, पु० [सं० विभात ] प्रभात, सुबह । उदा० जाने न बिभात भयों केसव सुन को बात, देखौ श्रानि गात जात भयो किधौं असु है । केशव
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विभ्रम-संज्ञा, पु० [सं० बिभ्रम ] जल का श्रावत्त', चक्कर २. भ्रांति, धोखा । उदा० केसवदास जिहाज मनोरथ; संभ्रम बिभ्रम भूरि भरे भय । केशव बिमनेन वि [सं० विमनस्क ] उदासीन, व्यथित । उदा० हौ मनमोहन मोहे कहूँ न बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम । बिमुद वि० [सं० वि + मुद] मोदरहित, श्रानन्द रहित ।
—घनानन्द
—पद्माकर
उदा० बिमुद कुमुद लौं ह्व' रही चंद मंद दुति देखि । बियो - वि० [सं० द्वि०] दूसरा । उदा० भारद्वाज बसें जहाँ जिनते न बियो ।
पावन है - केशव
बिरकत - वि० [सं० विरक्त ] विरक्त, उदासीन । उदा० अनहित तें बिरकत रहत कछू दोस के
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बिरचौहैं ( १७२ )
बिसाति बास । बिहित करत सु न हित समुझि | उदा० वा मनमोहन को वह मोहन सोहन सुन्दर सिसुवत जे हरिदास ।
- पद्माकर रूप बिरोधो ।
-देव बिरचौहैं-वि० [सं० विरचन] १. विशेष प्रेम- बिरोषि क्रि० वि० [सं० वि+रोष] विशेष मय, अनुरागमय २. उदास, खिन्न ।
रोष पूर्वक । उदा० १. बारिज बदनि बिरचौहैं बैन बानी / उदा० अालम देह सदेह वियोग बिरोषि दल सुख वाकी, बिपनु बचन सुनि विरचि रहति
सम्पति लूटै।
-पालम -आलम बिर्यो-सर्व० [सं० विरला] विरला, कोई । २. घोर घनै गरज घन ये ससिनाथ हिये उदा० सुपूत के होत सुपूत बिर्यो इमि होइ बिरचावन लागे । __ ---- सोमनाथ सुपूत सपूत के ऐसौ ।
-केशव बिरज--बि० [सं० विरज] धूलरहित, स्वच्छ बिलेस--पति- संज्ञा, पु० [सं० बिल+ईशसाफ ।
सर्प+पति - शेषनाग] शेषनाग । उदा० कंस महाराज को रजकु, राजमारग मैं । उदा० सूरज बिलानो, बिलबिलानो बिलेस पति अम्बर बिरज लीने रंग रंग गहिरे ।
कूरम किलबिलानो कूरम के गौन ते । - -देव
-गंग बिरतंतना-क्रि० अ० [हिं० बिरमना] १. बिर- बिलोक-संज्ञा, पु० [सं० द्विलोक] दूसरा लोक,
मना, ठहरना, रुकना २. वृत्तांत [संज्ञा, पु.] ।। सुरलोक । उदा० घर कंत नहीं बिरतंत भटू अबकै धौं । उदा० कौन गनै यहि लोक तरीन बिलोक___बसन्त कहा करिहै ।
---बोधा बिलोकि जहाजन बोरै।
-केशव बिरत्थ -वि० [सं० व्यथ] व्यर्थ, बेकार ।
ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यों मिल्यो बिलोक । उदा० पै ए दोऊ बात निह पाहि बिरत्थ हैं।
-केशव ___ नव जोबन गुन गात, प्रतिपल मनमथ | बिसंकुर - संज्ञा, पु० [?] खंजन पक्षी। बाढ़ई ।
-सोमनाथ उदा० बिसद बिसंक ह्रबिसंकुर चरत । -देव बिरम-संज्ञा, पु० [सं० विलंब] विलंब, देर । बिषधर-संज्ञा०, पु० [सं०.विषधर] १. शंकर उदा० हा हा हा फिर हा हा सुखनिधि बिरम न । २. सर्प। जात सहयो।
- घनानन्द Jउदा० १. विषधर बंधु हैं, अनाथिनि को प्रतिबंधु बिराव--संज्ञा, पु० [सं० बिराव] शब्द, बोली, । विष को विशेष बंधु हिये हहरत हैं। कलरव ।
--केशव उदा० कान परी कोकिला की काकलिनु कलित, बिसनी-संज्ञा, स्त्री० [?] कमलिनी। कलापिन की कूके कल कोपल बिराव की । उदा० क्यों जिये कैसी करौं बहरयी विष सी
-देव
बिसनी बिसवासिनी फूली। -केशव मोर करै सोर, गान कोकिल विराब के। । बिसबल्लरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० विसवल्सरी]
--सेनापति कमल की लता। बिराह-वि० [फा० बे+राह कायदा] उदा० कर कंजनि पल्लवनि भुज बिसबल्लरी बेकायदा, बेढंगी, अंडबंड।
सुपास । रत्न तारका कुसुम सर नख रुचि उदा० तेगबरदार स्याह पंखाबरदार स्याह
केसवदास ।
-केशव निखिल नकीब स्याह बोलत बिराह को । बिसबीस-वि० [हिं० बीसोबिस्वा] बीसोबिस्वा,
--भूषण ___ सम्पूर्ण । बिरोचन-संज्ञा, पु० [सं० विरोचन] १. सूर्य, उदा. 'दास' लला की निछावरि बोलि जु मांगे २. अग्नि , ३. प्रकाश ।
सु पाइ रहे बिसबीसनि ।।
-दास उदा. लोचन बिलोल यो बिरोचन उए हैं कौल बिसरु-संज्ञा, पु० [सं० बिशर] बध, कत्ल । अठिलात बोलि अंकमालिका लगावहीं ।। उदा०करि बह बिसरु सत्रु कै जाय। जुद्ध काल
-भूषण भागे महराय ।
-केशव बिरोधना-क्रि० सं० [सं० वि+रोधन] विशेष | बिसाति-- संज्ञा, स्त्री० [अ० बिसात] १. पूंजी, रूप से अटकाना, फसाना, रोकना।
। धन, वित्त २. आधार, वह वस्त्र जिस पर
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बिसाना
बीर __ शतरंज खेला जाता है।
बिहायस-संज्ञा, पु० [सं० विहायस्] अाकाश, उदा० १. लीनी जब अंक में निसंक परजंक पर, नभ । अकलंक पाई जानि सुख की बिसाति है। उदा० भनत दिवाकर कमल से अमल अति देखि
-सोमनाथ
दुति बिधुने बिहायस मैं मूरी है। साँझ कैसो चंद मोर को सो अरविंद
-दिवाकर स्वाति बिंदु कैसो बादर बिसाति बसुधा | बीच पारना-क्रि० सं० [हिं० बीच = अन्तर+ ही की।
- देव पारना-डालना] मुहा० विभेदकरना, अन्तर २. सोभा की घिसाति चीरै धरत बहुत ___ डालना, परिवर्तन करना ।। भाँति चतुर है मुख गनि गनि डग धारी: उदा० जाके बड़े नयन में समाने मेरे नैन तासों
--सेनापति
बीच पार दीन्हों कैसे धीर गहियतु हैं । बिसाना-- क्रि० प्र. [सं. विष+हिं. ना
--बोधा (प्रत्य॰)] १. बिष का प्रभाव करना, विषाक्त बीछना -क्रि० स० [सं. विचयन] १. चुनना, करना। २. मुहा० बिसाना=सिर पर प्रा - पसन्द करके छाँठना । पड़ना, फट पड़ना।
उदा० होरी के दिवस कहें गोरी राधिका को उदा० १. धौंसही पढ़ाई परचो सो सुधि आई
देखि कान्ह जिय मांझ यों विचारयो बुद्धि कछु और न बिसानों प्रगटे ते कोप टटके ।
बीछेतै ।
-चिरजीवी -रघुनाथ बीजु-संज्ञा, स्त्री० [सं० विद्यत] बिजली । २. गंसी गाँसी नेह की बिसानी झर मेह उदा० बीजु, बिंब, लीने सब ही को मन बंधु है की रही न सुधि तेह की न देह की न गेह
-आलम की।
-दास बींदना-क्रि० सं० [सं० विद्] जानना, अनुमान बिसासी ---वि० [सं० अविश्वासी] कपटी, छली, करना । विश्वासघाती, जिस पर विश्वास न किया उदा० झुकि झुकि झपकौंहें पलनि फिरि फिरि जाय।
जुरि जमूहाय । बीदि पियागम नींद मिस उदा० (क) कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन
दीं सब सखी उठाय।।
–बिहारी में असुवानहि लै बरसी। -- घनानन्द बीधना-क्रि० प्र० [बु०1 उलझना, फंसना ।। (स) देव दुखहासी निशि काशी करवट उदा० बीधे मों सों ान कै, गीधे गीहि तारि । सेज बासर विसासी परवत पेलियत है।।
- बिहारी -देव
ससकत सांस भर बीधे बहु फाँसै मरें। बि सूरना-क्रि० अ० [सं. विसूरण] चिता करना
- पद्माकर दुखमानना, फिक्रकरना, सोचना ।
बीधि-संज्ञा, स्त्री० [सं० विधि] अवसर, मौका, उदा० झरसि गई धौ कहूँ काहु की बियोग झार २. रीति, विधि । बार-बार बिकल बिसूरति जही तही ।
उदा० ब्याह की बीधि बुलाये गये सब, लोगन -द्विजदेव लागि गये दिन दूने ।
-- देव बिसोक-संज्ञा, पु० [?] बाण ।
बीधी--वि० [सं० विद्ध] फंसी हुई, बद्ध । उदा० बायु बहेगी सुगंध मुबारक लागिहै नैन । उदा० बीधी बात बातन, समीधी गात गातन, बिसोक सो आय के।
-मुबारक
उबीधी परजंक में निसंक अंक हितई । बिसोहैं-वि० [सं० विषाक्त] जहरीले, विष के
-देव प्रभाव वाले, विषाक्त ।।
बीर- संज्ञा, स्त्री० [ब्र०] १. कान का एक भूषण, उदा० आज बादर बिसोहैं बरसोहैं सों बिसोहैं ये । ढार २. सखी, सहेली।
-पजनेस उदा० १. भांजे नैन खाये पान हीरा जरी बीरें बिहराना-क्रि० अ० [सं० विघटन] फटना, कान ।
-पालम विदीर्ण होना।
२. एरी मेरी बीर जैसे तैसे इन प्रांखिन सों उदा० दल के दरारन तें कमठ करारे फटे. केरा
कढ़ि गो अबीर पै अहीर को कढ़ नहीं । के से पात बिहराने फन सेस के।-भूषण
-पद्माकर
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बैकुंठ
बोरनारी
( १७४ ) बोरनारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० बारबधूटो] एक बेझा-संज्ञा, पु० [सं० वेध्य लक्ष्य शिकार प्रकार का बरसाती लाल कीड़ा, बीरबधूटी। निशाना । उदा० रङ्ग पाल भूषण विभूषित अरुण जीते उदा० पालम, सुकबि प्राई बातनि रिझाय मनु, पदुम-पवारी बीरनारी के बरण हैं।
मुरझानो मोहन मुरी है बेझा मारि सी । -रंगपाल
-आलम बुंदी-संज्ञा, स्त्री० [सं० बुंद] एक प्रकार का | बेट-वि० [देश॰] व्यर्थ, बेकार । मिष्ठान, बुंदिया।
उदा० पेट के बेट बेगारहि में जब लौं जियना तब उदा. बतराते बँदी बतासा हँसते बरफी रंच
ली सियना है।
-पद्माकर रुखाई की।
-बोधा बेड़िनी-संज्ञा, स्त्री॰ [?] नट जाति की स्त्रियां बुटंती-वि० [हिं० बूटना] दौड़वाली।
जो नाचने गाने का काम करती हैं। उदा० भली भाँति के अस्व एकै भुटती। उदा० कहूँ लोलिनी बेड़िनी गीत गावै ।। फबै फाल में चाल चल्नै बुटती।
--केशव -पद्माकर बेबहा-वि० [बं०] अत्यधिक, प्रचुर ।। बुवरिया-संज्ञा, स्त्री० [बु 1 पतली छड़ी।
उदा० भूमि हरी भई गैल गई मिटि नीर प्रवाह उदा. अपने हाथ न लिये बुदरिया अति सुन्दर
बहा बेबहा।
-ठाकुर सटकारी ।
--बकसी हंसराज बेर-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] वापी, छोटा जलाशय, बूक - संज्ञा, स्त्री० [देश॰] मूठी, मुठ्ठीभर पिसी बावली । हुई वस्तु ।
उदा० बन, गिरि, बेरनि करेरे दुख कैसे करि उदा० दादुर को हक घाय करत अचकै उर,
कोवरे कुमार सुकुमार मेरे सहि हैं । कोकिला की कूक तापै बूक देती लोन की।
- पालम -'हजारा से बेह-संज्ञा, पु० [सं० वेध] छेद, छिद्र । बकना-क्रि स० [देश॰]१. प्रलाप करना, बताना उदा० हौं तो बलि बेसरि के बेह बेधिमारी हो । २. विस्मृत [वि०, प्रा० बुक्क] ।
-पालम उदा० १. कौतुक विलोकन सरोवर सरवीन संग बेहड़-संज्ञा, पु० [सं० विकट,] जंगल, अरण्य जात बिन बूके परमात परखति है।
विकट ऊबड़, खाबड़ ।
-प्रताप साहि उदा० बेहड़ काटत चल्यौ सुमाउ । रहयौ, पानि बूटना-क्रि० प्र० [देश॰] चले जाना, प्रस्थान
खम्हरौली गाँउ।।
-केशव करना।
बेला-संज्ञा, पु० [सं०] कटोरा। उदा० माया के बाजने बाजि गए, परभात ही उदा० बेला बेली लुटै तमहड़ी लुटिया झारी । भातखवा उठिं बूटे ।
---देव बटा - संज्ञा, पु० [सं० विटप] छोटा वृक्ष २. चने बेलि--संज्ञा, स्त्री० [सं० बेला] इत्र आदि रखने का हरा पोधा ३. चने का हरा दाना।
का पात्र, बेला, चमड़े की एक प्रकार की छोटी उदा० १. पै कहि पी हैं कहा सठ तही, बई _कुल्हिया जिससे तेल दूसरे पात्र में भरा जाता
उर मेरे बिसास को बंट। --द्विजदेव है। २. कटोरी।। बढ--संज्ञा, स्त्री० [देश॰] बीरबहूटी, एक प्रकार , उदा. पाछी-तिलौनी लसे अंगिया गसि चोवा की का बरसाती लाल कीड़ा।
बेलि बिराजति लोइन । ---घनानन्द उदा० रसके से रुख ससिसुखी, हँसि हँसि
२. बेला बेली लुटै तमहड़ी लुटिया झारी । बोलति बैन । गूढ़ मान मन क्यों रहै, भये
-सूदन बूढ़ रंग नैन ।
-बिहारी | बै--संज्ञा, पु० [हिं० बया] बया पक्षी। बृदा-संज्ञा, स्त्री० [सं० वृन्दा] १. राधिका का उदा० सामाँ सेन, सयान को सबै साहि के साथ । एक नाम २. तुलसी।
बाहुबली जयसाहित, फते तिहारै हाथ ।। उदा० चंद्र मल्ली-पुंज की नव कुंज बिहरत पाय,
-बिहारी जहाँ बृन्दा अति भली बिधि रची बनक बैकुंठ-संज्ञा, पु० [सं० वैकुंठ] विष्णु, रामचन्द्र । बनाय ।
- घनानन्द । उदा० अब सकल दान दे पूजि बिप्र ।
-सूदन
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बैट
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( १७५
पुनि करहु बिजे बैकुंठ चित्र |
केशव
बैट -संज्ञा, स्त्री० [?] पंक्ति, कतार, समूह | उदा० कोटि फोरि, फौज फोरि, सलिता समूह फोरि हाथिन की बैट फोरि, कटक बिकट - केशव
राज्य की ओर
बर ।
बैठक -- संज्ञा, स्त्री० [?] जागीर, से प्राप्त भूमि या प्रदेश । उदा० बीर सिंघ को वृत्ति के बैठक दई बड़ौन ।
-- केशव बड़ौन - बैठकै लई जलाल साहि की मही । --केशव बैठक, गोष्ठी
[हिं० बैठक ]
बैठें - संज्ञा, स्त्री० मण्डली, समाज । उदा० राजन की राज रानी डोली फिर बन बन, नेठन की बैठें बैठे भरें बेटी-बहू जू ।
गंग बैंड़ा - वि० [हिं० बेड़ा ] कठिन टेढ़ा, तिरछा । पैंड़ों सम सूधो बैंड़ो कठिन किंबार द्वार, द्वारपाल नहीं तहाँ सबल भगति है ।
उदा०
- श्रालम
बेन संज्ञा, पु० [सं० बदन, प्रा० बयन ] मुख, बदन २. वाणी ।
उदा० १. जद्यपि बिहारी और मंदिरतें आए मोर उरज की छाप उर और छवि पावहीं। तद्यपि सुचैन वाहि प्रीतम को बैन चाहि सुधा सों लपेटे बैन श्रावत सुभावही बेनु बैन तज्यो उनि, बेन तें बोलौ न । - भूषरण बोल बिलोकत बुद्धि भगी है । -- केशव बैन सिकासी संज्ञा, पु० [फा० शिकस्तः जबां, हिं० बैन == वाणी + फा० शिकस्त = खंडित, भग्न ] |
१. खंडित वाणी ।
२. टूटी फूटी वाणी बोलने वाला, तुतला, अटक अटक कर बोलने वाला ।
उदा० नैन मिले मन को मिलवे पे मिले न कबौं करि बैन सिकासी । - तोष बेयर – संज्ञा, स्त्री [सं० बधूवर, प्रा बहुधर] १. स्त्री, बधू २. सखी ।
उदा० १. बैयर बगारन की श्ररि के श्रगारनि की लांघती पगारनि नगारन की घमकै ।
२. सब्द सत्य न लियो कबिन्ह न प्रयुक्त सो ठाउ । करै न बैयर हरिहि भी, कैंदरप के
सर घाउ
- दास
>
बोहनी
बैरख – संज्ञा, स्त्री० [?] १. यश, कीर्ति २. ध्वजा [तु० बैरक ] |
उदा० १. काल गहें कर डोलत मोहिं कछू इक बैरख सी कर पाऊँ । गंग
बैरागर - संज्ञा, स्त्री० [?] खानि, राशि | उदा० गुरणमरिण बैरागर, धीरज को सागर । - केशव बैलती - संज्ञा, स्त्री० [हिं० ओोलती ] श्रोरी, श्रीलती । किनि बरसौ ये बरुनी
उदा० श्रानंदघन कितहूँ वैलतियाँ |
बैसंदर – संज्ञा, स्त्री० [ सं आग, अग्नि ।
उदा० वादिन बैसुंदर चहूँ,
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बन में लगी प्रचान । जीवत क्यों बृज बाचतो जौ ना पीवत
कान ।
—दास
बोइन -संज्ञा, स्त्री० [फा० बू] सुगन्ध-प्रवाह | उदा० भीतर भारे भंडार निजे भरि, मीज सुगंध की बोइन हो मैं । - देव
बोक - संज्ञा, पु० [हिं० बकरा ] बकरा, उदा० देवी के बोक लौं लोक लडात, हरा सिर नारि कटैगी । बोजागर - संज्ञा, पु० [फा० बोजः = शराब + गर - प्रत्य० ] चावल से बनी हुई शराब बेचने
वाला ।
- घनानन्द
वैश्वानर ] वैश्वानर,
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अज । पै डारि — देव
उदा० बोजागरनि बजार में, खेलत बाजी प्रेम देखत वाको रस रसन, तजत नैन व्रत नेम | -रहीम बोडर — संज्ञा, स्त्री० [सं० वोण्ट ] टहनी, पेड़ की डाल ।
उदा फूलो फली भली आली काहू सुरबाटिका की मानो बाल बोडर में बेलि परि रही है ।
- बेनी प्रवीन
बोह - संज्ञा पु० [हिं० बोझ] १. बोझ, मार २. डुबकी, गोत [हिं० बोर] ३. जागृत, उबुद्ध [ सं . बोध ]
उदा० १ हार छुट्यो पेन्हिबो प्रहार छोड़यो पान चित्रसारी को बिहार छोड़ यो बिरह के बोहते । रघुनाथ बोहनी - संज्ञा, स्त्री० [सं० बोधन- जगाना ] - जगाने वाली, उबुद्ध करने वाली । उदा० बाग में बिलोंकी अनुराग की सी बोहनी, सु सोहनी, सुधर, मन मोहनी मलिनियां । - देव
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बौंडी
भभूक ग्वाल कबि याते मुख मुख मांहि मुख है । कौं ।
--सेनापति जू, सो मुख सों सोई अति प्रानंद की ब्योरना-क्रि० स० [सं. बिवरण ] निर्णय बोहिनी ।
-ग्वाल करना, निपटारा करना, फैसला देना, सुलबौंडी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बौंड़ ] पौधों या झाना । लताओं के कच्चे फल, टेंडी, ढोंड़. अंगूर | उदा० बिन बिबेक गुन-दोष, मूढ़ कवि ब्यौरि न का रस ।
बोलै ।
-घनानन्द उदा० २. अंजन सौं रँगी ते निरंजनहि जाने ब्यौंत--संज्ञा, स्त्री० [सं० व्यवस्था] १. घात,
कहा, फीको लागै फूल रस चाखत ही दाँव २ ढब, उपाय, तरोका, व्यवस्था । बौंड़ी को ।
-देव उदा० १. माँगन को मोती भूमि रहयो दसनन बौनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० वपन] १. बोने वाली पर, अधर मधुर रस ब्यौंत ज्यों गहत है । २. बावन अंगुल की स्त्री, छोटे कद वाली।
--गंग उदा. इंदिर अगौनी इंदु इंदीबर बौनी, महा
प्यो मुख सामुहँ राखिबे को सखियां, सुंदरि सलौनी गज गौनी गुजरात की।
अंखियान को ब्योंत बिताने ।
-दास -देव
२. दास निसा लौं निसा करिये दिन बूड़त व्यंजन-संज्ञा, स्त्री० [सं०] तरकारी, सब्जी।
ब्योंत हजार करौंगी।
-दास उदा० षट भांति पहीत बनाय सँची, पुनि पांच | ब्वै- वि. [हिं० बिय, सं० द्वि०] दो। । सो ब्यंजन रीति रची।
-केशव उदा० सोने की एक लता तुलसी बन क्यौ बरणों ब्याज-संज्ञा, पु० [सं० व्याज] १. छल, कपट
सुन बुद्धि सकै छुवै। केसवदास मनोज २. सूद ३. बिलंब ।।
मन हर ताहि फ़ले फल श्री फल से ब्वै । उदा० १. सुनु महाजन चोरी होति चारि चरन
--केशव की तात' सेनापति कहे तजि करि ब्याज ।
भ
भजाना-क्रि० स० [सं० भंजन] १. आदान
-बिहारी प्रदान करना, विनिमय करना, खरीदना, लब्ध भटा-संज्ञा, पु० [हिं० भंटा] बैंगन, भाँटा । करना, प्राप्त करना, ग्रहण करना २. बड़ा उदा० मालती फूलन को मधुपान कै, होंइगे मत्त सिक्का देकर उतने ही मूल्य का छोटा-छोटा
मलिंद भटा पर ।
-बेनीप्रवीन सिक्का प्राप्त करना, भुनाना ।
भटियारी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भटियारा भटियाउदा० १. साँझ ही तौ सखिन समेटि करि बैठी रपन, भटियारों की तरह गाली गलौज करना
कहा, भेट करि पी सों परि पैठ सी और लड़ना । अंजाइ लै।
-- पद्माकर उदा० लों भटियारी करै हटियारी, बोलावे भगर -संज्ञा, पु०[देश॰]१. कबड्डी का खेल ।
बटोही रहैमन रूठे।
--देव उदा. भगर के खेल क्यों सुभट पद पावहीं । भटू संज्ञा, स्त्री० [सं० वधू] सखी, स्त्रियों के
- केशव सम्बोधन के लिए एक सम्मान सूचक शब्द । भगल-संज्ञा पु० [हिं० भगवा] भगवा, वस्त्र । उदा० भेटती मोहि भट्र किहि कारन कौन की उदा० छाँड़यो सुख भोग, मान खांड़ यो गुरु
धौं छबि सों छकती हौ ।
-देव लोगेनि को, माड़ यो हम जोग, या वियोग भभरना--क्रि० अ० [हिं० भय] भयभीत होना, के मगल मैं ।
.-- देव । घबरा जाना, व्याकुल होना । भटभेरा संज्ञा, पु० [हिं० भट+भिड़ना] १. | उदा० धरकि धरकि हिय होल सो भमरि जात ।
आमने-सामने का मिलन, संयोग २. भिड़त ।। उदा० १. गली अँधेरी साँकरी भो भटभेरो आनि भभूक--संज्ञा, पु० [हिं० भमक] ज्वाला, भभूका,
- ग्वाल
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भमुना ( १७७ )
भाकसी प्राग की लपट ।
उदा० होत भरभेरौ तौ लुगाइन की कूक मली, उदा० मानो सनक्षत्र शिशुमार चन्द्र कुंडली में पिचकी अचूकें चलें दूक लूम लूम के । संकरषन अनल भभूक महराति हैं।
-ग्वाल -पजनेश भलुकिया-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भाला] भाला, भमुना-वि० [सं० भ्रम+न] भ्रमरहित निस्- छोटी बरछी। संदेह ।
उदा० अनियारी अंखियन की भारी घालि भलुउदा. ग्वाल कवि सुखद प्रतीति भरी रीति भरी किया मारी।
-बकसी हंसराज परमपुनीत भरी मीतभरी भमुना ।
भलेजे-संज्ञा, पु० [हिं० भाला] भाले की मार,
-ग्वाल चोट । भरका-संज्ञा, पु० [देश॰] भरका मिट्टी जिसमें उदा० पाये जमदूत मिले पारषद बीचोबीच अधिक दरारें पड़ जाती हैं ।
खींचे खीच होत, जुद्ध जमिगे भलेजें होत । उदा० लजि चली सिताब छिन न बिता जनु
-ग्वाल महिताब ललित लसै । छपि छपि अरकन भल्लर-वि० [देश॰] भद्दा, खराब। में खपि खरकन में भ्रमि भरकन में जाइ उदा० क्या भल्लै टुक गल्ल सुनि, भल्लर.भल्लर धंसे ।
-पद्माकर भाइ ।
-दास भरक्यो-वि० [हिं० भड़कीला] भड़कीला, जो भवीली-वि० [हिं० भाव+ईली (प्रत्य०) ] देखने में अच्छा हो, चमकदार ।
भावपूर्ण, २. बांकी-तिरछी । उदा० पौन कौ ना गौन होय, भरक्यौ सु मौन उदा० पापुस में मिल बैठी सौंत रघुनाथ जहाँ होय ।
-ग्वाल
तहाँ आनि रची बाजी चौपरि भवीली की। भरना-क्रि० स० [देश॰] बिताना, व्यतीत
-रघुनाथ करना, काटना, गुजारा करना।
भसमी-संज्ञा, पु० [सं०, भस्मक] भस्मक नाम उदा० हौं ही भरौं इकली, कहीं कौन सों, जा का एक रोग जिसमें रोगी को कभी भोजन की विधि होत है साँझ सबारो।
तृप्ति नहीं होती।
-घनानन्द उदा० भसमी विथा में नित लंघन करति है। नैहर जनम भरब बरु जाई। -तुलसी
-घनानन्द भरभ्रमर-संज्ञा, स्त्री० [?] अत्यधिक मारकाट भाई-वि० [?] सुडौल, खराद पर से उतारी उदा० अध अधर चब्वत नहीं दब्बत फूलि फब्बत
समर में । कौंचनि उमैठत हरषि पैठत उदा. भाई ऐसी ग्रीव-भुज, पान सो उदर अरु, लोह की भरभ्रमर में।
-पद्माकर
पंकज से पाइ गति हंस की सी जासु । भरसना-क्रि० स० [अनु० भरराना] छोड़ना,
-केशव गिराना।
भांति-संज्ञा, स्त्री० [सं० भेद] १. रीति ढंग, उदा० तोपै प्रौनि संबर को कठिन कराल मानौ, २. ऐश्वर्य, सम्पदा । रुद्र नैन ज्वालनि के जाल मरसत हैं।
उदा० सेनापति प्रभु प्यारी तु तो है अनप नारी
-चन्द्रशेखर तेरी उपमा की भाँति जात न बिचारी है। भराई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भाड़] भाड़पन,
-सेनापति भड़ती, भड़ग।
२. करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति उदा. रैहे भराई न राई भरी कोई भौंह चढ़ाय
मुसकाति । कही कथा सब प्रादि तें चितहै सरोसे ।
देव
किमि दीन्हीं यह भाँति ।। भरुनाना-क्रि० प्र० [हिं० भार] भारी होना,
-नरोत्तमदास वजनदार होना।
भाइक-क्रि० वि० [हिं० भावक] थोड़ा, किंचित उदा० भावकु उभरीहौं भयो, कछुक पर्यो जरा सा । मरुप्राइ।
-बिहारी उदा० छूटत है मनि-मानिक से गुन, टूटत भाइक भरभेरा-संज्ञा, पु० [हिं० भर+मेंटना] मुठ
भौंह अमैठे।
-देव भेड़, मुकाबला, सामना ।
भाकसी-संज्ञा, स्त्री० [सं० भस्त्रा] भट्टी, भड़२३
लोह की भसः [अनु॰
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भाग ( १७८ )
भावन सांय, भाड़ जिसमें दाना प्रादि भूना जाता है।
पायनि राजीव नैन भानु सोम-रत है। उदा० सूल से फूल सुबास कुबास सी, भाकसी
-गंग से भये मौन सभागे।।
-केशव | भामा-संज्ञा, स्त्री० [सं०] क्रोधवती स्त्री । भाग-संज्ञा, पु० [सं० भाग्या मस्तक, माथा । उदा० बामा भामा, कामिनी कहि बोलौ, प्रानेस। उदा० १. कछु न सुहात अनखाति अति पान
प्यारी कहत खिसात नहिं पावस चलत खाति आरसी न देखति न देति बेंदी
विदेस।
-बिहारी भाग में।
-रघुनाथ | भामै-वि० [सं० भा=प्रकाश+मै=मय] भाजी-संज्ञा, पु० [देश॰] विवाह आदि उत्सव प्रकाश युक्त, आमा सहित । में जो मिष्ठान बांटा जाता है, उसे भाजी कहा उदा० कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग जाता है।
माना भामै मोरही, रहै घटा के संग । उदा. गेह चिनाय करूं गहना कछु, ब्याही सुता
-रहीम सुत बाँटिये भाजी।
-भूधर दास भारगव-संज्ञा, पु० [सं० भार्गव] शुक्र, शुक्रभाडेत्या-संज्ञा, पु० [हिं० भाड़ा] भाड़ा या तारा। किराये पर लेने वाले।
उदा० कालीज के कज्जल की, ललित, लूनाई. उदा० येक दिनां तब ऐसो भयौ भाडेत्याँ भाडे सोतो सारे नम संडल में भारगव चन्द्रमा । मौ लयौ। -जसवंतसिंह
-पदमाकर भानना-क्रि० स० [सं० मंजन] बेधना, चुभाना भारत-संज्ञा, पु० [सं.] वृत्तांत, लम्बी कथा । २. भंजन करना, नष्ट करना ।
उदा० गोकल के कुल के गली के गोप गाउन के . उदा० प्यारी को, अनंग अंग बानन सों भानो है।
जौ लगि कछू को कछू भारत भने नहीं। -दूलह
-पद्माकर भानमती-संज्ञा, स्त्री० [सं० भानुमती] जादू- भारथ-संज्ञा, पु० [हिं० भरत] १. भरत पक्षी, गरनी।
२. लड़ाई। उदा० कामरु कामिनि काम कला जग-मोहनि उदा० १. भारथ अकर करतूतिन निहारि लही, भामिनि भानमती है।।
यातें घनस्याम लाल तोते बाज आए री। -देव
-दास । भानवी-संज्ञा, स्त्री० [सं० भानु] भानु से भाल--संज्ञा, पु० [सं० भल्ल] १. बाण का 'उत्पन्न, दिव्यनारी।
फल, २. माथा। उदा. देवी कोउ मानवी न दानवी न होइ ऐसी, | उदा० १. घन से सघन स्याम केस बेस भामिनी भानवी न हाव-भाव भारती पढ़ाई है।
के, ब्यालिनी सी बेनी भाल ऐसो एक भाल -केशव ही।
-दास भाना-संज्ञा, पु० [सं० माना भान. सुर्य ।
भावक-क्रि० वि० [सं० भाव] थोड़ा, किंचित उदा० कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग २. भावपूर्ण। भाना भामै भोरही, रहै घटा के संग ।
उदा० भावक उभरौहौं भयो कछुक परयो मरु --रहीम
प्राय । सीपहरा के मिस हियो निसि दिन भानु सुत-संज्ञा, पु० [सं.] शनि नामक ग्रह
देखत जाय।
-बिहारी जिसका रंग श्याम माना गया है।
भाववी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भावती] १. प्रिया, उदा० बंदन डिठौना दै दुरायोमुख घुघुट मैं, | नायिका २. अच्छी लगने वाली।
झीनी स्याम सारी त्यौं किनारी चहुं फेर । उदा० १. शुक सों कह्यो बिप्र प्रकलाई। मोहिमैं । भूमिसुत भानुसुत जुत सोभमान मानौ,
भावदी की सुधि आई।
-बोधा झलक मयंक घन दामिनि के घेर मैं ।।
२. बल्लभा बाल प्रिया बनिता मनभावदी __ -बेनीप्रवीन बाम हितू गजगौनी।
-बोधा भानु-सोम-रत=संज्ञा, पु० [सं० भानु-शोभा | भावन-संज्ञा, पु० [हिं० भावना] नायक, पति, रत] सूर्य की शोभा में तल्लीन, कमल ।
प्रियतम । उदा० जीते गजराज गति राजत न राजहंस, ' उदा० मोहन की मनि में अपनों प्रतिबिंब निहारत
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भावार ( १७६ )
भूभुज रोस में दागी । जानि के और तिया हिय । भुजमूल---संज्ञा, पु० [सं०] पखौरा, खए। मैं झुकि भावन कों समुझावन लागी । उदा० बढ़ति निकसि कुचकोर रुचि कढ़त गौर
-सोमनाथ भुजमूल ।
-बिहारी भावरि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भावना=पसंद भुमिया-संज्ञा, पु० [सं० भूमि+हिं० इया होना] पसन्दगी का भाव ।
(प्रत्य)] जमींदार, भूस्वामी । उदा० भावरि-अनभावरि-भरे करौ कोरि उदा० ऐसो राज रसा मह करै । भुमिया के बकवादु ।
-बिहारी नाके भूव धरै।
-केशव भावलिया-संज्ञा, पु० [बुं० भावली] भावली, भुरते-वि० [सं० भूरि+हिं० ते-से] भूरि, _बहाली, धोखा ।
__ अत्यधिक, बहुत ज्यादा । उदा० श्रवनन सुनत बात यह नीकी सब को दे उदा० रति बिपरीति रची जोति रति रतिमावलिया। प्रति ही चटक मटक सों
पति सुकुमार परम सो भरी श्रम भुरते । चितवत पायो चलि स्यामलिया ।
-रघुनाथ -बकसीहंसराज भुरसना - क्रि० स० [हिं० भुलसना] गरम राख भास-संज्ञा, स्त्री० [सं० भाव् ] ध्वनि, में झुलसना । आवाज ।
उदा० जो कछु ऊभरि और कहै, यह जीमहि उदा० गीतनि भास भिदै घनानन्द रीझत
भूभरि सी भुरसौं जू ।
-देव भीजत भावते भायनि ।
-घनानन्द भुर्यापन - संज्ञा, पु० [हिं० भोलापन] भोलापन, भिदिपाल-संज्ञा, पु० [?] छोटा डंडा जो फेंक मढ़ता, अज्ञानता । कर मारने के काम में लाया जाता था।
उदा. अपनो न कोऊ बंधु-बहिन भतीजे-सुत, उदा० परसा सुखेन कुंत केसरी गवय सुल विभी
भानजे न भामिनि, भुऱ्यापन कौ सपने । षन गदा गज सिदिपाल तारे हैं।
-ग्वाल -केशव | भुवभंग-संज्ञा, पु० [सं० भ्रूभंग] भ्रूभंग, त्योरी भी- संज्ञा, पु० [सं०] भय, डर ।
चढ़ना। उदा० पौन को पकरि करि गौन कों प्रकास, उदा० संग के रंग रंगे उमँगे सब अंग कहा भौन भीतिन पै दौरि, काहू भांतिन भई न भुवमंग सों लेखो।
-देव मी।
-देव | भुवा-संज्ञा, पु०, [हिं० घूमा ] रूई, घूमा भीरी-वि० [हिं० भिड़ना] १. एकत्रित, मुहा० लुवा भुवा होना-खिल्ली उड़ाने में इकट्ठी २. पास, निकट [क्रि० वि.]।
लग जाना, बदनामी करना। उदा० १. कहै पद्माकर अगार अनखीलिन की | उदा० ठाकुर यामैं अमारग कीन है तीन कही भीरी मोर भारन को भाँज दै री मौज
हम सों समझाई । चारह ओर तें -पद्माकर
काहेऽब रे तुम मोहि लुवा भुवा लै भई भुकना-क्रि० प्र० [?] गिर पड़ना, गिरना ।
माई। उदा० मारत ही भट हय तें भुकै । मट-नट मनौ
कवि बोधा भुवान, फैसो फल मैं पछिताई कुल्हाट चुकै।
-केशव विदा यहि मौगि अब ।
--बोधा भुजग भोजन-संज्ञा, पु० [सं०] सर्प ही जिसका भूड़-संज्ञा, स्त्री [हिं० भुरभुरा ] मिट्टी, धूल भोजन है अर्थात् गरुड़।
बालू । उदा० अजित अजान भुज भुजग भोजन जान, उदा० लुके भूड़ माना गई मासमाना । दुभुज सम्हारो, जदु-भूभुज भु लिख्या हौ।
---केशव -देव भूभरि-संज्ञा, स्त्री [सं० भू+भुर्ज] गर्म राख भुजपात-संज्ञा, पु० [सं० भूर्जपत्र] भोजपत्र, या धूल, गर्म रेत । जिस पर पुरा काल में-प्रशस्तियाँ आदि उदा० जो कुछ ऊभरि और कहै,- यह जीभहि लिखी जाती थीं।
भूमरि सौ भुरसौं जू ।
-देव उदा० बराति चंदन मलय ही, हिमगिरि ही भूभुज-संज्ञा, पु० [सं० भू०+भुज] राजा, भुजपात ।
-केशव नृप ।
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भूमिसुत ( १८० )
म्वहरा उदा० भेटत देखि बिसेखि हिये व्रजभूभुज देव । २. एक देवता जिनका वाहन कुत्ता माना गया दुहूँ भुज सों भरि ।
-देव । है । भूमिसुत-संज्ञा, पु० [सं०] मंगल नामक ग्रह
उदा० १. हुकत उलूकबन, कूकत फिरत फेरु, भूकत जिसका रंग लाल माना गया है।
जु भैरो भूत गावै अलि गुज लौ। —देव उदा० वंदन डिठौना दै दुरायो मुख चूंघुट में भोगलाना-क्रि० अ० [हिं० मोग] वश में होना
झीनी स्याम सारी त्यौं किनारी चहूँ फेर उदा० ज्ञान हूँ तें आगें जाकी पदवी परम ऊँची मैं । भूमिसुत भानुसुत जुत सोभमान रस उपजावै तामैं भोगी भोगलात ग्वै मानौ झलक मयंक घन दामिनि के घेर मैं ।
-घनानन्द -बेनी प्रवीन | भोंडर--संज्ञा, पु० [देश॰] १. प्रबरक, अभ्रक भूसर-वि० [सं० भास्वर ] चमकते हुए,
२. बुक्का । चमकने वाले के जैसे ।
उदा० कबि पजनेस कैंधौं भोंडर के संपुट उदा० कहैं कबि गंग इक्क अक्कबर अक्क उदै, में चकई के बाल कैधो पिय चित टोना के _नभ कि नखत से रहैं है भूप भूसरे ।
-पजनेश -गंग
मोडर के किनका ये लाल के बदन पर भृगुदास-संज्ञा पु० सं०] १. काना, एकाक्ष
निरखि जोन्हाई बीच ऐसे लसै जगि-जगि २. शुक्राचार्य ।
-रघुनाथ उदा० १. एक सूरदास दासी एक जगन्नाथ दासी । भोथर-वि० [देश॰] कुठित, जिसकी तीक्ष्णता एक भृगुदास दासी ताकी एक पाई है।
समाप्त हो गई हो।
-देवकीनन्दन उदा०-देह भयो दूबरो कि नेह तज्यो दीनन भेवीसार-संज्ञा, पु० [सं०] बरमा, बढ़ई का एक
सों चक्र भयो भोथरो कि बाहन खुटानो औजार जिससे वह लकड़ी में छेद करता है।
-गंग उदा० भेदि दुसार कियो हियो तन दुति भेदीसार
भोना-क्रि० अ [हिं० मीनना] भीनना, डूबना -बिहारी
संचारित होना २. लीन होना। भेल-संज्ञा, पु० ]हि० भेली=डली] गुच्छा, उदा० बात पिये जपिये गुर मनु ज्यौं उससे समूह ।
रिस कै विष भोई।
