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बाहिबो
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बाहिबो - क्रि० स० [सं० वहन ] चलाना । उदा० 'ग्वाल कवि' कठिन बिसाहिवी दुसह दुःख कोऊ कहै बाहिबौ कठिन श्रसि-मेह कौ ।
--ग्वाल
छिद्र, विल
बिउर - संज्ञा, पु० [सं० विवर] कुंड, कन्दरा |
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उदा० उर सम शिला उदर कटि बिउर सम गाई ।
बिगचना- क्रि० प्र० [?] पछाड़ खाना । उदा० मोहन लखि यह सबनि ते है उदास दिन रात उमहत हँसति बकति डरति बिगचति बिलखि रिसाति । - रसलीन बिगूँचना - क्रि० स० [सं० विकुंचन ] दबोच लेना, धर दबाना | उदा० ले परनालो सिवा सरजा करनाटक लौं सब देस बिगूंचे । - भूषण बिगोना- क्रि०स [सं० विगोपन ] भ्रम में डालना, नष्ट करना, छिपाना ।
उदा० ताहि बिगोय सिवा सरजा भनि भूषन अल्लिफ तैं यों पछायो । -भूषण बिचरना क्रि० प्र० [सं० विचरण ] - श्राना, उत्पन्न होना । उदा० ग्वाल कवि कहैं इक और है अनोखों दुख ताहि कैसे भोग न विचार-विचारत हैं ! बिचौली -संज्ञा, स्त्री० [देश०] गले का एक
-ग्वाल
आभूषण ।
केहरि नाभि - बोधा
उदा० तिनके बीच बिचौली चमकै अरु छूटा छबि छाई । हरे पोत की गरे मटुकली चटकन बरनी जाई । —बकसी हंसराज बिजना— संज्ञा, पु० [सं० व्यजन] पंखा । उदा० बीजनों दुरावती सखीजन त्यों सीतहूँ मैं । देव पठयो लगे वा बिजना - बिहारी बिच] दूसरा,
भजे
हितकरि तुम की बाय । बिजा - वि० [सं० द्वि० हिं० दो ।
उदा० एक कों छोड़ि बिजा कौं कटौ उस लब्बर की । बिझाना - क्रि० स० [हिं० बेझना ] निशाना लगाना । उदा० श्याम सरोरुह सुन्दर गात बिलोकनि बान निसंग बिभावे । -चन्द्रशेखर बिझुकना - क्रि० प्र० [हिं० झाँका ] भयभीत
रसना सु गंग बेधना,
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होना, भड़काना, डरना ।
उदा० विष सों बिभूकि भूकि प्राय प्रान भूकि मूकि, व्याल मुख थूकि, कढ़े बाल कूकिकि के 1 - देव बिझुकी - नि० [हिं० विचकना ] तनी हुई, वक्र, टेढ़ी | उदा० नेह उर से नैन देखिबे को बिरुभे से बिझुकी सी भौंहें उनके से उरजात हैं । केशव बिठाना - वि० [सं० वेष्टित ] — वेष्टित, युक्त । उदा० तला तोयमाना भए सुख्ख माना । कलंगी बिठाना तिलंगी नठाना । -केशव बिड़ -- संज्ञा, पु० [सं० विट] चूहा मूस । उदा० उरभि उरभि गिरि भाँख रहे भाखरनि, बेलिन में बाँधे सृग बाल बिड़ बावरनि । गंग बितानना- क्रि० स० [सं० वितान] फैलाना, विस्तार करना ।
उदा० हियराहि में दुराइ गृह काजनि बितानती ।
बिदरैया
-दास
बिताना- क्रि० स० [सं० व्यतीत] समाप्त
करना, नष्ट करना २. घटना, पड़ना । उदा० १. दै जा दिखाई री के जा निहाल बितै जा बियोग चितंजा चितेजा । —ठाकुर बैठी सजि सुंदरि सहेलिनि समाज बीच बदन पे चारुता चिराक की बिते प्रतापसाहि रही ।
धनि धनि कहत दिगंतन के इस नेक, जाकी बकसीस दुख दारिद बितौत है । — ठाकुर विस्तार ] प्रसार,
बितार -संज्ञा, पु० [सं० फैलाव, विस्तार । उदा० तारन को अवतारन जाने हौ जू में । बितौना-क्रि० स० [सं० बढ़ाना, विस्तार करना । उदा० तिरछे चितौने सो लगी होने लगी तन की सी । बिदरैया - वि० [सं० विदीर्णं ! हि० अइया ( प्रत्य० ) ] विदीर्ण करने वाली, नष्ट करने वाली, विदारक ।
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लेत बितारन सेतुनि
- देव
वितान ] फैलाना,
बिनोदनि बितौने चटक चारु सोने - दास
उदा० दुरित दरैया बिदरैया बदराहन की जुलुम जरैया टेक जम की टरेया तू
-ग्वाल