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-गंग ।
देत ।
वितन
वृषेस लंकहू को अधिपति बिपति वितंड में। । विरचावना-क्रि० सं० [सं० वि+रंजन] उचा
टना, उदासीन करना, विरक्त करना । वितन-संज्ञा, पु० [सं०] विनातन का, विदेह, उदा० घोर घने गरज घन ए ससिनाथ हियो कामदेव ।
विरचावन लागे।
-सोमनाथ उदा० ग्रीषम मैं गति सिसिर बन, निबिड द्यौस विरज-वि० [सं० वि+रज] विकार रहित,
अंधियार । मुख उजियार करत तहाँ दंपति स्वच्छ, निर्मल। वितन विहार।
-नागरी दास उदा० रावरी चरन रज सेवत सुरेस अज जोगी विदेह-संज्ञा, पु० [सं०] १. कामदेव २.. जनक
जे विरज, सबै सैल लता द्रुम ही। जी ।
-देव उदा० १. देव नयो हिय नेह लगाय, विदेह कि
कंस महाराज को रजकु राजमारग मैं अचिन देह दहयो करै।
-देव
अंबर विरज लीने रंग रंग गहिरे। विद्याधर-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवताओं की एक
___--. देव जाति .. विद्वान ।
विष - संज्ञा, पु० [सं०] १. जल २. जहर । उदा० कवि कुल विद्याधर, सकल कलाधर, राज उदा० १. विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल राज वर वेश बने । -केशव
-केशव विद्वोत-वि० [सं० विदित] विदित, ज्ञात, विषमहय-संज्ञा, पु० [सं०] विषम अश्व वाला, मालूम ।
सप्तहय, सूर्य । उदा. मरदन सिंह महीप सुत, बैस बंस विद्वोत उदा० प्रगट भयो लखि विषमहय, विष्नुधाम करौ सिंह उद्दोत को, राधा हरि उद्वोत ।
सानंदि । सहसपान निद्रा तज्यो, खुलो -देव पीतमुख बंदि ।
-दास विधिवधू-संज्ञा, स्त्री० [सं.] ब्रह्मा की पत्नी | विषमेषु-संज्ञा, पु० [सं० विषम +इषु] कामदेव सरस्वती ।
मन्मथ । उदा. देव यही मन आवत है सविलास वधू विधि उदा. डासी वा बिसासी विषमेषु विषधर, उठे _ है बहुधा की ।
आठहूँ पहर विष विष की लहरि सी। विपंची-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की
-देव वीणा २. क्रीड़ा, खेल ।
विषै-अधि० [सं०] में, प्रधिकरण कारक की उदा० १. नवल बसंत धुनि सुनिये विपंची नाद विभक्ति ।
पंचम सुरनि ठानि, मोठनि अमेठिये ।-देव उदा० दमु ना मिलत जमुद्तन के देह विर्ष, विमन-वि० [सं० वि+मन] खिन्न, उदासीन ।
-ग्वाल उदा० ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की,
डासी वा बिसासी विषमेषु, विषधर उठे विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी ।
पाठहू पहर विष विष की लहरि सी।-देव
--देव वीछन-संज्ञा, पु० [सं० वीक्षण] दृष्टि, चितवन, विमान-वि० [सं. वि+मन] मान रहित, गवं देखना । रहित ।
उदा० तीछन वीछन बाननि तानति, भौंह कमान उदा०ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की. - तनी मुख चंद पै ।
-देव विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी। वृख-दण्ड संज्ञा पु० [सं० वृक्ष दण्ड] लकड़ी
-देव का डंडा। विरंग-वि० [सं०] बदरंग, बुरारंग, फीका । उदा० व्याधि को बैद, तुरंग को चाबुक, चीपग उदा. ग्वाल कवि कहै तेरे विरही विरंग ऐसे
को वृख दण्ड दियो है।
-गंग गिरही तिहारे तें बरगने रिस जोरे हैं। वृषेस-संज्ञा, पु० [सं० वृषेश] नांदिया, शंकर
--ग्वाल __का वाहन । विरंदन-संज्ञा, पु [सं वृन्द] वृन्दों, समूहों।। उदा० सेस भले देस औ महेस के वषेस भले उदा० कवि 'सुरति' जे सरनागत पाल हैं, दायक । भ्रमत भवानी को भुलानो वृषकेत है। सुक्ख विरंदन के । -सूरतिमिश्र
-चन्द्रशेखर
-देव
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