--देव उदा० अधर छुवारे रसवारे बैन विधि विधि भौंडू-संज्ञा, पु० [देश॰ किनारा। किसमिस झूमके अंगूर भूर भेल हैं।
उदा० बजाबै सांवरो बंसी जमुनातीर ठाढ़ी -ग्वाल __ पनघट भौडूं कैसे जैय।
-घनानन्द भेव-संज्ञा, पु० [सं० भेद] १. बारी, पारी २. भ्वैना -- क्रि० स० [हिं० भरना ] भर जाना, भेद, रहस्य ३.तैयारी।
फैल जाना, समा जाना। उदा० चौकी दै जनु अपने भेव । बहुरे देवलोक उदा० दाह जागी देह में कराह रसना के बीच को देव ।
-केशव
रधुनाथ सखिन के प्राह नभ भवै गयो । ३. मिलि मित्र सहोदर बंधु शुमोदर कीन्हें
- रघुनाथ भोजन भेव ।
-केशव
भ्वैहरा-संज्ञा, पु० [हिं० भूधरा], भूधरा जमीन भैया-संज्ञा, पु० [?] एक प्रकार का पुष्प । के नीचे खोद कर बनाया गया गड्ढ़ा जिसमे गर्मी उदा० भैया के फूल करि मानुत छांडि निरंत ।। में ठंडक रहती है।
हूँ पचिहारी बहुत करि अपनै नाहिन | उवा बाहर भीतर भ्वहरऊ न रह्यौ परै देव कंत ।
-मतिराम सु पूछन आई।
-देव भैरो-संज्ञा, पु० [सं० भैरव ] १. श्वान, कुत्ता,
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मंग - संज्ञा, स्त्री० [हिं० मांग] जटा, सिर । उदा० भोग के के ललचाइ पुरन्दर, जोग के गंग लई धरि मंगहि | रसखानि
मंगली - संज्ञा, स्त्री० [सं०] हलदी, हरिद्रा । उदा० मंगल ही जु करी रजनी विधि, याही ते मंगली नाम धर्यो है । केशव
मंजि -संज्ञा, पु० [सं०] कमल कोश । उदा० कंज की मंजि मैं खंजन मानौ उड़े चुनि चंचुनि चंचु चुभे के ।
कंज की मंजि मैं, कुंदन की दुति, खनि इंदु पियूषनि पोसी । - देव मंजुखा— संज्ञा, स्त्री० [सं० मंजूषा ] पिटारी, छोटा पिटारा, डिब्बा । उदा० नंदराम श्रमित अभूषण के जालन की लालन के माल की सो मंजुखा उघारी सी । -नंदराम मंजुघोषा - संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. इन्द्र की एक अप्सरा- २. मृदुभाषिणी (वि०) । उदा० जीतत कपोल कौ तिलोत्तमैं अनूप रूप बात बात ही मैं मंजु घोष बरसति है । - सेनापति मंजे क्रि० स० [सं० मज्जन] डुबकी लगाना,
स्नान करना ।
उदा० कहै पद्माकर सु दोऊ बिपरीत माँझ, महमही मंजे मजा मंजुल मनोज की ।
—पद्माकर
मंझा-संज्ञा, पु० [?] एक प्रकार का मजबूत डोरा, जिससे बच्चे पतंग उड़ाते हैं । उदा० भंझा पौनबारे देत मंझाते तरुन फारे, संझाते उलूक कूर पारे विकरारे मैं । - बेनी प्रवीन
मंदगति - संज्ञा, पु० [सं०] शनिग्रह | उदा० अतिमंद चाल सोइ मंदगति, महामनोहर जुबति यह । सबही फलदायक देखियतु, जाको सेवत नवौ ग्रह । - ब्रजनिधि मंबरा - संज्ञा, पु० [सं० मंडल ] एक तरह का बाजा, वाद्य विशेष ।
म
उदा०
आनक पटह बर नेवर बजन लागे, तार सुर मंदरन तानन मुरत है । -देव मंदरि - वि० [सं०] मंद = कृश + उदरि= कृशोदरि] कृशोदरी, पतले कमरवाली, क्षीण कटि वाली (नायिका) ।
उदा० बंदन भाल, हिये हरि चंदन, लाये मिले मृदुमेद मंदूदरि । —देव मंद्र – संज्ञा, पु० [सं०] संगीत के स्वरों के तीन भेदों में से एक
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उदा० संभु के अधर माहि काहे की सुरेख राज, गाई जाति रागिनी सु कौन सुर मंद्र मा ।
-- पद्माकर
मकबूल - वि० [अ० मक़्बुल] रुचिकर, सर्व प्रिय । उदा० दोऊ मकबूल मखतूल भूला भूलि भूलि देत सुखमूल कहि तोष भरि बरसात
- तोष
मखतूल -- संज्ञा, पु० [फा०] काला रेशम । उदा० १. लै मखतूल गुहे गहने रस मूरतिवंत सिंगार के चाख्यौ । - देव २. मखतुल के फूल झुलावत केशव मानु मनो ससि अंक लिये । - केशव मगचारी - संज्ञा, पु० [सं० मार्ग + हिं॰ चारी] पथिक, राहगी । उदा० टारि धरौ दुख दूर अली, सुभलो विधि श्रावहिंगे मगचारी । - गंग मगर – संज्ञा, पु० [सं० मार्ग ] मार्ग, रास्ता । उदा० घिरि सो प्रकास भूमि, भिरि सो गरूडहू सों, गिरि सो पर्यो है गिरि काहू, जा मगर में । - देव मगरना -क्रि० अ० [हिं० मंगलना ] जलना, मंगलना मुद्दा • होली मंगलना - होली जलना । उदा० तिहारे निहारे बिन प्राननि करति होरा बिरह अँगारनि मगरि हिय होरी सी ।
-धनानन्द
भगी — संज्ञा, स्त्री० [सं० मार्ग + हि० ई (प्रत्य० ) = ] मार्गी, पथिक या राहगीर को स्त्री । उदा० डोलें डगमगी मग, मगी सी' मनोरथ के,
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मघवामनि
(
उमगी बिरह, डगरनि में डगरि के
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१८२
- देव
मघवामनि - संज्ञा, स्त्री० [सं० मघवन मरण] इन्द्रमरिण, इन्द्रनीलमणि । उदा० जो मघवामनि को सतु सोधिये परसे पय की मति ।
मचक]
तोऽब कहा
- घनानन्द
झटके से
मचकना - क्रि० अ० [हिं० हिलना २. पेंग मारना । उदा० यों मिचकी मचकौ न हहा मचकै मिचकी के ।
लचके करिहाँ - पद्माकर
मचना - क्रि० प्र० [ अनु०] बढ़ जाना, २. छा जाना, फैल जाना । उदा० १. दास सुबास सिंगार सिंगारत बोझनि ऊपर बोझ उठे मचि ।
२. दामिनि द्यो सम है दसहूँ दिसि, दुद मचावन लागे ।
मचला - वि० [हिं० मचलना ] अनजान वाला, जो मौके पर चुप्पी साध ले । उदा० ऐसो मन मचला अचल अंग अंग पर, लालच के काज लोक लाजहि ते हटि गयो । —देव मची – संज्ञा, स्त्री० [हिं० मचिया ] छोटी चारपाई, छोटी पलंग । उदा० छाइ बिछाइ पुरैन के पात न लेटती चंदन कोच मची मैं । मजकूर — संज्ञा, पु० [अ० गिनती, चर्चा । उदा० तेरो रूप जीत्यो रति, और नारिन बिचारिन को
- दास
दादुर
- दास
बनने
—पद्माकर मजकूर ] गणना, रंभा, मेनका को, मजकूर कहा है । - दूलह कीजै सही —बौधा
इसी मजकूर है उनमाद । जो न सम्वाद ।
मजलन - संज्ञा, स्त्री० [अ० मंजिल + हिं० न ] मंजिल, पड़ाव, यात्रा करते समय ठहरने का स्थान । उदा० हारे बटमारे जे बिचारे मजलन मारे, दुखित महा रे, तिनहूँ को सुख ना दियौ । - दयानिधि मजीठ-संज्ञा, पु० [सं० मंजिष्ठा ] श्रौषधि विशेष, २. एक प्रकार की लता । उदा० १. प्यालो ले चिनी को छकी जोबन तरंग मानो रंग हेतु पीबति मजीठ मुगलानी है । - कवीन्द्र मजेज. - संज्ञा, पु० [फा० मिजाज ] गर्व, अभि
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>
मान २. मध्य भाग ।
उदा० १. लाड़िली कुंवरि राधारानी के सदन तजी मदन मजेज रति सेजहि सजति है ।
-- देव २. नील मनि जटित सुबेंदा उच्च कुच पर्यो है टूटि ललित लिलाट के मजेजे तें । - पद्माकर मजेजमनी - वि० [फा० मिजाज + सं० मणि] गर्वशिरोमणि, श्रत्यंत गर्वीला, अतिशय घमण्डी । उदा० सेज पै सौति करे जनि साल, मनोज के श्रोज मजेजमनी की । -देव मठा — वि० [सं० मिष्ट] मिष्ट, मधुर, सुन्दर । उदा० धोखें आजु सीख सखियान की मठा सी मानि, गई दधि बेचन अकेली मधुबन मैं । -सोमनाथ
मत
मट्ठे- वि० [प्रा० मठ] मंद | उदा० सबै बीर पठ्ठे सजे बाँधि गठ्ठे । सु ह्व के इकट्ठे पर जे न मट्ठे । मडराना – क्रि० स० [सं० मंडप] किसी वस्तु के चारों तरफ चक्कर लगाना ।
—पद्माकर
उदा० मीडत हाथ पर उमड़ो सो मड़ो उहि बीच फिर मडरान्यो । -देव मंडप ही में फिर मँडरात न जात कहूँ तजि नेह को प्रोनो ।
- पद्माकर
मड़ई – संज्ञा, स्त्री० [सं० मण्डप ] कुटी, मंडप घास-फूंस से निर्मित छोटा गृह, परर्णशाला । उदा० प्रेम उमंडि रहे रस मंडित अंतर की मड़ई मिलि दोऊ
-दास
मड़हा— संज्ञा, पु० [सं० मण्डप ] घर, मकान । उदा० मड़हो मलीन कुंज खांखरो खरोई खीन ।
पालम
मड़ना-क्रि० प्र० [हिं० मट्ठर ] अड़कर बैठना ।
उदा० मीड़त हाथ पर उमड़ो सो, मड़ोउहि बीच फिर मडरान्यो । - देव अड़कर
मढ्ढना - क्रि० प्र० [हिं० मढ़ना ]
बैठना ।
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उदा० नवल बकुल के फूल बीनिबे के मिस मयि । मंद मंद मो निकट आनि के मई सु ठयि । -सोमनाथ मत - संज्ञा, पु० [सं० मति] ज्ञान, चेतना, होश । उदा० बन-बाटनु पिक
बटपरा लखि बिरहिनुं
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सोधि।
मति ( १८३ )
मनवा मत मैं न । कुही कुही कहि कहि उठे, बीच का, बिचुप्रा । करि करि राते नैन।
-बिहारी उदा० जेते मधियाती सब तिन सौं मिलाप मति -संज्ञा, स्त्री० [समता] बराबरी, तुलना, छूट्यो, कहिबी सँदेस हूँ कौं छूट्यौ सकुचन समता ।
ते ।
-सेनापति उदा० जौ मघवा-मनि को सतु सोधिय तोऽब मधु--संज्ञा, पु० [सं०] १. पानी २. अमृत । कहा परस पय की मति ।
उदा. जाकी मन अनुराग बस ह क रह्योमधू -घनानन्द
बड़े-बड़े लोचननि चंचल चहति है। मतीरा-संज्ञा, पु० [राज तरबूजा ।
-सेनापति उदा० विषम बृषादित की तृषा जियो मतीरनि मधुकर-संज्ञा, पु० [सं०] मीठा नीबू ।
--बिहारी उदा० देव मधुकर ढक ढकत मधक धोखे, मथाह-संज्ञा, पू० [सं० मस्तक] १. झगड़ा,
माधवी मधुर मधु लालच लरे परत । मु० मथाह करना=झंझट करना, झगड़ा
-देव - करना, रायसा करना।
मधुगंजन-संज्ञा, पु० [सं०] मधु नामक राक्षस उदा० मानि ले मेरी कही तू लली अहे नाह के को मारने वाले श्रीकृष्ण, मधुरिपु। नेह मथाह न कीजै।
-बोधा उदा० गुन रूप निधान बिचित्र बधूहित प्यारी मदन-संज्ञा, पु० [सं०] १. बकुल नामक वृक्ष,
पिया मधूगंजन की।
-पालम २. हाथी ३. कामदेव ।
मधुपाली-संज्ञा, स्त्री० [सं० मधुप+अवलि] उदा० १. बैस की निकाई सोई रितु सुखदाई तामैं
भ्रमरावली, भौरों का समूह । तरुनाई उलहत मदन मैमंत है।
उदा. बिथुरी कपोलन पै जुलफै मरोरदार -घनानन्द
. सरमानी समता मजेज मधुपाली की । मदनबान-संज्ञा, पु० [सं० मदन+बाण],
--रंगपाल १. एक प्रकार का बेला पुष्प २. कामदेव का
मधुबत-संज्ञा, पु० [सं० मधुबत] भ्रमर,
भौंरा। बाण। उदा० सेवता हैं बजे जिन मारे हैं मदन बान परे
उदा० माधवी के मधुराधरै को मधु लै मधुमास
मधुब्रत मातो। इश्कपेचन मैं रीति और ही गहीं ।-ग्वाल
-देव
मध्य-संज्ञा, स्त्री० [सं०] कटि, कमर । मदनालय-संज्ञा, पु० [सं०] स्त्रियों की गुप्ते
उदा० सोहति बहुत भाँति चीर सौं लपेटी सदा न्द्रिय योनि ।
जाकी मध्य दसा सो तो मैंन को अधार उदा. देव मृदु निनद विनोद मदनालय रवरटत
--सेनापति समोद, चारु चेटुआ चटक के।
भूपर कमल युग ऊपर कनक खम्भ ब्रह्म -देव
की सी गति मध्य सूक्षम अनिंदीबर। मदमोविनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० मदयंतिका]
--देव मल्लिका नामक पुष्प ।
मनक-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] अावाज, शब्द । उदा० जाही जुही मल्लिका चमेली मदमोदिनी उदा० आलम कहै हो जात मनक न सुनीकान । की कोमल कमोदिनी की सुषमा खराब
-आलम की ।
-पद्माकर । मनकना--क्रि०अ० [अनु॰] हिलना-डुलना । मदी-संज्ञा. स्त्री० [सं० मद] शराब, पासव । । उदा. जापता करनहारे नेकह न मनके ।-भूषण उदा० हियरा अति औटि उदेग की आँचनि- मनभौत-वि० [हिं० मन भाया] इच्छित, मन
च्वावत मांसूनि मैन-मदी । -धनानन्द भाया। मदै-क्रि० अ० [सं० मद] उन्मत्त होना, मस्त उदा० अलि कान्ह लता-बनिता मधि मै मधु पान होना, आनंदित होना।
कियो मनमौत समैं ।
-मालम उदा० मदै उनमाद गदै गदनाद, बदै रसबाद ददै मनवा-संज्ञा, पु० (देश०) कपास । मुख अंचल ।
--देव उदा० जाइ मिली पनवां पहिरे अनवा तिय मधियाती-वि० [सं० मध्यवर्ती] मध्यवर्ती, खेत खरी मनवा के ।
-तोष
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मनसना ( १८४ )
मरगजा मनसना-क्रि० सं० [हिं० मानस] संकल्प मयंकज-संज्ञा, पु० [सं०] चन्द्रसुत, बुध । करना । २. इच्छा करना, इरादा करना ।
उदा० अंक मयंकज के दल पंकज, पंकज में मनो उदा० १. देखिबे कौं फिरै एक देवता सी दौरि
पंकज फूले।
-देव . दौरि, देवता मनाइ दिन दान मनसति हैं। । मयंकबधू-संज्ञा, स्त्री [सं०] चन्द्र बधू, बीर
-केशव बहूटी नामक लाल बरसाती कीड़ा। मनसाकर-संज्ञा, पु० [सं०] १. कल्पवृक्ष, उदा० ब्रजबाल नदी उमही रसखानि मयंकबधु २. कामधेनु ३. मनवांछित फल देने वाला।
दुति लाजत है।
-रसखानि उदा० बहु शुभ मनसाकर, करुणामय अरु सुर त- मय-संज्ञा, पु० [सं०] मय नाम का शिल्पी रंगिनी शोभ सनी।।
-केशव दैत्य । मनसूबी-संज्ञा, स्त्री० [अ० मंसूब:] १. इरादा, उदा० हंस गति नाइक कि गूढ़ गुनगाइक कि इच्छा, ख्वाहिश २. साजिश ।
श्रवन सुहाइक कि माइक हैं मय के। उदा० डूबी बन वीथिन चकोर चतुराई मनसूबी
-केशव तुरगन की तमाम करियतु है। --देव मयमंत - वि० [सं० मदवन्त] मदयुक्त मदोन्मत । मनित--संज्ञा, स्त्री० [सं० मणि] मणि एक उदा० केकी कुल कोकिल अलापै कलकंठ धुनि __ कीमती पत्थर ।
कोलाहाल होत सुकपोत मयमंत को । उदा० कंकन भनित अगनित रव किंकिनी के, नूपुर
-देव रनित मिले मनित सुहात है। --देव मयारि-संज्ञा, स्त्री॰ [देश॰] वह डन्डा जिस पर मनेस-संज्ञा, पु० [सं० मन +ईश] मन का हिंडोले की रस्सी लटकती रहती है। स्वामी, कामदेव ।
उदा० फूलन की मयारि और मरुवे यों फूलन उदा०--दासजू बादि जनेस मनेस धनेस फनेस
के फूले मोर तोता अलि झूमक' मरोरे मैं । गनेस कहैबों। -दास
-ग्वाल मनोजतरु-संज्ञा, पु० [सं०] कल्पवृक्ष, स्वर्ग का मयूखहिम-संज्ञा, पु० [सं० मयूषहिम] चन्द्रमा,
एक वृक्ष जो अभीष्ट कामना की पूर्ति करता है। हिमकर, शशि, उदा० सोधो सुधा बिन्दु मकरंद सी मुकूत माल, उदा. मूरख मयूखहिम हुमकि हुमकि हनै । लपिटी मनोज तरु मंजरी सरीर है।
-पालम मम्या-वि० [सं० मान्या] सम्मनानीय, प्रादरणीय, मयूषमनि मानिक-संज्ञा, पु० [सं० मयूषमरिण - सम्मान्य ।
सयं+मनि-मणि-सूर्यकान्त मणि] । उदा. कहूँ जोगी वेष कै जगावत प्रलेख कहें १. सूर्यकान्तमणि । सन्यासी कहाये मठ मन्यासी ठयो फिरै। उदा० ऊषम निदान ही मयूषमनि मानिकनि,
-देव
अगनित चामीकर अगिनि तचाई सी । ममाते-वि० [हिं० मैमंत] मस्त, मैमंत ।।
-देव उदा. कहै रघुनाथ मनमानिक सों मागे लेत मानै मरक-संज्ञा,स्त्री० [देश॰] उत्तेजना, बढ़ावा. जोश
। न ममात गज कानन हृदन के । -रघुनाथ उदा० पर तें टरत न बर परे दई मरुक मनु ममारखी.-संज्ञा, स्त्री० [फा० मुबारक] बधाई । । मैन ।
--बिहारी उदा० देत ममारखी बारहिबार करें सिगरी सब मरकना-क्रि० प्र० [अनु॰] टूटना, दबाव में ओर सलामैं ।
-चन्द्रशेखर __ में पड़ कर फटना । ममोल-संज्ञा, पु० [हिं० ममोला] ममोला, खंजन उदा० ग्वाल कवि तरकि परे री कंचुकी के बंद नामक पक्षी ।
अधिक उमंगन से अंगहू मरकि परे । उदा० येहो ममोलदृगी दुहुँ हाथनि गोरे उरोजनि
-ग्वाल को धरने दे।
-तोष मरगजा-वि० [हि० मलवा ] शिकन पड़ा ममोला-संज्ञा, पु० [?] खंजन पक्षी ।
हुप्रा । मला हुआ, गीजा हुआ २. मलिन । उदा० मीन से ममोला से मयंक मृग छौना ऐसे उदा० मरगजे बागे रस पागे नैना लागे पावै, नैन पुतरीन अलि सावक बिसेखे हैं।
आगे रही पाग धेसि जागे लाल जामिनी -गंग।
--मालम
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मरजी
मसना २. कहै पद्माकर मजानि मरगजी मंजु, । मल-संज्ञा, पु० [हिं० मरंद] मकरन्द, पुष्पमसकी सु आँगी है उरोजन के अंक पर । रस ।
--पदमाकर | उदा० प्राइ गई भूक मंद मारुत की देव. नव मरजी-संज्ञा [अ० मरजी] १. मन का भाव
मल्लिका मिलित मल पदुम के दाव की । २. प्रसन्नता, खुशी, ३. इच्छा, कामना ।
-देव उदा० वा बिधि साँवरे रावरे की न मिलै मरजी
मलय कुमार-संज्ञा, पु० [सं० मलय-+-कुमार] न मजा मजाखे ।
-पद्माकर
सुगंधित हवा, मलय पवन। मरमै-संज्ञा, पु० [सं० मर्म] १. आघात, चोट,
उदा० मालती को मिलि जब मलय कुमार आये, घाव २. मर्मस्थल, हृदय ।
रेवा रस रोमनि जगाय नींद नासी है। उदा० सर मैनहु को मुरली स्वर जीति कियो
-आलम उर मै मरमै चरमै ।
- तोष
मलूक-वि० [देश॰] मनोहर, सुन्दर । २. हियो कर मैन, लियो सर मैन, दियो
उदा० घाँघरे की घुमड़ उमड़ चारु चूनरी की मरमै न सम्हारि कै संचल ।
-देव मरवट -संज्ञा, स्त्री० [हिं० मलपट] रेखाएँ,
पायन मलूक मखमल बरजोरे की।
-श्रीपति जो रामलीला के अवसर पर पात्रों के गालों
मलोला-संज्ञा, पु० [अ० मलूक] मानसिक पर चंदन तथा रंग आदि से बनाई जाती हैं।
कष्ट, व्यथा, दुःख, रंज । उदा० अंजन प्रांजि मांडि मुख मरवट फिरि मुख
उदा० भोला से फफोला परे पाइन मैं तोलाहेरौ री।
-घनानन्द
तोला, मारत ममोला हाय मन की मनै मरातिब-संज्ञा, पु० [अ०] झंडा, पताका ।
रही।
-ग्वाल उदा० सकल मरातिब ठाढ़े किये। हर सिंघ देव
मल्हकनि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० मटकना]छरी कर लिए।
-केशव
मटकने को क्रिया । मरिन्द-संज्ञा, स्त्री० [सं० मणिन्द्र] मरणीन्द्र, चन्द्र कान्त मणि २. मलिद, भ्रमर ।
उदा० समद मतंग चालि की मल्हकनि चलन उदा० १. का कुरबिन्द मरिन्द सु इन्दु-प्रभा मुख
लगीं छटकाएँ अलकनि । -सोमनाथ ओठ समान दुनी ना।
बेनी प्रवीन
मवास-संज्ञा०, पु० [सं०] ६. आश्रय स्थान, मरुवा--संज्ञा, पु० [सं० मरुव] वह लकड़ी
रक्षा स्थल, २. किला, गढ़ । जिसके आधार पर हिंडोला लटकाया
उदा० कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मीना मैन जाता है ।
मवास।
-बिहारी उदा० फूलन की भयारि और मरुवे यों फलन के
मवासी-संज्ञा, पु० [हिं० मवास] दृढ़ गढ़ में फूले मोर तोता अलि झूमक मरोरे मैं ।
रहने वाला, गढ़ रक्षक। -ग्वाल
उदा० कंस सौं कहौंगी जाइ माँगि हौं नुमैं धराइ मरू-क्रि० वि० [बुं०] कठिनाई से, मुश्किल
रहोगे कहाँ छिपाइ जौ बड़े मवासी हौ। से मरू कै बची हौं, सास ! धरम तिहारेते ।।
-रसखानि - ग्वालकवि मसक-संज्ञा, पु० [अ० मशरूम] एक प्रकार का मरोर-संज्ञा, पु० [हिं० मलोल प्र. मलूक] धारीदार वस्त्र ।
१. अरमान, अभिलाषा, २. मानसिक व्यथा उदा० सिर मसक पग्गहि काढ़ि खग्गिहि-उच्चरर्यो ३. उमंग ।
ललकारि के।
-सोमनाथ उदा० कछुवै कहोगे के अबोले ही रहोगे लाल, मसना-क्रि० स० [हिं० मसलना] रगड़ना, मन के मरोरे कौलों मन ही में मारिये। मलना, व्याकुल होना ।
-पालम उदा० सकियै नहि नेकु निहारि गुपाल सु देखि मलंग-संज्ञा, पु० [फा०] फकीर, योगी ।
मसोसनि ही मसियै ।। उदा० कौड़ा मांसू बूंद, करि सांकर बरुनी सजल
आजु पर्यो जानि जब आपने मैं सुने कान, कीन्हे बदन निमूद, दुग मलंग डारे रहत ।
वाको संबोधन मोसो कह्यौ ही मसतु है। -बिहारी
-रघुनाथ
मांग
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मसमुंद
महाकवि मसमुंद--वि० [मस+ मूंदना] धक्कमधक्का , | महूख-संज्ञा, पु० [सं० मधूक] शहद, मधु । ठेलमठेला ।
उदा० केसव ऊख महूखहु दूखत पाई हाँ तो पह उदा०-तबही सूरज के सुभट निकट मचाओ
छाँड़ि जिठाई।
-केशव _ ढुंद । निकसि सकै नहिं एकहू कस्यो कटक छिनक छबीले लाल वह जौ लगि नहि मसमुंद ।
बतराइ, ऊख महूख पियूख की तौ लगि मसरना-क्रि० स० [हिं० मसलना] मसलना,
भूख न जाइ।
-बिहारी रगड़ना ।
महेरो--संज्ञा, पु० [बुं०] मट्ठा में पकाया हुआ उदा० कुँवर कान्ह जमुना मैं न्हात । मसरत मात । सुभग साँवरे गात ।
-घनानन्द उदा० ताकों तू ले जाय भियारे सामर दूध मसि भीजना-क्रि० सं० [सं० मसि+हिं० महेरो।
-बकसी हंसराज भीजना] मूछों की कालिमा का उभरना, युवा- मसना-क्रि० स० [हिं० मसलना] मसलना, वस्था में मूछों के बाल का थोड़ा-थोड़ा झल- मलना, हाथ से रगड़ना । कना।
उदा० रुकिय नहिं नेक निहारि गुपाल सु देखि उदा० ह्याँ इनके रस भीजत से दग, ह्वाँ उनके
मसोसनि हो मसिय ।
-गंग मसि भीजत प्रावै।
- पद्माकर मसवत-वि•[सं० मशक+वत् (प्रत्य॰)] मशक मसीसी-वि० [हिं० मसलना, अ० मिसात] की भांति, मच्छड़ की तरह। मीजी हुई, मसली हुई।
उदा. इन्द्र को गरब गरे सब ब्रज राख्यो तरे, उदा० भानुनंदिनी की तकि तकि कै तरंगे तेज,
धन्य रे कन्हैया हँसै गिरिधरे मसवत । सोवै सेज सौरम मजेज की मसीसी सी।
-दूलह -प्रवाल महना-क्रि० स० [हिं० मथना] मथना । महताब-संज्ञा, स्त्री० [फा०] १. मसाल, उदा. कवि गंग कहै सुनि साह अकबर छाछ महताबी २. चाँदनी ३. चन्द्रमा ।।
- मिली यह दूध महा ।
-गंग उदा० १. महताब चमकंत रुचि रंजक उड़त महमही-वि० [हिं० महक] सुगंधित। चपला सी तड़पंत घहरंत करि तोर। उदा० महमही मंद मंद मारुत मिलन तैसी गह
- चन्द्रशेखर
गही खिलनि गुलाब की कलीन की। महबूबी-संज्ञा, स्त्री० [अ० महबूब] माशूकपन
-रसखानि प्रियता, वत्सलता ।
महरिम-संज्ञा, पु० [अ० महम] मित्र, दोस्त, उदा० ऊबी सी रहति अरविन्दन की प्राभा- परिचित । महबूबी मृगछौनन को छाम करियतु है। उदा० मेघपिमघ धूम हौं बिरहिन तालिबइल्म ।
- देव
महरिम बेमालूम बिरह किताब पढ़ावसी । महर-संज्ञा स्त्री० [फा, मेहर] कृपा, दया।
-बोधा उदा० ग्वाल कवि लाल तौसों जोर कर पूछत महरेटी-.संज्ञा, स्त्री० [हिं० महरेटा] राधा। हौं, साँच कहि दीजी जोपै मो पर महर उदा० बीते फागू प्रोसर के बिदा कीन्ही बार वधू
काल्हि महरेटी करि ही में महादुख को। महराना-क्रि. स० [हिं० मह] सुगंधित करना
-रघुनाथ सुगंध उत्पन्न करना।
महाअली-संज्ञा, पु० [सं० महापलि] बहुत बड़ा उदा० झहराती समीर झकोर महा महराती पावत, भँवर। समूह सुगन्ध उही ।
-बेनीप्रवीन उदा० मौहनि भवर मध्य तरि निकसत यात. महाबथ्य-संज्ञा, पु० [हिं० महावत] महावत, महाअली चूंघट ते टरतिन टारी है।
हाथीवान । उदा० चढ़ हैं जिन्हों पै महाबथ्य मारे । महाकवि-संज्ञा, पु० [सं०] बड़े वैद्य, चतुर लसै यों किलाएँ मनौ अत्तिवारे ।
चिकित्सक। -पद्माकर | उदा० चूरन पाँच महाकवि बिधि बनवाइ रखाये।
-ग्वाल
गंग
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-केशव
महापो
मारनी मोठे चूरन और चिरपरे और कषाये । | माई-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] सखी, सहेली।
-सोमनाथ | उदा० बाहर भीतर म्वहेरऊ, न रहो परै देव महापी-संज्ञा, पु. [सं० महा + हिं• पी-पोने
सुपूछन आई हौं, ही भुलानी, की भूले सबै, वाला] बहुत बड़ा पियक्कड़, शराब पीने वाला।
कहैं ग्रीषम में सरदागम माई -देव उदा० व्यापी अघ ओघ कौ, महापी मदिरा को माची-संज्ञा, स्त्री०[सं०मंच मंच, मकान की कुर्सी। मंजु, कीन्हो परदेस को पयान, रोजरारी में । उदा० बारि पताल सी माची मही अमरावति की
-ग्वाल छवि ऊपर छाजै।
-भूषण महिमेवा-वि० [सं० महिमावान्] महिमावान, माडना-क्रि० स. [सं. मंडन] मंडित करना, गौरवशाली, प्रतापी ।
सँवारना २. युद्ध करना । उदा० साधु जन जीते या कठिन कलिकाल कलि- उदा० छाँड़यो सुख-भोग मान खांड.यो गुरु लोगनि काल महावीर महाराज महिमेवा ने ।
को माड़ यो हम योग या वियोग के भगल -भूषण
-देव महीदनवारो--संज्ञा, पु० [हिं० मही=महा+ मानद-संज्ञा, पु० [सं० मान + द] सम्मान देने दनवारो=देने वाला] मट्ठा देने वाला, अहीर, वाला, नायक, प्रियतम । श्रीकृष्ण ।
उदा. मान मनावतहूँ करै, मानद को अपमान । उदा० साथ लगाइ गयो मन लै वह गोकुलघां
-केशव को महीदनवारो।।
-रघुनाथ माना-क्रि०अ०[हिं० अमाना] अँटना, समाना । महीरूह-संज्ञा, पु० [सं०] वृक्ष ।
उदा० माई, कहाँ यह माइगी दीपति जौ दिन द्वै उदा० भूलनि रंग घने मतिराम महीरूह फूल
इहि भाँति बढ़ेगी। प्रभा निकसे हैं।
-मतिराम माफक-वि० [अ० मुसाफिक] योग्य, लायक महूम-संज्ञा, पु० [अ० मुहीब] मित्र, प्रिय ।
२. मेल, संघटन सिंज्ञा, स्त्री० अ० माफकत] । उदा० मल्लिकन मंजुल मलिदं मतवारे मिले उदा० देखिबे ही माफक है माफक सरीर की । मंद मंद मारुत महूम मनसा की है।
-पद्माकर -पद्माकर मामी-संज्ञा, स्त्री० [सं० मा] इनकार, अस्वीमहष-संज्ञा, स्त्री० [सं० मधुच्छिष्ट] मधु, शहद कृति । उदा० केशव ऊख महखहु दूषत आई हीं तो पहँ
मुहावरा-मामी पीना=इनकार करना, छोड़ि जिठाई।
-केशव
मुकर जाना । माइ - संज्ञा, पु० [हिं० मांह] वैवाहिक अवसर उदा० मामी पिय इनकी मेरी माइ को हैं हरि. पर सम्पन्न होने वाली एक पूजा, जिसे माह । पाठहुं गांठ पठाए ।
-केशव पूजा' कहा जाता है।
मायल-वि० [फा०] प्रवृत्त, २. मिला हुआ। उदा० सुनि यह बैन दुवौं अतुराये । पूजन माइ उदा० प्रानन प्यारे, भरे अति पानिप, मायल गये छबि छाये ।
--सोमनाथ घायल चोप चटावत।
-घनानन्द मादी-वि० [फा० माँदः] १.थकी हई ०. रोगी मार-संज्ञा, स्त्री० [सं० माल] माला, माल उदा० १.ऐसे जी विचार कर, ननद सों रार २. कामदेव ।
कर, मादी हौं अपार कर, सासु सों उचार । उदा० सो सिंगार रस कैसी धार । नील नलिन कर ।
-ग्वाल कसी महिमार।
- केशव मांदनी-वि० [सं० मन्द] मन्द, तीरण ।
मारकंड-संज्ञा, पु० [सं० मार+कंड-वाण] उदा० सुनि स्याम प्यारी ताकी उपमा न कोक __कामवाण, कामदेव का वाण । और, सबै समता को श्रम कर परी माँदनी। । उदा० मनु मारकंड बिहीन हो मुनि मारकंड
-सूरतिमणि बखानिय ।। माइक-संज्ञा, पु० [सं० मायावी] मायावी गण, मारनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० मारण] मारण-कला माया करने वाले।
एक कल्पित तांत्रिक प्रयोग जो मनुष्य के मारने उदा० हंसगतिनाइक कि गढ़ गुनगाइक कि श्रवन- के लिए किया जाता है।
सुहाइक कि माइक हैं मय के। ----केशव | उदा० नारी न हाथ रही उहि नारी के मारनी
-केशव
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मोह
मुकेस मोहि मनोज महा की।
-दास कस के मम मीतल ।
-गंग माह-संज्ञा, पू० सं० माघ] बारह महीनों में । मीनरथ-संज्ञा, पू० [सं०] कामदेव, मन्मथ । एक माह जो जाड़े में पड़ता है, माघ ।
। उदा० मीनरथ सारथी के नोदन नबीने हैं । उदा० (क) दास पास-पास पुर नगर के बासी
--केशव उत, माहहू को जानति निदाहै रहयो | मीना-संज्ञा, पु० [राजस्था० मीणा] १. राज लागिक
-दास पूताने की एक जंगली और लुटेरी जात, २. (ख) जिय की जीवन माह जो जेठ न छांह । डाकू। सुहाय
---बिहारी उदा० कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मीना मैन (ग) सुनत पथिक मुंह माह निसि लुवै
मवास ।
-बिहारी चलति उहि गाँव ।
-बिहारी।
मुंहकी-संज्ञा, स्त्री० [सं० मौखिकी] जुबानी माही-संज्ञा, स्त्री० [फा०] मछली।
बातें, ऊपर की बातें। उदा० माही जल मृग के सु तृन, सज्जन हित कर
उदा० पाये मुरारि उठी कहि नारि, क्यों मोसों जीव । लुब्धक धीवर दुष्ट नर, बिन कारन
मिलावत हो मुंहकी।
-सुंदर दुख कोन ।
--ब्रजनिधि मकना संज्ञा, पु० [सं० मनाक-हाथी] वह नर माहौठि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० माह-माध+वट
हाथी जिसके दांत बहुत छोटे हों अथवा न हो। =महावट] पूस और माघ की झड़ी, वर्षा ।।
उदा० मंदर ते मारे मुकना न्यारे दिपत दतारे उदा० भए नैक माहौठि, कठिन लागै सुठि हिम
उमड़ि चले।
-पद्माकर कर ।
-सेनापति
मुकब्बा-संज्ञा, पु० [अ० मुकाबा] शृंगारिक मिचकी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० मचकना] पेंग ।
संदक, वस्त्रों और अलंकारों आदि की मंजषा । उदा० यों मिचकी मचकौ न हहा लचकै करिहाँ
उदा० मानह मुसब्बर मनोज को मूकब्बा मंजूमचकै मिचकी के।
-पद्माकर ज्यों ज्यों मचकीन को मचाय बाल झूलति
फैलि परयों ताकी तसबीरें उड़ी जात हैं।
-ग्वाल है त्यों त्यों खरी झूमें लाल लपिलपि
मुकाते-संज्ञा, पु०,[अ० मुकाते ] ठीका लेने जात है।
-हनुमान मिजयानी-संज्ञा, स्त्री० [फा० मेजवान] आति
वाला, काटने वाला।
उदा० खानि मुकाते लीजै गाउँ । धन पावै मठपती ध्य, मेहमानी।
सुभाउँ ।
-केशव उदा० मिजयानी सबही ने पाई । तौ तक निवतहारी तह पाई।
--बोधा
मुको-वि० [सं० मुख्य] १. मुख्य श्रेष्ठ, २. मिथुन-संज्ञा, पु० [सं०] १. एक राशि २. |
अत्यधिक, यथेष्ट। स्त्री० पुरुष का जोड़ा।
उदा० रीझि गई तुमहूँ सुनि रीझि न बोलती बेनी उदा० १. सिंह कटि मेखला स्यों कुंभ कुच मिथुन
प्रवीन मुकी है।
बेनी प्रवीन त्यों मुखबास अलि गुंजै भौहेंधनु सीक है।
मुकुलाना-क्रि० स० [सं० मुकुलित] बन्द करना -दास
झपाना, कुछ खुला और कुछ बन्द रखना। मिसहा-वि० [सं० मिस+हिं० हा प्रत्य] बहाना
उदा० रूखे बचननि दुख दूखे मुख सूखे दुति करने वाला, छली ।
देखिबे को भूखे दृग राखे मुकुलाइ के। उदा. मैं मिसहा सोयो समुझि, मुंह चूम्यौ ढिग
-देव जाइ ।
-बिहारी मुकेस--संज्ञा, पु० [फा० मुक्कैश चाँदी-सोने के मीखना-क्रि० स० [सं० मिष] मींजना, नष्ट चौड़े तार, २. सोने-चांदी के तारों का बना करना, बंदकरना,।
कपड़ा, बादला। उदा० सीखति सिंगार मति तीखति प्रवीनबेनी, | उदा० १. पीत सित मिश्रित मुकेसन समस्त सारी सौतिन की मीखति गई है सुखसारे की। जाहिर । जलूस जाको जगत जगी परै -बेनी प्रवीन
-पजनेस मीतल-संज्ञा, पु०[सं०मित्र] मित्र, प्रिय, प्रियतम। २. सजि मुकेस के बेस तिय, मनहुँ मैनको उदा० सीतल नीर समीर भयो अब, धीर धरौं । फौज ।
-तागरीदास
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मुंचति
मुलाना मुंचित-वि० [सं० मुंच] मुक्त, बिखरे हुए खुले। मुद्रित-वि० [सं०] १. आवृत्त, घिरा हुआ,
चिह्नित २. छाप लगाना, सिक्का चलाना ।: . उदा० चीकने मेचक रुचिर मुंचित सुकुंचित केस । । उदा० १. मुद्रित समुद्र सात मुद्रा निज मुद्रित
-घनानन्द कै, भाई दिसि दिसि जोति सेना रघुनाथ की मुचंड-वि० [हिं० मुच्चा+अंड] १. भद्दो,
- केशव २. मोटी।
मुधाकांति संज्ञा, स्त्री [सं०] असत्यकांति उदा० मोटी मुचंड महामतवारिन मूड़ पै मीच
मृगतृष्णा । फिरै मड़रानी।
-पद्माकर
उदा० कौल सनाल कि बाल के हाथ छिपी कटि मुचताना-क्रि० स० [सं० मोचन ] छोड़ना,
कांति की भाँति मुघाकी ।
- देव त्यागना ।
मुफित . क्रि० वि० [अ० मुफित] अत्यधिक, उदा० मान मुचितेय उचितैय पिय संग रंग रति
बहुत ज्यादा । के रितये बल काम कमनैत को -देव
उदा० नन्दराम कामिनी अतरतर कीन्हे बास केस बाहन बिधाये बांह, जघन जघन माह कहे
पास गुंफित मुफित झोप झलकी । छांडो नाह नाहि गयो चाहे मचिक।-देव मचे-क्रि० वि० हिं० मुचामुच्च] पूर्णतया,
-नन्दराम अच्छी तरह ।
मुरमुरे--वि० [अनु०] चुरमुर । उदा० माधव जू मधुमास मधुम्बन राधिका सों
उदा० फेबी गूझा गजक मुरमुरे सेव सुहारे । करि केलि मुचेते। -मालम
-सोमनाथ मचेत-वि० [सं० मुंचित] छुटे हुए, मुक्त।
मुरवा-संज्ञा, पु० [देश॰] एडी के ऊपर के उदा. हयगय समय ह चिक्करत नहिं टरत
चारों तरफ का घेरा।
उदा०--पिय बियोग ते तरुनि की पियरानी मुख __ बीर मुचेतहू।
--पद्माकर मुतिसरी-संज्ञा, स्त्री, [सं० मुक्ता+सृक] मुक्ता
जोति । मृदु मुरवा की बूँघुरी कटि में किंकिन
होति । लड़ी, मोती की लड़ी।
-सोमनाथ उदा० लूटि सी करति कलहंस यग देव कहै द्रटि
मुरस्सैकारी-वि० [अ० मुरस्सः-जड़ाव ] मुतिसरी छिति छूटि ठरहरी लेति ।-देव
जड़ावदार जडाऊ। मुदाम-अव्य [फा०] सदैव, हमेशा ।
उदा० बैठी है हिंडोरै बीच तखत मुरस्सैकारी जेब उदा० सो अन्योन्य आयुस मैं दोऊ जहाँ उपकरें.
