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इंगवं- - संज्ञा, पु० [ ? ] शूकर दन्त । उदा० बंक लगे कुच बीच नखच्छत देखि भई दृग दून लजारी । मानो वियोग बराह हन्यो युग शैल की संधिन इंगवं डारी । केशव इंडुरो— संज्ञा, स्त्री० [सं० कुंडली ] कपड़े की गोलाकार गद्दी जिसे पानी के घड़े या बोझ आदि के नीचे रख लिया जाता है । उदा० गागरि डारि मजे इंडुरी गहि काँकरि डारत प्रौसर ले हो ।
-श्रालम आई संग लिन के ननद पठाई नीठि, सोहति सुहाई सीस ईडुरी सुपट की ।
- पद्माकर
इंदरा मंदिर —संज्ञा, पु० [सं० इंदिरा-मंदिर ] लक्ष्मी का गृह, कमल । उदा० देवजू इंदिरा मंदिर की नव सुंदरि इंदरामंदिर नैनी । -देव इंदु उपल- -संज्ञा, स्त्री० [सं०] चन्द्रकांतमरिण, उदा०
इंदु उपल उर बाल कौ, कठिन देखे बिन कैसें द्रवै, तो मुख
मान में होत । इंदु उदोत । — मतिराम
इन्दुनंव-संज्ञा, पु० [सं० इन्दु = चंद्रमा + नंद = पुत्र = बुध ] बुध, एक ग्रह विशेष । उदा० भने रघुनाथ किधौं मेरुकंदरा में चंद, कंधों भानु गोद में बिराजो इन्दुनंद री ।
--रघुनाथ इंदुमनि -संज्ञा, स्त्री ० [सं० इन्दुमरिण ] चन्द्रकांतमरिण नामक एक मरिण जो चन्द्र प्रकाश में द्रवित होती है । उदा० इंदुमनि मंदिर महालय हिमालय ते ऊँची रुचि, करतु सुमेरु सानु भानु तर । —देव इकंक — कि० वि० [हिं० एक + आंक ] पूर्णरूपेण, निश्चय । उदा० घटती इकंक होन लागी लंक बासर की । केस तम बंस को मनोरथ फलीनमो ।
- दास
राम तिहारे सुजस जग, कीन्हों सेत इकंक ।
-दास
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इकच्चक संज्ञा, पु० [सं० एक चक्र ] सूर्य, रवि । उदा० स्रवन मैं हाथ कुंडलाकृति धनुष बीच, सुंदर बदन इकचक लेखियत है ।
-सेनापति इकठां-संज्ञा, पु० [हिं० एक + ठाँव स्थान ] एक स्थान, एक जगह। उदा० भूलि सबै सुधि खेलन की,
न घरीक कहूँ एकठां ठहराति है ।
- सोमनाथ इकतो - वि० [सं० एक ] अद्वितीय, बेजोड़ एक ही ।
उदा० काछ नयौ इकतौ बर जेउर दीठि जसोमति रांज करी । —रसखानि इकलाई — संज्ञा, स्त्री० [हिं० + लाई या लोई = पत्त ] चादर, एक पाट का महीन दुपट्टा । उदा० पाय दियौ चलिब को उतें सिर ते इकलाई गिरी रँगसानी | - सोमनाथ इकलासवि० [सं० एकरस ] समान, एक ढंग कियो सबही - ठाकुर
का ।
उदा० कुबरी - कान्हर को इकलास विधि खूब है अल्ला । इकहाऊ— क्रि० वि० [सं० एक + हि० हाई, प्रत्य] एक बारगी, एक साथ, अचानक । उदा० त्यों पद्माकर भोरी झमाइ सु दौरों सबै हरि पै इकहाऊ । - पद्माकर
—घनानन्द
इकसे - वि० [सं० एक + आवास ] अकेले 1 उदा० सौतिन तें पिय पाय इकौंसे भरे भुज सोचसकोच निवारे । इचनि – संज्ञा, स्त्री० [ ? ] आकर्षण, खिंचाव 1 उदा० नीकी नासा पुट ही की उचनि अचंभे भरी, मुरि कै इचनि सों न क्यौंहू मन तें मुरं ।
—घनानंद इजाफा -संज्ञो, पु० [अ० इज़ाफ़ा ] वृद्धि, बढ़ती । उदा० ग्वाल कवि कहे प्याला, बाला ये दुहून ही
-ग्वाल
में, सबही ने जान्यौ ठीक आनंद इजाफा सौ । इजार संज्ञा, पु० [फा० इजार ] पायजामा, सूथना ।
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