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पलंकाचार ( १४६ )
पसे पलकाचार-संज्ञा, स्त्री० [सं० पर्यक+आचार] | उदा० पचरंग पाट बिचित्र पवित्रा पहिरें मोहन बरात की एक रीति जिसमें बरातियों के
मदन गुपाल ।
-घनानंद सुलाने की व्यवस्था की जाती है।
पशुपति-संज्ञा, पु० [सं०] १. शंकर २. अश्वउदा० सब बरात रघुदत्त ने बुलवाई तिहिबार शाला. गजशाला आदि के स्वामी।
सजि सजि क मंडफ गये करिबे पलका उदा० गणपति सुखदायक, पशुपति लायक, सूर चार ।
-बोधा सहायक कौंन गनै ।
-केशव पलपंगत-संज्ञा, पु० [सं० पल+पंक्ति] मांस | पषवारे-संज्ञा, पु० [सं० पक्ष+हिं० वाले का ढ़ेर, समूह।
(प्रत्य॰)] पक्षधर, पक्षी, चिड़िया। उदा० हरबरात हरषात प्रमथ परसत पलपंगत । उदा०-भज्जे घरवारे ज्यौ पषवारे ।
-पद्माकर बहु वारे भौ भारे ।।
-सूदन पलल-संज्ञा, पु० [?] कमल, सरोज ।
पषा-संज्ञा, पु० [सं० पञ्च] दाढ़ी, श्मश्रु । उदा० लसत इंदू तें अधिक मुख परम अमल वह उदा० रघुराज सुनत सखा सो पषा पोंछि पाणि,
बाल । लखो सुताल लहयो तरल लजित त्रिसरवा त्रिशूल लिये चख अरुणारे हैं। पलल छबि लाल । -काशिराज
-रघुराज पलास-संज्ञा, पु० [सं० पलाश] १. माँसाहारी पसगैयत-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] अनुपस्थिति में, २. ढाक, टेसू ।
पीठ पीछे । उदा० फूलेना पलास ये पलास कै बसन्त बाज उदा० श्री वृषभानु राय ब्रज मंडल और बसत काढ़ि के करेजा डार डारन पै डारिगो।।
सब रैयत । तुमहें सुनी होयगी लालन ये -. नंदराम बातें पसगैयत ॥
-बकसी हंसराज पलासी--संज्ञा, पु० [सं० पलाश] राक्षस, प्रेत, पसनी-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राशन ] प्रथम बार २. मांसाहारी।
बच्चों को अन्न खिलाये जाने वाला अन्न प्राशन उदा० खोपरा लों खोपरिन फोरै गलकत गद् नामक एक संस्कार । पोरी लों पलासी खाल खैचि-बैचि खात उदा० भै पसनी पुनि छठय मासा । बालक बढ़ यो ___ -मुरलीधर भानु सम भासा ।
-रघुराज पलीत-संज्ञा, पु० [फा० फलीद] १. भूत, प्रेत पसमीनन--संज्ञा, पु० [फा० पश्म ] बढ़िया
२. दुष्ट, नीच ३. गंदा, अपवित्र [वि.] मुलायम ऊन के द्वारा बने वस्त्र, दुशाले । उदा० चाम के दाम गुनीन के आम यों विस्वा उदा० फेर पसमीनन के चौहरे गलीचन पै सेज को प्रीति पलीत को मेवा । -बोधा
मखमली सोरि सोऊ सरदीसी जाय । पवर-वि० [सं० प्रवर] श्रेष्ट, उत्तम ।
--ग्वाल उदा० नख गाँसी, सर-आँगुरी, कर पग चारु । पसर-संज्ञा,पु० [सं० प्रसर] १. धावा, आक्र
तुनीर ।। मरण, प्रसार, फैलाब । दसौं दिसनि जिन बरजिते, पवर पंचसर बीर ॥ उदा० कैसे ग्वार बाल कैसो ठहरै पसर कीने
-मतिराम
सावधान भये चाव चलत न चोरी को। पवारी-संज्ञा, पु० [सं० प्रबाल] मूंगा। उदा० रंगपाल भूषण विभूषित अरुण जीते पदुम पसरना-क्रि० अ० [सं० प्रसरण ] घेरना,
पवारी बीरनारी के बरण हैं।-रंगपाल छेकना, बढ़ना ।। पवि-संज्ञा, पु० [प्रा० पब्बय, सं० पर्वत] १. उदा० मानन को कंज जानि दिन में भँवर घेरें पर्वत, पहाड़ २. वत्र ।
चंद जानि रैन मैं चकोर पसरत हैं। उदा० १. तहाँ जाइ सखियन के सँग पवि सोभा
-ग्वाल निरखन लागी । चन्द्रक चूर समान-बालुका पसे-संला, पु० [हिं० पसर ] पसर, प्राधी
भानु किरनि सौं जागी।" -सोमनाथ अंजली । पवित्रा - संज्ञा, स्त्री० [सं०] रेशमी दानों की उदा० कहि कबि गंग तीन लोक की तिहारी माला जो कुछ धार्मिक अवसरों पर पहनी जाती
संपै, इनके तौ तंदुलऊ तेऊ तीन पसे हैं।
--गंग
-ठाकुर
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