सरदारी की मजेज न भुलावहीं । कहै कबि दूलह यों रचना मुदाम की । --
-नागरीदास दुलह बूड़ति अथाहैं, कुल धरम निवाहै कौन | मुरार-संज्ञा, पु० [सं० मृणाल] कमलनाल की बाबरी? बिलोकि यह उकति मुदाम की।
जड़, कमलनाल । -द्विजदेव
उदा.-बार सी मरार तार सी लौं स तजी मैं अब मुदिर-संज्ञा, पु० [सं०] बादल, मेघ ।।
जीवित ही हहै वह प्रानायाम साधी उदा० कहैं मतिराम दीने दीरघ दुरद बृन्द, मुदिर
सी।
-दास से मेदुर मुदित मतवारे हैं। -मतिराम मुरासा-संज्ञा, पु० [अ० मुरस्सा] कर्ण का एक मारुत मंडल मध्य में, मेदुर मुदिर मिलाहि
भूषण । -रघुराज
उदा० लसै मुरासा तिय स्रवन यौं मुकतनु दुति मुद्दति--संज्ञा, स्त्री, [अ० मुद्दत ] अवधि, बहुत
पाइ।
-बिहारी दिन, अरसा ।
मुलकना-क्रि०प० [देश॰] पुलकित होना, नेत्रों उदा० कहै कवि गंग यह देखिबे को प्राज काल.
में प्रसन्नता प्रकट करना, २. झांकना। काबली की मुद्दति गिरीस गिरवान की। उदा० १. सकुचि सरकि पिय निकट ते, मुलकि
-गंग कछुक, तन तोरि ।
-बिहारी मुद्ध--वि० [सं० मुग्ध] मूर्ख, मूढ़ ।
२. प्रेमभरो पुलकै मुलक उर ब्याकुल के उदा० गत बल खान दलेल हुव, खानबहादुर मुद्ध
कुल लोक लजावै।
-देव भूषण | मुलाना-क्रि० स० [प्रा० मुर] १. उत्पीड़ित
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मुसजर
( १६०
करना, दुख देना २. विलास करना । उदा० छोमन ही छीजी रस लोभन पसीजी सुवनि उर मीजी, मोजी मदन मुलाइकै ।
देव
मुसजर - संज्ञा, पु० [अ० मुशज्जर] एक प्रकार का छपा हुआ कपड़ा ।
उदा० ताफता कलन्दर बाफत बन्दर मुसजर सुन्दर झिलमिल है । - रुदन मुसद्दी संज्ञा, पु [ मुतसद्दी] स्वामी, राजा २. मुंशी लेखक ३. शासनाधिकारी, प्रबन्धकर्ता उदा० कहा भयो दिना चार गद्दो के मुसद्दी भए बद्दी के करैया सब रद्दी होइ जायँगे ।
- गंग ३. प्राय खुदी तू करत री, भई मुसद्दी मैन, गुद्दो पर क्यों चढ़त है, मुद्दो करिबन ।
—नागरीदास मुसब्बिर ] चित्रकार
मुसब्बर -संज्ञा, पु० [अ० तस्वीर बनाने वाला । उदा० मानहु मुसब्बर मनोज को मुकब्बा मंजु फैलि परयो, ताकी तसबीरं उड़ी जात हैं ।
-ग्वाल
मुसुरू --- संज्ञा, पु० [अ० मशरूअ ] एक तरह का धारीदार कपड़ा ।
उदा० घांघरो सिरिफ मुसुरू को सो हरित अँगिया उरोज डारे हीरन के हार को ।
रंग
-तोष चोली का बन्द २.
मुहरे - संज्ञा, पु० [?] तनी शतरंज के महरे, गोट । उदा० गंग कहै खरे नीके खए खगी, बैठि गए मुहरे अंगिया के । गंग
मुहार - संज्ञा, स्त्री० [?] ऊँट की नकेल । उदा० जाहि ताहि को चित्त हरे, बाँध पैम कटार चित्त आवत गहि खचई भरिकै गहै मुहार । --रहीम मुहीम - - संज्ञा, स्त्री० [ प्रभु ] चढ़ाई, लड़ाई, युद्ध ।
उदा० बाढ़ी सीत संका, कांप उर तंका लघुसंका के लगेते होत लङ्का की मुहीम | -- गंग मुहुप -- संज्ञा, पु० [सं० मुख] मुख, २. श्रानन्द । उदा० चाहति चल्यो तू चितं चत रुचि राधे चित मेरे अति चिंताळे चीति बिम्ब ज्यों मुहुप की । --देव मूठ – संज्ञा, पु० [सं० मुष्टि ] जादू टोना, मुहां०
)
मूठ चलाना - जादू करना । उदा० बाल अनूठियं ऊठ गुलाल की मूठि मैं लालहि मूठि चलावै ।
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- घनानन्द
मूठि - संज्ञा, स्त्री [सं० मुष्ठिक] मुट्ठी, मारण । उदा० भरि गुलाल की मूठि सों गई मूठि सी मारि । —बिहारी मूलन - संज्ञा, पु० [सं० उन्मूलन] [वि० उन्मू[लित] समूलनष्ट होना, जड़ से उखड़ना । उदा० फूले न बाग समूले न मूले ऊपले खरेउर फूले फिरैया । देव
मूलस्थली संज्ञा, स्त्री० [सं०] थाला, श्रालबाल उदा• कहूँ बृक्ष मूलस्थली तोय पोबे मातंग सीमा न छोबे ।
।
मृगंछी -- वि० [सं० मृगाक्षी ] मृग के वाली, मृगनेत्री । उदा० फेरि फेरि हेरि मग बात हित पक्षीहू मृगंछी जैसे पक्षी पिंजरा
मुग- लंछन - संज्ञा, पु० [सं० शशि, चन्द्रमा । उदा० मुख मृग-लंछन सौं कटि मृग के से दृग, भाल बैदी मृगलच्छन -संज्ञा, पु० [सं०
चन्द्रमा ।
मेज
महामत्त - केशव
समान नेत्र
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बंछी पूछे पर्यो ।
- देव
मृगाङ्क] मृगाङ्क;
मृगराज की सी मृगमद की । --सेनापति मृगाङ्क] मृगाङ्क, उदा० मृगपति जित्यो सुलंक सों मृगलच्छन मृदुहास, मृग मद जित्यो सुनैन सों, मृगमद जित्यो सुबास । मतिराम मृडानी --संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती का एक विशेषरण, पार्वती । उदा० कौन मृडानी को जनक हैं, परबत
सरदार ।
-दास
मेंड़ा - संज्ञा, स्त्री० [हिं० मटकी, मेटा ] महेंड़ा, दधिपात्र, दहेंड़ी। उदा० नापत मही ठगत मेंड़ा चारी । मॅज -संज्ञा, पु० [फा० भोज्य पदार्थ । उदा० सखिन सुधारी सेज,
में डारि अँगुरियाँ
- बकसी हंसराज मेज ] मोज - सामग्री,
मेज मंजु मौजकारी, लखत लगारी होत घोट में किबारी की ।
ग्वाल
सॉटन के सुरख बिछौना बिछे सेज पर, रंगामेज मेज मनमौज की निसा करें ।
-- ग्वाल
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मेदुर
मोत मेदुर-वि० [सं०] १. सघन, २. कोमल ।। है।
-आलम उदा० १. मारुत मंडल मध्य में, मेदुर मुदिर मैरु-संज्ञा, स्त्री० [सं० मृदर प्रा० मिथर] सर्प मिलाहि ।
रघुराज | के विष की लहर। कहै 'मतिराम' दीने दीरघ दुरद बृ'द, मुदिर से उदा. घेरु घर बाहर ते मेरु सो परत पावै हेरि मेदुर मुदित मतवारे हैं।
-मतिराम
टेरि हारी हितू गाररुह हरिसी। -देव मेर- सज्ञा, पु० [सं० सुमेरु] पुराणों में देखे ताहि मैरु सो पावत मनहु भजु गिनि कारी । उल्लिखित एक पहाड़ जो सोने का माना गया
__-बकसी हंसराज
मैलना-क्रि० स० [देश॰] १. दीपक बुझाना, उदा० उन्नत उरोज कसी कंचुकी कुसुम्भी लसी २. रखना, डालना। . भुजबन्द मोती माल कंठसिरी मेर मैं ।
मुहा० दिया मैल डारना-दीपक बुझाना ।
बेनी प्रवीन उदा० १. दिया मैल डारो उघारो न देहं । छुवो मेलना-क्रि० प्र० [हिं० मेल+ना (प्रत्य॰)]
ना पिया मो हिया पाइ ऐहं । -बोधा १. एकत्रित होना, इकट्ठा होना, २. मिलना, मोई--वि० [हिं० मोयन] भीगी हुई, प्रार्द्र, ३. फकना, रखना, पहनाना डालना (क्रि० | पगी हुई, डूबी हुई । स०)।
उदा. पानि परी चित बीच अचानक जोबन रूप उदा० १. केशव बासर बारहें रघुपति के सब
महारस मोई।
-देव बीर, लवणासुर के यमहि जनु मेले यमुना मोकर-संज्ञा, स्त्री० [सं० मुक्ति] स्वतंत्रता तीर ।
-केशव आजादी । ३. डेल सो बनाय प्राय मेलत सभा के बीच, उदा० प्रेम पढ़ाइ, बढ़ाइ के बंधनु दोनों चढ़ाइ, लोगनि कबित्त कीबो खेलि करि जानो है।
कढ़ाइ कै मोकार ।
-देव -ठाकुर मोकल-वि० [सं० मदगलित] मदोन्मत्त, मद मैगल गवन-वि० [सं० मदकल+गमन] गज- युक्त । गामनी, मदगलित हाथी की भांति गमन करने । उदा. कद के बिलंद मद मोकल जे मथिबे को वाली।
मंदर उदधि दावादारनि के दल के ।-गंग उदा० स्रम कुम्हिलानी बिललानी बन बन डोलैं मोकुल-वि० [सं. मदगलित] मदोन्मत्त, मद मैगलगवन मुगलानी मुगलन की।
युक्त ।
-भूषण उदा० गोकुल मैं कोकुल न मोकल सनि गावै. मैजलि-संज्ञा, स्त्री० [अ० मंजिल] १. पड़ाव
कोकिल कलापिन प्रलाप पिक बैनी के। मंजिल २. यात्रा, सफर।
-देव उदा० पास उर धरे परे पायन पसारि घरै, मोच--संज्ञा, पु० [सं० मोचन मुक्ति, छुटकारा, मैजलि समाइ सोइ गये कैसे मन के।
मोचन, समाप्ति ।
--बेनी प्रवीन उदा० मोचु पंच बान को भरोच अभिमान को ये मैंन-संज्ञा, पु० [हिं०मायन], मायन, विवाह में __ सोच पतिप्राण को सकोच सखियन को। होने वाला मातृ एवं पितृ पूजन।
--देव उदा० नीकी अगवानी होत सूख जनबासौ सब मोजरि--संज्ञा, पु० [राज.] जूता, पदत्राण । सजी तेल ताई चैन मैंन मयमंत है।
उदा० जरीस जोंति जा मयं, दिपंत कंठ दामयं,
-सेनापति } प्रसंसि पाइ मोजरी, जराउ हेम संजुरी। मैन-संज्ञा, पु० [सं.] . मोम ०. कामदेव ।
-मान कवि उदा० १. सेज मैन सारी सी है सारी हूँ बिसारी मोजी-संज्ञा, स्त्री० [राज० मोजरि] जूती, सी है।
मालम
पदत्राण । मैनसारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० मदन+सारि= उदा० मोजी सिये जरदोजी बुटीन उरोज उठे गोट] मोम की बनी हुई गोट या पासा।
अठिलात सकोचनि ।
-देव उदा० सेज मैन सारी सी है सारी हूँ बिसारी सी मोत--संज्ञा, स्त्री॰ [सं० मूत] मोटरी, गठरी ।
है। विरह बिलाति जाति तारे की सी लीक | उदा० जज्ञ कर्म बिनु कर्म जो जगबंधन ते होत ।
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मोदधि
(
१६२
तिन कार्जे कर्मन करौ मेटि फलन को मोत ॥ - जसवन्त सिंह मोदधि-- संज्ञा, पु० [सं० महोदधि ] महोदधि,
महासागर |
उदा० गंग कहै ऐसे गज बकसत घरी घरी, जैसे गज मोदधि मथेई पाइयत हैं गंग मोना- क्रि० स० [हिं० मोयन ] १. तल्लीन डुबाना, मोहित करना,
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करना, पागना, २. भिगोना । उदा० कुटिल कुराही कूर कलही कलंकी कलिकाल की कथान मे रहे जे मति मोइ कै । - पद्माकर
मोसन - सं० पु० [फा० मुसिन] चतुर, अनुभवी ता पीछे सवार सूर केसव सब मोसन । — केसवदास त्यागना,
मौकना — क्रि० सं ० छोड़ना । उदा० बीर रघुनन्दन को
[सं० मुक्त]
मौको न सीत लंक सहित पयोधि पार
हुकुम नाँती, ले धरौं । - सोमनाथ
यचा - संज्ञा, स्त्री० [फा० जच्चः ] प्रसूता स्त्री, वह स्त्री जिसे हाल में बच्चा पैदा हुआ हो । उदा० बंचति न काहू लचि रंच तिरछाइ डीठि संचति सुजसु यचा संचति के सोहरे ।
- देव यरक्की - संज्ञा, पु० [फा० एराक़ी ] श्ररब देश का घोड़ा, ताजी ।
उदा० घूंघट यरक्की तरुनाइयो थिरक्की पाइ रूप की तरक्की सब सौतिन करक्की है ।
यानो - वि० [सं० ज्ञान] ज्ञानवान, ज्ञानी ।
तोष
>
येपै
मौज-संज्ञा, स्त्री० [अ०] पुरस्कार, बकशीश, इनाम, २. तरंग, लहर, ३. प्रानन्द ।
उदा० १ रहति न रन जैसाह मुख लखि लाखन की फौज । जाँचि निराखर हू चलें ले लाखन की मौज । बिहारी भूषन मिच्छुक मोरन को प्रति जोजहु तें बढ़ि मौजनि सार्ज । -- भूषण
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-प्रालम
मौड़ी - - संज्ञा, स्त्री० [देश० ] लड़की । उदा० कान्ह सों पिछौड़ी है कि कान्ह की कनौडी है कि, मौड़ी है जु डरपी के छल प्रति छाई है । मोरना - क्रि० सं० [हिं० मौर + फूलना, बौरना । उदा० एड़ी अनार सी मौरि रही, चंपे की डार नवाऊँ । मौरसिरी - संज्ञा, स्त्री० [स० १. मौलश्री नामक एक पुष्प, २ [वि० सिरमौर ] । उदा० मौरसिरी हो को पैन्हि के हार भई सब के शिर मौरसिरी तू । --देव
न ( प्रत्य० ) ] बहियाँ दोउ - रसखानि मौलकी ] शिरोमणि
य
उदा० बाहर मूढ़ सु अंतस यानो । ताकहँ जीवन मुक्त बखानो । —केशव याल – संज्ञा, पु [ फा अयाल ] घोड़े, सिंह श्रादि के गरदन पर के बाल । उदा० यालनि जटित मंजु मुकता हैं ।
चन्द्रशेखर
येपै - श्रव्य० [सं० एषा + अपि ] इस पर, तथापि, फिर भी ।
उदा० येपै कर मेरो तेरी बलया बिची में धँसि पूजि कुच शंभु प्रास पुजई घनेरी है ।
-ग्वाला
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रंक-संज्ञा, पु० [रंक] सफेद चित्ती वाला मृग, | उदा० पीरे अचरान स्वेत लुगुरा लहरि लेत २. दरिद्र, गरीब ।
लुगी लँहगा की लाल रंगी र गहेरा की। उदा० लखि जु रंक सकलंक भो पंकज रंक
-देव मयंक ।
-दास रंगामेज-वि० [हिं० रंग+फा० पामेज] रग रंग-संज्ञा, पु० [सं०] १. युवावस्था, जवानी मिलाने वाला, पामोद-प्रमोद उत्पन्न करने २. युद्धस्थल, रणस्थल ।
वाला, आनन्दवर्धक । उदा०२. करन छुवत बीच ह के जात कुंडल के, उदा० साँटन के सुरख बिछौना बिछे सेज पर रंग मैं करें कलोल काम के सुमट से।
रगामेज मेज मनमौज की निसा करें । - सेनापति
-ग्वाल रंगरखिया-संज्ञा, पु० [हिं० रंग = शोमा, रंधना-क्रि० प्र० [सं० र धन] उबलना, गरम मानन्द-सं० रक्षक-शोमाशाली, विनोद
होना। शील] सुन्दर, विनोदी।
उदा. तरल नदी नालन के नीर ते रधन लागे । उदा० रीझ रिझबारि इन्दबदनी उदार सररूख
- ग्वाल की सी डार डोलै रंग रखियन मैं । -देव | रंपना-क्रि० प्र. [सं. रंभन] रोना, विलाप रंगराई-संज्ञा, पु० [हि. रंग + सं.राज ].
करना। आनंद के स्वामी, श्री कृष्ण ।
उदा० जा दन तें जदुनाथ चले. तजि गोकुल कों उदा० कोटि उपाइ न पाइये फेरि, समाई गई मथुरा गिरिधारी । ता दिन तें वृजनायिका रंगराइ के रूप मैं ।
सुदरि, रंपति झंपति कंपति प्यारी। रंगराती-वि० [हिं० रंग सं० रत] प्रेम में
-गंग रत, अनुरक्त।
रंभोरु -संज्ञा, स्त्री० [रंमा=केला+उरु= उदा. रंगराती-हरी हहराती लता कि जाति जाँघ] समान सुंदर जाँघ वाली नायिका । समीर की झंकनि सों।
-देव । उदा० रंमोरु पदम रमा को सो परिर'नन भूलनिहारी अनोखी नई उनई रहती इत | दे गंभीर मनोज प्रोज प्रारंभि सिरा उती। ही रंगराती। ___..- देव
--देव रंगरेजना-क्रि० स० [फा० रंगरेज] रंग भरना, | रक्कसा--सज्ञा, पु० [सं० राक्षस] राक्षस । किसी रंग में रंगना, रसमय करना।
उदा० विष जल व्याल कपाल रक्कसा, पावक ते उदा० उरज उतंग प्रमिलाषी सेत कंचुकी है, राखी
तुम रक्षे ।
- सोमनाथ ना कळूक चित चोप रंगरेजे मैं।
रगमगे--वि० [हिं० रंग+सं० मग्न] प्रेम से
-बेनीप्रवीन युक्त प्रेममय । रंगरैनी-संज्ञा, स्त्री [?] १. एक प्रकार की उदा० रगमगे मखमल जगमगे जमीदोज और सब लाल रंग की चुनर २. श्याम रंग की चुनरी ।
जे वे देस सूप सकलात है।
-गंग उदा० १. घोरि डारी केसरि सु बेसरि बिलोरि रगींच--संज्ञा, स्त्री० [बुं०] रेखा, लकीर, सीमा
डारी, बोरि डारी चुनरि चुचात र गरैनी उदा० जाय सके न इतै न उतै सो घिरेनर नारि ज्यों ।
-पदमाकर सनेह रगींच में।
- ठाकुर दूलह दान चढ़े रन कौं रिपु भूमि रकत्त रच्छ--संज्ञा, पु० [सं० राक्षस] राक्षस । भई रंगरैनी ।
-गंग उदा० देव मुनि रच्छक, औ रच्छ कूल मच्छक, २. भाव बढ़े चित चाव चढ़' र गरैनि
सुपच्छिरज गच्छक, ततच्छन निहारो है। किधौं रसराज की रेनी। - घनानन्द ।
-देव रंगहेरा-संज्ञा, पु० [हिं० रंग हार ] कपड़ा | रछ-संज्ञा, पु० [सं० राक्षस] राक्षस, दैत्य । रंगनेवाला, रंगरेज।
उदा. देव देव जोग रति पाल्यो, रछ उर साल्यो,
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रजनी
ढंग ।
रमन ल्यायो वरनारि, मारि, छपाचर छली को।। पंक्ति जो दीवाल पर जोड़ी जाती है। समूह,
--देव । राशि । रजनी--संज्ञा, स्त्री० [सं०] हल्दी।
उदा० गरदा से परे मुरदानि के रदासे तहाँ लीन्है उदा० है रजनी-रज मैं रुचि केती कहा रुचि
मंक बैठ्यौ सिरदार रेक प्रेतु है। रोचन र'क रसाल मैं। -द्विजदेव
-कुमारमणि रजी--वि० [सं० रंजन] रजित, रंगी हुई, रन-संज्ञा, पु० [सं० अरण्य] १. अरण्य, वन युक्त।
२. समुद्र का छोटा खण्ड । उदा० प्रेम भरी पुर भूप सुता गुरण रूप रजी रज उदा० सेइ तू गुरु चरन जीति काम हू को बल, पूतिनि राजै ।
-देव। बेदहू की पूछि तोसों यहै तत्त कहिहै। रठु--वि० [?] शुष्क, रूखा, नीरस ।
-सेनापति उदा० मेरी कही मानि लीजै प्राज मान मांगे
२. देखें सुरसिधुरन चढ़ सुरसिंधुरन, कूल दीज, चित हित कीजै तपती जै रोस रठु
पानिहू पिय त्रिसूल पानि हूजिये। -रघुनाथ
-सेनापति रडु-वि० [प्रा०] १. पतित, नीच, पामर २. रफ-संज्ञा, स्त्री० [फा०] १. गति, प्रभाव २.
