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बिदु
बिदुश्रा - वि० [सं० विद्] चतुर, विद्वान उदा० बिंदुप्रा प्रवीन विद्या प्रकास । सो रहहि सदा अवनीस पास ।
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— बोधा बिदेह– संज्ञा, पु० [सं० बिदेह ] कामदेव, मन्मथ । उदा० देवजू बिदेह दाह देह दहकति आवै, आँचल-पटनि ओट आँच लपटन की । - देव स० [सं० वेधन] फँसाना,
बिधाना- क्रि० विधाना । उदा० बाहन बिधाये बांह जघन जघन मांह, कहै छोड़ो नाह नाहि गयो चाहे मुचिकै । —देव बिधूप - संज्ञा, पु० [सं० बधूक] बंधूक कुसुम, गुलदुपहरिया का पुष्प जो अत्यंत लाल होता है । उदा० सब गोपिन लाइक जो धूप | है अधरामृत निदरन बिंधूप ॥
- सोमनाथ विनष्ट
बिनठाना- -क्रि० स० [सं० विनष्ट ] करना, दूर करना । उदा० नागरि नारिनु की मनुहारि निहारिबो ग्वारिनु को बिनठायो ।
- देव
भर
बिनाना - क्रि० अ० [सं० विज्ञान] गर्व से जाना, अनजान होना । उदा० साथी महाहय, हाथी, भुजंग, बछा, वृष, मातुल मारि बिनाने। ... देव बिपच्छ-संज्ञा, पु० [सं० विपक्ष ] शत्रु, दुश्मन | उदा० कच्छी कछवाह के विपच्छ के बच्छ पर पच्छिन छलत उच्च उच्छलत अच्छे हैं ।
—पद्माकर
बिपट - वि० [हिं० बे+सं० पट ] बिना वस्त्र के, लज्जाहीन, मर्यादा रहित । उदा० पटकत मटुकी झटकि झटकत पट, बिपट छटकि छूटो लट सुलटकि कै
बिपोहना- क्रि० प्र० [ ? ] नष्ट
डालना ।
उदा० ज्योति जगे यमुना सी लगे लालित पाप बिपोहै ।
श्रालम
[सं० प्रपल-पलक ] निर्निमेष, उदा० पल पल पूंछत बिपल दृग मृगनैनी आये न कमल नैन लाई धौं अलपरी ।
बिपल - वि० एकटक ।
—देव करना, छेद
जग लोचन —केशव
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बिरकत
विप्लवन] विद्रोह
बिफरना - क्रि० अ० [सं० करना, उपद्रव करना २. नाराज होना, बिगड़ जाना ।
उदा० सम्हरि उठत घनप्राँनद मनोज-ओज, बिफरत बावरें न लाजनि घिरत हैं ।
-घनानन्द
बिबगति – संज्ञा, स्त्री० [देश०] दशा, हाल । उदा० ती लगि एक सखी उठि बोली सुनु री कुँवरि किसोरी । कहत न बनत सुनत काहू सों अपगति बिबगति मोरी ।
- बकसी हंसराज बिबसन - वि० [सं० वि + वस्त्र] बिवस्त्र, बिना वस्त्र के नग्न ।
उदा० बिबसन बृज बनितान की मृदु काय । चीर चोरि सु रहे मुसक्याय ।
लखि मोहन कदंब पै कछुक
—पद्माकर
बिबि वि० [सं० द्वि०] दो, द्वि उदा० सुफल मनोरथ ह्ल सुफल सुत रथ हाँक मथुरा के पथ साथ बिबि वीर लँ । —देव बिबूचन संज्ञा, पु० [सं० विवेचन ? हिं० बिगूचन] संकट, कठिनाई, दिक्कत । उदा० ना बित्तहि तूं तृनवर गर्ने । बहुत बिबूचे तोंसे घने । -केशव बिभात संज्ञा, पु० [सं० विभात ] प्रभात, सुबह । उदा० जाने न बिभात भयों केसव सुन को बात, देखौ श्रानि गात जात भयो किधौं असु है । केशव
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विभ्रम-संज्ञा, पु० [सं० बिभ्रम ] जल का श्रावत्त', चक्कर २. भ्रांति, धोखा । उदा० केसवदास जिहाज मनोरथ; संभ्रम बिभ्रम भूरि भरे भय । केशव बिमनेन वि [सं० विमनस्क ] उदासीन, व्यथित । उदा० हौ मनमोहन मोहे कहूँ न बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम । बिमुद वि० [सं० वि + मुद] मोदरहित, श्रानन्द रहित ।
—घनानन्द
—पद्माकर
उदा० बिमुद कुमुद लौं ह्व' रही चंद मंद दुति देखि । बियो - वि० [सं० द्वि०] दूसरा । उदा० भारद्वाज बसें जहाँ जिनते न बियो ।
पावन है - केशव
बिरकत - वि० [सं० विरक्त ] विरक्त, उदासीन । उदा० अनहित तें बिरकत रहत कछू दोस के