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बिरचौहैं ( १७२ )
बिसाति बास । बिहित करत सु न हित समुझि | उदा० वा मनमोहन को वह मोहन सोहन सुन्दर सिसुवत जे हरिदास ।
- पद्माकर रूप बिरोधो ।
-देव बिरचौहैं-वि० [सं० विरचन] १. विशेष प्रेम- बिरोषि क्रि० वि० [सं० वि+रोष] विशेष मय, अनुरागमय २. उदास, खिन्न ।
रोष पूर्वक । उदा० १. बारिज बदनि बिरचौहैं बैन बानी / उदा० अालम देह सदेह वियोग बिरोषि दल सुख वाकी, बिपनु बचन सुनि विरचि रहति
सम्पति लूटै।
-पालम -आलम बिर्यो-सर्व० [सं० विरला] विरला, कोई । २. घोर घनै गरज घन ये ससिनाथ हिये उदा० सुपूत के होत सुपूत बिर्यो इमि होइ बिरचावन लागे । __ ---- सोमनाथ सुपूत सपूत के ऐसौ ।
-केशव बिरज--बि० [सं० विरज] धूलरहित, स्वच्छ बिलेस--पति- संज्ञा, पु० [सं० बिल+ईशसाफ ।
सर्प+पति - शेषनाग] शेषनाग । उदा० कंस महाराज को रजकु, राजमारग मैं । उदा० सूरज बिलानो, बिलबिलानो बिलेस पति अम्बर बिरज लीने रंग रंग गहिरे ।
कूरम किलबिलानो कूरम के गौन ते । - -देव
-गंग बिरतंतना-क्रि० अ० [हिं० बिरमना] १. बिर- बिलोक-संज्ञा, पु० [सं० द्विलोक] दूसरा लोक,
मना, ठहरना, रुकना २. वृत्तांत [संज्ञा, पु.] ।। सुरलोक । उदा० घर कंत नहीं बिरतंत भटू अबकै धौं । उदा० कौन गनै यहि लोक तरीन बिलोक___बसन्त कहा करिहै ।
---बोधा बिलोकि जहाजन बोरै।
-केशव बिरत्थ -वि० [सं० व्यथ] व्यर्थ, बेकार ।
ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यों मिल्यो बिलोक । उदा० पै ए दोऊ बात निह पाहि बिरत्थ हैं।
-केशव ___ नव जोबन गुन गात, प्रतिपल मनमथ | बिसंकुर - संज्ञा, पु० [?] खंजन पक्षी। बाढ़ई ।
-सोमनाथ उदा० बिसद बिसंक ह्रबिसंकुर चरत । -देव बिरम-संज्ञा, पु० [सं० विलंब] विलंब, देर । बिषधर-संज्ञा०, पु० [सं०.विषधर] १. शंकर उदा० हा हा हा फिर हा हा सुखनिधि बिरम न । २. सर्प। जात सहयो।
- घनानन्द Jउदा० १. विषधर बंधु हैं, अनाथिनि को प्रतिबंधु बिराव--संज्ञा, पु० [सं० बिराव] शब्द, बोली, । विष को विशेष बंधु हिये हहरत हैं। कलरव ।
--केशव उदा० कान परी कोकिला की काकलिनु कलित, बिसनी-संज्ञा, स्त्री० [?] कमलिनी। कलापिन की कूके कल कोपल बिराव की । उदा० क्यों जिये कैसी करौं बहरयी विष सी
-देव
बिसनी बिसवासिनी फूली। -केशव मोर करै सोर, गान कोकिल विराब के। । बिसबल्लरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० विसवल्सरी]
--सेनापति कमल की लता। बिराह-वि० [फा० बे+राह कायदा] उदा० कर कंजनि पल्लवनि भुज बिसबल्लरी बेकायदा, बेढंगी, अंडबंड।
सुपास । रत्न तारका कुसुम सर नख रुचि उदा० तेगबरदार स्याह पंखाबरदार स्याह
केसवदास ।
-केशव निखिल नकीब स्याह बोलत बिराह को । बिसबीस-वि० [हिं० बीसोबिस्वा] बीसोबिस्वा,
--भूषण ___ सम्पूर्ण । बिरोचन-संज्ञा, पु० [सं० विरोचन] १. सूर्य, उदा. 'दास' लला की निछावरि बोलि जु मांगे २. अग्नि , ३. प्रकाश ।
सु पाइ रहे बिसबीसनि ।।
-दास उदा. लोचन बिलोल यो बिरोचन उए हैं कौल बिसरु-संज्ञा, पु० [सं० बिशर] बध, कत्ल । अठिलात बोलि अंकमालिका लगावहीं ।। उदा०करि बह बिसरु सत्रु कै जाय। जुद्ध काल
-भूषण भागे महराय ।
-केशव बिरोधना-क्रि० सं० [सं० वि+रोधन] विशेष | बिसाति-- संज्ञा, स्त्री० [अ० बिसात] १. पूंजी, रूप से अटकाना, फसाना, रोकना।
। धन, वित्त २. आधार, वह वस्त्र जिस पर
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