एक छन्द । उदा० १. काल पहुँच्यो सीस पर नाहिन कोऊ उदा० साँझ समै न रहै रफ मानु की, ता समैअङ्क । तजि सब माया मोद मद रामचरन
याको मुखाइबोसाँध। -बेनी प्रवीन भजु रड्ड ।
-दास
२. पिय के अनुराग सुहाग भरी रति हेरे न रढ़ना-क्रि० स० [हिं० रटना] रटना, किसी
पावति रूप रफै।
-घनानन्द चीज को बार-बार उच्चारण करना।
रबि-संज्ञा, पु० [अ० रब] ईश्वर, भगवान, उदा० हसिहे सखि गोकुल गाँव सबै रसखानि सबै परमात्मा। यह लोक रढ़ गौ।
-रसखानि उदा० ग्वालकवि भाष्यो रबिजाने जो लयो मैं रताई-संज्ञा, स्त्री० [सं० रक्तता ] रक्तता, माल हाल भयो और इमि कहत तितें तितें। लालिमा।
-नवाल उदा० केसर निकाई किसलय की रताई लिये रमक-संज्ञा, पु० [?] झूले की पेंग, २. झोंका झाही नाहीं जिनकी धरत अलकत है।
तरंग ।
-हरिलाल | उदा० राखत नाहि निहोरैहु ते, सुबढ़ी रमक रतोली-वि० [सं० रक्त, प्रा. रत्त+हिं०
तरुनाई के चाँयनि ।
-नागरीदास ईली प्रत्य.] लालरंग वाली।
दमकनि दामिनि की भामिनि की रमकनि उदा० सारी सितासित पीरी रतीलिह में बगराब
झमकनि नेह की करोर रतिहन की। वहै छबि प्यारी। -दास
-नाथ रत्त-वि० [सं० रक्त] रक्त, लाल ।
झमक जरी की तामै रमक हिंडौर की। उदा० सित आसू अंजन बिना यकटक कोये रत्त
-ग्वाल तातपर्ज प्रगटे तहाँ, दरसन बिना बिरत्त । | रमड़ना-क्रि० प्र० [सं० रमण] व्याप्त होना
-देव फैलना, ठहरना । रथंग-संज्ञा, पु० [सं० रथाङ्ग] चक्रवाक उदा० कुंदन के रंग मृदु अंग तिहि सुंदरि की पक्षी।
नैननि के अन्दर निकाई रमड़ी रहै । उदा. अंग अंग अनंग तरंगित रंग, उरोज रथंग
-सोमनाथ बिहंगम जोती।
-देव रमतूला-संज्ञा, पु० [देश॰] एक प्रकार का बाजा रव-वि० [अ० रद्द] १. खराब, बेकार, अना- उदा० जल तरंग मुहंचंग गिड़गिड़ी तुरही पर कर्षक २. दांत [सं०] ।
रमतूला ।
-बकसी हंसराज उदा० नासा लखे सुकतुंड नामी पै सुरसकुंड रद है रमन-वि० [सं० रमणीय] रमणीय, सुन्दर । दुरद-सैंड देखत दुजान के।
-दास | उदा० कंजारन ताल सुखदायक । रमनबाग तिहि रवासे-संज्ञा, पु० [फा रद्दा] रद्दा, ईटों की एक
तद नरनायक।
-बोधा
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-केशव
रमल ( १९५ )
रसभरा रमल-संज्ञा, पु० [अ०1 एक प्रकार का फलित । कनक-कली पैमली जात न लजात हो । ज्योतिष, जिससे पासे फेंककर भविष्य की बाते
-प्रतापसिह जानी जाती हैं।
रवन-संज्ञा, पु० [सं० रव+हिं० न] शब्द, उदा० राति को तमासो सुनौ सोई गुरुजन जब मावाज । कीन्हो अभिसार तब साधिक रमल सो।। उदा० झांद झाँइ झिकरत झिल्ली धारि जील
-रघुनाथ
अरु, को गर्ने प्रनंत बन जीव के रवन की। रयना-क्रि० प्र० [हि० रटना] १. रटना,
-सोमनाथ उच्चारित करना २. अनुरक्त होना सिं० रंजन] रवनगेह-संज्ञा, पु० [सं० रमण + गृह] मदउदा० १. प्राकास बिमान अमान छए । हा हा । नालय, स्त्रियों की गुप्तेन्द्रिय, योनि ।' सबही यह शब्द रए।
-केशव
उदा० नाभि तो गंमीर, न गंभीर हो रवन गेह. २. सेमर फूल तूल के रये । परद गात मख
कहै गंग कामिनी कहूँक ऐसी पाइये। मल मढ़ि लये ।
-गंग ररकना -क्रि० प्र० [अनु॰] कसकना, पीड़ा देना, रवला-संज्ञा, पु० [हिं० रोल] ध्वनि, शब्द । सालना।
उदा० बेनी प्रवीन कहैं ज्यों चलै कटि, किंकिनी उदा० सपनो कि सौति कहौ सोवति की जागत स्योंही रचे रवला वह । -बेनीप्रवीन री, जानो न परत, रोम रोम ररकत री । रवानी - वि० [सं० रमण] १. सुन्दर २. मानन्द
-देव माव में मग्न होना, रमना । थारौं कोटि काम राम केसौ पभिराम पर, । उदा० जित तित छकिहारी जुरि चली, लगति पैठ राजधाम राजरंजित रराकि दे।-देव
खाँनी ब्रज की गली।
-घनानन्द ररमा-क्रि० प्र० [सं० रटन] रटना, चिल्लाना।
२. गोकूल प्रकास्यो ब्रजचंद के उदोत उदा० मनसा हू ररै एक देखिबे को रहै द्वै।
पाली, माज देखौं मांति भौति रावल -घनानन्द रवानी है।
-घनानन्द रलक-संज्ञा, पु० [सं० रल्लक] बरौनी।
रवा-संशा, पु० [फा०] १. सम्बन्धी, सम्बन्ध, उदा० रलि गईरलक झलक जलकननि की, रखने वाले २. रत्न का छोटा टुकड़ा, करण । अलक पराल छुटी नागिन निखेवी की। उदा० १. रन रोस के रवा हैं के लवा हैं श्री
-देव सवाई के।
-पद्माकर रलकना-क्रि० प्र० [हिं० रकना] खसकना, २. क्यों छुवै अंग पै देखत हैं जू जराऊ हटना ।
तरौना मैं रूप रवा को ।
-देव उदा० ज्यौं लरिकापन मैं चलि पाई हो त्यौं रवाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० रमण] रमणीयता,
अंचरा प्रजहूँ मतिडारो। घूघरी की धरि सुन्दरता। डोरी कसौ रलके लॅहगाउ को बूंट सुधारो। उदा० रूप की रवाई जातरूप की निकाई मैन
---सुन्दर
पाई रुचिराई कोटि वार बदले गये। रलना-क्रि० अ० [सं० ललन] मिलना, एक में
-नंदराम मिलना, सम्मिलित होना २. प्रवाहित होना, रसधि-संज्ञा, स्त्री० [फा० रसद] सेना की खाद्य बहना।
सामग्री। उदा० सागर सरित सर जह'लों जलासै जग. | उदा० मागे दीनी रसधि चलाइ । पीछे मापन सब में जो कहे किल कज्जल रलावही।। - चले बजाइ।
--केशव -दास
रसफैली-संज्ञा, स्त्री० [सं० रस+फा० फेल] २. भूषन मनत नाद बिहद नगारन के, काम क्रीड़ा, काम कलोल, रसरंग ।। नदी नद मद गैबरन के रलत है। उदा० सोवति अकेली है नवेली केलि मंदिर
-भूषण
जगाइ के सहेली रसफैली लखे टरिक। रली-संज्ञा, स्त्री० [सं० लालन-क्रीड़ा] क्रीड़ा
-दास केलि, २.मानन्द, प्रसन्नता ।
रसभरा-संज्ञा, पु० [देश॰] ईख के खेत में उदा० रचत रली हौ भली भांतिन विचारि चित
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आहे ना होगा।
परी पोपी भाग्य ल्याय कोक की रहनु भो ।
रसमि
रोन उदा० बीच उखारी रसभरा, रसकाहे ना होय ।। घरी पोथी प्राय ल्याय कोक की रहल मैं । -रहीम
-रघुनाथ रसमि-संज्ञा, स्त्री० [सं० रश्मि] १. चमक, रहसि-संज्ञा, पु० [सं० रहस्] हर्ष, आनन्द, प्राभा, प्रकाश २. किरण ।
प्रसन्नता, २, एकान्त स्थान [सं०] । उदा०ाबसन सफेद स्वच्छ पेन्हे प्राभूषण सब उदा. १. कामिनी कमलननी कर न रहसि हीरन को मोतिन को रसमि अछेव को ।
केलि, कमला बिसारिनी बिसेष बामैं दयो -- रघुनाथ
--गंग रसहाल-वि० [सं० रस+फा० हाल] खुशहाल
रहावन--संज्ञा, पु० [बु.] गायों के एकत्र करने सुखी, प्रसन्न ।
का स्थान । उदा० नैकु चितौति नहीं चितु दे, रसहाल किये
उदा० कान्ह कुंवर सब सखन संग मिलि ठाढ़े जुरे हूँ हियेहू न खोले ।
-देव रहावन ।
--बकसी हंसराज रसही-क्रि० वि० [हिं० रसना] धीरे-धीरे, शनैः ।
रॉज-संज्ञा पु० [सं रंजन] रंजन, कज्जल मादि शनैः ।
लगाने का कार्य । उदा० करबीरी देत करकर उठी रसही।
-आलम
उदा० काछ नयौ इकतौ बर जेउर दीठि जसोमति
रांज करयौ री।। रसाना-क्रि० प्र० [सं० रसना] पृथक् होना,
-रसखानि अलग होना, उदासीन होना।
राइमुनी संज्ञा, पु० [हिं० रइमुनिया] एक छोटा उदा० कहै कबि गंग और औरऊ जू पाक बाक
पक्षी, रहमुनिया। कहत कहत क्योंहू क्योंहूँ न रसाति है।
उदा० राधिकै राइमुनीहि सी कान्ह अचानक -गंग पानि सचान सो लैगो ।
-तोष रसौ-संज्ञा, स्त्री० [सं० रसा] रसा, पृथ्वी। राई संज्ञा, स्त्री० [सं० राज्य] राज्य, राजत्व । उदा० दांब दरेर तरेर अरे, रसौ घेरति आवति
उदा०--मेरुसुमेरु लगै सरसो सम, राई समान घोर घटाई ।
---.देव सुरेस की राई ।
--देव रहचट-संज्ञा, स्त्री० [हिं० रस+चाट] रस की
राघवनिसि-संज्ञा स्त्री० [सं० राघव - राम+ चाट, लालच, प्रबल अभिलाषा।
निसि=रात्रि] राघव क. रात्रि, रामनवमी उदा० १. झमकि झमकि टहलै करै लगी रहचट उदा० पुन्य बिलात पहारन से पल ज्यों अघ बाल ।
-बिहारी राघव की निसि जागे।
-केशव २. रूप रहच लगि लग्यो मांगन सब राछ-संज्ञा, स्त्री [बुं०] बरात, जुलूस । जग पानि ।
-- बिहारी
उदा० चित चौंडेल चढ़ाय लडिलरी तानपुर राछ रहचर- संज्ञा, पु० [देश॰] राह चलने वाले,
फिराई।
-बकसी सिह राज पथिक ।
फिरी राछ लीलावति की जबहो। मांवर सुघरी उदा० कूदत न मृगज चनक मूंदै साखामृग पास
प्राई तबहीं।
-बोधा दृग बूंद बरसत रोझ रहचर ।
राजराज संज्ञा, पु० [सं०] १. कुबेर २. बड़े
-देव राजा, श्रेष्ठ क्षत्रिय । रहठानि . संज्ञा, पु० [हिं० रह-रहना+ठानि
उदा० १. कविकुल विद्याधर सकल कलाधर राज+ठांव, स्थान] बसेरा, रहने का स्थान, वास
राज बरवेष बने।
-केशव स्थान।
राती परी-संज्ञा, स्त्री० [सं० रक्त-लाल+ उदा० कुंजनि में रहठानि करी है नई हरि सौं फा० परी=अप्सरा, बधू] बीरबधूटी, बरसाती पहिचानि करी है ।
-सोमनाथ लाल कीड़ा। मिस ठानि चलै रसिया रहठानि त्यों पानि उदा. राती परी बरषे ठिगारी उड़ धुवांधार भटू अँखियान परै ।
- घनानंद
ऐसी भांति भादौं प्राली मोरही तें मोध्यौ रहल-संज्ञा, स्त्री० [अ०] पुस्तक रखने की
-गंग काष्ठ की छोटी चौको।
| रान-संज्ञा, स्त्री० [फा०] जाँघ, जंघा । उदा० रघुनाथ भावते को पानदान भरी धरी- उदा० गोला से गयंदन के गोल खोलिबे में झिले,
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बरे
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(
रान के इसारे लेत बान के उचट्टा से ।
- पद्माकर
राबरे – संज्ञा, पु० [हिं० रबड़ी] बसौंधी, दूध को गाढ़ाकरके लच्छेदार बनाना ।
उदा
माखन मलाई खांड़ खीरि सिखिरिनि बही मही दूध दही मिले राबरे बरे फिरें । - देव रामचंगी - संज्ञा, स्त्री० [?] एक प्रकार की तोप उदा० चलै रामचंगी धरा में धर्मकै सुने तें । श्रवाजें बली बैरि सके । रामा - संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी २. राधा, ३. रुक्मणि, ४. स्त्री । उदा० १. काँपत सुरेस सुरलोक खल मल अधिक परी है उर
- पद्माकर
हहलत अति, रामा के ।
- नरोत्तमदास
रारे लुग्ग संज्ञा, पु० [हिं० रार = लड़ाई + लोग ] युद्ध करने वाले, युद्धार्थी, सेना | उदा० रारे लुग्ग राखि रखवारे दुग्गवारे रिपु लरजे अपारे सुने गरज नगारे की ।
- सोमनाथ राहबर - संज्ञा, पु० [हिं० राह + सं० वारण] रास्ता रोकने वाला, लुटेरा । उदा० छूटे बार टूटे हार विषमेषु राहबर फैलि फूलि लूटे सुख बूझे तें झुकति हैं । — गंग रावल संज्ञा, पु [सं०] रनिवास, राजमहल,
२. राजा ।
उदा० रावल राधे बिना न रह्यो परं रूप की रीझन ज्यौ जरिहै गो । - गंग राहदारी - संज्ञा, स्त्री० [फा०] चौकीदारी, २. सड़क का कर ३. चुंगी, महसूल उदा० ग्वालन तें गोपन तें, गहकि गहकि मिले, गली में चली है भली बात राहदारी की ।
- ग्वाल
राह पड़ना क्रि० सं ० [फा० राह + हिं० पड़ना ]हि० मुहावरा - डाका पड़ना, लूट पड़ना । उदा० कहै पदमाकर त्यों रोगन की राह परी, दाह परी दुख्खन में गाह प्रति गाज की ।
ततकाल ।
रिख्यो — संज्ञा, स्त्री० [हिं० रेखा ।
—पद्माकर
रिंदगी – संज्ञा, स्त्री० [फा० रिंद] उदण्डता, निरंकुशता, चपलता ।
उदा० तब माधवा उर शंकि के मरि अंक लीन्ही बाल । शरमिंदगी उर धान कीन्हीं रिंदगी - बोधा रेखा ] रेखाङ्कन,
१६७ >
रुख
[?] खसकना,
! उदा० चित्र भई हौं विचित्र चरित्र चित्त चुभ्यो अवरेख रिख्यो से । -देव रिरकना-क्रि० प्र० सरकना २. गिड़गिड़ाना | उदा० प्यौ लखि सुंदरि सुंदरि सेजतें यों रिरकी थिरकी थहरानी । —पद्माकर रिलना - क्रि० अ० [हिं० रेलना ] मिल जाना, तन्मय हो जाना, घुस जाना ।
उदा, उज्वल जुन्हाई में कन्हाई जमुना पुलिन बाँसुरी बजाई रीभि रसही रिलिगई ।
— देव
स्त्री० [ पंजा०] युद्ध,
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रिस - संज्ञा, बरावरी । उदा० लक्ष्मण शुभ लक्षण बुद्धि बिचक्षण रावण सों रिस छोड़ि दई । —केशव
रीरी — संज्ञा, स्त्री० [?] पीतल । उदा० पीरी होत रोरीन रीस करें कंचन को, कहाँ काग-बानी कहाँ कोयल की ढेर है । -भूधरदास रोस – संज्ञा, स्त्री० [पं० सं० ईर्ष्या ] बराबरी, स्पर्द्धा २. डाह ।
उदा० पीरी होत रोरी पै न रीस करें कंचन को, कहाँ काग-बानी कहाँ कोयल की टेर है । भूधरदास
रुज - संज्ञा, पु० [देश० ] एक तरह का बाजा | उदा० घटा घहराति बीजु छटा छहराति, अधि राति हहराति. कोटि-कीट-रुति रुजलौं ।
- देव रु जक - संज्ञा, पु० [देश०] एक प्रकार का
वाद्य ।
उदा० गुंजत ढोलक रुजक पुंज कुलाहल काहल नादति तामे - देव दधती - संज्ञा स्त्री० [सं० मरुधती] एक छोटा तारा जो सप्तर्षि मंडलस्थ वशिष्ठ के पास पड़ता है, २. मुनि वशिष्ठ की स्त्री का नाम । उदा० १. रुधती के नखत लौ लखत न जो लों तौलों झखत नगीच मीच बैठी मैनसर पै । -पजनेस रुकुम- -संज्ञा, पु० [सं० रुक्म] स्वर्ण, सेना । उदा० दीनो मैं तुकुम मंत्र दुकुमनि ठेलति है रुकुम की बेली सी नबेली चारु चेली जू ।
—तोष रुख - अव्य [फा०] ओर, तरफ, २. कपोल, मुख [संज्ञा, पु०] i
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रुखाये
मौन रही
उदा० सुनो इतँ रँगभौन चित चित चकि चौंकि चहूँ रुख । —देव रुखाये - वि० [फा० रुख ] रुख किये हुए, लगाए हुए । उदा० देवान्तक नारान्तक अंतक त्यों मुसकात विभीषरण बैन तन कानन रुखाये जू ।
केशव
रुच्छवि० [सं० रुक्ष] रुष्ट, क्रुद्ध | उदा० पटकत पुच्छ कच्छ कच्छ पर सेस जब, रुच्छ कर मुच्छ पर हाथ लाइयतु है ।
- पद्माकर
रुजिगार — संज्ञा, पु० [फा० रोजगार ] धंधा, पेशा, व्यापार ।
१६८
उदा० रावरी रीति पै रीभि के हो रुजिगार रच्यो शरणागत घावन | - रघुराज रुजुक - संज्ञा, पु० [श्र० रुजून- श्राकर्षण, प्रवृत्त ] चाह करने वाला, आकृष्ट होने वाला । उदा० उठि गयौ प्रालम सो रुजुक सिपाहिन को उठि गौ सिंगार सबै राजा राव राने को । भूषण रुझना - क्रि० म० [सं० रुद्ध] पूरा होना,
सुलझना ।
उदा० कवि ग्वाल अगस्त की शक्ति छई यह ईसुरही पेरु तो रुभं ।
-ग्वाल
रुतनि-संज्ञा, स्त्री० [?] कांति, चमक । उदा० सुतनु अनूप रूप रुतनु निहारि तनु, तुला में तनु तोलति त्रसति है । रुति संज्ञा, पु० [सं० रुत] ध्वनि, शब्द पक्षियों का कलरव । उदा० घटा घहराति बीजु छटा छहराति, अधिराति हहराति, कोटि कीट• रुति रुंज लौं । —देव रुपना — क्रि० प्र० [सं० रोधन] रुकना, रुकावट होना ।
उदा० सोहै चहूँ दिसि में धवली पवलोकित मालनि मैजु रही रुधि ।
रूपना- क्रि० प्र० [हिं० रोपना, ] १. अड़ना २. रोपाजाना, जमीन में
प्रतनु देव २.
बेनी प्रवीन डटना,
लगाया
जाना 1
उदा० पर्यो जोर विपरीत रति रूपी सुरतिरन धीर । करत कोलाहल किंकिनी गह्यौ मौन मंजीर । - बिहारी दरकना- क्रि० प्र० [हिं० लोल] हिलना ।
)
खरा
उदा० लाल लसे पगिया नवलाल कँ, पोत झगा तन घूमे घुमारो । माल मनोहर मोतिन की, रुरकै उर के मधि, आनंद भारौ । -नागरीदास दरना क्रि० अ० [हिं० रूरा] १. शोभित होना, अच्छा लगना २. हिलना, डोलना [सं० लुलन ] ।
उदा. १. सहज हसौंही छबि फबति रंगीले मुख दसननि जोति- जाल मोती माल सी रुरें ।
-घनानन्द
२. सुरंग तन चीर धीर उर रुरत हारावली बिबिध भूषन सजे माँति माँतिन भेली । — ब्रजनिधि थोड़ा-थोड़ा माँगना ' चरितन चित राखौ, कलेऊ रुँगे खात हैं ।
- आलम
रुदना - क्रि० सं० [हिं० रौंदना ] कुचलना, किसी चीज को पैरों से दबाना |
गना - क्रि० सं० [बुं ] उदा० सेवा सावधान देव कहा भयो कान्ह जु
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उदा० ग्वाल कवि बूंदें ढूंदे रुदें बिरहीन होन नेह की नमूदे ये न हुँदै हैं गमाके सो ।
- ग्वाल
लझना — क्रि० अ० [हिं० उलझना ]
उलझना ।
उदा० रीझ की रहनि में अबुझ कहा रु
रूढ़ि - वि० [सं०] दृढ़, पक्की । उदा० प्रौढ़ि रूढ़ि को समूढ़ गूढ़ गेह में गयो । शुक्र मंत्र शोधि-शोषि होम को जहीं भयो । - केशव
फँसना
और गूढ़ कहा कहीं मूढ़ हौ जाहु प्रौढ़ रूढ़ि केसौदास नीके हो । रूप -- संज्ञा, पु० [ सं० रूप्य ] १. चांदी २. सौन्दर्य ।
]
रूरा - वि० [सं० रूढ़ = प्रशस्त २. श्रेष्ठ, उत्तम ३. सुंदर उदा० १. छोड़े तो राधिका सी तौ कुबरी प्रेम के रूरे ।
जू ।
-प्रालम
२. लोभ लगे हरि रूप के करी जाय ।
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उदा० १. रूप की रवाई जातरूप की निकाई मैन पाई रुचिराई कोटिवार बदले मये ।
- नंदराम साँट जुरि - बिहारी
१. बहुत बड़ा
जू ? जानि केरि जाने —केशव
ठकुराइनि राखेँ - रघुनाथ
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रूरो
-ग्वाल
देव
( १६९.
रोक रूरो-वि० [हिं० रूर] संतप्त, गर्म ।
दूती बढ़ावती रैधौं । -बेनी प्रवीन उदा० पौन तौ न लाग्यौ सखी, जोन्ह लाग्यौ । रैनका--संज्ञा, स्त्री० [सं रेणका] १. रेणुका,
दुख देन, मीन लाग्यौ रूरी होन, गंजे मौर बालू २. मिट्टी। भोर लौं।
-गंग
उदा० १. बोधा कवि कपट की प्रीति भीति रूसे-संज्ञा, पू० [सं० ऊटरूष] एक प्रकार का
रैनका की बेद हत जैसे सुमन की सेवा है। पौधा जिसके फल और पते श्वास आदि की
-बोधा औषध है, मड़सा ।
रैनी--संज्ञा, स्त्री० [सं० रजनी] १. खूटी, सोने उदा० तेरी मुख छबि लखि लखै. होत चन्द ता चाँदी के तार को खीच कर बढ़ाने वाला गुल्ली तूल । कंद खाइ के चूसिय, ज्यों रूसे को
२. रजनी ३. तराबोर करने वाला, अनुरक्त फूल ।
-मतिराम करने वाला [क्रि० स०] रेइ-वि० [सं० रंजन] रंजित अनुरक्त, डूबी उदा० .. भाव बढ़ चित चाव चढ़े रंग-रैनि हुई, पगी हई।
किधोंरसराज की रैनी ।
-घनानन्द उदा. महा कमनीय रमनीय रमनीयहू रमावै नर २. दारिद दरैनी, सुभ संपति मरेनी भूरि, मन ह के रूप रज रेइ कै।
-देव
३. पूरन सरैनी, जस, भक्त-रंग-रैनी है। रेखना--क्रि स० [हिं० प्रवरेखना ] देखना, अवलोकन करना।
रैल--संज्ञा, स्त्री० [हिं रेल] अधिकता, भरउदा० धाय घरा सबही के कहे हौं बिकाय गई मार, समूह २. बहाव । इनकी रुचि रेख्यौ।
उदा० सक्र जिमि सैल पर अर्क तम फैल पर रेखिये वि० [हिं० रेखा] अंकित, २, शोभित,
बिघन को रेल पर लम्बोदर लेखिये। प्रकाशित ।
-भूषण उदा० भाल पर रेखा बाल दोषाकर रेखिये । रोगराज--संज्ञा, पु०[हिं० राज रोग] राज रेज-संज्ञा, स्त्री० [?] व्यवस्था, प्रबन्ध ।
रोग, राजयक्ष्मा, एक असाध्य रोग। उदा० पौढ़ी बलि सेज, करौं औषद की रेज बेगि, | उदो० हाहा दीन जानि याकी बिनती लीजिए __ मैं तुम जियत पुरबिले पुन्य पाए हो।
मानि, दीजै पानि औषदि बियोग रोगराज की।
___~- घनानंद रेजा संज्ञा, पु० [फा० रेजा] कपड़े का टुकड़ा, रोचन--संज्ञा, पु. [सं० रोचना ] गोरोचन, कपड़े का थान ।।
एक सुगंधित पीले रंग का पदार्थ जो गौ के उदा बादर न होंय बह मांतिन के रेजा ये. । पित्त में से निकलता है। असाढ़ रंगरेजा रंग सूखिबे को डारे हैं । उदा० रोचन को रुचि केतकि चंपक फूल में अंग
-ठाकुर सुवास भर यो है।
--केशव रेफ- वि० [?] अधम, पापी ।
रोचना--क्रि. स० [सं०. रुचि] रुचि दिखलाना, उदा० रेफ समोरध जाहिर वास सवारहि जा प्रेम प्रदर्शित करना । घरमौ सफरे।
-दास उदा० लोचत फिरत रग रोचत रुचा पै रुच रेवा.- संज्ञा, स्त्री० [सं०] कामदेव की पत्नी, सोच नहीं होत हैं बिधाता बिसरे को यो। रति, प्रेम ।
-ठाकुर उदा० मालती को मिलि जब मलय कूमार पाये. रोज--संज्ञा, पु. [फा०] बिषाद, आपत्ति, रेवा रस रोमनि जगाय नींद नासी है।
कठिनाई।
-मालम उदा रोज सरोजन के परे हंसी ससी की होय । रेह-संज्ञा, स्त्री० [सं. रेखा] रेखा ।
-बिहारी उदा० नील नलिन दल सेज मैं. परी सुतन तनू
नारि उरोजवतीनि के रोजनि कान्ह उचाट देह । लसै कसौटी मैं मनो तनक कनक की
मरे जिउ रोजनि ।
--दास मतिराम रोझ--संज्ञा, स्त्री० [देश ] नील गाय । रँधौं-संज्ञा, पु० [देश॰] झगड़ा, अन्तर, फक। उदा कूदत न मृगज चनक मूदे साखामृग प्रास उदा० नौल किसोर लला मनमोहन. बीच की | दृग बूंद बरसत रोझ रहचर। --देव
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-दास
रोपना ( २.० )
लखान रोपना-क्रि० स० [सं० रोपण] रखना, करना। उदा० केलि के मौन में सोवत रौन बिलोंकि उदा० जो पीय ब्याहि लायौ, तासो रोपी है
जगाइवे कों भुज काढ़ी। छिपन, सब लोक लाज लोपी, दुरनीति रोना-संज्ञा, पु० [सं०आगमन] १. गौने के बाद करी है।
-ग्वाल
प्रथम बार पति गह जाने की रीति २. रोना, रोर-संज्ञा, पु० [देश॰] दरिद्र, दुष्ट, उपद्रवी । रुदन । उदा० राकस, अगर, लंगूर मुख, राहु, छाँह, उदा०१. सौह अनेकनि मावह अंक, करौ रति को मद, रोर।
--केशव प्रति रैन की रौने ।
-केशव रोरना-क्रि० अ० [सं० खण] .. लड़ना, २. रौनी-वि० [सं० रमणीया सुन्दर, रमणीय। उपद्रव करना ३. शोर करना ।
उदा० केसव कैसे हुँ पीठि में दीठि परी कुच उदा० १. लंकगढ़ तोरिबे तें रावन सों रोरिबे
कुंकुम की रुचि रौनी।
-केशव तें माहिं भवबंधन ते छोरिबो कठिन है।
तुव चितौनि ठिकु ठौनि भ्र व नौनि, -पद्माकर निरखि मन रौनि ।
-दास रोरी-संज्ञा, पु० [सं० रोल] १. कलह, झगड़ा, । रोस-संज्ञा, स्त्री० [फा० रविश] १. बाग की २. कोलाहल
क्यारियों के मध्य का मार्ग २. चाल, व्यबहार उदा० १. मेरो रो कान्हर मन मोहो बात प्रेम रग-ढंग । रस रोरी ।
- बकसी हंसराज उदा० १. हौंसन बँधाय रौस रोसन की रोसे रोहना --क्रि० अ० [सं० रोहरण] १. प्राकर्षित
जहाँ सकल सिचाय सीरे नीरहू सेंवारी मैं। करना, खीचना, मोहित करना । २. पहनना,
- प्रतापसिंह चढ़ाना, डाल लेना [क्रि० स०]
२. रीति को रोसन आपनी हौसनि पानी उदा० १. ह्व नबोढ कहुँ मुग्ध-तिया, मोहन मन
परासन को भरती है।
ठाकर रोहैं। हरि-मुख मुनि कहुँ बैनु, सबै-विधि | रोहाल--संज्ञा, पू० [फा० रहवार] घोड़ा, अश्व । राधा माहैं।
"-. द्विजदेव । उदा० जदपि तेज रौहाल बल पलको लगी न २. एक हंसिनी सी विषहार हिये रोहियो,
बार, तउ वेंड़ो घर को भयो पैंडो कोस --केशव हजार।
-बिहारी रौन--संज्ञा, पु० [सं० रमण ] पति. रमण।। सु रोहाल की चाल उत्ताल ऐसे. चलै चारु नायक ।
चौगान में चित्त जैसे ।
-पद्माकर
लंक-संज्ञा, स्त्री० [सं०] कटि, कमर ।
उदा० भसमी बिथा पै नित लंघन करति है । उदा. लागत समीर लंक लहक समूल अंग फूल
- घनानन्द से दुकुलन सुगंध विथुरो परै । -देव लकी-संज्ञा, स्त्री० [अ० लक्का कबूतर]कबूतरी, लंगर-संज्ञा, पु० [फा०] १. लँगोट, २. वह भोजन जो सदा गरीबों को बांटा जाता है, उदा। थकी थहरानी छबि छको छहरानी धकधकी सदावर्त, ३. ढीठ, बदमाश ।
धहरानी जिमि लकी लहरानी है। उदा० २. लंगर का दाता अरु भूखन कनक देत,
-दास एक साधु मन बीस बिस्वा राखि लेत हैं। | लखान-वि० [सं लक्ष] १. लाख, २. अगणित,
-सेनापति बहुत ज्यादा । लंगर सु अनगिनित बटत सार।-जोधराज | उदा० कह.यौ चाही सो तौँ तुम मोहीं सौं बुलाय लंघन - संज्ञा, पु० [सं० ] उपवास, व्रत
कही पान-कान परे तें लखान कान परिहै। निराहार ।
-केशव केशवराय
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लखिया ( २०१ )
लद्धना लखिया-संज्ञा, स्त्री० [सं० लदमी] लचमी । | लछारना-क्रि० अ० [?] धूपना, सुवासित उदा० साँवरी सलोनी गुरणमंती गज गौनी महा करना । सुन्दरी, सुघर लाख-लाख लखियन में। - देव | उदा. कैसे यह राजत सुगन्ध के लछारे कहिये लग-संज्ञा, स्त्री [हिं० लग्गी] लग्गी, कंपा,
जैसे यह कोमल ललित सुकुमारे हैं। जिससे चिड़िया फंसाई जाती है।
-पजनेस उदा० लहलहाति तन तरुनई लचि लग लौं लफि चीकने सघन अंधियारे ते अधिक कारे लसत जाइ। लगै लोक लोइन भरी लोइनु लेति
लछारे सटकारे तेरे केस हैं। लगाइ। -बिहारी
-मनोज मंजरी लगबगरी-वि० [हिं० लगबगाना=लचकना]
चतुर्थ कलिका से लचलची, नरमीली।
लटकना-क्रि० स० [हिं० लटक] मस्ती से उदा० लंक लगबगरी कलंक लग बगरी सखीन झूमना, बलखाना, २. बन्द होना, समाप्त
। सँग बगरी सखीन संग सगरी । -देव होना। लगलगी वि० [अ० लक़लक़] सुकुमार, कोमल, उदा० .. चटकीलो भेष करे, मटकीली भांति लचकीली [हिं० लचलची] २. दुर्बल अंग
सोही, मुरली अधर धरे लटकत पाय हौं । वाला।
-घनानन्द उदा. अखियाँ अधर चुमि, हाहा छोड़ो कहे
२. जाने जौन काज को प्ररंभ कर दीन्हों घूमि, छतियाँ सो लागी, लगलगी सी
ताको, तीन काज कहा बिन भये लटकत लहकि के। -देव
-ठाकुर उरज उचौहैं भुज भाई ज्यों नचौहैं,
लटकीली-वि० [हिं० लचक] लचीली, जल्दी मौंह जघन सघन लंकलीक सी लगलगी। झुक जाने वाली ।
उदा० लटकीली लंक त लटाइ लटे लेत लोग. लगाना-क्रि० स० [हिं० लगना] जलाना, सिर पटकीली भई सौतिन की छति है। प्रज्वलित करना।
-बेनी प्रवीन उदा० दरस, परस, कृपा-रस सींचि अंग-लता, लटपटी-वि० [हिं० लटपटाना] १. थकित जो तुम लगाई सोई मदन लगाई है।
२. शिथिल, ढीलाढाला।
-सेनापति उदा० लपटी न लौटि, नील पटा ह्व', सलौट लगालगी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लाग] १. लाग
लटी लाज लटपटी, लटपटी भुजमूल पर । चोरों का उपद्रव, २. देखा देखी ।
-देव उदा० क्यौं बसिय क्यों निबयि, नीति नेह पुर लटी-वि० [सं० लट्ट ] १. बुरी, खराब
नाहिं । लगालगी लोइन करें, नाहक मन । २. तुच्छ, हीन । बँधि जाँहि ।
-बिहारी उदा० कहिबे सुनिबे की कळू नहियाँ लटी मौ लगि-संशा, स्त्री० [हिं० लाग ] प्रेम की
मली को दुःख पावन हैं।
-ठाकुर लगन ।
तुम ऐसहीं मोहि लटी करतो मन मेरी उदा० पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि के लगि लागि कही नहीं मानतु है।
-बोधा गयो कहुँ काहु करटो।
.-रहीम लड़क-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लटक] प्रदा, लगुन - संज्ञा, पु० [सं० लग्न] १. शुभ मुहूर्त, १. अंगों, की विशेष मुद्रा, मस्ती, २. लचक । २. विवाह, शादी।
उदा. पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं । उदा० यह मन भयनो लगुन को नारियल सब नेगन
-घनानन्द के माहीं।
-बकसी हंसराज | लड़वाना-क्रि० स० [हिं० लाड-प्यार] दुलार लछना-क्रि० स० [हि० लछना= सजाना] | करवाना, लाड़-प्यार करवाना। सजाना, अलंकृत करना ।
उदा० प्राली या महल औरे टहल उठाय राखी, उदा० काम बस सूपन खा नाम गनिका सी तरी, | पाठहू पहर लड़वाइयति लाड़िली । क्रोध बस रावन तो जो लंक लाछेई ।
-देव -पद्माकर लद्धना-क्रि० सं० [सं० लब्ध] प्राप्त करना,
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लदाइ ( २०२ )
लवला उपलब्ध करना ।
लमकाना-क्रि० स० [हिं० लमाना] १. लम्बा उदा० आनन्द लद्धि, चपि भुजनि मद्धि ।
करना २. दूर तक आगे बढ़ाना । फन को हलाइ, नच्चे सुभाइ ।
उदा० १. लांबी गुदी लमकाइ कै काइ लियो -सोमनाथ
हरि लीलि, गरो गहि पीरयो। -देव .... जक्यो जीव जंगलिय चैन लद्धे न अद्ध लये-सम्प्रदान, कार० [बुं० लाने] लिए, वास्ते ... छन ।
-गंग उदा० लावै ना सुगंधहार मगावै न पेन्हिबो को लवाइ-संज्ञा, पु० [हिं० लदाव] वह पक्की
दूरिही रखावै मेवा पावै खैबे के लये। जुड़ाई जो छत अथवा द्वार के कड़े में कालबूत ।
-रघुनाथ के सहारे की जाती है।
लरकना-क्रि० प्र० [हिं० लटकना] लटकना उदा० कालबूत दूती बिना जुरै न और उपाइ। टॅगे रहने । फिरि ताके टार बनै पाकै प्रेम लदाइ। उदा० मुसुकांनि बिलोकत वा तिय की मुकुता
-बिहारी लर मैं लरकेई रहैं।
-द्विजदेव लदाई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लादना] ब्यथित,
अंगन उघारौ जनि लंगर लगेई मांग मोती करने का भाव, पीड़ित करना, मु० लदाई
लर टूटत लरकि भाई लरकी। —देव करना=दबाना, पीड़ित करना ।
लरजना -- क्रि० अ० [पु.] कांपना, हिलना उदा० बिन काजहि बोधा लदाई करै पहिचानै न १. धीरे से किवाड़ आदि बंद करना [क्रि०स०] बावरे अन्ध भये ।
-बोधा उदा० कहै पद्माकर लवंगनि की लोनी लतालपटी-वि० [हिं० लपट=छोटा] छोटी।
लरजि गई ती फेरि लरज न लागी री उदा० पीत पटी कटि में दुपटी लपटी लकुटी हठी
-पद्माकर मो मन भाई।
-हठी
लाजनि हो लरजौं गहिरी, लपना-क्रि०अ० [सं० जल्प] जल्पना, कहना । बरजौं गहिरी कहिरी केहि दायन । -देव उदा० लपने कहीं लौं बालपने की बिमल बातें ?
२. श्रावति चली है यह विषम वियारि देखि । -देव
दबे-दबे पाइन किंगारनि लरजि दै। लपटोही--संज्ञा, स्त्री० [हिं० लपट+सं० हृदय]
-द्विजदेव हृदय की लपट, मन की पीड़ा, ज्वाला।
लरबरी-वि० [हिं. लड़खड़ाना] लड़खड़ाने उदा० कहियो बटोही तिय निरखै बटोही, पिय वाली, लटपटाने वाली । जाइ लपटोही मिटि जाइ लपटोही है। उदा० जानि जानि धरीतिय बानी लखारी सब,
-तोष
प्राली तिहि धरी हँसि-हसि परी लौटि लपेटा संज्ञा, पु० [हिं० लपेट] पगड़ी, पाग ।
लौटि ।
-दास उदा० केसरी लपेटा छैल विधि सों लपेटे मुख | लवढ़ना-क्रि० प्र० [हिं० लिपटना] लिपटना बीरा कंठ हीरा जोति उपमा लजायबी। उदा० ज्यों मैं खोले किवार त्यों ही मानि -घनानन्द लवढि गो गरे।
-घनानन्द लबाना-क्रि० प्र० [हिं० ले पाना] साथ में | लवना-क्रि० प्र० [सं० लो] चमकना, दमकना रखना, बुलाना, ले आना ।
उदा० चटक चोप चपला हिय लवै । सबही दिस उदा. पापी है तो नीर पैठि नागन लबाय ले ।
रस प्यासनि तव ।
-घनानन्द --मालम लबनि-संज्ञा, स्त्री [हि० लप] लपटें, प्राग की लबिंद--संज्ञा, पु० [सं० लप्] बकवादी ।
लो, आँच, ज्वाला। उदा० सुनि लोभ लबिंद लबार जग, हौं दाता तू । उदा० चंद से बदन भानु भई वृषभानु जाई उवनि माँगनो।
-केशव
लुनाई की लवनि की सी लहरी। -देव लमकना-क्रि० प्र०, [हिं० लपकना] १. उमंगित
नूतन महल, नूत पल्लवनि छुवै छुवै, सेद होना २. लपकना ३. उत्कंठित होना ।
लवनि सुखावत पवन उपवन सार। -देव उदा० सजि ब्रजबाल नंदलाल सों मिल के लिये, लगनि लगालगि में लमकि लमकि उठे। | लवला-संज्ञा, स्त्री॰ [हिं० लपट, सं० लोका]
--पद्माकर लपट, ज्योति, सौन्दर्य ।
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लवली । २०३ )
लाई उदा. चंपकमाल सी हेमलता सी कि होई जवाहिर | उदा० धनि वे धन है तिनके लहने पहिरे गहने . की लवला सी। --दास निति भंगन में ।
-प्रताप साहि लवली-संज्ञा, स्त्री० [सं० ] हरफार्योरी ३. निमिष निमिष दास रीझत निहाल हीत नामक वृक्ष।
लूटेलेत मानों लाख कोटिन के लहने । उदा० जो कोउ केसव नाग लवंगलता लवली
-दास पवलीनि चरावै।
-केशव | लहरिया-सं० स्त्री० [हिं० लहर] साड़ी, धोती लसना-क्रि० स० [सं० लसन] १. चमकना, २. एक प्रकार का कपड़ा जिसमें रंग विरंगी दीप्त होना २. शोभित होना ।
टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ बनी होती हैं। उदा० घन बरसै दामिनि लसै दस दिसि नीर उदा०लहर लहर होत प्यारी की लहरिया ।-देव तरंग।
-जसवंतसिंह लहरें-संज्ञा, पु० [हिं० लहरिया] वस्त्र विशेष, लसीली-वि० [हिं० लहना] सुन्दर, शोभित । लहरिया। उदा. ऐसेनि को अपराध न कीजिये लीजिये उदा० कहरै बिरही जन प्रापत सों लहरें लली भावते सीख लसीली। -रघुनाथ । लाल लिए पहरै ।।
-रसखानि लहकना-क्रि० अ० [मनु०] झोंके खाना, लहाछह-संज्ञा, स्त्री० [सं० लव्वाक्षप ?] नृत्य लहराना, हवा में बहना, उड़ना २. दहकना __ की एक गति, नृत्य की शीघ्रता। उदा० पात पैसी पातरी विचारी चंग लहकत उदा. गोपिनु सँग निसि सरद की रमत रसिक पाहन पबन लहकाए लहकत नाहि ।
रसरास लहाछह प्रति गतिन की सबनि -देव लखे सब पास ।
-बिहारी दीरध उसास लै लै ससिमुखी सिसकति सहुबैस-संज्ञा, स्त्री० [सं० लधु+वयस] छोटी सुलफ सलौनों संक लहक लहकि-लहकि उम्र, नव यौवन ।
. --देव उदा० लाज मुख, लांबी लट, लाग्यो लचकौंही लहकि लहकि पावै ज्यों-ज्यों पुरवाई पौन
लाँक सील सांची लहबैस काची कोरी दहकि दहकि त्यों-त्यों तन साँवरे त।
डारसी।
-गंग -घनानन्द लाउन-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लाव] मोटा रस्सा लहकाना-क्रि० स० [देश॰] पहनना, धारण जो हाथी आदि के बाँधने में प्रयुक्त होता है। करना।
उदा० सङ्क की शृखल लाज की लाउन मानति उदा० ललित पाट अंबर को लहँगा कटि तट
ग्यान के अंकुस मारे ।
-तोष में लहकायो ।
-सोमनाथ लांच-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] रिश्वत, धूस । लहकारे-वि० [हिं० लहकना] लहराते हुए उदा० जा लगि लाँच लुगाइनि दै"दिन नाच हिलते हुए. झोंके खाते हुए।
नचावत साँझ पहाऊँ।
-केशव उदा०-कारे लहकारे काम छरी से छरारे छर- लाचौं-संज्ञा, पु० [सं० लांछन] दोष, कलंक
हरी छबि छोर छहराति पीछरीनने । उदा० कृपा गुनहि गहि क्यों न ज्यौं न लागै भ्रम सहकै-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लहकना ] लपट,
लाँचौ रे।
-घनानन्द ज्वाला, वेदना, पीड़ा।
लाँझ-संज्ञा, स्त्री [हिं० लन्झा] झन्झट, बाधा, उदा० याही से काहू जनैये नहीं लहक दिल की परेशानी, झमेला। - ना रही फिरि पावत ।
-बोधा उदा० दिन देखन कौं दांव दूरि ते बनत बनवारी लहकौर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लहनाकौर
सों अब ताह मैं परी है लाँझ -घनानन्द विवाह की एक रीति जिसमें दूल्हा और लाह-संज्ञा, स्त्री० [सं० पलात] अग्नि, पावक दुलहिन एक दूसरे के मुंह में कौर डालते हैं। २. लपट ज्वाला। उदा० ललक सखी लहकौर चली ले गावत गीत उदा० दसहूँ दिसि पलास छवि छाई । मनहं सकल रसीले । -बकसी हंसराज बन लाइ लगाई।
-बोधा लहने-संज्ञा, पु० [सं० लमन] १. सौभाग्य,
भाई कि सौ हौं न जान्यौ हौं गई हँसाइ अच्छा भाग्य २. लाम, प्राप्ति ३. प्राप्त व्य,
हाइ लाइ लागों जाइ ऐसी कुसुम चुनाई संपत्ति ।
मैं ।
-तोष
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%3-ग्वाल
लाखे ( २०४ )
लिखनी लाखे संज्ञा, स्त्री, [सं० अभिलाष] अभिलाषा, | लाब-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] रस्सो, नाव बाँधने कामना, इच्छा ।
की लहासी । उदा० धीर धरि पायो हौं करीर कुंज ताई ताप उदा० फिरि फिरि चित उतही रहत टुटी लाज कर ततवीर परिहर लाख लाखे पुन ।
की लाव ।
-बिहारी
लावक-संज्ञा, पु० [हिं० लवा] लवा नामक लाग - संज्ञा, स्त्री० [हिं० लगना] १. जादू, एक पक्षी। __ टोना, मन्त्र २. शत्रु, दुश्मन ।
उदा० मोरन के सोर पच्छिपाल और धाये, पाये उदा० १. वेई वन कुंजनि मैं गुंजत भंवर पुंज
लावक चकोर दौरि हंसनि की दारिका । काननि रही है कोकिला की धुनि लाग सी
_ -- देव -देव | लावन-संज्ञा, पु० [सं० लावण्य] १. सौन्दर्य, लागू-क्रि० वि० [हिं० लग=पास] निकट, सुन्दरता, लावण्य । २. लहगा का घेर पास, समीप।
[देश॰] । उदा० आँखिन के आगे तम लागेई रहत नित. | उदा० १. लावन बनायौ, तौ सनेह न बनावनी पाखें जिन लागो कोऊ लोग लागू होय गो ।
हौ, सनेह जो बनायौ, तौ निवाहिबो -पालम बनायौ क्यों न ?
-ग्वाल लाज-संज्ञा, पु० [सं० लावक] लवा, पक्षी ।
२. सिर लॅहगा लावन उलटि, ठनगन ठनक उदा० लाज इत, इत जी को इलाज, सु लाज
अलोल ।
-नागरी दास मई अब लाज कुही सी।
-देव | लावना-क्रि० सं० [हिं० लगाना] लगाना, लाजक-संज्ञा, पु० [सं० लाजा] धान का लावा, फेंकना, डालना, छोड़ना। लाजा।
उदा० कर कुंकुम लैकरि कंजमुखी प्रिय के दृग उदा० बाल के बिलापन बियोगानल तापन को.
लावन कौं झमकै ।
-रसखानि लाज भई मुकुत मुकुत भई लाज को। लाह-संज्ञा, पु० [देश॰]". आनन्द, हर्ष, मंगल
-दास २. लाख नामक वृच, ३. कांति, चमक । लाठ-वि० [हिं० लट्ठ ] जड़, उजड्ड, मूर्ख, उदा० स्याम के संग सदा हम डोलैं जहाँ पिक लंठ।
बोल, अलीगन गुंज, लाहनि माह उछाहनि उदा० तब सों रहै इच्छा मोहिं जियबे की बीच
सों छहरै अँह पीरी पराग को पुंज । ही तू चाहत है मार्यो तेरी मति महा
-देव लाठ है।
+
- रघुनाथ कैंधों दिग-भूल भूले, धुमरी न पायो घर, लाने-अव्य० [बुं०] लिए, वास्ते ।
कंधौं कहूँ ठुमरी सुनत रहै लाहे सों। उदा० देव अदेव बली बलहीन चले गये मोह की
-वाल हौंसहिं लाने।
-देव उदा०३. लाह सौं लसति नग सोहत सिंगार हार, लायक-संज्ञा, पु० [हिं० लाजक] लाजा, धान छाया सोन जरद जुही की अति प्यारो है । का लावा।
-सेनापति उदा० बरषा फल फूलन लायक की। जनु हैं लाहर-संज्ञा, पु० [हिं० लाह] चमक, कांति, तरुनी रतिनायक की।
-केशव लपट । लारि-क्रि० वि० [राज०] साथ।
उदा० भूम धौरहर सो बादर की छांहहिं सो, उदा० हाथ धोय पीछे परी. लगी रहत नित
ग्रीषम को लाहर सो मृग पास पासा सो । लारि। परी मुरलिया माफ करि, बिना
-तोष मौत मति जार।
-ब्रजनिधि | लिब-संज्ञा, पु०[?] दोष, त्रुटि, कमी। लालि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लाली] १. आदर, उदा० प्रस्तुत के वाक्याथं के वर्णन को प्रतिबिंब । सम्मान, २. लालसा ।
जहाँ बरणिये ललित तह लखि लीजो उदा० कालिके तो नन्दलाल मोसों घालि लालि
बिनु लिंब।
-रघुनाथ करें, कालि ही न पाई ग्वारि जौ पै तूं लिखनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० लेखनी] कलम, हुती भली।
-केशव कूची, तूलिका ।
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-केशव
लिखाना ( २०५ )
लूकना उदा० लिखनी दल मंजुल कंज की मैन ले, चंचु | तैयार फसल काटना, २. नष्ट करना। सँवारत खंजन की ।
-आलम उदा० पालम बिहारी बिन मोहन अचेत भये, लिखाना-क्रि० सं० [सं० लिखन] पोताना, हाय दई हेत खेत ऐसे लुनियत है । रँगाना।
-पालम उदा० दरि दरि चंदन कपूर चूर छरि छरि मरि लुप-वि० [सं० लुप्त] लुप्त, गायब ।
भरि हिम मही महल लिखाइयत । . .- देव उदा. बाचक अरु उपमेय लुप चपल चंचला लिगारना-क्रि० सं० [हिं० लिकारना- लीक
देखु ।
-पद्माकर बाँधना] १. धब्बा, या कलंक लेना. २. मर्यादा लुपरी-संज्ञा, स्त्री० [ बुं. ] प्याज की पोटली बाँधना, लीक बांधना ।
जिसे गर्म करके चोट आदि में सेंकते हैं। उदा० देवजू कौन गनै परलोक में लोक में प्रापु । । उदा० बिरह अगिन में प्रीति प्याजु लै लुपरी अलोक लिगारिये ।
- देव लगन सेंकाये।
-बकसी हंसराज लिटिना-क्रि० अ० [हिं० लेटना] लेटना, सोना, लुबै-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लू] लू, गर्म हवा, पौढ़ना ।
ग्रीष्म की तप्त हवा । उदा० राव भयो रंक ते न रंकता हिये की गई उदा० हे रघुनाथ मिले बिनु वाके लुबे सी लगै पौढ़ यो परजंक, जोई पंक मैं लिटि रहयो ।
मलयानिल देही।
-रघुनाथ -देव लुर-संज्ञा, पु० [सं० लोलक] लोलक, लटकन लिलोहो- वि० [हिं० लीलना, सं० लोलुप] जो बालियों में पहना जाता है। अत्यन्त लोभी, लालची।
उदा० चमकत चुनी बीच मुतियन के लटकत लुर उदा. बूझिबे की जक लागी है कान्हहि केसब
दुर केरी।
-बकसी हंसराज __ कै रुचि रूप लिलोही।
लुरना-क्रि० प्र० [सं० लुलन] प्रवृत्त होना, लिसना-क्रि० सं० [स० लसन] मिलना, सटना, प्राकर्षित होना, लगे रहना। चिपकना ।
उदा० संग ही संग बसो उनके अंग अंग वे देव उदा० ता मधि माथे में हीरा गुह्यो सुगयो गड़ि तिहारे लुरीय।
-देव केसन की छबि सों लिसि ।
-देव लुरी - संज्ञा, स्त्री० [देश॰] थोड़े दिन की ब्याई लील-संज्ञा, पु० [हिं० नील] कलंक, धब्बा । हुई गाय । उदा० कोऊ कहूँ लखि लेय जो याहि तो होय उदा० लाड़िली लीली कलोरी लुरी कहँ लाल लला मोहि लील को टीको। -ठाकुर
लुके कहँ अंग लगाइकै।
-केशव लीलहीं-संज्ञा, पु० [हिं० नील] नील, नीलकंठ । लुरैया - संज्ञा, पु० [बुं०] तुरन्त का पैदा हुआ उदा० इनको तौ हाँसी वाके अंग में प्रगिनि बछड़ा।
बासो, लीलहीं जु सारो सुख-सिंधु बिसराये उदा० पुचकारत पोंछत पुनि आछे कांधे धरे री । -दास लुरैया।
-बकसी हंसराज लुंबराई- संज्ञा, पु० [?] यौवन, जवानी । लुलाना-क्रि० सं० [हिं० ललाना- ललचाना] उदा० लांबी लट लंबराई को लौन मुखै बन्यो ललाना, ललचाना । पानिप नैननि पानी ।
-गंग उदा. जसो गुरु तैसो सिष्य, सिच्छा की अनिच्छा लुगी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लूगा] लंहगे का
भई, इच्छा भई पूरन, पै भिच्छा को गोटा।
लुलात है।
-देव उदा० पीरे प्रचरान स्वेत लुगरा लहरि लेत लुगी लुहना-क्रि० अ० [सं० लुब्ध] लुभाना, मोहित लॅहगा की लाल रंगी रंग हेरा की।
होना ।
-देव उदा० अरि कै वह आजु अकेले गई, लुठना-क्रि. अ० [सं० गुंठन] लोट जाना, ऐंठ खरि के हरि के गुन रूप लुही। -देव जाना।
लूकना-क्रि० स० [हिं० लोकना, सं० प्रवलोकन] उदा० बैरी की नारि बिलख्खति गंग यों सूखि दिखाई पड़ना, लक्षित होना। गयो मुख, जीभ लुठानी।
-गंग उदा० छिति अंधकार छायो सघन, दुग पसारि लुनना-क्रि० सं० [सं० लवन] १. खेत की । लूक न कर।
--चन्द्रशेखर
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लूघर
लोय
लूघर-संज्ञा, पु० [हिं० लूहर] लुपाठ, जलता २. लासा, जिससे चिड़िया फंसायी जाती है। अंगारा २. धोती, ३. कपड़ा [हिं० लुगरा]
३. नेत्र, [सं० लोचन] ४. लवापती । उदा० परस्यो भात न आगे खाहीं । लूघर लूघर उदा० १. लहलहाति तन तरुनाई लचि लग लौं __ सब चिचयाहीं ।
-बोधा
लफ जाइ लगै लाँक लोइन भरी लोइनु लूटि संज्ञा, स्त्री॰ [हिं० लूट] लूट से प्राप्त
लेति लगाइ ।
-बिहारी माल या घन ।
लोच-संज्ञा, स्त्री॰ [हिं० लचक] अभिलाषा उदा० देख्यो दास देव दुरलभ गति दै कै महा, ! उदा० चरन कमल ही की लोचनि में लोच धरी पापिन को पापन की लूटि ऐसी पावती।
रोचन ह्व राज्यो सोच मिटो धाम धन -दास को ।
-मालम लत-संज्ञा, स्त्री० [सं० लूता] मकड़ी, लूता। लोचना क्रि० स० [हिं. लोचन] अभिलाषा उदा० लगे लूत के जाल ये लखो लसत इहि करना, रुचि उत्पन्न करना।
मौन । जानि कुहू रजनी मनो कियो २. कामना करना, ललचना, शोभित होना नखतगन गौन ।
-मतिराम ३. तर्क वितर्क करना। लूमना-क्रि० अ० [सं० लंबन] लटकना। . उदा० लोचत फिरत रंग रोचत रुचा परुच सोच उदा० घूम आये झूम पाये लूम पाये भूमि पाये
नहीं होत हैं विधाता बिसरे को यो। चूमि चूमि माये धन चंचलै चमाके सों।
-ठाकुर -वाल । २. लोचै वही मूरति परबरानि आवरे। लूहर--संज्ञा, पु० [सं० लुक, हिं० लुपाठ] ३. मौन विलोकिबे को मन लोचत सोचत जलता अंगारा, लुमाठ, लूक ।
ही सब गाँव मॅझायौ। नरोतम दास उदा० ऊँचे ते गर्व गिरावत, क्रोधहु जीवहि लूहर लोचनधवा-संज्ञा, पु०, [सं० चचुश्रवा] सर्प, लावत मारे।
-केशव । साप । सावरेह मानसनि गोरे नीके लागत कि, उदा० अंग मैं शिवा हैं, मात लोचन श्रवा हैं,पन गोरे ही के लोइन में लूहरु लगत है।
और निरबाहैं, का हैं कही तकि तूल रे । -गंग
-सूरति मिश्र लेखी-संज्ञा, स्त्री० [सं० लेखा-देवता स्त्री० । लोट-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] त्रिबली, पेटी । लेखी] देवी, देवाङ्गना ।
उदा० कर उठाय चूंघट करत उसरत पट उदा० लेखी मैं अलेखी मैं नहीं है छवि ऐसी औ,
गुझरोट । सुख मोट लूटी ललन लखि असमसरी समसरी दीबे को परे लिये ।
ललना की लोट ।
--बिहारी -दास लोटन-संज्ञा, पु० [हिं० लोटना] एक प्रकार लेव-संज्ञा, पु० [सं० लेप्या लेप ।
। का कबूतर । उदा० सोरह सहसरानी आठौ पटरानी संग महल उदा०-लोटन लोटत गुलीबंद तीरा रेखता की बन्यो है जो न घनसार लेव को।
। . नख तंग घाघरा न सुतरी बनाई है। -रघुनाथ ।
- बेनी प्रवीन लेस-संज्ञा, पु० [सं० लेश] १. चिह्न, निशान परे वे अचेत हरे वै सकल चिरु चेत २. अणु, ३. सम्बन्ध, ४. थोड़ा [वि.] ।
पलक-भुजंगी डसे लोटन-लोटाए री। उदा० निरखि नबोढ़ानारि तन छटत लरिकई
-दास लेस ।
- बिहारी लोढ़े-संज्ञा, पु० [सं० लोष्ठ] पाषाण का लै-अव्य० [हिं० लगना] तक, पर्यत ।।
टुकड़ा, पत्थर कण । उदा० फूले अनारनि चंपक डारनि लै कचनारनि उदा० घूमि चहूँ दिसि भूमि रहे घन बूंदन ते नेच तची है।
-देव चिति डारत लोढ़े ।
-रघुनाथ लोइ-संज्ञा, पु० [हिं० लोग] लोग, जन । लोय-संज्ञा, स्त्री० [हिं० लाव] १. शिखा, उदा० तासों मुग्धा नववधू, कहत सयाने लोइ। । लौ, लपट २. लोग।
-केशव | उदा०१. मोहन गोहन मैं ललचे, ललना लहकाति लोइन-संज्ञा, पु० [सं० लावण्य] १. लावण्य, ज्यों लोय दिया की। -नागरीदास
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( २०७ >
लोयन
लोयन - संज्ञा, पु० [सं० लावण्य] सुन्दरता, २. नेत्र [सं० लोचन, प्रा० लोयन ] उदा० लट में लटकि, कटि लोयन उलटि करि, त्रिबली पलटि कटि तटिन में कटि गयो । —देव
२. लोयन लोयन सिंधुतन
पार ।
पैरि न पावत - बिहारी लोरना — क्रि० अ० [सं० लोल] १. चंचल होना ललकना, ललचना २. लोटना, पैरों पर गिरना [हिं० लौटना ] | उदा० १. दास कटीले ह्र गात कँप बिहँसौही हँसौही लसै दृग लोरति । २. देव कर जोरि जोरि बंदत लोगनि को लोरि लोरि पायन
-दास
सुरन, गुरु परति है ।
वंच्छना - क्रि० सं० [हिं० वांछा ] वांछा करना,
कामना करना ।
उदा० गौन अलच्छित गच्छती तच्छन वच्छती
पच्छ, विपच्छ मृगच्छी । - कुमार मरिण
वग्ग — संज्ञा, पु० [सं० वर्ग] वर्ग समूह | उदा० अरि वग्ग यों दुग्ग दरीन दुरे भ्रम-मीत से भीतर तें न कुमार मरिण वफा — संज्ञा, स्त्री० [अ० वफा] मुरौवत, सुशीलता संकोच ।
—पद्माकर
उदा० जौ लग प्रान पुँजी में वफा बड़ी तो लौं नफा न मिलाप की पैहौ । वरटा - संज्ञा, पु० [सं०] हंस नामक पक्षी । उदा० हैं अबहीं चिकुला जनमे वरटा तनमें छिनु धारत धीरन । हीं प्रतिपालक हौं तिनको नहि आजु महार मिल्यो अरु नीरन । - गुमान मिश्र वसुमती संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । उदा० ऐसी रूपवती वसुमती में न ओर जाकी बिरह बिथा में इतनी कुसल छेम है । - रघुनाथ वारी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० बारी] खिड़की, झरोखा,
गवाक्ष ।
उदा० वारियाँ महल की न हलकी मुदी ही जहाँ रासि परिमल की अँगोठियाँ अनल की ।
ग्वाल
व
वितंड
- देव
लौंज
संज्ञा, पु० [अ० लौज ] बादाम, एक प्रसिद्ध मेवा । उदा० तेबन की लोज में, न हौज में हिमामहूके, मृगमद मौज में, न जाफरान जाला में ।
—ग्वाल
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लौद - संज्ञा, स्त्री० [बुं०] छड़ी | उदा० लौद सी लंक लंबे कुचमार संभारत चूनरी चारु सुकैची । --पद्माकर लौंनी संज्ञा स्त्री [हिं० लवर] आग की लपट,
ज्वाला ।
उदा० तृष्णाहू तिनूका जग जाल-जाल पूर्यो जहाँ, लगी लोभ लोंनी कौन भाँति सुख पायहैं । -- सूरति मिश्र
! वासरेश संज्ञा, पु० [ सं ] सूर्य, दिनेश । उदा० इन्द्र यम बरुरण कुबेर शेष वासरेश वारिये सुमेरु कैलास की चमक पुनि । —देव वासिलात -संज्ञा, पु० [अ०] कुल आय का जोड़, आमदनी का मीजान ।
उदा० राख्यौ है किसोर पन जोबन बहाल करि, मदन महीप वासिलात बुझि लेन को । - बेनी प्रवीन वासुकि संज्ञा, पु० [वासुकि] १. बासुकी नाग २. सुगंधित पुष्पहार
उदा० वृषभवाहिनी अंग उर, वासुकि लसत प्रवीन शिव सँगे सौहै सर्वदा, शिवा कि राय प्रवीन । —केशव विखसीली वि० [सं० विष] विषाक्त, विषैली । उदा० भावत वै बनक बनीले बनबीथिन ते कीले मैन मंत्रन गुमान विखसीली को ।
- चन्द्रशेखर विचितवि० [सं० विचित्र ] विस्मित, चकित, उदासीन ।
उदा० चितै चिते जित तित, ह्न रही चकित चित, विचित विचारी, घरी चारि लौं विचारि के । —देव वितंड-संज्ञा, पु० [सं०] १. ताला २. हाथी । उदा : १. गंग कहै धनपति नृपति बिकल मति.
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-गंग ।
देत ।
वितन
वृषेस लंकहू को अधिपति बिपति वितंड में। । विरचावना-क्रि० सं० [सं० वि+रंजन] उचा
टना, उदासीन करना, विरक्त करना । वितन-संज्ञा, पु० [सं०] विनातन का, विदेह, उदा० घोर घने गरज घन ए ससिनाथ हियो कामदेव ।
विरचावन लागे।
-सोमनाथ उदा० ग्रीषम मैं गति सिसिर बन, निबिड द्यौस विरज-वि० [सं० वि+रज] विकार रहित,
अंधियार । मुख उजियार करत तहाँ दंपति स्वच्छ, निर्मल। वितन विहार।
-नागरी दास उदा० रावरी चरन रज सेवत सुरेस अज जोगी विदेह-संज्ञा, पु० [सं०] १. कामदेव २.. जनक
जे विरज, सबै सैल लता द्रुम ही। जी ।
-देव उदा० १. देव नयो हिय नेह लगाय, विदेह कि
कंस महाराज को रजकु राजमारग मैं अचिन देह दहयो करै।
-देव
अंबर विरज लीने रंग रंग गहिरे। विद्याधर-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवताओं की एक
___--. देव जाति .. विद्वान ।
विष - संज्ञा, पु० [सं०] १. जल २. जहर । उदा० कवि कुल विद्याधर, सकल कलाधर, राज उदा० १. विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल राज वर वेश बने । -केशव
-केशव विद्वोत-वि० [सं० विदित] विदित, ज्ञात, विषमहय-संज्ञा, पु० [सं०] विषम अश्व वाला, मालूम ।
सप्तहय, सूर्य । उदा. मरदन सिंह महीप सुत, बैस बंस विद्वोत उदा० प्रगट भयो लखि विषमहय, विष्नुधाम करौ सिंह उद्दोत को, राधा हरि उद्वोत ।
सानंदि । सहसपान निद्रा तज्यो, खुलो -देव पीतमुख बंदि ।
-दास विधिवधू-संज्ञा, स्त्री० [सं.] ब्रह्मा की पत्नी | विषमेषु-संज्ञा, पु० [सं० विषम +इषु] कामदेव सरस्वती ।
मन्मथ । उदा. देव यही मन आवत है सविलास वधू विधि उदा. डासी वा बिसासी विषमेषु विषधर, उठे _ है बहुधा की ।
आठहूँ पहर विष विष की लहरि सी। विपंची-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की
-देव वीणा २. क्रीड़ा, खेल ।
विषै-अधि० [सं०] में, प्रधिकरण कारक की उदा० १. नवल बसंत धुनि सुनिये विपंची नाद विभक्ति ।
पंचम सुरनि ठानि, मोठनि अमेठिये ।-देव उदा० दमु ना मिलत जमुद्तन के देह विर्ष, विमन-वि० [सं० वि+मन] खिन्न, उदासीन ।
-ग्वाल उदा० ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की,
डासी वा बिसासी विषमेषु, विषधर उठे विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी ।
पाठहू पहर विष विष की लहरि सी।-देव
--देव वीछन-संज्ञा, पु० [सं० वीक्षण] दृष्टि, चितवन, विमान-वि० [सं. वि+मन] मान रहित, गवं देखना । रहित ।
उदा० तीछन वीछन बाननि तानति, भौंह कमान उदा०ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की. - तनी मुख चंद पै ।
-देव विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी। वृख-दण्ड संज्ञा पु० [सं० वृक्ष दण्ड] लकड़ी
-देव का डंडा। विरंग-वि० [सं०] बदरंग, बुरारंग, फीका । उदा० व्याधि को बैद, तुरंग को चाबुक, चीपग उदा. ग्वाल कवि कहै तेरे विरही विरंग ऐसे
को वृख दण्ड दियो है।
-गंग गिरही तिहारे तें बरगने रिस जोरे हैं। वृषेस-संज्ञा, पु० [सं० वृषेश] नांदिया, शंकर
--ग्वाल __का वाहन । विरंदन-संज्ञा, पु [सं वृन्द] वृन्दों, समूहों।। उदा० सेस भले देस औ महेस के वषेस भले उदा० कवि 'सुरति' जे सरनागत पाल हैं, दायक । भ्रमत भवानी को भुलानो वृषकेत है। सुक्ख विरंदन के । -सूरतिमिश्र
-चन्द्रशेखर
-देव
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वुराना ( २०९ )
संभ्रम वुराना-क्रि० स० [सं० वर=हिं० भोराना] 1 प्रत्य०] नववयस्का, नवयुवती, नायिका। धीरे धीरे समाप्त होना ।
उदा० आँख झपकारी, चढ़ी नींद की खुमारी, उदा० देखत वुरै कपूर ज्यौ उप जाय जिन, लाल
भारी तऊ वैसवारी, बाट जोवै बनवारी छिन छिन जाति परी खरी छीन छबीली
की ।
-रवाल बाल।
--बिहारी व्याउर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बिमाना=जन्म देना वैरोचन-संज्ञा, पु० [सं० विरोचन] सूर्य २. बच्चा जनने वाली, बच्चा पैदा करने वाली। अग्नि ३. प्रकाश ।
उदा० न्याउर के उर की पर पीर को बांझ उदा०१. हरी बेली बाग की हवेली में नवेली भौर,
समाज में जानत को है।
-बोधा मोर ही ते गुंज ह्वाँ न भानु मौन परसै। ब्वै-वि० [सं० उदित, प्रा० उम] उदित, निकला ऐसे पल रोचन वैरोचन को जैसो बास.
हुआ, प्रकट । तीसरो त्रिलोचन को लोचन सो दरसै । उदा० सुबरन सूरज प्रकास मानौ ब्वै रहयो । -बेनी प्रवीन
-नरोत्तमदास वैसवारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० वयस+हिं० वारी ।
संकरषन--संज्ञा, पु० [सं० संकर्षण] १. शेषनाग | हिय फट्यो ।
-गंग २. बलराम ३. खींचने वाला।
संख-वि० [सं० शंख] अत्यन्त साफ, उज्जवल, उदा. १. मानो सनक्षत्र शिशुमार चक्र कुंडली । २. दस खर्व की संख्या ।
में सफरषन अनल मभक महराति है। उदा० नील के बसन क्यों बिगारत ही बेही काज २. काम को प्रहरषन कामना को बरषन ।
बिगरै तौ हम पै बदल संख लीजिये। -पजनेश
-दास कान्ह सँकरषन सब जगको जानिये।
संज्ञा-संज्ञा, स्त्री० [सं०] संकेत, इशारा ।
--केशव उदा० न्यारे के सदन तें उड़ाई गुड़ी प्रान प्यारे संकासक-वि० [ सं संकाश-सदृश ] सादृश
संज्ञा जानि प्यारी मन उठी अकुलाइ के। वाली।
-दास उदा० किंधौ राज हंसनि की संकासक केसोदास संजति - वि० [सं० संयुक्त संयुक्त, सहित, युक्त किधी कलहंसनि की लाज सी लगति है। मिला हुआ।
-केशव उदा० नूपुर संजति मंजु मनोहर, जावक रंजित संकु-संज्ञा, स्त्री० [सं० शंकु] बी २. नुकीली
कंज से पाइनि।
-देव वस्तु, खूटा ।
संपद- संज्ञा, स्त्री० [सं० संपद] ऐश्वर्य, वैभव उदा० कपट बचन अपराध तें निपट अधिक दुख उदा० कर पद पदम पदमननी पधिनी पदम सदन दानि । जरे अंग में संकु ज्यों होता विथा । सोमा संपद सी पावती ।
-देव की खानि ।
- मतिराम संपै-संज्ञा, स्त्री० [सं० सम्पत्ति] धन, सम्पत्ति । संकुल-संज्ञा, पु० [सं०] भीड़, समूह ।
उदा० बारि के बलूलनिकि बनिज बजार बैठे उदा० सारद सिंदूर सिर सौरभ सराहैं सब. सेन |
सपने की संप गनि, सौप बड़े थरपै ।-देव साजि संकुल प्रभा सी सारियत है।
स भ्रम-संज्ञा, पु० [सं०] आतुरता, घबराहट,
-गंग व्याकुलता २. आदर, गौरव । संकुलना-क्रि० प्र० [सं० शंक] भयमीत होना उदा० १. केशवदास जिहाज मनोरथ, संभ्रम घबरा जाना ।
विभ्रम भूरि भरे भय ।
-केशव उदा० ककुम कुंभि संकुलहि, गहरि हिमगिरि
देखि चतुराई मन सोच भयो प्रीतम को
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संसी
(
२१०
)
सखि
जानि पर नारि मन संभ्रम भुलायो है। । उदा० जकरि जकरि जांघे सकरि सकरि परै,
-कालिदास
पकरि पकरि पानि पाटी परजंक की । संसी-वि० [सं० संशय] शंकालु, संशय करने
-कवीन्द्र वाला।
सकसना-क्रि० अ० [?] फैलना, बिखरना। उदा० बंशन के वंशन सराहै शशि बंशीवर बंशी- उदा० मार्ग प्रागे तरुन तरायले चलत चले तिनके घर संसी हंस बन्शन हिलति है। -देव
प्रमोद मन्द मन्द मोद सकसे । संसेर-संज्ञा, स्त्री० [फा० शमशेर] तलवार ।
-भूषण उदा० गहे बान कम्मान संसेर नेजे ।
सकसै-संज्ञा, पु० [सं० संकष्ट] संकट, उलझन
-चन्द्रशेखर । २. [अनु० सकसाना] भय, डर । संजोना-क्रि० स० [सं० सज्जा] जलाना, उदा० चहुँ ओर बबा की सौ सोर सुने मन मेरेऊ दीपक प्रकाशित करना, उजाला करना ।
प्रावति री सकस ।
-रसखानि उदा० कोमल अमल पदपंकजन हंस कंधों, मदन | सका-संज्ञा, पु० [फा० सक्का] भिश्ती, पानी महोत्सव संजोइ राखी आरती ।
भरने वाला।
-बलभद्र मिश्र उदा० सका मेघमाला सिखी पाककारी । नेह सों भोय सँजोय धरी हिय दीप दसा
-केशव जु भरी अति प्रारति ।
-घनानन्द सकाना-क्रि० अ० [सं० शंका] संदेह करना, सँरसी--संज्ञा, स्त्री [हिं० सँड़सी] बनसी में २. हिचकना। लगी हुई लोहे की कैंटिया ।
उदा० सकियै नहिं नेक निहारि गुपाल सु देखि उदा० बंक हियेन प्रभा सँरसी सी । कर्दम काम
मसोसनि ही मरिय।
-गंग _ कछू परसी सी ।
-केशव
सकिलात-संज्ञा, पु.[तु० सकिरलात, फा०] ऊनी सांखाहूली-संज्ञा, स्त्री० [सं० शंखपुष्पी] शंख बानात सिमलात बढ़िया ऊनी वस्त्र । पुष्पी नामक पुष्प, कौड़ियाला।
उदा० हरी हरी दूब छोटी तापर बिराजै बंद उदा० सांखाहूली फूल की महिमा महा अकत्थ
उपमा बनी है मिश्र निरख सिहात है। सीस धरै पिय सीय के जिनतोरे दसमत्थ ।
सावन सनेही मनभावन रिझावन को मोतिन -मतिराम
गुथाये हैं दुलीचा सकलात के। सांसी--वि० [हिं० सांची] साँची, सत्य ।
-शृगार संग्रह' से उदा० गाँसी जाहि सूल ताहि हांसी न हंसाये
रगमगे मखमल जगमगे जमींदोज, और सब पावै वासी परै पेम सुनि सांसी कहियत
जे वे देस सुप सकलात हैं।
-गंग -आलम सकुली-वि. [सं० संकुल] संकीणं, संकुचित । सई-वि० [हिं० सही] १. सत्य, सच, यथार्थ । | उदा० कमल कुलीनन के सकुली करन हार, उदा. जब आसकी तेरी सईकी करें तब काहे
कानन लौ कोयन के लोयन रंगीन के । न संभू के सीस चढ़। -बोधा
- कवीन्द्र सकता-संज्ञा, पु० [अ० सक्तः] मूर्खा रोग, सकेलि-संज्ञा, स्त्री० [?] कच्चा और पक्का बेहोशी की बीमारी।।
मिला हुमा लोहा । उदा० रे रे स्वातिक कूर अवध बाल जानत उदा० पाउँ पेलि पोलाद सकेलि रसकेलि किंधों
जगत । भावन हमरो दूर सूने मत सकता नागबेलि रसकेलि बस गजबेलि सी । करै। -बोधा
-देव सकबंध-वि० [?] वीर, शक्तिशाली २. मुगलों सक्कस-वि० [फा० सरकश] कठिन, २. उदंड, की एक उपाधि ।
विरोधी, विद्रोही। उदा० राजन के राजा महाराज श्री प्रतापसिंह उदा० जानि पन सक्कस तरक्कि उठयो तक्कस तुम सकबंध हम छंदबंध छाए हैं।
करक्कि उठ्यो कोदंड फरिक्क उठ्यो, -पद्माकर भुजदण्ड ।
-दासो सकर-संज्ञा, पु०, [हिं० सकरना] फिसलने का J सखि--संज्ञा, स्त्री० [सं०साशिम्] १. गवाही, भाव या क्रिया, फिसलन ।
साक्षी, २. गवाह [संज्ञा, पु.] ।
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सगबगे ( २११)
सतेसा उदा० सेखर भई है मोहि बिरह बिहाली देखु । २. सोचि सटुपटु मो मो धरु भो न घटु रजनी घरी है सेष माली सब सखि के।
चैन चित को उचटु भो सुकत बंसी रटु -- चन्द्रशेखर मो।
-बेनी प्रवीन सगबग-वि० [मनु०] १. द्रवित, अधीर, [ सटा-संज्ञा, स्त्री० [?] १. सिंह की गर्दन के २. सराबोर, लथपथ ।
बाल, प्रयाल २. विस्तार-फैलाव । उदा० १. हे निपट सगबगे हिये प्रेम सों, जाहर उदा... इन्द्र की पटा लौं नरसिंह की सटा लौं, सजी रुखाई।
-सोमनाथ
मारतंड की छटा लौ छटा छहरै प्रताप २. पूछे क्यों रूखी परति, सगिबगि गई
की।
-पदमाकर सनेह ।
-बिहारी
२. बैन सुधा से सुधा सी हँसी बसुधा में सचतना-क्रि० सं० [सं० स+चेतन] सचेत
सुधा की सटा करती हो। -पद्माकर होना ।
सतंक्रत-संज्ञा, पु० [सं० शतक्रतु] सौ यज्ञ करने उदा. सुनत पनूप रूप नूतन निहारि तनु, प्रतनु __ वाला, इन्द्र।
तुला में तनु तोलति सचति है। -देव । उदा० काम महीप को दीपति ऊपर एक सहस्र सचना-क्रि० स० [सं० संचय] संचित करना,
सतंक्रत वारे ।
-बोधा इकट्ठा करना ।
सतपत्त-संज्ञा, पु० [सं० शतपत्त ] शतदल उदा० देव कदै सोबत निसंक मंक भरी परजंक
कमल । ___ मैं मयकं मुखी सुषमा सचति है। -देव उदा० कबि आलम ये छबि ते न लहे जिन पुंज सचाना-क्रि० सं० [सं० संचयन] १. पूरा
लये कलबत्तन के । तन स्याम के ऊपर यो करना, बदला लेना २. सचेत करना ।
सोभित लगि फूल रहेसतपत्तन के उदा० सासहि नचाइ मोरी नदहि नचाइ खोरी,
-मालम बैरनि सचाइ गोरी मोहि सकुचाइ गौ। सतमष-संज्ञा, पु. [सं. शतमख] सौ यज्ञ करने
-रसखानि _ वाला इन्द्र । सज-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सजावट] शोभा, उदा० तेज पायौ रवि ते मजेज सतमष पास,अवनी सौन्दर्य ।
को भौगिबौ अधिक नाथ नीति की । उदा. इंदिरा के डर की धुरकी, अरु साधुन के
-सूदन मुख की सुख की सज ।
-देव | सतर-वि० [सं० सतर्जन] वन, टेढ़ी, तिरछी । सजीउ--वि० [सं. सजीव] जिंदा, ज्यादा, उदा० चितई करि लोचन सतर सलज सरोष अधिक।
सहास ।
-बिहारी उदा० बाट मैं मिलाइ तारे तौल्यौं बह बिधि सतराना-क्रि० प्र० [सं० सतर्जन] अप्रसन्न होना
प्यारे, दीनी है सजीउ पाप वापर परत नाराज होना । है।
सेनापति उदा० मोहति मुरति सतराति इतराति साहचरज सटक-संज्ञा, स्त्री० [मनु० सट से] १. पतली,
सराहि पाहचरज मरति क्यों । -देव लचकीली छड़ी२. चुपके से भागना,
सतीत-वि० [सं० स+प्रा० तित-गीला] उदा०१. गोने की बधूटी गुन टोने सों कछूक करि, साद्र, गीला । सोने सो लपेटो लिये सोने की सटक सी। उदा० वा बरसै जलधारन सों रसधारन याहु --बेनी प्रवीन __ सतीत करी है।
-ठाकुर २. हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी. सतेसा-संज्ञा, पु० [2] जहाज, नाव । धीर न परत धुनि सुनत निसाना की।
उदा० मानसर सुभ थान तिहि ढिग नव तमालनि -गंग
पाति । चढ़ि सतेसनि बढ़ि महा रुचि करत सटपट-संज्ञा, पु० [अनु॰] १. भय, डर २.
सुख बहुँ भांति ।
-घनानन्द चकपकाहट ।
प्रेम सतेसा बैठि के रूप-सिंधू लखि हेरि । उदा. सेनानी के सटपट, चन्द्र चित चटपट,
जुगल माधुरी लहरि को, पावैगो नहिं फेरि । प्रति अति पटपट अंतक के भोक के।
-ब्रजनिधि -केशव
मृगमद आड़ लिलार तिय, कीनी है छबि
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सत्तु ( २१२ )
सबूर ऐन । बदन-रूप-सरबीच मैं, मन सतेसा मैंन ।
भाव तनोत हैं।
-रघुनाथ -नागरीदास | सपरना-क्रि० सं० [बं०1 स्नान करना । सत्त-संज्ञा, पु० [सं० सत्य] सत्य, यथार्थ । | उदा० देखे दुति ना परत पाप रेते पा परत सापरे उदा० कुचसंघ सकीन न सत्त कहैं। -बोधा
ते सुरसरि सांप रेंग तन में । -पालम सव-वि० [सं० सद्य] १. ताजा, नवीन २. कूटेव
२. पट पाखे मखु कांकरे सपर परेई संग। कुवान [संज्ञा, स्त्री.] ।
-बिहारी उदा०१.दार्यो से दसन मंद हंसनि विसद मरी, सद सपेट-संज्ञा, पु० [हिं० सपाटा] झपट, लपेट ।
भरी सोभा मद भरी अंखियांन मैं । -देव उदा० निज प्रायु सिंह-सपेट ते सु बचाइ घर २. सदन सदन के फिरन की सद न छुटै,
को ल्यावही ।
-पद्माकर हरिराय रुचे जितै बिहरत फिरौ, कत बिह- सफजंगी-वि० [म. सफ+जंग] पंक्तिबद्ध लड़ने रत उरु आय ।
-बिहारी वाली (सेना)। सदागति-संज्ञा, पु० [सं०] पवन, हवा ।
उदा० मान-मंद-भंगी सफजंगी सैन संगी लिये, रंगी उदा० चंडकर कलित, बलित बर सदागति,
रितु पावस फिरंगी स्वांग लायो है। कंदमूल फलफूल दलनि को नासु है।
-पद्माकर -केशव सफर-संज्ञा, स्त्री० [सं० शफरी] बड़ी मछली, सदी-वि० [सं० सद्यः] १. ताजा टटका २. - सौरी मछली ।
तुरन्त शीघ्र ३. इसी समय, प्राज ही [अव्य]। उदा० परे मुरझाइ ग्राह-सफर फरफराइ, सुर कहैं उदा० होत प्रभात ही बेनी प्रवीन जू, आये महा
हाइ को बचावै नद-नाइक। -सेनापति उर माल सदी है।
-बेनी प्रवीन सबज-वि० [फा० सब्ज] हरे रंग वाली, हरी । सद्धना-क्रि० स० [सं० साधन 1 साधना, उदा० रंग रस भीनी झीनी कंचकी सबज छोरि किसी कार्य की सिद्धि करना, संधान करना ।
निकसि लसी हैं अनी जुगल उरोज की। उदा० हुप अति उदारता हृदय मद्धि । जग सुखित
-पद्माकर करौ सब साँच सद्धि ।
-सोमनाथ सबल-वि० [सं०] १, सौन्दर्य युक्त, सुन्दरता सद्धर-वि० [हिं० स+प्रद्धर] १. साधार, सहित २. चित्र-विचित्र (सं० शबल) शक्तिशाली २. उपयुक्त, ठीक, असली ।
उदा० १. कुंतल ललित नील भ्रकूटी धनुष नैन उदा० बिजली करै कलेवा दवनी सों राखै दवा
कुमुद कटाक्ष बाण सबल सदाई है। राह को खवावै मेवा सो सद्धर भाट है।
-केशव -गंग
२. बहुत भाव मिलि के जहाँ, प्रगट करै सघाना-क्रि० स० [देश॰] सिखाना।
इकरंग । उदा० धाये फिरो ब्रज में, बधाए नित नंद ज के,
सबल भाव तासों कहैं जिनकी बुद्धि गोपिन सधाये नचो गोपन की भीर में ।
उतंग ॥
-दास -देव
| सबील-संज्ञा, स्त्री० [अ० ] उपाय, प्रयत्न, सधोनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० संधिनी ?] १. कामना तरकीब। पूर्ति का गुण।
उदा० बचे न बड़ी सबीलहूँ चील्ह घोंसवा सि । उदा० सुन्दरता अति मैन दियो अरु दीन्ही मनो
-बिहारी सुरधेनु सधीनी ।
सबीह-संज्ञा, स्त्री० [ फा० शवोह ] चित्र, सनाका-संज्ञा, पु० [?] संगीत आदि का समां, __ तस्वीर। शब्द की तुमुल ध्वनि मुहा०, सनाका बंधना- उदा० हित गाढ़ी पहो इत ठाढ़ी कहा लिख काढ़ी समांबं घना [संगीत प्रादि का] ।
सबीह सी सोहती हो। -चन्द्रशेखर उदा० कहै पदमाकर त्यों बांसुरी की धुनि मिलि सबूर-संज्ञा, पु० [फा० सबू] शराब का घड़ा, रहयो धि सरस सनाको एक ताल को। शराब।
-पद्माकर | उदा० 'ग्वाल कवि' अंबर-अतर में अगर में न सनाह-संज्ञा, पु० [स० सन्नाह] कवच, बखतर।
उमदा सबूर हू मैं, है न दीपमाला मैं । उदा० बाँधे सनाह तुरंगन पै चढ़े वेष भयानक
-ग्वाल
-तोष
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समदैना
समदना- - क्रि० स० [ बुं० ] दायज, किसी वस्तु को देना ।
उदा० तोहि सखी समदं संग वाके बात सबै बनि आवै ।
---
भु क्यों यह -केशव दास पमर - संज्ञा, पु० [सं० स्मर] कामदेव, मनोज २. युद्ध, लड़ाई |
उदा० १. धँस्यो समर हियगढ़ मनहु ड्योढ़ी लसत निसान । - बिहारी श्री स्याम के समर जैसे, कमल पत्र थाना के । — गंग समोरिधि - संज्ञा, स्त्री० [सं० समृद्ध ] सम्पन्नता, अमीरी ।
दसरथ के राम, ईस के गनेस श्री
-
( २१३ या भेंट में
उदा० मध्या रूठ जोवना प्रगट काम ढीठ बैनी सुरत विचित्रा लाज काम समरिधि है ।
-देव
घूँघट खुलत मुख जोति ङ्ख' गयो छपाव सब बैगुन
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समल- वि० [सं०] मलीन, गंदा, मैला । उदा० पाइन में फलके परि परि झलके दौरत थल के बिथित भई । श्रादरस अमल सो दुगन कमल सो घरै समल सी गिरिन छई । -पद्माकर समलनि-बि० [सं० समल] मैला, गंदा, मलीन उदा० सहज सुगंध सौं मध मधुकर कहो को गनै सुगंध और सोधे समलनि को । -देव समादान - संज्ञा, पु० [ भ० फ० शमश्रदान ] जिसमें मोमबत्ती रख कर जलाते हैं । उदा० कारचोबी कीमत के परदा बनाती चारु, चमक चहूँधा समादान जोत जाला में ।
-
--
-ग्वाल
समिधि -- संज्ञा, पु० [सं० समिघ] मग्नि, आग | उदा० लागत किरणि जाकी करत बिकल अंगदेखे ताप याखिन में बसी है समिधि सों । - रघुनाथ को पसार होत समिधि को ।
—
-
समोति - संज्ञा स्त्री० [सं० समिति] समूह, ३. समेत, सहित ।
- रघुनाथ
समीड़ना-क्रि० स० [सं० स
हि मोड़ना ] अच्छी तरह से मीजना, मलना, मर्दन करना । उदा० अंब-कुल बकुल समीड़ि पीड़ि पाड़रनि मल्लिकानि मोड़ि घन घूमत फिरत हैं ।
-
- देब मेल २.
>
समोवन
उदा० १. इन्द्रजीत सों हती समीति । कछू दिनन तें ऐसी रीति । -केशव
अब भोर भये उठि आये दुरे दुरें बातनि ही सों समीति करी । -सोमनाथ
――
२. बदलि परी है प्रीति-रीति परतोतिनीति, निपट अचंभे की समीति लेखियत है । -घनानन्द ३. अंग समीत अनंग की जोति में, प्रीति पतंग ह्र दौरि परी जू । -देव बँधा हुआ,
समीधी- वि० [सं० संविद्ध ? ] फँसा हुआ, सम्मिलित मिला हुआ । उदा० बीधी बात बातन समीधी गात गातन उबीधी परजंक में निसंक श्रंक हितई ।
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- देव समोलना- क्रि० अ० [सं० सम्मिलन ] सम्मिलित होना, शामिल होना, माग लेना । उदा० नित जेठी उमेठी सी भोहैं करें, दुख देन को दासी समीन है । बेनी प्रवीन समुच्च — संज्ञा, पु० [सं० समुच्चय ] समूह, राशि | उदा० लाल कर पल्लव बनक भुज बल्लरीन, कनक समुच्च उच्च कुच गिरि संगिनी ।
-
- देव समुना -संज्ञा, पु० [सं० शयन] हिंसा, हत्या या मारने की वृत्ति ।
उदा० तेज मरी मंजुल मजेज भरी रीझ भरी खीझ मरी दूतन की दाहै दौरि समुना ।
-
-ग्वाल
-
समूढ़ – संज्ञा, पु० [सं०] समूह, राशि । उदा० प्रौढ़ि रूढ़ को समूढ़ गढ़ गेह में गयो । शुक्र मंत्र शोधि-शोधि होम को जहीं भयो । - केशव
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समूघो - वि० [देश० ] सब, सम्पूर्णं । उदा० रुघो रुके कौन को समूधो करि काज बीर सूघो चलो पौन को सपूत रामदल को ।
-समाधान
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समूर- संज्ञा, पु० [सं० समूल] १. आदिकारण, प्रभाव, २ हष, समुल्लास, ३. शंबर नामक हिरन । उदा० १. तेरो कल बोल कल भाषिनि ज्यों स्वाति बुंद, जहाँ जाइ परे, तहाँ तँसोई समूर है । समोवन-संज्ञा, पु० [हिं० समाना ] मग्न, तन्मय उदा० गाय दुहावन हो गई, लखे खरिक हरि सांझ । सखी समोवन ह्न गई आँखें
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समोरध
खिनि माझ।
-बिहारी समौरध-संज्ञा, पु० [सं० सम् +ऊर्द्ध] ऊपर,
स्वर्ग । उदा० रेफ समौरध जाहिर बास सवारहि जा धरमौ सफरे ।
-दास सयान-संज्ञा, पु० [सं० सज्ञान] १. सयानपन,
कौशल २. संचान, या बहरी नामक बाज । उदा० सामाँ सेन, सयान की सबै साहि के साथ। बाहुबली जयसाहिजू, फते तिहारै हाथ ।
-बिहारी सर-संज्ञा, पु० [हि. सरकंडा] १. सरकंडा, सरपत जैसा एक पौधा जिसकी कलम बनाई जाती हे। २. सरा चिता । उदा० १. रंग बनावत अंग लगे सर ल्यावत लेखनी काज नये ।
-तोष कागज गरे मेघ, मसि खूटी सर दब लागि जरे । २. कैतो सूख सेज के संजोगी सरसेज पग
जावक कि पावक सजोगी सीव लोक की ।
-देव सरक-संज्ञा, स्त्री० [सं०] नशा की लत, शराब
आदि पीने की आदत । उदा० प्रेम सरक सबके उर सलै । ब्रजमोहन बन कों जब चलै ।
-घनानन्द सरकसी-वि० [?] कठोर, नीरस, शुष्क । उदा० बात सरकसी रसह में कवि भषन तो बालम सों बौरी बरकसी कीजियतु है।
भूषण सरकोस-संज्ञा, पु०[शरकोश] तरकश, तूणीर । उदा० सरकोस कसै करिहां जु घरें धनु बानु मनोजहुँ के अवतार ।
-केशव सरदन-वि० [फा० सर्द +-हिं० न] मंद, सुस्त उदा० थिगरी न लागै ऊधो चित्त के चंदोवा फटे,
बिगरी न सुधरै सनेह सरदन को।-ठाकुर सरता-संज्ञा, स्त्री० [सं० शर 1 तीरंदाजी, बाण चलाना । उदा० छोड़ि दई सरता सब काम मनोरथ के रथ की गति खुटी ।
--केशव सरना-क्रि० अ० [प्रा. सरण] १. गमन करना, व्याप्त होना २. समाप्त होना, बीतना ३. होना। उदा० १. बाहर हू भीतर प्रकास एके पास पास पवन ज्यों गृह बन भुवन तिहू सरो।
---देव
सरसई २. पूरन इंदु मनोज सरो चितते बिसरो उसरो उन दोऊ ।
-देव ३. कंस रिपु अंस अवतारी जदुबंस, कोई, कान्ह सो परम हंस कहै तौ कहा सरो ।
-देव सरफ--वि० [?] लज्जित, संकुचित । उदा० देखे मुख चंद द्य ति मंद सी लगत प्रति - लोचन बिलोके मृग शावक सरफ है।
--'शृगार संग्रह' से सरबटना-क्रि० अ० [हिं० सरबंस] १. छिन्न- मिल करना, तहस-नहस करना । उदा० ऋद्ध दसानन बीस कृपाननि लै कपि रीक्ष ___ अनी सरक्ट्टत ।।
-दास सरबत-वि० [सं० शर+वत् (प्रत्य॰)] १. बाण की भांति २. शरबत, पेय पदार्थ ।। उदा० १. ये बीरी बगारि, बरे ये बीरी समीर बैरी, सीरो सरबत री उसीरो सरबत री।
-देव सरल-संज्ञा, पु० [सं०] देवदार का वृक्ष । उदा० ताल त्यों तमाल साल सरल रसाल जाल फालसे फरदते फराक फूलनार है।
-नंदराम सरवा-संज्ञा, पु० [सं० शरावक] १. प्याला, कसोरा, संपुट २. दिया । उदा० १. करवा की कहाँ पंग तरवा न तीते होहिं, सरवा न बूई परवाह नदी नारि के।
-गंग सरवानी--संज्ञा, स्त्री० [?] ऊंट चलानेवाली उदा० सरवानी विपरीत रस किय चाहै न डराइ
दुरै न विरहा को दुर्यो, ऊँट न छाग समाइ ।
-रहीम सरस-वि० [सं०] १. बढ़कर, अधिक, ज्यादा
२. रसयुक्त ३. गीला ४. सुंदर ५. मधुर । उदा० १. दरसकिए तें प्रति हरस सरस होत, परम पुनीत होत पदवी सुरेस की।
-वाल तैसेइ समीर सुभ सोभै कवि द्विजदेव सरस पसमसर बेधत बियोगी गात ।
-द्विजदेव सरसई-संज्ञा, स्त्री० [सं० सरस ] गीलापन,
पा,ता। उदातिय निय हिय जु लगी चलत पिय नख
रेख खरोंट, सूखन देति न सरसई, खोटि खोंटि खत खोट ।
-बिहारी
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सरसना ( २१५ )
ससना सरसना-क्रि स० [सं० सरस+न] बढ़ना, | सरोट-संज्ञा, पु० [हिं० सिलवट] कपड़ो में संबधित होना।
पड़ी हुई शिकन । उदा० मन मांझ नेम सौ मनोज सरस्यौ करो। । उदा० चुप करिए, चारी करत सारी परी सरोट । -सोमनाथ
बिहारी सरसार-वि० [फा० सरशार] निमग्न, निम- सरौटी-संज्ञा, स्त्री० [सं० शिल+हिं० प्रौटी ज्जित ।
प्रत्य०] सिलौटी, पाषाण खंड जिस पर मसाला उदा. कहै पद्माकर सुगंध सरसार बेस बिथुरि । पादि पीसा जाता है। बिराजै बार हीरन के हार पर ।
उदा० पीढ़ा, पलिङ्ग मचान दुसेजा तखत -पद्माकर सरोटी।
-सूदन सरसाल-वि.[फा० सरशार] १. उन्मत्त, सर्भ-संज्ञा, पु० [सं० शरम] १. हाथी का बच्चा
मस्त नशे में चूर २. छलकता, हुमा, परिपूर्ण । . राम की सेना का एक बंदर ३. टिड्डी ४. उदा० १. जानतु मेरो कठोर हियो जू किया
शेर। सरसाल मनोज ने झाँकी । नैननि में, घट उदा० १. इक कर्म पै इक सभ पै खर अर्म पै मैं अटकी खटकं वह बाकी बिलोकनि
सतुरंग पै ।
-समाधान बांकी।
--सोमनाथ सल-संज्ञा, स्त्री० [सं० शल्य] शूल, पीड़ा २. सरांग-संज्ञा, स्त्री० [सं० शलाका] खंभा, लोहे माला। की छड़ ।
उदा० पाठ सदा पटरानी लगै हिये, तापै मनोभव उदा० चीकनी सुहाग नेह हेम की सराँग पर प्रेम __की न कटै सल ।
-बेनी प्रवीन पाउ परत न राह रपटन की। -देव सलाक-संज्ञा, पु० [सं० शलाका] तीर, बाण । सरासेत-वि० [फा० सरासर+ हिं. सेत-श्वेत] उदा० शुद्ध सलाक समान लसी अति रोषमयी दुग पूर्णतया, प्रकाशमय ।
दीठि तिहारी।
-केशव जमी० साँस लेत सरस सम उदा० साँस लेत सरसे समूहन सुगंध लेत सारी
सलुंभ संज्ञा, पु० [सं० लोभ लालच, लोभ । की सिरी सों सरासेत मग ह रहै।-पद्माकर
प दमाकर
उदा० रतन सुतन अवलोकि लोक पतिमान सलंसरीकिनि-संज्ञा, स्त्री० [अ० शरीक] साथ देने
महि ।
-मतिराम वाली, सहेली, सखी।
सलूक संज्ञा, पु० [सं० सालोक्य ] सालोक्य, उदा० देखन दे हरि को भरि नैन घरी किन एक वह मुक्ति जिसमें मुक्त जीव ईश्वर के साथ एक सरीकिनि मेरी ।
लोक में वास करता है। सरीसृप-संज्ञा, पु० [सं०] सर्प, साप, २. रेंगने उदा० बरी ही वियोग बिरहागिन-मभूकन में, वाला जंतु ।
ता पर सलूक लूक लाखन दियो चहै । उदा० छद्र मति छीछी को, समुद्र रुद्र रोर घोर
-ग्वाल बीछी बिग केसरी करी सरीसृपन को। -देव सलोट दे. सरोट ।। सहखाई-वि० [फा० सर=पराजित] पराजित, | सलोनो-संज्ञा, पु० [बुं० ] श्रावण पूणिमा का दमित, वशीभूत ।
दिन, रक्षाबंधन, कजली का त्योहार । उदा० मुख की रुखाई सनमुख सरुखाई, परुखाई उदा० माजु शुभ सावन सलोनो की परब पाय, यों न पाई सुरुखाई सुरुखाई सी । -देव
अंग, अंग सुभग सिंगारन बनैहीं मैं ।- ठाकुर सहक-संज्ञा, पु० [?] अनुमान, अंदाज २. सवागनि वि० [सं० सौभाग्य ] सौभाग्यवती सलूक, पाचरण, व्यवहार [अ०] ।
सोहागिनी । उदा० जानत है कि न जानत हैं कोई यों न जरै उाद जब तें इन सौत सवागनि ने मुखसों मुख नर नारि सरूकन ।
–ठाकुर जोरि लियो रस री। - --रसखानि सरोकदार-वि० [फा० सुखं+दार] लालरंग ससना--क्रि० स० सं० श्वास 1दख की सांस वाले, सुर्खदार, रक्तिम ।
लेना, सुसकना, पाहें मरना, उसास लेना । उदा० चंचल चलाक चारु चौंपन चटक भरे, उदा० जैसे मीन बिनु जल क्यौंहूँ न परति कल चोंकत चमं चलें सजल सरोकदार।
सुंदर विकल भई वेसुधि ससति है। -ग्वाल
-सुन्दर
-देव
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ससहरि ( २१६ )
साक ससहरि-वि० [फा० शशदर] भयभीत, संत्रस्त। सहसपान-संज्ञा, पु० [सं० सहस्र + पणं ] उदा० होत उदय सीस के भयो मानो ससहरि सहस्रदल, कमल । सेत।
-बिहारी | उदा. सहसपान निद्रा तज्यो, खुले पीत मुख ससिसन- वि० [सं० स+शिश्न] १. सशिश्न
बंदि।
-दास लिंग सहित २. चन्द्रमा की भांति ।
सहसह-वि० [सं० सहस्र] सहस्रों, हजारों। उदा० अबला लै अंक भरै रति जो निदान कर उदा० सह सह समर की बह बह बीजू मई तहें ससिसन सोभावंत मानिये जोधन मैं ।
__ तहँ तिय प्रान लीबे की खबरि है ।। -सेनापति
-दास ससेट-संज्ञा, पु० [हिं० सरसेट ] डर, भय सहावी-संज्ञा, स्त्री० [अ० शहादत ] साक्षी, संकुचन ।
गवाही । उदा० कंप कुबेर हिये सरसो, परसे पग जात | उदा० हँसि के हंसाय दीन्हो मुख मोरि सिवनाथ सुमेरु ससेट्यौ ।
-नरोत्तमदास
सखी सों सहादी दै दै सावरी हहा करी। सहजोर-संज्ञा, पु० [सं० सह-साथ+हिं०
-शिवनाथ जोड़ ] साथ देने की क्रिया, साथ जोड़ना, साथ सहाब--संज्ञा, पु० [फा० शहाब] लालरंग, रक्त देना ।
वणं । उदा० गावत मलारें, सुनि मुख की पुकारे' जोर, उदा० कोमल गुलाब से सहाब से अधिक प्राब झिल्ली झनकारें, धुनि करें सहजोरे की ।
गोल गोल सोभित सुबेस स्वच्छ हेरे हैं। --ग्वाल
--पजनेस सहन--संज्ञा, पु० [अ०] आँगन, मकान के बीच
मनि पजनेस जपा जायक सहाब प्राब में या सामने खुला हुमा भाग ।
स्वच्छता अनूप लसै छाजत छटा की है। उदा० ऊपर महल के सहन परजंक पर बैठी पिय
--पजनेस प्रेम की पहेलिका पढ़त भों ।
साहिब सहाब के गुलाब-गुड़हर-गुर, -बेनी प्रबीन
ईगुर-प्रकास दास लाली के लरन हैं। सहबात -संज्ञा, स्त्री० [सं० सह+वार्ता] मेल
--दास की बात, संधि की बात ।।
सहिदानि संज्ञा, स्त्री० [ सं० सज्ञान ] चिह्न, उदा० क्योंहूँ सहबात न लगै, थाके भेद उपाइ निशान।
बिहारी उदा पायो कछू सहिदानी सँदेस ते आइ कि सहर--क्रि० वि० [हिं० सहारना ] धीरे, रुक
प्यारो मिल्यो सपने में ।
-दास रुक कर, मंद।
सहिया--संज्ञा, पु.बु] कीड़ा । उदा० सहर सहर सोंधों, सीतल समीर डोल. उदा० अधिरात भई हरि आये नहीं हमें ऊमर घहर घहर घन घेरिक घहरिया । —देव ___ को सहिया करिगे।
-ठाकुर सहरना-क्रि० प्र० [सं० सह 1 सहन करना, सहु-वि० [हिं० सब] सब पूर्ण । धैर्य रखना।
उदा० नागरि पागरि हौ सह भाति तुम्हें अब उदा० मुरली बजाइ बन पुर सूर लीन करै,
कौन सी बात पढ़ये।
-घनानन्द चन्दावन वासिन को वदु क्यों सहरि है। सहेट-संज्ञा, पु० [सं० संकेत 1 वह संकेत या
-देव निर्दिष्ट स्थल जहाँ नायक और नायिका मिलते सहल-वि० [सं० सरल ] १. तुच्छ, नगण्य, हैं, एकान्त स्थल । साधारण २. मलने की क्रिया [संज्ञा. पू०]
उदा० पापनी ठौर सहेट बदौ तहं ही ही भले उदा० १. दोऊ अनुराग भरे पाये रंग मौन भाग,
नित भेंट के ऐहों।
-दास मघवा सची को लखि लागत सहल है। सहेटी-वि० [हिं० सहेट ] संकेत स्थल, या
-देव मिलन-स्थल पर जाने वाला, घुमक्कड़, शैलानी । २. गारि राखे केसरि प्रवीन बेनी मृगमद, | उदा० ढीठि भई मिलि ईठि सुजान न देहि क्यों अगर तगर अंग चंदन सहल मैं ।
पीठि जु दीठि सहेटी ।
--घनानन्द --बेनी प्रबीन | सांक--वि० [सं० शंकित] शंकित, भयभीत ।
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साँकर
उदा० जम्बुवती पति सों सतभामिनि, साँक ह्र नाक मरोरी ।
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( कामिनि -देव संकट, कष्ट
साँकरे -- संज्ञा, पु० [सं० संकट ] १. २. जंजीर ।
--दास
शंका २.
उदा० यह कैसो निसाकर मोहि बिना पिय साँकरे के जिय लेन लग्यो । सांका-संज्ञा स्त्री० [सं० शंका ] संत्रस्त [वि० ], मयमीत शंकित । उदा० का करें नंदराम त्यों घूंघट सांका करे लखि नेक न जीको । - नंदराम साँझी -- संज्ञा, स्त्री० [?] देवालयों में जमीन पर सावन मास में की गई फूल-पत्तों यादि की उदा० पुजावति साँझी कीरति माय, कुंवरि राधा को लाड़ लड़ाय । --घनानंद साँट - - संज्ञा, स्त्री० [ ? ] सौदा बेचने की चीत ।
सजावट ।
उदा० लोभ लगे हरि रूप के करी सांट जुरि जाइ । -- बिहारी रूप की साटि के तौलति घाटि वद अनवाद दर्द फल जूठे --देव
सांथर – संज्ञा, स्त्री० [?] बस्ती | उदा० देस नगर साँथर गढ़ ग्राम । सेख विना मेरे किहि काम | - केशव
बात
साँधना- क्रि० स० [सं० संधान ] खोज करना,
संधान करना । उदा० साँझ समै न रहे रफ मानु की तासमै या को सुखाइबो सांधे । - बेनी प्रवीन 'साँवरो इन्दु-संज्ञा, पु० [सं० श्याम = कृष्ण + इंदु = चन्द्र ] कृष्णछन्द्र उदा० 'दास' कियो छंदारनव, इंदु | साउथ - - संज्ञा, पु० [ सं० सामंत ] वीर, योद्धा, साम ंत । उदा० ररणसूर मयूर घनै चिहरे । घुरवा झुक साउथ से बिहरे ।
सुमिरि साँवरो
-दास
- बोधा
साकरना -- क्रि० स० [सं० स्वीकरण]
साक - वि० [सं० शंका] शंकित, भयभीत । उदा० जम्बुवती पति सौं सतिभामिनि, कामिनि साक नाक मरोरी । --देव स्वीकार नाकरें नै --देव स + श्राकृत = प्राशय ]
करना, मंजूर करना ।
उदा० या मुख साकरे लाज की साकरे नग सकिर मौंहे । साकूत - वि० [सं०
२८
२१७ >
श्राशय युक्त, तात्पयं सहित । उदा० सूक्ष्म परासे जानि इंगित साकूत करें, कोस मैं बलायो कर कमल को कोस है । - दूलह
[सं- शाका + हि० न]
साखन-संज्ञा, पु० प्रसिद्धि, धाक, रोष । उदा० कीजत फिराद सुनि लीजिये हमारी गंगा साखन के साथी दुख दिग्गज डिगाए तूं । - पद्माकर
सातकुंभ --- संज्ञा, पु० सोना ।
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साखाबिलासी — संज्ञा, पु० [सं० शाखाविलासी ] शाखामृग, बन्दर, मर्कट ।
उदा० उठ्यो सो गदा ले जदा लंकबासी । गये भागिकै सर्व साखा बिलासी । - केशव
साग -- क्रि० वि० [सं० संग] संग, साथ । उदा० किध राम लछिमन द्वे साग । मन क्रम बचन किधौं अनुराग । साचली - वि० [हिं० सच्ची, सच + ली] सच्ची
-केशव
सत्य ।
उदा० काली नाग नाथ्यो संखचूर चूर कियो अघ अजगर मार्यो पूतना की बात साचली । --देव [सं० शातकुंभ ] स्वर्णं, मानहुँ रंगे कुसुंभ । सातकुंभ से कुंभ ॥ मतिराम समूह, संघ । जिहिं पतितनु के - बिहारी विस्तर, बिछौना
उदा० राजत अरुन सरोज हैं, जोबन मद गज कुंभ के
साथ -- संज्ञा, पु [सं० सार्थं ] उदा० दीजं चित सोई, तरे
साथ ।
साधि
साथर - संज्ञा, पु० [देश० ] २. कुश की बनी चटाई । उदा० साथर ही दृग-पाथ रही तन हाथ रही है । साद - वि० [अ०] १. पुनीत मुबारक । उदा० १. बाद कियो वहि चंदहि मैन मनोहक चंदहि साद कियो है । -तोष साधनों क्रि० स० [सं० साधन] शोधना, शुद्ध करना, सुगन्ध आदि से शरीर को शुद्ध करना । उदा० श्राभो चलौ देखिये जू लेखियं जनम धन्य, केसर गुलाल सों सरीर साधियतु है । -ठाकुर सोत्साह
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साधि - क्रि० वि० [हिं० साध ] सोल्लास, इच्छापूर्वक, प्रमपूर्व के ।
घुरि पाथर ही - देव श्रेष्ठ २. शुभ
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साना
सारस
उदा० भोरही ते उठि साँझ लो साधि करे गृह, सारंग-संज्ञा, पु० [सं०] १. वीणा २. घोड़ा काज सबै मन भाये ।
३. चंदन, ४. पुष्प ५. दीपक। साना-संज्ञा, पु० [सं० सानु] चोटी, शिखर उदा० गाउ पीठ पर लेहु अंगराग अरु हार करु । उदा० लुके भूड़ माना गई आसमाना बड़े बिंष्य
गृह प्रकास करि देहु, कान्ह कहयो सारंग साना भए धूरि धाना।
-केशव नहीं।
-काशिराज सामर--संज्ञा, पु० [सं० सम्बल ] राह खर्च, सार-संज्ञा, पु० [?] १. एक प्रकार का कलेवा ।
रेशमी वस्त्र २. तलवार खङ्ग ३. लकड़ी उदा० ताको तू लै जाय नियारे सामर दूध महेरो । ___ का ही पक्की लकड़ी।
-बकसीहंसराज उदा०१. सार की सारी सो भारी लगै धरिबे सामा-संज्ञा, पु० [सं० श्यामा] १. श्यामा
कह सीस बघम्वर पैया ।
-- रसखान नाम का पक्षी जो बहुत मधुर वाणी बोलता है
बगरे बार झीने सार मैं झलकति अधर नई २. सामान ।
अरुनई सरसानि ।
-घनानन्द उदा० सामां सेन, सयान की सबै साहि के साथ ।
१. सादे मोती कंठ सोहैं पंचरंग अंग चारु. बाहुबली जय साहिजू, फते तिहार हाथ ।
सुरग तरौटा सोहै सारी सार सेत की ।। --बिहारी
-आलम सामा-संज्ञा, स्त्री [सं० सामर्थ्य] १. सामर्थ्य,
२. देव गुमान गयंद चढ़यो जग सौं अहं२. सामान ३.व्यवस्था ।
कार को सार ले जूझयो ।
-देव उदा० १. हम तो हैं बामा प्रौन जोग की है
३. सुरतरु सार की सॅवारी है बिर चि सामा ऊधौ । उन्हें जोग जोग है जु कांख
पचि कंचन रचित चिन्तामणि की जराइ लीनी कुबरी।
-सूरतिमिश्र की।
-सेनापति २. छांडि न पायो मै एकहवार की मौन में
सारतार-संज्ञा, पु० [सं०] श्रेष्ठ मोती। भोजन की कछु सामा । -नरोत्तमदास
उदा० सेनापति अतर, गुलाब, अरगजा साजि, ३. धोती फटी सी लटी दुपटी अरु पाय
सार तार हरि मोल ले लै धारियत हैं। उपाहन की नहिं सामा। -नरोत्तमदास
--सेनापति चिन्तामनि कामधेनु औरन के दैन काजै ।
सारदसिरी-संज्ञा, स्त्री० [?] बसौंधी दूध की सामा करिबै की आये धामा दसरथ के । बनी वस्तु ।
-सूरतिमिर
उदा० खारिक खरी को मधुह की माधुरी कों सामहे-अव्य सिं० सन्मुख] सामने, प्रत्यक्ष ।
सुम सारदसिरी को मीसरी को लूटिलाई उदा पीछे-पीछे डोलत हैं सामुहें ह्र बोलत
सी।
-पद्माकर -देव
सारना-क्रि० स० [हिं० सरना] १. सुन्दर सायक-संज्ञा, पु० [सं०] १. खड्ग तलवार बनाना, सुशोभित करना २. समाप्त करना २. बाण ।
३. बताना, याद दिलाना सिं० स्मरण] उदा० सायक एक सहायकर जीवनपति पर्यन्त
उदा० . सारद सिंदूर सिर सौरम सराहैं सब तुम नृपाल । पालत क्षमा जीति दुधन
सेन साजि संकुल प्रभा सी सारियत है। बर्वत। -कुमारमणि
--गंग सायबान-संज्ञा, पु० [फा० साय:बान] मकान के
२. केस पर सेस, दुग चलन पर खजनी आगे की छप्पर या छाजन जो छाया के निमित्त
भौंह पर धनुष धरि सुरति सारौं ।-गंग बनाई जाती है।
३. प्रति लंगर अति निठर ढीट यह हसि उदा० कढ़ि गयो भान, अब मांगती हो सायबान
हसि बातन टारै । कहत बनाय पाँच की मैन-मद पोखी तेरी नोखी रीति जानिये ।
सातक अपनो नांव न सारै। -दूलह
-बकसीह सराज' दहें और चक्र चलावै सखी चौंरदार" । सारस-संज्ञा, पु [सं०] १. कमल २. एक बड़ा सायेबान संग सो झुकावै हीं जुलावहीं ।। पक्षी ३. चन्द्रमा ४. वि० [सं० स-+-पालस्य]
-नागरी दास आलस्य बलित ।
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जया वारसणि सारण सारस गिराया, इस
पोनी स्याम लीला माह कापिला कर
सारिख ( २१६ )
सिदूख उदा. सारसनि सारस ने, सारस निरास, हस । चीनी स्याम लीला माह काविली जनाई सारस तुसार गिरि सार गुनियत हैं।
-बेनीप्रवीन -देव सुखवायक-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवराज, इन्द्र ४. सारस सारस नैनि सुनि, चन्द्र चन्द्रमुखि २. सुख देने वाले । देखि ।
-केशव उदा. गणपति सुखदायक पशुपति लायक, सूर सारिख-वि० [सं० सदृश] सदृश, समान, तुल्य
सहायक कौन गनै ।
-केशव बराबर।
सुगथ-वि० [सं० सुग्रथ] सुन्दर तरह से गुथे उदा० सोई लगी शशि के मुख कारिख पौ तेहि गये, सुन्दर ढंग से जोड़ मिलाये गये।
सारिख कौन बतायो। -गुमान मिश्र उदा० इहिं द्वहीं मोती सुगथ तं, नथ, गरबि सारी-संज्ञा, स्त्री [सं० सारि] गोट, पासा।
निसाक।
-बिहारी उदा० सेजमैंन सारी सीहें सारी बिसारी सी है।। सुचंद-वि० [?] श्रेष्ठ, उत्तम ।
- पालम
उदा० गुन-ज्ञान-मान सुचंद है। नित करत खलसालमंजी-संज्ञा, स्त्री० [सं० शालम जी] शाल
मुख मंद है।
-पदमाकर मंजिका, मूर्ति, गुड़िया।
सिखावान-संज्ञा, पु० [सं. शिखावान] अग्नि, उदा० तरुन तमाल तरु, म जुल प्रबाल मी जि- माग । मंजरी रसाल बाल मंजी सालभजी सी
उदा० सिखावान-कर-कलित जलज अक्षत सिर -देव सोहै।
-केशव सासल्य-वि० [सं० स+शल्य] पीड़ा सहित, सिखिचंद-संज्ञा, पु० [सं० शिखि चन्द्र] मयूर शल्य युक्त ।
चंद्रिका, मोर चंद्रिका । उदा० भक्ति भाव भक्तनि विषे, लघुनि प्रीति उदा० कवि 'मालम' भाल के उरध यों उपमा वात्सल्य । कार्पण्यं निजजन कृपण, सांति
सिखि चन्द्र की पंति धरी । -आलम सोक सासल्य ।
-देव
सिखी-संज्ञा, पु० [सं० शिखिन्] अग्नि, पावक सासौ-संज्ञा, पु० [हिं० सांसत] संकट, घोर
२. मोर ३. कामदेव । कष्ट ।
उदा० सिखी की जारो जिय सिंह को विदारयो उदा० अरु तुम कमलजोनि त छूटी। श्राप ताप
जिये बरछी को मारयो जिय वाको भेद की सासौ तूटौ ।
-जसवंतसिंह
पाइय। साहि-संज्ञा, पु०फा० शाहीं] १. एक प्रकार सिख्या--संज्ञा, स्त्री० [सं० शिष्या] शिष्या, का बाज २. शाहजहाँ बादशाह ।
चेली । उदा० सामा, सेन, सयान की सबै साहि के साथ। उदा० चेदिपति खेदिपति राख्यो ब्याह वेदिक,
-बिहारी । हौं अन्तर निवेदि, देव दासिनु की सिख्या सिकलना-क्रि० स० [हिं॰ सकेलना] एकत्रित
ही।
-देव होना, इकट्टा होना।
सिंगरफ-संज्ञा, पु० [ १. ईगुर।] उदा० अकबर साहि जू के महाबली दानसाहि, उदा० केसरि सुरंग सिंगरफ सों रँगीले डील, रावरे सिकार ए तो दल सिकलत है ।
डडहे सील के जे पानद सुहेले में । -गंग
-सोमनाथ सिखंड-संज्ञा, पु० [सं० शिखंड] १. मोरपंख, सिजित-संज्ञा, स्त्री० [स० ] करधनी, कमर मयूर की पूंछ २. चोटी।
में पहनने का एक आभूषण २. प्राभूषणों की उदा० १. सौई घनानंद सुजान रूप को पपीहा, ध्वनि ।
सोभा सींव जाके सीस मंडित सिखंड | उदा० भ्र व मटकावति नैन नचावति । सिंजित है।
-घनानन्द सिसिकिन सोर मचावति ॥
-दास. सुखचीनी-संज्ञा, पु० [सं० चीनांशुक, चीनी + सिंदूख-संज्ञा, स्त्री० [प्र. संदूक] अंबारी, हाथी सुखा एक प्रकार का रेशमी वस्त्र जो चीन देश | . की पीठ पर रखने का हौदा जिसके ऊपर एक से पाता था।
छज्जेदार मंडप होता। उदा० चषमति सुमुखी जरद कासनी है सुख, । उदा० सोने की सिंदूख साजि सोने की जलाजले
बोधा
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सिंधूप
सिलसिली जु सोने ही की धांट घन मानहु बिमात के।। उदा० पांवड़े डराये द्वार कलस धराए चारु
-केशव
अमित कराए सोमा तोरन के सिय की। सिंधूप-संज्ञा, पु० [सं० सिंदूर पुष्पी ] एक
-रघुनाथ प्रकार का पौधा जिसमें लाल फूल लगते हैं | सिरकटा-संज्ञा, पु० हिं० सिर+कटना ] वीर पुष्पी।
१. शृगाल, २. दूसरे का अनिष्ट करने वाला उदा० माछो फूल सिंधूप को माछे पिय के हाथ (वि.)
चले बाम के धाम को मोतन चितवत । उदा० १. साहस की ठौर भीर परे ते सिरकटा जाथ।
--मतिराम
है, सकतिन ह सौ लरिकानि को तजत हैं। सिंहोवरि-वि.सं० सिंह +उदर ] सिंह के
-सेनापति समान चीण कटि वाली।
सिरकत-संज्ञा, स्वी.[प्र. शिर्कत] साझेदारी, उदा० सकल सिंगार करि सोहै पाजु सिहोदरि, मागीदारी २. सहयोग, सम्मिलन । सिंहासन बैठी सिंहबाहिनी भवानी सी। उदा० माला यह लीजै मंत्र दीजै दंडवत करौ
मंत्र ले रहो न गुरुदेव सिरकत हो । सिता-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. चीनी, खांड़,
-देव शक्कर २. मिश्री।
सिरगा-संज्ञा, पु.?] एक प्रकार का घोड़ा । उदा० सुनि मुनि नारि, उठि धाई मनुहारि करि, उदा० सिरगा मुकि भरत बैरि बिदारत निपट सिता दधि पायस परसि ल्याई थार में ।
निकारत अति न्यारी । --पद्माकर
-देव सिरदच्छी-वि० [सं० सदुश] समान, सदृश । सिताब-संज्ञा, स्त्री० [सं० सिता=मल्लिका उदा० तेरी सी मांकि तुही नहि मानत काम की +फा० माब-मकरंद कांति] मोतिया या
कामिनी तो सिरदच्छी ।
-गंग १. मल्लिका का मकरंद ।
सिरनेत-संज्ञा, पु० [सं० शर=चिता + उदा० माधवीन मालती में, जही में न जोयत | नियति-संकल्प ] १. चिता में जलने का __ में, केतकी न केवड़ा में, सरस सिताब में । संकल्प. इरादा २. साफा, पगड़ी।
-वाल । उदा० १. त्यों सिरनेत सती धरि के घर के सिताबी-संज्ञा, स्त्री० [फा० शिताब] जल्दी,
फिरिबे कहें चित्त घरैना। -बोधा शीघता।
२. कढ़ि खेत में ठाढ़ो भयो सिरनेति घरि उदा० कूबरी को कूब काटि लाय दे सिताबी हमैं,
तेहि बार।
-बोधा टोपी कर ताकी तब गोपी जोगनी बनें। सिरिफ-वि० [अ० सिर्फ] १. शुद्ध, २. पवित्र
--ग्वाल केवल, मात्र । सिपर-संज्ञा, स्त्री० [फा०] ढाल, वह प्रस्त्र उदा० १. घांघरो सिरिफ मुसुरू को सो हरित जिससे तलवार की चोट या प्रहार रोका जाता
रग भंगिया उरोज डारे हीरन के हार को।
-तोष उदा. सार के प्रहार सांग सिपर ललार पेलि. सिरी-वि० [सं० शील शीतल, ठंडा। ऐसे ठौर सिरदार सोर हय हर के।
उदा० सुमही पकेली पौर संग म सहेली कहि
तोष तूं मबेली कासो होती सिरी ताति सिप्पै- संज्ञा, स्त्री.[?] एक प्रकार की छोटी तोप २. निशाना [फा०]।
सिरे-वि.हि. सिर] श्रेष्ठ, बड़कर। उदा० छुटे सब्ब सिप्पे करें दिग्ध टिप्पे सबै सत्र उदा० पद्माकर स्वादु सुधा तें सिरै मधु ते महा छिप्पे कहूँ हैं न दिप्पे ।
-पदमाकर
माधुरी जागती हैं। . -पदमाकर सिफाकंव-संज्ञा, पु० [सं०] कमलकंद ।
सिलसिली-वि० [सं० सिक्त] १. चिकना २. उदा० किधों पमही में सिफाकंद सोहै। किधों पा, गीला ३. फिसलनदार।
पदम के कोष पदमा विमोहै। --केशव उदा० १. ऐसी सिलसिली पोप संदर कपोलनि सिय-संज्ञा, स्त्री॰ [सं० श्रिया] शोमा, प्रभा
की खिसिल खिसिल परै डीठि जिन पर ते। २. मंगल, कल्याण ।
--सुन्दर
-तोष
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सिलहखाना ( २२१)
सुंडाहले सिलहखाना--संज्ञा, पु० पि. सिलाह+खाना] | सीथ-संज्ञा, पू० [सं० सिक्था भात का दाना । १. शस्त्रागार २. जिरह बकतर, कवच ।
उदा०-बंस की बिसारी सुधि कोक ज्याँ चुनत उदा. सूकर सिलह खाने.फकत करीस हैं।-भूषण
फिरौ जूठे सीठे सीथ सठ ईठ दीठ ठाये हो । सिलाह-संज्ञा, पु. [म.] कवच, २. हथियार।
-केशव उदा० सिरमौर गौर गराजि कै सोभित सिलाहैं सीमंत - संज्ञा, पु० [सं० सीमन्तोन्नयन] सीमन्त साजि कै।
-- पद्माकर संस्कार, ब्राह्मणों के दस संस्कारों में एक सिलाही-संज्ञा, पु० [प० सिलाह] कवचधारो, संस्कार, जो स्त्री के प्रथमतः गर्भवती होने पर शस्त्रधारी, सैनिक ।
मूल शांति के निर्मित चौथे, छठवें या आठवें उदा० झमकत पावै मुंड मलनि मलान मप्यो, महीने में होता है। २. स्त्रियों की मांग ।। तमकत भावै तेगवाही पो सिसाही ।
उदा. कन्त चोक सीमन्त की, बैठी गांठि जुराय -पदमाकर
पेखि परोसिनि कौं प्रिया, चूंघट में मुसकाय सिहाना-क्रि० प. सं. ईर्ष्या] .. हर्षित
-मतिराम होना, २. ईर्ष्या करना ३. प्रतिस्पर्धा करना । सीर-संज्ञा, पु० [फा० शीर ] १. खीर दूध उदा० १. भव तातें धरौ हमारे उर निज इक २. शीतल [वि., सं० शील] ३. जल । कर कमल सिहाने।
-सोमनाथ उदा० १. कोऊ एक ऐसो होह मेरो ज्यो तो में सिहारना-क्रि० स० [देश॰] १. ढूंढना, तलाश
देहु, सीर सी सिराई राति जाति है दई करना २. जुटाना ।
-गंग उदा० संकमरी परजंक पलोटति अंक मरो किन
२. बीर सीर कहत न बने, धीर कौन स्याम सिहारी।
.-चन्द्रशेखर
ठहराय जो जानै जाकै लगै, दुग बिसहारे सी-संज्ञा, स्त्री० [सं० श्री] श्री, शोभा, कांति,
हाय ।
- नागरीदास छवि ।
३. बाढ़ी प्रेम घटानि, नैन सीर को कर उदा. रति तो घरू के है. रमासी एक ट्रक. सो
लग्यो ।
-ब्रजनिधि मरू कै हौं सराहों हौंस राधे के सुहाग सीरे-वि० [सं० शीतल1. शीतल क्षीण, नष्ट । की ।
-देव उदा० ग्वाल कवि कहैं कीर कैदी में किये हैं केते नैसिक सी पै निकाइन की निधि ऐसी रसी
तीर पंचतीर के तके ते होत सीरे से । बिधि कैसी ढरेगी। --देव
-वाल सोक-संज्ञा, स्त्री० [फा० सीख] लोहे की पतली सीराजी-संज्ञा, पु०[?] एक प्रकार का कबूतर लम्बी छड़ ।
उदा० गोरे तन कारे चिकुर, छुटे पीठ छवि देत । उदा० बीच बीच सुबरन की बनी । सीकै गज
सीराजी राजी मनौ न्हाय फरहरी लेत । दंतन को घनी। -केशव
-नागरीदास सीचन्द-वि० [?] बढ़कर उत्तम श्रेष्ठ ।
सीवी-संज्ञा, स्त्री०, [अनु० सीसी] सिसकारी, उदा० चन्द ते सिचन्द मुख पमन पमंद पत्ति, रुदन की पावाज सीत्कार ।
बैठे चंद अजचंद पूरन सरद में। -वाल उदा० मन में विराम, तब बन मै विराम कैसो, सीझना-क्रि० स० [सं० सिख] १. पूरा होना
छांड़यो जब धाम सीत घाम तब सीवी २. पकना, चुरना।
कहा । उदा० सीझो वह बात पावे रात पीरे पात पये सीवे-संज्ञा, स्त्री० [सं० सीमा], सीमा हद, निकट सीझी नहीं कान्ह तुरीमी बह पातु है।
पास।
-डाधम उदा० ताल ते बागिन बाग तें तालनि ताल सीठी-वि० [सं. शिष्ट ] फीकी, स्वाद रहित
तमाल की जात न सीवै।
-केशव नीरस ।
संडाहल-संज्ञा, पु० [सं० सुडाल] हाथी । उदा० मोतें उठी है जो बैठे परीन की सीठी क्यों उदा० सुन्दर चाल निरख संडाहल धूर सीस पर बोली मिताइल्यौ मीठी । -दास डारै।
-बकसी हंसराज जा छवि मागे छपाकर छांछ बिलोकि सुधा | मृगपति देखि ज्यों, भजत झुड सुंडाल को। बसुधा सब सीठी । -देव ।
-दास
-देव
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सुचे
सुडान
( २२२ ) सुडान-संज्ञा, पु० [सं शूडिन] हाथी ।
__गये सुख सातौ ।
--केशव - उदा० भूपर भूप हुते जिते ते सब फिरो बखान सुखासन-संज्ञा, पु० [सं०] सुखपाल नाम की राना हय दीन्हैं, तिन्हें दाना देइ सुडान । सवारी ।
-गंग उदा० सुखद सुखासन बहु पालकी । फिरक सुकति-संज्ञा, स्त्री० [सं० शुक्ता] शुक्ता, सीपी ___ बाहिनी सुख चाल की।
-केशव २. सूलि, सुन्दर उक्ति।
सुखित-वि० [सं० शुष्क] १. शुष्क, सूखा २. उदा०किधौं रसबातनि की रसायन राखे भरि आनंदित । __ सोने की सुकति किधों सुवन सुबाम है। उदा० जाही के भरुन कर पाइ अब नित पति.
-केशव
सुखित सरस जाके संगम की पाइ के। सुकैचो - वि० [सं० सकुचन ] सिमटी हुई
-सेनापति संकुचित ।
सुखिर-संज्ञा, पु० [देश॰] साँप का बिल । उदा० लौद सी लंक लचे कचनार संभारत चूनरी । उदा० सुखिर पानंद घन जंत्र संचरित रव संकुचारु सुकैची।
लित सुर चकित थकित चित तुमुल मचि । -पद्माकर
-घनानन्द सुकेसी-सज्ञा, स्त्री० [स० सकेशी] १. इन्द्र
याकी असि सापिनि कढ़त म्यान सुखिर की एक अप्सरा २. सन्दर केशों वाली नायिका
सों, लहलही श्याम महा चपल निहारी है। उदा० पेखे उरबसी ऐसी और है सुकैसी देखी दुति
-गुमान मिश्र मैनका हु की जो हियर हरित है।
सुगनराय-संज्ञा, पु० [सं. सुगंधनराज] गंध
-सेनापति राज नाम का एक पुष्प, सुगंधन राज, चमेली। सुख--वि० [बुं०] सहज, स्वाभाविक ।।
उदा० बैठी हुती जु बिरहनी फिरक देह मनाय । उदा० जाके सुख मुखबास ते बासित होत दिगन्त ।
मेरे पाए हे सखी लिये सुगंधनराय । -केशव
-मतिराम सुखपाल-संज्ञा, पु० [सं०] एक प्रकार की सुगाना-क्रि० स० [देश॰] संदेह करना, शक पालकी।
करना । उदा० गरुड़ विमान त्यागे हय गय रथ त्यागे । उदा० पौगुन गनैया लोग सौगुन सुगातु हैं। सुखपाल त्यागि सुखमानन अतोलते।
-आलम -ब्रजनिधि
सुगुनाना-क्रि० प्र० [?] उद्बुद्ध होना, सुखमीलो-वि० [सं० सुषुमा] सुषुमा से युक्त, जगना । सौन्दर्यपूर्ण, सुन्दरी ।
उदा० कहि ठाकुर भागि सँजागिन की उनही के उदा० निरखि नवीन बैस बारिज बलित माल हिये सुगुनान लगे।
-ठाकुर सेखर सुबन पान कंज सुखमीली के।
सुगैया-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] चोली, कंचुकी।
-चन्द्र शेखर उदा० मोहिं लखि सोवत बिथोरिगो, सुबेनी बनी, सुखबक्ता-संज्ञा, पु० [सं० सुख + वत्ता] मीठा
तोरिगो हिये को हार,छोरिगो सुगैया को । बोलने वाला, चाटुकार, खुशामदी ।
-पद्माकर उदा० जोई प्रतिहित की कहै, सोई परम अमित्र सुघराई-संज्ञा, स्त्री० [अज] चतुराई, निपुणता, सुख वक्ताई जानिये, संतत मंत्री मित्र ।। २. सुन्दरता।
-केशव उदा० १. वाही घरी ते न सान रहै न गुमान सुखसात-संज्ञा, पु० [सं० सप्त+सुख । सात
रहै न रहै सुघराई ।
-दास प्रकार के सुख, यथा-खान, पान, परिधान, सुचे-वि० [सं० शुचि] स्वच्छ, साफ, निर्मल, ज्ञान, गान, शोभा तथा संयोग।
पवित्र । उदा० बहबह.यो गंध, बहबह.यो है सुगंध, स्वास उदा० तहाँ रस के बसि ारस में सु गये तजि महमह.यो, पामोद विनोद सुख सात के ।
संगम सैन सुचेते।
-यालम -देव सुचे-संज्ञा, पु० [सं० सु+चय] राशि, समूह । एकहि बेर न जानिये केसव, काहे ते छूटि | उदा० नखनाहर बंक हिये हरि के जटित म्यनि
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सुजनी
( २२३ )
सुरगना मैं उपमाहिं सुचै ।
- पालम । उदा० नीर भरे नैना बात काहू को सुनैना अति सुजनी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सजनी] प्रियतमा,
रोवत सुनैना नाह बाह को चित चित । सुन्दरी, सजनी, नायिका।।
-नंदराम उवा. कहीं लख चौपरा हरखें। कहीं सुजनीन सुपास-संज्ञा, पु० [देश॰] पाराम, सुभीता । कों परखें।
-बोधा उदा० चेट कु देइ भुलाइ करै जु सुपास की। सुठार-वि० [सं० सुष्ठु] १. सुडौल, सुंदर ।
तौन विदूषक जौन करै परिहास कौं । उदा० छूटे बार टूटे कण्ठसिरी ते सुठार मोती
- दास ऐसे कुच बीच युगलोल दरि ढरि जात । सुबटना--क्रि० स० [सं उद्वर्तन । सगंधन
बेनीकवि पादि का लेप करना, सरसों और चिरौंदी सुठेवा- वि० [हिं० सुठार, सं० सुष्ठु] सुडौल, आदि के लेप को शरीर में मलना। सुन्दर, अँगुली के उपयुक्त नापवाली।
उदा० खोलि के कपाट दीने अन्तर कपट रंग उदा० रेवा नीकी बान खेत मंदरी सवा नीकी,
रापटी मै भोट ह्व सुगंध सुबटत ही। मेवा नीकी काबुल की सेवा नीकी राम
-देव की।
--श्रीपति
सुबुक वि० [फा० सुबुक! . सुन्दर, खूबसूरत सुतहार संज्ञा, पु० [सं० सूत्रकार ] बढ़ई, २. हलका । कारीगर।
उदा० सबुक है कौनकार बूबू कहौ लाख बार उदा० हीरन मनि मानिकन चुनी दै केहि सुतहार
लाखह के दीन्हें प्रांखि अखि मैं मिलावो बनायो। बकसी हसराज नार ।
-नंदराम सुथरी-वि० [सं० स्वच्छ] स्वच्छ, निर्मल २. सुभंग-वि० [सं० सु मंग] बक्र, टेढ़ी। सुन्दर ।
उदा० सिहरै नव जोबन रंग अनंग सुभंग अपाउदा० हा सुथरी पुतरी सी परी उतरी चुरि
गनि की गहरै।
-रसखानि चूमि लगी चटकावन ।
-पजनेस सुभवना क्रि० प्र० [सं० सु + भ्रमण] घूमना, सुदेस-वि० [सं० सु+देश ] श्रेष्ठ, उत्तम, चक्कर काटना । सन्दर, श्रेष्ठ पद वाले, उच्च पद वाले ।
उदा० परी जाको लगी तन सो सुभवै कहा जाने उदा० संपति केस, सदेस नर नवत, दुहनि इक
प्रसूत बिथा बझरी ।
-तोषनिधि बानि ।
-बिहारी सुभावक-वि० [सं स्वाभाविक] स्वाभाविक, सुषरमा-संज्ञा, स्त्री० [सं० सुधर्मा] देव-सभा। प्राकृतिक । उदा० जाति न बरगनी प्रभा, जनक नरिंद सभा, उदा० प्रीतम मीत ममीतनि सो मिलि प्रातहि सोभा ते सुधरमा त सौगुनी बिसेखिये।
माय हैं प्रीति सुभावक ।
-देव - सेनापति सुमना -संज्ञा, स्त्री० [सं०] मालती का पुष्प । सुधा-संज्ञा, पु० सिं०] चूना २. अमृत ।
उदा० तासों मन मान्यो मधुप, सुमना सुमन उदा० फटिक सिलान सों सुधारयो सुधामंदिर ।
बिसारि।
-मतिराम --देव सुरंग संज्ञा, पु० [सं०] . एक प्रकार का कित्ति सुधा दिग भित्त पखारत चंद मरी- घोड़ा २. लाल रंग । चिन को करि कूचो ।
-भूषण उदा० आली तूं कहति है कुरंग दृग प्यारे के, सुधि -संज्ञा, स्त्री० [हिं० सुध] १. चेतना २.
सु पाले हैं सुरंग अवलोकि उर पानिये। स्मृति ।
-दास उदा० फिरि सुधि दै, सुधि द्याइ प्यो, इहिं सुरकि--संज्ञा, पु० [सं० सुर] माल की प्राकृति निरदई निरास ।
_ बिहारी का तिलक जो नाक पर लगा होता है। सुनानं-संज्ञा, पु० [सं० सु+अन्त] सुमन्त । प्रदा० हनत तरुन मृग तिलक सर सुरकि भाल उदा० चली लक्ख च्यारं सु संग मिठारा पका
भरि तानि ।
-बिहारी सुनानं सबै काम वारो।
-जोधराज सुरगना-क्रि० अ० [सं० सु+ हिं• लगना ] सुनैना-संज्ञा, स्त्री० [सं० सुलोचना सुलोचना, । किसी वस्तु में लग जाना, चिपट जाना, मासक्त मेघनाद की स्त्री।
होना ।
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सुरतर गिनी ( २२४ )
सुहेल उदा० उरग्यौ सुरग्यौ त्रिबली की गली गहि | उदा- विहँसी सब गोपसुता हरि लोचन मंदी नाभि की सुन्दरता संधिगौ।
-ठाकुर सुरोचि दुगंचल की।
-केशव सुरतर गिनी--संज्ञा, स्त्री० [सं० सुरतरंगिणी] सुलफ वि० [सं० सु+हिं० लफना] लचकीला, १. सरजू नदी २. पाकाश गंगा ।
__ लचनेवाला २. कोमल, मुलायम, सुंदर। उदा० बह शुभ मनसाकर, करुणामय अरु सर- उदा० १.अंग सुगंध लगाय प्रीति सों जुलफै तरंगिनी शोभसनी।
-केशव सुलफ सँवारे।
बक्सी हंसराज सुरवारनि--संज्ञा, स्त्री० [सं० सूर + दारा] .
२.कंचुकि कसी ललित घनबेली मंडित देवाङ्गनाएँ .. सुन्दर स्वर वाले [सं० स्वर +
सुलफ किनारी। -- बकसी हंसराज फा० दार (प्रत्य॰)]
सुलाखन-वि० [सं० सुलक्षण ] १. सुलक्षण, उदा० त्योंही सुरदारनि मैं त्योंही सरदारनि में, सुन्दर लक्षणों वाला २. सुराख, छिद्र ३, लक्ष, उदित उदार सुरदार विकसत हैं।
लाख ।
--देव उदा० . देव सुसील सुलाखन के, सुलाखन सुरने-संज्ञा, स्त्री० [सं० सुर=देव + प्रा० नइ
ही लहिये घर बैठे।
-देव -नदो] देवनदी, गंगा।
सुवा - संज्ञा, स्त्री० [सं० सु+वास ] सुवास, उदा०पर कंचन के गिरि ते सरनै जुग धार सुगंध २. शुक, तोता। धसी झुकि भूमत है।
-तोष उदा० १. दीप की यों तन दीपति की पर धूम सुरसिधु-संज्ञा, पु० सिं०] १. क्षीर सागर २
सुवा दुहहजन लागी।
-तोष देव नदी (स्त्री० लि०)
सुसुमित-वि. [सं० सस्मिति] मुसकराहट युक्त, उदा० १. कहै पदमाकर बिराजै सरसिधु धार हँसीयुक्त। कैधौं दूध धार कामधेनुन के थन की। । उदा० देव दुरीगाइ पाकुलाइ सुसुमित मुखी,
-पद्माकर
कुसुमित बकुल कदंब कुल कुंज में । २. देखै सुरसिधु रन चढ़े सुरसिंधु रन,
-देव कूल पानिह पियें त्रिसुल पानि हजिय।। सुसो-संज्ञा, पु० [सं० शश] खरगोश, खरहा ।
-सेनापति । उदा० सुसो एक उठि भागौ तब। ता परि कूता सुरूख-वि. [सं० सु+फा० रुख] १. उत्तम,
छोड़े सबै ।
-जसबंतसिंह २. सदय, मनुकूल'. धुंघची ४. लाल ।
सुहाग-संज्ञा, पु० [सं० सौभाग्य] सिंदूर, बंदन । उदा० अमल अमोलिक लालमय पहिरि विभूषन उदा० पबही तें उबटि पन्हाई बैठी पाटी पारि भार । हरखि हिये पर तिय पर यो सुरुख
प्रांखें आजि एड़ी माजि पूरि के सुहागु सीप को हार। - पद्माकर
-सुन्दर सरी- संज्ञा, स्त्री० [सं० सुर] देवत्व, देवत्ब की सुहागी-संज्ञा, स्त्री० [?] एक प्रकार का
प्राप्ति २. देवता जैसा प्रधिकार ३. देवाङ्गना । पुष्प । उदा० १. सोचहू में सुख में सुरी में साहिबी में उदा० प्यारी न न्यारी एक छिन देखौ थाको कहूँ। गंगा गंगा गंगा कहि जनम बिता
भाग । सदा सुहागी मोहनी तात सदा इये।
-पद्माकर सुहाग ।
-मतिराम सुरुखाई-संज्ञा, स्त्री० [सं० रुचता] १. रूखा- सुहारे-संज्ञा, पु. [हिं० सुहाल] मैदा से निर्मित पन २. सुर्खता, लालिमा।
पापड़, एक प्रकार का नमकीन खाद्य पदार्थ । उदा. मूख की रुखाई सनमूख सरुखाई परुखाई उदा. फेनी गूझा गजक मुरमुरे सेव सहारे । यों न पाई सुरुखाई सुरुखाई सी।
जोर जलेबी पुंज कंद सो पगे अहारे । - देव
-सोमनाथ सुरोखे-वि० [सं० सु+ रुष्ट] रुष्ट, नाराज. सुह-वि० [सं० शुद्ध] शुद्ध, ठीक, उचित । उदा० पाली के धोखे ही पानी पनौखे, सुरोखे उदा०-धनमानँद जान सजीवन सों, कहिये तो परी, पलका न परौंगी।
-देव समै लहिये न सूहूँ।
-घनानन्द सुरोचि-संज्ञा, स्त्री० [सं० सुरुचि] सुन्दरता, | सुहेल-वि० [सं० शुभ ] १. सुखदायक २. छबि ।
सुहावना ३. मंगलगीत ३. अगस्त तारा [अ०]
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सूका
( २२५ )
सेलिन उदा० १. साहिबी की हद्द तू ही, साहिब सुमति । उदा० गौरी नवरस रामकरी है सरस सोहै तू ही, साह को सुहेलो तू ही संपति को
सूहे के परस कलियान सरसति है। धाम है। -गंग
-सेनापति सूका-संज्ञा, पु० [सं० सपादक] चवन्नी, चार । सेक- संज्ञा, पु० [सं०] १. विचार, मत २. माना ।
उद्गार, प्रवाह .. सींचने का पात्र, झरना ४. उदा. बाजे सूम सूका देत पाथर लगाय छाती सिंचाई ५. उपहार ५. गर्म [हिं० सेकना]। बाजे सूमसाहिब सुपारी सी अँचै रहैं । उदा० १. बरनत कबि मतिराम यह रस-सिंगार
-अज्ञात को सेक ।
-मतिराम सूटना-क्रि० स० [? ] फेरना ।
३. प्यारे को परस उर सेकु सो सुहात उदा० हथियारनि सूट नेक न हट खलदल कूट
ताको जानि बुझि बैरिन न नेकु नियराती लपटि लरै । - पद्माकर
-देव सूत-संज्ञा, पु० [सं० सूत्र ] रसना, मेखला,
४. वही बीज अंकुर वही, सेक वही करधनी, शुद्रघंटिका ।
प्राधार ।
-रसखानि उदा० कुंज-गृह मंजु मधु मधुप अमंद राज तामै । सेज-संज्ञा, स्त्री० [?] १. समता, बराबरी
काल्हि स्यामैं, बिपरीति-रति रॉची री।। २. शय्या । द्विजदेव कीर कल-कंठन की धुनि जैसी, उदा० १. सेनापति कहै अचरज के बचन देखी. तैसिये अभुत भाई सुत-धुनि माँची रो।
भावती की सेज अनभावती करति है। ___... द्विजदेव
-सेनापति सूती-वि० [सं० सूत्र] अच्छी, सुन्दर ।।
सेंट-संज्ञा, स्त्री० [बु०] गाय के थन से निकउदा० सूती सी नाक उसीती सी भौंह सुधारे से
लती हुई दूध की धारा, चैया । . नैन सुधारस पीजै । -केसवकसवराय उदा- बिना दोहनी दोहत गैया मुख में मेलत सून - संज्ञा, पु० [सं०] १. पुष्प, सुमन २. शून्य
सेंटैं।
-बकसी हंसराज ३. पुत्र ।
सेन-संज्ञा, पु० [सं० श्येन] श्येन, एक प्रकार उदा० १. सेवती कसम ह त कोमल सकल अंग
का बाज पक्षी। सून सेज रत काम केलि कौ करति है।
उदा० सामां सेन, सयान की सबै साहि के साथ । -सेनापति
बाहुबली जयसाहि जू फते तिहारै हाथ । सूप-संज्ञा, पु० [राज०] एक प्रकार का काला
-बिहारी कपड़ा २. रसोइया [सं०]
सेनापति-संज्ञा, पु० [सं०] १. स्वामि कार्तिकेय उदा० १. पौर सब जे वे देस सुप सकलात हैं।
षडानन २. नायक, हवलदार।
-गंग तनोसुख सूप पटोर दरयाइ खीरोदक
उदा० सेनापति बुधजन, मंगल गुरु गरण, धर्मराज मन बुद्धि घनी ।
-केशव चैनी पीतंबर ल्हाइ। -मान कवि सूम-वि० [फा० शूम] अशुभ, खराब ।
सेर-संज्ञा, पु० [सं० शिला] पत्थर का टुकड़ा।
उदा० होत सुमेरहु सेर स्यंघ है स्यार कहावत। उदा० बाँके समसेर से सुमेर से उतंग सूम स्यारन पै सेर टुनहाइन के ट्रक्का से ।
-ब्रज निधि --पदमाकर सेरबच्चे-संज्ञा, स्त्री० [? ] एक प्रकार की सूरज-संज्ञा, पु० [सं० सूर्य+ज ] सूर्य पुत्र, बंदूक । सुग्रीव ।
उदा० छुटे सेरबच्चे मजे बीर कच्चे तज बालउदा० सुनि सूरज ! सूरज उवत ही करौं असुर
बच्चे फिर खात दच्चे। -पद्माकर संसार बल ।
-केशव सेलनि -संज्ञा, पु० [सं० शल ] १. बाण, २ सूहा-संज्ञा, पु० [हिं० सोहना] १. लाल रंग भाला, बी। २. एक राग ।
उदा० तुम तौ निपट निरदई, गई भूलि सुधि, हमैं २६
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सेली ( २२६ )
सोबर । सूल सेलनि सों क्योंहू न भुलाय है ।
उदा० सैवी जानि मौको लोग कासी को पठाबत
घनानंद हैं प्रावत न मेरे मन कान न धरत हैं। -ग्वाल सेली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सेला] १ छोटा दुपट्टा सैसो-संज्ञा, पु०[सं०शङ्का शङ्का, संदेह, संशय। २. गाँती ३. वह माला जिसे योगी लोग पहनते हैं
उदा० एक दिन ऐसो जामें सिबिका है गज बाजि उदा० १. जोग तुम्हें न इतो कहिकसि सेली ते
एक दिन ऐसो जामें सोइबे को सैसो है। -गंग खोलिके सींगी देखाई।
-रघुनाथ
सोधो-संज्ञा, पु० [सं० सुगन्ध] इत्र आदि, सुगं२.सुमा फटिक माल लाल डोरे सेली पैन्हि मई
धित पदार्थ जिसके लेप से शरीर सुवासित हो हैं अकेली तजि चेली संग सखियाँ। -देव
जाता है। सेवट-संज्ञा, पु० [?] बाल का ढेर, सेउटा ।
उदा०पाई हुती अन्हवावन नायनि सोंधो लिये उदा० लौंग फूल दल सेवर लेखी । एल फूल दल
कर सूधे सुनायनि !
-देव बालक देखो।
-केशव
मिहेंदो रंग पायनि रंग लहै सुठि सोंधो सु सै-संज्ञा, स्त्री० [सं० शय] प्राण, प्रतिज्ञा, शय
अंगिन संग बसै ।
-घनानन्द २. डटना
पावै पास-पास पुहुपन की सुबास, सोई उदा० अब तो रति कीजत से करिक, तब पाँय
सोंधे के सुगंध माँझ सने रहियत है। परेहूँ न मानिय तौ । - गंग
-सेनापति बीती न धरीक या सरीकनि सखी के कहे,
सोकना-क्रि० अ० [हिं० सूखना] सूखना, शुष्क सैकरि हौं रही सोक संक मैं सकरि कै-देव
पड़ना । सैकरि अधिक मदि के आँखझुकी-सीकरी
उदा० जान कह.यौ पिय पान पुरी कों डरी तिय पलके चयलायकै
-कृष्ण कवि ।
प्रान अचानक सोका । सैक-वि० [स०शत +एक ] शतक, एक सौ
- भूषण उदा०तेरे ही परोस कोस सैक के सरोस ह ह'
सोधि - क्रि० वि० [सं० शोध ] अच्छी तरह, __ कैसी कैसी सेना कीनी कतलू पठान की-गंग
भली भांति ।
उदा. सिंधु बांधत सोधि के नल छीर छींट सैंतुक-क्रि० वि० [सं० सम्मुख प्राख के सामने,
बहाइयो।
-केशव पागे, प्रत्यक्ष । उदा० सांचहू स्याम मिले तुमैं सैंतुक सैंतुक नाहि
सोन-संज्ञा, पु० [सं शोण] १. रक्त, लाल २. परी सपने में
- पद्माकर
स्वर्ण, ३. धतूरा ।। सँधौ-संज्ञा, पु० [सं० सैंधव] सिन्धु देश का
उदा० १. देव मनोज मनो जु चलायो चितौनि मैं __सोन सरोज को चावक ।
-देव घोड़ा मुहा० सैंधव पलानना-घोडे आदि पर
३. मंग गंग सोन हित भसम भुजंग सोन पलान कसना, भागना, प्रस्थान करना, जाना ।
अंग लागे अंगराग अंगना के अंग के । उदा० मानिये बेनी प्रवीन कही मौन मानिये तौ
-देव क्यौं पलानत संधी। . -बेनी प्रवीन
सोनचिरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सोना+चिड़िया] सैन-संज्ञा, पु०[सं० संज्ञापन] पलक २. इशारा, नटनी, तमाशा दिखाने वाली। संकेत, चिन्ह ३.शयन
उदा० आजु सखी लखो सोन चिरी, वृषभान के उदा० १.बिलखी लखै खरी खरा भरीअनख बैराग
द्वार जुरे जुर गेदन ।
-बेनी प्रवीन मृगनैनी संन न भज, लखि बेनी के दाग - बिहारी सोनी-संज्ञा, पु० [सं० स्वर्णकार] स्वर्णकार, सैफ-संज्ञा, स्त्री० [प्र० सैफ] तलवार, खड्ग
सोनार । उदा० सैफन सों तोपन सों तबलरू ऊनन सों, उदा० छिति कैसी, छोनी रूप-रासि की पकोनी दक्खिनी दुरानिन के माचे झकझोर हैं। -कवीन्द्र
गढ़ि, गढ़ी बिधि सोनी गोरी कुंदन-से गात सैलुस - वि० [फा० सालस] छलिया, नक्काल ।
की।
-देव उदा० नहिं दाडिम सैलूस यह, सुक न भूलि | सोबर-संज्ञा, पु० [सं० सुवर्ण] सुवर्ण, स्वर्ण, श्रम लागि । -दीनदयाल गिरि
सोना । सैवी-संज्ञा, प्र० [सं शैव] शिवोपासक, शंकर उदा० रावर की छबि बरनौं कैसें । सोबर को का भक्त ।
घर सोहत जैसें.
-घनानन्द
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-देव
( २२७ ) सोर-संज्ञा, पु० [फा० शोर] १. ख्याति,
लरिकाई के सौंरियत, चोर मिहचनी खेल । प्रसिद्धि २. कोलाहल । मुहा० सोर पारना=
-मतिराम प्रसिद्धि फैलाना।
सौहजार मन-संज्ञा, पु० [हिं० सौहजार-लक्ष उदा. पार्यो सोर सुहाग को इन बिनही पिय +मन (मण)] लचमरण । नेह ।
उदा० है दुपंच-स्यंदन-सपथ, सौ हजार मन उनिदोहीं अखियाँ ककै कै अलसौंहो देह ।।
तोहि ।
-दास -बिहारी सौहर-संज्ञा, पु० [सं० शोभन, हिं० सुघर ] सोरई-वि० [सं० श्याम] काला, श्याम ।
सुन्दरता, सुघरता । उदा० श्रापु जरि गयो, जग जारत जरेऊ पर, । उदा० तरवा मनोहर सु एड़ी मृदु कोहर सो सुमननि दुमन सुमन सर सोरई। -देव
सौहर ललाई की न ह्व है लाल गन मैं । सोस--संज्ञा, पु० [फा० अफसासा शोच. चिता ।
-दास उदा० नेक निसि नासिहै तो नारिन सकैगी सहि. स्यान-संज्ञा, पु० [सं० सज्ञान] चतुराई, होशिमनसिज सोस संक मेरे संग नासु रे ।
यारी ।
-पालम उदा० कन्त बिन विषम बसन्त रितु तामे प्रति सोसिनी--वि० [फा० सोसन] सोसन के फूल के
विषम विषमसर बेष तन स्यान के। रंग जैसा, नीला रंग जो लालो लिए हो। उदा० सारी सनी सोसिनो सँमारि के करार पै । स्यामा-संज्ञा, स्त्री० [सं० श्यामा ] षोडशी,
-ग्वाल सालह वर्षी युवती, नवयौवना। सोहर-संज्ञा, पु० [सं० सूतगृह] वह स्थान जहाँ उदा. संदरि स्यामा सलोनी चिसारि. बसे प्रसूता नवजात शिशु को लेकर रहती है।
. ससुरारि सनेह सने हो। -बेनी प्रवीन उदा० बंचति न काहू, लचि रंचि तिरछाई डीठि । स्याँ-अव्य० [बं०] सहित, साथ। __ संचति सुजस, मचा संचति के सोहरे ।
उदा० सायक सो महिनायक साँध्यो । सोदर स्यों - रघुनायक बाँध्यो ।
-केशव सौतनि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सैंतना ] संचय, स्रवन-संज्ञा, पु० [सं० श्रवण ] १.श्रवण नामक संग्रह ।
बाईसा नक्षत्र जिसमें गन्ना पकता है२. कान, उदा० सफल होइ सौतनि सब दिन की एक बेर | कर्ण बिरह दुख टारी ।
-घनानन्द उदा० मानह पियुष बाढ़ स्रवन की भूख माह पुख सौरई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सौंडचादर, ओढ़ना।
कैसे ऊख बोल रावरे मिठात है।-सेनापति उदा० भोरी मोरी मई कान्ह पूछति है कान | स्वच्छ पक्ष--संजा, पु० [सं०] सफेद पंखों वाला, __लागि, साँवरे के अंग लागे सोइहीं न हंस पक्षी। सौरई।
उदा ० पद पद हरिबासा जगमग । स्वच्छ पच-पच्च सौतुक-क्रि० वि . [सं० सम्मुख] प्रत्यक्ष, प्रकट,
सी लगे।
-केशव सामने, आँखों के प्रागे ।
स्वर-संज्ञा, पु० [सं० ] कंठ ध्वनि, काकु । उदा० पिय-मिलाप को सुख सखी, कहो न
उदा० बक्र उक्ति स्वर स्लेष सों प्रथफेर जौ होई जात अनूप ।
रसिक अपूरब हो पिया बुरो कहत नहि कोइ सौतुक सो सपनो भयो, सपनो सौतुक रूप ।
-जसवंतसिंह --मतिराम सौन--संज्ञा, पु० [? ] गुलाल ।
स्वाहेस-संज्ञा, पु० [स०स्वाहा+ईश ] अग्नि, उदा० कित की भोरहीं पाई जमुना जल तुम घर
पावक, पाग । तेल निकसे सौन ।
-घनानंद
उदा० पन्नगेस,प्रतेस सुद्धसिद्धेस देखि पब । विहगेस सीरना-क्रि० स०[ सं ० स्मरण] स्मरण करना
स्वाहेस देव देवेस सेस सब । -केशव उदा० साँवरो सँवारे सैन सुनि री सवारे ह सों, स्वै-सर्व० [सं० स्व ] स्व, पपना।। ऐसी सैन सौंरि क्यों न आप को संवारिये। । उदा० लेकर कागद कोरी लाला लिखिबे कहें बैठी
-आलम वियोग कथा स्वै
-द्विजदेव
-देव
-गंग
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ह
वलती था
हंसक-संज्ञा, पु० [सं०] पैर के अंगूठे में पहनने
मजबूत । हटपटाय के लगत हैं पोछे पिंडे का एक भूषण, बिछुआ २. हंस तथा जल
भूत ।
-बोधा [हंस-पची विशेष+क-जल]।
हटवारी-संज्ञा, स्त्री [हिं० हट + वार] दूकान-. उदा० तिन नगरी तिन नागरी प्रति पद हंसक दारी। हीन ।
उदा० त्याँ भरि पारी करै हटिवारि को लावै जलज हार शोभित न जहं प्रगट पयोधर
बटोही ददै मन रूठे ।
---देव पीन ।
- केशव हथोड़ा--संज्ञा, पु० [हिं० हाथ+मोड़ना ] हॅकरना-क्रि० प्र० [हिं० हाँक 1 चिल्लाना, हाथ फैलाने वाला, माँगने वाला, याचक पुकारना, जोर-जोर से बुलाना, दपं के साथ मिक्षक। बोलना।
उदा० हाथी पै न हाथी मांग घोरा पै न घोरा उदा० माइ झकै हरि हांकरिबो रसखानि तक
मांग, वे ही काज हथोड़ा होत नर नर फिरि के मुसकैबी।
-रसखानि को।
--गंग हकनाहक-अव्य० [अ० हक़+फा० नाहक 1 हथनारि--संजा, पु० [हिं० हाथी+नाल] गजजबरदस्ती, २. निष्प्रयोजन, ब्यर्थ ।
नाल, वह तोप जो हाथी पर चलती थी। उदा० १. तजि के हकनाहक हाय हमैं सजनी उदा० कहुँ सुनारि हथनारि कहुँ, कहुँ रथ सिलह उनने कुबरी को बरी ।
-भुवनेश सभार ।
-मानकबि हकाहक--संज्ञा, स्त्री० [अ० हक्क = काटना ] हथलेवा-संज्ञा, पु० [हिं० हाथ+लेना] पाणिघोर युद्ध, घमासान लड़ाई।
ग्रहण, विवाह के समय दूलह और दुलहिन के उदा० तह मची हकाहक भई जकाजक छिनक परस्पर हाथ ग्रहण कराने की विधि । थकाथक होइ रही ।
-पद्माकर
उदा० दियौ हियो सँग हाथ के, हथलेय ही हाथ । हरषित हथ्यारन सों जु मिलि करि रन
-बिहारी हकाहक कीजिये ।
-पद्माकर
हथौटि-संज्ञा, पु० [सं० हस्त कौशल ] हस्त हचकाना-क्रि० स० [हिं० हचक ] दृढ़ता से __कौशल, हाथ की चतुराई। पकड़ना, जोर से दबाना ।
उदा० काहे कों कपोलनि कलित के देखावती है उदा० लंक लचकाइ परजंक मचकाइ भरि अंक
मकलिका पत्रन की अमलह थोटि है। हचकाइ लपिटाइ छपटाई री।
-- 'हजारा' से
रसना को भाग, सांचे सौननि सुभूषन है, हजूर-अव्य० [फा० हुजूर ] सामने, समक्ष,
जगमगि रहे महा मोहन हथौटी के । प्रत्यक्ष ।
-घनानन्द उदा० मापनी बिपति कों हजूर हौं करत, लखि हदरी--क्रि० वि० [हिं० जल्दी जल्दी, शीघ्र। रावरे की बिपति-बिदारन को बानि है। उदा० ती लगि लाज बढ़ी हदरी, चहुँ ओर मनी
-दास बदरी मढ़ि पाई।
-बेनी प्रवीन दारिद्र दुख्ख नासंत दूरि, हरिद्ध सिद्ध हबकारना-क्रि० स० [हिं० हबकना] खाने या संपति हजूरि।
-मानकवि दांत काटने के लिए मह खोलना। हटपटाना-क्रि० अ० [अनु॰] जबर्दस्ती करना, उदा० कोटि कोटि जमदूत बिकराल रूप जाक, बलात् किसी को दबाना ।
हबकारे हे जासो बचै कौन नर है। उदा० अरु पुनि सब जग कहत है, को मरदे ।
-गंग
-दास
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उप में सपा अन्याय की राज्यो दियो इमाम
हरामला सामा
हमाम ( २२९ )
हरिलांकी हमाम-संज्ञा, पु० [अ० हम्माम] स्नानागार, हरहाइन-सज्ञा, स्त्री० [हि० हरहाई] नटखट स्नान करने की कोठरी जो गरम कर दी जाती | या बदमाश गाय ।
उदा० कपिला नाहिं न कूटिंये हरहाइन के दोस । उदा० मैं तपाइ त्रयताप सौं राख्यौ हियौ हमामु ।
-बोधा -बिहारी हरबल-सज्ञा, पु० [तु० हरावल] सेना का
पहले अग्रभाग । हमाल-संज्ञा, पु० [अ० हम्माल] मजदूर, बोझ ढोने वाला।
जदा० साजि चमू मधुसाह-सु । हरबल दल करि अग्र ।
--केशव उदा. दीबे की बडाई देखौ ऊदावत रामदास,
हरवाइल- सज्ञा, स्त्री० [ देश ] चंचल या तेरे दिये माल को हमाल हेरियत है।
बदमाश गाय । -गंग
उदा० जिन दौरियो उपनये हरुबाइल के पाछे । हमेल-संज्ञा, पु० [अ० हमायल 1 १. एक
-बकसी हसराज प्राभूषण जो हाथियों के गले में पहनाया जाता
हरसिद्धि-सज्ञा, स्त्री [स. हर+सिद्धि] है। २. स्त्रियों के गले का वह प्राभूषण जिसमें
शंकर की विजया, मांग । माला की भाँति सिक्के गहे रहते हैं।
उदा. गंग धकानि धुकी हर-सिद्धि, कबंध के उदा० १. वारिद से, गिरि से गरुवे, सुप्रसिद्ध
धक्कन सोंधर धूके।
--- गंग भुसंड भयानक मारे हेम हमैल विभूषित भूषन, गंडनि भौंर भ्रमैं मतवारे । -गंग
हरहर-सज्ञा पु०[सं० हरहृत ]शंकर सेहत, २. लूटती लोक लटै सफूल हमेल हिये सुज
शंकर द्वारा पराजित, कामदेव, मनोज
उदा. हरि बिनु हर योई हरष हरहर हठि, हों ही टॉड न होती।
-देव
हारी हेरि सूधो मगुन चहति है।-आलम हरकाना-क्रि० प्र० [अनु॰] हड़काना, लल
हरा-संज्ञा, स्त्री [सं०] हर की स्त्री, पार्वती कारना । - उदा० करुदै सुदामा सीस बरुदै बरिंगिनि कौ थरु
हर कयौ तिलक हराहू कियो हारु है। दै अकूरे हिये हरषि हराकि दै। -देव
-केशवदास
हराहर-संज्ञा, स्त्री० [१] छीना-झपटी हरजै-संज्ञा, पु० [फ० हज:] हानि, क्षति ।
ऊधमबाजी २. सपं[हर+हार] उदा० सेज परी सफरी सी पलोटति ज्यों ज्यों
उदा० दिन होरो-खेल की हराहर मरयौ हो घटा घन की गरजै री। त्यों पद्माकर
सु ती, भाग जागें सोयौ निधरक-नैत काँपि लाजन तं न कहे दुलही हिय को हरजरी ।
-घनानन्द -पद्माकर
हरि - संज्ञा पु० [सं०] घोड़ा, अश्व । हरट्ट-वि० [सं० हृष्ट] मोटे, हृष्ट-पुष्ट । उदा० हरिदल खुरनि खरी दलमली । उदा० हैबर हरट्ट साजि गैबर गरट्ट सबै पैदर के
खचरहिं धूरि पूरि मनु चली। -केशव ठट्ट फौज जुरी तुरकाने की। -भूषण हरिन-संज्ञा, पु० [सं० हिरण्य 1 हिरण्य सोना । हरदी-सज्ञा, स्त्री० [स० हरिद्रा] निशा, रात्रि उदा० लाडिली कुंवरि की भुलानी अकुलानी । २. एक पौधा जिसकी जड़ मसाले में काम
जाकी तौलियत मानिक के तुला सो हरिन के पाती है।
- देव उदा० राधे पै माधौ पठे हरदी अलि सों कहियों हरिमास-संज्ञा, पु० [सं०] अगहन मास । इहि को रस चाखै ।
-रघुनाथ उदा० प्रान सग हरि ले गये मास हरत हरि मास हरमखाना-सज्ञा, पु० [अ० 1 जनानखाना,
-रसलीन अन्तःपुर बेगमों का रहने का महल ।
हरिलांकी वि० सं० हरि=सिंह + लंक=कटि] उदा. हिरन हरमखाते स्याही हैं सुतुरखाने १. सिंह के समान कटिवाली। पाढ़े पीलखाने औ करंजखाने कोस हैं। उदा० १.तू हरिलंकी चलांकी कर वह बाकी --भूषण । बड़ी बडरी अखियां की।
-तोष
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-देव
हरिवधू
हेसम हरिवधू-संज्ञा, स्त्री० [सं०]एक लाल कीड़ा ।। हलब्बी-संज्ञा, स्त्री० [हलब देश] १. तलवार जो पावस काल में दिखाई देता है।
विशेष २. हलब देश का शीशा । बीरबधूटी
उदा. हेरीजु हलब्बी सुंडनि गब्बी सीस हलब्बी उदा. हरित तृणनि हरिवधू संदरी ।।
सी चमक
-पद्माकर __ मनु महि प्रोढ़े सबुज चुंदरी । -रधुराज २. मैही-बेस वाफदा की कंचुकी कसी है श्वेत, हरिहरि--अव्य० [हि. हरूस] धीरे-धीरे, शनैः शनैः नारंगी लसी है मनो संपुट हलब्बी के। उदा० हरिहरि हेरतहू बरिबरि उठे अंग धरि धरि
-तोष धेनु, घन, कनक दिवाइयत ।
हलमलाना-क्रि०अ० [हि० हलबली] हलबलाना, हरीफ- संज्ञा, पु० [अ० हरीफी प्रतिद्वंदी, शत्रु,
खलबली पैदा होना, घबरा जाना । दुश्मन ।
उदा० दिसि की उजियारी जानी जोन्ह मीति उदा० उन बासुरी बजाया उन गाया बेस
महरानी, हलमले द्विजराज जाम सीम छूटि है रागिनी वा पक्का है हरीफ ल खि
-आलम लक्का सा दुनै गया ।
-तोष
हला-संज्ञा, पु० [अ० हाल]१. हाल, समाचार हरूक-क्रि० वि० [हि०हरूमा=फुर्ती]
खबर २. शोर , हल्ला , ३. पाक्रमण । - शीघ्रता से जल्दी-से।
उदा० लई छलु कै हरि हेत हला मिल ई उदा ० धन की चमू संग दामिनी हरूकें टूकें,
नबला नव कुंजनि माहीं।
-आलम गरज चहूँ के, दूंके नाहर सी पारती ।
२. बेनी बडे बड़े बंदन ते यक बारहि वारदि -वाल कीन हलासी।
-बेनी हरुवा-वि० [हि० हलका] हलका, तुच्छ, ओछा हलाक-वि० [अ०हलाकत] मारा हमा, हत, घायल उदा० गुरुवे से गुरुजन, हरुवे न हुजौ अब,।
उदा. ऊँची नासा पर सजल, चमकत मुकता हितकरि मोसे, महा हरुवे की ओर सो ।
चार । करत बुलाक हलाक मन, रहिहैं नाहिं -देव संमार ।
- नागरीदास हरेबै-संज्ञा, पु. [ हि० हरा ] हरेवा ।
हलाका - वि० [प हलाक ]घातक, मारने वाला हरे रंग की एक चिड़िया, हरो बुलबुल ।
उदा० सुथरी सुसीली सुजीसीली सुरसीली उदा० परे वे अचेत हरेवै सकल चिरु चेत,
प्रति, लंक लचकीली काम-धनुष हलाका । पलक-भुजंगी-डसे लोटन लोटाएरी। -दास
सी।
-तोष हरौली-संज्ञा, स्त्री० [हि० हरौल ]
हलुका-संज्ञा, स्त्री० [अनु.] के, हलक। सेना के अग्रमाग की सरदारी ।
उदा० दांतन कि किरचन रंग रंगे। बहु बिधिउदा० पब की बेर फेर सँग लागौ लिय
रुधिर हलुका लगे।
-केशव . बलराम हरौली ।
-बक्सीहंसराज हवाई-संज्ञा, स्त्री [५०] एक प्रकार की पातिश हरी-हर संज्ञा, पु० [?. ]लुटालूट ।
बाजी, बान । उदा० प्रान हरोहर है घनामानंद लेह न
उदा० पूस को भान हवाई कृसान सो मूढ़ को ज्ञान तो पब लेहिंगे गाहक । --घनानंद सो मान तिहारो
-दास हलकना-क्रि० अ० [स०हल्लन] हिलना, डोलना, हसंती-संज्ञा, स्त्री० [सं०] अँगीठी,। विचलित होना, ।
माग सुलगाने का लोहे का चूल्हा । माते माते हाथिन के हलका हलक डारो-गंग। उदा० हैंउत हसंती सी बसंत में बसंती, । हलका-संज्ञा, पु० [अ० ] हाथियों का झंड
रितु ग्रीषम की ऊषम पियूष सुखकारी सी । माते माते हाथिन के हलका हलक डारो।
--देव -गग हसम--संज्ञा, पु. [अ० हशम स्वामी के लिए । सत्ता के सपूत माऊ तेरे दिए हलकनि,
लडने वाले। नौकर-चाकर.सेना. । बरनी उचाई कबिराजन की मति मैं ।
२. वैभव, ऐश्वयं [५० हशमत] -मतिराम । उदा० १.करि पग्ग साह नीसान भुल्लि ।
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हहराना
(
लखि भूप हसम हर कहयो फुल्लि । जँह तँह इसम खसम बिनमये - केशव २. हसम सकल चहुवान ने, लीनो तबै छिनाय ।
जोधराज
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हहराना- क्रि० अ० [अनु०] ठट्टा मारना, । हा हा शब्द करके हँसना २. कापना, थरथर राना उदा० १. राधिका, की रस रंग की दोपति, संग की हेरि हँसी हहराइकै । —देव हाँक - संज्ञा, स्त्री० [सं० हुंकार ] गर्जन ध्वनि, वंशी की प्रावाज ।
उदा० लगी-सांकरी सी गर हाँकरी सांकरी खोरि में हाँ करती । टूटिगो पिनाक ऐसी हांक परी कानन मै । धावत अधर दल दन्तन दर्यो पर - नंदराम हाँगो - संज्ञा, स्त्री० [हि० हाँ०] हामी, स्वीकृति उदा० भारि डार्यो पुलक प्रसेद निवारि डा रोकेँ रहनाहूँ त्यों भरो न कछू हांगीरी ॥ - पद्माकर
बैनु की,
-द्विजदेव
हाइल - वि० [हिं० घायल लालायित २. मूच्छित शिथिल, बेकाम
उदा० किय हाइल चितचादूलगि, बजि पाइल तुवपाइ । —बिहारी हाई - संज्ञा, स्त्री० [देश० ]दशा, हालत, ढंग, तौर उदा० नातरु उसास लागे मुकुर की हाई है
।
आलम
हातो - वि० [स०हात] दूर, अलग, पृथक । उदा० तुम बसौ न्यारे, यह नेकहू न हातो होय |
-घनानन्द
हार — संज्ञा, पु० [सं०] खेत, जङ्गल । उदा० हरित हरित हार हेरत हियो हरत. हारी हौं हरिननैनी हरि न कहूँ नहीं ।
केशव काम करावे हार में विषबनियाँ पर खाय । - बोधा हारद - संज्ञा, पु० [सं०] १. कृपा, दया २ हाल उदा० १. शारद के मृदु हारद देव सनारद ब्यास बिहारनि हू में । —देव
समाचार ।
२. सो सब हारद, नारद सों सुनि, सौं मोज महीप हठाए । हालगोला – संज्ञा, पु. [ ? ] गेंद, कंदुक
श्रोज -देव
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२३१
>
हिरसी
उदा० किधौं चित्त चौगान के मूल सोहैं । हिये हेम के हालगोला बिमोहैं । -केशव १. कृषक,
हाली -संज्ञा पु० [सं० हालिक ] किसान २ शीघ्र, जल्दी । ( क्रि० वि०) उदा० हालो कौं द्विज दियो सराप । होई राकस भुगती पाप । — जसवंतसिंह हिक्करी- संज्ञा, स्त्री० [हिं० हेकड़] १. हेकड़ी, अक्खड़पन, उग्रता २. जबरदस्ती । उदा० १. फिर चक्करी से गली सक्करी में । लिये अक्करी ऐंड ज्यों हिक्करी में ।
—पद्माकर
हिडोरना- क्रि० अ० [हिं० हिंडोल ] आन्दोलित करना, हिलाना, प्रकंपित करना ।
उदा० प्रथमागम संक छुटी कुछु पै चित में रस रीति हिंडोरति है ।
--शालम
पद्माकर
हिन – संज्ञा, पु० [हिं० हिरन] हिरन । उदा० महा सुछ्छ पुछ्छे रही हैं उन सी । नरी पांतरी आतुरी हिन कैसी । हिंगलाज - संज्ञा, स्त्री० [सं० हिंगुलाजा ] दुर्गा या देवी की एक प्रतिमा जो सिंध में है । उदा० मंगला के मंगल तें मंगल अनेग भये, हिंगलाज राखी लाज याहि काज नयो हौं । हियैल – संज्ञा, स्त्री० [ ? ] हाथ का एक श्राभू षरण, कंकरण । उदा० नीलमनीनि हियैलै बनी सुघनीन छयी है । हिताब - वि० [सं० हित ] प्रिय, अच्छा लगने
रुचि रूप सनी
-घनानन्द
वाला ।
उदा० 'ग्वालकवि' ललित लवंग में न बेलन में, चंदन न चंद्रकन केसर हिताब में ।
-ग्वाल
हितबंछो- संज्ञा, पु० [सं० हिताकांक्षी ] हितैषी, हिताकांक्षी, हितवांछी ।
उदा० फेरि फेरि हेरि मग बात हित बंछीं पूंछे, पक्षीहू मृगंछी जैसे पक्षी पिंजरा पर्यो ।
- देव
हियो संज्ञा, पु० [हिं० हिय, हियाव] हियाव, साहस, हिम्मत ।
उदा० हियो कर मैन, लियो सर मैन, दियो मरमै न सम्हारि के सचल । — देव हिरसी स ंज्ञा, पु० [स ं० ईर्ष्यालु हि० हिड़सहा] १. ईर्ष्यालु [फा० हिंस] २. लालची ।
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हिलमा
( २३२
उदा० भकुना मरंगी अरु हिरसो हरामजादे, लाबर दगंल स्यार भांखिन दिखाये तँ । -ठाकुर हिलना- क्रि० प्र० [देश०] मिलना, परचना । उदा० वंशन के बशन सराहै शशि वंशीवर बंशीधर ससो हंसवंश दिनति है।
हिलाक -- स ज्ञा, पु० [फा०] मृत्यु | उदा० मुझ है हिलाक बोच मारना
का ।
हिवाला - संज्ञा स्त्री० [सं०
पाला ।
उदा० हिमकर आननी हिवाला सो ग्रीषम को ज्वाला के कसाला
-
हीक संज्ञा, पु० [स ं०] हृदय ] २. हिचकी [स ं० हिक्का ] उदा० . घरकत होक नखलीक प्रजहूँ अलीक झलकति पीक
-देव
क्या मारे आलम
―
हिम ] बर्फ..
हो- -सहा० क्रि० [बु० ] थी । उदा० आई ही गाय दुहाइबे कों, सु चुखाइ चली न बछान को घेरति । देव १. हृदय, दिल
होर - - संज्ञा, पु० [ ? ] १. हर्ष, मुख्यांश, तत्व, सार । उदा० १. ठाकुर कहत दुख सुख जान्यौई परत यह कह
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हिये तँ लाय काटियतु है । ग्वाल
-
कुच कंदुकनि, पलकनि
- सोमनाथ प्रसन्नता २.
हीरा
संज्ञा. पु० [सं०] हृदय हि० हृदय २. एक बहुमूल्य रत्न | उदा० जोबन बजार बैठयो जौहरी लोगन को होरा वाके हाथ ह्व
हीर पीर जानें कहान्यो री ।
―
- ठाकुर
हियरा] १.
मदन सब बिकात है । - देव
-
ईर्ष्या,
हाँसल - - सज्ञा, जलन, स्पर्धा ।
स्त्री० [स ं० ईर्ष्या ]
कटितट
उदा० केसोदास मुखहास हीं सख ही छिन हो छिन सूछम छबीली छबि छाई है । - केशव
मुड़ना, पीठ
हटना -- क्रि० प्र० [ हि० हटना ] फेरना ।
उदा- छुटे वार देखे हुटे मोर पाखें । डीठि को गई बृन्द माखें । हुतासनमीत - संज्ञा, पु० [सं० हुताशन: भाग + 'मीत = मित्र ] भाग का मित्र, हवा, पवन ।
बिना
--- -दास
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>
"
हूतकार उदा० कान्ह के श्रासन बासनहीन हुतासनमीत को प्रासन कीजे । - केशव हुति श्रव्य ० [प्रा० हितो] लिए, वास्ते, सम्प्रदान कारक की विभक्ति, कारण और अपादान कारक का चिह्न, ओर से तरफ से । उदा० सब दिन तिनसौं लाल, तुम बन जाहुति फिरत हो । किती न बिथा बिसाल, उरनि हमारे होति है | - सोमनाथ हुलकना क्रि० ० [हिं० इलक] वेग से गिरना. उदा० हुलक हुलक्का से सुतुक्का से तरारिन में ललित ललाम जे लगाम लेत लक्का से । पद्माकर
-
>
हुलसना - क्रि० प्र० [सं० उल्लसित] हिलनाडुलना, २. उल्लसित होना । उदा० साँवरे अंग लसै पटपीत, हिये हुलसे बनमाल सुहाई । - देव
-
हूँछ संज्ञा, पु० [सं० उंछः ] सीला, फसल कट चुकने पर खेतों में जो अन्न प्रवशिष्ट रह जाता है और जिसे बीन कर मजदूर गुजर करते है, उसे सीला कहा जाता है ।
उदा० हूँछ बृत्ति मन मानि, समदृष्टी इच्छा रहित । करत तपस्वी ध्यान कंथा को श्रासन किए। ब्रजनिधि का मीठा
-
हूखनि- -संज्ञा, पु० [ ? ] एक प्रकार
फल ।
उदा० ऊख पियूख मयूखनि लखै सुररुखै । हूटना - क्रि० अ० [सं० हुड् = चलना ] १. हटना, टलना २. मुड़ना, पीठ फेरना । उदा० हूटिगो सुमन संग छूटि गो सहेलिनि को भूलि गयो औौरे बनितान को निदरिबो । -प्रतापसाहि
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हूखनि, लाग श्रहख
-देव
रामनरपाल सों जुरत जंग बजरंग, धीर वैरी-बीरन की हिम्मति इति है । - कुमारमणि हठ्यो देना -- क्रि० स० [हिं० अँगूठा दिखाना ] अँगूठे दिखाना, अशिष्ट व्यवहार करना, गँवरपन दिखाना ।
उदा० मूनि में गनिबी कितौ हूठ्यौ लाहि ।
हुतकार - संज्ञा, स्त्री० [अनु० ] हुंकार, उदा० गरज्जे गयंदी ये जंजीर भारें । मनो हैं हनूमंत की हुतकारें ।
-
दं श्रठि- बिहारी गर्जना |
- पद्माकर
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हूनों
(
हूनी-संज्ञा, पु० [सं० हूण] १. अशरफी, मोहर २. स्वर्ण ।
उदा० इसी वासते आपने मोहिं भेजा, उसे दीजिए बेग मंगाये हूनी । —चंद्रशेखर
हूल - संज्ञा, स्त्री० [सं० शूल ] बरखी की घोंप । २. पीड़ा, शूल ३. हर्ष,
१. तलवार या
. उल्लास ।
उदा० १. उर लीने प्रति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाय । हौं हुलसी निकसी सु तौ गयो हूल सो लाय । -- बिहारी २. फूलनवारी मनोज की हूलन भूलनवारी मई यह को है । चातुर कवि हलना- क्रि० स० [हिं० हूल ] ढकेलना, भाले आदि की नोक का ठेलना, गड़ाना | उदा० फैलि- फैलि, फूलि - फूलि, फलि-फलि, हलिहुलि, झपक झपक भाई कुंजें चहूँ कोंद ते ।
--देव हे - सहा० क्रि० [ ब्रज०] थे । उदा० हे निपट सगबगे, हिये प्रेम सों, जाहर सजी रुखाई । सोमनाथ हेट्ठट्ठाणे अव्य० [हिं० हेठा नीच, निम्न + ठाणे (सं० स्थाने ) ] निम्न स्थान, नीचे । उदा० पढमं गुरु हेट्ठट्ठाणे लहुआ परिवेहु ।
- दास
हैडो - संज्ञा, पु० [ ? ] मोज, विरादरी का
भोजन ।
उदा० हेडो कियो हितू किधौं गान महि बूड़यो चित्त सुन्दर कवित्त माँहि कहा जी में घरी है । --सुन्दर हेति--संज्ञा, स्त्री० [सं०] १,
भाग की लपट,
प्रकाश ।
उदा० १. मदन की हेति, डारं रेति, मोहे मन लेति, कहे की ।
२३३
ज्ञान हू के कन देति बात हिय — सेनापति हेबा - संज्ञा, स्त्री० [अ० हैबत] भय, दहशत | उदा० कहत ही बातें की गोपाल लाल जू सों बाल सूने खरिका में खरी माधुरी लसनि सों । इतने में माइ गई भौचक कहें सों एक गाउँबासी गोपबधू हेवा की हसिनि सों । - रघुनाथ हेरो -संज्ञा, स्त्री० [सं० हे + हि० री] पुकार, आवाज । मुहा० हेरा देना--जोर से पुकार, आवाज देना ।
होसना
कूदत भावत कोऊ गावत -- बकसी हंसराज हेलना -- क्रि० प्र० [सं० हेलन] १. क्रीड़ा करना, विनोद करना २. हँसी करना ३. प्रवेश करना, घुसना । उदा० १. कंचन सरोज से उरोज उमगोहे भोज खोज से मनोज के मनोज हेलियत है ।
- देव २. मोहिं न भावत ऐसो हँसी दिजदेव सब --द्विजदेव तुम नाहक हेलति । ३. सीतल समोर प्रति फूंक सी लगत तन, कोकिल की हूक हिये हूक हेलियत है ।
-गंग
हेला -- संज्ञा, पु० [हिं० हल्ला ] हाँक |
शोर, प्रकार, उदा० पारावार हेला महामेला में महेस पूछें, गौरन में कौन सी हमारी गनगौर है ।
--पद्माकर
[सं० हे + अलि ] सखो,
>
उदा० कौऊ मटकत हेरी ।
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हेली -- संज्ञा, स्त्री० सहेली । उदा. कोटि जतन करि हारी हेली दिल की बात न खौलै । -- बकसी हंसराज हैकले - संज्ञा, पु० [सं० हय + हिं० गल ] घोड़े के गले का आभूषण । उदा० सारवत पेसबंद थरु हैकलै दूजी ।
हैफ - संज्ञा, पु० [अ०] खेद, अफसोस । उदा० हैफ मान जीव बसुधा के जसुधा के जसी टेर टेर तोंहि नोर पीर सो पिरत हैं । —चातुर हो—स० क्रि० [देश०] था, भूत कालिक सहायक क्रिया । उदा० बैर कियो सिव चाहत हो तब लौं अरि बाह्यो कटार कठैठो ।
- भूषरण
होरिहारन - संज्ञा, पु० [हिं० होरी] होली खेलने वाले, रंग डालने वाले । उदा० बोर जो द्वार न देहुँ केवार तो मैं होरिहारन हाथ परोती । ठाकुर होल - संज्ञा, पु० [अ० हौल ] भय, डर । उदा० धरकि धरकि हिय होल सो मभरि जाता ।
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पूंजी । होरन जटित - चन्द्रशेखर
- ग्वाल
होसना - क्रि० प्र० [अ० हवस ] उल्लसित होना, उमंगित होना ।
उदा० रावने के लीन्हें तयो गली बन बाग.
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हौव
श्रीन फिरी बाबरी ह्व बूझि सो कहौ धौं कैसे | २. धैर्य । होसोंगी।
-रघुनाथ | उदा० चुरेल ह्व लागी अजौं लगि लाज, सुकौलगि हौद-संज्ञा, पु० [अ० हौज ] हौज, तालाब ।
बाँधे हिये मह हयाई ।
-देव उदा० कहर को क्रोध किधौं कालिका को कोलाहल हयाऊ-संज्ञा, पु० [हिं० हिय-हियाव ] हलाहल हौद लहरात लबालब को ।
साहस, धैर्य । -पद्माकर
उदा०देवज सराहिये हमारी न्याउ हयाक करि हयाई-संज्ञा, पु० [हिं० हियाब १.साहस, हिम्मत | नाहित पहित चेत करतो जूचीततो।-देव
श
शंबर--संज्ञा, पु० [सं०] १. एक प्रकार का मत्स्य | उदा० मानो सनक्षत्र शिशुमार चक्र कुंडली में संकर २. एक-राक्षस जिसे काम देव ने मारा था ।
षन अनल मभूक महराति है। --पजनेश उदा ० १. विषमय यह सब सुख को धाम । शम्बर | शुभोदर-- वि० [ शुमोदर ] भाग्य शाली, रूप बढ़ावै काम ।
-केशव उदा० शुभतन मज्जन करि स्नान दान करि पूजे शत्रुहंता-संज्ञा, पु० [सं०] शत्रुघ्न ।
पूरण देव । मिलि मित्र सहोदर बंधु शुमोदर उदा० बिदा ह चले राम पै शत्रुहंता । चले साथ
कीन्हे मोजन भेव ।
-केशव ___ हाथी रथी युद्धरंता ।
--केशव
श्रोन -संज्ञा, [पु० स० शोण] रक्त, शोणित खून शिशुमारचक्र--संज्ञा, पु० [सं०] सौर जगत, ग्रहों
उदा० कान्ह बली तनस्रोन की छछलसे प्रति, सहित सूर्य ।
जग्योपवीत सों मेलि ज्यों।
-पालम
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सहायक ग्रन्थ सूची काव्येतर ग्रन्थ
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प्रकाशकः रामनारायणलाल कटरा, प्रयाग सं० मुहम्मद मुस्तफा खाँ " मद्दाह" सौं० श्रीराम शर्मा
सं० पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ
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सं० वी० एस० माप्टे
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पालम : स० ला० भगवानदीन
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गुमान मिश्र
सेनापति : सं० पं० उमाशंकर शुक्ल : बाबू जगन्नाथ प्रसाद "भानु"
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स. लाला भगवानदीन स. प्राचार्य पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र स० श्री प्रभुदयाल मीतल स० बटेकृष्ण स. प्राचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र
केशव पंचरत्न केशव ग्रन्थावली ग्वालकवि गंग कवित्त धनानन्द ग्रन्थावली घनानन्द कवित्त चित्र चंद्रिका छंदोव पिंगल जमुना लहरी जसवन्तसिह ग्रन्थावली ठाकुर ठसक ठाकुर शतक ठाकुर ग्रन्थावली तिल शतक देव सुधा दिग्विजय भूषण दीनदयाल ग्रन्थावली
काशीराज पाचायं भिखारीदास ग्वालकवि पाचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र स. लाला भगवानदीन स० बाबू काशीप्रसाद समाचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र मुबारक स० मिश्रबन्धु प्राचार्य गोकुल स० डॉ० भगवतीप्रसाद सिंह स. डा० श्यामसुन्दर दास ग्वाल कवि बलभद्र मिश्र बेनीप्रवीनः स. पं० कृष्णबिहारी मिश्र स. प्राचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र
नखशिख
नखशिख नवरसतरग पद्माकर पंचामृत पद्माकर ग्रन्थावली प्रयागनारायण विलास प्रेमलतिका पावस कविरत रत्नाकर पजनेश प्रकाश प्रिया. प्रकाश ब्रजनिधि ग्रन्थावली बिहारी सतसई बिहारी बोधिनी बिहारी रत्नाकर बोधा ग्रन्थावली भूषण भिखारीदास ग्रन्थावली
..प्रथम एवं द्वितीय खण्ड : भाव विलास
स. बन्दीदीन दीक्षित रङ्गपाल स० परमानन्द सुहाने पजनेश स० लाला भगवानदीन स. पुरोहित हरिनारायण टी० कृष्णकवि टीकाकार लाला भगवानदीन बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर स. प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र आचार्य पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
सं० प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र देवकवि
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भवानी विलास
मतिराम ग्रन्थावली
मनोज मंजरी
मन जन संग्रह मुनीश्वर कल्पतरू महेश्वर विलास रसखान ग्रन्थावली रम चन्द्रोदय
रस रहस्य
रसिक मोहन रसिक रसाल रसिक विनोद
रस प्रबोध
रस विलास
रस कुसुमाकर
रहीम रत्नावली
रहिमन विलास रावणेश्वर कल्पतरु रुकमणि परिणय
व्यंग्यार्थं कौमुदी बिरह वारीश
श्रृंगार संग्रह श्रृंगार निर्णय
शब्द रसायन
शृंगार सतसई
श्रृंगार दर्पण
श्रृंगार लतिका
शृङ्गार बत्तीसी
शृङ्गार मंजरी
श्रृङ्गार सुधाकर षट् ऋतु काव्य संग्रह
षट्ऋतु हजारा
सुखसागर तरंग
सुधानिधि
सुंदरी सर्वस्व सुन्दरी तिलक
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देवकवि
सं० पं० कृष्णबिहारी मिश्र सं० नकछेदी तिवारी
सं० पं० गौरी शंकर भट्ट लछिराम कवि
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सं० पं० प्राचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र उदयनाथ कवीन्द्र
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लछिराम कवि महाराज रघुराज सिंह प्रसाप साहि बोधा कवि
सं० सरदार कवि
श्राचार्य भिखारी दास
देवकवि
राम महाय
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नन्दराम
द्विजदेव
द्विजदेव
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. सं० मन्नालाल द्विज
स ं० हफीजुल्ला खाँ
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देवकवि स० बालदत्त मिश्र
तोष कवि
सौं० मन्नालाल द्विज भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
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सुन्दर श्रृङ्गार साहित्य प्रभाकर
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सुन्दर कविराय
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काव्येतर-ग्रन्थ
एच० ब्लाचमैन
डा० धीरेन्द्र वर्मा
पृष्ठ संख्या २४०+१२=२५२
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रीतिकालीन काव्य, कठिन अप्रचलित शब्द और अर्थ की दुरूहता के कारण, अध्येताओं के लिए सदैव से एक श्रम साध्य कार्य रहा है। विद्वान लेखक ने रीतिकालीन काव्य में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों का अर्थ उनके प्रयोग के साथ प्रस्तुत किया है। रीतिकालीन काव्य को समझने के लिए प्रस्तुत कोश का अपना एक विशेष महत्व है। For Private and Personal Use Only